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Thursday, November 8, 2012
मनहूस और तहस-नहस
अ पशकुनी की अर्थवत्ता वाला मनहूस शब्द हिन्दी में बहुत प्रचलित है । मनहूस का प्रयोग बहुत व्यापक है । तिथि, वार, जगह, नाम, वस्तु, ग्रह-नक्षत्र आदि वे सब चीज़ें जो शकुन-विचार के दायरे में आती हैं उनके साथ मनहूस का प्रयोग होता है । जो कुछ भी अशुभ, अलाभकारी है उसे हम मनहूस कहते हैं । हिन्दी में ‘मनहूस शक्ल’, ‘मनहूस आदमी’, ‘मनहूस घड़ी’, ‘मनहूस ख्याल’, ‘मनहूस बात’, ‘मनहूस लोग’ और ‘मनहूस ख्वाब’ जैसे संदर्भ नज़र आते हैं । अरबी का मनहूस शब्द फ़ारसी से होता हुआ हिन्दी में आया है । मनहूस के मूल में अरबी क्रिया-विशेषण नह्स / नहूसा है जिसका अर्थ है अशुभ, दुर्भाग्यशाली, अपशकुन आदि । अल सईद एम बदावी के कुरानिक कोश में नह्स / नहूसा के मूल में सेमिटिक धातु नून-हा-सीन ( n-h-s) है जिसमें मुसीबत, कठिनाई, दुख, विपत्ति जैसे भाव हैं । अरबी के नह्स में ‘म’ उपसर्ग लगने से मनहूस बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के मुताबिक मनहूस में अशुभ, अनिष्ट, अकल्याणकारी, बद, अभागा, बदक़िस्मत जैसे आशय हैं ।
मनहूस के मूल में जो नहूसा है वह नहूसत बनकर उर्दू में विराजमान है । हिन्दी में अब यह अल्पप्रचलित है अलबत्ता आज़ादी से पहले की हिन्दोस्तानी में यह चलता था । नहूसत में भी मनहूसी का ही भाव है । निस्तेज, उदासीनता, दीनता, असहायता, क्लेश, आत्मदया, दुख या खिन्नता के भाव इसमें हैं । नहूसा में धूल, गर्द का भाव भी है । गौर करें कि किसी चीज़ की परवाह न की जाए तो उस पर धूल जम जाती है यानी वह वस्तु अपनी आभा या तेज खो देती है । चेहरा निस्तेज तभी होता है जब उस पर दुख या चिन्ता की छाया हो । चीज़ों पर धूल जमना बुरे दिनों का संकेत है । खुशहाली में चमक है, बदहाली को गर्दिश कहते हैं । चीज़ों पर धूल जमना अपशकुन है । यही नहूसा है । उर्दू में गर्दे-नहूसत भी एक पद है जिसका अर्थ है दुर्भाग्य की धूल, अशुभ लक्षण आदि । अस्त-व्यस्त में भी गर्दे-नहूसत को देखा जा सकता है । अस्त-व्यस्त के ‘अस्त’ में निहित निस्तेजता ( सूर्यास्त ) साफ़ पहचानी जा सकती है । परास्त में यही अस्त है । हार भी अपशकुन है । प्रेमचंद और उनके दौर की भाषा में नहूसत शब्द मिलता है ।
धूल जमने वाले लक्षण की तरह अन्य लक्षणों के आधार पर भी मनहूसियत को समझा जा सकता है । निकम्मे, कामचोर, आलसी, सुस्त लोगों को भी मनहूस कहा जाता है, क्योंकि उनकी वजह से परिवार, समूह, समाज में बरक्कत की उम्मीद नहीं रहती । अक्सर किसी भी संस्थान की बदहाली की वजह निठल्लों की जमात होती है । हाथ पर हाथ धरे बैठना, उंगलियाँ चटकाना, असमय सोना, उबासियाँ लेना, गुमसुम रहना, ऊँघना, नाखून से ज़मीन कुरेदना, आसमान ताकना, शून्य में देखना, निश्चेष्ट बैठे रहना, देर से जागना समेत दैनंदिन कार्य-व्यवहार के अनेक ऐसे संकेत हैं जिन्हें नहूसत या मनहूसी के दायरे में समझा जाता है क्योंकि इनमें गति अथवा क्रिया नहीं है । निष्क्रियता विकास को अवरुद्ध करती है । यही सबसे बड़ा अपशकुन है ।
