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Saturday, October 22, 2016

महिषासुर के कितने ठिकाने !!!


प्रा चीन भारतीय समाज में वृक्षों, जन्तुओं, नदियों की पहचान पर नामवाची संज्ञाएँ बनती रही हैं। चाहे व्यक्तिनाम हो, समूह नाम हो या स्थाननाम हो। जैसे सैन्धव, नार्मदीय, (सिन्धु, नर्मदा से) पीपल्या, बड़नगर, इमलिया, वडनेरकर (पीपल, इमली, वट से) गोसाईं, घोसी, गोमन्तक, गोवा (गाय से), हिरनखेड़ा, हिरनमगरी, हरनिया (हिरण से) आदि अनेक संज्ञाएँ सामने आती हैं।

ताज़ा महिषासुर प्रसंग में महिषासुर-दुर्गा को लेकर पाण्डित्य बह रहा है। आख्यानों के आख्यान रचे जा रहे हैं। इन मिथकीय आधारों का उल्लेख धार्मिक साहित्य में सर्वाधिक हुआ है। लोक ने अपनी कल्पना से इसमें बहुत कुछ जोड़ा। वह सब भी धार्मिक-सांस्कृतिक आधार बनता गया। मगर अब तो पुरातात्विक या नृतत्वशास्त्रीय स्थलों को भी मिथकों का प्रमाण मानते हुए मनमानी व्याख्या सामने आ रही हैं। यानी अगर सरस्वती देवी का दस सदी पुराना मन्दिर मिल जाए तो इसे पुरातात्विक प्रमाण मान लिया जाना चाहिए कि सरस्वती देवी थीं।

वेद-पुराण के प्रमाणों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषित करने की ज़रूरत होती है। अनेक लोगों ने यह काम किया है। परम्पराओं, मान्यताओं और आख्यानों की तह में जाकर ही जनजातीय समाज और हिन्दूसंस्कृति की गहन बुनावट को समझा जा सकेगा। इस विषय पर डॉ भगवान सिंह जैसे विद्वान ही आधिकारिक तौर पर बेहतर लिख सकते हैं।

हम सिर्फ़ यही कहना चाहते हैं कि असुर, राक्षस जैसे नामों को लेकर एक नकारात्मक कल्पना हमारे समाज का दोष है। शिक्षानीति में भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया। मूलतः ये जातीय समूह रहे हैं और अलग अलग कालखण्डों में ये प्रभावशाली रहे हैं, बात इतनी भर है। कल की अनेक क्षत्रिय जातियाँ आज हीन सामाजिकता झेल रही हैं। बुंदेलखंड पर राज करने वाले खंगार क्षत्रिय अब कोटवार या चौकीदार के तौर पर जाने जाते हैं।

देशभर में पसरी पड़ी भैंस या महिष की संज्ञा वाली बस्तियों को आज भी पहचाना जा सकता है। स्वाभाविक है कि वहाँ भैंस प्रजाति की बहुतायत होगी। यह भी संभव है की यह किसी समूह की टोटेम पहचान हो जिसके आधार पर उस स्थान को नाम मिला। क्या देश के एक खास क्षेत्र को काऊबैल्ट या गोपट्टी नहीं कहते ? भैंस शब्द 'महिष' से निकला है जिसमें शक्ति, बल का भाव है। मूलार्थ है सूर्य। स्वाभाविक है कि कृषि के लिए जिस काल में भैंसे का प्रयोग होने लगा तब शक्ति व बल के आधार पर उसे भी यही नाम मिल गया।

यूँ महिष का मूल भी मह् से है जिससे महान शब्द बनता है। महान यानी बलवान, शक्तिवान। बिहार में महिषी, मध्यप्रदेश में भैंसदेही, भैंसाखेड़ी गढ़वाल में भैंसगाँव, पूर्वांचल में भैंसाघाट, निमाड़ में माहिष्मती, पश्चिम बंगाल में महिषादल, महेश्वर, मराठवाड़ा में म्हैसमाळ और कर्णाटक में मैसूर (महिषासुर) जैसे स्थान-नामों से क्या साबित होता है? यही कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास में महिष एक महत्वपूर्ण जनजातीय प्रतीक रहा है।

मैं अनेक जनजातीय क्षेत्रों में गया हूँ। उन समाजों में बड़ादेव (बूढादेव< बुड्ढ < वुड्ढ < वृद्ध= सर्वोच्च) की पूजा होती है। यह बड़ादेव मूलतः शिव हैं। गौर करें, शिव को देवाधिदेव या महादेव कहते हैं। क्या ये नाम जनजातीय बड़ादेव का ही रूपान्तर नहीं? शिव जो स्वयं बलशाली हैं, ‘महा’ हैं, महेश कहलाते हैं। महेश यानी महा + ईश। वही बड़ादेव का रूपान्तर। पर मूल महेश को देखें तो यह महिष से उद्भूत है। यूँ भी महिष का अर्थ शक्तिवान, बलवान है। महिषी उसका स्त्रीवाची है। प्राचीनकाल में राजमहिषी इसीलिए रानी को कहते थे। शिव का वाहन नन्दी है।

‘साण्ड’ शब्द ‘षण्ड’ से उद्भूत है जिसका अर्थ है शिव। जो जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। प्रायः असुरों ने उन्हें तप से पाया है। अनेक कथाओं में शिव स्वयं संतान बनकर भक्तों को कृतार्थ करते नज़र आते हैं। उन्हें असुरों का देव भी कहा गया है। शिव अगर संहारक हैं तो संहार का सामना भी तो करते होंगे? गौर करें हमारे गोत्रनामों में भी भैंसा है। शाण्डिल्य गोत्र में भी यही षण्ड हो सकता है, गो कि इससे मिलते जुलते ऋषिनाम भी है। सण्डीला नाम का एक कस्बा है। राजस्थान में सांडेराव भी है। और भी मिल जाएंगे। बंगालियों का सान्याल उपनाम, शाण्डिल्य का ही रूपान्तर है।

गौवंश में भैंसे की ही तरह बलशाली बैल होता है। बल से ही बैल नाम पड़ा है। यह बैल भी गाय की तरह ही संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ता है। तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगा कि धर्म कठिन रास्ता है। किसी भी विवाद को उस रास्ते पर न ले जाया जाए। हम संस्कृति को समझें जो निरन्तर परिवर्तनशील है। बेहद सावधानी से हमें इतिहास की परतों को टटोलते हुए उसके उन सिरों का परीक्षण करना होता है जो वर्तमान तक आते हैं। ऐसा न करने पर हमारे सामने भविष्य का रास्ता भी दिशाहीन हो जाता है।
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Wednesday, August 17, 2016

अथ “डिकरा-डिकरी” कथा


न्तति के प्रति स्नेह के सम्बोधन खूब लोकप्रिय होते हैं। इनमें अनेक भाषाओं के शब्द समाहित होते हैं। प्रसार माध्यमों के ज़रिये ऐसे अनेक शब्द हिन्दी और अन्य प्रादेशिक भाषाओं में भी प्रचलित हो जाते हैं। लाडेसर, बेटू, बिट्टू, बालू, बाला, बच्चन, गुंडा, गुंडुराव, मुन्ना, मुंडा, छोटू, नन्हा आदि। ऐसा ही एक शब्द है डीकरा जो मराठी में भी है पर अल्पप्रचलित है। खानदेश की तरफ़ अहिराणी बोली में डिकरा, डिकरी का अर्थ होता है पोता या पोती। गुजराती में इसे बेटा बेटी के अर्थ में भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। कुछ सिन्धी क्षेत्रों में भी इसकी व्याप्ति है। हमने सबसे पहले इसका प्रयोग मुम्बइया फ़िल्मों में पारसी पात्रों के मुँह से सुना। अब हिन्दी में भी नाटकीय संवाद में इसे बरता जाने लगा है।

डिकरा यानी सेवक
‘डिकरा’ की अर्थवत्ता सेवक से ठीक उसी तरह जुड़ती है जैसे अरबी के गुलाम की, बाक़ी मतलब दोनों का बच्चा ही है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि गुलाम में जहाँ सेवक का भाव रूढ़ हो गया वहीं ‘डिकरा’ में बच्चे का। कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्तिकोश में डिकरा संस्कृत के ‘डिङ्गर’ से विकसित हुआ है। अमरकोश में ‘डिङ्गर’ का अर्थ सेवक ही है। ‘डिङ्गर’ का एक रूप मराठी में ढिंगर भी होता है। इसका ही परवर्ती विकास डिकरा हुआ। इसी तरह गुजराती में ढिकरा भी बोला जाता है।

रामसेवक और गुलामनबी
गौर करें अरबी में ‘गुलाम’ शब्द सेमिटिक ग़ैन-लाम-मीम غ-ل-م से बना है जिसमें लड़का, ख़ूबसूरत युवती, वासना, लालसा, सीमोल्लघन जैसे भाव हैं। ध्यान रहे, दुनियाभर में पुराने दौर से ही बाल-मज़दूरी भी रही है। अरब देशों में इसका चलन अरब के कारोबारी अतीत के मद्देनज़र भी समझा जाना चाहिए। इसका एक रूप हाल के दिनों में बच्चों की ऊँट दौड़ तक में नज़र आता रहा है। जिस तरह हमारे यहाँ रामसेवक का अर्थ राम के आराधक से है उसी तरह गुलामनबी या गुलाम मोहम्मद का भी हुआ। किन्तु दूसरे अर्थों में गुलामनबी का अर्थ जिसे नबी ने पाला हो अर्थात नबी का पुत्र भी होता है। इस तरह हम रामसेवक या रामदास को नहीं देख सकते। पूर्वी बोली में इस अर्थ में रामबालक अलग व्यक्तिनाम है।

गुलाम जो बच्चा था
दासप्रथा के चलते अरब में बड़े पैमाने पर दासों का कारोबार होता था। ये लोग श्रमिकों से लेकर घरेलु सेवादार तक होते थे। प्रायः हर समाज में मालिक को सेवक का पिता कहा गया है क्योंकि वह उन्हें पालता है। मुमकिन है अरब समाज में गुलाम शब्द का प्रयोग क्रीतदासों के लिए इसी रूप में होने लगा हो और बाद में वह सेवक के अर्थ में ही इतना रूढ़ हो गया कि अब तो नौकर शब्द भी गुलाम से ज्यादा रसूख रखता है। नौकर तो सेवा की एवज में तनख्वाह पाता है मगर गुलाम तो सिर्फ हुक्म बजाता है। जहाँ तक डिङ्गर का प्रश्न है, यह मूलतः सेवक ही था। उपरोक्त गुलाम की व्याख्या के मुताबिक ही बाद में इसमें बच्चे का भाव समा गया होगा, ऐसा लगता है। अपने मराठी-गुजराती रूपों में डिकरा / डिक्रा का मूलार्थ बच्चा, सन्तान, पुत्र या शिशु ही होता है।

मोबेदजीना डिकरा-डिकरी
पारसियों का अल्पप्रचलित कुटुम्ब नाम मोबेदजीना भी है। इसकी कथा में डिकरा-डिकरी का दख़ल है। बताया जाता है इस कुटुम्ब के पूर्वपुरुष का नाम मोबेद था। जिसका अर्थ पुजारी/ पुरोहित (दस्तूर-मोबेद) होता है। मोबेद के वंशज पहले ईरान से चल कर गुजरात आए और फिर अपने कुटुम्ब के साथ मुम्बई आ बसे। उन्हें परम्परानुसार इलाके में ‘मोबेदजी’ कहा जाने लगा। उनकी अनेक सन्तानें थी जिन्हें मोहल्ले में मोबेदजीनां डिकरा-डिकरी, ऐसा कह कर परिचय दिया जाता था। समाज में भाषायी पद जब शब्द का रूप लेते हैं तब संक्षेपीकरण होता जाता है। ज़ाहिर है यहाँ भी वही हुआ। मोबेदजी के बाल-बच्चे" की अर्थवत्ता वाला यह वाक्य सिर्फ मोबेदजीना के अर्थ में पितृपुरुष मोबेद के कुटुम्ब की अभिव्यक्ति देने लगा।
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Thursday, May 5, 2016

