Friday, November 28, 2008

...तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे [बकलमखुद80]

pnesbee Blue-Sky ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने  गौर किया है। ज्यादातर  ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी , प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा और रंजना भाटिया को पढ़ चुके हैं।   बकलमखुद के चौदहवे पड़ाव और छिहत्तरवें सोपान पर मिलते हैं पेशे से पुलिस अधिकारी और स्वभाव से कवि पल्लवी त्रिवेदी से जो ब्लागजगत की जानी-पहचानी शख्सियत हैं। उनका चिट्ठा है कुछ एहसास जो उनके बहुत कुछ होने का एहसास कराता है। आइये जानते हैं पल्लवी जी की कुछ अनकही-
म.ए. करने के बाद ये सोचना था की अब आगे क्या कैरियर चुनना है!सोचा की एम.बी.ए. कर लेती हूँ लेकिन उसकी तैयारी के लिए बाहर जाना पड़ता जिसके लिए पापा ने मना कर दिया!अब जो भी करना था अपने ही शहर में रहकर करना था...उस वक्त पापा की पोस्टिंग शाजापुर में थी जो की इंदौर के पास एक छोटा सा शहर है!सोचा की चलो पी.एस.सी. देकर देख लेते हैं....दो महीने का वक्त था हमारे पास...फॉर्म भर दिया ,किताबें ले आये और मैंने और गड्डू ने प्रीलिम्स की तैयारी शुरू कर दी! कोई ख़ास पढाई नहीं की...क्योकी ये मानते थे की पहली बार में किसी का सिलेक्शन नहीं होता है!ऐसे ही मे मज़े में जाकर पेपर दे आये और देकर भूल भी गए! जब रिजल्ट आया तो बिना हमारा रिजल्ट जाने ही घर में डांट पड़ना भी शुरू हो गयी कि अगर तुम मेहनत करतीं तो तुम लोगों का भी हो जाता! हम चुपचाप डांट ख़तम होने का वेट करते रहे..लेकिन जब रिजल्ट देखा तो हम दोनों बहनों का सिलेक्शन हो गया था!

लेकिन भगवान का शुक्र है कि इसके मेन्स की तैयारी के लिए पापा ने हमें इंदौर भेज दिया!वहाँ जाकर हमने कड़ी मेहनत की...क्योकी पढना बहुत था और समय केवल तीन महीने का था! पी.एस.सी. की तैयारी के दौरान मैं और गड्डू एक कमरा किराए से लेकर रहते थे...हमारे साथ ही प्रमिला भी रूम शेयर करने लगी! प्रमिला भी हमारे साथ मेन्स की क्लास अटेंड कर रही थी! हम लोग खाना तो टिफिन सेंटर से मंगाते थे....लेकिन रूम में हमने चुपचाप से एक हीटर भी रखा हुआ था , जिसमे चाय, कॉफी या मैगी बनाना, आलू उबालना जैसे छोटे मोटे काम कर लिया करते थे! चुपचाप इसलिए क्योकि मकान मालिक ने हीटर के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी थी!चाय तो आसानी से बन जाती लेकिन आलू उबालते या चावल बनते समय कुकर की सीटी बजती थी...जिससे हमारी चोरी पकड़े जाने की पूरी संभावना थी ! क्योकि माकन मालिक ऊपर ही रहते थे...आवाज़ वहाँ तक पहुँच ही जाती थी! इसका एक तरीका निकाला ...जैसे ही सीटी बजने वाली होती थी हम तीनो जोर जोर से गाना शुरू कर देते थे!जिसमे सीटी की आवाज़ दब जाती थी! बाद में एक बार मकान मालकिन ने कहा भी की तुम लोग रोज़ शाम को इतनी ज़ोर ज़ोर से क्यो गला फाड़ती हो? हमने कहा " आंटी जी...दिन भर पढ़कर तनाव हो जाता है, उसी को कम करते हैं!"

