Tuesday, July 31, 2007

मेरी पसंद - आओ बहस करें ...

हस करना ज्यादातर पढ़े-लिखे मनुश्यों का खास शगल है। ये बहस कहीं भी नज़र आ सकती है। स्कूल, कालेज, दफ्तर सड़क,घर-बाहर और अब तो ब्लाग पर भी ....कहीं भी। किसी भी विषय पर हो सकती है चांद-तारों से कारों तक, योग से भोग तक , शराब-शबाब से गंगा-जमना दोआब तक किसी पर भी। इस पर भी कि मैं ये सब क्यों लिख रहा हूं, ऐसा सचमुच हो , इससे पहले लें मजा़ श्याम बहादुर नम्र की इस कविता का जो मुझे प्रिय है।


आओ बहस करें
सिद्धांतों को तहस-नहस करें
आओ बहस करें।

बहस करें चढ़ती महंगाई पर
विषमता की
बढ़ती खाई पर।
बहस करें भुखमरी कुपोषण पर
बहस करें लूट-दमन-शोषण पर
बहस करें पर्यावरण प्रदूषण पर
कला-साहित्य विधाओं पर।

काफी हाऊस के किसी कोने में
मज़ा आता है
बहस होने में।

आज की शाम बहस में काटें
कोरे शब्दों में सबका दुख बांटें
एक दूसरे का भेजा चाटें
अथवा उसमें भूसा भरें
आओ बहस करे....

-श्याम बहादुर नम्र अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, July 29, 2007

लिबास, निवास और हमारा बजाज



गर ये कहा जाए कि मनुष्य मकान में भी रहता है और कपड़ों में भी तो कुछ गलत न होगा। दरअसल संस्कृत की वस् धातु से ही वासः यानी मकान और वस्त्रम् यानी कपड़े का जन्म हुआ है।
वस् धातु का अर्थ होता है ढकना, रहना , डटे रहना आदि। वस् से बने वासः से ही हिन्दी में निवास और आवास जैसे शब्द भी बने । यही नहीं, गांव देहात में आज भी घरों के संकुल या मौहल्ले के लिए बास या बासा (गिरधर जी का बासा) शब्द काफी प्रचलित है।
वस्त्रम् या वसन् शब्द ने प्राकृत में वस्सन या वस्स रूप लिया। कालांतर में कई इलाकों में इसका बज्ज रूप भी प्रजलित हुआ। हिन्दी में आकर इसने बजाज का रूप ले लिया। इस बजाज शब्द का रिश्ता भी कपड़े से जुड़ता है। बजाज यानी कपड़ों का धंधा करने वाला। वणिक समाज में कपड़ों के कारोबार से जुडे समूह का तो बजाज उपनाम ही प्रचलित हो गया है। गांधीवादी बजाज परिवार ने अपने स्कूटर को बजाज नाम देकर हमारा बजाज को घर-घर में लोकप्रिय बना दिया। वस्स शब्द का जब पश्चिम में प्रसार हुआ तो अरबी में इसके साथ पहले लि प्रत्यय जुड़ गया और एक नया शब्द बन गया लिबास, मगर अर्थ वही रहा। पोशाक या वस्त्र।
चर्बी या चिकनाई के लिए वसा शब्द का खूब इस्तेमाल होता है। वसा का अर्थ मज्जा, मेद या मोटी खाल ही होता है। जाहिर सी बात है कि चर्बी और खाल भी शरीर पर चढ़ी रहती है इसीलिए इसके लिए भी वसा शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी के उद्गम यानी पोस्ट जर्मेनिक में वस्त्र के लिए वज्नन शब्द का प्रयोग होता है। संस्कृत धातु वस् का जब पश्चिम में और ज्यादा प्रसार हुआ तो कई यूरोपीय भाषाओं में पहनने –ओढ़ने के अर्थ में इसने प्रवेश पाया। अंग्रेजी का विअर wear यानी पहनना शब्द भी इससे ही निकला है।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, July 28, 2007

प्रेम गली से खाला के घर तक


दुनियाभर के संत और धर्मग्रन्थ एक बात खास तौर पर कहते आए हैं कि प्रेम से बड़ी कोई नीति नहीं मगर लोभ-लालसा छोड़कर ही प्रेममार्गी हुआ जा सकता है। यानी लालच और प्रेम साथ-साथ नहीं चल सकते। कबीरदास भी एक साखी में कहते हैं-
प्रेमगली अति सांकरी,
या में दुई न समाय।

एक अन्य दोहे में वे कहते हैं-
कबीर यहु घर प्रेम का
खाला का घर नाहीं।

हिन्दी के मशहूर कवि गीतकार कुंवर बेचैन भी अपने एक दोहे में यही कहते नज़र आते हैं कि प्रेम लोभ का साथ नहीं-
जहाँ काम है, लोभ है, और मोह की मार
वहाँ भला कैसे रहे, निर्मल पावन प्यार.

यह तो रही धर्म और नीतिशास्त्र की बात लेकिन भाषाशास्त्र के चौड़े रास्ते पर जब शब्दों का सफर शुरू होता है तो प्रेम यानी अंग्रेजी के love और संस्कृत-हिन्दी के लोभ, लालच, लालसा और लोलुपता जैसे विपरीतार्थी लफ्ज हेल-मेल
करते नजर आते है। भाषाविज्ञानियों के मुताबिक संस्कृत के मूल शब्द लुभ् में ही अंग्रेजी के लव के जन्म का आधार छुपा है। लुभ् यानी यानी रिझाना, बहलाना, आकृष्ट करना, ललचाना,लालायित होना आदि। जाहिर है कि प्रेम में ये तमाम क्रियाएं शामिल हैं। मगर साथ ही इससे बने लो शब्द में लोलुपता, लालसा, लालच, तृष्णा, इच्छा जैसे अर्थ नज़र आते है। लुभ् का ही एक रूप नजर आता है इंडो-यूरोपीय शब्द लुभ् यानी leubh में जिसका मतलब भी ललचाना, रिझाना, चाहना था। प्राचीन जर्मन भाषा ने इससे जो शब्द बनाया वह था lieb. प्राचीन अंग्रेजी में इससे बना lufu. बाद में इसने luba का रूप ले लिया।
लैटिन में भी यह libere बनकर विराजमान है। बाद में आधुनिक अंग्रेजी में इसने love के रूप में अपनी जगह बनाई और प्रेम, स्नेह लगाव और मैत्रीभाव जैसे व्यापक अर्थ ग्रहण किए। यही नहीं, अंग्रेजी में बिलीफ और बिलीव जैसे शब्द भी इसी लुभ् की देन हैं जिनका लगातार अर्थ विस्तार होता चला गया। जाहिर है भाषा विज्ञान के आईने में कबीर की संकरी सी प्रेमगली ऐसा हाईवे नजर आता है जो सीधे खाला के घर तक जाता है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, July 22, 2007