टीवी वाले पोंगा-पंडित


टी वी वाले आजकल चाहे जिस ज्ञान-पुंगव को पकड़ लाते हैं और पूरे देश से उसका परिचय धर्मगुरू कहकर कराते हैं। उनकी बकवास सुनकर भी शर्म आती है। माथे पर त्रिपुण्ड लगाने, उत्तरीय डाल लेने, गैरिकवस्त्र ओढ़ लेने मात्र से इनकी निगाह में कोई धर्मगुरू हो जाता है... कम से कम वाम विचारधारा वाले चैनल को तो इस बात का ध्यान रखना चाहिए। अव्वल तो धर्म जैसी कोई चीज़ जब उनकी निगाह में नहीं है तब धर्मगुरू क्या चीज़ है? धर्मगुरू वैसे तो नहीं होते जैसे टीवी स्टूडियो में नज़र आते हैं। जैसे टीवी वालों को शब्द और अर्थ की समझ नहीं, वैसे ही धर्म और गुरू की भी समझ नहीं।

प्रसंगवश बताते चले हिन्दी में 'पोंगा' शब्द मूर्ख के अर्थ में इस्तेमाल होता है। पोंगा में खाली, रिक्त, खोखला, थोथा जैसे आशय हैं। अनेक भाषाशास्त्रीय साक्ष्य हैं जिनसे पता चलता है कि पोंगा शब्द दरअसल संस्कृत के 'पुंगव' शब्द का विकास है जिसमें अर्थापकर्ष की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। पुंगव का मूल अर्थ है अपने क्षेत्र का श्रेष्ठ, नायक, प्रमुख आदि। गौरतलब है नर-पुंगव का अर्थ है नर-श्रेष्ठ।

भाषिक विश्व में ‘ग’ और ‘ज’ में अदला-बदली होती है। गौर करें संस्कृत और हिन्दी के पुंज शब्द पर। हिन्दी की तत्सम शब्दावली में पुंज जिसमें समूह, राशि, अम्बार, आयतन, मात्रा जैसे भाव हैं। पुंज का ही एक रूप पुंग होता है। ज़ाहिर है 'ज' का रूपान्तर 'ग' में होने से पुंज से पुंग बन जाता है। पुंग का अर्थ भी अम्बार, राशि या मात्रा होता है। इससे ही बना है पुंगव जिसमें गुणों की खान, गुणों का समूह, गुणराशि का भाव निहित है। किसी व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ या गुणों की खान होना ही उसे नायक, मुखिया अथवा पुंगव बनाता है। ज्ञानपुंज, प्रतिभापुंज पर भी दूसरे अर्थ में गौर कर लें।

पुंज से ही पूंजी शब्द बना है जिसका अर्थ भी राशि या समूह ही होता है। समाज के नायकों जैसे अर्जुन को नर-पुंगव कहा जाता है। इसी तरह गुरुओं में श्रेष्ठ को गुरू-पुंगव होता है। अक्सर यह होता है कि जब समाज अपने आदर्शों को फ़िसलते देखता है तब उस शब्द के मानी भी बदल जाते हैं। इसे अर्थापकर्ष कहा जाता है यानी लफ्ज़ों का अपने मायने खो देना। दिखावटी समाज में जब मूर्ख लोग गाल बजाने लगें, जयचंद जैसे लोग नायक होने लगें और सन्तों को जेल में शरण मिलने लगे तब पुंगव का अर्थ पोंगा हो जाता है- यानी खोखला, खाली, पोला।

पुंगव से पहले पोंगा बना फिर पुंगी और पोंगली जैसे शब्द भी बन गए जिसका अर्थ नली, खोखल आदि होता है। पुंगी एक किस्म की पीपनी को भी कहते हैं जिसमें हवा फूँकने से बड़ी तेज पीsss आवाज़ होती है। खोखल से हवा के गुज़रने पर ध्वनि निकलती ही है। मस्तिष्क में अगर चिन्तन होगा तो ज्ञान उद्भूत होता है। वर्ना यह समझ लिया जाता है कि उसमें भूसा भरा है। पाण्डित्य प्रदर्शन ऐसी वृत्ति है जिससे बिरले ही बच पाते हैं।

थोथा चना, बाजे घना को ही ले, वजह वही है, खाली जगह पर आवाज़ पैदा होती है। बिना ज्ञान का पण्डित गाल बजाता है... पंडित सोइ जो गाल बजावा। कुछ स्थानों पर इसे मूरख सोई जो गाल बजावा भी कहा गया है। सो ऐसे ज्ञानियों को लोक में बतौर पोंगा-पण्डित ख्याति मिल जाती है। पोंगा-पण्डित का अर्थ है पाण्डित्य जताने का प्रयास करने वाला ऐसा व्यक्ति जो मूलतः मूर्ख है।
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Wednesday, January 27, 2016

खातून की खिदमत में...


‘ख़ा
तून’ भी हिन्दी क्षेत्र का जाना-पहचाना लफ़्ज़ है। इसमें भी बेग़म या खानुम की तरह कुलीन,प्रभावशाली स्त्री, साम्राज्ञी, भद्र महिला का भाव है जैसे मध्यकाल की ख्यात कश्मीरी कवयित्री हब्बा ख़ातून। बेग से बेगम और खान से ख़ानुम की तरह ख़ातून का रिश्ता 'क्षत्रप' से है। बात कुछ जमी नहीं। चलिए, बेग़म और ख़ानुम की तरह ख़ातून के जन्मसूत्रों को भी टटोला जाए। वैसे तो ख़ातून फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी में दाखिल हुआ मगर यह तुर्की मूल का शब्द माना जाता है। इसका विकास हुआ है ईरान के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में बोली जाने वाली सोग्दी और खोतानी भाषा के ‘ख्वातवा’ या खाता जैसे शब्दों से जिसमें ज़मींदार का आशय था। गौरतलब है कि तुर्की में खातून का हातून रूप ज्यादा प्रचलित है। इतिहास की किताबों में हम सबने क्षत्रप और महाक्षत्रप जैसे पदनाम पढ़े हैं। ये ईरानी मूल के शब्द हैं और हखामनी साम्राज्य की उपाधियाँ हैं। उस समय तक्षशिला, मथुरा, उज्जयिनी और नासिक इनकी प्रमुख राजधानियां थीं।

गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र भी इनके प्रभुत्व में था। क्षत्रप का चलन आमतौर पर युवराज के लिए होता था जबकि महाक्षत्रप राज्यपाल, सूबेदार या प्रान्तपाल को कहते थे। गौरतलब है शक जाति के लोग सोग्दी ज़बान बोलते थे और उपाधियों उन्हीं के शासनकाल की हैं। इन स्थानों के प्रधान शक शासक महाक्षत्रप कहलाते थे जबकि कनिष्ठ शासक या उप शासक क्षत्रप कहलाते थे।

‘क्षत्रप’ शब्द का प्रसार इतना था कि एशिया में जहां कहीं यूनानी और शक साम्राज्य के अवशेष थे, उन स्थानों के गवर्नर या राज्यपालों का उल्लेख भी सट्रप / खत्रप / ख्वातवा / शत्रप के रूप में ही मिलता है। शक जाति के लोग संभवतः उत्तर पश्चिमी चीन के निवासी थे। वैसे जब ये भारत में आए तब तक इनका फैलाव समूचे मध्य एशिया में हो चुका था। ईरान की पहचान शकों से होती थी।

दक्षिणी पूर्वी ईरान को ‘सीस्तान’ कहा जाता था जिसका अर्थ था ‘शकस्थान’। संस्कृत ग्रंथों में भारत से पश्चिम में सिंध से लेकर अफ़गानिस्तान, ईरान आदि क्षेत्र को शकद्वीप कहा गया है अर्थात यहां शकों का शासन था। ब्राह्मणों की एक शाखा शाकद्वीपीय भी मानी जाती है। शायद यही मागी ब्राह्मण थे जिनका रिश्ता मगध से था, जिन्हें बाद में शाकद्वीपीय कहा गया।

संस्कृत के क्षत्र में भी प्रभुत्व, साम्राज्य, वंश, आधिपत्य के आशय हैं। इसी कड़ी का क्षेत्र शब्द भूमि के अर्थ में भी हम जानते हैं। खेत इसी क्षेत्र का अपभ्रंश है। संस्कृत का क्षत्री भी राजकुल वाले अर्थ से कालान्तर में राजपूत जाति के अर्थ में क्षत्रीय में ढल गया। इसका एक रूप पंजाब में खत्री बना। नेपाली में यह छेत्री होता है। इस तरह क्षत्रप का खत्रप भी हुआ। तो ईरानी क्षत्रप का सोग्दी रूप ख्वातवा हुआ।

हमारा अनुमान है कि यहाँ ‘क्ष’ का रूपान्तर ‘ख्व’ हुआ होगा, ‘त्र’ का सिर्फ़ ‘त’ शेष रहा। भारत-ईरानी भाषाओं में ‘प’ का रूपान्त ‘व’ में हो जाता है। इसे यूँ समझ सकते हैं- क्षत्रप > ख्वतप > ख्वातवा। इसका रूप कहीं कहीं खाता / ख्वाती भी मिलता है जिसका अर्थ प्रमुख, परम, अधिपति, राजा, सामन्त आदि था।

ऐतिहासिक सन्दर्भों में बुम-ख़्वातवा जैसे सन्दर्भ भी मिलते है। यहाँ बुम वही है जो संस्कृत हिन्दी में भूमि है। इस तरह बुम-ख़्वातवा का आशय ज़मींदार, क्षेत्रपाल या क्षेत्रपति हुआ जो आमतौर पर राजाओं की उपाधि है। तो सोग्दी ज़बान के ख्वातवा या खाती का स्त्रीवाची हुआ ख़्वातीन या ख़ातून जिसमें राजा, श्रीमन्त, सामन्त की स्त्री अथवा कुलीन या भद्र महिला का आशय था। उर्दू में ख़ातून का बहुवचन ख़वातीन होता है।

प्रसंगवश संस्कृत के ‘क्ष’ वर्ण में क्षेत्र, भूमि, किसान और रक्षक का अर्थ छुपा है। क्षत्रप शब्द ईरान में शत्रप / खत्रप रूप में प्रसारित था जहाँ से यह ग्रीक में सट्रप बन कर पहुँचा। ग्रीक ग्रंथों में ईरान और भारत के क्षत्रपों का उल्लेख इसी शब्द से हुआ है। इसकी व्युत्पत्ति प्राचीन ईरानी के क्षत्रपवान से मानी जाती है जिसका अर्थ है राज्य का रक्षक। इसमें क्षत्र+पा+वान का मेल है। ‘क्षत्र’ यानी राज्य, ‘पा’ यानी रक्षा करना, पालन करना और ‘वान’ यानी करनेवाला।

गौर करें इससे ही बना है फारसी का शहरबान शब्द जिसमें नगरपाल का भाव है। इसे मेयर समझा जा सकता है। याद रखें संस्कृत के वान प्रत्यय का ही फारसी रूप है बान जैसे निगहबान, दरबान, मेहरबान आदि। संस्कृत वान के ही वन्त या मन्त जैसे रूप भी हैं जैसे श्रीवान या श्रीमन्त। रूपवान या रूपवंत आदि।
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Friday, March 1, 2013

असली ‘दारासिंह’ कौन?