नेस्तनाबूद, नष्ट-भ्रष्ट या बरबादी के संदर्भ में हिन्दी का तहस-नहस मुहावरा आम लोगों की ज़बान पर है । यह भी इसी कड़ी में आता है और तहस + नहस से मिलकर बना है । अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में जॉन प्लैट्स तहस-नहस का मूल नह्स-तह्स ( naḥs + taḥs ) बताते हैं । नह्स के तौल पर तह्स शब्द की रचना अनुकरण और साम्य का नतीजा है । स्वतंत्र शब्द के रूप में इसकी कोई अर्थवत्ता नहीं है । अरबी की नह्स-तह्स टर्म का हिन्दुस्तानी में विपर्यय होकर तहस – नहस रूपान्तर हुआ । नहूसा में निहित दुर्भाग्य, बदक़िस्मती, अशुभ जैसे आशय नहस में खराबी, बिगाड़, विनष्ट, खंडित, बरबाद, तितर-बितर, विध्वस्त में अभिव्यक्त हो रहे हैं । दुर्भाग्यपूर्ण जैसी अर्थवत्ता यहाँ सुरक्षित है । नहूसा में निहित गर्द वाला भाव अगर देखे तो तहस-नहस का हिन्दी पर्याय धूल-धूसरित सर्वाधिक योग्य नज़र आता है ।
Monday, September 17, 2012
भरोसे की साँस यानी ‘विश्वास’
[पिछली कड़ी- भरोसे की भैंस पाड़ो ब्यावे से आगे ]
हि न्दी में यक़ीन ( yaqin ) शब्द का भी खूब प्रयोग होता है । हालाँकि भरोसा, विश्वास, ऐतबार जैसे इसके पर्याय भी खूब प्रचलित हैं और ये सभी शब्द बोलचाल की सहज अभिव्यक्ति का माध्यम हैं । इसके बावजूद यक़ीन शब्द का प्रयोग ज्यादा सुविधाजनक इसलिए है क्योंकि इसमें निहित निश्चयात्मकता की अभिव्यक्ति ज्यादा सुविधाजनक ढंग से होती है । यक़ीन से यक़ीनन जैसा कर्मकारक बन जाने से निश्चित ही, निश्चयपूर्वक या निश्चित तौर पर जैसी अभिव्यक्तियाँ आसान हो जाती हैं । इसी तरह यक़ीन से यक़ीनी रूप भी बनता है । यक़ीन मानिए, यक़ीन जानिए, यक़ीन कीजिए जैसे वाक्यों से भाषा में मुहावरे का असर आ जाता है । फ़ारसी का बे उपसर्ग लगने से बेयक़ीन शब्द भी बनता है । रिश्ते-नाते और समूची दुनियादारी अगर कायमहै तो सिर्फ़ यक़ीन पर ।
यक़ीन शब्द सेमिटिक मूल का है और यह अरबी भाषा से फ़ारसी में गया और फिर हिन्दी में आया । अलसईद एम बदावी / मोहम्मद अब्देल हलीम की कुरानिक यूसेज़ डिक्शनरी के मुताबिक यक़ीन के मूल में अरेबिक धातु या-क़ाफ़-नून (y-q-n) है जिसमें निश्चित, पक्का, निस्संदेह, सत्यापन, दृढ़ निश्चय, खास जैसे भाव हैं । इससे बने यक़ीन में निश्चित धारणा, आस्था या विश्वास ( जैसे, मेरा यक़ीन है कि मज़हब से इन्सानियत बड़ी चीज़ है ), आश्वासन( जैसे, उन्होंने यक़ीन दिलाया कि जल्दी ही काम हो जाएगा ), भरोसा ( आपकी बात पर यक़ीन नहीं होता ) आदि के अलावा मत, विचार, मान्यता, सच्चाई जैसे अनेक भावों का इसमें समावेश है ।