आबादी और शताब्दी


ताब्दी का अर्थ सभी जानते है मगर संस्कृत के इस शब्द का फारसी के आबादी लफ्ज के साथ बड़ा गहरा रिश्ता है। शताब्दी बना है संस्कृत के शत्+अब्दः से मिलकर । शत् यानी सौ और अब्दः यानी बादल-मेघ। सदियों पहले से ही कालगणना के लिए लोगों ने ऋतुओं को ही आधार बनाया। जैसे एक साल की अवधि के लिए वर्ष शब्द वर्षा से बना। अर्थात् दो बरसातों के बीच की अवधि। इसी तरह अब्द यानी मेघ शब्द ने भी संस्कृत में एक वर्ष की अवधि का अर्थ ग्रहण कर लिया लिहाज़ा शताब्दी का अर्थ हो गया सौ बरस। मगर इसका आबादी से रिश्ता कैसे जुड़ा ? संस्कृत में पानी के लिए एक शब्द है अप् । संस्कृत में द वर्ण का अर्थ है कुछ देना या उत्पादन करना । चूंकि पृथ्वी पर पानी बादल लेकर आते हैं इसलिए अप् + द मिलकर बना अब्द यानी पानी देने वाला। इस अप् या अब्द से इंडो-इरानी भाषा परिवार में कई रूप नज़र आते हैं। पानी के अर्थ वाला संस्कृत का अप् फारसी में आब बनकर मौजूद है । हिन्दी उर्दू में जलवायु के अर्थ में अक्सर आबोहवा शब्द का भी इस्तेमाल किया जाता है । यही नहीं जो अप् बादल के अर्थ में संस्कृत में अब्द बना हुआ है वही फारसी मे अब्र की शक्ल में हाजिर है। एक शेर देखिये -

दो पल बरस के अब्र ने , दरिया का रुख किया
तपती ज़मीं से पहरों निकलती रही भड़ास


फारसी का आबरू (इज्ज़त) लफ्ज और आबजू ( नहर, नदी या चश्मा ) शब्द भी इससे ही निकले हैं। गौरतलब है कि फारसी के आबजू की तरह संस्कृत में भी अब्जः शब्द है जिसका मतलब पानी का या पानी से उत्पन्न होता है।
बसावट के अर्थ में हिन्दी-उर्दू-फारसी में आम शब्द है आबाद या आबादी। इसका मतलब जनसंख्या या ऐसी ज़मीन है जिसे जोता और सींचा जाता है। सिंचाई के लिए पानी ज़रूरी है । ज़ाहिर है आबाद या आबादी वहीं है जहां पानी है। इसे यूं समझा जा सकता है कि जहां आब है वही जगह आबाद होगी। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, July 21, 2007

गीत- मिलना हाथ पसारे

हिन्दी के यशस्वी कवि यश मालवीय का यह गीत मुझे प्रिय है। यश जी अद्भुत गीतकार हैं। बोलचाल के शब्दों का इस्तेमाल और भाव प्रवणता इनकी खासियत है। यह गीत करीब दस बरस पहले मैने एक दैनिक में बच्चों का कोना के अन्तर्गत छपा देखा। गर्दिश के दिन थे। दो-ढाई बरस के बेटे को अपने माता-पिता के पास छोड़कर मैं किसी और शहर में था और टीवी स्टेशन के न्यूज रूम में मजूरी कर रहा था। हर हफ्ते बेटे से मिलने जाना होता था। ऐसी ही एक यात्रा में यह गीत पढ़ा। इतने बरसों से इस गीत को जिस डायरी में संभाले रखा वह आज अचानक हाथ लगी। आप भी लीजिये इस गीत का आनंद।

हिलते रहे हरे पत्तों से
नन्हे हाथ तुम्हारे
दफ्तर जाना ही था
पापा क्या करते बेचारे !

दफ्तर , जो अपने सपनों की
खातिर बहुत ज़रूरी
खाली जेब कहां से होगी
जिदें तुम्हारी पूरी ?
उड़ जाएंगे आसमान में
गैस भरे गुब्बारे।

तुम्हें चूमना चाहा भी तो
घड़ी सामने आई
कल की खुली अधूरी फाइल
पड़ी सामने आई
बेटे , मुझे माफ कर देना
मिलना बांह पसारे।

बजते रहे कान रस्ते भर
सुना तुम्हारा रोना
और पास ही रहा बोलता
चाबी भरा खिलौना
राह धूप में दिखी अंधेरी
ओ घर के उजियारे।

शाम पहुंचकर दफ्तर से घर
तुमको बहला लूंगा
गर्म चुम्बनों से गुलाब सा
चेहरा नहला दूंगा।
किलकारी में खो जाएंगे
सारे आंसू खारे


-यश मालवीय

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, July 20, 2007

अदरक में नशा है....


