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Monday, November 3, 2014

//बेड़मी कचौरी और बेड़ा ग़र्क़//

बेड़मी पूरी

र्मागर्म पूरियों में बेड़मी पूरी (या कचौरी) लाजवाब होती है। अपनी मनपसंद निहारी है ये। आगरा में इसे बेड़ई कहा जाता है। हींग के धमार वाली आलू की गाढ़ी-गाढ़ी तरकारी से भरे दोने में डूबी बेड़मी पूरी से सुबह जायकेदार हो जाती है। कभी सोचा न था कि इस बेड़मी/बेड़ई का रिश्ता हथकड़ी वाली बेड़ी से भी होगा और ग़र्क़ होने वाले बेड़े/बेड़ा से भी होगा। बेड़िया और बेड़नी से भी होगा जिन्हें नट/घुमन्तू जाति माना जाता है। जानते हैं इन शब्दों के दिलचस्प सफर को।
लग-अलग अर्थछटाओं वाले इन शब्दों में कैसी रिश्तेदारी? बात दरअसल यह है कि इन सभी में कहीं न कहीं घूमने, घेरने, पूरने, समाने का भाव है किन्तु इस पर आसानी से ध्यान नहीं जाता। वैदिक साहित्य में एक शब्द है वेष्ट जिसमें लपेटना, लिपटाना, बान्धना, घुमाव, आवरण, भरना, आवृत्त करना जैसे भाव हैं। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक संस्कृत वेष्ट का ही प्राकृत प्रतिरूप विष्ट है। मुझे लगता है कि विष्ट और वेष्ट एक ही मूल से ज़रूर उपजे हैं पर विष्ट प्राकृत रूप नहीं है। हाँ, इन्हें एक दूसरे का प्रतिरूप भी माना जा सकता है। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ होता है, जबकि डॉ. रामविलास शर्मा इसे ही प्राकृत का बता रहे हैं। इसकी पुष्टि प्राकृत शब्दकोश ‘पाइय सद्द महण्णवो’ से भी होती है जिसमें विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ बताया गया है। बात यूँ है कि मूल रूप विष्ट है, इसका विकास वेष्ट है।
जो भी हो, संस्कृत में भी एक ही शब्द के अनेक रूप प्रचलित है यह कई बार साबित होता है। इसी तरह संस्कृत शब्दावली में भी प्राकृत शब्द जस के तस या थोड़े बहुत फेरबदल के साथ मिलते हैं। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ भी होता है, विड्ड भी और विड्ढ भी। विष्ट के मूल में विष् / विश् धातु है जिसमें समष्टि का भाव है। विश्व यानी संसार भी इसी शब्द से बना है और विष्णु भी। विश् धातु में समाना, दाखिल होना, प्रविष्ट होना जैसे भाव हैं। समाविष्ट पर गौर करें। इससे बने विश्व का अर्थ है सारा, सब कुछ, सार्वलौकिक, सार्वकालिक, सृष्टि, प्रत्येक आदि। विश्व शब्द में जो भाव है वह प्रकृति को ईश्वर मानने के सार्वकालिक मानव दर्शन की ही पुष्टि करता है। समस्त धर्मशास्त्रों में जिस परम् की बात कही जाती है उसी ब्रह्म का व्यक्त रूप विश्व है। जिस तरह शरीर की आत्मा नजर नहीं आती, शरीर नजर आता है, उसी तरह विश्वात्मा यानी ब्रह्म का लौकिक स्वरूप ही विश्व है। बहरहाल, इसी विश् से विकसित विष्ट में घेरने, समाने के भाव भी उजागर हुए। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ है। पंढरपुर के प्रसिद्ध लोकदेवता विट्ठल इसका अगला रूप हुआ। संस्कृत में विट्ठल का विड्ढल रूपान्तर भी विद्यमान है। ध्यान रहे, विट्ठल में विष्णु का रूप देखा जाता है। विष्णु का मूल भी विष् / विश् है।
स्पष्ट है कि जिस तरह विष्ट से विड्ड और विड्ढ बन रहा है उसे तरह वेष्ट से वेड्ड, वेड्ढ और वेढ भी बनता है। भाव वही- समाना, पूरना, घेरना, आवृत्त करना आदि। वेढ से वेढम का विकास हुआ और फिर इसस बना वेढमिका। वेढ़मिका का सबसे पहला उल्लेख अमरकोश में मिलता है। इसके आधार पर मोनियर विलियम्स ने संस्कृत कोश में वेढमिका की प्रविष्टि दर्ज है- “a kind of bread or cake” इसी तरह रॉल्फ़ लिली टर्नर इसमें जोड़ते हैं- “cake of flour mixed or filled with pulse or meal” जाहिर है आशय पूरी या कचौरी से है। हिन्दी शब्दसागर में वेढमिका का अर्थ “वह कचौरी जिसमें उड़द की पीठी भरी हुई हो” बताया गया है। इसमें व्युत्पत्ति संस्कृत वेढग से बताई गई है पर इसका अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। वेढमिका से बेड़ई या बेड़मी बनने का विकासक्रम कुछ यूँ रहा- वेढमिका > वेडइआ > बेड़ई> अथवा वेढमिका > वेढमिआ > बेड़मी। वेष्ट में निहित समाने, भरने, पूरने, घेरने, ढकने, आवृत्त करने जैसे अर्थ पूरी, कचौरी बनाने की प्रक्रिया में सार्थक हो रहे हैं। पूरी नाम ही पूरने से पड़ा है। जिसमें कुछ पूरा जाए, भरा जाए यानी स्टफिंग की जाए। आटे की गोल गोल लिट्टी में किस तरह छोटा गढ़ा बनाया जाता है। स्वादिष्ट मसाला उसमें समा जाता है। फिर मसाले पर आवरण चढ़ा दिया जाता है और लिट्टी को गोल गोल बेल कर या हाथों से चपटा कर तेल / घी में तल लिया जाता है। 
ब आते हैं बेड़ा पर। आमतौर पर बेड़ा शब्द वाहनों के समूह के लिए इस्तेमाल किया जाता है किन्तु इसका आशय जहाजों के समूह से है। हालाँकि बेड़ा शब्द का मूल अर्थ है पोत, जहाज़ या बड़ी नौका। यह बेड़ा शब्द भी वेष्ट > वेड्ढ > बेड़ > से विकसित हुआ है। बेड़ क्रिया में बान्धने, लपेटने का भाव किसी भी बेड़े के निर्माण की प्रक्रिया से समझा जा सकता है। प्राचीनकाल में बेड़े का निर्माण लकड़ी के बड़े बड़े फट्टों को आपस में बांध कर किया जाता था। इन तख़्तों पर पुआल बिछा कर सफर किया जाता था। इस तरह बेड़े में जो अर्थवत्ता उभर रही है वह तख्तों को आपस में बान्धने, रस्सी लपेटने और उन्हें घेरने में निहित है। बाद में लकड़ी के फट्टों के स्थान पर कई नावों को बांध कर एक बेड़ा बनाया जाने लगा जिस पर लकड़ी के फट्टे डाल कर उस पर भारी सामान ढोया जाता था। नावों के इसी समूह की वजह से फ्लीट के अर्थ में बेड़ा शब्द रूढ़ हुआ। बेड़ा का एक रूप भेड़ा भी है जैसे जबलपुर के पास नर्मदा तट पर भेड़ाघाट अर्थात वह स्थान जहाँ से नावें चलती हों। प्राचीनकाल मे जलमार्ग भी आवागमन का महत्वपूर्ण जरिया था। ये सफर बेहद कठिन होता था इसीलिए “बेड़ा पार” होने का भाव कठिनाई पर विजय पाने जितना महत्वपूर्ण समझा जाने लगा। “बेड़ा ग़र्क़” में विपत्ति या विनाश का भाव समझा जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में बेड़ी, वेड़ी, वेटी, बेडा जैसे शब्दों में कश्ती या नौका का भाव है। इसमें वाहन में निहित घूमाव, भ्रमण, गति जैसे भाव तो हैं ही, बान्धने, लपेटने जैसी क्रियाओं की वजह से भी इसका नाम सार्थक हो रहा है।
बुंदेलखण्ड क्षेत्र में विमुक्त और घुमन्तू बेड़िया जाति होती है। इस जाति की स्त्रियाँ कमाल कुशल नृत्यांगना होती हैं। इन्हें बेड़नी कहते हैं। बुंदेलखण्ड के प्रसिद्ध राई नृत्य में ये बेड़नियाँ निष्णात होती हैं। अपनी अनथक अनवरत चक्रगति की वजह से राई नृत्य भारतीय लोकविधाओं में अन्यतम है। बेड़िया शब्द में भी वेड क्रिया की गति, घुमाव स्पष्ट हो रहा है। डॉ. रामविलास शर्मा के मुताबिक बांग्ला में बेड़ घुमाव का अर्थ देता है। बेड़ी शब्द का रिश्ता किन्ही कोशों में वलय से जोड़ा जाता है जो बेड़, वेड क्रियाओं की इतनी स्पष्ट व्याख्या के बाद उचित नहीं जान पड़ता। हमारा मानना है कि हथकड़ी या बन्धन के तौर पर प्रयुक्त बेड़ी शब्द वेष्ट से विकसित बेड़ क्रिया से ही आ रहा है। बेड़ी जो बान्धने के काम आती है। बेड़ा इसलिए जिसे बान्धा गया है। बान्धने में घुमाने की क्रिया है। बेड़नी घूमती है। बेड़िया घूमते हैं। बेड़ा घूमता है। बेड़ई में मसाला समाविष्ट है। बेड़मी कचौरी एक आवरण है। इसे गोल गोल बनाया जाता है। गोल बनाने के लिए लिट्टी को घुमाया जाता है। 