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मूचे भारतीय उपमहाद्वीप में ‘दारा’ नाम शक्ति का प्रतीक माना जाता है। पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में पूर्णिया तक ‘दारा’ नामधारी लोग मिल जाएँगे जैसे हिन्दुओं में दारा के साथ ‘सिंह’ का प्रत्यय जोड़ कर दारासिंह जैसा प्रभावी नाम बना लिया जाता है वहीं मुस्लिमों में ‘खान’ या ‘अली’ जैसे प्रत्ययों के साथ दाराख़ान या दाराअली जैसे नाम बन जाते हैं। कहते हैं यह ख्यात पहलवान, अभिनेता दारासिंह के नाम का प्रभाव है कि ‘दारा’ नाम के साथ ताक़त जुड़ गई। चलिए मान लिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाँचवे-छठे दशक में उनके नाम का वो ज़हूरा था कि वे एक चलती-फिरती किंवदंती बन गए थे। उनका नाम मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने लगा और कहावतें तक चल पड़ीं। सवाल यह है कि वो ‘दारा’ कौन था जिससे प्रभावित होकर दारासिंह के पिता ने अपने बेटे का नाम रखा और इस नाम के मायने क्या हैं ?
ब्दों का सफ़र में अक़्सर इतिहास में गोते लगाने की नौबत आ जाती है। इतिहास में ऐसे क़िरदार या प्रतीक मशहूर हो जाते हैं जिनकी खूबियाँ मनुष्य खुद में देखना चाहता है। नतीजतन वे लोग प्रतीक / संज्ञा-नाम में बदल जाते हैं। लोग अपनी संतानों, नायक-नायिकाओं को उन नामों से बुलाने लगते हैं। ऐसा ज्यादातर पुरुषवाची नामों के साथ ही होता है। उदाहरण कई हैं जैसे राम ( रामदयाल, रामकृपाल, रामनरेश, आयाराम, गयाराम आदि), कृष्ण (रामकृष्ण, हरिकृष्ण, रामकिशन आदि), बहादुर (वीरबहादुर, रामबहादुर), सिंह (रामसिंह, वीरसिंह, बहादुरसिंह) आदि कई नाम हैं। इसी कड़ी में दारा का नाम भी आता है जो ईरान के प्रसिद्ध हखामनी वंश के संस्थापक साइरस प्रथम जितना ही महान, वीर और महत्वाकांक्षी नरेश था। इस राजवंश का चौथा शासक था। दरहक़ीक़त हम जिस दारा की बात कर रहे हैं, वह इतिहास में डेरियस प्रथम के नाम से जाना जाता है। फ़ारस के इतिहास में दो साइरस और तीन डेरियस हुए हैं।
यूँ तो तीनों ही डेरियस वीर, लड़ाके थे मगर इतिहास में दारा के नाम से जो डेरियस प्रसिद्ध हो गया वह चौथा हखामनी शासक डेरियस प्रथम ( 521- 486 ) ही था। इतिहास में फ़ारस के हख़ामनी वंश को ही भारत पर चढ़ाई करने वाला पहला विदेशी वंश माना जाता है। इस वंश के संस्थापक साइरस ने 551-530 के बीच अपना साम्राज्य पेशावर से लेकर ग्रीस तक फैला लिया था। डेरियस का पिता विष्तास्पह्य भी हखामनी राजवंश का क्षत्रप था। समझा जाता है कि उसने साइरस के अधीन भी काम किया था। बहरहाल, डेरियस ने साइरस महान की आन, बान और शान को कायम रखा था इसीलिए उसके जीवनकाल में ही उसे भी डेरियस महान कहा जाने लगा था। हखामनी वंश की राजधानी पर्सेपोलिस के शिलालेखों पर ऐसा ही दर्ज है। पुरातत्व पर्यटन के लिए मशहूर पर्सेपोलिस शहर डेरियस की राजधानी हुआ करता था। ऐसा माना जाता है कि यह शहर उसने ही बसाया था। पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ परशियनों का शहर। ध्यान रहे ईरान का पुराना नाम फ़ारस था जिसके मूल में अवेस्ता का पार्श (संस्कृत का पर्शु) शब्द था। पार्श से ही फ़ारस बना। ग्रीक संदर्भों में इसे पर्शिया कहा गया। ग्रीक भाषा के पोलिस प्रत्यय का अर्थ वही होता है जो हिन्दी में पुर या पुरी का होता है। इस तरह पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ पर्शुपुरी अर्थात पारसिकों की राजधानी हुआ।
प्राचीन फ़ारसवासी अग्निपूजक थे। भारत के पारसी उन्हें के वंशज हैं। इस्लाम की आंधी में उजड़ कर वे भारत आ बसे, फ़ारस के पारसी मुसलमान होते चले गए। दारा का मूल दरअसल डेरियस भी नहीं है। पर्सेपोलिस के शिलालेख के मुताबिक उसका शुद्ध पारसिक उच्चारण दारयवौष है। शिलालेख में दर्ज़ कीलाक्षर लिपि वाले मज़मून का रोमन और देवनागरी उच्चार इस तरह है- Dârayavauš दारयवौष xšâyathiya क्षायथिय vazraka वज्रक xšâyathiya क्षायथिय xšâyâthiânâm क्षायथियानाम xšâyathiya क्षायथिय dahyunâm दह्युनाम Vištâspahya विष्तास्पह्य Haxâmanišiya पुश puça हक्ष्मनिषिय hya ह्य imam इमम taçaram तशराम akunauš अकौनष। इसका अर्थ है- “यह प्रासाद हखामनी वंश के विस्ताष्पह्य के पुत्र और महाराज, राजाधिराज, राज्याधिपति दारयवौष के द्वारा बनवाया गया है”। विद्वानों ने इसे पहलवी का प्राचीन रूप बताया है जो अवेस्ता के क़रीब थी। अवेस्ता को संस्कृत की मौसेरी बहन समझा जाता है।
ह समझना आसान है कि अवेस्ता के दारयवौष का ही ग्रीक रूप डेरियस हुआ होगा। ग्रीक इतिहासकार हेरियोडोटस के उल्लेखों से यही रूप प्रचलित हुआ। इसी तरह वर्णसंकोच के साथ दारयवौष का परवर्ती रूप दारा हुआ। दारयवोष के रूपान्तर की दो दिशाएँ रहीं। दारयवौष > दारयवश >दारयस > दारा (फ़ारसी) > डेरियस (ग्रीक) । पश्चिम की ओर यह डेरियस हुआ जबकि पूर्व की ओर इसका रूपान्तर दारा हुआ। दरअसल का दारा रूप ही अब व्यावहारिक तौर पर प्रचलन में है। ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश आदि में दारा कई नामों में मौजूद है जैसे- दाराबख्त, दाराअली, दाराखान, वीरदारा, दारा शुकोह, दाराप्रसाद, दारानाथ, दारासिंह आदि। दारायवौष की पूर्व में दारा के नाम से प्रसिद्धी की बड़ी वजह उसके पंजाब और सिंध अभियानों की कामयाबी रही। वर्तमान पाकिस्तान का पेशावर प्रान्त दारा के आधिपत्य में था। पश्चिम में मिस्र, ग्रीस, उत्तर में आमू दरिया और पूर्व में पंजाब-सिंध दारा के साम्राज्य की सीमाएँ थीं। यही उस काल का ज्ञात विश्व भी था।
देखते हैं दारा का, प्रकारान्तर से दारियवौष का अर्थ क्या है, इसका जन्मसूत्र क्या है। आज की फ़ारसी में दारा का दाराब रूप भी मिलता है। भारत-ईरानी भाषाओं के अध्येता क्रिश्चियन बार्थोलोमिए ने (1855-1925) ने दारयवौष को अवेस्ता का शब्द माना है और इसे जरथ्रुस्ती शब्दावली में स्थान दिया है। इसका अर्थ है धारण करने वाला। राज्य को धारण करना, प्रजा को धारण करना, शासन को धारण करना, नायकोचित गुणों को धारण करना और सद्गुणों को धारण करना इसमें निहित है। दारियवौष के मूल में प्रोटो भारोपीय धातु dher है। भाषाविद् जूलियस पकोर्नी इसका रिश्ता वैदिक धातु धर् से जोड़ते हैं। धर् में उठाने, सम्भालने, देखभाल करने, अंगीकार करने जैसे भाव है। धारण करने में ये सारे भाव निहित हैं। धर् से संस्कृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक शब्द बने हैं। पृथ्वी को धारिणी कहा जाता है। धरती में यही धर है। आधार यानी टिकाव, पड़ाव, फाऊंडेशन में भी यही ‘धर’ है जिसमें स्थिरता है। डॉ रामविलास शर्मा ‘धर्’ के एक रूप ‘स्थर’ की कल्पना करते हैं। संस्कृत ‘दारु’, ‘द्रुम’, ‘तरु’, ग्रीक ‘द्रुस’, अंग्रेजी के ‘ट्री’ में दरअसल धर् के रूपान्तर ‘दर्’ और ‘तर्’ हैं । यह भी दिलचस्प है की ‘धर’ में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । दारयवौष् से बने दारा का अर्थ हिन्दी फ़ारसी में सर्वशक्तिमान, भगवान, राजा, पालक आदि है।
स्पष्ट है कि ताक़त, वीरता आदि के पर्याय के रूप में दारा नाम डेरियस अर्थात दारयवौष् से आ रहा है। इसका प्रचार अनेक देशों में हुआ। नायकोचित नामकरण की अभिलाषा में अनेक दारा सामने आए मगर भारत में तो पंजाब के दारासिंह की ख्याति ने डेरियस द ग्रेट को भी पछाड़ दिया।

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Tuesday, December 25, 2012

मोदीख़ाना और मोदी

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[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]

