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Tuesday, December 9, 2014

//थाँके टिपे नी काँईं ?//


प्र

त्येक बोली-भाषा में कुछ अनोखे शब्द होते हैं। मालवी भाषा में देखने के लिए एक खास क्रिया का प्रयोग होता है- ‘टिपना’ जैसे- “थाँके कम टिपे काँई?” अर्थात तुझे कम दिखता है क्या? यह ‘टिप’ कहाँ से आ रहा है? गौर करें प्रचीनकाल से ही ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सूर्य रहा है। अन्तरिक्ष की ओर ताकना प्रागैतिहासिक काल से मनुष्य का प्रिय शगल रहा। ऊष्मा, ऊर्जा, चमक ये सब अग्नि के गुणधर्म हैं। सूर्य उगने पर ही मनुष्य के सामने दृष्यजगत उजागर होता था। हमें कुछ भी दिखता इसलिए हैं क्योंकि वह प्रकाशित है। यानि प्रत्येक वस्तु में कुछ न कुछ भासित है क्योंकि वह दीप्त है। व्ह जो दीप्त है उसे हिन्दी में दिपना कहते हैं| यही मालवी का टिपना है| दिपना-टिपना के ज़रिये जानते हैं हिन्दी के कुछ बेहद प्रचलित शब्दों के बारे में। 

हर भाषा में किन्हीं ध्वनियों में बदलाव का अलग अंदाज़ होता है जिससे शब्दों का विकास होता है। हिन्दी-ईरानी में एक ही वर्णक्रम की ध्वनियों में बदलाव होता जाता है जैसे ‘प’ और ‘व’ में परस्पर बदलाव होता है। उदाहरण के लिए वैदिक शब्द ‘तप्’ को लें जिसमें अग्नि, चमक, ऊर्जा के साथ कष्ट, साधना, अभ्यास का भाव भी है। इससे ही तपस्वी, तपस्या, तापस जैसे शब्द बने। ‘तप’ का विकास ताप है। हिन्दी-फ़ारसी में ‘ताप’ से ‘ताव’ बनता है जिसमें गर्मी का भाव है। ‘ताव’ से ही मालवी-राजस्थानी में ‘तावड़ा’ बनता है यानी धूप। ‘तपः’ का एक रूप फारसी में तबाह बनता है जिसका अर्थ है बर्बादी, विनष्ट, जर्जर, ध्वस्त, निर्जन, वीरान आदि। समझा जा सकता है कि किसी जमाने में अग्नि से जुड़ी विभीषिका को ही तबाही कहा जाता रहा होगा।

हम जिसे दिन कहते हैं उसका एक रूप दिवस है। दिवस का मूल दिव है। गौर करें, यह दिव दरअसल दिप् रहा होगा और यह भी कि तप, ताप जैसे शब्द इसी दिप् से विकसित हैं। वैदिकी में दिप् नहीं है, दीप् क्रिया है किन्तु इसका पूर्वरूप दिप् ज़रूर रहा होगा क्योंकि कालान्तर में ऐसे अनेक वैदिक-संस्कृत शब्दरूप बने जिनका मूल दिप् ही सिद्ध होता है। यही दिप्, टिपना क्रिया का मूल है। ख्यात भाषाविद् डॉ रामविलास शर्मा “भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश-1” में ऋग्वेद के तपस् /तवस रूपों की चर्चा करते हैं। तपस् जो ऊष्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ तथा तवस् जिसका प्रयोग ऊर्जा, शक्ति के अर्थ में हुआ है, इससे साबित होता है कि दिव् का पूर्वरूप भी दिप् रहा होगा जिससे दीप् क्रिया बनी होगी जिसमें जलना, ऊर्जा, ऊष्मा, चमक, प्रकाश जैसे भाव है और इससे ही दीप, दीपक, दीवाली जैसे अनेक शब्द बने। यह साबित होता है हिन्दी की ‘दिपना’ क्रिया से जिसका अर्थ चमक, प्रकाश या प्रदीपन है। मूल भाव है दिखना। यह न माना जाए कि ‘दिपना’ का अगला रूप ‘टिपना’ है। टिपना ‘टिप’ से आ रहा है और दिपना ‘दिप’ से। ‘दिप्’ के ‘टिप्’ रूप से मालवी की ‘टिपना’ क्रिया बनी।

‘दिप’ में निहित दीप्ति, चमक, प्रकाश जैसे भाव ही ‘टिप’ में भी समाहित है। कोई चीज़ जब चमकती है तो ही नज़र आती है। हाँ, संस्कृत में इसका अर्थविस्तार भी हुआ और इसमें चमक, झलक, दिखाना, व्याख्या जैसे भाव हैं। किसी वस्तु का दीप्तिमान होना या उसका दीपन, प्रदीपन होना ही उजागर होना है। टिप से ही मालवी बोली में ‘टिपना’ शब्द बना जिसका अर्थ है दिखना। हिन्दी में ‘टिप्पणी’ या टीका-टिप्पणी शब्द भी खूब प्रचलित है। टिप्पणी का अर्थ है किसी वाक्य, वस्तु, स्थान अथवा विचार को स्पष्ट करने वाला विवरण। इस में भी मूलतः उजागर करने का ही भाव है और इसीलिए इसे टिप्पणी कहा जाता है।
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Sunday, March 10, 2013

‘बिलंदर’ की बुलंदी

buland

त्रकार एम. हुसैन ज़ैदी की मुंबई माफ़िया पर लिखी क़िताब डोंगरी टू दुबई मराठी अनुवाद पढ़ते हुए एक नए शब्द से साबका पड़ा- बिलंदर। दाऊद इब्राहिम के अंडरवर्ल्ड में बढ़ते असर के संदर्भ में उसे बिलंदर कहा गया। कुछ कुछ अंदाज़ तो था कि इस बिलंद का हिन्दी-फ़ारसी के बुलंद से रिश्ता होना चाहिए। जिसमें पक्का, परम, कारगुज़ार, कद्दावर, असली जैसी अर्थवत्ता है। फ़ारसी शब्द चोला बदल कर जिस तरह से मराठी भाषा में पैठ गए हैं, वैसा हिन्दी में नहीं है। इस पर विस्तार से कभी लिखेंगे, फ़िलहाल बात बुलंद की। हिन्दी में भी बुलंद का एक रूप बिलंद होता है पर यह क़रीब-क़रीब अप्रचलित है। हिन्दी फ़ारसी में जहाँ बुलंद, बुलंदी में सकारात्मक भाव हैं वहीं वहीं मराठी के बिलंदर में आमतौर पर ठग, लुच्चा, चोर, भामटा या नीच जैसी अर्थवत्ता है। अर्थात बुलंद में निहित तमाम विशेषताएँ निम्न श्रेणी में प्रयुक्त होती हैं। हालाँकि सकारात्मक प्रयोग भी होता है पर कम है। देखा जाए तो बिलंदर का इस्तेमाल हिन्दी में किया जा सकता है।
हिन्दी-उर्दू के बुलंद, बुलंदी में ऊँचाई, उच्चता का भाव है। बुलंद इरादे, बुलंद हौसला जैसे वाक्याँश की मुहावरेदार अर्थवत्ता से यह ज़ाहिर है। इसके अलावा गुरुतर, भव्य, शीर्ष, उत्तुंग, मुख्य, भारी, प्रमुख, प्रतिष्टित, प्रतापी जैसे आशय भी इसमें हैं। मराठी में बुलंद अल्पप्रचलित है और बिलंद, बिलंदी या बिलंदर जैसे शब्द यहाँ मौजूद हैं। बिलंद रूप हिन्दी में भी है। बिलंदर मराठी का अपना आविष्कार है। फ़ारसी में बिलंदर नहीं है। वहाँ बुलंद ही चलता है। तब भी शुद्धता के नज़रिये से बलंद उच्चार ज़्यादा सही माना जाता है। बुलंद फ़ारसी ज़बान का शब्द है और इसके मूल में जो उच्चता, श्रेष्ठता, परम या खरा असल जैसा भाव है इसका रिश्ता बहुत गहराई से न सिर्फ इंडो-ईरानी भाषा परिवार से जुड़ता है बल्कि इसकी अर्थछायाएं पश्चिम एशियाई सांस्कृतिक आधार वाली भाषाओं यानी सुमेरी ( मेसोपोटेमियाई), बाबुली (बेबिलोनियन) और इब्रानी (हिब्रू) में भी नजर आती है।
सुमेरी यानी मेसोपोटेमियाई भाषा में यह शब्द बेल है और हिब्रू में बाल Baal के रूप में मिलता है। बाल शब्द बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी अर्थवत्ता बहुत व्यापक है जिसमें शीर्षस्थ, प्रकाशमान, ऊपरी, बड़ा, परम शक्तिमान, भव्य, देवता अथवा स्वामी जैसे भाव समाए हैं। हिन्दी, उर्दू व फारसी में भी यह प्रचलित है। बाल में निहित ऊँचाई दूध की ऊपरी परत बालाई में नज़र आती है। हिन्दी में इसे मलाई कहते हैं जो फ़ारसी बालाई से ही बना है। लोगों को रत्ती भर खबर हुए बिना अंजाम दी गई कारगुजारी को बाले बाले (बाला) कहते हैं। यहाँ ऊपर ऊपर मामले को निपटाने का भाव ही प्रमुख है। पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाखाना कहते थे। बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान या कोष्ठ। अग्रेजी की बालकनी में भी ऊँचाई का ही भाव है और बालाख़ाना से बालकनी का ध्वनिसाम्य भी गौरतलब है।
सुमेर और अक्कादी मूल से उठ कर ही बाल शब्द फ़ारसी में भी दाख़िल हुआ। बाला ऐ ताक़ का अर्थ है किसी चीज़ को ऊपर रख देना। बालानशीं का अर्थ होता है सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च, सर्वोत्तम। मराठी में कही हुई बात, उल्लेख, ज़िक़्र, चर्चा के लिए फ़ारसी के मज़क़ूर शब्द का खूब प्रयोग होता है। उर्दू में मज़क़ूरे-बाला टर्म का प्रयोग ‘उपरोक्त’ यानी ऊपर लिखी हुई बात की तर्ज़ पर किया जाता है। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की ‘भ’ ध्वनि फारसी, ईरानी समेत सेमिटिक भाषाओं में जाकर ‘ब’ में बदलती रही है। संस्कृत के भर्ग में भी ऊँचाई का भाव है। इसका फारसी रूप बुर्ज होता है जिसका अर्थ मीनार या ऊंचा गुम्बद है। बुर्ज का huangshan ही यूरोपीय भाषाओं में बर्ग, बरो में रूपांतर होता है। कई स्थान नामों में यह जुड़ा नजर आता है। प्राचीन मनुष्य की शब्दावली और उसकी अर्थवत्ता का विकास प्रकृति के अध्ययन से ही हुआ था।
प्रायः ऊँचाई को इंगित करनेवाले शब्दों का मूलार्थ रोशनी, चमक, दीप्ति था। प्रकाशमान वस्तु के रूप में मनुष्य ने आसमान में चमकते खगोलीय पिण्डों को ही देखा था। पूर्व वैदिक भाषाओं में ‘भा’ ध्वनि में इसीलिए ऊंचाई के साथ चमक, कांति का भाव भी निहित है। संस्कृत के भर्गस् में एक साथ चमक, प्रकाश, भव्यता का भाव निहित है। The Nostratic macrofamily: a study in distant linguistic relationship पुस्तक में एलन बोम्हार्ड, जॉन सी कर्न्स ने विभिन्न भाषा परिवारों में प्रकाश और ऊंचाई संबंधी समानता दर्शानेवाले कई शब्द एक साथ रखे हैं। प्रोटो एफ्रोएशियाटिक भाषा परिवार की धातुओं bal और bel का अर्थ भी यही है और प्रोटो सेमिटिक के bala / bale में भी यही भाव है।
स्पष्ट है कि प्राचीन भारोपीय ध्वनि भा यहां बा में बदल रहा है। गहराई से देखें तो भा ध्वनि में निहित चमक का भाव विभा, विभाकर, भास्कर जैसे शब्दों में साफ है। तमिल-तेलुगू के pala pala में भी कांति, दीप्ति, चमक का भाव है। भा के बा में बदलने की मिसाल वजन के अर्थ में हिन्दी के भार और फारसी के बर या बार (बारदान, बारदाना, बोरी) से भी स्पष्ट है। ध्यान दें, बहुत महीन अर्थ में यहां भी ऊँचाई का भाव है। जिसे ऊपर उठाया जाए, वही भार है। अंग्रेजी के बर्डन में यही बार छुपा हुआ है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। रूस की बोल्शेविक क्रांति दुनिया में प्रसिद्ध है। बोल्शेविक का शाब्दिक अर्थ हुआ बहुसंख्यक। मगर इसमें भी बाल यानी सर्वशक्तिमान की महिमा नजर आ रही है।