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Tuesday, January 29, 2013

महिमा मरम्मत की

repair

रम्मत हिन्दी में खूब रचा-बसा शब्द है । अरबी मूल का यह शब्द फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी समेत कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित हुआ । मरम्मत शब्द का अर्थ है बिगड़ी वस्तु को सुधारना, उद्धार करना, संशोधन करना, सँवारना, कसना, योग्य बनाना, सुचारू करना, कार्यशील बनाना आदि । इन तमाम भावों के बावजूद हिन्दी में मरम्मत का प्रयोग ठुकाई-पिटाई या मार-पीट के तौर पर ज्यादा होता है । “इतनी मरम्मत होगी कि नानी याद आ जाएगी” जैसे वाक्य से पिटाई का भाव स्पष्ट है । किसी की पिटाई में भी उसे सबक सिखाने का भाव है, सज़ा देने का भाव है ।
रम्मत के मूल में अरबी की रम्म क्रिया है और इसकी मूल सेमिटिक धातु है र-म-म [ر م م] अर्थात रा-मीम-मीम । हेन्स वेर की ए डिक्शनरी ऑफ़ मॉडर्न रिटन अरेबिक अरबी क्रिया ‘रम्म’ का उल्लेख है जिसमें जीर्णोद्धार, दुरुस्ती या सुधारने का भाव है । इसी के साथ इसमें क्षय होने, क्षीण होने, बिगड़ने या खराब होने का भाव भी है । यही नहीं, इसमें बनाने, पहले जैसा कर देने, पूर्वावस्था, प्रत्यावर्तन, जस का तस जैसे आशय भी हैं । गौर करें, किसी वस्तु को सुधारने की क्रिया उसे पूर्ववत अवस्था में यानी चालू हालत में लाना है । ऐसा करते हुए उसके कल-पुर्जे ढीले करने होते हैं, आधार को खोलना होता है । रम्म में निहित बिगड़ने, क्षीण होने जैसे भावों का यही आशय है कि सुधार की प्रक्रिया में हम बिगड़े तन्त्र को पहले तो पूरी तरह से रोक देते हैं । फिर उसके एक एक हिस्से की जाँच कर उसे सँवारने का काम करते हैं ।
म्म में अरबी उपसर्ग ‘म’ लगने से बनता है (म)रम्मा जिसका अर्थ सुधारना, सँवारना होता है । फ़ारसी, उर्द-हिन्दी में मरम्मा के साथ ‘अत’ प्रत्यय का प्रयोग होता है और इस तरह मरम्मत शब्द बनता है । पंजाबी और हिन्दी की पश्चिमी शैलियों में इसका रूप मुरम्मत भी है । मराठी में इसके तीन रूप मरमत, मरामत, मर्हामत मिलते हैं । मरम्मत क्रिया का एक रूप हिन्दी में मरम्मती भी मिलता है । मरम्मत में पिटाई का भाव यूँ दाख़िल हुआ होगा क्योंकि अक्सर चीज़ों को सुधारने की क्रिया में ठोकने-पीटने की अहम भूमिका होती है । साधारणतया किसी कारीगर या मिस्त्री के पास भेजे जाने से पहले चीज़ों को दुरुस्त करने के प्रयास में उसे हम खुद ही ठोक-पीट लेते हैं । कई बार यह जुगत काम कर जाती है और मशीन चल पड़ती है । मरम्मत में ठुकाई-पिटाई दरअसल सुधार के आशय से है, ठीक होने के आशय से है । बाद में मरम्मत मुहावरा बन गया जैसे– “हाल ये था कि थोड़ी मरम्मत के बिना वो ठीक नहीं होती थी”, ज़ाहिर है इस वाक्य में मरम्मत का आशय पिटाई से है । पिटाई वाले मरम्मत की तर्ज़ पर कुटम्मस भी प्रचलित है जो कूटना या कुटाई जैसी क्रियाओं से आ रहा है । जिसमें सुधार की गुंजाइश हो उसे मरम्मततलब कहते हैं ।
सी तरह रम्मा से रमीम बनता है जिसका अर्थ भी मुरझाया हुआ, पुराना, पुरातन, जीर्ण-शीर्ण या खराब है । आमतौर पर चीज़ों के परिशोधन या उनके सुधारने के लिए तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । हिन्दी में अक्सर भाषायी सुधार के सम्बन्ध में तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । जैसे “कमेटी ने जो सिफ़ारिशें की हैं उनमें तरमीम की ज़रूरत है” ।

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Friday, September 7, 2012

नाम में ही धरा है सब-कुछ !!

things

ना म में क्या रखा है ? शेक्सपीयर के प्रख्यात प्रेम-कथानक की नायिका जूलियट के मुँह से रोमियो के लिए निकला यह जुमला इस क़दर मक़बूल हुआ कि आज दुनियाभर में इसका इस्तेमाल मुहावरे की तरह किया जाता है । चूँकि ये बात इश्क के मद्देनज़र दुनिया के सामने आई और इश्क में सिवाय इश्क के कुछ भी ज़रूरी नहीं होता...तब रोमियो के इश्क में मुब्तिला जूलियट के इस जुमले को ज्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए । दुनियादारी में तो नाम ही सबकुछ है । यानी “बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ” जैसा नकारात्मक आशावाद आज ज्यादा चलन में है । ये नाम की महिमा है कि हर आशिक रोमियो, फरहाद, मजनू जैसे नामों से नवाज़ा जाता है और हर माशूक को जूलियट, शीरीं, लैला का नाम मिल जाता है । नाम दरअसल क्या है ? हमारी नज़रों के सामने, समूची सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं उनका परिचय करानेवाला शब्द ही नाम है । इसे संज्ञा भी कहा जाता है । संज्ञा हिन्दी का जाना पहचाना शब्द है । प्राथमिक व्याकरण के ज़रिए हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति इससे परिचित है । संज्ञा के दायरे में हर चीज़ है । जड-गतिशील, स्थूल-सूक्ष्म, दृष्य-अदृष्य, वास्तविक-काल्पनिक, पार्थिव-अपार्थिव इन सभी वर्गों में जो कुछ भी हमारी जानकारी में है, उसे संज्ञा कहा जा सकता है । संज्ञा के मूल में सम + ज्ञा है । सम अर्थात बराबर, पूरी तरह, एक जैसा आदि । अर्थात जिससे किसी पदार्थ के रूप, गुण, आयाम का भलीभाँति पता चले, वही संज्ञा है । संज्ञा यानी नाम ।
संस्कृत की ज्ञा धातु में जानने, समझने,बोध होने, अनुभव करने का भाव है । बेहद लोकप्रिय और बहुप्रचलिशब्द नाम के मूल में यही ज्ञा धातु है । अंग्रेजी के नेम name का भी इससे गहरा रिश्ता है । संस्कृत में ज्ञ अपने आप में स्वतंत्र अर्थ रखता है जिसका मतलब हुआ जाननेवाला, बुद्धिमान, बुध नक्षत्र और विद्वान। ज्ञा क्रिया का मतलब होता है सीखना, परिचित होना, विज्ञ होना, अनुभव करना आदि । संज्ञा में चेतना का भाव है और होश का भी । ये दोनो ही शब्द बोध कराने से जुड़े हैं । अचेत और बेहोश जैसे शब्दों में कुछ भी जानने योग्य न रहने का भाव है । संज्ञाशून्य, संज्ञाहीन यानी जिसे कुछ भी बोध न हो । ज्ञ दरअसल संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है । इसके उच्चारण में क्षेत्रीय भिन्नता है । मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ञ्ज ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है । भाषा विज्ञानियों ने प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए जो धातु ढूंढी है वह है gno यानी ग्नो । 
ज़रा गौर करें इस ग्नों से ग्न्य् की समानता पर । ये दोनों एक ही हैं। अब बात इसके अर्थ की । ज्ञा से बने ज्ञान का भी यही मतलब होता है। ज+ञ के उच्चार के आधार पर ज्ञान शब्द से जान अर्थात जानकारी, जानना जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। अनजान शब्द उर्दू का जान पड़ता है मगर वहां भी यह हिन्दी के प्रभाव में चलने लगा है । मूलतः यह हिन्दी के जान यानी ज्ञान से ही बना है जिसमें संस्कृत का अन् उपसर्ग लगा है । ज्ञा धातु में ठानना, खोज करना, निश्चय करना, घोषणा करना, सूचना देना, सहमत होना, आज्ञा देना आदि अर्थ भी समाहित हैं । यानी आज के इन्फॉरमेशन टेकनोलॉजी से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें अकेले इस वर्ण में समाई हैं । इन तमाम अर्थों में हिन्दी में आज अनुज्ञा, विज्ञ, प्रतिज्ञा और विज्ञान जैसे शब्द प्रचलित हैं। ज्ञा से बने कुछ अन्य महत्वपूर्ण शब्द ज्ञानी, ज्ञान, ज्ञापन खूब चलते हैं। गौर करें जिस तरह संस्कृत-हिन्दी में वर्ण में बदल जाता है वैसे ही यूरोपीय भाषा परिवार में भी होता है। प्राचीन भारोपीय भाषा फरिवार की धातु gno का ग्रीक रूप भी ग्नो ही रहा मगर लैटिन में बना gnoscere और फिर अंग्रेजी में ‘ग’ की जगह ‘क’ ने ले और gno का रूप हो गया know हो गया । बाद में नालेज जैसे कई अन्य शब्द भी बने। रूसी का ज्नान ( जानना ), अंग्रेजी का नोन ( ज्ञात ) और ग्रीक भाषा के गिग्नोस्को ( जानना ), ग्नोतॉस ( ज्ञान ) और ग्नोसिस (ज्ञान) एक ही समूह के सदस्य हैं । गौर करें हिन्दी-संस्कृत के ज्ञान शब्द से इन विजातीय शब्दों के अर्थ और ध्वनि साम्य पर ।
ब आते हैं नाम पर । संस्कृत में भी नाम शब्द है । इसका आदिरूप ज्ञाम अर्थात ग्नाम ( ग्याम नहीं ) रहा होगा, ऐसा डॉ रामविलास शर्मा समेत अनेक विद्वानों का मत है । ग्नाम से आदि स्थानीय व्यंजन का लोप होकर सिर्फ नाम शेष रहा । ज्ञाम से नाम के रूपान्तर का संकेत संस्कृत रूप नामन् से भी मिलता है । अवेस्ता में भी यह नाम / नामन् है । फ़ारसी में यह नाम / नामा हो जाता है । इसका लैटिन रूप नोमॅन है जो संस्कृत के नामन के समतुल्य है । नामवाची संज्ञा के अर्थ में अंग्रेजी का नेम name का विकास पोस्ट जर्मनिक के नेमॉन namon से हुआ । वाल्टर स्कीट के मुताबिक इसका सम्बन्ध लैटिन के नोमॅन और ग्रीक ग्नोमेन से है । लैटिन नोमॅन, ग्रीक ग्नोमेन gnomen से निकला है । मोनियर विलियम्स नामन् के मूल में ज्ञा अथवा म्ना धातुओं की संभाव्यता बताते हैं । विलियम व्हिटनी जैसे भारोपीय भाषाओं के विद्वानों के मुताबिक म्ना चिन्तन, मनन, दर्शन का भाव है । गौर करें कि ज्ञा और म्ना दोनो की अनुभूति एक ही है । नाम शब्द ज्ञा और ग्ना शब्दमूल से बना है ऐसा डॉ रामविलास शर्मा का मानना है । ज्ञा अर्थात gna । इसका एक रूप jna भी बनता है और kna भी (know में ) । ख्यात प्राच्यविद थियोडोर बेन्फे संस्कृत नामन् का एक रूप ज्नामन भी बताते हैं जो पूर्व वैदिक ग्नामन की ओर संकेत करता है । नाम का पूर्व रूप ग्नाम रहा होगा, यही बात डॉ रामविलास शर्मा भी कह रहे हैं । वाल्टर स्कीट की इंग्लिश एटिमोलॉ डिक्शनरी में भी ये दोनों रूप मिलते हैं । रूसी में इसका रूप ज्नामेनिए है ।
पनाम के लिए हिन्दी में सरनेम शब्द अपना लिया गया है । इसमें नेम वही है जो नाम है और अंग्रेजी के सर उपसर्ग में ऊपर, परे, उच्च वाला आशय है । सरनेम से आशय कुलनाम या समूह की उपाधि से है जो उसके सदस्यों की पहचान होती है । नाम से बने अनेक शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं मसलन नामक  का भी खूब इस्तेमाल होता है जिसमें नामधारी का भाव है । नामधारी यानी उस नाम से पहचाना जाने वाला । नाम रखने की प्रक्रिया नामकरण कहलाती है । गौर करें, संज्ञाकरण का अर्थ भी नाम रखना होता है । किसी सूची या दस्तावेज़ में नाम लिखवाने को नामांकन कहते हैं । मनोनयन के लिए नामित शब्द भी प्रचलित है । इसका फ़ारसी रूप नामज़द है । नामराशि शब्द भी आम है यानी एक ही नाम वाला । नामवर यानी प्रसिद्ध । नाममात्र यानी थोड़ी मात्रा में । नाम शब्द की मुहावरेदार अर्थवत्ता भी बोली-भाषा में सामने आती है । नामकरण तो नवजात का नाम रखने की क्रिया है पर नाम धरना या नाम रखना में नकारात्मक अर्थवत्ता है जिसका अर्थ होता है बुराई करना, निंदा करना आदि । नाम उछालना या नाम निकालना में भी ऐसे ही भाव हैं । नाम रोशन करना यानी अच्छे काम करना । कीर्ति बढ़ाना । प्रसिद्ध होना । नाम बिकना यानी खूब प्रभावी होना । नामो-निशां मिटना यानी सब कुछ खत्म हो जाना । नाम जपना यानी किसी का नाम रटना । किसी के प्रति आस्था जताना ।