पिछली कड़ी- मोदी की जन्मकुंडली

मोदी की अर्थवत्ता में शामिल भावों पर गौर करें तो इसका रिश्ता आपूर्ति, भंडार, स्टोर, राशन, दुकान, रसद, मिलिट्री सप्लाई, किराना, राजस्व, कर वसूली आदि से जुड़ता है । इन आशयों से जुड़े शब्दों की एक लम्बी शृंखला सेमिटिक धातु मीम-दाल-दाल (م د د ) यानी m-d-d से बनी है जिसमें आपूर्ति, सप्लाई, सहायता, सहारा, फैलाव जैसे भाव है । गौर करें हिन्दी में सहायता का लोकप्रिय पर्याय ‘मदद’ है जो इसी कड़ी से जुड़ा है । मद्द’ में निहित आपूर्ति या सहायता के भाव का विस्तार मदद में हैं जिससे मददगार, मददख़्वाह जैसे शब्द बने हैं । इसी कड़ी में आता है ‘इमदाद’ जिसका अर्थ भी आपूर्ति, सहायता, आश्रय, हिमायत अथवा सहारा होता है ।
द्द धातु से बने शब्दों में एक और दिलचस्प सब्द की शिनाख़्त होती है । बहीखातों की पहचान लम्बे-लम्बे कॉलम होते हैं जिनमें हिसाब-किताब लिखा जाता है । अरबी में इसके लिए ‘मद्द’ शब्द है । घिसते घिसते हिन्दी में यह ‘मद’ हो गया । हिन्दी में इसका प्रयोग जिन अर्थों में होता है उसका आशय खाता, पेटा, हेड या शीर्षक है जैसे- “यह रकम किस ‘मद’ में डाली जाए” या “मरम्मत वाली ‘मद’ मे कुछ राशि बची है” आदि । मद / मद्द के कॉलम, स्तम्भ या सहारा वाले अर्थ में अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में अलहदा धातु ऐन-मीम-दाल से बताई गई है । इससे बने इमादा, इमाद, अमीद, अमूद और उम्दा जैसे शब्द हैं जिनमें सहारा, मुखिया, स्तम्भ, प्रमुख, विश्वसनीय, प्रतिनिधि जैसे भाव भी हैं, अलबत्ता ये हिन्दी में प्रचलित नहीं हैं । सम्भव है यह मद्द की समरूप धातु हो ।
मोदी शब्द की व्युत्पत्ति को मद्द से मानने की बड़ी वजह है इसमें निहित वे भाव जिनसे मोदी की अर्थवत्ता स्थापित होती है । ‘मद’ तो हुआ खाता मगर इसका ‘मद्द’ रूप भी हिन्दी में नज़र आता है जैसे मद्देनज़र, मद्देअमानत आदि । मद्देनज़र का अर्थ है निग़ाह में रखना । ‘मदद’ में जहाँ सहायता का भाव है वहीं आपूर्ति भी उसमें निहित है । ‘मदद’ अपने आप में सहारा भी है सो ‘मदद’ में निहित ‘मद्द’ पहले कॉलम या स्तम्भ हुआ फिर यह बहीखातों का कॉलम या खाना हुआ और फिर इसे मदद की अर्थवत्ता मिली । अरबी में एक शब्द है ‘मद्दा’ जिसका अर्थ है विस्तार, फैलाव, सहारा वहीं इसमें सामान, वस्तु, चीज़, पदार्थ अथवा मवाद आदि की अर्थवत्ता भी है । शरीर के भीतर जख्म होने पर जब वह पकता है तो उसका आकार फूलता है । प्रसंगवश ‘मवाद’ शब्द भी अरबी का है और इसी मूल से निकला है । ‘मद्द’ में निहित फैलाव, विस्तार इसमें निहित है । ध्यान रहे आपूर्ति में भी विस्तार, फैलाव की अर्थवत्ता है । किसी स्थान पर किसी चीज़ की आपूर्ति से फैलाव होता है । गुब्बारे में हवा की आपूर्ति से समझें । भोजन करने पर पेट के फूलने से समझें । इसी तरह विशाल क्षेत्र में राशन की आपूर्ति में भी फैलाव का वही आशय है ।
यूँ मुग़लदौर में एक सरकारी विभाग ‘मोदीखाना’ भी प्रसिद्ध था जिसका अर्थ था रसद-आपूर्ति विभाग । हिन्दुस्तानी – फ़ारसी कोशों में मोदीखाना शब्द मिलता है जिसका अर्थ भण्डारगृह , किराना-स्टोर, अनाज की आढ़त, granary या commissariat ( कमिसरियत, सेना रसद विभाग ) मिलता है । हालाँकि इन्स्टीट्यूट ऑफ सिख स्टडीज़ के डॉ. कृपाल सिंह ने अपनी पुस्तक सिख्स एंड अफ़गान्स में ‘मोदी’ को अरबी शब्द माना है और इसका अर्थ “भुगतान किया जा चुका” बताया है । इसी पुस्तक में वे ‘मोदीखाना’ के बारे में बताते हैं कि यह दरअसल मुस्लिम दौर की उन सरकारों में एक महत्वपूर्ण विभाग था जहाँ किन्हीं कारणों से मौद्रिक लेन-देन कम होता था  और भू-राजस्व का भुगतान जिन्सी तौर पर किया जाता था । अर्थात मुद्रा के बदले अनाज, राशन, पशु आदि दे दिए जाते थे । सरकार इसे ही महसूल समझ कर रख लेती थी । इसी मोदीखाने का प्रमुख ‘मोदी’ कहलाता था । यह ‘मोदी’ कर वसूल करता था । उसे जमा करता था और फिर जमा की गई जिंसों को वह शासन द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेच भी सकता था । ज़ाहिर है इस नाम के पीछे मद्दा में निहित वस्तु, सामग्री, जिंस, चीज़ जैसे आशय ही व्युत्पत्तिक आधार हैं । प्रसंगवश सुलतानपुर के नवाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में अपने शुरुआती जीवन में गुरुनानक भंडारी (मोदी) के पद पर थे जहाँ खाद्यान्न के रूप में लगान जमा किया जाता था ।
सेनाओं में प्राचीनकाल से ही यह परिपाटी रही है कि कूच करते वक्त उनके साथ दुनियाजहान का असबाब भी चलता था । चालू भाषा में जिसे लवाजमा या फौजफाटा कहते हैं उसका तात्पर्य यही है । मुग़ल दौर में जब फौज चलती थी उसके साथ पंसारी की दुकान भी होती थी जिसे मोदीख़ाना कहते थे । दवाईखाना, मरम्मतखाना, फराशखाना जैसे विभागों में ही एक विभाग मोदीखाना था । स्थायी तौर पर किसी श्रेष्ठी को सेना में रसद आपूर्ति का काम मिल जाता था और कभी शासन की तरफ़ से ही प्रत्येक बड़े शहर में वणिकों को फौज को राशन पहुँचाने का अनुबंध मिल जाता था । सरकार के स्वामीभक्त व्यवसायी, प्रभावशाली धनिक ऐसे करार (ठेके) पाने के लिए जोड़-तोड़ करते थे । मगर उसकी मुश्किलें भी थीं । ये काम पाने के लिए उन्हें आज की ही तरह से सरकार के असरदार लोगों की जेबें गर्म करनी पड़ती थीं । आठवीं-नवीं सदी के भारत में भ्रष्टाचार के कई नमूने शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम’ नाटक से भी पता चलते हैं ।
चार्य विष्णुशर्मा लिखित पंचतन्त्र में इसका उल्लेख है जिससे पता चलता है कि सेना में रसद आपूर्ति का काम प्राचीनकाल से ही मोटी कमाई वाला माना जाता था । पंचतन्त्र की संस्कृत – हिन्दी व्याख्या में श्यामाचरण पाण्डेय लिखते हैं- गौष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः। वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाSद्य लब्धा किमन्येन ।। अर्थात “मोदी का काम करने वाला व्यापारी जब किसी राजकीय सेना आदि को रसद पहुँचाने का कार्य पा जाता है तो प्रसन्न होकर अपने मन में सोचता है कि आज मैने पृथ्वी पर सम्पूर्ण धन ही प्राप्त कर लिया है । पुनः निश्चित होकर लोगों को लूटता है ।” आज के दौर के बड़े कारोबारियों के पुरखों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में रसद आपूर्ति ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे किए थे, यह किसी से छुपा नहीं है । सेना सहित विभिन्न विभागों के कैंटीन और रेलवे की खानपान सेवा जैसी व्यवस्थाएँ दरअसल “मोदीखाना” जैसी प्राचीन आपूर्ति सेवाओं के ही बदले हुए रूप हैं । यूँ ‘मोद’ से भी ‘मोदी’ का रिश्ता जोड़ा जा सकता है क्योंकि उसके सारे प्रयत्न खुद के आमोद-प्रमोद के लिए होते हैं ।-समाप्त 

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Monday, December 24, 2012

मोदी की जन्मकुंडली

gnatmodikhana[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]
प्रा  यः सभी भाषाओं के बुनियादी शब्दभंडार में जिन ख़ास स्रोतों से शब्द आते हैं उनमें सैन्य-प्रशासन जैसे क्षेत्र भी है । ऐसा ही एक शब्द है ‘मोदी’ modi वणिक वर्ग का एक उपनाम भी है जैसे प्रसिद्ध व्यावसायिक घराना ‘मोदी’ के संस्थापक रायबहादुर गूजरमल मोदी । उपनामों पर अगर गौर करें तो अधिकांश उपनामों के निर्माण का आधार स्थानवाची या कर्मवाची है अर्थात उपनाम धारण करने वाले के निवास या उसके खानदानी पेशा का संकेत इसमें छुपा होता है जैसे दारूवाला ( मद्य व्यवसाय ) या पोखरियाल (पोखरा वाला अर्थात पोखरा का निवासी ) आदि । ऐसा ही एक नाम ‘मोदी’ है मगर दो अक्षरों के इस सरनेम से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता जिससे इसमें निहित व्यवसायगत या जातिगत संकेत मिलें । हम सिर्फ़ रूढ़ अर्थ में जानते हैं कि ‘मोदी’ बनिया जाति का एक उपनाम है और बनिया व्यापार करता है । किन्तु मोदी शब्द में व्यापार जैसी अर्थवत्ता भी नहीं है । जानते हैं ‘मोदी’ की जन्मकुंडली ।

ब्दकोशों में ‘मोदी’ शब्द के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारियाँ नहीं मिलतीं । लगभग सभी शब्दकोशों में ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मोद’ ( आनंद ) या मोदक ( लड्डू ) से जोड़ने का प्रयत्न नज़र आता है । खास बात यह भी कि तमाम कोशों में इसका अर्थ बनिया, अनाज का व्यापारी, नून-तेल-मिर्ची, आटा-दाल-चावल का आढ़ती, खाद्य सामग्री बेचने वाला परचूनिया, राशन-अनाज का किरानी आदि बताया गया है । ये सभी आशय संस्कृत के ‘मोद’ अर्थात आनंद, हर्ष, सुख के व्यावहारिक अर्थ से मेल नहीं खाते । जॉन प्लैट्स ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत से जोड़ते हैं मगर उसका मूल नहीं बताते । यही नहीं, वे मोदी का मुख्य अर्थ मिठाईवाला या हलवाई बताते हैं । सम्भव है उनके दिमाग़ में ‘मोद’ से ‘मोदक’ अर्थात एक क़िस्म का लड्डू रहा हो । ‘मोदी’ का रिश्ता ‘मोदक’ से हिन्दी शब्दसागर में भी जोड़ा गया है, अलबत्ता ‘मोदक’ के अलावा उसके अरबी मूल का होने की सम्भावना भी जताई गई है । 

प्लैट्स के कोश में भी ‘मोदी’ को दुकानदार, बनिया, भंडारी आदि बताया गया है । गुजरात में मोढ़ वैश्य समुदायको मोढी भी कहा जाता है। इसका उच्चार भी कहीं कहीं मोदी की तरह किया जाता है। इस तरह यह स्थानवाची शब्द हुआ।  कुछ लोग सोचते हैं कि देशव्यापी मोदी का रिश्ता गुजरात के मोढेरा या गुजराती मोढ़ वैश्य समूदाय से है तो वह संकुचित दृष्टि है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में साहू तेली होते हैं। यह साहू मूलतः साह, साधु से ही आ रहा है। प्रभावशाली वर्ग। अरबी मोदी की तुलना में मोढी या मोढ़ उपसर्ग का अर्थ व्यापक है। मोढेरा से जिनका रिश्ता है वे सभी मोढ हैं। खास तौर पर वणिकों और ब्राह्मणों में आप्रवासन ज्यादा हुआ सो मोढेरा के लोग मोढ हो गए। गुजाराती विश्वकोश के मुताबिक मोढ़ समुदाय में ब्राह्मण, वैश्य, किरानी, तेली, पंसारी, साहूकार सब आ जाते हैं।
 

मारा मानना है कि ‘मोदी’ भी सैन्य शब्दावली से आया शब्द है । इसका रिश्ता सेना की रसद आपूर्ति व्यवस्था से है । ‘मोदी’ का निर्माण निश्चित ही मुस्लिम दौर में हुआ जब अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस भारतीय भाषाओं में हो रही थी । फ़ौजदार, जमादार, नायब, एहदी, बहादुर, नौकर, चाकर, ज़मींदार, कानूनगो, मुनीम समेत सैकड़ों अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं जो अरबी-फ़ारसी मूल के हैं और जिनका रिश्ता फ़ौज से रहा है । ‘मोदी’ भी मूल रूप से अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में दाखिल हुआ । इतिहास-पुरातत्व के ख्यात विद्वान हँसमुख धीरजलाल साँकलिया ने गुजरात के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इसे अरबी मूल का माना है । हालाँकि एस. डब्ल्यू फ़ैलन की न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी में भी ‘मोदी’ का रिश्ता मोदक अर्थात लड्डू से जोड़ा गया है । ध्यान रहे मोदक का रिश्ता ‘मोद’ अर्थात आनंद से हैं ।
मोदी शब्द के अरबी होने के कई प्रमाण हैं । औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हैंक्लिन-जैंक्लिन में भी बनिया प्रविष्टि के अंतर्गत ‘मोदी’ का भी उल्लेख है । इसमें लिखा है कि “रियासती दौर में लगान की वसूली अनाज के रूप में होती थी उसे जिस गोदाम में इकट्ठा किया जाता था उसे मोदीखाना कहते थे । व्यापारी के अर्थ में एक अन्य शब्द ‘मोदी’ भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका दर्ज़ा पंसारी या किरानी का है ।” आज भी देश के सैकड़ों शहरों-क़स्बों में ‘मोदीखाना’ नाम की इमारतें हैं जिनकी वजह से समूचे मोहल्ले या इलाक़े को भी मोदीखाना modikhana के नाम से जाना जाता है जैसे जयपुर का चौकड़ी मोदीख़ाना । इतिहास की क़िताबों में पंसारी या दुकानदार की अर्थवत्ता से इतर ‘मोदी’ शब्द के जो संदर्भ हैं उनमें उसे लगान अधिकार, कारिंदा, गुमाश्ता, दीवान, गाँव का मुखिया आदि बताया है। 

