Sunday, August 10, 2008

उसे मुझसे प्यार हो गया था...[बकलमखुद-62]

bRhiKxnSi3fTjn ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी और प्रभाकर पाण्डेय को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के बारहवें पड़ाव और साठवें सोपान पर मिलते हैं अभिषेक ओझा से । पुणे में रह रहे अभिषेक प्रौद्योगिकी में उच्च स्नातक हैं और निवेश बैंकिंग से जुड़े हैं। इस नौजवान-संवेदनशील ब्लागर की मौजूदगी प्रायः सभी गंभीर चिट्ठों पर देखी जा सकती है। खुद भी अपने दो ब्लाग चलाते हैं ओझा उवाच और कुछ लोग,कुछ बातें। तो जानते हैं ओझाजी की अब तक अनकही।

स्कूल की शुरुआत तो आप सुन ही चुके हैं... पंडीजी जमीन पर बैठा के पढाते... गिनती-पहाडा और भाषा, २५ तक पहाडा का रट्टा... बस अंधों में काना राजा और तेज कहा जाने लगा. कोई बोलता चलो हिसाब करके बताओ कि कितने पैसे बचे... तुरहा को बगीचा दिया और इतने के आम दिए उसने तो अब कितने लेने हैं या फिर खेत की जुताई के कितने पैसे देने हैं... लोगो की चिट्ठी लिखने-पढने भी जाता (चिट्ठी पढने में बहुत मज़ा आता).

रांची आगमन

५वीं तक अंग्रेजी नहीं पढ़नी होती लेकिन ५वीं तक पहुचते-पहुचते बड़े पिताजी ने ८वीं तक की अंग्रेजी रटा दी थी. खूब अनुवाद कराते... अच्छी बात थी की बच्चों को कभी मारते नहीं थे. पूरा गाँव अभी भी उन्हें पंडीजी ही कहता है. हाँ गाली खूब देते हैं और इसे अपनी जमींदारी की पुश्तैनी देन मानते हैं. छठी कक्षा में था तो पहली बार दिल्ली के पढ़े एक भाई-बहन आए और एक स्पेल्लिंग वाले खेल मैं हार गया... अगले दिन से डिक्सनरी हाथ में लेकर चलता और उसके बाद कभी नहीं हारा. ६ महीने के बाद स्कूल छोड़कर रांची आ गया. उस भाई बहन में जो सांवली सी बहन वाला हिस्सा था वो अब भी याद है, मुझे खूब छेड़ती (कहती मुझे अपना भाभी बनाएगी). मुझसे बड़ी थी २-३ साल. कई साल बाद भी लोग कहते की मुझे याद करती रही. कहने वाले तो ये भी कहते की उसे मुझसे प्यार हो गया था... पर उस उमर में ये भी नहीं जानता था की प्यार किस चिडिया का नाम है. पर हाँ सुना है लडकियां ये जल्दी समझने लगती है... पर दुर्भाग्य उसके बाद कभी मिलना ही नहीं हो पाया.

टूटी, केरकेट्टा, नाग, मरांडी...

रांची आने पर जमीन पर बैठकर पढने वाला गाँव का छोरा बेंच पर बैठने लगा श्यामपट्ट की जगह हरे कांच के बोर्ड्स ने ले ली...पंडीजी की जगह सर और मैडम. नाम ऐसे बदले की समझ ही नहीं आते थे... टूटी, केरकेट्टा, नाग, मरांडी, मुंडू, कच्छप, डुंग-डुंग (एक लड़के का नाम था दीपक डुंग-डुंग और उसे हम लोग डी-क्यूब बुलाते). पहले ही दिन एक लड़का मिला नाम मेल्क्योर केरकेट्टा और जिस स्कूल से आया था उसका नाम था 'डॉन बोस्को रुडूनकोचा'. उसकी पूरी जानकारी तो लाख कोशिश करके भी उस दिन नहीं याद हो पायी थी पर अभी तक नहीं भुला. यहाँ आने के पहले यादव, ओझा, चौबे, पांडे और मिश्रा जैसे गिने चुने नाम होते. मास्टरजी बड़े-बड़े हिसाब देते और सही होने पर पीठ ठोकी जाती यहाँ होमवर्क जैसी चीज से पाला पड़ा और पीठ की ठुकाई बंद. 'वह शक्ति हमें दो दयानिधे' और त्वमेव माता' की जगह 'ओ माय फादर इन हेवेन' होने लगा. चार-चार परीक्षाएं होगी सुन के ही डर लगा... पहली परीक्षा के बाद घर पर बताया की २ विषय में लटक जाऊंगा... पर बाद में पता चला की पंडीजी की विद्या यहाँ भी कमाल कर गई और सबको पीछे छोड़ते हुए छोरा फर्स्ट आ गया. फिर पता चला की शाबाशी यहाँ भी मिलती है तो बस पंडीजी की वो विद्या जो गिनती-पहाडा से चालु हुई थी कुछ उसका कमाल और शाबाशी लेने का नशा चार साल तक विद्यालय में सर्वोच्च अंक पाता रहा...