हिन्दी की तत्सम शब्दावली का विश्वास शब्द संज्ञा भी है । विश्वास जीवन-क्रिया से जुड़ा शब्द है । इसके मूल में श्वस् धातु है । श्वस् यानी हाँफना, फूँकना, धकेलना, धौंकना, फुफकारना, उड़ाना आदि । इसके अलावा इसमें साँस ( खींचना-छोड़ना ) ब्रीद, कराह, आह, आराम जैसे भाव भी हैं । इससे ही बना है श्वास जिसका अर्थ है छाती में हवा खींचना-छोड़ना, ब्रीदिंग । हिन्दी का साँस शब्द श्वास से ही बना है । श्वसन का अर्थ भी साँस लेना होता है । गौर करें कि मूलतः श्वास लेना जीवन के लिए ज़रूरी क्रिया है । श्वास जीवन का सम्बल है । श्वास के जरिये रक्त में वायुसंचार होता है और यही रक्त हमारे शरीर को पोषण देता है । विश्वास जिसमें यकीन, ऐतबार का भाव है और आश्वासन जिसका अर्थ तसल्ली अथवा सांत्वना होता है, इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं ।
श्वसन में साँस लेना और छोड़ना दोनो शामिल है । दोनों में एक बारीक फ़र्क है । श्वास लेना जहाँ चुस्त होने का लक्षण है वहीं श्वास छोड़ना निढाल होने, क्षीण होने का लक्षण है । इन दोनो ही क्रियाओं में उपसर्गों के ज़रिये फ़र्क़ किया गया है । साँस लेना जहाँ आश्वास है वही साँस छोड़ना निश्वास है । हिन्दी का आ उपसर्ग में सकारात्मक अर्थवत्ता है । इसमें सब ओर, सब कुछ वाला भाव भी है । श्वास से पहले आ लगने से आश्वास बनता है जिसका अर्थ होता है खुली साँस लेना, मुक्त साँस लेना, तसल्ली के साथ जीना । आश्वास से ही आश्वासन बना है जिसमें निहित तसल्ली, सांत्वना, दिलासा, प्रोत्साहन जैसे भाव स्पष्ट हैं । वामन शिवराम आप्टे के कोश में आश्वास् का अर्थ साँस देना, जीवन देना, जीवित रखना जैसे अर्थ भी दिए हैं । आपात् स्थिति में मुँह से मुँह मिला कर कृत्रिम साँस देकर किसी को जीवित रखने का प्रयत्न भी इसी आश्वास से अभिव्यक्त होता है ।
भय-अशान्ति में निश्वास क्रिया प्रभावी होने लगती है । लम्बी साँस छोड़ना दरअसल दुख, शोक प्रकट करने का लक्षण भी है और आन्तरिक वेदना की अभिव्यक्ति भी । गहरी साँस छोड़ी जाएगी तो लम्बी साँस ली भी जाएगी । आश्वास-निश्वास के इस क्रम को देशी हिन्दी में उसाँस कहते हैं । उसाँस का एक रूप उसास भी है । यह उच्छ्वास से बना है जो मूल संस्कृत का शब्द है और हिन्दी की तत्सम शब्दावली में आता है । उच्छ्वास बना है उच्छ्वस uchvas से । उद् उपसर्ग में छ्वस chvas लगने से बनता है उच्छ्वस । दिलचस्प यह कि संस्कृत के श, क्ष, श जैसे रूप प्राकृत अपभ्रंश में छ में बदलते हैं जैसे क्षण से छिन । क्षमा का छिमा । यहाँ छ्वस दरअसल श्वस का ही रूप है । वैदिक संस्कृत में अनेक शब्दों के बहुरूप मिलते हैं जो प्राकृत के समरूप लगते हैं । बहरहाल, उद् और छ्वस का अर्थ गहरी या लम्बी साँस होता है । उच्छ्वस > उच्छ्वास > उस्सास और फिर इससे बना उसाँस शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है और दुख-शोक की सामान्य अभिव्यक्ति का ज़रिया है ।