श्चिमी दुनिया में भारतीय मसालों के लिए जो ललक थी उसी ने यूरोप से भारत के लिए आसान समुद्री मार्ग की खोज करवाई। मसालों की दुनिया में अदरक की खास जगह है। अंग्रेजी में इसे जिंजर कहते हैं। खान-पान में अदरक के दो रूप प्रचलित हैं पहला ताजा यानी गीला और दूसरा सूखा। गीला रूप अदरक कहलाता है और सूखा रूप सौंठ। गौरतलब बात ये है कि अदरक और जिंजर दोनों ही शब्द भारतीय मूल के हैं।
पहले अदरक की बात। अदरक शब्द बना है संस्कृत के आर्द्रकम् से। हिन्दी में यह हुआ अदरक । उर्दू-फारसी में इसे अद्रख कहते हैं। बाकी भारतीय भाषाओं में भी इससे मिलते जुलते रूप मिलते हैं।
अब बात जिंजर की। अंग्रेजी का जिंजर मध्यकालीन लैटिन के जिंजीबेरी से बना। लैटिन में इसकी आमद हुई ग्रीक के जिंजीबेरिस से। ग्रीक भाषा का जिंजीबेरिस प्राकृत के सिंगीबेरा से बना जिसकी उत्पत्ति संस्कृत शब्द श्रृंगवेरम् से मानी जाती है जिसका अर्थ हुआ सींग जैसी आकृति का । मगर भाषाविज्ञानी उत्पत्ति के इस आधार को एक दिलचस्प मान्यता से ज्यादा तरजीह नहीं देते । उनके मुताबिक जिंजर की उत्पत्ति संस्कृत के
श्रृगवेरम्
से नहीं बल्कि द्रविड़ भाषा परिवार से हुई है। प्राचीन द्रविड़ भाषा में इंची शब्द है जिसका अर्थ है जड़ या मूल इसी से बना तमिल में इंजीवेरी। तमिल के जरिये ही यह शब्द पूर्वी एशिया , पश्चिमी एशिया और फिर यूरोप पहुंचा। आज दुनियाभर में अलग-अलग रूपों में दक्षिण भारत से गया यही शब्द मौजूद है जैसे श्रीलंका की सिंहली में इंगुरू, रशियन में इंबिर, यूक्रेनियन में इंब्री, स्लोवेनियन में डुंबियर, फ्रैंच में जिंजेम्ब्रे, और हिब्रू में सेंगविल के रूप में ।
पुराने वक्त में दक्षिण भारत में अदरक से शराब भी बनाई जाती थी जिसे आर्द्रकमद्यम् कहा जाता था। दक्षिण के कुछ इलाकों मे देशी शराब को आज भी अरक ही कहते हैं जो संभवत: इससे ही बना है। यह परम्परा श्रीलंका में अब भी कायम है और वहां जिंजर बियर खूब मशहूर है। इसे आयुर्वेदिक औषधि के तौर पर भी विदेशी सैलानियों के आगे परोसा जाता है। यहां का एलिफेंट ब्रांड मशहूर है। यूं फारसी में अरक का मतलब दवाई, शराब और यहां तक की पसीना भी होता है। समझा जा सकता है कि इसमें किसी चीज़ से सार के निचोड़ या खींचने का भाव ही शामिल है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, July 18, 2007

ग़ज़ल - नाखुदा लड़ते हैं...

साथियों, सफर के बीच बीच में कुछ ऐसे पड़ाव भी आते रहें तो कोई आपत्ति तो नहीं ?



नाखुदा लड़ते हैं , लड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल बढ़ने दीजिए

खुद-ब-खुद जो हाशियों पर आ बसे
उनके खेमों को उखड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल..

आंख झुक जाएगी खुद ही शर्म से
जिस्म को जी भर उघड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल...

हो कोई नन्हा सिरा उम्मीद का
एक तिनका ही पकड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल..

परकटी संभावनाएं हों जहां
बात बेपर की भी उड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल...

अजित अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, July 15, 2007

समझदार से बुद्धू की रिश्तेदारी


किसी बात का ज्ञान करने या कराने के अर्थ में हिन्दी में बड़ा आम शब्द है - समझ। बातचीत के दौरान इसके समझना, समझाना, समझाया जैसे क्रिया रूप बनते हैं। इस समझ को समझने का जतन करें तो इसके पीछे न सिर्फ संस्कृत का बुद्ध नज़र आता है बल्कि इसकी छाया रूसी, जर्मेनिक, स्लोवानी, लिथुआनी, फारसी जैसी भाषाओं में भी नज़र आती है।
संस्कृत की एक धातु है बुद् जिसका अर्थ है किसी बात का ज्ञान होना, जागना । इससे बने बुद्ध , बुध , बुद्धि, और बोधि जैसे शब्द जिनके भीतर भी समझना, जानना, प्रकाशमान और जागा हुआ जैसे भावार्थ छुपे हैं। हिन्दी का एक उपसर्ग है सम् जिसका अर्थ है समान या से मिलकर। सम् + बुद्ध मिलकर बना सम्बुद्ध यानी जान लेना । इसका देशी रूप बना समुझ और फिर बना हिन्दी का शब्द समझ । क्रम कुछ यूं रहा-सम्बुद्ध >सम्बुज्झ >सम्मुज्झ >समुझ >समझ। बाद में समझ शब्द उर्दू में भी चला गया और इसमें दार प्रत्यय लग कर एक और आम शब्द बना समझदार यानी सयाना।
संस्कृत की मूल धातु बुद् यानी रूसी भाषा का बुदीत् अर्थात जागना । संस्कृत का एक शब्द है प्रबुद्ध अर्थात् जागा हुआ, ज्ञानी, जागरूक और समझदार। बुद्ध में प्र उपसर्ग लगने से इस शब्द का निर्माण हुआ है। गौर करें कि रूसी में भी इसी के समकक्ष एक शब्द है प्रबुज्देनिये । अर्थ वही है जो संस्कृत हिन्दी में है । इसी तरह लिथुआनी में बुदति (जानना, समझना) स्लोवानी में बुदिति, चेक और क्रोशियाई में ब्दीम, अवेस्ता में बोदयति जैसे शब्द भी हैं ।
इसी बुद् से बौद्धधर्म और उसके संस्थापक महात्मा बुद्ध का नाम भी जन्मा है। यही नहीं बौद्धधर्म का प्रचार जब फारस में हुआ और वहां बुद्ध की मूर्तियां बनने लगीं तो लोगों ने उसका उच्चारण बुत यानी बुद्ध किया । बाद में प्रतिमा के अर्थ में ही फारसी में बुत शब्द का प्रचलन हो गया। खुद में खोए रहने वाले, चिंतनशील व्यक्ति के लिए भी प्राचीनकाल में बुद्ध शब्द का चलन रहा और बाद में इसकी इतनी दुर्गति हुई कि भोंदू , जड़ बैठे रहने वालों और कुछ भी न समझने वालों यानी मूर्ख के अर्थ में एक नया शब्द चल पड़ा बुद्धू । ज़ाहिर सी बात है कि यूं बुद्धिमान किसी बुद्धू को पास नहीं फटकने देता है मगर शब्दों के सफर में ये दोनों एक ही कतार में खड़े हैं।

बुद्, बोध, बुध, बुद्ध, प्रबुद्ध, सम्बुद्ध, समझ, समझदार
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