ममता कुलकर्णी की फोटो

कुछ कहानियाँ भी बन गयी... ८ वीं में था तो गणित का पेपर भी चेक किया... इस सिलसिले में कई सहपाठियों से मार खाते-खाते बचा :-) मेरे एक दोस्त के पिताजी ने कहा की ओझा से ज्यादा अंक ले आओ तो बाइक मिलेगी...उस समय की बात कुछ और थी आज वाला होता तो फ़ेल भी हो गया होता. शिक्षकों का भरपूर प्यार मिला, किताबें भी खूब जीती पर साथ में कक्षा में बात करने के लिए खूब डांट भी खाई... सज़ा में सोशल सर्विस के नाम पर.. स्कूल में फूलों की क्यारी भी खूब साफ़ की. स्कूलों के शिक्षक आज भी पहचानते हैं एक बार ममता कुलकर्णी की फोटो वाली एक नोट बुक लेकर स्कूल चला गया एक शिक्षक ने कह दिया 'तुम भी यही खरीदते हो?' उस दिन बहुत बुरा लगा.

प्रेमचंद को घोट डाला ....

इस बीच माँ को गाँव जाना पड़ता था... अधिकतर समय के लिए बिना माँ के भी रहना पड़ता... खूब रोता, खेलने जाना बंद कर दिया, मन ही नहीं लगता..., एकांत से लगाव होने लगा, दोनों भाई छुट्टी के दिन जगन्नाथ मन्दिर की पहाड़ी पर जाकर घंटो बैठते, भिखारियों से लेकर मन्दिर आने वालो की श्रद्धा, स्कूल के शिक्षक से लेकर किताबें, पड़ोसियों के बारे में सब कुछ चर्चा करते. मन बहलाने के लिए किताबें उठा ली, प्रेमचंद को घोट डाला पता नहीं कितनी बार, फिर शरतचंद, अंग्रेजी की बी.ए. की किताबें, शेक्सपियर, मुल्कराज आनंद फिर मिली किशोर उपन्यास श्रृंखला (पुस्तकालय से) लगभग सारी निपटा डाली. पाठ्यक्रम की किताबों की कभी कमी नहीं हुई एक-एक विषय की ५-५ लेखकों की किताबें होती, प्रकाशन वाले पापा को दे जाते उन्हें पता चलता की इनका लड़का इस कक्षा में है तो उस कक्षा की हर विषय की किताब दे जाते.- जारी

20 कमेंट्स:

Smart Indian said...

बहुत ही रोचक. लिखते रहिये.

Udan Tashtari said...

:) मजा आ रहा है-रोचक वृतांत चल रहा है अभिषेक बाबू का. अगली कड़ी की प्रतिक्षा.

Gyan Dutt Pandey said...

अभिषेक का लिखा संस्मरण बहुत फ्लो लिये है। सुन्दर।

दिनेशराय द्विवेदी said...

राजस्थान और झारखंड बहुत दूर हैं दोनों पर जीवन में समानताएँ बहुत हैं। जीवन का प्रारंभ तब यहाँ भी ऐसा ही था।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

प्रभावी प्रस्तुति.
==============
अभिषेक जी, आपकी साहित्यिक
अभिरुचि बहुत परिष्कृत है.
आगे भी पढ़ते रहिए.
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शुभकामनाएँ
डा.चन्द्रकुमार जैन

योगेन्द्र मौदगिल said...

agli kadi ki pratiksha hai bhai..
kab tak ?

योगेन्द्र मौदगिल said...

agli kadi ki pratiksha hai bhai..
kab tak ?

Arun Arora said...

वह जी ये हुई ना बात , बाकी मास्साब लोग नोट करे , किताबे मुफ़्ती की मिलती है :)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

“होनहार बिरवान के होत चीकने पात।” अभिषेक जी ऐसे ही होनहार लगते हैं जिनके पाँव पण्डीजी ने पालने में ही देख लिए होंगे। ...जारी रखिए, अच्छा लग रहा है।

Rajesh Roshan said...

मेरा झारखण्ड...... बहुत बढ़िया लिखते रहो अभिषेक बाबू.... मुझे खूब मजा आ रहा है

Anonymous said...

shandar

ashsih

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छे ...किस्सा कहने में कोई मुकाबला नहीं आपका...
नीरज

बालकिशन said...

जबरदस्त अंदाजे बाया.
आनंद आ रहा है.
जारी रहे.

Prabhakar Pandey said...

रोचकता से परिपूर्ण। मजेदार।

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया चल रहीं हैं बचपन की यादें। बहुत रोचक तरीके से बता रहे हैं।
घुघूती बासूती

कुश said...

अब तो ममता कुलकर्णी वाली नोट बुक नही ले जाते हो ना :)

डॉ .अनुराग said...

शीर्षक ऐसा था की हम तुंरत फुरंत खीचे चले आये पिछले दिनों व्यस्वस्ता ने हाथ पकड़े रखा ..इसलिए जरा देर से पहुंचे ..पर आपकी प्रेम कहानी ...वाकई दिलचस्प मोड़ पे शुरू हुई थी.....हाय ममता कुलकर्णी याद आ गई

रंजू भाटिया said...

वाह :) रोचक लगा यह भी संस्मरण ..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

जीवन ऐसी यादोँ का पुल्लिँदा होता है बहुत अच्छा लिखा है अभिषेक भाई -
हाँ एक प्रश्न है, " आपका नाम किसने चुना था ? "
(ऐसे ही पूछ रही हूँ )--
- लावण्या

गौतम राजऋषि said...

कहानी में बड़ा ही साम्य है...जैसे वो पंडी जी, फट्टे वाला स्कूल...एक बर हम भी अपने दिल्ली वाले पढ़े-लिखे कजिन्स से हार गये थे अंग्रेजी में...फिर ऐसा नशा चढ़ा अंग्रेजी सीखने का कि पूछो मत।
आज तुम्हारी दास्तान पढ़कर वो सब बातें याद आयीं।
लिखना तुम्हारा तो शुरू से पसंद रहा है मुझे...चलता हूं अगली कड़ी पर।

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