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Saturday, February 9, 2013

होशियारी की बातें

ganesha

हि न्दी के प्रचलित शब्द भंडार में होशियार, होशियारी जैसे शब्द भी हैं जिसका इस्तेमाल रोज़मर्रा की भाषा में खूब होता है । होशियार शब्द दरअसल फ़ारसी मूल से भारतीय भाषाओं में दाख़िल हुआ है जिसका प्रयोग बतौर विशेषण सजग और बुद्धिमान के अर्थ में किया जाता है । चतुर, निपुण, कुशल, सावधान, समझदार और दक्ष की व्यंजना भी इसमें निहित है । होशियारी एक संज्ञा है और इसकी अर्थवत्ता में होशियार के सभी गुण शामिल हैं । हिन्दी में होशियार के होश्यार, हुशियार, होश्यार, हुस्यार, होशयार जैसे रूप प्रचलित हैं । मराठी में इसे हुशार कहा जाता है ।
होशियार या होशियारी के मूल में फ़ारसी का होश है जो इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । जोसेफ़ एच पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स में उषी शब्द है । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका पहलवी रूप हुश या होश है जबकि डी.एन.मैकेन्जी की पहलवी डिक्शनरी के मुताबिक अवेस्ता उशी का पहलवी रूप ओश होता है जिसका एक अर्थ है ज्ञान, बोध, दूसरा अर्थ है मृत्यु और तीसरा अर्थ है उदय, प्रभात, सवेरा आदि । भाषाविज्ञानी एकमत है कि उशी, ओश जैसे शब्द वैदिक भाषा के उषः, उषा जैसे शब्दों के समरूप हैं जिसमें प्रभात, उदय या सवेरा का भाव है । वैदिक उष् धातु में ताप, तपाना जैसे भाव भी हैं । पहलवी ओश में पूर्व दिशा का भाव भी है । सूर्योदय के साथ ही ताप का एक नाम उष्मा भी है । उष्मा के मूल में भी यही उष् है । उष्मा से प्रकाश निकलता है । प्रकृति में उष्मा और प्रकाश का आदिप्रतीक सूर्य ही है जो पूर्व दिशा से उगता है । यही सारे संकेत वैदिक उष और पहलवी ओश में हैं ।
फ़ारसी में आकर ओश का रूपान्तर होश होता है और इसमें ज्ञान, बोध जैसे भाव स्थायी हो जाते हैं तथा सूर्योदय, प्रभात जैसे भाव इसमें से विलीन हो जाते हैं । पहलवी में सतर्क, जागरुक, सचेत के लिए ओशयार (osyar) शब्द है । इसका अगला रूप फ़ारसी का होशयार है । हिन्दी-उर्दू में यह होशियार बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह के कोश में होश का अर्थ बुद्धि, समझ, अक़्ल, चेतना, संज्ञा, ख़बरदारी, विवेक, तमीज़ और नशे में उतार की अवस्था जैसे अर्थ बताए गए हैं । होशयार शब्द में जो यार है वह भी इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । यार शब्द का अर्थ है मित्र, दोस्त, बंधु, सखा, साथी आदि। यार शब्द की अर्थवत्ता में प्रेमी, आशिक , माशूक भी समाए हैं। इसके अलावा यह शब्द मददगार, सहायक का भाव भी रखता है। जॉन प्लैट्स के उर्दू इंग्लिश हिन्दुस्तानी कोश के मुताबिक यार शब्द की संभावित व्युत्पत्ति जारः से बताई गई है। संस्कृत के जारः शब्द में मूलतः प्रेमी, आशिक, उपपति का भाव है। किसी स्त्री के आशिक के अर्थ में जारः शब्द की अर्थवत्ता फारसी के यार में भी कायम है । यार शब्द बाद में सामान्य मित्र के अर्थ में समाज में रूढ़ हुआ । फ़ारसी का बे उपसर्ग लग कर बेहोश शब्द बनता है जिसका अर्थ है जिसमें चेतना न हो, अचेत ।
होशयार का अर्थ है जिसकी अक्ल से दोस्ती हो । अक़्ल का दुश्मन मुहावरा भी हिन्दी में प्रचलित है । ऐसे व्यक्ति के लिए उर्दू में होशबाख़्त शब्द है । इसके अलावा होशमंद, होशमंदी जैसे शब्द भी प्रचलित हैं । होशरुबा शब्द का अर्थ है चेतना हर लेने वाला, होश उड़ा देने वाला । हिन्दी में होशो-हवास पद भी खूब प्रचलित है । यह संकर पद है अर्थात होश फ़ारसी से आया है और हवास अरबी से । हवास शब्द अरबी धातु हा-सीन-सीन से बना है (ح س س ) जिसमें स्पर्श, संवेदना या समझ का भाव है । इससे बने हास्सः का अर्थ होता है इन्द्रियाँ जो स्पर्श, संवेदना की वाहक हैं । हास्सः का बहुवचन है हवास । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक इसका अर्थ है इन्द्रियाँ, संवेदना, चेतना, संज्ञा, होश आदि । ज़ाहिर है होश-हवास में वही भाव है जो हिन्दी के सुध-बुध में है । सुधि और बोध दोनो जहाँ स्थित हो वही होश-हवास की स्थिति है ।
होश से जुड़े अनेक मुहावरे व कहावतें हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे होश उड़ना, होश गुम होना या होश फ़ाख़्ता होना । इन सभी में भय, आशंका, चिन्ता या फ़िक़्र से सुध-बुध खोने या डर जाने की अभिव्यक्ति होती है । होश आना यानी ग़लती सुधार लेना, समझदार हो जाना आदि । होश दंग होना यानी चकित रह जाना । होश ठिकाने आना अर्थात सबक मिलना, बुद्धि जाग्रत होना, अधीरता या व्याकुलता मिटना, होश की दवा करना यानी अक्ल हासिल करना, समझदारी पाना आदि ।

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Sunday, December 9, 2012

सुरख़ाब के पर

surkhab

कि सी अद्वितीय गुण, ध्यान आकर्षित करने वाली विशेषता या विलक्षणता की अभिव्यक्ति के लिए “सुरखाब के पर” मुहावरा बोलचाल की भाषा में खूब इस्तेमाल होता है मसलन “ इंदौर में क्या सुरख़ाब के पर लगे हैं जो भोपाल में गुज़र नहीं हो सकती? ” सुरख़ाब यानी हंस की प्रजाति का एक पक्षी जिसके पखों की खूबसूरती की वजह से प्राचीनकाल से इस पखेरु को ख़ास रुतबा मिला हुआ है । हंस जहाँ सफेद रंग के होते हैं वहीं सुरखाब अपनी पीली, नारंगी, भूरी, सुनहरी व काली रंगत के पंखों की वजह से अत्यधिक आकर्षक होते हैं । ख़ूबसूरत, मुलायम, रंगीन पंखों का उपयोग कई तरह के परिधानों में होता रहा है जिसकी वजह से दुनियाभर में इनका अंधाधुंध शिकार होने से अब सुरख़ाब दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों में हैं और इसके शिकार पर पाबंदी है ।
सुऱखाब को अंग्रेजी में रूडी शेलडक Ruddy Shelduck कहते हैं जिसका अर्थ है रंगीन हंस । अंग्रेजी के रूडी शब्द में रक्ताभ, सुर्ख या चटक का भाव है । डक यानी बतख । यूँ देखें तो इसे सुर्ख़+आब यानी सुर्खाब कहना ग़लत नहीं है । मगर यह इसकी व्युत्पत्ति का आधार नहीं है । रंगों के संदर्भ मे चटक, गहरा या तेज़ भाव वाला सुर्ख़ शब्द हिन्दी में फ़ारसी से आया और यह संस्कृत के शुक्र का रूपान्तर है । रंग से ताल्लुक रखती एक और महत्वपूर्ण बात । वैदिक शब्दावली में अनेक शब्द हैं जिनमें एक साथ सफ़ेद, पीला, लाल, हरा और कभी कभी भूरे रंग का भाव उभरता है । संदर्भों के अनुसार उस रंग का आशय स्वतः स्पष्ट होता जाता है । इसीलिए कांति या दीप्ति की अर्थवत्ता वाले शब्दों में प्रायः इन सभी रंगों का भी बोध होता है । संस्कृत के शुक्र में जहाँ श्वेताभ, पीताभ, रक्ताभ जैसी अर्थवत्ता रखता है वहीं फ़ारसी में शुक्र से बने सुर्ख़ में चटकीला लाल ही रूढ़ हुआ । सुरख़ाब में सुर्ख़ की कोई भूमिका नहीं है । जिस तरह चक्र से सुर्ख़ बना उसी तरह इसी सुरख़ाब के मूल में संस्कृत का चक्रवाक है ।
संस्कृत में सुरख़ाब chakravak का एक नाम हिरण्य हंस भी है । हिरण्य यानी सोना अर्थात सुनहरी हंस । सुरख़ाब के संस्कृत में अन्य कई नाम भी हैं जैसे चक्रवाक, रथचरण, वियोगिन, द्विक, अवियुक्त, हरिहेतिहूति, द्वन्द्वचर, निशाचर, भूरिप्रेमन्, द्वन्द्वचारिन्, गोनाद, रथाङ्ग, नादावर्त आदि । इसी तरह हिन्दी में इसे कोक, कोकहर, कोकई, चकई, चक्कवा, चाकर, चकवाह कहते हैं । प्राकृत में इसे रहंग कहा गया है और मराठी में इसका एक नाम ब्राह्माणी बदक Brahminy Duck भी है । सुरख़ाब दरअसल संस्कृत के चक्रवाक का फ़ारसी रूपान्तर है । ध्वनिपरिवर्तन के साथ अनुमानित विकासक्रम– चक्रवाक > शक्रवाक > शर्कवाब > सर्खवाब होते हुए सुरख़ाब हुआ होगा ।
हिरण्य हंस या सुनहरी हंस के चक्रवाक नामकरण के पीछे दरअसल रंग नहीं बल्कि उसकी विशेष आवाज़ है । मराठी संदर्भों के मुताबिक चक्रवाक नामकरण के पीछे संस्कृत में ‘चक्र इव वाक् शब्दोऽस्य रथाङ्गतुल्यावयन’ कारण बताया गया है । इसका मतलब हुआ रथ के चक्के में चिकनाई (लुब्रिकेंट) न डाले जाने पर जिस तरह किर-किर, खर-खर ध्वनियाँ पैदा होने से किरकिराहट की आवाज़ आती है, चक्रवाक भी अपने गले से वैसी ही आवाज़ निकालता है । संस्कृत में चक्र यानी चक्का और वाक् यानी आवाजा इस तरह चक्र + वाक = चक्के जैसी (रथ के पहिए समान) आवाज़ निकालने वाला पक्षी । चक्रवाक का एक अन्य नाम रथाङ्ग से भी यह स्पष्ट है । कर्नाटक संगीत में इस पक्षी के नाम पर एक राग-चक्रवाकम् Chakravakam भी है । 
प्राचीन कवियों के शृंगार-वर्णन में चक्रवाक का कई बार उल्लेख आता है । नर पक्षी को चक्रवाक और मादा को चक्रवाकी कहते हैं । हिन्दी में चकवा, चकवी (चक्रवाक > चक्कवा > चकवा / चक्रवाकी > चक्कवी > चकवी-चकई ) जैसे शब्द इससे ही बने हैं । चकवा-चकवी शाश्वत प्रेम प्रतीक हैं । दिनभर साथ रहने के बाद चक्रवाक और चक्रवाकी अलग अलग हो जाते हैं और रातभर विरह की अकुलाहट में कुर-कुर ध्वनि करते रहते हैं । मराठी संदर्भों में यह ध्वनि “ आंङ्ग-आङ्ग” बताई गई है । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में “चक्रवाक-मिथुन (चकवा-चकई)” शीर्षक आलेख में इस पक्षी के बारे में विस्तार से लिखा है । चक्रवाक chakravak  शरत्काल में भारत के जलाशयी क्षेत्रों में नज़र आता है और शेषकाल में यह अपने पर्यावास में लौट जाता है । स्वभावतः ये जोड़े में रहने वाला पक्षी ( रूडी शेल्डक ) है और मादा एक बार में 50-60 अंडे देती है ।
सम्बन्धित कड़ी- सुर्ख़ियों में शुक्र 