श्वस में वि उपसर्ग लगने से बनता है विश्वस् । गौर करें संस्कृत के वि उपसर्ग की कई अर्थ छटाएँ हैं जिनमें से एक है महत्व प्रदान करना । स्पष्ट करना । अन्तर करना आदि । विश्वस का अर्थ हुआ मुक्त साँस लेना, चैन से साँस लेना । ध्यान रहे कि श्वसन प्रणाली के ज़रिए ही सबसे पहले यह पता चलता है कि रोगी की दशा सही है या नहीं । श्वास प्रणाली पर ही नाड़ी तन्त्र काम करता है । पुराने ज़माने से नब्ज़ देख कर मरीज़ के हाल का अंदाज़ा लगाया जाता रहा है । श्वसन प्रणाली ही वह आधार है जिसके ज़रिये ही शरीर के अवयव सही ढंग से काम करते हैं । इस आधारतन्त्र का मज़बूत होना, कुशल होना, निर्दोष होना ही उसे विश्वसनीय बनाता है । सो, श्वस में वि उपसर्ग लगाकर बनाए गए विश्वस् से जो अर्थवत्ता हासिल हुई वह भरोसा, निष्ठा, ऐतबार जैसे आशयों को प्रकट करती है । विश्वस से ही विश्वास बना है ।
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Friday, August 24, 2012
सपड़-सपड़ सूप
चु स्की के लिए हिन्दी में सिप शब्द बेहद आसानी से समझा जाता है । सिप करने, चुसकने की लज़्ज़त जब ज्यादा ही बढ़ जाती है तब बात सपड़-सपड़ तक पहुँच जाती है जिसे अच्छा नहीं समझा जाता है । कहने की ज़रूरत नहीं की सिप करना, चुसकना और सपड़-सपड़ करने का रिश्ता किसी सूप जैसे पतले, तरल, शोरबेदार पदार्थ का स्वाद लेने की प्रक्रिया से जुड़ा है । सिप से सपड़ का सफर शिष्टता से अशिष्टता की ओर जाता है । सिप और सपड़-सपड़ तरल पदार्थ को सीधे बरास्ता होठ, जीभ के ज़रिये उदरस्थ करने की क्रिया है। सिप के ज़रिये ज़ायक़ा सिर्फ़ पीने वाले को महसूस होता है वहीं सपड़-सपड़ का चटखारा औरों को भी बेचैन कर देता है । गौरतलब है कि सूप शब्द आमतौर पर अंग्रेजी का समझा जाता है । हकीक़त यह है कि पाश्चात्य आहार-शिष्टाचार का प्रमुख हिस्सा सूप मूलतः भारतीय है । सूप, सिप, सपर, सपड़, सापड़ जैसे तमाम शब्द आपस में रिश्तेदार हैं । यही नहीं, इस शब्द शृंखला के शब्द विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में भी हैं जिनमें चुसकने, सुड़कने, सिप करने का भाव है ।
चुस्की के लिए सिप शब्द याद आता है । सूप शब्द भारोपीय मूल का है और इसका मूल भी संस्कृत का सूप शब्द ही माना जाता है । जिसे सिप किया जाए, वह सूप। इसी कड़ी में सपर भी है । द्रविड़ में सामान्य भोजन सापड़ है और इंग्लिश में सिर्फ़ रात का भोजन सपर है। ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य गौरतलब है । यह सामान्य बात है विभिन्न भाषिक केन्द्रों पर अनुकरणात्मक ध्वनियों से बने शब्दों का विकास एक सा रहा है। अंग्रेजी में रात के भोजन को सपर इसलिए कहा गया क्योंकि इसमें हल्का-फुल्का, तरल भोजन होता है। कई लोग रात में सिर्फ़ सूप ही लेते हैं । सपर का मूल सूप है । आप्टे और मो.विलियम्स के कोश में सूप का अर्थ रस, शोरबा, झोल, तरी जैसा पदार्थ ही कहा गया है । अंग्रेजी में यह तरल भोजन है । आप्टे कोश में सू+पा के ज़रिए इसे तरल पेय कहा गया है । यानी पीने की क्रिया से जोड़ा गया है । पकोर्नी इसकी मूल भारोपीय धातु सू seue बताते हैं जिसमें पीने की बात है । संस्कृत का सोम भी सू से ही व्युत्पन्न है । इसका अवेस्ता रूप होम है जिसमें पीने का आशय है । आदि-जर्मन रूप सप्प है । ज़ाहिर है प्राकृत, अपभ्रंश के ज़रिए हिन्दी का सपड़ रूप अलग से विकसित हुआ होगा और द्रविड़ सापड़ रूप अलग ।