बुत में बुद्ध की तलाश



फारसी का एक शब्द है बुत जो अब अरबी, तुर्की ,उर्दू समेत हिन्दी में भी आम हो गया है। बुत के मायने होते है प्रतिमा या मूर्ति। बुत शब्द जन्मा जरूर फारस में मगर रिश्ता इसका भारत से ही है। दरअसल बुद्ध से ही बुत निकला है। बुद्ध के मायने होते है सब कुछ जानने वाला। मगर यह अर्थ बुत के मायने से मेल नहीं खाता। दरअसल बुद्ध के निर्वाण की एक सदी के भीतर बौद्ध धर्म एशिया में फैलने लगा था। अफगानिस्तान के रास्ते जब बौद्ध धर्म फारस पहुंचा तो वहां भी भिक्षुओं ने पठन पाठन के लिए विहारों की स्थापना की और बड़ी संख्या में भव्य और विशाल मूर्तियों का निर्माण हुआ। फारसवासी उस समय भी मूर्तिपूजक नही थे । वे अग्निपूजक थे। महात्मा बुद्ध से उनका परिचय प्रतिमाओं के माध्यम से ही हुआ जिसका उच्चारण उन्होने बुत के रूप मे किया। इन्हे देखकर वे कहते - ये तो बुत है अर्थात ये बुद्ध हैं। बाद के सालों में यही बुत प्रतिमा के अर्थ में फारसी में प्रचलित हुआ। कई सदियों बाद जब इस्लाम का उदय हुआ तो बुत शब्द को और विस्तार मिला तथा बुतपरस्त, बुतशिकन, बुतकदा जैसे कई शब्दों का जन्म हुआ। एक और बात गौरतलब है। बौद्धधर्म मे भी मूर्तिपूजा का निषेध है और स्वयं बुद्ध ने अपने जीवन काल में शिष्यों को पाबंद किया था कि निर्वाण के बाद उनकी प्रतिमाएं न बनाई जाएं। विडंबना देखिए कि बुद्ध के इतने बुत बनें कि यह नाम ही मूर्ति का पर्याय हो गया। अफगानिस्तान, चीन और जापान में तो बौद्ध मूर्तियों ने विशालता के प्रतिमान स्थापित किए।

अगली कड़ी में बुद्ध की बुद्धू से रिश्तेदारी।
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, July 13, 2007

बेटा निहाल, बजरबट्टू बेहाल



हिन्दी में पुत्र या पुत्री के लिए बेटा या बेटी शब्द का चलन है। यही नहीं बड़ों की ओर से छोटों को स्नेहपूर्वक दिया जाने वाला भी यह एक बेहद लोकप्रिय संबोधन है। इस बेटा और बेटी पर जब लाड़-प्यार-वात्सल्य की चाशनी ज्यादा चढ़ा दी जाती है तब बिट्टू, बिटवा ,बिटिया, बिट्टी,बिट्टन जैसे कई गाढ़े और प्यारे रूप देखने को मिलते हैं।
ये सभी शब्दरूप संस्कृत के वटु: से बने हैं । संस्कृत मे इसी शब्द के तीन अन्य रूप - वटुक: , बटु: और बटुक भी हैं। इन तमाम शब्दरूपों के दो ही अर्थ हैं पहला - ब्रह्मचारी, दूसरा- छोकरा, लड़का या किशोर। वटु: या बटुक से अपभ्रंश रूप में बेटा शब्द बना जिसका चलन पुत्र के अर्थ में होने लगा। बाद में पुत्री की तर्ज पर इससे बेटी शब्द भी बना लिया गया मगर मूलत: यह पुरुषवाची शब्द ही था।
प्राचीनकाल में गुरुकुल के विद्यार्थी के लिए ही आमतौर पर वटु: या बटुक शब्द प्रयोग किया जाता था। राजा-महाराजाओं और श्रीमन्तों के यहां भी ऋषि-मुनियों के साथ ये वटु: जो उनके गुरुकुल में अध्ययन करते थे, जाते और दान पाते।
बजरबट्टू भी बटुक से ही बना। बजरबट्टू आमतौर पर मूर्ख या बुद्धू को कहा जाता है। जिस शब्द में स्नेह-वात्सल्य जैसे अर्थ समाए हों उससे ही बने एक अन्य शब्द से तिरस्कार प्रकट करने वाले भाव कैसे जुड़ गए ?
आश्रमों में रहते हुए जो विद्यार्थी विद्याध्ययन के साथ-साथ ब्रह्मचर्यव्रत के सभी नियमों का कठोरता से पालन करता उसे वज्रबटुक कहा जाने लगा। जाहिर है वज्र यानी कठोर और बटुक मतलब ब्रह्मचारी/विद्यार्थी। ये ब्रह्मचारी अपने गुरू के निर्देशन में वज्रसाधना करते इसलिए वज्रबटुक कहलाए। मगर सदियां बीतने पर जब गुरुकुल और आश्रम परम्परा का ह्रास होने लगा तब इन बेचारे बटुकों की कठोर वज्रसाधना को भी समाज ने उपहास और तिरस्कार के नजरिये से देखना शुरू किया और अच्छा खासा वज्रबटुक हो गया बजरबट्टू यानी मूर्ख। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, July 12, 2007