कृ.पा. कुलकर्णी के प्रसिद्ध मराठी व्युत्पत्तिकोश में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ अनाज व्यापारी, दीवान, चौधरी, भंडारी आदि बताया है । ‘मोदी’ की व्युत्पत्ति अरबी के ‘मुदाई’ से बताई गई है जिसका अर्थ होता है विश्वस्त या भंडारी । मोदी के साथ ही मोदीखाना शब्द भी है जिसका अर्थ है फौजी रसद विभाग । ज़ाहिर है मोदी ही फ़ौजी रसद विभाग का प्रमुख यानी भंडारी हुआ । सिख विकी में भी मोदी शब्द का रिश्ता रसद, राशन, किराना से ही जुड़ता है न कि मिठाई या हलवाई से – “Modi Khana is a reference to a provision store or a food supplies store. It is referred to in the Janamsakhis of Guru Nanak when he worked in a food store in Sultanpur while staying in the town where his sister, Nanaki and her husband Bhai Jai Ram lived. ”  यही नहीं फारसी-मराठी कोशों में भी मोदी शब्द का उल्लेख है और इसका मूल ‘मुदाई’ बताया गया है ये अलग बात है कि अरबी, फ़ारसी, उर्दू कोशों में मुदाई शब्द नहीं मिलता । 
sutlerइंग्लिश-हिन्दुतानी, इंग्लिश-इंग्लिश, फ़ारसी-हिन्दी कोशों में मोदी का अर्थ सामान्य तौर पर आढ़ती ( grain merchant ) पंसारी ( grocer) बनिया ( trader ) विक्रेता ( vender ), व्यापारी ( Merchant ) दुकानदार ( shopkeeper ) के अलावा बतौर हलवाई या मिठाईवाला  'A sweetmeat-maker, a confectioner' भी मिलता है जिसका व्युत्पत्तिक सम्बन्ध कोशकारों नें ‘मोद’ या ‘मुद’ से जोड़ा है । ऐसा लगता है कि कोशकारों के मन में मोद = आनंद = मिठाई = हलवाई जैसा समीकरण रहा होगा अगर इसे किसी तरह कबूल भी कर लिया जाए तो भी यह मानना कठिन है कि हलवाई की अर्थवत्ता में पंसारी, आढ़ती, व्यापारी, बनिया, दुकानदार जैसे भाव कहाँ से समा गए ?

इसी कड़ी में क़रीब 110 साल पहले पोरबंदर रियासत के गजेटियर में ‘मोदी’ के बारे में लिखी ये पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं- “In order No. 45* dated 17-8-1901 published in State Gazette Vol. XV regarding the Modi's duty to be present when called to fix the Nirakh of the Modikhana, the word " Modi " includes gheevvalas, fuel sellers, grocers, sweetmeat sellers, butchers &c.( The Porbandar State directory (Volume 2)” गजेटियर यह भी लिखता है कि मोदीखाना के लिए साल में एक बार स्थानीय व्यापारियों में से किसी एक को ठेका दिया जाता था ।
डिक्शनरी ऑफ़ द प्रिन्सीपल लेंग्वेजेज़ स्पोकन इन द बेंगाल प्रेसिडेंसी में पी.एस. डी’रोजेरियो भी ग्रोसर अर्थात किरानी के पर्याय के लिए ‘मोदी’ शब्द ही बताते हैं । हालाँकि वे इसके बांग्ला रूप ‘मुदी’ का उल्लेख करते हैं । बांग्ला और मराठी में ‘मोदी’ के साथ ‘मुदी’ mudi शब्द भी मिलता है । अंग्रेजी में एक शब्द है सटलर sutler जो मध्यकालीन डच भाषा के soeteler से बना है अर्थात सेना के लिए खान-पान सेवा चलाने वाला व्यापारी । अधिकांश प्रसिद्ध कोशों के पुस्तकाकार या ऑनलाईन संस्करणों में इसका हिन्दी अनुवाद मोदी ही दिया हुआ है । ध्यान रहे सामान्य तौर पर कैंटीन का अर्थ भी रसोई ही होता है । फौजी छावनियों को केंटोनमेंट cantonment कहते हैं जिसका संक्षेप कैंट होता है । अंग्रेजी कोशों में भी कैंट का मूलार्थ फौजी छावनी में राशन की दुकान है । अरबी के ‘आमद्दा’ में राशन पहुँचाने, मदद पहुँचाने या आपूर्ति का भाव है । ग्रोसर या पंसारी के तौर पर अरबी में ‘मोदी’ शब्द नहीं मिलता और फ़ारसी में भी नहीं पर इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे मद्दी ( विषय-वस्तुओं में रुचि रखनेवाला), मुअद्दी ( पहुँचानेवाला, भेजनेवाला ), मद्दा ( विषय-वस्तु, सामग्री, चीज़, पदार्थ ) आदि जिनसे फ़ारस या भारत की ज़मीन पर मोदी शब्द विकसित हुआ होगा और वहीं से अन्य मुस्लिम शासित इलाक़ों की बोलियों में यह रचा-बसा होगा । –जारी 
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Friday, November 2, 2012

तारीफ़ अली उर्फ़…

praising

प्र शंसा के अर्थ में हिन्दी मे तारीफ़ शब्द बोलचाल में रचा-बसा है । प्रशंसा क्या है ? हमारे आस-पास जो कुछ खास है उसकी शैली, गुण, वृत्ति, स्वभाव के बारे में सकारात्मक उद्गार । तारीफ़ दरअसल किसी व्यक्ति, वस्तु के गुणों का बखान ही होता है । हिन्दी की विभिन्न बोलियों समेत मराठी, गुजराती, बांग्ला में भी तारीफ़ शब्द है । तारीफ़ सबको अच्छी लगती है । कई लोग सिर्फ़ तारीफ़ सुनने के आदी होते हैं और कई लोग तारीफ़ करना जानते हैं ।  ज़रा सी तारीफ़ दो लोगों के बीच मनमुटाव खत्म कर सकती है । इसलिए तारीफ़ ज़रिया है, रिश्ता है, पुल है । खुशामदी लोग अक्सर तारीफ़ों के पुल बांध देते हैं । कहना न होगा कि झूठी तारीफ़ के रिश्ते इसलिए जल्दी ढह जाते हैं । वैसे तारीफ़ों के पुल ही नहीं बनते, तारीफ़ो की बरसात भी होती है ।
तारीफ़ सेमिटिक मूल का शब्द है और अरबी से बरास्ता फ़ारसी बोलचाल की हिन्दी में दाखिल हुआ । तारीफ़ के मूल में अराफ़ा क्रिया है जिसका जन्म अरबी धातु ऐन-रा-फ़ा [ع-ر-ف] से हुआ है । ऐन-रा-फ़ा [ 'a-r-f ] में पहचानना, मानना, स्वीकार करना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसके साथ ज्ञान, बोध, अनुभूति, परिचय जैसे भाव जुड़ते हैं । “आपकी तारीफ़” जैसे वाक्य में परिचय का आशय है, न कि सामने वाले के मुँह से उसकी प्रशंसा सुनने की मांग ।  कुछ कोशों में इसका अर्थ गन्ध दिया हुआ है । यूँ देखा जाए तो गन्ध से ही किसी चीज़ की पहचान, बोध या ज्ञान होता है । अरबी का ‘ता’ उपसर्ग लगने से तारीफ़ बनता है जिसमें मूलतः किसी घोषणा, उद्गार (सकारात्मक) का भाव है । तारीफ़ में विवरण, वर्णन भी होता है । तारीफ़ में प्रशंसाभर नहीं बल्कि इसका एक अर्थ गुण भी है । सिर्फ़ प्रशंसा झूठी हो सकती है, मगर गुण का बखान झूठ की श्रेणी में नहीं आता । सो गुण ( परिचय ) की जानकारी, उसकी व्याख्या, विवरण, प्रकटन, बखान आदि तारीफ़ के दायरे में है ।
सामान्यतया परिचय के अर्थ में हम तआरुफ़ शब्द का प्रयोग करते हैं । ताआरुफ़ सिर्फ़ किन्ही दो लोगों को एक दूसरे से मिलाना अथवा किन्ही दो लोगों का आपस में परिचय भर नहीं है । अराफ़ा में जानने का भाव है, जो सीखने के लिए ज़रूरी है । इसी तरह औरों को योग्य बनाने के लिए सीखना ज़रूरी है । हमने जो कुछ जाना है, वही दूसरे भी जान लें, यही तआरुफ़ है । बुनियादी तौर पर तआरुफ़ में समझने-समझाने, शिक्षित होने का भाव है । इसका एक रूप तअर्रुफ़ भी है जिसका अर्थ जान-पहचान, समझना आदि है । इसी शृंखला के कुछ और शब्द हैं जो हिन्दी क्षेत्रों में इस्तेमाल होते हैं जैसे संज्ञानाम आरिफ़ जिसका अर्थ है जानकार, विशेषज्ञ, प्रवीण, निपुण, चतुर आदि । इसी तरह एक अन्य नाम है मारूफ़ । संज्ञानाम के साथ यह विशेषण भी है । मारूफ़ वह है जिसे सब जानते हों । ख्यात । प्रसिद्ध । नामी । जाना-माना । बहुमान्य । मशहूर आदि । साहित्य में मारूफो-मोतबर ( नामी और विश्वसनीय ) या मारूफ़ शख्सियत जैसे प्रयोग जाने-पहचाने हैं ।
सी कड़ी में उर्फ़ भी है । हिन्दी में उर्फ़ शब्द का प्रयोग भी बहुतायत होता है । उर्फ़ तब लगाते हैं जब किसी व्यक्ति के मूल नाम के अलावा अन्य नाम का भी उल्लेख करना हो । उर्फ़ यानी बोलचाल का नाम, चालू नाम । जैसे राजेन्द्रसिंह उर्फ़ ‘भैयाजी’ । ज़ाहिर है मूल नाम के अलावा जिस नाम को ज्यादा लोकमान्यता मिलती है वही ‘उर्फ़’ है । उस शख्सियत का बोध समाज को प्रचलित नाम से जल्दी होता है बजाय औपचारिक नाम के । इसलिए उर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि समाज में उसी नाम से लोग उसे पहचानते हैं । फ़ारसी में इसका उच्चार ‘ओर्फ़’ की तरह होता है । लोग कहतें है, ज़रा सी तारीफ़ करने में क्या जाता है ? अर्थात तारीफ़ में कोई मेहनत नहीं लगती, अपनी जेब से कुछ नहीं जाता । एक धेला खर्च किए बिना तारीफ़ से काम हो जाता है । ऐसी तारीफ़ खुशामद कहलाती है । 
रबी, तुर्की में ही तारीफ़ का तारिफ़ा रूप भी है जिसका अर्थ किसी चीज़ का मूल्य अथवा किराया है । करें कि जिस तरह किसी चीज़ की गन्ध ही उसका परिचय होती है या यूँ कहें कि किसी चीज़ के अस्तित्व का बोध उसकी गंध से होता है । मनुष्य जीवन में मूल्यवान अगर कुछ है तो वह गुण ही हैं । गुणों से ही स्व-भाव विकसित होता है । मूल्य बना है ‘मूल’ से जिसमें मौलिक, असली, खरा का भाव है । जो जड़ में है । जो उसका स्व-भाव है । जब हम किसी चीज़ का मूल्य आँकते हैं तब गुणवत्ता की परख ही महत्वपूर्ण होती है । गुण ही मूल्य हैं । गुण ही किसी चीज़ को विशिष्ट बनाते हैं, मूल्यवान बनाते हैं । मनुष्य के आचार-विचार ही उसके गुण हैं । वही उसके जीवनमूल्य होते हैं । कहते हैं कि सिर्फ़ तारीफ़ से पेट नहीं भरता । इसका अर्थ यह कि गुण का मूल्यांकन करने के बाद ज़बानी प्रशंसा काफ़ी नहीं है ।
सी तरह किसी चीज़ का मूल्य दरअसल उसका परिचय ही है । भौतिकवादी ढंग से सोचें तो किसी चीज़ का मूल्य अधिक होने पर हम फ़ौरन उसकी खूबी ( गुण ) जानना चाहते हैं । यानी मूल्य का गुण से सापेक्ष संबंध है । तारिफ़ा में मूल्य का जो भाव है उसका अर्थ भी प्रकारान्तर से परिचय ही है । अरबी के तारिफ़ा में जानकारी, सूचना जैसे भावों का अर्थसंकोच हुआ और इसमें मूल्य, मूल्यसूची, खर्रा, फेहरिस्त समेत दाम, दर, शुल्क, भाव, मूल्य, कर जैसे आशय समाहित हो गए । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि अंग्रेजी के टैरिफ़  tariff शब्द का मूल भी अरबी का तारिफ़ा ही है । अरब सौदागरों का भूमध्यसागरीय क्षेत्र में दबदबा था । मूल्यवाची अर्थवत्ता के साथ तारिफ़ा लैटिन में दाखिल हुआ और फिर अंग्रेजी में इसका रूप टैरिफ़ हो गया जिसमें मूलतः शुल्क, दर या कर वाला अभिप्राय है ।

