Wednesday, July 18, 2007

ग़ज़ल - नाखुदा लड़ते हैं...

साथियों, सफर के बीच बीच में कुछ ऐसे पड़ाव भी आते रहें तो कोई आपत्ति तो नहीं ?



नाखुदा लड़ते हैं , लड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल बढ़ने दीजिए

खुद-ब-खुद जो हाशियों पर आ बसे
उनके खेमों को उखड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल..

आंख झुक जाएगी खुद ही शर्म से
जिस्म को जी भर उघड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल...

हो कोई नन्हा सिरा उम्मीद का
एक तिनका ही पकड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल..

परकटी संभावनाएं हों जहां
बात बेपर की भी उड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल...

अजित

6 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

बेहतरीन, अजित जी.

काकेश said...

अच्छी गजल.

Yunus Khan said...

अजीत भाई आपका ब्‍लॉग अच्‍छा लग रहा है । ये ग़ज़ल अच्‍छी है । खासकर आखिरी शेर । आप उस शहर से हैं जहां मेरा बचपन बीता, स्‍कूली पढ़ाई हुई । मुझे भोपाल से भोत पियार है । एक फरमाईश है । भोपाली ज़बान में कोई ग़ज़ल लिखिए ना । को ख़ां फंसा दिया क्‍या ।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अच्छी रचना है भाई.

Anonymous said...

Accha hai... Bahut badhiya gazal hai.. Shabdon ke Safar ke beech beech me agar aise padav aate rahenge...to bahut accha rahega.
Main maafi chahta hun ki beech me kuch din aapka blog padh nahi saka, isliye...ye gazal miss ho gayee..

:-)

अशोक सलूजा said...

बहुत खूब ...अजित जी |
खुश रहिये !

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