दिशाओं के हाथी - दिग्गज


बोलचाल की हिन्दी का एक शब्द है दिग्गज जो कि आमतौर पर किसी बड़े और प्रभावशाली व्यक्ति के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है। इस शब्द के महत्व को जताने वाले कुछ मुहावरे भी हिन्दी में चलते हैं जैसे दिग्गजों की लड़ाई या दिग्गजों का अखाड़ा। दरअसल दिग्गज संस्कृत का शब्द है और ज्यों का त्यों हिन्दी में भी प्रयोग किया जाता है। यह संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है दिक्+गज्=दिग्गज। इसके शाब्दिक मायने हुए दिशाओं के हाथी। पुराणों के मुताबिक समूचे ब्रह्माण्ड को आठ हाथियों ने थाम रखा है। हलाय़ुध कोश में इसकी व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है दिशोगजः अर्थात दिशाओं के हाथी। एक श्लोक है-"ऐरावतः पुण्डरीको वामनःकुमुदोsञ्जनः। पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः।" अर्थात इनके नाम हैं-(१) ऐरावत, (२) (पुंडरीक,) (३) वामन, (४) कुमुद, (५) अंजन, (६) पुष्पदंत, (७) सार्वभौम व (८) सुप्रतीक। दिशा के लिए मूलरूप से संस्कृत शब्द दिश् है जिससे दिक् और दिग् दो अन्य शब्द बने हैं जिनका अर्थ भी यही है। इससे हिन्दी में कुछ अन्य शब्द भी बने हैं जैसे दिग्दिगंत ( दिशाओं का छोर ), दिग्विजय( चारों दिशाओं में दिखाया पराक्रम ) और दिगंबर ( एक संप्रदाय-जिसके लिए दिशाएं ही वस्त्र हों )। इसी तरह एक अन्य शब्द है दिक्पाल जिसका अर्थ है दिशाओं के रक्षक। गौरतलब है कि भारतीय ज्ञानसंहिताऔं में चार की जगह कहीं दस और कहीं आठ दिशाएं मानी जाती हैं। ये रक्षक स्वयं देवगण हैं जिन्हें स्वयं ब्रह्मा ने ये जिम्मेदारी दी-(१) इन्द्र पूर्व के, (२)अग्नि दक्षिण-पूर्व के ,(३) यम दक्षिण के (४)सूर्य दक्षिण-पश्चिम के (५)वरूण पश्चिम के (६)वायु पश्चिमोत्तर के (७) कुबेर उत्तर के और(८) सोम उत्तर-पूर्व के। इसके अलावा पाताल को देखने की जिम्मदारी शेषनाग ने संभाली और आकाश स्वयं ब्रह्मा ने संभाला। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Monday, July 9, 2007

सड़क-सरल-सरस्वती




संस्कृत में एक क्रिया है सृ जिसका मतलब होता है जाना, तेज-तेज चलना, धकेलना , सीधा वगैरह। इन तमाम अर्थों में गति संबंधी भाव ही प्रमुख है। सृ से ही बना है सर शब्द जिसका मतलब न सिर्फ जाना है बल्कि गतिवाले भाव को प्रदर्शित करता हुआ एक अन्य अर्थ जलप्रपात भी है। यही नहीं सर का मतलब झील भी है। इसी से सरोवर भी बना है । अमृतसर , मुक्तसर , घड़सीसर जैसे अनेक नामों में भी यही सर समाया है। सीधी सी बात है कि ये सभी स्थान किसी न किसी सरोवर के नाम से जाने जाते हैं।
हिन्दी का सड़क शब्द भी सृ से ही जन्मा है। सृ के गति वाले भाव से संबंधित सड़क शब्द मूल रूप से संस्कृत में सरक: के रूप में मौजूद है जहां इसका मतलब राजमार्ग, सीधा चौड़ा रास्ता है। संस्कृत, हिन्दी, बांग्ला रास्ते या राह के लिए सरणि शब्द भी यहीं से पैदा हुआ। यही नहीं किसी राह या रास्ते पर चलना, किसी के पीछे चलना जैसे भावों को उजागर करने वाले सरण, अनुसरण जैसे शब्दों में भी संस्कृत मूल का सृ शब्द है।
निष्कपट, ईमानदार और सीधा-सादा के अर्थ में सरल शब्द का हिन्दी में खूब प्रयोग होता है। यह भी इसी कुटुंब का शब्द है।
सृ से ही संस्कृत के सरस् शब्द की उत्पत्ति हुई है जिसका मतलब तालाब, पोखर, जलाशय है। सरस्वत शब्द इसी की अगली कड़ी है जिसका अर्थ है सजल, रसीला, नद, समुद्र वगैरह। पुराणों में उल्लेखित सरस्वती नदी का नाम इससे ही निकला है। वाणी व ज्ञान की देवी के साथ दुर्गा और गाय को भी सरस्वती कहते हैं। किसी दरार से पानी के बहाव को रिसाव या रिसन कहा जाता है । यह भी सृ से ही बना है। यही नहीं नदी के लिए सरिता सरकना, सरसराना आदि शब्दों का उद्गम भी इससे ही हुआ है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, July 7, 2007

आरोही से रूहेलखंड तक


संगीत मे आरोह-अवरोह बेहद आम और सामान्य शब्द हैं बल्कि यूं कहा जाए कि संगीत इन्हीं दो शब्दों पर टिका है तो गलत न होगा। सुरों के चढ़ाव-उतार से ही संगीत की रचना होती है। आरोह यानी चढ़ाव और अवरोह यानी उतार। आरोह-अवरोह बने हैं संस्कृत के रुह् से जिसका अर्थ है उपजना, चढ़ना, ऊपर उठना, विकसित होना, पकना आदि। इसी से बना है रोह: जिसका अर्थ है चढ़ना, वृद्धि-विकास और गहराई। चढ़ाई के लिए आरोहण शब्द भी इसी से बना है। राज्यारोहण, सिंहासनारोहण जैसे शब्दों से यह जाहिर है।
आरोही-रोहः में आ उपसर्ग लगने से एक और शब्द की रचना होती है-आरोही। शाब्दिक अर्थ हुआ ऊपर की ओर जाने वाला (या वाली) मगर भावार्थ हुआ प्रगतिगामी। जो उत्तरोत्तर तरक्की करे। ऊंचे स्थान को हासिल करे, प्रतिष्ठित हो। आरोही से बननेवाले कुछ शब्द हैं अश्वारोही, पर्वतारोही आदि। गौरतलब है कि पहाड़ो पर चढ़नेवालों को हिन्दी में पर्वतारोही कहते हैं मगर नेपाली भाषा में पर्वतारोही को सिर्फ आरोही ही कहा जाता है।
श्रीलंका के एक पहाड़ का नाम है रोहण: । जाहिर है रुह् में निहित चढ़ाई और गहराई जैसे अर्थ को ही यह साकार करता है।
रूहेलखंड-आज के उत्तरप्रदेश के एक हिस्से को रूहेलखंड कहा जाता है। इसका यह नाम पड़ा रुहेलों की वजह से। मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ पश्चिम से जो जातियां भारत आकर बस गईं उनमें अफगानिस्तान के रुहेले पठान भी शामिल थे। इसकी उत्पत्ति भी संस्कृत के रूह् से ही हुई है जो पश्तो ज़बान में बतौर रोह प्रचलित है। पश्तो में रोह का अर्थ पहाड़ होता है। सिन्धी जबान में भी पहाड़ के लिए रोह शब्द ही है। साफ है कि पहाड़ी इलाके में निवास करने वाले लोग रुहेले पठान कहलाए। रोहिल्ला शब्द भी इससे ही बना। भारत में आने के बाद ये अवध के पश्चिमोत्तर इलाके में फैल गए और इस तरह रुहेलों ने बसाया रुहेलखंड। दिल्ली के नजदीक सराय रोहिल्ला कस्बे के पीछे भी यही इतिहास है।
रूखा या रूक्ष- हिन्दी मे रूखा शब्द का अर्थ है खुरदुरा, कठोर , नीरस के अलावा इसका एक अर्थ उदासीन भी होता है। इस शब्द का उद्गम हुआ है संस्कृत के रूक्ष शब्द से जिसका मतलब है ऊबड़-खाबड़, असम और कठिन । रूक्ष की उत्पत्ति भी रूह् धातु से हुई है जिसका अर्थ है ऊपर उठना, चढ़ना आदि। गौरतलब है कि हिन्दी का ही एक और शब्द है रूढ़ जिसका जन्म भी रूह् धातु से हुआ है। इसके मायने भी स्थूलकाय, बड़ा या उपजना, उगना आदि हैं। कुल मिलाकर रूह् से जहां संगीत की सुरीली दुनिया के शब्द बने वहीं पथरीली-पहड़ी और ऊबड़-खाबड़ दुनिया के लिए भी रूक्ष और ऱूढ़ जैसे शब्द बने । गौर करें रूह् के ऊपर चढ़ने और उतरने जैसे भावों पर। ज़ाहिर है चढ़ने-उतरने के लिए धरातल का असम होना ज़रूरी है। अर्थात पहाड़ी या ऊबड़-खाबड़ ज़मीन। इसीलिए रूह् से बने रूक्ष शब्द में ये सारे भाव विद्यमान हैं और इससे रुखाई जैसे लफ्ज भी बन गए। इसी तरह रूह् के चढ़ने के अर्थ मे उगने-उपजने और बढ़ने का भाव भी छुपा है। गौर करें कि प्रथा के लिए रूढ़ि शब्द भी इससे ही बना है। इसमें भी बढ़ने और उपजने का भाव छुपा है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, July 6, 2007