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Friday, August 24, 2012

सपड़-सपड़ सूप

soup

चु स्की के लिए हिन्दी में सिप शब्द बेहद आसानी से समझा जाता है । सिप करने, चुसकने की लज़्ज़त जब ज्यादा ही बढ़ जाती है तब बात सपड़-सपड़ तक पहुँच जाती है जिसे अच्छा नहीं समझा जाता है । कहने की ज़रूरत नहीं की सिप करना, चुसकना और सपड़-सपड़ करने का रिश्ता किसी सूप जैसे पतले, तरल, शोरबेदार पदार्थ का स्वाद लेने की प्रक्रिया से जुड़ा है । सिप से सपड़ का सफर शिष्टता से अशिष्टता की ओर जाता है । सिप और सपड़-सपड़ तरल पदार्थ को सीधे बरास्ता होठ, जीभ के ज़रिये उदरस्थ करने की क्रिया है। सिप के ज़रिये ज़ायक़ा सिर्फ़ पीने वाले को महसूस होता है वहीं सपड़-सपड़ का चटखारा औरों को भी बेचैन कर देता है । गौरतलब है कि सूप शब्द आमतौर पर अंग्रेजी का समझा जाता है । हकीक़त यह है कि पाश्चात्य आहार-शिष्टाचार का प्रमुख हिस्सा सूप मूलतः भारतीय है । सूप, सिप, सपर, सपड़, सापड़ जैसे तमाम शब्द आपस में रिश्तेदार हैं । यही नहीं, इस शब्द शृंखला के शब्द विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में भी हैं जिनमें चुसकने, सुड़कने, सिप करने का भाव है ।
चुस्की के लिए सिप शब्द याद आता है । सूप शब्द भारोपीय मूल का है और इसका मूल भी संस्कृत का सूप शब्द ही माना जाता है । जिसे सिप किया जाए, वह सूप। इसी कड़ी में सपर भी है । द्रविड़ में सामान्य भोजन सापड़ है और इंग्लिश में सिर्फ़ रात का भोजन सपर है। ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य गौरतलब है । यह सामान्य बात है विभिन्न भाषिक केन्द्रों पर अनुकरणात्मक ध्वनियों से बने शब्दों का विकास एक सा रहा है। अंग्रेजी में रात के भोजन को सपर इसलिए कहा गया क्योंकि इसमें हल्का-फुल्का, तरल भोजन होता है। कई लोग रात में सिर्फ़ सूप ही लेते हैं । सपर का मूल सूप है । आप्टे और मो.विलियम्स के कोश में सूप का अर्थ रस, शोरबा, झोल, तरी जैसा पदार्थ ही कहा गया है । अंग्रेजी में यह तरल भोजन है । आप्टे कोश में सू+पा के ज़रिए इसे तरल पेय कहा गया है । यानी पीने की क्रिया से जोड़ा गया है । पकोर्नी इसकी मूल भारोपीय धातु सू seue बताते हैं जिसमें पीने की बात है । संस्कृत का सोम भी सू से ही व्युत्पन्न है । इसका अवेस्ता रूप होम है जिसमें पीने का आशय है । आदि-जर्मन रूप सप्प है । ज़ाहिर है प्राकृत, अपभ्रंश के ज़रिए हिन्दी का सपड़ रूप अलग से विकसित हुआ होगा और द्रविड़ सापड़ रूप अलग ।
वाशि आप्टे और मोनियर विलियम्स के कोश में सूप शब्द का अर्थ सॉस, तरी, शोरबा या झोलदार पदार्थ बताया गया है । हिन्दी शब्दसागर में इसे मूल रूप से संस्कृत शब्द बताते हुए इसके कई अर्थ दिए हैं जैसे मूँग, मसूर, अरहर आदि की पकी हुई दाल । दाल का जूस । रसा । रसे की तरकारी जैसे व्यंजन । संस्कृत में सूपक, सूपकर्ता या सूपकार जैसे शब्द हैं जिनका आशय भोजन बनाने वाला, रसोइया है । एटिमऑनलाईन के मुताबिक चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजी में सिप शब्द दाखिल हुआ । संभवतः इसकी आमद चालू जर्मन के सिप्पेन से हुई जिसका अर्थ था सिप करना । पुरानी अंग्रेजी में इसका रूप सुपेन हुआ जिसमें एकबारगी मुँह में कुछ डालने का भाव था । रॉल्फ़ लिली टर्नर के मुताबिक महाभारत में आहार के तरल रूप में ही सूप शब्द का उल्लेख हुआ है । हिन्दी शब्दसम्पदा में एक अन्य सूप भी है । बाँस से बनाए गए अनाज फटकने के चौड़े पात्र के रूप में इसकी अर्थवत्ता से सभी परिचित हैं । आम भारतीय रसोई के ज़रूरी उपकरणों में इसका भी शुमार है । अनाज फटकने का मक़सद मूलतः दानों और छिलकों को अलग करना है । भक्तियुगीन कवियों ने सूप शब्द का दार्शनिक अर्थों में प्रयोग किया है । कबीर की “सार सार सब गहि लहै, थोथा देहि उड़ाय ” जैसी इस कालजयी सूक्ति में सूप की ओर ही इशारा है ।
चूसना, चुसकना बहुत आम शब्द हैं और दिनभर में हमें कई बार इसके भाषायी और व्यावहारिक क्रियारूप देखने को मिलते हैं। यही बात चखना शब्द के बारे में भी सही बैठती है। ये लफ्ज भारतीय ईरानी मूल के शब्द समूह का हिस्सा हैं और संस्कृत के अलावा फारसी, हिन्दी और उर्दू के साथ ज्यादातर भारतीय भाषाओं में बोले-समझे जाते हैं। चूसना, चुसकना, चुसकी शब्द बने हैं संस्कृत की चुष् या चूष् धातु से जिसका क्रम कुछ यूँ रहा- चूष् > चूषणीयं > चूषणअं > चूसना। इस धातु का अर्थ है पीना, चूसना । चुष् से ही बना है चोष्यम् जिसके मायने भी चूसना ही होते हैं । मूलत: चूसने की क्रिया में रस प्रमुख है । अर्थात जिस चीज को चूसा जाता वह रसदार होती है । जाहिर है होठ और जीभ के सहयोग से उस वस्तु का सार ग्रहण करना ही चूसना हुआ । चुस्की, चुसकी, चस्का या चसका जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं । गौरतलब है कि किसी चीज का मजा लेने, उसे बार-बार करने की तीव्र इच्छा अथवा लत को भी चस्का ही कहते हैं । एकबारगी होठों के जरिये मुँह में ली जा चुकी मात्रा चुसकी / चुस्की कहलाती है । बर्फ के गोले और चूसने वाली गोली के लिए आमतौर पर चुस्की शब्द प्रचलित है। बच्चों के मुंह में डाली जाने वाली शहद से भरी रबर की पोटली भी चुसनी कहलाती है। इसके अलावा चुसवाना, चुसाई, चुसाना जैसे शब्द रूप भी इससे बने हैं ।
सी कतार में खड़ा है चषक जिसका मतलब होता है प्याला, कप, मदिरा-पात्र, सुरा-पात्र अथवा गिलास । एक खास किस्म की शराब के तौर पर भी चषक का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा मधु अथवा शहद के लिए भी चषक शब्द है। इसी शब्द समूह का हिस्सा है चष् जिसका मतलब होता है खाना । हिन्दी में प्रचलित चखना इससे ही बना है जिसका अभिप्राय है स्वाद लेना । अब इस अर्थ और क्रिया पर गौर करें तो इस लफ्ज के कुछ अन्य मायने भी साफ होते हैं और कुछ मुहावरे नजर आने लगते हैं जैसे कंजूस मक्खीचूस अथवा खून चूसना वगैरह । किसी का शोषण करना, उसे खोखला कर देना, जमा-पूंजी निचोड़ लेना जैसी बातें भी चूसने के अर्थ में आ जाती हैं । यही चुष् फारसी में भी अलग अलग रूपों में मौजूद है मसलन चोशीद: या चोशीदा अर्थात चूसा हुआ । इससे ही बना है चोशीदगी यानी चूसने का भाव और चोशीदनी यानी चूसने के योग्य ।