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Monday, October 22, 2012

‘बुनना’ है जीवन

bayaज़रूर देखें-1. चादर. 2.प्रवीण.3. तन्तु.4. धागा. 5.बाँस.6.कातना.7. सूत 

जी वन का बुनाई से गहरा रिश्ता है । “झीनी झीनी बीनी चदरिया” वाली कबीर की जगप्रसिद्ध उक्ति में चादर ज़िंदगी का प्रतीक है । परमात्मा ने जीवनरूपी चादर को जितनी शिद्धत और मेहनत से महीन अंदाज़ में बुना था उसे सुर-नर-मुनि ने ओढ़ कर मैला कर दिया । कबीर बड़े समझदार हैं, उन्हें ज़िंदगी की कीमत पता है, सो इस चादर को उन्होंने इतने जतन से ओढ़ा कि खुद के साथ साथ पूरे ज़माने को संवार दिया । “दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया”। कबीर जुलाहे थे, बुनकारी जानते थे । इसीलिए उन्होंने ज़िंदगी के लिए चादर जैसा सहज प्रतीक चुना । जन्म लेने के बाद हम सब महीन की बजाय मोटा कातते हैं, महीन की बजया  मोटो बुना जाता है । नतीजतन सुख नहीं मिलता । सुख की उधेड़बून में चादर मैली और जर्जर हो जाती है । इसलिए जिंदगी को सलीके से, महीन बुना जाना चाहिए । हि्न्दी के ‘वय’ शब्द का बुनाई से गहरा रिश्ता है ।
म्र या आयु के लिए हिन्दी में ‘वय’ शब्द भी प्रचलित है । मराठी में उम्र, आयु की तुलना में वय शब्द ज्यादा प्रचलित है । संस्कृत कोशों के अनुसार ‘व’ वर्ण में गति (वह > वहन > बहना या वेग), घर ( वास > आवास, निवास ), कपड़ा ( वस् > वस्त्र ) और बुनना (वयन) जैसे भाव हैं । इसके अतिरिक्त भुजा जो भार उठाती है ( वाह > बांह ) भी इसका अर्थ है । संस्कृत की ‘वे’ धातु में गूँथने, बुनने, बटने और बांधने का भाव प्रमुख है । वे का एक अर्थ पक्षी भी होता है क्योंकि वे चुन-चुन कर तिनकों को गूँथते हैं और अपना आवास बनाते हैं । ‘वे’ से ही बनता है वयन जिससे बयन > बउन > बुन > बुनन > बुनना जैसे रूप बने हैं । इससे ही बुनाई, बुनावट, बुनकर शब्दों का विकास हुआ । वस्त्र के अर्थ में बाना शब्द भी इसी कड़ी में आता है ।
मोनियर विलियम्स के अनुसार ‘वे’ धातु से ही बना है संस्कृत का वय शब्द जिसका अर्थ है वह जो बुनता है अर्थात जुलाहा, बुनकर । तन्तुवाय भी तत्सम शब्दावली में आता है जिसका अर्थ है तन्तुओं को बुनने वाला अर्थात जुलाहा । तन्तु से ही ताँत बना है जिसका मतलब होता है धागा और ताँती बुनकरों की एक जाति है । इसी तरह वय में आयु, उम्र का भाव भी है । वय की अगली कड़ी है वयस् आता है जिसका अर्थ है एक विशेष चिड़िया, कोई भी पक्षी, यौवन, आयु की कोई भी अवस्था, शारीरिक ऊर्जा, शक्ति, बल आदि । वय के जुलाहा और वयस के विशिष्ट चिड़िया वाले वाले अर्थ पर गौर करें । एक विशेष चिडिया को बया कहते हैं जो बेहद करीने और सुथरेपन के साथ तिनकों से अपना घोसला बनाती है मानो कलाकृति हो । बया को कारीगर चिड़िया अथवा जुलाहा की संज्ञा भी दी जाती है । बया, वय से ही बना है । घरोंदा किसी भी प्राणी के लिए जीवन को बचाए रखने का ठिकाना होता है । प्रत्येक को घर में ही शरण मिलती है । जीव कोख में पलता है । पैदा होने के बाद भी आश्रय में ही हम जीवन बुनते है । आयु की सार्थकता बीत जाने में नहीं, बुने जाने में है ।
वे में निहित गूँथना, बुनना, बटना जैसे भावों पर गौर करें । इससे ही बना है संस्कृत का वेन् शब्द । इसका एक अन्य रूप है वेण जिसका अर्थ है बाँस का सामान बनाने वाला कारीगर, संगीतकार । वेण से वेणी याद आती है ? वेणी अर्थात लम्बे बालों को गूँथकर बनाई गई शिखरिणी या चोटी । गूँथना भी बुनकारी है । इसी तरह बाँसो की खपच्चियों को भी गूँथकर, बुनकर डलिया, चटाई आदि बनाई जाती हैं । वंशकार जाति के लोग यह काम करते हैं । वेणु यानी बाँस, लम्बी घास की एक प्रजाति, सरकंडा । वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी होता है और चोटी भी । कृष्ण चोटियाँ बांधते थे इसलिए उनका नाम वेणुमाधव या वेणीमाधव भी है । इसका देशी रूप बेनीमाधव हो गया जो घटते घटते सिर्फ ‘बेनी’ रह गया और उधर माधव दुबला होकर ‘माधो’ बन गया । वेणि जहाँ चोटी है वहीं वेणी में चोटी के साथ धारा, नदी का अर्थ भी है । तीन धाराओं को त्रिवेणी कहते हैं ।
सी कड़ी में चर्चा कर लेते है वीणा शब्द की । आपटे कोश में के अनुसार वीणा का अर्थ सारंगी जैसा वाद्य, बीना, बताया गया है और इसकी व्युत्पत्ति ‘वी’ से बताई गई है । इसके अलावा इसका एक अन्य अर्थ विद्युत भी है। संस्कृत की ‘वी’ धातु में जाना, हिलना-डुलना, व्याप्त होना, पहुँचना जैसे भाव हैं। बिजली की तेज गति, चारों और व्याप्ति से भी वी में निहित अर्थ स्पष्ट है। विद्युत की व्युत्पत्ति भी वी+द्युति से बताई जाती है । ‘वी’ अर्थात व्याप्ति और द्युति यानी चमक, कांति, प्रकाश आदि । संस्कृत में वेण् या वेन् शब्द भी मिलते हैं जिनका अर्थ है जाना, हिलना-डुलना या बाजा बजाना । इसी क्रम में वेण् से बने वेण का अर्थ होता है गायक जाति का एक पुरुष । वेन में निहित एँठना, बटना जैसे भावों पर एक वाद्य के संदर्भ में विचार करने से स्पष्ट होता है कि यहाँ आशय तारों को कसने से ही है । प्रायः सभी तन्त्रीवाद्यों के तार घुण्डियों से बंधे रहते हैं जिने घुमा कर, एँठ कर तारों को कसा जाता है जिससे उनमें स्वरान्दोलन होता है ।
भारतीय भाषाओं में ‘न’ का ‘ण’ रूप भी सामान्य सी बात है । जल के अर्थ में पानी को मराठी, मालवी, राजस्थानी में पाणी कहा जाता है । इसी तरह वेन् का ही एक रूप वेण भी प्राचीनकाल में ही प्रचलित रहा होगा । वेन रूप से बीन, बीना जैसे रूप बने होंगे और वेण रूप से वीणा । मूलतः किसी ज़माने में वीणा बाँस से ही बनाई जाती रही होगी । आज भी उसमें बाँस का काफ़ी प्रयोग होता है । बाँस से वेणु अर्थात बाँसुरी भी बनती है । बाँस शब्द से ही बाँसुरी भी बना है और वेणु का अर्थ भी बाँस ही होता है । सो वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी हुआ । इसका रूपान्तर बीन हुआ । गौर करें बाँसुरी की तरह बीन सुषिर वाद्य है । निश्चित ही बाँस से बाँसुरी का आविष्कार आदिम समाजों में बहुत पहले हो गया था । बाँस के लम्बे पोले टुकड़े को जब तन्त्रीवाद्य का रूप दिया गया तो उसे भी इसी शृंखला में वीन्, वीण्, वीणा नाम मिला । वेणु यानी बंसी तो पहले से प्रचलित थी ही । संस्कृत धातु ‘वे’ की अर्थगर्भिता महत्वपूर्ण है जिसमें गति और बुनावट  की अर्थवत्ता है और इन दोनों का मेल ही जीवन है ।

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Thursday, October 18, 2012

पग-पग पैग़म्बर

pag
सं देश के अर्थ में फ़ारसी का पैग़ाम शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है ।  पैग़म्बर का रिश्ता भी पैग़ाम से ही है यानी वो जो पैग़ाम लाए । पैग़ाम का ही दूसरा रूप पयाम payam भी होता है । पैग़म्बर की तरह ही इससे पयम्बर बनता है । यह उर्दू में अधिक प्रचलित है । संवाद से जुड़े विभिन्न शब्द दरअसल किसी भी भाषा की आरम्भिक और मूलभूत शब्दावली का हिस्सा होते हैं । भाषा का जन्म ही संवाद माध्यम बनने के लिए हुआ है । पुराने ज़माने में पदयात्रियों के भरोसे ही सूचनाएँ सफ़र करती थीं । बाद में इस काम के लिए हरकारे रखे जाने लगे । ये दौड़ कर या तेज चाल से संदेश पहुँचाते थे । आगे चलकर घुड़सवार दस्तों ने संदेशवाहकों की ज़िम्मेदारी सम्भाली । इसके बावजूद शुरुआती दौर से लेकर आज तक पैदल चल कर संदेश पहुँचाने वालों का महत्व बना हुआ है । हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी के शब्दकोशों में पैग़ाम के बारे में व्युत्पत्तिमूलक जानकारी नहीं मिलती ।