कुली के कुल की पहचान



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

भारत में आमतौर पर बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर यात्रियों का सामान ढोने वाले के लिए कुली शब्द का प्रयोग किया जाता है। किसी जमाने में ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति का सबसे घिनौना पहलू इसी शब्द के जरिये उजागर हुआ था । सभी ब्रिटिश उपनिवेशों के मूल निवासियों के लिए अंग्रेज कुली शब्द इस्तेमाल करने लगे थे। अंग्रेजी, पुर्तगाली के अलावा यह शब्द तुर्की,चीनी, विएतनामी बर्मी, आदि भाषाओं में भी बोला जाता है। हिन्दी को कुली शब्द पुर्तगालियों की देन है पर यह भारतीय मूल का ही शब्द है। हालांकि आर्य भाषा परिवार का न होकर इसका रिश्ता द्रविड़ भाषा परिवार से जुड़ता है।
हिन्दी का कुली दरअसल तमिल मूल का शब्द है और कन्नड़ में भी बोला जाता है। इन दोनों भाषाओं में इसका उच्चारण कूलि के रूप में होता है जिसका मतलब हुआ मजदूर अर्थात ऐसा दास जो मेहनत के बदले में पैसा पाए। वैसे गुजरात के तटवर्ती इलाके की एक आदिम जनजाति का भी यही नाम है। गौरतलब है कि करीब पांच हजार साल पहले तक द्रविड़ भाषाओं का विस्तार सुदूर उत्तर-पश्चिमी भारत तक था और आपसी संपर्क के जरिये इसका प्रवेश तुर्की भाषा में भी हो गया जहां इसका रूप बना कुल् यानी दास। और इसी से उर्दू-फारसी में भी कुली के रूप में इसकी पैठ हो गई। अंग्रेजों से भी पहले सोलहवीं सदी के आसपास पुर्तगालियों ने जब भारत के दक्षिणी तट पर पैर पसारने शुरू किए तो वे इस शब्द के संपर्क में आए। पुर्तगालियों के बाद फ्रांसीसी इस शब्द से जुड़े। सत्रहवीं सदी तक यूरोप के लोग इससे परिचित हो चुके थे।
जो भी हो पुर्तगालियों के जरिये अंग्रेज भी इस शब्द के संपर्क में आए और फिर तो ब्रिटिश उपनिवेशों जैसे चीन, बर्मा, विएतनाम , ताइवान, दक्षिण अफ्रीका आदि में इस शब्द का चलन आम हो गया। यहां तक कि अपनी नस्लवादी सोच केचलते अहंकारी अंग्रेजों ने गुलाम मुल्कों की रियाया के लिए कुली शब्द का खुला प्रयोग शुरू कर दिया। अठारहवी सदी की शुरूआत में जब अंग्रेजों ने भारत समेत तमाम पूर्वी उपनिवेशों से सस्ती मजदूरी पर हजारों लोगों को मारीशस, अमेरिका , कनाडा आदि जगह भेजना शुरू किया तो इस शब्द का विस्तार भी करीब करीब पूरी दुनिया में हो गया। गौरतलब है कि महात्मा गांधी को प्रिटोरिया, जोहांसबर्ग में कुली बैरिस्टर कहा जाता था। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, July 5, 2007

गोत्र यानी गायों का समूह


जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। यह जानना दिलचस्प होगा कि आज जिस गोत्र का संबंध जाति-वंश-कुल से जुड़ रहा है , सदियों पहले यह इस रूप में प्रचलित नहीं था। गोत्र तब था गोशाला या गायों का समूह। दरअसल संस्कृत में एक धातु है त्रै-जिसका अर्थ है पालना , रक्षा करना और बचाना आदि। गो शब्द में त्रै लगने से जो मूल अर्थ प्रकट होता है जहां गायों को शरण मिलती है, जाहिर है गोशाला मे। इस तरह गोत्र शब्द चलन में आया।