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Sunday, August 5, 2012

सेवा का फल नमकीन

SEV

हि न्दी में दो तरह के सेव प्रचलित हैं । पहले क्रम पर है बेसन से बने नमकीन कुरकुरे सेव और दूसरा है मीठा-रसीला सेवफल जिसे सेव या सेब भी कहते हैं । खाने-पीने की तैयारशुदा सामग्री में सर्वाधिक लोकप्रिय अगर कोई वस्तु है तो वह है नमकीन सेव । प्रायः हर गली, हर दुकान और हर घर में यह मिल जाएगा । सुबह के नाश्ते में चाय के साथ और कुछ न हो तो सेव चलेगा । मालवी आदमी को तो सुबह शाम खाने के साथ भी सेव चाहिए । भारतीय खान-पान संस्कृति दुनिया भर में निराली है । सेव के साथ सिवँइयाँ अथवा सेवँई जैसे खाद्य पदार्थ भी रसोई की अहम् चीज़ें हैं । सेवँई या सिवँइयाँ मैदे से बनती हैं । शकर और दूध के साथ उबाल कर बनई गई सेवँई की खीर बेहद लज़ीज़ मीठा पकवान है । ध्यान रहे, सेव, सेवँई या सिवँईं जैसे नामों में मीठे या नमकीन होने की महिमा नहीं है बल्कि उनका धागे या सूत्रनुमा आकार ही ख़ास है ।
दिलचस्प बात यह भी है कि दोनो तरह के सेव का सम्बन्ध बोल-चाल की भाषा में बेहद प्रचलित सेवा, सेवक, सेविका जैसे शब्दों से भी हैं जिनमें सेवा करने का मूल भाव है और इनकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत की सेव् धातु से हुई है । संस्कृत की सेव् धातु में मूलतः करना, रहना, बारम्बार जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स, रॉल्फ़ लिली टर्नर और वाशि आप्टे के कोशों के मुताबिक सेव् में सानिध्य, टहल, बहुधा, उपस्थिति, आज्ञाकारिता, पालना, बढ़ाना, विकसित करना, उत्तरदायित्व, समर्पण, खिदमत, देखभाल अथवा सहायता जैसे भाव हैं । इससे बने सेवा का मूलार्थ है देखभाल करना, सहकारी होना, समर्पित कर्म, टहल में रहना आदि । सेवक में उक्त सभी क्रियाओं में लगे रहने वाले व्यक्ति का भाव है । यूँ सेवक का अर्थ नौकर-चाकर, परिचर, सहकर्मी, अनुगामी, भक्त, अनुचर, आज्ञाकारी, भ्रत्य, वेतनभोगी आदि होता है । सेवक का स्त्रीवाची सेविका होता है । सेवा सम्बन्धी शब्दावली में अनेक शब्द हैं जैसे सेवा-पंजिका, सेवा-पुस्तिका, सेवाकर्मी, सेवानिवृत्त, सेवावधि, सेवामुक्त, समाजसेवा, समाजसेवी आदि । इसी कड़ी में सेवाशुल्क जैसा शब्द भी खड़ा है जिसका मूलार्थ है किसी काम के बदले किया जाने वाला भुगतान मगर अब सेवाशुल्क का अर्थ रिश्वत के अर्थ में ज्यादा होने लगा है ।
प्रश्न उठता है इस सेवाभावी सेव् से आहार शृंखला के सेव से सम्बन्ध की व्याख्या क्या हो सकती है ? सेव के आकार और उसे बनाने की प्राचीन विधि पर गौर करें । पुराने ज़माने में बेसन के आटे को गूँथ कर उसकी छोटी लोई को चकले पर रख कर हथेलियों से बारीक-बारीक बेला जाता था । बेलना शब्द का रिश्ता संस्कृत की बल् या वल् धातु से है जिसमें घुमाना, फेरना, चक्कर देना जैसे भाव हैं । लोई को घुमाने वाले उपकरण को भी बेलन इसीलिए कहते हैं क्योंकि इससे बेलने की क्रिया सम्पन्न होती है । जिससे बेला जाए, वह बेलन । गौर करें कि पत्थर या लकड़ी के जिस गोल आसन पर रख कर रोटी बेलते हैं उसे चकला कहते हैं । यह चकला शब्द चक्र से आ रहा है जिसमें गोल, घुमाव, राऊंड या सर्कल का भाव है । बेलने के आसन को चकला नाम इसलिए नहीं मिला क्योंकि वह गोल होता है बल्कि इसलिए मिला क्योंकि उस पर रख कर रोटी को चक्राकार बनाया जाता है । बेलने की क्रिया से कोई वस्तु चक्राकार, तश्तरीनुमा बनती है । तश्तरीनुमा आकार में बेलने के लिए आधार का समतल, ठोस होना ज़रूरी है न कि उसका गोल होना । अक्सर सभी चकले गोल नहीं होते । रोटी बनाने के लिए चकला और बेलन की ज़रूरत होती है, सेव या सेवँईं बनाने के लिए बेलन के स्थान पर चपटी सतह जैसे हथेली, होनी ज़रूरी है ।
राठी में सेवँई के लिए शिवई शब्द है जिसका मूल वही है जो हिन्दी सेवँई का है । मेरा मानना है कि नरम पिण्ड को चपटी सतह पर गोल गोल फिरा कर उसके सूत्र बनाने की तरकीब बाद में ईज़ाद हुई होगी, पहले ऐसा अंगूठे और उंगलियों की मदद से किया जाता रहा होगा । हाथ या उंगलियों लगे किसी चिपचिपे पदार्थ से छुटकारा पाने के लिए हाथों को आपस में मसलने या अंगूठे को उंगलियों पर रगड़ने की तरकीब की जानकारी मनुष्य को आदिमकाल में ही हो गई थी । इस तरह चिपचिपे पदार्थ पर दबाव पड़ने से उसके वलयाकार सूत्र बन कर हाथ से अलग हो जाते हैं । सेवँई के जन्मसूत्र का कुछ पता इसके मराठी पर्यायों से चलता है । मराठी में सेवँई को शेवई कहते हैं इसकी व्युत्पत्ति भी वही है जो हिन्दी में है । मराठी में शेवई के दो प्रकार हैं- हातशेवई और पाटशेवई । जैसा की नाम से ही स्पष्ट है, हातशेवई लोई को हथेली से रगड़ कर बनाए गए सूत्र को कहते हैं । इसका एक नाम बोटी भी है । मराठी में उंगली को बोट कहते हैं । उंगलियों से रगड़ कर बनाए गए महीन सूत्र के लिए बोटी नाम सार्थक है । प्रसंगवश, सेवँई को अंग्रेजी में वर्मीसेली कहते हैं जो मूलतः इतालवी भाषा से आयातित शब्द है और लैटिन के वर्मिस vermis से बना है जिसका मतलब होता है कृमी या रेंगनेवाला नन्हा कीड़ा । एटिमऑनलाइन के मुताबिक वर्म के मूल में भारोपीय भाषा परिवार की धातु wer है जिसमें घूमने, मुड़ने का भाव है । वृ बने वर्त या वर्तते में वही भाव हैं जो प्राचीन भारोपीय धातु वर् wer में हैं । गोल, चक्राकार के लिए हिन्दी संस्कृत का वृत्त शब्द भी इसी मूल से बना है । इतालवी वर्मीसेली  और हिन्दी के सेवँई का शब्द-निर्माण ध्यान देने योग्य है ।
रोटी के लिए मराठी में पोळी शब्द है । पूरणपोळी शब्द में यही पोळी है । पोळी बना है पल् धातु से जिसमें विस्तार, फैलाव, संरक्षण का भाव निहित है इस तरह पोळी का अर्थ हुआ जिसे फैलाया गया हो। बेलने के प्रक्रिया से रोटी विस्तार ही पाती है । पत्ते को संस्कृत में पल्लव कहा जाता है जो इसी धातु से बना है । पत्ते के आकार में पल् धातु का अर्थ स्पष्ट हो रहा है । पेड़ का वह अंग जो चपटा और विस्तारित होता है । हिन्दी का पेलना, पलाना, पलेवा जैसे शब्द जिनमें विस्तार और फैलाव का भाव निहित है इसी शृंखला में आते हैं । पालना शब्द पर गौर करें इसमें बारम्बारता, विस्तार, संरक्षण जैसे सभी भाव स्पष्ट हैं । कहने का तात्पर्य यह कि पल् धातु में जो भाव आटे की लोई को पोळी (रोटी) के रूप में विस्तारित करने में उभर रहा है वैसा ही कुछ सेव् धातु से बने सेव या सेवँई में भी हो रहा है । स्पष्ट है कि सेव् धातु से बने सेव में निहित बारम्बारता, बढ़ाना, विकसित करना और पालना जैसे अर्थ भी पल् की तरह हैं । बेसन या मैदे की लोई को चकले पर गोल-गोल घुमाने से  पतले, लम्बे,  धागेनुमा सूत्र के रूप में उसका आकार बढ़ता जाता है । यही सेव या सेवँई है । बेलने या घुमाने की क्रिया में बारम्बारता पर गौर करें तो भी सेव् क्रिया का अर्थ स्पष्ट होता है ।
सेवफल की बात । जिस तरह सेव या सेवँई में विस्तार, वृद्धि का भाव है, और सेव और सेवँई के आकार से यह अर्थ साफ़ नज़र भी आता है वहीं सेवफल को देखने से यह स्पष्ट नहीं होता । मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में सेवि या सेव शब्द है जिसका अर्थ है सेवफल । मोनियर विलियम्स के कोश में सेवि शब्दान्तर्गत सेव का अर्थ बदरी यानी बेर भी बताया गया है । apple के अर्थ में हिन्दी सेव की व्युत्पत्ति संस्कृत की सिव् धातु से है जिसमें जिसमें नोक, काँटा जैसे भाव हैं । टर्नर कोश के मुताबिक फ़ारसी में सेव का सेब रूप है । इसी तरह उड़िया और गुजराती में भी सेब ही है इसलिए यह निश्चयूर्वक नहीं कहा जा सकता की भारतीय भाषाओं में सेव के सेब रूप के पीछे फ़ारसी का सेब है ।

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Thursday, July 12, 2012

‘मानसर’ की खोज में

Manasarovar

मा नसर का उल्लेख जायसी के पद्मावत में आता है । दरअसल यह ‘मानसरोवर’ का लोकरूप है । ‘मानसरोवर’ ऐसा शब्द है जिससे लगभग हर पढ़ा-लिखा भारतीय परिचित है । मानसरोवर सुनते ही हिमाच्छादित उपत्यका में स्थित नील-प्रशान्त झील की छवि उभरती है । तिब्बत की मानसरोवर झील और कैलाश-पर्वत एक दूसरे के पर्याय हैं । ‘मानसरोवर’ का महत्व इस बात में है कि इसे भारतीय मनीषा के हर आयाम में देखा जाता है । आध्यात्मिक-दार्शनिक अर्थों में ‘मानसर’ परम उपलब्धि का प्रतीक है । पौराणिक युग से कैलास-मानसरोवर की यात्रा का लक्ष्य, मोक्ष-प्राप्ति ही था । खुद जायसी ने ‘मानसर’ को परमतत्व बताया है । ‘मानसर’ का ‘सर’, सरोवर का पूर्वरूप है । संस्कृत में ‘सर’ का अर्थ होता है बहाव, आवेग, तरल आदि । इसकी मूल धातु ‘सृ’ है जिसमें बहाव, गति, तरलता जैसे भाव हैं । पंजाब की सतलुज और असम की ब्रह्मपुत्र नदियाँ इसी झील से निकली हैं ।
मानसर के संदर्भ में मेरे मन में दो विचार आते हैं । यह जो ‘सर’ है वह सरोवर से आ रहा है या ‘सायर’ से क्योंकि मानसरोवर का उल्लेख कई संदर्भों में मान-सायर भी हुआ है । ‘सायर’ दरअसल सागर का प्राकृत रूप है । लोकबोलियों में सागर का रूप ‘सायर’ ही मिलता है । मानसरोवर की कल्पना इतनी ख्यात है कि जिस तरह से गंगा नाम वाले कई जलस्रोत देशभर में हैं उसी तरह ‘मानसर’ भी कई हैं । सवाल है कि यह ‘मानसर’ दरअसल ‘मान-सायर’ तो नहीं ? ध्यान रहे, ‘सागर’ यूँ तो समुद्र को कहते हैं मगर जलभंडार के रूप में सामान्यतः झील, जलाशय के लिए भी हिन्दी में ‘सागर’ शब्द का प्रयोग होने लगा । जलस्रोतों के किनारे जनसमूहों के बसने से ही बस्तियों ने आकार लिया । मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक शहर सागर का नाम दरअसल एक झील की वजह से पड़ा जिसके इर्दगिर्द  इसकी बसाहट है ।
ध्यान रहे ‘मानसर’ या ‘मानसरोवर’ के नाम की दो प्रमुख झीलें प्रसिद्ध हैं । मानसर जम्मू के पास है जबकि मानसरोवर तिब्बत में है । ‘सर’ की गुत्थी सुलझाने से पहले यह जानें की ‘मानसर’ या ‘मानसरोवर’ दोनों में जो ‘मान’ है, वह कहाँ से आ रहा है । ‘मानसरोवर’ के पौराणिक महत्व ने इस शब्द को अर्थविस्तार दिया । मानसरोवर परमउपलब्धि, परमलक्ष्य का प्रतीक बना । भौतिक रूप में मानसरोवर की दैहिक यात्रा आज भी बेहद श्रमसाध्य है । प्राचीनकाल में तो और भी कष्टकर रही होगी । तीर्थयात्राएँ हमारे लिए दुखों से त्राण पाने का ज़रिया थीं । माना जाता था कि तीर्थयात्रा से कोई लौट कर नहीं आता । दूसरी ओर दैहिक यात्रा के सूक्ष्म रूप की कल्पना कर ‘मानसरोवर’ की परम उपलब्धि में मानस की कल्पना की गई । ‘मानस’ यानी मन की विवेक-बुद्धि और उससे उपजा अध्यात्म । हमारे जीवन का उद्धेश्य ही मन में विवेक को जागृत करना है । जिसे विवेकबोध हो गया, उसका जीवन सफल । इस तरह मानसरोवर को मानस + सरोवर के रूप में लिया जाने लगा ।
जो भी हो, मानसरोवर का आध्यात्मिक भाव भी मानसरोवर भौतिक यात्रा से ही उपजा है और एक झील के तौर पर इसके साथ मानस शब्द का कोई तर्क नहीं मिलता है । यूँ देखें तो जम्मू वाला ‘मानसर’ और तिब्बत वाला ‘मानसरोवर’ दोनो ही बर्फीले क्षेत्र हैं । बौद्ध साहित्य में मानसरोवर को पृथ्वी का स्वर्ग कहा गया है । भाषा वैज्ञानिक नज़रिए से हमें ‘मानसरोवर’ और ‘मानसर’ के साथ जुड़े ‘मान’ का तार्किक जवाब मिलता है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली में बर्फ़ के लिए ‘हिम’ शब्द है । संस्कृत के ‘हिम’ में पाला, तुषार, बर्फ़ आदि भाव हैं । मूल भाव सर्दी का है । ध्यान रहे सर्दी के मौसम को ‘हेमन्त’ कहा जाता है । ‘हिम’ की कड़ी में ही हेमन् है । ‘मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक इसका अर्थ होता है आवेग, बुधग्रह, कांति, कनक और पानी । इसी मूल के ‘हेम’ में इन्ही तमाम भावों के साथ एक अर्थ नदी अथवा जलधारा का भी जुड़ता है । ‘हेमन्’ की कतार में ही हेमन्त भी खड़ा है जिसका अर्थ है शीतऋतु । रॉल्फ लिली टर्नर की कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज़ के मुताबिक दार्द परिवार की ही कई भाषाओं में इसके प्रतिरूप प्रमुखता से मौजूद हैं जैसे तिराही भाषा में इसका रूप ऐमन तो इसी परिवार षुमास्ती में येमन है, निंगारामी में यह ईमन्द है तो गावार-बाती और सावी में यह हेमान्द है । दार्द परिवार की प्रमुख भाषा खोवार में इसका रूप योमून है तो बाश्करीक में हामन, गौरो में यह हेवान्द है तो पंजाबी कांगड़ी में हियुन्द, हियुन्धा है और पश्चिमी पहाड़ी में इसकी अनुनासिकता गायब हो जाती है और इसकी ध्वनि सिर्फ़ ह्यूत रह जाती है ।
सी तरह संस्कृत में ‘हैम’ शब्द भी है जिसका अर्थ शीत सम्बन्धी, हिमाच्छादित है । इसका एक रूप ‘हैमन’ भी है । ‘हिम’  अर्थात बर्फ़ भी इसी शृंखला का शब्द है । विश्व की सबसे बड़ी पर्वत शृंखला का नाम हिमालय इसीलिए है क्योंकि वह बर्फ़ का ठिकाना है । यह ‘हेम’ भी ‘हिम्’ से ही आ रहा है। हेमन्त से ‘त’ का लोप होकर पहाड़ी बोलियों में हिमन्, हेमन्, हिम्ना, हिमान्, एमन, खिमान् जैसे रूप भी बनते हैं। सर्दी का, बर्फ़ीला या शीत सम्बन्धी अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग होता है। कश्मीरी में हिमभण्डार के लिए मॉन / मोनू शब्द भी है। जाहिर है यहाँ ‘ह’ का भी लोप हो गया है । उत्तर पूर्वांचल में मॉन, मुनमुन जैसे कोमल शब्द खूब सुनाई पड़ते हैं । इनमें और हिमाचल, उत्तराखण्ड, कश्मीर क्षेत्रों में हिमन्, हेमन् का मन, मोन, मॉन नज़र आ रहा है । हिमालय, हिमाल से ही शिमला रूप है, ऐसी सम्भावना रामविलास शर्मा जता चुके हैं । मराठी में हिंवाँळ और गुजराती में हिमालु का अर्थ भी बर्फ सम्बन्धी, शीत सम्बन्धी  होता है । बर्फीले क्षेत्रों में पाया जाना वाला एक रंगबिरंगा पक्षी है जिसका नाम ‘मोनाल’ है । उत्तर-पूर्वांचल में भी एक चिड़िया का नाम ‘मुनमुन’ है । यहाँ ‘मोनाल’ पक्षी का अर्थ बर्फीला या हिम क्षेत्र का सार्थक हो रहा है । ‘मोनाल’ का आल् प्रत्यय आलय यानी आश्रय, निवास का द्योतक है । हिमालय से हिमाल या हिमाला में भी आलय ही है ।  आलय से बना ‘आल्’ प्रत्यय निश्चित ही पहाड़ी बोलियों में भी प्रचलित है । ‘हेमन’ से ‘ह’ का लोप और मन से ‘आल्’ जुड़ कर पहाड़ी और बर्फीले क्षेत्र के तीतर, मुर्गेनुमा पक्षी के लिए मोनाल नाम सार्थक है ।
हुत सम्भव है कि ‘मानसरोवर’ और ‘मानसर’ दोनो के ही साथ जो मान है वह इसी मोन से आ रहा हो । जहाँ तक सागर > सायर का प्रश्न है, ध्यान रहे कि हिमालय क्षेत्र की सारी नदियाँ बर्फीले ग्लेशियरों से निकलती हैं । ग्लेशियर यानी हिमवाह या हिमप्रवाह । गंगा का उद्गम गंगोत्री मूलतः ग्लेशियर ही है । इसमें निहित प्रवाही भाव सृ से बने सर मे निहित है । हालाँकि ‘सर’ अब ‘सरोवर’ का पर्याय हो गया है किन्तु सरोवर भी किसी न किसी जलस्रोत से बहते पानी से ही बनते हैं । अलबत्ता जलाशय के अर्थ में ‘सर’ और ‘सायर’ का प्रयोग स्थानीय प्रभाव है । जम्मू के पास की झील को कुछ लोग ‘मानसर’ कहते हैं कुछ ‘मान-सायर’ । कुल मिला कर मान में शीत या बर्फ़ का आशय है । इसका प्रमाण कुमाऊँ अंचल के प्रसिद्ध पर्यटनस्थल मुन्स्यारी में मिलता है । इसमें भी मान/मोन और सायर साफ़ नज़र आ रहा है । गौरतलब है कि इस क्षेत्र में हिमवाह भी हैं । मोन यानी हिम और सर में निहित प्रवाही भाव से यह भी स्पष्ट होता है कि इसमें हिमवाह का आशय भी रहा होगा ।