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Thursday, November 8, 2012

मनहूस और तहस-नहस

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पशकुनी की अर्थवत्ता वाला मनहूस शब्द हिन्दी में बहुत प्रचलित है । मनहूस का प्रयोग बहुत व्यापक है । तिथि, वार, जगह, नाम, वस्तु, ग्रह-नक्षत्र आदि वे सब चीज़ें जो शकुन-विचार के दायरे में आती हैं उनके साथ मनहूस का प्रयोग होता है । जो कुछ भी अशुभ, अलाभकारी है उसे हम मनहूस कहते हैं । हिन्दी में ‘मनहूस शक्ल’, ‘मनहूस आदमी’, ‘मनहूस घड़ी’, ‘मनहूस ख्याल’, ‘मनहूस बात’, ‘मनहूस लोग’ और ‘मनहूस ख्वाब’ जैसे संदर्भ नज़र आते हैं । अरबी का मनहूस शब्द फ़ारसी से होता हुआ हिन्दी में आया है । मनहूस के मूल में अरबी क्रिया-विशेषण नह्स / नहूसा है जिसका अर्थ है अशुभ, दुर्भाग्यशाली, अपशकुन आदि । अल सईद एम बदावी के कुरानिक कोश में नह्स / नहूसा के मूल में सेमिटिक धातु नून-हा-सीन ( n-h-s) है जिसमें मुसीबत, कठिनाई, दुख, विपत्ति जैसे भाव हैं । अरबी के नह्स में ‘म’ उपसर्ग लगने से मनहूस बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के मुताबिक मनहूस में अशुभ, अनिष्ट, अकल्याणकारी, बद, अभागा, बदक़िस्मत जैसे आशय हैं ।
नहूस के मूल में जो नहूसा है वह नहूसत बनकर उर्दू में विराजमान है । हिन्दी में अब यह अल्पप्रचलित है अलबत्ता आज़ादी से पहले की हिन्दोस्तानी में यह चलता था । नहूसत में भी मनहूसी का ही भाव है । निस्तेज, उदासीनता, दीनता, असहायता, क्लेश, आत्मदया, दुख या खिन्नता के भाव इसमें हैं । नहूसा में धूल, गर्द का भाव भी है । गौर करें कि किसी चीज़ की परवाह न की जाए तो उस पर धूल जम जाती है यानी वह वस्तु अपनी आभा या तेज खो देती है । चेहरा निस्तेज तभी होता है जब उस पर दुख या चिन्ता की छाया हो । चीज़ों पर धूल जमना बुरे दिनों का संकेत है । खुशहाली में चमक है, बदहाली को गर्दिश कहते हैं । चीज़ों पर धूल जमना अपशकुन है । यही नहूसा है । उर्दू में गर्दे-नहूसत भी एक पद है जिसका अर्थ है दुर्भाग्य की धूल, अशुभ लक्षण आदि । अस्त-व्यस्त में भी गर्दे-नहूसत को देखा जा सकता है । अस्त-व्यस्त के ‘अस्त’ में निहित निस्तेजता ( सूर्यास्त ) साफ़ पहचानी जा सकती है । परास्त में यही अस्त है । हार भी अपशकुन है । प्रेमचंद और उनके दौर की भाषा में नहूसत शब्द मिलता है ।
धूल जमने वाले लक्षण की तरह अन्य लक्षणों के आधार पर भी मनहूसियत को समझा जा सकता है । निकम्मे, कामचोर, आलसी, सुस्त लोगों को भी मनहूस कहा जाता है, क्योंकि उनकी वजह से परिवार, समूह, समाज में बरक्कत की उम्मीद नहीं रहती । अक्सर किसी भी संस्थान की बदहाली की वजह निठल्लों की जमात होती है । हाथ पर हाथ धरे बैठना, उंगलियाँ चटकाना, असमय सोना, उबासियाँ लेना, गुमसुम रहना, ऊँघना, नाखून से ज़मीन कुरेदना, आसमान ताकना, शून्य में देखना, निश्चेष्ट बैठे रहना, देर से जागना समेत दैनंदिन कार्य-व्यवहार के अनेक ऐसे संकेत हैं जिन्हें नहूसत या मनहूसी के दायरे में समझा जाता है क्योंकि इनमें गति अथवा क्रिया नहीं है । निष्क्रियता विकास को अवरुद्ध करती है । यही सबसे बड़ा अपशकुन है ।
नेस्तनाबूद, नष्ट-भ्रष्ट या बरबादी के संदर्भ में हिन्दी का तहस-नहस मुहावरा आम लोगों की ज़बान पर है । यह भी इसी कड़ी में आता है और तहस + नहस से मिलकर बना है । अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में जॉन प्लैट्स तहस-नहस का मूल नह्स-तह्स ( naḥs + taḥs ) बताते हैं । नह्स के तौल पर तह्स शब्द की रचना अनुकरण और साम्य का नतीजा है । स्वतंत्र शब्द के रूप में इसकी कोई अर्थवत्ता नहीं है । अरबी की नह्स-तह्स टर्म का हिन्दुस्तानी में विपर्यय होकर तहस – नहस रूपान्तर हुआ । नहूसा में निहित दुर्भाग्य, बदक़िस्मती, अशुभ जैसे आशय नहस में खराबी, बिगाड़, विनष्ट, खंडित, बरबाद, तितर-बितर, विध्वस्त में अभिव्यक्त हो रहे हैं । दुर्भाग्यपूर्ण जैसी अर्थवत्ता यहाँ सुरक्षित है । नहूसा में निहित गर्द वाला भाव अगर देखे तो तहस-नहस का हिन्दी पर्याय धूल-धूसरित सर्वाधिक योग्य नज़र आता है ।