गौरतलब है कि ज्यादातर और प्रचलित गोत्र ऋषि-मुनियों के नाम पर ही हैं जैसे भारद्वाज-गौतम आदि मगर ऐसा क्यों ? इसे यूं समझें कि प्राचीनकाल में ऋषिगण विद्यार्थियों पढ़ाने के लिए गुरुकुल चलाते थे। इन गुरूकुलों में खान-पान से जुड़ी व्यवस्था के लिए बड़ी-बड़ी गोशालाएं होती थीं जिनकी देखभाल का काम भी विद्यार्थियों के जिम्मे होता था। ये गायें इन गुरुकुलों में दानस्वरूप आती थीं और बड़ी तादाद में पलती थीं। गुरुकुलों के इन गोत्रो में समाज के विभिन्न वर्ग भी दान-पुण्य के लिए पहुंचते थे। कालांतर में गुरूकुल के साथ साथ गोशालाओं को ख्याति मिलने लगी और ऋषिकुल के नाम पर उनके भी नाम चल पड़े। बाद में उस कुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों और समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी अपनी पहचान इन गोशालाओं यानी गोत्रों से जोड़ ली जो सदियां बीत जाने पर आज भी बनी हुई है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, July 4, 2007

अर्जुन, अर्जेंटीना और जरीना


महाभारत के प्रसिद्ध पात्र अर्जुन और दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना में भला क्या संबंध हो सकता है ? कहां अर्जुन पांच हजार साल पहले के द्वापर युग का महान योद्धा और कहां अर्जेंटीना जिसकी खोज सिर्फ पांच सौ वर्ष पहले कोलंबस ने की। दोनो में कोई रिश्ता या समानता नजर नहीं आती। पर ऐसा नहीं है। दोनों में बड़ा गहरा रिश्ता है जिसमें रजत यानी चांदी की चमक नजर आती है। भारतीय यूरोपीय भाषा परिवार का रजत शब्द से गहरा नाता है। इस परिवार की सबसे महत्वपूर्ण भाषा संस्कृत में चांदी के लिए रजत शब्द है। प्राचीन ईरानी यानी अवेस्ता में इसे अर्जत कहा गया है।
गौरतलब है कि चांदी एक सफेद , धवल चमकदार धातु है। इस परिवार की यूरोपीय भाषाओं में जो शब्द हैं उनका मतलब भी सफेद और चमकीला ही है। यूरोपीय भाषाओं में इसके लिए जो मूल शब्द है वह है अर्ज। ग्रीक में इसके लिए अर्जोस , अर्जुरोस और अर्जुरोन जैसे शब्द हैं जिनका मतलब सफेद या चांदी होता है। संस्कृत में अर्जुन का अर्थ भी यही है -सफेद, चमकीला , उज्जवल। अर्जुन को महाभारत में यह नाम अपने पवित्र और उज्जवल कमों के लिए दिया गया। इसी तरह लैटिन में अर्जेन्टम लफ्ज है जिसका सीधा मतलब चांदी या रजत ही होता है। इसी से अंग्रेजी में बना अर्जेंट जिसका अर्थ होता है रजत। पंद्रहवी सदी के आसपास दक्षिण अमेरिका में जब चांदी की खोज शुरू हुई तो एक विशाल क्षेत्र को नए राष्ट्र के रूप में पहचान मिली। नामकरण हुआ अर्जेंटीना
अब बात जरी की। हिन्दी-उर्द मे प्रचलित लफ्ज जरी के मायने होते हैं सोना अथवा सोने का मुलम्मा चढ़ा हुआ धागा या तार। इसीलिए पुराने जमाने में रईसों के लिए जरी से कपड़े बुने जाते थे। इससे सिले हुए वस्त्र उत्सवों-आयोजनों की पहचान थे क्योकि ये कीमती होते थे । जरी शब्द बना है फारसी के जर से जिसका अर्थ है धन-दौलत-सम्पत्ति अथवा स्वर्ण, कांचन या सोना। प्राचीन इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शब्द है अर्ज यानी चमक और सफेदी। इसी तरह संस्कृत में भी एक धातु है अर्ज् जिसका मतलब भी चमकीला, श्वेत आदि है। इसी से बना है अर्जुन। गौरतलब है कि श्वेत और चमकीलापन, पवित्रता का प्रतीक भी हैं इसीलिए अर्जुन को यह नाम मिला। इससे मिलते-जुलते मायनों वाले कई शब्द न सिर्फ हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में बल्कि यूरोपीय भाषाओं में भी प्रचलित हैं। ये सभी शब्द अर्ज् से ही बने हैं। संस्कृत हिन्दी में चांदी को रजत ही कहते हैं। अवेस्ता में यह अर्जता के रूप में है तो फारसी में जर बनकर विद्यमान है। ग्रीक में यह अर्जुरोस के रूप में प्रचलित है । चांदी के लिए रासायनिक नाम ag इसी से बना है।

जर यानी फारसी में धन-सम्पत्ति। खासबात ये कि अर्ज में निहित चमक और कांति वाले भावों ने इसे जहां संस्कृत में चांदी का अर्थ प्रदान किया वहीं फारसी में सोने के मायने दिए। बाद में इसे सर्वाधिक मूल्यवान धातु के तौर पर धन का पर्याय ही मान लिया गया। जर से बने कई शब्दो से हम बखूबी परिचित हैं मसलन जरीना यानी सुनहरी , जरखरीद यानी जिसे मूल्य देकर खरीदा गया हो, जरदोजी यानी जरी का काम। यही नहीं पीले रंग के लिए फारसी उर्दू में जर्द शब्द है जाहिर है यह भी सोने के पीले रंग की बदौलत ही बना है। इससे ही अंडे के भीतर के पीले पदार्थ के लिए जर्दी शब्द चला। मजेदार बात यह कि फारसी में चाहे अर्ज् से बने जर के मायने सोना है मगर चांदी के लिए वहा भी इसी का सहारा लेकर एक शब्द बनाया गया है जरे-सफेद यानी सफेद सोना। इसे श्वेत-सम्पदा के रूप में भी देखा जा सकता है। उर्दू-फारसी में गुलाम के लिए ज़रखरीद शब्द भी है जिसका मतलब होता है जिसे धन देकर खरीदा गया हो। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, July 3, 2007