वाशि आप्टे और मोनियर विलियम्स के कोश में सूप शब्द का अर्थ सॉस, तरी, शोरबा या झोलदार पदार्थ बताया गया है । हिन्दी शब्दसागर में इसे मूल रूप से संस्कृत शब्द बताते हुए इसके कई अर्थ दिए हैं जैसे मूँग, मसूर, अरहर आदि की पकी हुई दाल । दाल का जूस । रसा । रसे की तरकारी जैसे व्यंजन । संस्कृत में सूपक, सूपकर्ता या सूपकार जैसे शब्द हैं जिनका आशय भोजन बनाने वाला, रसोइया है । एटिमऑनलाईन के मुताबिक चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजी में सिप शब्द दाखिल हुआ । संभवतः इसकी आमद चालू जर्मन के सिप्पेन से हुई जिसका अर्थ था सिप करना । पुरानी अंग्रेजी में इसका रूप सुपेन हुआ जिसमें एकबारगी मुँह में कुछ डालने का भाव था । रॉल्फ़ लिली टर्नर के मुताबिक महाभारत में आहार के तरल रूप में ही सूप शब्द का उल्लेख हुआ है । हिन्दी शब्दसम्पदा में एक अन्य सूप भी है । बाँस से बनाए गए अनाज फटकने के चौड़े पात्र के रूप में इसकी अर्थवत्ता से सभी परिचित हैं । आम भारतीय रसोई के ज़रूरी उपकरणों में इसका भी शुमार है । अनाज फटकने का मक़सद मूलतः दानों और छिलकों को अलग करना है । भक्तियुगीन कवियों ने सूप शब्द का दार्शनिक अर्थों में प्रयोग किया है । कबीर की “सार सार सब गहि लहै, थोथा देहि उड़ाय ” जैसी इस कालजयी सूक्ति में सूप की ओर ही इशारा है ।
चूसना, चुसकना बहुत आम शब्द हैं और दिनभर में हमें कई बार इसके भाषायी और व्यावहारिक क्रियारूप देखने को मिलते हैं। यही बात चखना शब्द के बारे में भी सही बैठती है। ये लफ्ज भारतीय ईरानी मूल के शब्द समूह का हिस्सा हैं और संस्कृत के अलावा फारसी, हिन्दी और उर्दू के साथ ज्यादातर भारतीय भाषाओं में बोले-समझे जाते हैं। चूसना, चुसकना, चुसकी शब्द बने हैं संस्कृत की चुष् या चूष् धातु से जिसका क्रम कुछ यूँ रहा- चूष् > चूषणीयं > चूषणअं > चूसना। इस धातु का अर्थ है पीना, चूसना । चुष् से ही बना है चोष्यम् जिसके मायने भी चूसना ही होते हैं । मूलत: चूसने की क्रिया में रस प्रमुख है । अर्थात जिस चीज को चूसा जाता वह रसदार होती है । जाहिर है होठ और जीभ के सहयोग से उस वस्तु का सार ग्रहण करना ही चूसना हुआ । चुस्की, चुसकी, चस्का या चसका जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं । गौरतलब है कि किसी चीज का मजा लेने, उसे बार-बार करने की तीव्र इच्छा अथवा लत को भी चस्का ही कहते हैं । एकबारगी होठों के जरिये मुँह में ली जा चुकी मात्रा चुसकी / चुस्की कहलाती है । बर्फ के गोले और चूसने वाली गोली के लिए आमतौर पर चुस्की शब्द प्रचलित है। बच्चों के मुंह में डाली जाने वाली शहद से भरी रबर की पोटली भी चुसनी कहलाती है। इसके अलावा चुसवाना, चुसाई, चुसाना जैसे शब्द रूप भी इससे बने हैं ।