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Wednesday, April 25, 2012

मुलम्मे की चमक

mulamma

कि सी हलकी धातु पर कीमती धातु की परत चढ़ाने की परम्परा दुनियाभर में प्राचीनकाल से प्रचलित है जिसे मुलम्मा कहा जाता है । मुलम्मा शब्द भारत की क़रीब क़रीब सभी प्रमुख भाषाओं में प्रचलित है । हिन्दी की तो ख़ैर सभी बोलियों में इसे खूब लिखा-पढ़ा-समझा जाता है । मूलतः यह सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है और बरास्ता फ़ारसी, अरबी भाषा का यह शब्द भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ । यह दिलचस्प है कि अपने ख़ास ठिकाने पर कोई शब्द किसी अन्य रूप में होता है और फिर बदली हुई अर्थवत्ता के साथ उसका कुछ और रूपान्तर किसी अन्य भाषा में होता है । वर्तमान में मुलम्मा का जो अर्थ प्रचलित है उसमें कलई करने या पॉलिश करने का आशय है । गिलट की हुई धातु यानी सोने-चांदी का पानी चढ़ी धातु को भी मुलम्मा कहते हैं । मुलम्मा में नकली पॉलिश का भाव अब प्रमुख हो गया है । तात्पर्य यह है कि ऐसा पदार्थ जो कभी जगमग था पर अब उसकी चमक फीकी पड़ गई है । अगर उसे घिस-माँज दिया जाए तो भी वह चमक उठता है । यानी किसी पदार्थ की चमक ही उसका मुलम्मा है । मगर अब मुलम्मा के साथ चमकीली परत, सतह, पॉलिश या आवरण का आशय जुड़ गया है ।
मूल अरबी में मुलम्मा से अभिप्राय चमक से है । आवरण, लेपन, कलई जैसे आशय इसमें बाद में जुड़े । मुलम्मा mukkama के मूल में है अरबी का लम्अ lam‘ जिसमें द्युति, दीप्ति, कांति, झलक, चमक जैसे भाव हैं । बनावटी, दिखावटी और आडम्बरपूर्ण व्यवहार के सम्बन्ध में भी मुलम्मा शब्द का मुहावरेदार प्रयोग होता है जैसे – “कई बार लगता है मानो धर्मनिरपेक्षता हमारी सांविधानिक पहचान न होकर मुलम्मा है ।” सस्ती धातु से बने बरतनों और गहनों पर सोने चांदी का पानी चढ़ाने वाले कारीगर को मुलम्मासाज कहते हैं । यह प्रक्रिया मुलम्मासाज़ी या मुलम्माकारी कही जाती है । मुलम्मा के तद्भव रूप मुलमा में तुर्की का ची प्रत्यय लगाकर मुलमची जैसा शब्द भी बनाया गया जिसका अर्थ भी मुलम्मासाज़ ही होता है । मराठी में मुलम्मा को मुलामा कहते हैं । हैंस व्हेर और मिल्टन कोवेन के अरबी-इंग्लिश कोश के मुताबिक लम्अ का अर्थ ज्योति, झिलमिल, जगमग, दिपदिप, द्युति, चमक आदि का भाव है । यह चमक प्रतिभा की भी हो सकती है, किसी वस्तु की भी । इसमें परिमार्जन से पैदा कांति का भाव भी है और शुद्धिकरण से पैदा दीप्ति भी ।
फ्रांसिस जोसेफ़ स्टेंगास के फ़ारसी अंग्रेजी कोश के में मुलम्मा के जो अर्थ प्राथमिक क्रम में दिए हैं उनके अनुसार अलग अलग रंगों के घोड़ों को भी मुलम्मा कहते हैं । एक विशिष्ट काव्य विधा जिसमें किसी छंद का आधा हिस्सा एक भाषा में और आधा किसी दूसरी भाषा में होता है । ऐसा प्रयोग दोहा या शेर जैसे छंद में किया जाता है जिसमें दो पंक्तियाँ होती हैं । आमतौर पर मुलम्मा विधा का ज़िक्र तुर्की फ़ारसी के संदर्भ में हुआ है जिसमे अरबी का मिश्रण होता है । गौरतलब है कि इस्लामी प्रभाव बढ़ने के बाद राजनीतिक संदर्भों में फ़ारसी और तुर्की पर अरबी प्रभाव बढ़ने लगा था । अरबी प्रभाव वाली फ़ारसी और अरबी प्रभाव वाली तुर्की का वहाँ के विद्वानों ने समय समय पर विरोध किया मगर फिर भी अरबी का असर बना रहा । अरबी की यही चमक या झलक जिस विधा में सर्वाधिक रही उसे ही मुलम्मा कहा गया । तीसरे क्रम पर स्टेंगास मुलम्मा का अर्थ किसी धातु पर दूसरी धातु के विद्युत-लेपन, आवरण अथवा परत चढ़ाना बताते हैं । स्पष्ट है कि मुलम्मा का मुख्य अर्थ चमक या झलक ही है ।
जो भी हो, यह चमक ही उस वस्तु की नई पहचान है । इसीलिए समझा जा सकता है कि एक काव्यविधा के तौर पर मुलम्मा से आशय उस विशिष्ट छंद से है जिसमें एक भाषा पर दूसरी भाषा की छाप नज़र आती है । इसे हिन्दी और हिन्दुस्तानी से समझ सकते हैं । आज़ादी से पहले की हमारी ज़बान हिन्दुस्तानी थी जिसमें अरबी, फ़ारसी शब्दों का सुविधानुसार प्रयोग होता था । आज़ादी के बाद परिनिष्ठित हिन्दी ने ज़ोर पकड़ा और फ़ारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग काफ़ी कम हुआ । तो पहले की जो हिन्दुस्तानी थी वो मुलम्मा थी, क्योंकि उस में अरबी-फ़ारसी की झलक थी । ध्यान रहे मुलम्मा यानी झलक । चाँदी पर सोने का मुलम्मा यानी सोने की झलक । पीतल पर चांदी का पॉलिश यानी सोने की झलक ।

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Saturday, April 14, 2012

चालान और चाल-चलन

challan_bobशब्द-संदर्भःनीलाम, विपणन, पण्य, क्रय-विक्रय, गल्ला, हाट, दुकान, पट्टण, पोर्ट, पंसारी