पैग़ाम शब्द की रिश्तेदारी निश्चित रूप से संदेशवाहन की पैदल प्रणाली से होनी चाहिए । जॉन प्लैट्स के फ़ारसी, हिन्दुस्तानी, इंग्लिश कोश में पैग़ाम paigham शब्द को संस्कृत के प्रतिगम्  pratigam शब्द का सगोत्रीय बताया गया है जिसमें किसी की ओर जाना, मिलने जाना, वापसी जैसे भाव हैं । संस्कृत की बहन अवेस्ता में प्रति उपसर्ग का समरूप पैति है । डॉ अली नूराई द्वारा बनाए गए इंडो-यूरोपीय भाषाओं के रूटचार्ट में पैति-गम शब्द मिलता है मगर उन्होंने इसका रिश्ता न तो संस्कृत के प्रतिगम् से और न ही फ़ारसी के पैग़ाम जोड़ा, अलबत्ता एक अलग प्रविष्टि में पयाम ज़रूर दिया है । नूराई पैतिगम का अर्थ बताते हैं- निकलना ( संदेश के साथ ) ।  स्पष्ट है कि यह फ़ारसी पैग़ाम से पैतिगम का संदेशवाची रिश्ता जोड़ने का प्रयास है मगर  इससे कुछ पता नहीं चलता । यह ध्वनिसाम्य पर आधारित व्युत्पत्ति है । भारोपीय भाषाओं में पैर के लिए पेड ped तथा इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इसका रूप पद् होता है । पद् से ही संस्कृत में पद, पदम्, पदकम् जैसे शब्द बनते हैं । अवेस्ता में भी पद का अर्थ पैर है । इसका एक अर्थ चतुर्थांश भी होता है । अंग्रेजी के फुट foot, ped, गोथिक के फोटस fotus, लैटिन के pes जैसे शब्दों में ये धातुरूप नज़र आते हैं । भारोपीय धातु पेड ped से बनने वाले शब्दों की लम्बी शृंखला है । गौर करें कि प्रतिगम में सिर्फ़ गति उभर रही है, साधन गौण है जबकि संदेशवाहक मूलतः सेवक है और इस आशय वाले शब्दों के मूल में पैदल चलना एक आवश्यक लक्षण है ।  प्यादा, हरकारा, प्यून, धावक, अनुचर, परिचर आदि शब्दों में चलना (पैदल) एक अनिवार्य ज़िम्मेदारी है ।
संस्कृत में पैदल चलने वाले को पादातिक / पदातिक कहते हैं । मूलतः इसमें अनुचर, सिपाही या संदेशवाहक का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली में पदातिक रूप प्रचलित है । संस्कृत में इसका अन्य रूप पायिक भी होता है । मोनियर विलियम्स इसका अर्थ a footman , foot-soldier , peon बताते हैं । वे पायिक को पादातिक का ही संक्षिप्त रूप भी बताते हैं । पद में पैर और कदम दोनो भाव हैं । इससे बने पदक, पदकम् का अर्थ कदम, डग, एक पैर द्वारा चली गई दूरी है । पदक का प्राकृत रूप पअक  है जिससे इसका अगला रूप पग बनता है । हिन्दी की बोलियों में में पग-पग, पगे-पगे या पैग-पैग जैसे रूप भी चलते हैं । मीरां कहती हैं- “कोस कोस पर पहरा बैठ्या पैग पैग  बटमार।”  इसी तरह मलिक मुहम्मद जायसी लिखते हैं – “पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ।” हमारा मानना है कि पैगाम में यही पैग उभर रहा है । निश्चित ही फ़ारसी के पूर्व रूपों में भी पदक से पैग रूपान्तर हुआ होगा ।
बसे पहले पादातिक का पायिक रूप संस्कृत में ही तैयार हो गया था । मैकेन्जी के पहलवी कोश के मुताबिक फ़ारसी के पूर्वरूप पहलवी में यह पैग payg है । पायिक की तर्ज़ पर इसे पायिग भी उच्चारा जा सकता है, मगर पहलवी में यह पैग ही हुआ है । पायिक से बने पायक का अर्थ हिन्दी में  पैदल सैनिक, या हरकारा होता है । इसी ‘पैग’ से संदेश के अर्थ वाला पैगाम शब्द तैयार होता है । कोशों में पैगाम और नुक़ते वाला पैग़ाम दोनो रूप मिलते हैं । मद्दाह के कोश में नुक़ते वाला पैग़ाम है । गौर करें कि अवधी का पैग, फ़ारसी में पैक के रूप में मौजूद है जिसका अर्थ है चिट्टीरसाँ, दूत, पत्रवाहक, डाकिया, हरकारा, प्यादा या एलची । पैग, फ़ारसी में सिर्फ़ पै रह जाता है जिसका अर्थ पदचिह्न या पैर है । फ़ारसी में पै के साथ ‘पा’ भी है जैसे पापोश, पाए-तख्त या पाए-जामा (पाजामा), पाए-दान (पायदान) आदि ।
पैगाम से ही ईश्वरदूत की अर्थवत्ता वाला पैग़म्बर शब्द बनता है । आमतौर पर पैग़म्बर नाम से इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद का बोध होता है । इंडो-ईरानी भाषाएँ बोलनेवाले समूहों में ईश्वरदूत, मुक्तिदाता के अर्थ में मुहम्मद के लिए पैग़म्बर शब्द रूढ़ हो गया । यूँ मूलतः इसमें संदेश लाने वाले का भाव ही है । दरअसल पैग़म्बर में वही अर्थवत्ता है जो हिन्दी के विभूति शब्द में है । दुनियseभर में जितनी भी विभूतियाँ पैदा हुई हैं, उनका दर्ज़ा ईश्वरदूत का ही रहा है । ग़लत राह पर चलते हुए कष्ट पाते मनुष्य को मुक्ति दिलाने के लिए समय समय पर ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने मानवता को राह दिखाई है । दुनिया ने ऐसे लोगों को ईश्वर का संदेश लाने वाले के तौर पैगम्बर माना । कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद सब ईश्वरदूत, पथप्रदर्शक या धर्मप्रवर्तक थे । पैगम्बर शब्द बना है पैग़ाम में फ़ारसी का ‘बर’ उपसर्ग लगने से । मूलतः पैग़ाम में संदेश भिजवाने का भाव है । संदेश भिजवाने की अत्यन्य प्राचीन तकनीक पग-पग या पैग-पैग ही थी सो पैग़ाम में संदेश की अर्थवत्ता पग-पग चल कर गन्तव्य तक मन्तव्य पहुँचाने की क्रिया से उभर रही है ।
भारोपीय धातु इंडो-यूरोपीय धातु bher से जिसमें बोझ उठाना, या ढोना जैसे भाव हैं । संस्कृत में एक धातु है ‘भृ’ जिसकी व्यापक अर्थवत्ता है मगर मोटे तौर पर उसमें संभालने, ले जाने, भार उठाने आदि का भाव है । इससे ही बना है भार शब्द जिसका अर्थ होता है वज़न, बोझ आदि । भार का एक रूप भर  है । यह वज़न की इकाई भी है । फ़ारसी में यह बर है जिसका आशय उठाना, ले जाना है । बर अपने आप में प्रत्यय है । पैग़ाम के साथ जुड़ कर इसमें “ले जाने वाला” का आशय पैदा हो जाता है । इस तरह पैग़ाम के साथ बर लगने से बनता है पैग़ाम-बर अर्थात संदेश ले जाने वाला । पैगामबर का ही रूप पैगंबर या पैगम्बर हुआ । पैग़म्बरी का अर्थ है पैग़म्बर होने का भाव या उसके जैसे काम । पैग़म्बरी यानी एक मुहिम जो इन्सानियत के रास्ते पर चलने को प्रेरित करे । इन्सानियत पर चलना ही ईश्वर प्राप्ति है । पैगम्बर भी डगर-डगर चल कर औरों के लिए राह बनाता है । सो पैगम्बर सिर्फ़ पैग़ाम लाने वाला नहीं बल्कि पैग-पैग चलाने वाला, पार उतारने वाला भी है । संदेशवाहक के लिए पैग़ामगुजार शब्द भी है ।
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5.
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Thursday, October 11, 2012

सचमुच घनचक्कर था मेघदूत

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नि दा फ़ाज़ली ने बरसात के बादल को उसकी आवारा सिफ़त के मद्देनज़र सिर्फ़ दीवाना क़रार देते हुए बरी कर दिया, शायद इसलिए कि वह नहीं जानता, "किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है ।" मगर कालीदास का मेघदूत तो यक़ीनन घनचक्कर ही था । ये हम नहीं कह रहे हैं बल्कि उसके अनेक नामों में एक घनचक्र से ज़ाहिर हो रहा है । बोलचाल की भाषा में इधर-उधर भटकने वाले, निठल्ले, आवारा मनुष्य को घनचक्कर की संज्ञा दी जाती है । इसकी अर्थवत्ता में बेकार, सुस्त, आलसी, बेवकूफ़, मूर्ख जैसे आशय भी शामिल हो गए । घनचक्कर में दरअसल मुहावरेदार अर्थवत्ता है । यह तो तय है कि इसका पहला पद तत्सम घन है और दूसरा पद चक्कर, तद्भव है जो तत्सम चक्र से बना है । ज़ाहिर है मूल रूप में यह घनचक्र है । हिन्दी कोशों में घनचक्र का रिश्ता घनचक्कर से तो जोड़ा गया है मगर इसकी व्युत्पत्तिक व्याख्या नहीं मिलती कि हिन्दी वाङ्मय में घनचक्र का क्या सन्दर्भ है । जॉन प्लैट्स जैसे हिन्दी के यूरोपीय अध्येताओं नें घन शब्द के अन्तर्गत घनचक्कर को तो रखा है मगर इसके व्यावहारिक प्रयोग के उदाहरण उनके यहाँ नहीं मिलते साथ ही वे घनचक्कर का रिश्ता घनचक्र से भी स्थापित नहीं करते । उसकी जगह वे घनचक्कर का अर्थ घूमते हुए आकार (A revolving body), चकरीनुमा यन्त्र (a Catherine-wheel) अथवा इसके रूढ़ अर्थ मंदमति, बुद्धू आदि बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर में इसका अर्थ एक किस्म की आतिशबाजी भी मिलता है, मगर यह प्लैट्स के शब्दकोश से जस का तस ले लिया गया लगता है । शब्दों का सफ़र में देखते हैं घनचक्कर की घुमक्कड़ी ।
समें कोई संदेह नहीं कि घनचक्कर का मूल घनचक्र है मगर आज हिन्दी से घनचक्र गायब हो चुका है और इसकी जगह मुहावरेदार अर्थवत्ता वाला रूपान्तर घनचक्कर विराजमान है जिसका अर्थ मूर्ख, आवारा, गावदी, निठल्ला आदि है मुश्किल ये है कि यह अर्थवत्ता स्थापित कैसे हुई । हिन्दी की तुलना में घनचक्र शब्द का मराठी वाङ्मय संदर्भ मिलता है । घनचक्र का घणचक्र रूप भी मराठी में है जबकि घनचकर रूप मराठी के अतिरिक्त पंजाबी में भी है । यही नहीं, महाराष्ट्र में घनचकर उपनाम भी मिलता है । घनचक्र का संदर्भ सीधे सीधे बादलों की उमड़-घुमड़ से जुड़ता है । सोलहवीं सदी में श्रीधर स्वामी लिखित “शिवलीलामृत” में “होत युद्धाचे घनचक्र” में इसका संदर्भ आया है जिसका अर्थ है युद्ध के बादल । घनचक्कर में भटकन, यायावरी की अर्थवत्ता पहले स्थापित हुई । इसका घनचक्र अर्थात बादल से रिश्ता ही घुमक्कड़ी, भटकन और यायावरी से इसे जोड़ता है । बादल का प्रतीक सतत भटकन का आदि प्रतीक है । मेघदूत की मज़बूत मिसाल सामने है । आवारा बादल जैसे विशेषण बहुत आम हो चुके हैं । स्पष्ट है कि घनचक्र दरअसल बादल ही है न कि कोई मशीनी संरचना । चक्र का अर्थ किसी यान्त्रिक चक्र से नहीं बल्कि बादलों के वर्तुल से है । भटकन जब बिलावजह हो तो बेनतीजा रहती है । समाज में यूँ भी अकारण फिरने वाले को आवारा ही कहा जाता है । बादल इसीलिए आवारा कहलाते हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि कहाँ से गुज़रना है और कहाँ बरसना है । यानी अस्थिरता ही आवारा का मूल चरित्र है । जिसकी बुद्धि स्थिर न हो, वही घनचक्कर ।
नचक्कर शब्द कभी भी आतिशबाजी के अर्थ में हिन्दी में प्रचलित नहीं रहा । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका एक अर्थ स्पष्ट रूप से कैथराईन व्हील दिया हुआ है । मध्यकाल में यूरोप में कैथराइन व्हील दुर्दान्त सज़ा देने वाला चकरीनुमा यन्त्र था । बाद के दौर में आतिशबाजी का जब विकास हुआ तो चकरीनुमा आतिबाजी को यूरोप में कैथराईन व्हील नाम दिया गया । भारत में भी जब यूरोपीय ढंग की आतिशबाजी आई तो कैथराइन व्हील को यहाँ चकरी के नाम से लोकप्रियता मिली । भरपूर तलाशने के बावजूद मुझे चकरीनुमा आतिशबाजी के लिए घनचक्कर पर्याय नहीं मिला । इंटरनेट पर जितने भी सन्दर्भ हैं, वे उन शब्दकोशों तक पहुँचाते हैं जिनकी सामग्री हिन्दी शब्दसागर से जस की तस ले ली गई है । ज़ाहिर है, जॉन प्लैट्स के कोश से जो सन्दर्भ शब्दसागर के सम्पादकों ने उठाया, उसका प्रसार अन्य शब्दकोशों तक हुआ मगर उसकी पुष्टि भारतीय वाङ्मय में नहीं की गई । घनचक्र में घन का आशय बादल से है न कि मशीनी घन से । घने काले श्यमवर्णी, एक दूसरे में समाते हुए , लगातार वर्तुल चक्रों में उमड़ते –घुमड़ते, और ज्यादा सघन होते, अपने भीतर के वाष्पकणों से संतृप्त  बरसने को आतुर बादल ही घनचक्र कहलाते हैं ।
नचक्र में बादलों की उमड़-घुमड़ साबित करने वाले अनेक तथ्य मराठी में मिलते हैं । इसके अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी में घन शब्द में भी बादल, मेघ का आशय प्रमुखता से है । बादलों के प्रतीक से ही घनचक्र में प्रचण्ड युद्ध, कठिन संघर्ष या भीषण टकराव का भाव भी उभरता है । कुल मिला कर घन चक्र में भीषण गर्जना के साथ मूसलाधार बारिश लाने वाले बादलों की चक्रगतियों का स्पष्ट संकेत है । संस्कृत के घन शब्द की व्युत्पत्ति हन् से मानी गई है जिसमें आघात, प्रहार, चोट जैसे भाव हैं । हन् से बने घन का अर्थ है ठोस, कठोर, मज़बूत, स्थिर, अटल, चुस्त, सुगठित जैसे भाव है । सघन, सघनता, घनत्व, घनता जैसे शब्द इसी घन से बने हैं । घन का अर्थ हथौड़ा या बेहद मज़बूत शिलाखण्ड से भी है जिसका उपयोग आक्रमण के लिए किया जाए । घनत्व के भाव को उजागर करने वाला शब्द घनघोर है । जैसे घनघोर जंगल, घनघोर अंधेरा, घनघोर बारिश, घनघोर पाप आदि । घनश्याम श्रीकृष्ण का लोकप्रिय नाम है जिसमें उनके मेघवर्णी रूप का संकेत है अर्थात ऐसा काला रंग जैसे कि बरसाती बादल होते हैं । बादलों का संकेत चातक, पपीहा जैसे पक्षी के घनताल नाम से भी मिलता है । पपीहा को घनतोल भी कहते हैं क्योंकि उसे बारिश का अंदाज़ हो जाता है । सबसे निकट का, पास का के अर्थ में घन से बने घनिष्ठ का प्रयोग भी हिन्दी में खूब होता है ।