इसी कतार में खड़ा है चषक जिसका मतलब होता है प्याला, कप, मदिरा-पात्र, सुरा-पात्र अथवा गिलास । एक खास किस्म की शराब के तौर पर भी चषक का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा मधु अथवा शहद के लिए भी चषक शब्द है। इसी शब्द समूह का हिस्सा है चष् जिसका मतलब होता है खाना । हिन्दी में प्रचलित चखना इससे ही बना है जिसका अभिप्राय है स्वाद लेना । अब इस अर्थ और क्रिया पर गौर करें तो इस लफ्ज के कुछ अन्य मायने भी साफ होते हैं और कुछ मुहावरे नजर आने लगते हैं जैसे कंजूस मक्खीचूस अथवा खून चूसना वगैरह । किसी का शोषण करना, उसे खोखला कर देना, जमा-पूंजी निचोड़ लेना जैसी बातें भी चूसने के अर्थ में आ जाती हैं । यही चुष् फारसी में भी अलग अलग रूपों में मौजूद है मसलन चोशीद: या चोशीदा अर्थात चूसा हुआ । इससे ही बना है चोशीदगी यानी चूसने का भाव और चोशीदनी यानी चूसने के योग्य ।
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Monday, June 4, 2012
कुलीनों का पर्यावरण
हि न्दी की पारिभाषिक शब्दावली के जो शब्द बोलचाल में खूब प्रचलित हैं उनमें पर्यावरण का भी शुमार है । यहाँ तक कि यह शब्द अब कुलीन वर्ग की शब्दावली में भी जगह बना चुका है क्योंकि पर्यावरण पर बात करना आभिजात्य होने का लक्षण है । जिस तरह वातावरण शब्द से आशय वात + आवरण यानी पृथ्वी के चारों और हवा के आच्छादन से है मगर इसका प्रयोग परिस्थिति, परिवेश, माहौल जैसे आशय प्रकट करने के लिए भी होता है । पर्यावरण का प्रयोग ऐसी अभिव्यक्तियों के लिए भी होने लगा है । पर्यावरण शब्द, वातावरण की तुलना में बहुत व्यापक है । हालाँकि माहौल, परिस्थिति जैसे भावों को अभिव्यक्त करने के लिए वातावरण की तुलना में पर्यावरण का प्रयोग कम होता है । हमारे आस-पास के जीवन घटकों जिसमें, समाज, आचार-विचार, जीवजगत, वनस्पतिजगत, बोली-भाषा और जलवायु आदि का समावेश है, उन सबका आशय पर्यावरण में प्रकट होता है ।
पर्यावरण शब्द बना है आवरण में परि उपसर्ग लगने से । आवरण में छा जाने, आच्छादन, कवर, ढकने का भाव है । आवरण शब्द भी वरण में आ उपसर्ग लगने से बना है । वरण में चुनने, छाँटने जैसे भावों के अलाव ढकने, पर्दा करने जैसे भाव हैं जो आवरण में व्यक्त हो रहे हैं । वरण के मूल में संस्कृत की वृ धातु है । जिसका अर्थ है घेरना, लपेटना, ढकना, छुपाना और गुप्त रखना । ध्यान रहे आवरण में किसी आकार को चारो ओर से ढकने, घेरने का भाव है । संस्कृत का परि उपसर्ग बड़ा महत्वपूर्ण है और इसकी व्याप्ति तमाम भारोपीय भाषाओं में है । परि उपसर्ग जिन शब्दों में लगता है, उनमें वह शब्द के मूल भावों को बढ़ा देता है । मूलतः परि में चारों ओर, घेरा, सम्पूर्ण जैसे आशय हैं । परिनिर्वाण, परिभ्रणण, परिकल्पना, परिचर्या, परितोष जैसे शब्दों से यह स्पष्ट हो रहा है ।