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Thursday, October 25, 2012

‘समय’ की पहचान

time

क्त अपने साथ ताक़त और रफ़्तार दोनो लेकर चलता है । यह साबित होता है हिन्दी के उन कई कालसूचक शब्दों से जो गतिवाची, मार्गवाची क्रियाओं से बने हैं । कहने की ज़रूरत नही कि गति का स्वाभाविक सम्बन्ध शक्ति से है । गति, प्रवाह, वेग दरअसल शक्ति को ही दर्शाते हैं । देवनागरी का ‘इ’ वर्ण संस्कृत में क्रिया भी है जिसमें मूलतः गति का भाव है, जाना, बिखरना, फैलना, समा जाना, प्रविष्ट होना आदि ‘इ’ क्रिया का का विशिष्ट रूप अय् है और इसमें भी गति है । अय् में सम् उपसर्ग लगने से बनता है समय । ‘सम’ यानी साथ-साथ ‘अय’ यानी जाना यानी साथ-साथ चलना, जाना । दरअसल हमारे आसपास का गतिमान परिवेश ही समय है अर्थात समूची सृष्टि, ब्रह्माण्ड, प्रकृति जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य हमारे इर्दगिर्द गतिमान है, वह सब काल के दायरे में है । जो कुछ घट रहा है, वह काल है । मनुष्य के लिए उससे तादात्म्य बिठाना ही समय है । बिहारी ने कहा है- समै समै सुंदर सबै, रूप कुरुप न कोय । मन की रुचि जैति जितै, तित तैति रुचि होय ।।
प्रकृति की लय में लीन हो जाना ही जीवन है । मोनियर विलियम्स के कोश में सम + इ के मेल से समय बनता है । ‘इ’ का समरूप अय् इसमें निहित है । जिसमें समागम, मिलन, एक होना, व्यवस्थित होना जैसे भाव इसमें हैं । इसके अलावा मौसम, अवधि, युग, काल, ऋतु, अवसर, सीमा, परिधि, संकेत, अवकाश, अन्तराल जैसे भाव भी इसमें हैं । समयोचित और सामयिक जैसे शब्दों में समय पहचाना जा रहा है समय में गति है इसीलिए हम कहते हैं कि वक्त बीत रहा है या बीत गया । समय का सम्बन्ध परिवेश में होने वाले बदलावों से है । “समय को पहचानों” का तात्पर्य संसार को पहचानने से है । “समय बदल रहा है” में दुनिया की रफ़्तार से रफ़्तार मिलाने की नसीहत है । स्पष्ट है कि समय में परिवेश का भाव प्रमुख है । जो घट रहा है, जो बीत रहा है के संदर्भ में ‘दुनिया मेरे आगे” ही समय है । संस्कृत के वीत में जाने का भाव है । इससे बना एक शब्द है वीतराग अर्थात सौम्य, शान्त, सादा, निरावेश । राग का अर्थ कामना, इच्छा, रंग, भावना होता है । वीतराग वह है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो । एक पौराणिक ऋषि का नाम भी वीतराग था। वीतरागी वह है जो संसार से निर्लिप्त रहता है ।
सी कड़ी में आता है चरैवेति जो चर + वेति का मेल है । चर यानी चलना, आगे बढ़ना । वेति में ढकेलना, उकसाना, ठेलना ( सभी में शक्ति ), पास आना, ले जाना, प्रेरित करना, प्रोत्साहित करना, बढ़ाना, भड़काना, उठाना जैसे अर्थों को चरैवेति के सकारात्मक भाव से जोड़ कर देखना चाहिए ।सभी धर्मों में, संस्कृतियों में काल की गति को सर्वोपरि माना गया है मगर इसके साथ जीवन को, मनुष्यता को लगातार उच्चतम स्तर पर ले जाने की अपेक्षा भी कही गई है । चलना एक सामान्य क्रिया है । चर के साथ वेति अर्थात प्रेरणा ( ठेलना, ढकेलना ) का भाव सौद्धेश्य है । प्रेरित व्यक्ति एक दिशा में चलता है । उच्चता के स्तर पर मनुष्य लगातार अनुभवों से गुज़रते रहने पर ही पहुँचता है । “चरैवेति-चरैवेति” की सीख भी यही कह रही है कि निरंतर गतिमान रहो । ज्ञानमार्गी बनो । ज्ञान एक मार्ग है जिस पर निरंतर गतिमान रहना है । अनुभव के हर सोपान पर, हर अध्याय पर मनुष्य कुछ और शिक्षित होता है, गतिमान होता है, कुछ पाठ पढ़ता है ।
देवनागरी के ‘व’ वर्ण में ही गति का भाव है । इससे बनी ‘वा’ क्रिया में प्रवाह, गति का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली का वेग इसी कड़ी में है । मार्गवाची शब्दों के निर्माण में भी ‘व’ की भूमिका है । वर्त्मन यानी राह । बाट इसी वर्त्मन का देशज रूप है । अंग्रेजी का वे way को देखें जिसका अर्थ पथ, रास्ता, मार्ग है । यह भारोपीय मूल की ‘वे’ wegh से बना है जिसका समरूप विज् है जिससे संस्कृत का वेग बना है । राह कहीं ले जाती है । लिथुआनी के वेजू में ले जाने का आशय । रूसी में भी यह वेग और वेगात ( भागना ) है । संस्कृत वात ( फ़ारसी बाद ) यानी वायु , वह् से हवा आदि । वीत में जाना और आना दोनों हैं । वीथि यानी रास्ता इससे ही बनता है । रामविलास शर्मा संस्कृत की ‘वा’ के समानान्तर ‘या’ क्रिया का उल्लेख करते हैं । इनमें गति के साथ जलवाची अर्थवत्ता भी है । जल के साथ हमेशा ही गतिबोध जुड़ता है । मोनियर विलियम्स के कोश से इसकी पुष्टि होती है । संस्कृत का वारि जलवाची है तो रूसी के वोद ( वोदका ) का अर्थ पानी है । तमिल में नदी के लिए यारू शब्द है । ‘या’ में जाना, चलना, गति करना निहित है साथ ही इसमें खोज, अन्वेषण भी है । चलने पर ही कुछ मिलता है । चलने की क्रिया मानसिक भी हो सकती है । ‘या’ में ध्यान का भाव भी है । ‘आया’, ‘गया’ में इस गति सूचक ‘या’ को पहचानिए ।
संस्कृत में यान का एक अर्थ मार्ग तो दूसरा वाहन भी है । हीनयान, महायान, वज्रयान, सहजयान में रीति, प्रणाली की अर्थवत्ता है । किन्हीं व्याख्याओं में वाहन के प्रतीक को भी उठाया गया है । दोनों में ही ले जाने का भाव है । तमिल में इसके प्रतिरूप यानई और आनई हैं । कभी इनका अर्थ वाहन रहा होगा, अब ये हाथी के अर्थ में रूढ़ हैं । एक शब्द है याम जिसमें भी मार्ग के साथ वाहन का भाव है । याम में कालवाची भाव भी है अर्थात रात का एक पहर यानी तीन घण्टे की अवधी याम है । महादेवी वर्मा ने यामा का प्रयोग रात के अर्थ में किया है । दक्ष की एक पुत्री, और एक अप्सरा का नाम भी यामा, यामी, यामि मिलता है । इसी तरह यव का अर्थ द्रुत गति के अलावा महिने का पहला पखवाड़ा भी है । इसी कड़ी में आयाम भी है । आयाम अब  पहलू के अर्थ में रूढ़ हो गया है । इसका अर्थ है समय के अर्थ  में विस्तार । किसी चीज़ की लम्बाई या चौड़ाई । किसी  विषय के आयाम का आशय उस विषय के विस्तार से है ।
फिर समय पर लौटते हैं । समय के अय् में गमन, गति का भाव है, जिसकी व्याख्या ऊपर हो चुकी है । इस अय से अयन बनता है । अयन यानी रास्ता, मार्ग, वीथि, बाट, जाने की क्रिया आदि । इसका अर्थ आधे साल की अवधि भी है । दक्षिणायन और उत्तरायण में अवधि का संकेत है । दक्षिणायन में सूर्य के दक्षिण जाने की अवधि और गति का आशय है जिसके ज़रिये सर्दियों का आग़ाज़ होता । तब सूर्य कर्क रेखा से दक्षिण की ओर मकर रेखा की ओर बढ़ता है । सूर्य की उत्तरायण अवस्था इसके उलट होती है । इससे गर्मियों का आग़ाज़ होता है । संस्कृत का वेला, तमिल का वरई, कन्नड़ वरि, हिन्दी का बेला, मराठी का वेळ ये तमाम शब्द भी इसी कड़ी में हैं और समय सूचक हैं । संझाबेला, सांझबेला जैसे शब्द कालवाची ही हैं ।
काल यानी समय अपने आप में गति का पर्याय है। दार्शनिक अर्थों में चाहे समय को स्थिर साबित किया जा सकता है पर लौकिक अर्थो में तो समय गतिशील है। हर गुज़रता पल हमें अनुभवों से भर रहा है। हर अनुभव हमें ज्ञान प्रदान कर रहा है, हर लम्हा हमें कुछ सिखा रहा है । आज के प्रतिस्पर्धा के युग में हम अनुभवों की तेज रफ्तारी से गुज़र रहे हैं। आज से ढाई हजार साल पहले भी इसी ज्ञान की खातिर भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यही सीख दी थी– चरत्थ भिक्खवे चारिकम । बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय । हे भिक्षुओं, सबके सुख और हित के लिए चलते रहो….।

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Monday, October 22, 2012

‘बुनना’ है जीवन

bayaज़रूर देखें-1. चादर. 2.प्रवीण.3. तन्तु.4. धागा. 5.बाँस.6.कातना.7. सूत 

जी वन का बुनाई से गहरा रिश्ता है । “झीनी झीनी बीनी चदरिया” वाली कबीर की जगप्रसिद्ध उक्ति में चादर ज़िंदगी का प्रतीक है । परमात्मा ने जीवनरूपी चादर को जितनी शिद्धत और मेहनत से महीन अंदाज़ में बुना था उसे सुर-नर-मुनि ने ओढ़ कर मैला कर दिया । कबीर बड़े समझदार हैं, उन्हें ज़िंदगी की कीमत पता है, सो इस चादर को उन्होंने इतने जतन से ओढ़ा कि खुद के साथ साथ पूरे ज़माने को संवार दिया । “दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया”। कबीर जुलाहे थे, बुनकारी जानते थे । इसीलिए उन्होंने ज़िंदगी के लिए चादर जैसा सहज प्रतीक चुना । जन्म लेने के बाद हम सब महीन की बजाय मोटा कातते हैं, महीन की बजया  मोटो बुना जाता है । नतीजतन सुख नहीं मिलता । सुख की उधेड़बून में चादर मैली और जर्जर हो जाती है । इसलिए जिंदगी को सलीके से, महीन बुना जाना चाहिए । हि्न्दी के ‘वय’ शब्द का बुनाई से गहरा रिश्ता है ।
म्र या आयु के लिए हिन्दी में ‘वय’ शब्द भी प्रचलित है । मराठी में उम्र, आयु की तुलना में वय शब्द ज्यादा प्रचलित है । संस्कृत कोशों के अनुसार ‘व’ वर्ण में गति (वह > वहन > बहना या वेग), घर ( वास > आवास, निवास ), कपड़ा ( वस् > वस्त्र ) और बुनना (वयन) जैसे भाव हैं । इसके अतिरिक्त भुजा जो भार उठाती है ( वाह > बांह ) भी इसका अर्थ है । संस्कृत की ‘वे’ धातु में गूँथने, बुनने, बटने और बांधने का भाव प्रमुख है । वे का एक अर्थ पक्षी भी होता है क्योंकि वे चुन-चुन कर तिनकों को गूँथते हैं और अपना आवास बनाते हैं । ‘वे’ से ही बनता है वयन जिससे बयन > बउन > बुन > बुनन > बुनना जैसे रूप बने हैं । इससे ही बुनाई, बुनावट, बुनकर शब्दों का विकास हुआ । वस्त्र के अर्थ में बाना शब्द भी इसी कड़ी में आता है ।
मोनियर विलियम्स के अनुसार ‘वे’ धातु से ही बना है संस्कृत का वय शब्द जिसका अर्थ है वह जो बुनता है अर्थात जुलाहा, बुनकर । तन्तुवाय भी तत्सम शब्दावली में आता है जिसका अर्थ है तन्तुओं को बुनने वाला अर्थात जुलाहा । तन्तु से ही ताँत बना है जिसका मतलब होता है धागा और ताँती बुनकरों की एक जाति है । इसी तरह वय में आयु, उम्र का भाव भी है । वय की अगली कड़ी है वयस् आता है जिसका अर्थ है एक विशेष चिड़िया, कोई भी पक्षी, यौवन, आयु की कोई भी अवस्था, शारीरिक ऊर्जा, शक्ति, बल आदि । वय के जुलाहा और वयस के विशिष्ट चिड़िया वाले वाले अर्थ पर गौर करें । एक विशेष चिडिया को बया कहते हैं जो बेहद करीने और सुथरेपन के साथ तिनकों से अपना घोसला बनाती है मानो कलाकृति हो । बया को कारीगर चिड़िया अथवा जुलाहा की संज्ञा भी दी जाती है । बया, वय से ही बना है । घरोंदा किसी भी प्राणी के लिए जीवन को बचाए रखने का ठिकाना होता है । प्रत्येक को घर में ही शरण मिलती है । जीव कोख में पलता है । पैदा होने के बाद भी आश्रय में ही हम जीवन बुनते है । आयु की सार्थकता बीत जाने में नहीं, बुने जाने में है ।
वे में निहित गूँथना, बुनना, बटना जैसे भावों पर गौर करें । इससे ही बना है संस्कृत का वेन् शब्द । इसका एक अन्य रूप है वेण जिसका अर्थ है बाँस का सामान बनाने वाला कारीगर, संगीतकार । वेण से वेणी याद आती है ? वेणी अर्थात लम्बे बालों को गूँथकर बनाई गई शिखरिणी या चोटी । गूँथना भी बुनकारी है । इसी तरह बाँसो की खपच्चियों को भी गूँथकर, बुनकर डलिया, चटाई आदि बनाई जाती हैं । वंशकार जाति के लोग यह काम करते हैं । वेणु यानी बाँस, लम्बी घास की एक प्रजाति, सरकंडा । वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी होता है और चोटी भी । कृष्ण चोटियाँ बांधते थे इसलिए उनका नाम वेणुमाधव या वेणीमाधव भी है । इसका देशी रूप बेनीमाधव हो गया जो घटते घटते सिर्फ ‘बेनी’ रह गया और उधर माधव दुबला होकर ‘माधो’ बन गया । वेणि जहाँ चोटी है वहीं वेणी में चोटी के साथ धारा, नदी का अर्थ भी है । तीन धाराओं को त्रिवेणी कहते हैं ।
सी कड़ी में चर्चा कर लेते है वीणा शब्द की । आपटे कोश में के अनुसार वीणा का अर्थ सारंगी जैसा वाद्य, बीना, बताया गया है और इसकी व्युत्पत्ति ‘वी’ से बताई गई है । इसके अलावा इसका एक अन्य अर्थ विद्युत भी है। संस्कृत की ‘वी’ धातु में जाना, हिलना-डुलना, व्याप्त होना, पहुँचना जैसे भाव हैं। बिजली की तेज गति, चारों और व्याप्ति से भी वी में निहित अर्थ स्पष्ट है। विद्युत की व्युत्पत्ति भी वी+द्युति से बताई जाती है । ‘वी’ अर्थात व्याप्ति और द्युति यानी चमक, कांति, प्रकाश आदि । संस्कृत में वेण् या वेन् शब्द भी मिलते हैं जिनका अर्थ है जाना, हिलना-डुलना या बाजा बजाना । इसी क्रम में वेण् से बने वेण का अर्थ होता है गायक जाति का एक पुरुष । वेन में निहित एँठना, बटना जैसे भावों पर एक वाद्य के संदर्भ में विचार करने से स्पष्ट होता है कि यहाँ आशय तारों को कसने से ही है । प्रायः सभी तन्त्रीवाद्यों के तार घुण्डियों से बंधे रहते हैं जिने घुमा कर, एँठ कर तारों को कसा जाता है जिससे उनमें स्वरान्दोलन होता है ।
भारतीय भाषाओं में ‘न’ का ‘ण’ रूप भी सामान्य सी बात है । जल के अर्थ में पानी को मराठी, मालवी, राजस्थानी में पाणी कहा जाता है । इसी तरह वेन् का ही एक रूप वेण भी प्राचीनकाल में ही प्रचलित रहा होगा । वेन रूप से बीन, बीना जैसे रूप बने होंगे और वेण रूप से वीणा । मूलतः किसी ज़माने में वीणा बाँस से ही बनाई जाती रही होगी । आज भी उसमें बाँस का काफ़ी प्रयोग होता है । बाँस से वेणु अर्थात बाँसुरी भी बनती है । बाँस शब्द से ही बाँसुरी भी बना है और वेणु का अर्थ भी बाँस ही होता है । सो वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी हुआ । इसका रूपान्तर बीन हुआ । गौर करें बाँसुरी की तरह बीन सुषिर वाद्य है । निश्चित ही बाँस से बाँसुरी का आविष्कार आदिम समाजों में बहुत पहले हो गया था । बाँस के लम्बे पोले टुकड़े को जब तन्त्रीवाद्य का रूप दिया गया तो उसे भी इसी शृंखला में वीन्, वीण्, वीणा नाम मिला । वेणु यानी बंसी तो पहले से प्रचलित थी ही । संस्कृत धातु ‘वे’ की अर्थगर्भिता महत्वपूर्ण है जिसमें गति और बुनावट  की अर्थवत्ता है और इन दोनों का मेल ही जीवन है ।