पहली बार पापा ने हमें घर से दूर भेजा था...इसके पहले पी.एम.टी. के लिए बाहर जाना चाहा, फिर एम.बी.ए. के लिए लेकिन दोनों बार नहीं भेजा गया तो इस बार जब पापा ने खुद ही हम लोगों को बाहर भेजा तो हमारे मन में जाने क्यों इतनी जिम्मेदारी की भावना भर गयी कि चाहे कुछ भी हो जाये सफल होना ही है!हम दोनों सोचते थे कि हमारे ऊपर इतना पैसा खर्च हो रहा है उसे बेकार नहीं जाने देना है....इस जिम्मेदारी के एहसास ने भी कई रोचक घटनाओं को जन्म दिया!किस्मत ही कुछ ऐसी है कि गंभीर विषयों में भी हमेशा कुछ फनी ही होता है हमेशा.....ऐसे ही दो किससे याद आते हैं!छोटी छोटी चीज़ों में हम लोग पैसा बचाने लग गए थे ताकि घर से कम पर कम पैसे मंगाने पड़ें!एक बार घर में दही ख़तम हो गया..हम लोग बाज़ार पर दही न खरीद कर घर पर ही जमाते थे!एक बार जामन ख़तम हो गया...हम दूकान पर गए जामन खरीदने! दूकान पर पहुंचकर कहा.." भैया.पचास पैसे का दही दे दो!" दूकान पर एक छोटा बच्चा बैठा था, हैरान परेशान सा अपने पिता से बोला " पापा...पचास पैसे का दही मांग रही हैं" उसके पापा ने एक बार हमें देखा,फिर बोले " दे दे थोडा सा" अब बच्चे ने हमसे कहा " बर्तन दो" हमने कहा " बर्तन फर्तन नहीं है...पन्नी में दे दे!"

ब बच्चा और भी ज्यादा परेशानी में बोला " पापा...पचास पैसे का दही..वो भी पन्नी में मांग रही हैं" अब उसके पापा आये और बोले " पचास पैसे का दही नहीं आता है...कम से कम दो रुपये का लो" हमने कहा " ठीक है ...दो रुपये का देदो" उसने पन्नी में दो रुपये का दही दे दिया, अब हमने कहा " अच्छा भैया रहने दो...हमें दही नहीं चाहिए" अब वो बड़बड़ाया और वापस दही मटकी में डाल दिया..पन्नी फेंकने ही चला था इतने में हमने उसके हाथ से पन्नी ले ली और कहा " ये लो...पचास पैसे ,हमें हमारे काम का दही मिल गया" अब दुकानदार भी हंस पड़ा...और उसने थोडा सा दही पन्नी में और डाल दिया!

म लोग उस वक्त टिफिन सेंटर से खाना मंगाते थे और अचार ज्यादा मंगाते थे..लेकिन मज़े की बात ये है कि हमने एक भी दिन अचार नहीं खाया और एक बोतल में जमा कर लिया!और घर पर फोन करके मम्मी को कह दिया " मम्मी ,इस बार अचार मत बनाना" खैर हमारी मेहनत रंग लायी ...वाकई उस दौरान हम दोनों ने दिन रात एक कर दिया था! लेकिन दुःख इस बात का हुआ कि मेन्स में मेरा सिलेक्शन तो हो गया पर गड्डू का नहीं हो पाया...हम दोनों ने पूरी तैयारी एक साथ की थी! उसका सिलेक्शन न होने से मुझे अपनी ख़ुशी अधूरी लग रही थी! आगे इंटरव्यू हुआ और फाइनली डी.एस.पी. के लिए चयन हो गया! अगले साल ही गड्डू का भी राजस्थान पी.एस.सी में सिलेक्शन हो गया!

6 मार्च 1999 को मेरा सिलेक्शन हुआ....पापा मम्मी बहुत खुश थे!पापा बड़े गर्व से सबको बताते! हम सब बेहद खुश थे....लेकिन ये ख़ुशी के पल सिर्फ 15 दिन के ही थे! 21 मार्च को वो मनहूस फोन आ गया जिसने मुझे जिंदगी की सबसे बुरी खबर दी! पापा बुआ के घर गुना गए हुए थे..गुना से पापा के न रहने का फोन आया! मम्मी भी उस वक्त मामा के घर महू गयी हुईं थीं! हम चारों पर जैसे पहाड़ टूट
पड़ा! वक्त भी कितनी मनमानी करता है...हम कभी सपने में भी नहीं सोचते कि हमारे साथ कभी ऐसा होगा ये जानते हुए भी कि एक दिन सबको जाना है! शाजापुर से शिवपुरी तक का बस का वो सफ़र...हम चारों बहनों का रोना नहीं थम रहा था! घर पहुंचकर पापा को उस रूप में देखना असहनीय था!