जी विकोपार्जन और ज्ञानार्जन के निमित्त ही मनुष्य निरन्तर भटकता रहा है जिसके चलते कई तरह के काम और कार्यक्षेत्र विकसित होते चले गए । इन गतिविधियों से भाषाएँ भी विकसित होती रहीं । व्यापार-व्यवसाय ने ही भाषा को सर्वाधिक समृद्ध किया है । वही भाषाएँ विस्तार पाती रहीं जिनका बाज़ार से सीधा रिश्ता था । महाजनी व्यवस्था ने हिन्दी को कई शब्द दिए हैं । ऐसा ही एक शब्द है चालान, जिसका इस्तेमाल रोजमर्रा ही हिन्दी में खूब होता है । चालान का चलने से रिश्ता है । यह सिर्फ़ शब्द भर नहीं है, बल्कि ऐसी व्यवस्था का नाम है जिससे हर वर्ग के व्यक्ति का साबका पड़ता ही है । व्यापारी, कर्मचारी, छात्र, किसान और अपराधी, चाहे कोई भी हो, सभी को चालान से गुज़रना पड़ता है । यातायात के नियमों को ताक में रख कर गाड़ी तेज़ चलाई तो भी चालान कटाना पड़ता है । किसी परीक्षा में शामिल होने के लिए निर्धारित फीस के लिए जो दस्तावेज भरा जाता है उसे भी चालान कहते हैं । अपराधियों की अदालत में पेशी के संदर्भ में भी चालान शब्द का प्रयोग होता है ।
चालान शब्द बहुत प्राचीन नहीं लगता । इसमें मूलतः निकासी का भाव है । किसी चीज़ की निकासी या प्राप्ति का आशय इसमें निहित है । चालान chalan में अपराधियों का तबादला, भेजा हुआ या आया हुआ माल, असबाब, बड़ा ज़खीरा, रुक्का, रसीद, पावती, इनवॉइस, वाऊचर जैसे तमाम निहितार्थ हैं । अगर यह फ़ारसी भाषा का शब्द होता तो मुस्लिम शासन की राजस्व सम्बन्धी तमाम शब्दावलियों की तरह इसका उल्लेख भी प्राचीन दस्तावेज़ों में मिलता । चालान शब्द अठारहवी सदी के अन्त में ( 1790 ) कम्पनीराज में नज़र आता है । अनुमान है कि यह उस महाजनी व्यवस्था से उपजा शब्द है जो कम्पनीराज में खूब फली-फूली । ईस्ट ईंडिया कम्पनी ने व्यापार करने के लिए दलालों-महाजनों का एक सुगठित तन्त्र विकसित किया था । ये लोग भारत के दूरदराज़ कोनों से कच्चा माल इकट्ठा करता था और फिर उसे ब्रिटेन भेजने के लिए मुम्बई, कोलकाता के बंदरगाहों तक पहुँचाया जाता था । ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए काम करने वाले अनेक भारतीय एजेंट वहाँ तैनात होते थे । इसी तरह फ़सल खराब होने की स्थिति में किसानों को नई फ़सल बोने के लिए ऋण उपलब्ध कराने और फिर फ़सल को बाज़ार तक पहुँचाने की प्रक्रिया भी चालान की श्रेणी में आती थी । कम्पनी राज ने इस शब्द को अपनाया और इसका रूप challan हुआ । माल परिवहन की शब्दावली का यह खास शब्द बना ।
चालान शब्द में मूल रूप से रसीद, रुक्क़ा, बिल, बिल्टी, बीजक आदि का आशय है । कुछ सन्दर्भों में चालान को फ़ारसी का शब्द बताया गया है । द पर्शियन कंट्रीब्यूशन टू द इंग्लिश लैंग्वेज में गारलैंड हैम्पटन चालान शब्द का फ़ारसी मूल का बताते हुए इसका अर्थ रसीद, इनवॉइस या बंदियों का तबादला पत्र लिखते हैं । हालाँकि वे खुद इसका प्रचलन 1958 से मानते हैं । द इंडियन जर्नल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (गूगल बुक्स) के मुताबिक- प्राप्तियों और भुगतान सम्बन्धी वित्तीय लेनदेन का ब्योरा जिस दस्तावेज़ में दर्ज़ किया जाता है उसे 'चालान' कहते हैं । सिल्करोड- एन एथ्नो-हिस्ट्री ऑफ़ लद्दाख में जेक्लीन फोक्स लिखती हैं- “चालान एक ऐसा रुक्का या रसीद है जिसमें माल की लदान का ब्योरा होता है और आमतौर पर इसकी तीन प्रतिलिपियाँ बनाई जाती है जो क्रमशः विक्रेता, मध्यस्थ या माल पहुँचाने वाला तथा क्रेता यानी खरीदार के लिए होती हैं । “
मूलतः रवानगी, निकासी, सिपुर्दगी या प्राप्ति जैसे भावों वाला चालान शब्द दरअसल चलान है जिसका अर्थ है चलना । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक मूल शब्द चलान है जिसका उर्दू में चालान रूप प्रसिद्ध हुआ और फिर यही हिन्दी में भी प्रचलित हो गया । संस्कृत में एक धातु है चर् जिसमें घूमना-फिरना, गति, चलना, चक्कर काटना, भ्रमण करना आदि भाव हैं । गौर करें चर् धातु का ही अगला रूप चल् है जिसमे हिलना, गति करना, कांपना, धड़कना, सैर करना जैसे भाव हैं । हिन्दी का चल, चलना, चलित, चालित जैसे शब्द इससे ही बने हैं । पहाड़ स्थिर होते हैं, कभी चलते नहीं इसलिए चल् में उपसर्ग लगने से मनुष्य ने पर्वत के लिए अचल शब्द बना लिया जिसका लाक्षणिक अर्थ हुआ जो अडिग रहे, टस से मस न हो । चलते-चलते एक लीक बन जाती है । यही चलन है अर्थात ढंग, रीत । प्रचलन भी इससे ही बना है जिसका मतलब भी परम्परा ही है । मार्ग से भटकना अथवा गलत राह पर चलना ही विचलन है । चलान या चालान इसी चल् की कड़ी में हैं । जॉन प्लैट्स के कोश में भी यही संदर्भ है । माल को भेजने या चलने की क्रिया । किसी असबाब को एक जगह से दूसरी जगह भेजना । अपराधियों को पकड़ कर अदालत में पेश करना या जेल भेजना । अदालत में चालान पेश किया जाता है । चालान कटना या चालान काटना यानी माल सिपुर्द करना । चालान आना या चालान मिलना यानी वह रुक्का या रसीद प्राप्त करना जिसमें माल के आने की सूचना होती है ।
मेरा आजीवन कारावास पुस्तक में क्रान्तिवीर विनायक दामोदर सावरकर ने चालान का कई जगह उल्लेख किया है । वे लिखते हैं- “चालान हमारे काराशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है । चालान का अर्थ है उस जहाज घाट का वह गुट, जिसके साथ विभिन्न कारागृहों में पड़े कालेपानी के दंडितों को इकट्ठा कर समुद्र पार अंदमान भेजने के लिए लाया जाता है । कालापानी की सजा पाए लोगों के लिए चालान एक आत्मगौरव से भरी संस्था का नाम था । कैदियों के जो जत्थे अंदमान भेजे जाने से पूर्व बंदरगाह की स्थानीय जेल में रखे जाते थे, वे चालान कहलाते थे ।” सबाल्टर्न लाइव्ज (1790-1920) में क्लेअर एंडरसन लिखते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरफ़ से मॉरीशस, फिज़ी या अन्य उपनिवेशों में सज़ा भुगतने के लिए भेजे जाने वाले क़ैदियों के जत्थे चालान कहलाते थे । मूलतः इन्हें पानी के जहाज से भेजा जाता था और जहाज के यात्री-दस्तावेज को मूलतः चालान कहते थे, जो प्रकारान्तर से उस समूह की पहचान बन जाती थी । कुल मिला कर चालान में चलना शब्द अंतर्निहित है । औपनिवेशिक दौर की हिन्दी में प्रचलित आंग्ल-भारतीय शब्दों के प्रसिद्ध कोश हॉब्सन-जॉब्सन में चालान शब्द की प्रविष्टि न मिलना आश्चर्य की बात है ।

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Sunday, April 8, 2012

ट्रंक का खानदान

trपिछली कड़ियाँ-1.बक्सा, बकसिया और बॉक्सिंग.2कनस्तर और पीपे में समाती थी गृहस्थी.3

क्से की तरह ही ट्रंक trunk भी कई दशकों से भारतीय गृहस्थी की एक ज़रूरी व्यवस्था बना हुआ है । चीज़ों को उनके लक्षणों के आधार पर ही नाम मिलता है । शरीर को तन इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें लगातार वृद्धि होती है । संस्कृत की तन् धातु में विस्तार, वृद्धि का भाव है । तानना यानी विस्तार करना क्रिया के मूल में तन् धातु ही है । जो लगातार विस्तारित हो, वही तन है । पेड़ के मुख्य हिस्से को भी तना कहते हैं जो सम्भवतः इसी कड़ी का शब्द है । पेड़ के तने का भी लगातार विस्तार होता है । तने में ही काष्ठ का भण्डार होता है । तने की लकड़ी से ही विभिन्न वस्तुएँ बनती हैं । बॉक्स के मूल पाइक्सोन में मुख्य भाव ठोस, सघन और भरपूर मात्रा का संकेत है । लकड़ी के संदर्भ में ये सारी बातें पेड़ के तने की और इशारा करती हैं जिसे ट्रंक कहते हैं । भारत में आमतौर पर धातु की पेटी को ट्रंक कहा जाता है । किसी ज़माने में ट्रंक भी लकड़ी के ही बनते थे । भारत में भी रईसों के यहाँ पहले लोहे के कब्ज़े वाले लकड़ी के ट्रंक इस्तेमाल होते थे मगर जब आम आदमी के पास ट्रंक पहुँचा, तब तक इसकी काया लौहावरण में ढल चुकी थी । आज भी कई घरों में खानदानी चीज़ों की तरह ट्रंक सहेज कर रखे जाते हैं । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला । जानते हैं, कैसे ।
ट्रंक मूलतः भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और वाल्टर स्कीट की कन्साइज़ एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी के मुताबिक अंग्रेजी में इसकी आमद पुरानी फ्रैंच के ट्रांक tronc से हुई है जिसका मूल लैटिन ज़बान का त्रुंकस / ट्रंकस truncus शब्द है जिसका अर्थ है वह मुख्य हिस्सा, जिससे उसके सहायक हिस्से अलग किए जा चुके हैं । ज्यादातर संदर्भों में लैटिन के त्रुंकस का आशय पेड़ के ऐसे भारी तने से लगाया गया है जिससे उसके उसके उपांग अलग किए जा चुके हों अर्थात ऐसा तना जिससे जड़ और शाखाएँ का अलग की जा चुकी हों । त्रुंकसमें धड़ का भाव है । धड़ शरीर के उस मुख्य हिस्से को कहते हैं जिससे हाथ, पैर और सिर जुड़े रहते हैं । 1724 में प्रकाशित नैथन बैली की यूनिवर्सल एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी में ट्रंकस का आशय हृदय की ओर रक्त ले जाने वाली महाधमनी और महाशिरा से भी है और किसी जगह का मुख्य आधार स्तम्भ से भी है । ध्यान रहे शरीर यानी तन का मुख्य आधार भी धड़ ही होता है । ट्रंक में धड़ का आशय भी है । हिन्दी का धड़ शब्द भी संस्कृत के धर् से बना है जिसका अर्थ है जो धारण करे । धड़ सभी अंगों को धारण करता है ।
ट्रंकस में मूलतः वृक्ष का अर्थ निहित है, न कि उपांगों से काट कर अलग किया जा चुका मुख्य आधार । विलियम फ्रॉली के इंटरनैशनल एन्साइक्लोपीडिया ऑफ लिंग्विस्टिक्स के मुताबिक त्रुंकसका मूल है dru-n [वृक्ष, काष्ठ] + -iko-s[ उपांग, हिस्से ] स्पष्ट है कि ट्रंकस से आशय उस मुख्यआधार से है जिसके साथ उसके दूसरे हिस्से भी जुड़े हों । बाद के दौर में त्रुंकस से बने ट्रंक में सिर्फ़ धड़ की अर्थवत्ता जुड़ गई । संस्कृत-हिन्दी में वृक्ष के लिए तरुवर, तरु, दारुकः, द्रु, द्रुम जैसे शब्द हैं जो इनके एक ही मूल की ओर इशारा करते हैं । संस्कृत में एक धातु है द्रु जिसमें वृक्ष का भाव है। मूलतः यह गतिवाचक धातु है । इससे बने द्रुत का मतलब है तीव्रगामी, फुर्तीला, आशु गामी आदि होता है । वृक्ष के अर्थ में द्रु धातु का अभिप्राय भी गति से वृद्धि से ही है । इससे ही बना है द्रुमः शब्द जिसका अर्थ भी पेड़ ही होता है और द्रुम के रूप में यह परिनिष्ठित हिन्दी में भी प्रचलित है । कल्पद्रुम शब्द साहित्यिक भाषा में कल्पवृक्ष के लिए प्रचिलत है । द्रु से ही बना है दारुकः शब्द जो एक प्रसिद्ध पहाड़ी वृक्ष