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Wednesday, August 22, 2012

‘मा’, ‘माया’, ‘सरमाया’ [माया-2]

landscape1पिछली कड़ी-सरमायादारों की माया [माया-1] से आगे  

जॉ न प्लैट्स फ़ारसी के ‘मायः’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मातृका’ से जोड़ते हैं पर यह बात तार्किक नहीं लगती । अमरकोश के मुताबिक ‘माया’ शब्द के मूल में वैदिक धातु ‘मा’ है जिसमें सीमांकन, नापतौल, तुलना, अधीन, माप, सम्पन्न, समाप्त, प्रसन्नता, खुशी, आनंद, कटि-प्रदेश, उलझाना, बांधना, ज्ञान, प्रकाश, जादू, तन्त्र, कालगणना आदि भाव हैं । इससे ही बना है ‘माप’ शब्द । किसी वस्तु के समतुल्य या उसका मान बढ़ाने के लिए प्रायः ‘उपमा’ शब्द का प्रयोग किया जाता हैं । यह इसी कड़ी का शब्द है । इसी तरह ‘प्रति’ उपसर्ग लगने से मूर्ति के अर्थ वाला ‘प्रतिमा’ शब्द बना। प्रतिमा का मतलब ही सादृश्य, तुलनीय, समरूप होता है । दिलचस्प बात यह कि फारसी का ‘पैमाँ’, ‘पैमाना’ या ‘पैमाइश’ शब्द भी इसी मूल से जन्मा है । संस्कृत उपसर्ग ‘प्रति’ का समतुल्य फ़ारसी का ‘पैति’ है । प्रति+मान से ‘प्रतिमान’ बनता है उसी तरह ‘पैति+मा’ से ‘पैमाँ’ (पैमान, पैमाना) बनता है । जो हिन्दी में प्रतिमान है वही फ़ारसी में पैमाना है । आयाम का कुछ अप्रचलित पर्याय ‘विमा’ भी इसी ‘मा’ से जन्मा है ।
लैटिन के ‘मेट्रिक्स’ matrix में भी अंतरिक्ष की परिमाप, विस्तार और मातृ सम्बन्धी भाव है । संस्कृत ‘मातृ’ और ‘मेट्रिक्स’ में रिश्तेदारी है । इसका रिश्ता भारोपीय धातु मे ‘me’ से जुड़ता है जिसके लिए संस्कृत मे ‘मा’ धातु है । मेट्रिक्स में स्त्री योनि, उर्वरता, गर्भ जैसे भाव हैं । यहाँ माँ के अर्थ में जननिभाव प्रमुख है और निरन्तर उर्वरता पर गौर करना चाहिए । वैदिक मा में इसके अलावा भी माता, उर्वरता, पृथ्वी, काल, मांगल्य, स्वामित्व, माया, जल जैसे आशय हैं । गौर करें ‘अम्मा’ के मूल में ‘अम्बा’ और प्रकारान्तर से ‘अम्बु’ यानी जल ही है । जल समृद्धि का प्रतीक है । प्रकृति के जलतत्व से ही जीवन सिरजा है । जल में ही जीवन है । इन दोनों मूल धातुओं में नाप, माप, गणना आदि भाव हैं । यानी बात खगोलपिंडों तक पहुँचती है ।
भारतीय परम्परा में ‘मा’ धातु की अर्थवत्ता भी व्यापक है । ‘मा’ धातु में चमक, प्रकाश, माप का भाव है जो स्पष्ट होता है चन्द्रमा से । प्राचीन मानव चांद की घटती-बढ़ती कलाओं में आकर्षित हुआ । स्पष्ट तो नहीं, मगर अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्ववैदिक काल में कभी चन्द्रमा के लिए ‘मा’ शब्द रहा होगा । ‘मा’ के अंदर चन्द्रमा की कलाओं के लिए घटने-बढ़ने का भाव भी अर्थात उसकी ‘परिमाप’ भी शामिल है । गौर करे कि फारसी के माह, माहताब, मेहताब, महिना शब्दों में ‘मा’ ही झाँक रहा है जो चमक और माप दोनों से सम्बन्धित है क्योंकि उसका रिश्ता मूलतः चांद से जुड़ रहा है जो घटता बढ़ता रहता है और इसकी गतियों से ही काल यानी माह का निर्धारण होता है । अंग्रेजी के मंथ के पीछे भी यही ‘मा’ है और इस मंथ के पीछे अंग्रेजी का ‘मून’ moon है ।
गौरतलब है कि सम्पत्ति का सबसे आदिम पैमाना भू-सम्पदा और पशु-सम्पदा ही रहे हैं । दौलत या सरमाया के अर्थ में बाकी चीजें तो सभ्यता के विकास के साथ-साथ शामिल होती चली गईँ । मुद्रा के आविष्कार के बाद सम्पत्ति में गणना की क्रिया भी शामिल हुई । प्राचीन काल में तो ज़मीन ही सम्पदा थी जिसका माप लिया जाता था, पैमाइश होती थी । बसाहट, खेती और अन्ततः आवास के लिए भूमि की नापजोख ज़रूरी थी ।  तो फ़ारसी के ‘सरमाया’ में जो ‘मायः’ है और संस्कृत-हिन्दी में जो ‘माया’ है उसका अभिप्राय धन-दौलत, सम्पदा से ही है । उसी अर्थ में ‘सरमाया’ शब्द का विकास ‘मायः’ से हुआ है । इन दोनो ही ‘माया’ के मूल में वैदिक ‘मा’ है । मनुष्य के पास प्रकृति को समझने लायक बुद्धि का विकास होने तक और उसके बाद भी प्रकृति उसके लिए अजूबा ही रही है । मनुष्य के ज्ञान का विकास प्रकृति को समझते हुए ही हुआ है । दुनिया को समझना ही ज्ञानी होना है । इसीलिए दुनियादारी शब्द में व्यावहारिक बुद्धि का संकेत है । दुनिया का ही व्यापक स्वरूप प्रकृति है ।
'मा' में मूलतः प्रकृति का ही भाव है । संस्कृत में ‘प्रमा’ का अर्थ होता है समझना, जानना, सच्चा ज्ञान, सही धारणा आदि । ‘प्रमा’ का एक अन्य अर्थ मातामही भी होता है । किसी चीज़ की पैमाइश करना, मापना आदि क्रियाएँ जानने-समझने का ही आयाम हैं । सो प्रकृति अपने आप में सम्पदा है । प्रकृति का निरीक्षण, माप-जोख की अभिव्यक्ति मा से होती है । मा की महिमा अपरम्पार है और इसकी अर्थवत्ता की वैविध्यपूर्ण विमाएँ ( आयाम ) ही इसे माया साबित करती है । ‘मा’ में निहित वैविध्यपूर्ण भावों से अर्थमाया की सृष्टि होती है । साफ़ है कि फ़ारसी का ‘मायः’ संस्कृत माया का समतुल्य ही है अलबत्ता मातृका, माया और ‘मायः’ तीनों के मूल में वैदिक ‘मा’ धातु ही है । [समाप्त]

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Tuesday, August 21, 2012

सरमायादारों की माया [माया-1]