हली बार जिन्दगी में जाना कि दुःख क्या होता है! अचानक वे सब लोग जिनके पापा नहीं थे....अपने से लगने लगे! सब लोग मुझसे कहते....तुम बड़ी हो!बहादुर बनो...रो मत! मैंने मन में सोचा कि ठीक है...अब मैं सहज होने की कोशिश करूंगी! कुछ घंटों बाद लगने लगा कि मैं शायद बिन रोये सबको संभाल सकती हूँ! तभी पापा का बैग लाने को कहा मेरे मामा ने....मैं गयी और जैसे ही बैग में हाथ डाला..पापा की नीली शर्ट निकली और बस मैं जान गयी ....ऐसे मौके पर सहज रहना किसी के बस की बात नहीं है!मैंने फिर अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश नहीं की!पापा के जाने के बाद हम लोग शिवपुरी रहने चले गए! पापा बहुत अच्छागाते थे ! उन्होंने मुझे " आपकी नज़रों ने समझा " गाना सिखाया था! तब मुझे वो गाना कुछ ख़ास पसंद नहीं था लेकिन आज वही गाना मेरी पहली पसंद है! धीरे धीरे सब सामान्य होने लगा लेकिन हम सब जानते थे कि सब एक दूसरे के सामने सामान्य रहने की कोशिश कर रहे हैं!मुझे याद है....एक बार एक कैसेट टेप में लगायी! उस पर एल्बम का नाम नहीं लिखा था! कुछ पल बाद पापा की आवाज़ में ग़ज़ल गूंजी " मोहब्बत करने वाले कम न होंगे,तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे" !उस पल दिल पर क्या बीती, बयान करना नामुमकिन है! अब शायद ज्यादा भावुक हो गई हूँ! बाकी बाद में....

16 कमेंट्स:

Anonymous said...

काफी भावुकता भरा लेख. आगे का इंतजार.

दिनेशराय द्विवेदी said...

पापा के न रहने का दुख समझा जा सकता है। इस उम्र में आते आते न जाने कितने अपनों को खोया है। लेकिन जीवन चलता रहता है। वे लोग जो नहीं रहते वे यहीं रहते हैं हमारे बीच हमारे अंदर हर नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी का ही पुनर्जन्म होती है। हम उन्हें अपने भीतर महसूस करें तो तकलीफ कम होती है और मजबूती बढ़ती है।

विवेक सिंह said...

दुःख हुआ . भावुक कहानी . आगे का इंतजार .

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

ॐ शान्तिः।

कोई शब्द नहीं हैं...।
बस...।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

जिसने दुःख देखना सीख लिया
वह जीना भी सीख लेता है.
आपको जो कुछ हासिल है
उसे ज़िंदगी के मेले में
खोने मत दीजियेगा...उनमें
वह महफ़िल बार-बार सजाई
जा सकती है जिसमें आप अपने
पापा के सपनों को शिद्दत से जी
सकती हैं....शुभकामनाएँ.
========================
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

Gyan Dutt Pandey said...

यह डा. जैन ने बहुत सुन्दर कहा - जिसने दुःख देखना सीख लिया
वह जीना भी सीख लेता है.

कंचन सिंह चौहान said...

aaj ka din hi shayad aankhe.n nam karane wala hai. aap ke papa ki ghatana se mai bahut adhik judi hu.n. mere papa aap ki nazaro ki jagah..baharo.n fool barsao...aur mohabaat karan vale ki jagah... Kavane disha me...:)

Sanjeet Tripathi said...

नम न कीजिए आंखें, वे बैठे उपर से देख रहे होंगे कि उनकी बिटिया कैसे अपना कर्तव्य अच्छे से पूरा कर रही है।

Abhishek Ojha said...

कुछ कहने की इच्छा ही नहीं हो रही है... वैसे दही से मुस्कराहट आई थी वो भावुकता में गुम हो गई.

bijnior district said...

बहुत अच्छी मार्मिक कहानी

PD said...

हमें भी आपने भावुक कर दिया..

Anita kumar said...

माता पिता किसी भी उम्र में जाएँ उनके जाने का दुःख कभी कम नही होता, बहुत ही भावुक करने वाला लेख

Manish Kumar said...

नहीं सोचा था कि आप की पोस्ट की टाइटल से ये पापा के ना रहने की बात सामने आएगी। हर बार आपकी हँसती मुस्कुराती गाथा इस बार मायूस कर गई।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बहुत भावनात्मक कडी है ये पल्लवीजी,
एक प्यारी बिटिया का अपने पापाको प्यार भरा पैगाम -

श्रुति अग्रवाल said...

पल्लवी आपकी कहानी अपनी सी लगती है। मैंने भी यूँ ही एक दिन,अचानक एक मोड़ पर अपने पापा को खो दिया.......आपकी तरह एक खूबसूरत पल को ठीक तरह से जिया भी नहीं था। वह दिन है और आज का दिन हर सुबह उनसे सूरज की कोमल रोशनी में और हर रात चाँद की शीतल चाँदनी में उनका अहसास करती हूँ लेकिन उन्हें जीभर कर गले नहीं लगा पाती.......हाँ एक बात और आपके पापा की तरह मेरे पापा भी अद्भुत गीत गाते थे..उनके सारे सूफियाना कलाम मेरे कानों में आज भी गूँजते हैं

Abbas said...

very nice story...God bless u!!

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