जेब शृंखला की ये कड़ियाँ ज़रूर देखें... peti1. पाकेटमारी नहीं जेब गरम करवाना [जेब-1]
2 टेंट भी ढीली, खीसा भी खाली
3 बटुए में हुआ बंटवारा
4 अंटी में छुपाओ तो भी अंटी खाली
5 आलमारी में खजाने की तलाश
6 कैसी कैसी गांठें
7 थैली न सही , थाली तो दे[जेब-7]

है जिसका प्रचलित नाम देवदारु है । द्रु से ही बना है द्रव जिसका मतलब हुआ घोड़े की भांति भागना, पिघलना, तरल, चाल, वेग आदि । द्रु के तरल धारा वाले रूप में जब शत् शब्द जुड़ता है तो बनता है शतद्रु अर्थात् सौ धाराएँ । पंजाब की प्रमुख नदी का सतलुज नाम इसी शतद्रु का अपभ्रंश है । अंग्रेजी का ट्री और फारसी का दरख्त इसी मूल से जन्में हैं ।
ध्यान रहे भारत-ईरानी परिवार में द्रु में बहाव, गति, ले जाने के साथ साथ स्थिरता का भाव भी है । द्रु काएक अर्थ अगर वृक्ष है तो इसमें वृद्थि के साथ साथ स्थिरता भी है । वृक्ष अपने स्थान पर दृढ़ होते हैं, अडिग होते हैं । जूलियस पकोर्नी  भारोपीय धातु deru में वृक्ष का भाव देखते हैं और कुछ अन्य भाषाशास्त्रियों नें tru धातु की कल्पना करते हुए इसमें दृढ़ता, पक्कापन, ठोस और मज़बूत जैसे भावों को देखा है । पुरानी आइरिश के derb में पक्का, भरोसा का भाव है तो अल्बानी के dru का अर्थ लकड़ी या छाल है । हित्ती भाषा के ता-रू , अवेस्था के द्रवेना, दारु, संस्कृत के द्रु, वेल्श के दरवेन, गोथिक के त्र्यु , ओल्ड इंग्लिश के ट्रेवो समेत कई यूरोपीय भाषाओं के इन शब्दों का अर्थ लकड़ी या पेड़ है । हाथी की सूंड को भी ट्रंक कहते हैं ।
डॉ रामविलास शर्मा एक और दिशा में संकेत करते हैं । वे स्थिरता के अर्थ में स्थर् की कल्पना करते हैं और उसके एक पूर्व रूप धर् के होने की बात कहते हैं जिससे धारिणी के रूप में धरती शब्द बना । संस्कृत दारु, द्रुम, तरु, ग्रीक द्रुस, अंग्रेजी के ट्री में दरअसल धर् के रूपान्तर दर् और तर् हैं । प्राकृत धड, हिन्दी धड़, पेड़ के तने की तरह, मानव शरीर के शीशविहीन भाग का अर्थ देते हैं । संस्कृत तण्डक ( तना ), तन् ( शरीर ), हिन्दी तना, अंग्रेजी स्टौक, ( तना ), आदि स्थिरताबोधक हैं । यह भी दिलचस्प है की धर में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । धरा यानी धरती को देखें तो यह स्थिर जान पड़ती है मगर यह न सिर्फ़ अक्ष पर घूमती है बल्कि सूर्य की परिक्रमा भी करती है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । धृ की ही समानधर्मा धातु दृ बाद में विकसित हुई होगी ।
स तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी के ट्रंक में मुख्य आधार का भाव है । यह आधार कहीं मार्ग है, कहीं स्तम्भ है और कहीं तना है तो कहीं धड़ है । ट्रंक शब्द का प्रयोग महामार्ग के रूप में भी होता है जैसे ग्रांड ट्रंक रोड । देश के सुदूर पश्चिमोत्तर को धुर पूर्वी छोर से जोड़नेवाला जो महामार्ग सदियों तक हिन्दुकुश के पार से आने वाले कारवाओं से गुलजार रहा, उसे शेरशाह सूरी ने व्यवस्थित राजमार्ग का रूप दिया था । अंग्रेजों ने उसका नाम ग्रांड ट्रंक रोड रखा जो पेशावर से कलकत्ता तक जाता था । इसे अब जीटी रोड कहा जाता है । रेलवे में भी ट्रंक लाईन होती है । जीटी एक्सप्रेस एक प्रसिद्ध ट्रेन का नाम है । ट्रंक का प्रयोग दूरसंचार प्रणाली में भी होता है । संचार नेटवर्क का खास रूट ट्रंक कहलाता है । पुराने ज़माने में दूरदराज स्थानों पर टेलीफ़ोन क़ॉल के लिए ट्रंक लाईन का इस्तेमाल होता था जिसे ट्रंककॉल कहा जाता था । ट्रंक में निहित बक्से का भाव वृक्ष के मोटे पुष्ट तने से स्पष्ट हो रहा है । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला ।

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Saturday, April 7, 2012

बक्सा, बकसिया और बॉक्सिंग

box

सामान रखने की व्यवस्थाओं, उपकरणों के लिए हिन्दी में कई शब्द प्रचलित हैं जिनमें बक्सा, डिब्बा, संदूक, ट्रंक, पेटी, कनस्तर ऐसे नाम हैं जो हिन्दी में सदियों से प्रचलित हैं । ध्यान रहे कि इन सभी में किसी भी तरह का सामान भरा जा सकता है । अटैची, ब्रीफ़केस, सूटकेस जैसी चीज़ें भी बक्से की श्रेणी में ही आती हैं मगर इनमें सिर्फ़ कपड़े या दस्तावेज़ रखे जा सकते हैं । इनका आकार छोटा होता है जबकि ट्रंक बड़े बक्से को कहते हैं । बड़े संदूक को संदूकचा और छोटे को संदूकची कहा जाता है । इसी तरह बॉक्स box बड़ा और छोटा भी हो सकता है । बक्से में बेशकीमती सामान से लेकर कपड़े, बर्तन और किराना जैसी गृहस्थी की हर तरह की सामग्री रखी जा सकती है ।
हिन्दी में बॉक्स का चलन कम से कम दो सदी पुराना है और अन्य कई आप्रवासी शब्दों की तरह यह भी यूरोपीय कारोबारियों के जरिये भारतीय बोलियों में प्रचलित हुआ । जहाजों से लद कर जो माल भारतीय तटों पर उतारा जाता था वह लकड़ी के बड़े बड़े संदूकों में भर कर लाया जाता था जिन्हें बॉक्स कहते थे । हिन्दी में यह शब्द बहुत लोकप्रिय हुआ और इसके कई रूपान्तर सामने आए जैसे- बॉक्स, बाक्स, बकसा, बक्स, बकस, बकसी, बक्सा, बकसिया आदि । बॉक्स में जहाँ बड़ा आकार है वहीं संदूकची के अर्थ में देशी भाषा में बकसिया शब्द भी बना लिया गया । बॉक्स मूलतः लकड़ी से बना एक पात्र है जिसमें बहुत सारा सामान रखा जाता है । पुराने ज़माने से ही हल्की लकड़ी से डब्बे बनाए जाते थे क्योंकि उनमें माल ढोने में सुविधा होती थी ।
बॉक्स बना है लैटिन के बक्सिस buxis या बक्सस buxus से जिनमें लकड़ी के संदूक या एक किस्म की झाड़ी का भाव है । विभिन्न संदर्भों के मुताबिक यह ग्रीक भाषा के पाइक्सोस pyxos से बना है । एटिमऑनलाइन के मुताबिक ग्रीक पाइक्सोस का मूल अज्ञात है मगर इसका अर्थ अंग्रेजी में बॉक्स ट्री बताया गया है अर्थात बॉक्स प्रजाति का पेड़ । कुछ सन्दर्भों में बॉक्स-ट्री का आशय ऐसी वनस्पति से है जिसकी लकड़ी से संदूक बनता है मगर ऐसा नहीं है । बक्सस से बने बॉक्स में सघनता का भाव है । पाइक्सोस का एक और ग्रीक रूप पाइक्नोस है । चैम्बर्स डिक्शनरी में पाइक्नोस का अर्थ भीड़, समूह, भरा हुआ, संकुल आदि बताया गया है वहीं जॉन ओगिल्वी की स्टूडेन्ट इंग्लिश डिक्शनरी के मुताबिक इसमें सघनता का भाव है ।
ध्यान रहे कि शुरुआती दौर में संदूक हल्की लकड़ी वाली बुश झाडियों के तने से भी बनाए गए और भारी तनों वाले वृक्षों की लकड़ी से भी । मूलतः पाइक्नोस में सघनता का भाव है जिसका रिश्ता मोटे तने वाले वृक्ष से है । प्रायः सभी सभ्यताओं में मानव विकास क्रम में समानता रही है । उपकरणों और वस्तुओं के विकास के पीछे की अवधारणा एक जैसी रही है और उनके निर्माण की प्रक्रिया भी । प्राचीन सभ्यताओं पर अगर गौर करें तो पता चलता है कि कोई भी खोखला स्थान वस्तुओं को रखने, रहने के रूप में इस्तेमाल होता रहा है । चट्टानों को खोखला कर मनुष्य ने कंदरा बनाई-खुद के रहने के लिए और लकड़ी को खोखला कर उसने पात्र बनाए । पुराने दौर में समूचे वृक्ष को खोखला कर, कुरेद कर डोंगियाँ बनाई जाती थीं । इसके लिए वृक्ष का सघन तना होना ज़रूरी था । वृक्ष के आधार वाले सबसे चौड़े हिस्से को खोखला करने ही आदिम बॉक्स बने । पानी भरने की नांद भी इसी तकनीक से बनाई जाती थीं । बक्से का शुरुआती रूप यही था । बाद में लकड़ी के फट्टों को जोड़ कर सुंदर नक्काशीदार बक्से बनने लगे । एलिजाबेथ ब्रैमब्रिज और बॉबी मेयर द्वारा बॉक्स ट्री पर लिखी किताब से पता चलता है कि लैटिन का बक्सस ग्रीक भाषा के पाइक्नोस या पाइक्सोस का रूपान्तर है जिसका अर्थ है सुंदर नक्काशी के साथ बना हुआ लकड़ी का डिब्बा ।
पाइक्नोस शब्द में मूलतः सघनता पिण्ड का भाव था इसका पुख़्ता संकेत वाल्टर पी राइट के इन्साक्लोपीडिया ऑफ़ गार्डनिंग से मिलता है । वाल्टर के मुताबिक पाइक्नोस का अर्थ है गहन, घनीभूत, भरपूर जिसे आमतौर पर लकड़ी के तने की चौड़ाई और उसकी मोटाई के संदर्भ में लिया जाता है । किन्हीं संदर्भों में पाइक्नोस को सुगठित, ठोस, मोटा भी बताया गया है । कुल मिलाकर संदूक निर्माण के लिए वृक्ष को मुख्य स्रोत मानते हुए उसकी गुणवत्ता के ये आधार महत्वपूर्ण हैं और किसी बॉक्स ट्री में लकड़ी का भरपूर उपलब्धता सिद्ध होती है । यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रीक के पाइक्नोस से पाइक्सोस बना । इससे ही लैटिन का बक्सस बना जिससे अंग्रेजी का बॉक्स शब्द बना ।
मुक्केबाजी बेहद मशहूर खेल है जिसे बॉक्सिंग boxing कहा जाता है । बॉक्सिंग बना है बॉक्स से जिसका एक अर्थ घूँसा भी होता है । अंग्रेजी में बॉक्स का अर्थ है प्रचंड वेग, प्रचंड प्रहार । एटिमऑनलाइन के मुताबिक इसकी व्युत्पत्ति निश्चित नहीं है । सम्भवतः यह मध्यकालीन ड्यूश के बोक, मध्यकालीन जर्मन के बक या डेनिश बास्क से बना है । इन सभी का अर्थ प्रहार होता है । अंग्रेजी का बैश इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ है घूँसा, मुक्का । जॉन ओगिल्वी के मुताबिक घूँसे के अर्थ वाले बॉक्स का जन्म भी पाइक्नोस से हुआ है जिसमें ठोस, पुख्ता और भरपूर जैसा भाव है । ओगिल्वी बॉक्स चेहरे पर खुला छोड़ा गया ऐसा आघात बताते हैं जो कान तक जाता हो । हिन्दी में इसे ही कनचप्पा कहते हैं । बाद में यह आघात मुक्के या घूँसे के अर्थ में रूढ़ हो गया ।