अगली कड़ी-‘मा’, ‘माया’, ‘सरमाया’ [माया-2]wealth

ला लित्यपूर्ण और प्रभावी भाषा प्रयोग करते हुए अक्सर कुछ लोग धन-दौलत के अर्थ में 'सरमाया' शब्द का इस्तेमाल करते हैं । दुनिया का मूल चरित्र हमेशा पूंजीवादी समाज रहा है । पैसे के दम पर क्या नहीं हो सकता । दौलतमंद सर्वशक्तिमान होता है । इसीलिए ‘सरमाया’ शब्द की अर्थवत्ता में असर की अर्थवत्ता भी शामिल है । ‘सरमाया’ यानी पूंजी, दौलत, धन, कैपिटल इसलिए सरमायादार का अर्थ हुआ पूंजीपति, मालदार, धनी, दौलतमंद आदि । सियासत और ‘सरमाया’ का चोली-दामन का साथ है । ‘मायः’ से बने सरमाया, सरमायादार, सरमायादाराना, सरमायादारी जैसे शब्द लिखत-पढ़त की भाषा में प्रचलित हैं । इसके अलावा ‘मायादार’ जैसा शब्द भी है जिसका अर्थ भी धनी, मालदार ही है ।
हिन्दी में ‘सरमाया’ शब्द फ़ारसी से आया है । ‘सरमाया’ को अरबी का समझा जाता है पर यह भारोपीय भाषा परिवार की इंडो-ईरानी शाखा का शब्द है और फ़ारसी के सर + ‘मायः’ से मिल कर बना है । गौरतलब है कि फ़ारसी का विकास बरास्ता अवेस्ता (वैदिक संस्कृत की मौसेरी बहन), पहलवी हुआ है । संस्कृत की तरह ही अवेस्ता में भी विसर्ग लगता रहा है और वहीं से यह फ़ारसी में भी चला आया । फ़ारसी के ‘मायः’ का उच्चारण माय’ह होना चाहिए मगर विसर्ग का उच्चार अक्सर स्वर की तरह होता है इस तरह फ़ारसी का ‘मायः’ भी माया उच्चारा जाता है । हिन्दी शब्दसागर में ये दोनों ही रूप दिए हुए हैं । ‘सरमाया’ में जो ‘सर’ है वह सरदार, सरपरस्त, सरज़मीं, सरकार वाला सर ही है जिसका इस्तेमाल उपसर्ग की तरह होता है । सर का प्रयोग प्रमुख, खास, सर्वोच्च आदि की तरह होता है । यह जो फ़ारसी का ‘सर’ है उसका रिश्ता वैदिक संस्कृत के ‘शिरस्’ से है जिसका अर्थ है किसी भी वस्तु का उच्चतम हिस्सा, कपाल, खोपड़ी, मस्तक, चोटी, शिखर, शुरुआत, पीक, बुर्ज़, पराकाष्ठा, चरम आदि ।
संस्कृत में ‘शीर्ष’ का मूल भी यही है । इससे ही हिन्दी का ‘सिर’ बना है । शिरस् के समतुल्य जेंद में ‘शर’ शब्द बना जिसका पहलवी रूप ‘सर’ हुआ । फ़ारसी में यह ‘सर’ चला आया । अलबत्ता जॉन प्लैट्स की “अ डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दुस्तानी एंड इंग्लिश” के मुताबिक फ़ारसी का सर संस्कृत के ‘सिरस्’ से आ रहा है । ध्यान रहे, ‘सिर’ यानी मस्तक के अर्थ में संस्कृत के किसी कोश में ‘सिरस्’ की प्रविष्टि नहीं मिलती । प्लैट्स के ऑनलाईन कोश में सम्भवतः वर्तनी की चूक है । जहाँ तक ‘माया’ का सवाल है, जान प्लैट्स इसके जन्मसूत्र संस्कृत के ‘मातृका’ में देखते हैं । ‘माया’ की व्युत्पत्ति का ठोस संकेत ‘मातृका’ से नहीं मिलता । ध्यान रहे मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में ‘मातृका’ का अर्थ सिर्फ माँ सम्बन्धी, धात्री, माँ, जन्मदात्री अथवा पालनकर्त्री है । जबकि प्लैट्स धन-दौलत के संदर्भ में इसके अर्थ मूल, व्युत्पन्न, स्रोत दिए गए हैं साथ ही दौलत, पूंजी, नगद, भंडार, कोश, निधि जैसे अर्थ भी दिए गए हैं । समझा जा सकता है कि प्लैट्स शायद यह कहना चाहते हैं कि ‘मातृ’ शब्द में उद्गम या स्रोत का भाव है । ज़ाहिर है स्रोत अपने आप में एक कोश या भण्डार होता है । यह तर्कप्रणाली गले नहीं उतरती और खींच-तान कर मातृका का रिश्ता धन-दौलत से जोड़ने वाली कवायद जान पड़ती है ।
गौरतलब है कि संस्कृत का ‘मातृका’ स्त्रीवाची है जबकि फ़ारसी का ‘मायः’ पुरुषवाची है । उधर हिन्दी-संस्कृत में ‘माया’ की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है और इसमें न सिर्फ़ धन-दौलत का भाव है बल्कि भ्रम, छलावा, धोखा, अतीन्द्रिय शक्ति, कला, जादूविद्या, भूत-प्रेत सम्बन्धी अथवा टोना जैसे अभिप्राय भी इसमें हैं । संस्कृत में ‘माया’ का एक अर्थ दुर्गा भी है मगर यह इसमें जन्मदात्री का आशय न होकर पराशक्तियों की स्वामिनी देवी का भाव है । इसी तरह ‘माया’ का दूसरा अर्थ लक्ष्मी है जो धन-वैभव की देवी हैं । इसी भाव का विस्तार माया के धन, दौलत, रोकड़ा, रुपया-पैसा, वैभव, सम्पत्ति, निधि, माल-मत्ता आदि में होता है । धन की महिमा अपरंपार है । इसके ज़रिये सुखोपभोग का कल्पनातीत संसार रचा जा सकता है । यहाँ ‘माया’ का अर्थ अवास्तविक लीला, कल्पनालोक या छलावा सार्थक होता है क्योंकि धन के रहने पर इन सबका भी लोप हो जाता है । इसीलिए कबीर ने धन-सम्पदा के अर्थ में ही “माया महा ठगिनी हम जानि” जैसी प्रसिद्ध उक्ति कही है ।
मायाजीवी शब्द भी धन-दौलत में रुचि रखने वाले का अर्थबोध कराता है जबकि मायावी का अर्थ जालसाज़, कपटी, छली, धोखेबाज, जादूगर आदि है । यह बात समझनी मुश्किल है कि प्लैट्स फ़ारसी के ‘मायः’ का रिश्ता धन-दौलत के अर्थ में संस्कृत के मातृक से क्यों जोड़ रहे हैं जबकि संस्कृत के ही ‘माया’ शब्द में धन-दौलत, पूंजी, सम्पदा के साथ माप-जोख, देवीदुर्गा, शक्ति जैसे भाव है । अगली कड़ी में समाप्त