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Friday, September 21, 2012

मुनीमजी की खोजखबर

nawabसंबंधित शब्द-1.तहसीलदार. 2.वजीर. 3.वायसराय. 4.जागीरदार. 5.कानूनगो. 6.श्रीमंत. 7.नौकर. 8.चाकर. 9.मुसद्दी. 10.एहदी. 11.अमीर. 12.फौजदार. 13.क्षत्रप 

हि न्दी की खूबी है कि उसने अन्य भाषाओं से ख़ासतौर पर अरबी-फ़ारसी से आए शब्दों को उनके शुद्धतम रूप में स्वीकार किया है । बहुत कम शब्द ऐसे हैं जिनके देसी रूपों को बोल-चाल और लिखत-पढ़त में जगह मिली है अन्यथा अरबी-फ़ारसी के शब्दों को अलग से पहचाना जाता है । मुनीम भी ऐसे ही दुर्लभ शब्दों में है जिससे यह अंदाज़ नहीं लगता कि यह हिन्दी में अरबी से आयात हुआ है । आज़ादी के बाद सिनेमा और साहित्य ने मुनीम के ज़रिए ही औपनिवेशिक काल के संघर्षशील और शोषित समाज की तकलीफ़, बदक़िस्मती, दुश्वारी और दुर्दशा को उजागर किया । सामन्ती समाज के निरंकुश चरित्र को सामने लाने वाला कारिन्दा था मुनीम जिसकी संवेदना सिर्फ़ वसूली, कब्ज़ा और दोहन से जुड़ी थी । आम आदमी के लिए बुरे सपने समान था का मुनीम । कम्पनीराज में जब सामन्तों को नवाब की उपाधियाँ रेवड़ियों की तरह बँट रही थीं, तब उनके नायब की ज़िम्मेदारी इन्हीं मुनीमों ने बखूबी सम्भाली । मौकापरस्ती इनकी खूबी थी और वह दौर भी आया जब नवाबों की बदचलनी का फ़ायदा उठा कर कुछ मुनीम खुद नवाब बन बैठे । आख़िर नवाब, नायब और मुनीम में रिश्तेदारी जो ठहरी ।
सेमिटिक भाषा परिवार की एक धातु है नून-वाव-बा (n-w-b) । मूल रूप से इसमें घूमना, मुड़ना, परिवर्तन, लौटना, फिरना, बारी, बदली जैसे भाव हैं । अल सईद एम बदावी की अरेबिक इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ कुरानिक यूज़ेज़ में जिसके कब्ज़ा, वसूली, अधिग्रहण, दुर्दशा, विपत्ति, निरीक्षण जैसे अर्थ दिए गए हैं । सहायक या डिप्टी के अर्थ में हिन्दी में अरबी मूल का नायब शब्द भी प्रचलित है जो इसी धातु से जन्मा है । इसका अरबी रूप नाइब है । ध्यान दीजिए नून-वाव-बा की अर्थवत्ता पर जिसमें मूल रूप से स्थानापन्न का भाव उभर रहा है । कब्ज़ा या अधिग्रहण क्या है ? किसी ओर का काबिज हो जाना । सहायक, नायब या डिप्टी कौन है ? जो प्रमुख व्यक्ति के स्थान पर काम करे । किसी बदले काम करने वाला व्यक्ति ही नायब होता है । नायब का अर्थ है प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा तैनात अफ़सर । वरिष्ठ अधिकारी । नून-वाव-बा (n-w-b) घूमने, लौटने, मुड़ने के भावों का विस्तार मुआइना, निरीक्षण, बारी, अवसर, पाली, बदली में होता है और नायब की ड्यूटी में ये सभी काम शामिल हैं । किसी ज़माने में तहसील ही रियासतों की सबसे बड़ी ईकाई होती थी । तब तहसीलदार का रुतबा कलेक्टर का होता था । तहसीलदार का प्रमुख सहकारी नायब तहसीलदार कहलाता था । आज़ादी के बाद तहसील से ऊपर ज़िला बना और कलेक्टर, तहसीलदार से ऊपर हो गया । इस तरह तहसीलदार को डिप्टी कलेक्टर कहा जाने लगा । मगर नायब तहसीलदार अपनी जगह कायम रहा ।
सी तरह नवाब शब्द भी इसी कड़ी में आता है । नवाब की व्युत्पत्ति भी n-w-b से हुई है और इसका एक रूप नव्वाब भी है । आमतौर पर नवाब शब्द को हिन्दी में शासक, राजा या बादशाह का पर्याय समझा जाता है पर ऐसा नहीं है । नवाब दरअसल एक उपाधि है और यह नाइब (नायब) का रूपान्तर है । इस्लामी शासकों की मान्यता के मुताबिक दुनिया पर खुदा की बादशाहत है और वे महज़ उसके प्रतिनिधि हैं । नवाब इसी रूप में शासक शब्द का प्रतिनिधित्व करता है । नवाब में भी प्रतिनिधि, नुमाइंदा, अहलकार, मुख्तार जैसे भाव हैं । मुस्लिम शासकों ने कई सूबेदारों को नवाब की इज़्ज़त बख़्शी क्योंकि वे उस सूबे में केन्द्रीय सत्ता के प्रतिनिधि थे । राज्यपाल के अर्थ में भी नवाब शब्द प्रचलित रहा । अंग्रेजों ने भी नवाब की पदवियाँ बाँटीं । कई घरानों ने नवाब शब्द को पैतृक उपाधि की तरह अपने नाम के साथ जोड़ लिया । नवाबजादा, नवाबजादी जैसे शब्दों में मुहावरेदार अर्थवत्ता कायम हुई जिसका अर्थ था शानशौकत, दिखावापंसद औलादें । कुल आशय बिगड़ैल संतान से है ।
नून-वा-बा से बने मूल नाब शब्द में प्रतिनिधित्व, सूचना जैसे भाव हैं । उर्दू फारसी का नौबत शब्द हिन्दी में भी सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में शामिल है । नौबत आना, नौबत पहुँचना, या नौबत बजना जैसे मुहावरे खूब प्रचलित हैं। नौबत का सीधा सीधा मतलब है घड़ी, अवसर, बारी, दशा इत्यादि । इसका अन्यार्थ सचेत होना, सतर्क होना भी है क्योंकि बारी, घड़ी या अवसर एक तय आवृत्ति के बाद आता है जिसके लिए हम तैयार रहते हैं । इसी तरह नबाहा शब्द भी इसी कड़ी में आता है । नौबत वैसे अरबी ज़बान के नौबा से बना है जिसमें बारी, अवसर जैसे ही भाव थे मगर बाद में इसमें ईश्वर की आऱाधना (बारंबार), धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना जैसे भाव भी शामिल हो गए । इस रूप में समय का बोध कराने के नियत समय पर लिए नक्कारा बजाया जाता था जिसे नौबत कहा जाने लगा । आमतौर पर यह परंपरा ईश्वरआराधना के लिए सावधान करने के लिए थी मगर ऐसा लगता है कि राज्यसत्ता ने बाद में इसे अपना लिया। फिर समाज के प्रभावशाली व्यक्ति अपने घर के दरवाजे पर किसी भी किस्म की सूचना करने के लिए नौबत बजवाने लगे और बजानेवाला नौबती या नौबतचीं कहलाने लगा ।
मय चक्र पर गौर करें । सूरज का उगना, ढलना, फिर उगना । यह चक्र है । समय सूचक घड़ी के काँटे भी गोल घूमते हैं । यानी निरन्तर गति । हर बार उसी स्थान पर लौटना । स्थानापन्न होना । अरबी में घड़ी के लिए मुनब्बिह शब्द है । ‘मु’ उपसर्ग लगने से मुनीब शब्द बनता है । जॉन प्लैट्स की अ डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसारी मुनीब का अर्थ “to make (one) supply the place (of another),' iv of ناب (for نوب) 'to supply the place (of another)'), s.m. One who appoints a deputy; a patron; master; client; constituter; constituent;—one appointed to conduct a business, foreman, factor, agent, headman.” दिया गया है । ज़ाहिर है मुनीब सहायक भी है, मातहत भी है, नायब भी है । कार्यपालन अधिकारी की शक्तियाँ उसमें निहित होने के चलते वही सरपरस्त है, मालिक और प्रशासक भी है । मुस्लिम शासन के दौरान मुनीब ये सब काम करते थे । मूलतः राजस्व अधिकारी की तरह ये काम करते थे और दौरा करते थे । धीरे-धीरे इनका काम हिसाब-किताब देखने तक सीमित हो गया और इनकी हैसियत सामान्य बाबू की हो गई । मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश में मुनीब का अर्थ है प्रतिनिधि, नुमाइदः, अभिकर्ता, एजेंट या गुमाश्ता । जहाँ तक मुनीब के मुनीम में तब्दील होने का सवाल है, तो हमें अम्मा शब्द पर विचार करना चाहिए । हिन्दी में अन्त्य वर्ण में अनुनासिकता की वृत्ति है । अम्मा का एक रूप अम्ब भी है । यहाँ का लोप होकर ध्वनि शेष है । यही बात मुनीब के मुनीम रूप में भी हो रही है ।

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