कलदार या रुपया


हिंदी में रुपए के लिए कलदार शब्द प्रचलित है। खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में यह शब्द धड़ल्ले से एक-दो रुपए के सिक्के के लिए प्रयोग होता है। दरअसल लॉर्ड कार्नवालिस (31दिसंबर1738 - 5 अक्टूबर 1805)के जमाने में भारत में मशीन के जरिए सिक्कों का उत्पादन शुरू हुआ। लोगों नें जब सुना कि अंग्रेज `कल´ यानी मशीन से रुपया बनाते हैं तो उसके लिए `कलदार´ शब्द चल पड़ा। यूं देखें तो आज कागज के जिस नोट को हम रुपया कहते हैं वह भी पहले चांदी का सिक्का होता था। संस्कृत में चांदी को `रौप्य´ कहते हैं इसलिए `रौप्य मुद्रा´ शब्द प्रचलित था। इसे ही घिसते-घिसते `रुपए´ के अर्थ में शरण मिली। मजे की बात देखिए, पाकिस्तान जहां की भाषा उर्दू है, संस्कृत के रौप्य से जन्मा रुपया ही सरकारी मुद्रा के तौर पर डटा हुआ है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

हाइड्रोजन ही पानी है


कैमिस्ट्री की दुनिया में आक्सीजन और हाइड्रोजन से मिलकर पानी का निर्माण हुआ है अर्थात पानी की रचना में हाइड्रोजन का योगदान है। इसके उलट भाषा विज्ञान की दुनिया में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि हाइड्रोजन शब्द के निर्माण में पानी की खास भूमिका रही है। जानते हैं कैसे।
संस्कृत में पानी के लिए कई शब्द हैं इनमें उदकम् , उदम् या उदक भी हैं और ये शब्द जल भंडार, सागर या जलाशय का अर्थ रखते हैं। इन सभी शब्दों का निर्माण संस्कृत की धातु उद् से हुआ है जिसमें अतिशय ऊंचाई पर , उत्तर में या ऊपर जैसे भाव हैं । जाहिर सी बात है मनुश्य की स्मृतियों में उत्तर दिशा में स्थित हिमालय ही पानी का उद्गम रहा है। उद् से ही बना उद्र जिसका अर्थ हुआ पानी। इसमें सम् उपसर्ग लग जाने से बना समुद्र जाहिर है जहां बहुत सा पानी हो वही समुद्र होगा। शिव के कई नामों में एक नाम समुद्र भी है।
पानी के लिए उद् धातु का प्रसार पश्चिम में भी हुआ और इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार में उडेर, वेडोर , वेड जैसी नई धातुएं बनीं जिनसे यूरोपीय भाषाओं में कई शब्द बने। सबसे पहले बात हाइड्रोजन की। उद्र से ग्रीक भाषा में हुद्र (हुड्र), हुदोर (हुडोर) जैसे शब्द बने जिनसे हाइड्रोजन समेत पानी से रिश्तेदारी रखने वाले अनेक शब्दों का जन्म हुआ। अंग्रेजी का वाटर यानी पानी और वेट यानी नमी जैसे शब्द भी इसी से बने हैं क्रम कुछ यूं रहा होगा - उद-उड-हुड-वेड-वेट-वाटर। गौरतलब है कि सर्दियों के लिए अंग्रेजी में विंटर शब्द है जिसका जन्म भी उड या वेड की शब्दश्रृंखला से है जिनसे वेट (नमी) जैसे शब्द बने और जिनका अर्थविस्तार शीतऋतु हुआ। यही नहीं, डच में वैटेर, जर्मन में वैसर समेत कई यूरोपीय भाषाओं में इससे मिलते जुलते शब्द हैं जिनका अर्थ पानी या लहर है। रूसी में पानी के लिए वोद शब्द है । विश्वप्रसिद्ध रूसी शराब वोदका का नामकरण इससे ही हुआ है। व्हिस्की के पीछे भी यही शब्दश्रृंखला हैं। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

अश्व यानी गधा-घोड़ा-सिपाही

बात जरा अटपटी सी है मगर है बिल्कुल सही। अंग्रेजी के ass यानी गधा और हिन्दी-उर्दू के सिपाही दोनों लफ्जों का संबंध अश्व (घोड़ा) से है। हिन्दी ,संस्कृत, अंग्रेजी और उर्दू-फारसी ज़बानों के ये शब्द भारोपीय भाषा परिवार के है। जानते हैं कैसा है ये रिश्ता। संस्कृत में अश्व का जो रूप है वह है अश्व: जिसके तीन अर्थ हैं-1. घोड़ा 2. सात की संख्या प्रकट करनेवाला प्रतीक 3. मनुश्यों की दौड (घोडे़ जैसा बल रखने वाले)। इसी तरह संस्कृत शब्द अश्वक का अर्थ भाड़े का टट्टू या छोटा घोड़ा भी होता है जबकि अश्वतर: का मतलब होता है खच्चर। संस्कृत शब्द अश्व का जो रूप प्राचीन इरानी यानी अवेस्ता में मिलता है वह अस्प:है । लगभग यही रूप अस्प बनकर फारसी में भी चला आया। प्राचीनकाल से ही अश्व यानी घोड़ा अपने बल, फुर्ती और रफ्तार के लिए मशहूर रहा है और पर्वी यूरोप , मध्यएशिया से लेकर मंगोलिया तक फौजी अमले का अहम हिस्सा रहा। यही वजह रही कि अश्व के फारसी रूप अस्प पर आधारित एक नया शब्द भी चलन में आया सिपाह जिसका अर्थ है सेना, बल या फौज। गौरतलब है कि संस्कृत अश्व: और अवेस्ता के अस्प: से यहां अ का लोप हो गया मगर बाकी तीनों ध्वनियां यानी स-प-ह बनीं रहीं। इसी सिपाह आधार से उठकर बना सिपाही शब्द जिसका मतलब फौजी, यौद्धा या सैनिक होता है आज फारसी के साथ-साथ अरबी और अंग्रेजी में भी चलता है हालांकि वहां ये sepoy है जो पुर्तगाली के sipae से बना और उर्दू से आया।

अब बात गधे यानी ass की। जिस तरह अश्व: का फारसी रूप बना अस्प उसी तरह इसका पश्तो रूप बना आस। वहां से सुमेरियाई भाषा में यह आन्सू (ansu) बनकर उभरा और फिर वहां से लैटिन में यह आसिनस बनकर पहुंचा जहां इसने एक मूर्ख पशु वाला भाव ग्रहण किया। बाद में ओल्ड जर्मेनिक से होते हुए यह अंग्रेजी के वर्तमान गधे के अर्थ वाले रूप ass में ढल गया। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


Blog Widget by LinkWithin