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Thursday, July 12, 2012

‘मानसर’ की खोज में

Manasarovar

मा नसर का उल्लेख जायसी के पद्मावत में आता है । दरअसल यह ‘मानसरोवर’ का लोकरूप है । ‘मानसरोवर’ ऐसा शब्द है जिससे लगभग हर पढ़ा-लिखा भारतीय परिचित है । मानसरोवर सुनते ही हिमाच्छादित उपत्यका में स्थित नील-प्रशान्त झील की छवि उभरती है । तिब्बत की मानसरोवर झील और कैलाश-पर्वत एक दूसरे के पर्याय हैं । ‘मानसरोवर’ का महत्व इस बात में है कि इसे भारतीय मनीषा के हर आयाम में देखा जाता है । आध्यात्मिक-दार्शनिक अर्थों में ‘मानसर’ परम उपलब्धि का प्रतीक है । पौराणिक युग से कैलास-मानसरोवर की यात्रा का लक्ष्य, मोक्ष-प्राप्ति ही था । खुद जायसी ने ‘मानसर’ को परमतत्व बताया है । ‘मानसर’ का ‘सर’, सरोवर का पूर्वरूप है । संस्कृत में ‘सर’ का अर्थ होता है बहाव, आवेग, तरल आदि । इसकी मूल धातु ‘सृ’ है जिसमें बहाव, गति, तरलता जैसे भाव हैं । पंजाब की सतलुज और असम की ब्रह्मपुत्र नदियाँ इसी झील से निकली हैं ।
मानसर के संदर्भ में मेरे मन में दो विचार आते हैं । यह जो ‘सर’ है वह सरोवर से आ रहा है या ‘सायर’ से क्योंकि मानसरोवर का उल्लेख कई संदर्भों में मान-सायर भी हुआ है । ‘सायर’ दरअसल सागर का प्राकृत रूप है । लोकबोलियों में सागर का रूप ‘सायर’ ही मिलता है । मानसरोवर की कल्पना इतनी ख्यात है कि जिस तरह से गंगा नाम वाले कई जलस्रोत देशभर में हैं उसी तरह ‘मानसर’ भी कई हैं । सवाल है कि यह ‘मानसर’ दरअसल ‘मान-सायर’ तो नहीं ? ध्यान रहे, ‘सागर’ यूँ तो समुद्र को कहते हैं मगर जलभंडार के रूप में सामान्यतः झील, जलाशय के लिए भी हिन्दी में ‘सागर’ शब्द का प्रयोग होने लगा । जलस्रोतों के किनारे जनसमूहों के बसने से ही बस्तियों ने आकार लिया । मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक शहर सागर का नाम दरअसल एक झील की वजह से पड़ा जिसके इर्दगिर्द  इसकी बसाहट है ।
ध्यान रहे ‘मानसर’ या ‘मानसरोवर’ के नाम की दो प्रमुख झीलें प्रसिद्ध हैं । मानसर जम्मू के पास है जबकि मानसरोवर तिब्बत में है । ‘सर’ की गुत्थी सुलझाने से पहले यह जानें की ‘मानसर’ या ‘मानसरोवर’ दोनों में जो ‘मान’ है, वह कहाँ से आ रहा है । ‘मानसरोवर’ के पौराणिक महत्व ने इस शब्द को अर्थविस्तार दिया । मानसरोवर परमउपलब्धि, परमलक्ष्य का प्रतीक बना । भौतिक रूप में मानसरोवर की दैहिक यात्रा आज भी बेहद श्रमसाध्य है । प्राचीनकाल में तो और भी कष्टकर रही होगी । तीर्थयात्राएँ हमारे लिए दुखों से त्राण पाने का ज़रिया थीं । माना जाता था कि तीर्थयात्रा से कोई लौट कर नहीं आता । दूसरी ओर दैहिक यात्रा के सूक्ष्म रूप की कल्पना कर ‘मानसरोवर’ की परम उपलब्धि में मानस की कल्पना की गई । ‘मानस’ यानी मन की विवेक-बुद्धि और उससे उपजा अध्यात्म । हमारे जीवन का उद्धेश्य ही मन में विवेक को जागृत करना है । जिसे विवेकबोध हो गया, उसका जीवन सफल । इस तरह मानसरोवर को मानस + सरोवर के रूप में लिया जाने लगा ।
जो भी हो, मानसरोवर का आध्यात्मिक भाव भी मानसरोवर भौतिक यात्रा से ही उपजा है और एक झील के तौर पर इसके साथ मानस शब्द का कोई तर्क नहीं मिलता है । यूँ देखें तो जम्मू वाला ‘मानसर’ और तिब्बत वाला ‘मानसरोवर’ दोनो ही बर्फीले क्षेत्र हैं । बौद्ध साहित्य में मानसरोवर को पृथ्वी का स्वर्ग कहा गया है । भाषा वैज्ञानिक नज़रिए से हमें ‘मानसरोवर’ और ‘मानसर’ के साथ जुड़े ‘मान’ का तार्किक जवाब मिलता है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली में बर्फ़ के लिए ‘हिम’ शब्द है । संस्कृत के ‘हिम’ में पाला, तुषार, बर्फ़ आदि भाव हैं । मूल भाव सर्दी का है । ध्यान रहे सर्दी के मौसम को ‘हेमन्त’ कहा जाता है । ‘हिम’ की कड़ी में ही हेमन् है । ‘मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक इसका अर्थ होता है आवेग, बुधग्रह, कांति, कनक और पानी । इसी मूल के ‘हेम’ में इन्ही तमाम भावों के साथ एक अर्थ नदी अथवा जलधारा का भी जुड़ता है । ‘हेमन्’ की कतार में ही हेमन्त भी खड़ा है जिसका अर्थ है शीतऋतु । रॉल्फ लिली टर्नर की कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज़ के मुताबिक दार्द परिवार की ही कई भाषाओं में इसके प्रतिरूप प्रमुखता से मौजूद हैं जैसे तिराही भाषा में इसका रूप ऐमन तो इसी परिवार षुमास्ती में येमन है, निंगारामी में यह ईमन्द है तो गावार-बाती और सावी में यह हेमान्द है । दार्द परिवार की प्रमुख भाषा खोवार में इसका रूप योमून है तो बाश्करीक में हामन, गौरो में यह हेवान्द है तो पंजाबी कांगड़ी में हियुन्द, हियुन्धा है और पश्चिमी पहाड़ी में इसकी अनुनासिकता गायब हो जाती है और इसकी ध्वनि सिर्फ़ ह्यूत रह जाती है ।
सी तरह संस्कृत में ‘हैम’ शब्द भी है जिसका अर्थ शीत सम्बन्धी, हिमाच्छादित है । इसका एक रूप ‘हैमन’ भी है । ‘हिम’  अर्थात बर्फ़ भी इसी शृंखला का शब्द है । विश्व की सबसे बड़ी पर्वत शृंखला का नाम हिमालय इसीलिए है क्योंकि वह बर्फ़ का ठिकाना है । यह ‘हेम’ भी ‘हिम्’ से ही आ रहा है। हेमन्त से ‘त’ का लोप होकर पहाड़ी बोलियों में हिमन्, हेमन्, हिम्ना, हिमान्, एमन, खिमान् जैसे रूप भी बनते हैं। सर्दी का, बर्फ़ीला या शीत सम्बन्धी अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग होता है। कश्मीरी में हिमभण्डार के लिए मॉन / मोनू शब्द भी है। जाहिर है यहाँ ‘ह’ का भी लोप हो गया है । उत्तर पूर्वांचल में मॉन, मुनमुन जैसे कोमल शब्द खूब सुनाई पड़ते हैं । इनमें और हिमाचल, उत्तराखण्ड, कश्मीर क्षेत्रों में हिमन्, हेमन् का मन, मोन, मॉन नज़र आ रहा है । हिमालय, हिमाल से ही शिमला रूप है, ऐसी सम्भावना रामविलास शर्मा जता चुके हैं । मराठी में हिंवाँळ और गुजराती में हिमालु का अर्थ भी बर्फ सम्बन्धी, शीत सम्बन्धी  होता है । बर्फीले क्षेत्रों में पाया जाना वाला एक रंगबिरंगा पक्षी है जिसका नाम ‘मोनाल’ है । उत्तर-पूर्वांचल में भी एक चिड़िया का नाम ‘मुनमुन’ है । यहाँ ‘मोनाल’ पक्षी का अर्थ बर्फीला या हिम क्षेत्र का सार्थक हो रहा है । ‘मोनाल’ का आल् प्रत्यय आलय यानी आश्रय, निवास का द्योतक है । हिमालय से हिमाल या हिमाला में भी आलय ही है ।  आलय से बना ‘आल्’ प्रत्यय निश्चित ही पहाड़ी बोलियों में भी प्रचलित है । ‘हेमन’ से ‘ह’ का लोप और मन से ‘आल्’ जुड़ कर पहाड़ी और बर्फीले क्षेत्र के तीतर, मुर्गेनुमा पक्षी के लिए मोनाल नाम सार्थक है ।
हुत सम्भव है कि ‘मानसरोवर’ और ‘मानसर’ दोनो के ही साथ जो मान है वह इसी मोन से आ रहा हो । जहाँ तक सागर > सायर का प्रश्न है, ध्यान रहे कि हिमालय क्षेत्र की सारी नदियाँ बर्फीले ग्लेशियरों से निकलती हैं । ग्लेशियर यानी हिमवाह या हिमप्रवाह । गंगा का उद्गम गंगोत्री मूलतः ग्लेशियर ही है । इसमें निहित प्रवाही भाव सृ से बने सर मे निहित है । हालाँकि ‘सर’ अब ‘सरोवर’ का पर्याय हो गया है किन्तु सरोवर भी किसी न किसी जलस्रोत से बहते पानी से ही बनते हैं । अलबत्ता जलाशय के अर्थ में ‘सर’ और ‘सायर’ का प्रयोग स्थानीय प्रभाव है । जम्मू के पास की झील को कुछ लोग ‘मानसर’ कहते हैं कुछ ‘मान-सायर’ । कुल मिला कर मान में शीत या बर्फ़ का आशय है । इसका प्रमाण कुमाऊँ अंचल के प्रसिद्ध पर्यटनस्थल मुन्स्यारी में मिलता है । इसमें भी मान/मोन और सायर साफ़ नज़र आ रहा है । गौरतलब है कि इस क्षेत्र में हिमवाह भी हैं । मोन यानी हिम और सर में निहित प्रवाही भाव से यह भी स्पष्ट होता है कि इसमें हिमवाह का आशय भी रहा होगा ।

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Wednesday, July 4, 2012

बेहुदा हिदायतें …

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दो चीज़ों के मेल से हमेशा नई बात पैदा हो जाती है । इस दुनिया में जो कुछ भी सरल है, सुपाच्य है, सुंदर है , सुग्राह्य है वह सब किन्ही दो या दो से अधिक चीज़ों के सुमेल से ही प्रकाश में आया है । अरबी के बहुत से शब्द इसीलिए हिन्दी के सर्वाधिक प्रचलित शब्दों में शुमार हुए हैं क्योंकि उन्हें भारतीय प्रकृति के अनुकूल बनने के लिए फ़ारसी का संस्कार मिला । रहित के अर्थ वाला बे उपसर्ग कई अरबी शब्दों में लगने से नया शब्द बना है । ऐसा ही एक शब्द है बेहुदा जो हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है । बेहुदा यानी अशिष्ट, बदतमीज़, असभ्य, अभद्र, अशालीन, बुरा और खराब । बेहुदा का स्त्रीवाची बेहुदी बनता है । इसी तरह अशिष्टता के लिए बेहूदगी शब्द प्रचलित है ।
बेहुदा शब्द बना है अरबी के हुदा में फ़ारसी के निषेधात्मक उपसर्ग ‘बे’ लगने से । गौरतलब है कि फ़ारसी का ‘बे’ वैदिक भाषा के वि का जोड़ीदार है । ध्यान रहे इंडो-ईरानी परिवार में ‘व’ का रूपान्तर ‘ब’ होता है । अरबी में अल-हुदा पद प्रचलित है जिसका अर्थ है राह दिखाना, निर्देशित करना, मार्गदर्शन करना, निर्वाण, मुक्ति, मोक्ष प्रदान करना आदि । इसके मूल में सेमिटिक धातु हा-दा-ये (h-d-y) से जिसमें अगुवाई, नेतृत्व, स्पष्टता, प्रदर्शन, निदर्शन जैसे भाव हैं । इस तरह अरबी के हुदा में किसी को समर्थ बनाना, उसमें सही-गलत की समझ पैदा करना, जीने का सही मार्ग बतलाना, आत्मरक्षा की तरकीब सिखाना जैसे भाव हैं । हुदा से पहले ‘बे’ लगाने से इन सब भावों का निषेध होने का आशय पैदा हो जाता है । ध्यान रहे, हुदा में निहित सभी भाव मूलतः किसी भी व्यक्ति को शिष्ट और शालीन बनाते हैं सो जिस व्यक्ति में इनका अभाव है वह स्वतः अशिष्ट या अशालीन की श्रेणी में आ जाएगा । इसीलिए अभद्र के अर्थ में ही हमेशा बेहुदा शब्द का प्रयोग होता है ।
सेमिटिक धातु हा-दा-ये (h-d-y) से बने कुछ और शब्द भी हैं जो इसी शब्दार्थ शृंखला से जुड़े हैं जैसे हादी । हिन्दी में हादी अल्प प्रचलित मगर जानी पहचानी टर्म है । हादी का अर्थ है पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक, नेता, अगुवा, प्रमुख, गुरु आदि । हादी एक उपाधि भी थी । इस्लाम धर्म के तहत धार्मिक आध्यात्मिक शिक्षाएँ देने वाले प्रमुख व्यक्ति को हादी कहा जाता था । मिर्ज़ा हादी रुस्वा पिछली सदी में उर्दू-फ़ारसी के मशहूर लेखक हुए हैं । उनकी लिखी उमराव जान अदा पुस्तक बहुत आज भी लोकप्रिय है । इस पर एक मशहूर फिल्म भी बन चुकी है । राह दिखाना दरअसल सिर्फ़ हाथ से किसी दिशा में जाने का इशारा भर करना नहीं होता । पथप्रदर्शक दरअसल ज़िंदगी जीने का ढंग सिखाता है । वह नसीहत देता है, परामर्श देता है । अपने अनुभवों का निचोड़ बताता है और उस पर आधारित दिशा-निर्देश देता है ।
हुदा की कड़ी में खड़ा है अरबी का हिदाया शब्द जिसका उर्दू, फ़ारसी और हिन्दी रूप है हिदायत जिसका अर्थ है निर्देश, संचालन, सलाह या परामर्श । हिदायत हिन्दी में खूब प्रचलित है । उर्दू में हिदायत का बहुवचन हिदायात बनता है जबकि हिन्दी में हिदायतों या हिदायतें जैसे रूप बनते हैं । “हिदायत करना”, “हिदायत देना” जैसे वाक्यांशों का आशय किसी ज़माने में जीवन-दर्शन के बारे में बताना था । इसके धार्मिक या आध्यात्मिक आशय एकदम स्पष्ट थे । अब सामान्य परामर्श या निर्देश के तौर पर हिदायत शब्द का प्रयोग होता है । इसीलिए अब हिदायतें भी बेहुदा होने लगी हैं । जिस तरह हुदा शब्द अरबी का प्रसिद्ध स्त्रीवाची संज्ञानाम है उसी तरह हादी पुरुषवाची संज्ञा है । हिदायत का प्रयोग भी पुरुषवाची संज्ञानाम की तरह होता है जैसे हिदायतअली, हिदायतउल्ला या हिदायतखाँ ।