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Friday, April 6, 2012

टिकट की रिश्तेदारियाँ

ticket

गर पूछा जाए कि फ़िरंगी ज़बान के वे कौन से शब्द हैं जिनका इस्तेमाल भारतीय भाषाओं के लोक साहित्य में खूब हुआ है । फिरंगी शब्द का मतलब यूँ तो विदेशी होता है मगर हिन्दी में फ़िरंगी से अभिप्राय अंग्रेजों से है इसलिए फ़िरंगी भाषा यानी अंग्रेजी भाषा से ही आशय है । हिन्दी और उसकी आंचलिक बोलियों में जैसे राजस्थानी, मालवी, ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी आदि भाषाओं के लोकगीतों के संदर्भ में ऐसे शब्द गिने-चुने ही हैं मगर इनमें भी फ़िरंगी के साथ रेल और टिकट ऐसे हैं जिनका उल्लेख कई लोकगीतों में हुआ है । गौरतलब है कि भारत में रेल और टिकट शब्द का इस्तेमाल एक साथ ही शुरू हुआ । 1853 में भारत में रेल चलने के बाद ही लोग टिकट से परिचित हुए । ज़ाहिर है कि रेल से ज्यादा तेज यातायात सेवा इससे पहले तक नहीं थी । यह भी दिलचस्प है कि हिन्दी के तेज और अंग्रेजी के टिकट में रिश्तेदारी है क्योंकि टिकट शब्द भी भारोपीय मूल का ही है । टिकट शब्द अंग्रेजी के सबसे ज्यादा बोले जान वाले शब्दों में एक है । टिकस, टिकिट, टिकट, टिकटवा, टिकस बाबू जैसे अनेक शब्द हैं जो इससे बने हैं और लोकांचल में खूब बोले जाते हैं । टिकट जैसी व्यवस्था विभिन्न सेवाओं के लिए प्रचलित हुई और बाद में देशसेवा के लिए भी राजनीतिक पार्टियों में टिकट खरीदे बेचे जाने लगे ।
चिपकाना, सटाना, छेदना
टिकट शब्द का रिश्ता कि फ्रैंकिश भाषा में एस्टिकर से है जिसका अर्थ होता है चिपकाना, नत्थी करना आदि होता है । एटिमआनलाइन के मुताबिक इस एस्टिकर का रिश्ता पुरानी अंग्रेजी के stician से जुड़ता है जिसमें भेदना, चस्पा करना जैसे भाव हैं । एस्टिकर से पुरानी फ्रैंच का एस्टिकट शब्द बना जिसमें चिप्पी, रुक्का या पर्चा है । मध्यकालीन फ्रैंच में इससे एटिकट शब्द बना जिससे अंग्रेजी का टिकट शब्द सामने आया । एटिमआनलाइन के मुताबिक 1520 के दौर में यह शब्द मौजूदा रूप में प्रकट हुआ जिसमें शार्ट नोट, रुक्का या किसी दस्तावेज का भाव था । 1670 तक इसमें टिकट, लाइसेंस या परमिट जैसे भाव जुड़ गए । इनके मूल में भारोपीय धातु *steig- है जिसमें खोसना, खुबना, चुभोना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसमें तीक्ष्णता का आशय उभरता है । याद रहे महत्वपूर्ण दस्तावेज के साथ टिकट या रसीद नत्थी करने के लिए पिन का उपयोग किया जाता है । नत्थी करने या सटाने के आशय का अर्थ विस्तार चिपकाना हुआ । अंग्रेजी का स्टिकर भी इसी मूल का है जिसमें चिपचिपी सतह वाले लेबल का आशय है । कुल मिला कर टिकट एक ऐसी रसीद है जिसे किसी सेवा के उपयोग हेतु अधिकार पत्र, लाइसेंस या परमिट का दर्जा प्राप्त है । निर्धारित प्रारूप में आवेदन करने या सेवा का मूल्य चुकाने के बाद आधिकारिक सील ठप्पे वाला यह रुक्का टिकट कहलाया । रसीदी टिकट भी प्रचलित है । 
तीक्ष्ण, तीखा और मार्गदर्शक
भारोपीय धातु *steig- से रिश्तेदारी वाली संस्कृत धातु तिज् है जिसमें तीक्ष्णता का भाव है । मोनियर विलियम्स के कोश में तिज्, तिक् और तिग् समानधर्मी धातुओं का उल्लेख है जिनकी अर्थवत्ता में यही सब बातें हैं । तिज् का अवेस्ता में तिघ्री, तिग्रा जैसे रूपान्तर सामने आए । सिविलाइजेशन ऑफ़ द ईस्टर्न ईरानियंस इन एन्शिएंट टाइम्स पुस्तक में विल्हेम जैगर तिघ्री और तिग्मा की तुलना करते हुए प्राचीन ईरानी के स्तिज का उल्लेख करते हुए उसमें निहित तीखी नोक वाले हथियार का आशय बताते हैं । अंग्रेजी के स्टिक stick शब्द से छड़ी का अर्थ सबसे पहले उभरता है । नोकदार छड़ी आदिमानव का पसंदीदा हथियार था । मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश में तिग्म का अर्थ तीखा, नोकदार, ज्वलनशील, प्रखर आदि बताते हैं । निश्चित ही भाला, तीर जैसे हथियारों का आशय निकलता है । इन तमाम शब्दों का रिश्ता स्टिक से है जिसके क्रिया रूप में सटाना, जोड़ना, चस्पा करना, चिपकाना जैसे भाव हैं और संज्ञा रूप में इसमें छड़ी, सलाख, दण्ड, डण्डी, संटी जैसे आशय हैं । मूल रूप से छड़ी या दण्ड भी प्राचीन काल में धकेलने, चुभोने, हाँकने, निर्देशित करने के काम आते थे । अंकुश की तीक्षणता और उसका शलाका-रूप याद करें । 
तेग़ यानी तलवार, कृपाण
त्तरी ईरान की जज़ाकी भाषा में चुभन और दंश के अर्थ में तिग शब्द है जिसे तलवार के अर्थ वाले तेग शब्द से जोड़ कर देखें । पहलवी में तिग्रा शब्द है जिसका अर्थ तलवार होता है । इसी तरह जॉन प्लैट्स के कोश में तेग़, तेग़ा जैसे फ़ारसी शब्दों का उल्लेख है जिनका अर्थ तलवार या कृपाण होता है । इन शब्दों का विकास ज़ेंद के तिघा से हुआ जिनका सम्बन्ध संस्कृत के तिज्, तिग्, तिग्म से ही है । तिग्म में प्रखरता, चमक , किरण का भाव है । तिग्मांशु का अर्थ सूर्य है । तलवार या कृपाण को हिन्दी में भी तेग ही कहते हैं । सिखों के दशम गुरू का नाम तेग बहादुर है । भारोपीय स्तिग, ईरानी स्तिज, संस्कृत की तिज, तिग और जेंदावेस्ता की तिघ् धातुओं में धार, तीक्ष्णता वाले अर्थों का विकास तिग्म, तेग, स्टिक जैसे शब्दों मे हथियार के रूप में हुआ । तीर का निशान राह बताता है । दिशासूचक के रूप में भी तीर लगाया जाता रहा है । पहलवी में तिग्रा तीक्ष्ण, धारदार है तो अवेस्ता का तिघ्री तीर का पर्याय है । स्टिक पहले हथियार थी, बाद में सहारा बनी । अशक्त, दृष्टिहीन व्यक्ति छड़ी से टटोलकर राह तलाशता है ।
तेज, तेजस, तेजोमय
तिज् से ही बना है हिन्दी का तेज शब्द । उर्दू-फारसी में एक मुहावरा है तेज़ी दिखाना। इसका मतलब है होशियारी और शीघ्रता से काम निपटाना। तेज शब्द हिन्दी में भी चलता है और फारसी में भी । फर्क ये है कि जहां हिन्दी के तेज में नुक़ता नहीं लगता वहीं फारसी के तेज़ में लगता है । फारसी-हिन्दी में समान रूप से लोकप्रिय यह शब्द मूलतः इंडो़-इरानी भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत और अवेस्ता में यह समान रूप से तेजस् के रूप में मौजूद है । दरअसल हिन्दी , उर्दू और फारसी में जो तेज, तेज़ है उसके मूल में है तिज् धातु जिसका मतलब है पैना करना, बनाना । उत्तेजित करना वगैरह। तिज् से बने तेजस का अर्थ विस्तार ग़ज़ब का रहा। इसमें चमक, प्रखरता, तीव्रता, शीघ्रता जैसे भाव तो हैं ही साथ ही होशियारी, दिव्यता, बल, पराक्रम, चतुराई जैसे अर्थ भी इसमें निहित है । इसके अलावा चंचल, चपल, शरारती, दुष्ट, चालाक शख्सियत के लिए भी तेज़ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में तेजवंत, तेजवान , तेजस्वी, तेजोमय, तेजी जैसे शब्द इससे ही बने हैं । इसी तरह उर्दू – फारसी में इससे तेज़ निग़ाह, तेज़ तर्रार, तेज़ दिमाग़, तेज़तर, जैसे शब्द बने हैं जो व्यक्ति की कुशलता, होशियारी, दूरदर्शिता आदि ज़ाहिर करते हैं । दिलचस्प बात ये कि तीव्रगामी, शीघ्रगामी की तर्ज पर हिन्दी में तेजगामी शब्द भी है। सिर्फ नुक़ते के फर्क़ के साथ यह लफ्ज़ फारसी में भी तेज़गामी है ।
तीता और तीखा स्वाद
स्वाद के सन्दर्भ में जो तिक्त, तीखा जैसे शब्द भी इसी तिज् में निहित तीक्ष्णता से जुड़ते हैं । तेजी़ में तीखेपन का भाव भी है। तेज धार या तेज़ नोक से यह साफ है । दरअसल संस्कृत शब्द तीक्ष्ण के मूल में भी तिज् धातु है । तिज् से बना तीक्ष्ण जिसका मतलब होता है नुकीला, पैना, कठोर, कटु, कड़ा वगैरह। उग्रता , उष्णता, गर्मी आदि अर्थों में भी यह इस्तेमाल होता है । तीक्ष्ण का ही देसी रूप है तीखा जो हिन्दी के साथ साथ उर्दू में भी चलता है । इस तीखेपन में मसालों की तेजी भी है । तेज़ मिर्च-मसाले वाले भोजन को तीखा कहा जाता है । तिक्त भी इसी मूल का है जिससे मालवी, राजस्थानी में तीखे के अर्थ वाला तीता शब्द बना । भारतीय मसालों की एक अहम कड़ी के रूप में तेजपान, तेजपात, तेजपत्ता या तेजपत्री के रूप में समझा जा सकता है । अपनी तेज गंध और स्वाद के चलते तेजपत्र को भारतीय मसालों में खास शोहरत मिली हुई ।

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