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Friday, May 11, 2012

हुस्नो-एहसान की बातें

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फ़ा रसी के रास्ते हिन्दी में दाखिल हुए शब्दों में हुस्न का शुमार भी ऐसे शब्दों में होता है जिसका प्रयोग सुंदरता, रमणीक, खूबसूरत अथवा दर्शनीय जैसे भावों को व्यक्त करने में होता है । शेरो-शायरी की वजह से भी यह शब्द हिन्दी वालों की ज़बान पर चढ़ा हुआ है । हुस्न शब्द अरबी ज़बान से निकला है और इसके मूल में अरबी की हसूना क्रिया है जिसके मूल में भलाई, अच्छाई का भाव है । यह सेमिटिक धातु ह-स-न (h-s-n) से बना है जिसका अर्थ है सुंदर, सुंदर होना, परिष्कार, सँवारना, प्रशंसा करना आदि । हिन्दी में हुस्न शब्द का व्यापक इस्तेमाल न होते हुए इसे सिर्फ़ शारीरिक सौन्दर्य के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है । हाँ, उर्दू शायरी में हुस्न को सौन्दर्य अथवा खूबसूरती के व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है । प्राकृतिक सौन्दर्य के संदर्भ में हिन्दी में बिरले ही हुस्न का इस्तेमाल होता हो ।
हुस्न का प्रयोग महज़ रूप-आकार के सौन्दर्य को अभिव्यक्त करने तक सीमित नहीं है बल्कि अरबी में इसके दायरा व्यापक है । अल सईद एम. बदावी की अरेबिक-इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ़ क़ुरानिक यूसेज़ के मुताबिक हुस्न में दयालुता, परोपकार, पुण्य, उदारता, करुणा, सुखदायी, आनंददायी और दान जैसे आशय भी समाहित हैं । दरअसल ये सारे गुण मिलकर ही मनुष्य को मानवीयता का आधार देते हैं । इन्सानियत का हुस्न दरअसल इन गुणों से ही उभरता है । सो हुस्न में भौतिक सौन्दर्य प्रमुख नहीं है बल्कि उन बातों का उभार है जिनसे किसी रूपाकार में विशेष आकर्षण पैदा होता है । यह खूबी ही हुस्न है । कहा जा सकता है कि सौन्दर्य वह है जो मन को सुहाए यानी सुहावनापन ही खूबसूरती का प्रमुख आशय है न कि किसी रूपाकार के भौतिक आयामों का शास्त्रीय मापदण्डों पर आकलन । इससे सम्बन्धित हुस्तोआशिकी या हुस्नोजमाल जैसे सामासिक पद भी हिन्दी में चलते हैं । 
सन  एक व्यक्तिवाचक संज्ञा है । इसका इस्तेमाल द्वितीय पद की तरह भी होता है जैसे अलीहसन । हसन hasan सामान्य तौर पर पुरुषवाची संज्ञा है जिसका अर्थ सुंदर, मोहक, खूबसूरत (व्यक्ति) है । इसी तरह हसीन शब्द भी इसी मूल से जन्मा है जिसका अर्थ भी सुंदर, खूबसूरत, मनमोहक होता है । इसका स्त्रीवाची हसीना है । आमतौर पर सुंदरी, लावण्यमयी युवती को हसीना की संज्ञा दी जाती है । पैगम्बर मोहम्मद के नवासे अली के बेटों के नाम हसन और हुसैन थे । हसन बड़े थे और हुसैन छोटे । हुसैन का आशय भी सुंदर ही है । एक अन्य व्यक्तिवाचक संज्ञा है मुहसिन । हिन्दी में यह मोहसिन के रूप में प्रचलित है । मोहसिन का अर्थ होता है दयालु, कृपालु, मददगार, रहमदिल, मेहरबान या उपकारी । इसका स्त्रीवाची मोहसिना होता है जैसे मोहसिना क़िदवई । इसी कतार में खड़ा है तहसीन । यह भी व्यक्तिवाचक संज्ञा है जिसका अर्थ है प्रशंसा, तारीफ़, क़द्र, आशीर्वाद आदि ।
मुस्लिम समाज में एहसान व्यक्तिवाचक संज्ञा के तौर पर भी इस्तेमाल होता है जैसे एहसान मलिक, एहसान ज़ाफ़री । पकार के आशय वाला अहसान ahsan शब्द  हिन्दी में खूब प्रचलित है । अरबी में इसका एहसान ehsan रूप है और हिन्दी में भी यही रूप ज्यादा प्रचलित है । हिन्दी शब्दकोशों में अहसान शब्द को हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल माना गया है । एहसान भी सेमिटिक धातु ह-स-न (h-s-n) से बना है । गौरतलब है कि उपकार, भलाई नेकी के अर्थ वाला अरबी का यह शब्द हिन्दी में अपनी मुहावरेदार अर्थवत्ता की वजह से इतना लोकप्रिय है कि आम बोलचाल में यह उपकार से भी ज्यादा सुनाई पड़ता है । एहसान मानना यानी कृतज्ञ होना, एहसान जताना भलाई का रौब जमाना या एहसान करना यानी उपकार करना, एहसान के क़ाबिल, एहसान का बदला जैसे मुहावरे हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं । एहसान में मूलतः भलाई करन या अच्छाई करने जैसा भाव है । कृतज्ञ के अर्थ में एहसानमंद और कृतघ्न के अर्थ में एहसानफ़रामोश शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं ।

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Wednesday, April 25, 2012

मुलम्मे की चमक

mulamma

कि सी हलकी धातु पर कीमती धातु की परत चढ़ाने की परम्परा दुनियाभर में प्राचीनकाल से प्रचलित है जिसे मुलम्मा कहा जाता है । मुलम्मा शब्द भारत की क़रीब क़रीब सभी प्रमुख भाषाओं में प्रचलित है । हिन्दी की तो ख़ैर सभी बोलियों में इसे खूब लिखा-पढ़ा-समझा जाता है । मूलतः यह सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है और बरास्ता फ़ारसी, अरबी भाषा का यह शब्द भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ । यह दिलचस्प है कि अपने ख़ास ठिकाने पर कोई शब्द किसी अन्य रूप में होता है और फिर बदली हुई अर्थवत्ता के साथ उसका कुछ और रूपान्तर किसी अन्य भाषा में होता है । वर्तमान में मुलम्मा का जो अर्थ प्रचलित है उसमें कलई करने या पॉलिश करने का आशय है । गिलट की हुई धातु यानी सोने-चांदी का पानी चढ़ी धातु को भी मुलम्मा कहते हैं । मुलम्मा में नकली पॉलिश का भाव अब प्रमुख हो गया है । तात्पर्य यह है कि ऐसा पदार्थ जो कभी जगमग था पर अब उसकी चमक फीकी पड़ गई है । अगर उसे घिस-माँज दिया जाए तो भी वह चमक उठता है । यानी किसी पदार्थ की चमक ही उसका मुलम्मा है । मगर अब मुलम्मा के साथ चमकीली परत, सतह, पॉलिश या आवरण का आशय जुड़ गया है ।
मूल अरबी में मुलम्मा से अभिप्राय चमक से है । आवरण, लेपन, कलई जैसे आशय इसमें बाद में जुड़े । मुलम्मा mukkama के मूल में है अरबी का लम्अ lam‘ जिसमें द्युति, दीप्ति, कांति, झलक, चमक जैसे भाव हैं । बनावटी, दिखावटी और आडम्बरपूर्ण व्यवहार के सम्बन्ध में भी मुलम्मा शब्द का मुहावरेदार प्रयोग होता है जैसे – “कई बार लगता है मानो धर्मनिरपेक्षता हमारी सांविधानिक पहचान न होकर मुलम्मा है ।” सस्ती धातु से बने बरतनों और गहनों पर सोने चांदी का पानी चढ़ाने वाले कारीगर को मुलम्मासाज कहते हैं । यह प्रक्रिया मुलम्मासाज़ी या मुलम्माकारी कही जाती है । मुलम्मा के तद्भव रूप मुलमा में तुर्की का ची प्रत्यय लगाकर मुलमची जैसा शब्द भी बनाया गया जिसका अर्थ भी मुलम्मासाज़ ही होता है । मराठी में मुलम्मा को मुलामा कहते हैं । हैंस व्हेर और मिल्टन कोवेन के अरबी-इंग्लिश कोश के मुताबिक लम्अ का अर्थ ज्योति, झिलमिल, जगमग, दिपदिप, द्युति, चमक आदि का भाव है । यह चमक प्रतिभा की भी हो सकती है, किसी वस्तु की भी । इसमें परिमार्जन से पैदा कांति का भाव भी है और शुद्धिकरण से पैदा दीप्ति भी ।
फ्रांसिस जोसेफ़ स्टेंगास के फ़ारसी अंग्रेजी कोश के में मुलम्मा के जो अर्थ प्राथमिक क्रम में दिए हैं उनके अनुसार अलग अलग रंगों के घोड़ों को भी मुलम्मा कहते हैं । एक विशिष्ट काव्य विधा जिसमें किसी छंद का आधा हिस्सा एक भाषा में और आधा किसी दूसरी भाषा में होता है । ऐसा प्रयोग दोहा या शेर जैसे छंद में किया जाता है जिसमें दो पंक्तियाँ होती हैं । आमतौर पर मुलम्मा विधा का ज़िक्र तुर्की फ़ारसी के संदर्भ में हुआ है जिसमे अरबी का मिश्रण होता है । गौरतलब है कि इस्लामी प्रभाव बढ़ने के बाद राजनीतिक संदर्भों में फ़ारसी और तुर्की पर अरबी प्रभाव बढ़ने लगा था । अरबी प्रभाव वाली फ़ारसी और अरबी प्रभाव वाली तुर्की का वहाँ के विद्वानों ने समय समय पर विरोध किया मगर फिर भी अरबी का असर बना रहा । अरबी की यही चमक या झलक जिस विधा में सर्वाधिक रही उसे ही मुलम्मा कहा गया । तीसरे क्रम पर स्टेंगास मुलम्मा का अर्थ किसी धातु पर दूसरी धातु के विद्युत-लेपन, आवरण अथवा परत चढ़ाना बताते हैं । स्पष्ट है कि मुलम्मा का मुख्य अर्थ चमक या झलक ही है ।
जो भी हो, यह चमक ही उस वस्तु की नई पहचान है । इसीलिए समझा जा सकता है कि एक काव्यविधा के तौर पर मुलम्मा से आशय उस विशिष्ट छंद से है जिसमें एक भाषा पर दूसरी भाषा की छाप नज़र आती है । इसे हिन्दी और हिन्दुस्तानी से समझ सकते हैं । आज़ादी से पहले की हमारी ज़बान हिन्दुस्तानी थी जिसमें अरबी, फ़ारसी शब्दों का सुविधानुसार प्रयोग होता था । आज़ादी के बाद परिनिष्ठित हिन्दी ने ज़ोर पकड़ा और फ़ारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग काफ़ी कम हुआ । तो पहले की जो हिन्दुस्तानी थी वो मुलम्मा थी, क्योंकि उस में अरबी-फ़ारसी की झलक थी । ध्यान रहे मुलम्मा यानी झलक । चाँदी पर सोने का मुलम्मा यानी सोने की झलक । पीतल पर चांदी का पॉलिश यानी सोने की झलक ।

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