भाषाविज्ञानियों नें प्रोटो भारोपीय भाषा परिवार में वृ के समकक्ष वर् wer धातु की कल्पना की है जिससे इंडो-यूरोपीय भाषाओं में कई शब्द बने हैं । आवरण के अर्थ वाले अंग्रेजी के कवर, रैपर जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं । वृ बने वर्त या वर्तते में वही भाव हैं जो प्राचीन भारोपीय धातु वर् wer में हैं । गोल, चक्राकार के लिए हिन्दी संस्कृत का वृत्त शब्द भी इसी मूल से बना है। गोलाई दरअसल घुमाने, लपेटने की क्रिया का ही विस्तार है। वृत्त, वृत्ताकार जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं । संस्कृत की ऋत् धातु से भी इसकी रिश्तेदारी है जिससे ऋतु शब्द बना है । गोलाई और घूमने का रिश्ता ऋतु से स्पष्ट है क्योंकि सभी ऋतुएं बारह महिनों के अंतराल पर खुद को दोहराती हैं अर्थात उनका पथ वृत्ताकार होता है। दोहराने की यह क्रिया ही आवृत्ति है जिसका अर्थ मुड़ना, लौटना, पलटना, प्रत्यावर्तन, चक्कर खाना आदि है ।
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Monday, May 7, 2012
रग-रग की खबर
र क्त वाहिनी के लिए हिन्दी में रग शब्द भी खूब प्रचलित है, अलबत्ता नस का चलन ज्यादा है । नस को नाड़ी भी कहते हैं और नलिका भी । रग भारत-ईरानी परिवार का शब्द है और फ़ारसी के ज़रिए हिन्दी में आया है जिसका सही रूप रग़ है । रग़ की व्युत्पत्ति के बारे में निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता । रक्त की पहचान उसका लाल रंग है और उसका काम है नसों में बहना क्योंकि वह तरल है और तरलता में नमी होती ही है । सो नमी और बहाव के गुणों को अगर पकड़ा जाए तो रग़ शब्द के जन्मसूत्र इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में नज़र आते हैं । वैदिक और जेंदावेस्ता साहित्य से यह स्ष्ट हो चुका है कि इंडो-ईरानी और भारोपीय भाषा परिवार में ऋ-री जैसी ध्वनि में बुनियादी तौर पर गति, प्रवाह का भाव रहै है और ऐसे शब्दों की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार की जा सकती है जिनमें न सिर्फ राह, रास्ता, दिशा, आवेग, वेग, भ्रमण, चक्र, गति, भ्रमण जैसे आशय छुपे हैं बल्कि इनसे नमी, रिसन जैसे अर्थों का द्योतन भी होता है । रक्तवाहिनी मूलतः एक मार्ग भी है और और साधन भी जिसमें हृदय द्वारा तेज रफ़्तार से खून बहाया जाता है । गौरतलब है कि नल, नड, नद जैसे प्रवाही अर्थवत्ता वाले शब्द के पूर्वरूप से ही एक विशेष नली जैसे तने वाली वनस्पति का नाम नलिनी पड़ा । इसी तरह नदी के लिए भी नलिनी नाम प्रचलित हुआ ।
जॉन प्लैट्स रग़ के मूल में संस्कृत का रक्त शब्द देखते हैं । ए डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में रग़ की तुलना प्राकृत के रग्गो से की गई है जो रक्त का परिवर्तित रूप है । ध्वनि के आधार पर शब्दों के रूपान्तर की भी निश्चित प्रक्रिया होती है । इस हिसाब से देखें तो रक्त का एक रूप रत्त बनेगा और दूसरा रूप रग्ग या रग्गो हो सकता है । खास बात यह है कि रक्त साध्य है जबकि रग़ साधन का नाम है । रक्त की विशिष्ट पहचान उसका लाल होना है जबकि रक्तवाहिनी में गति प्रमुख है । इसलिए रक्त के रग्ग रूपान्तर से यह मान लेना कि इससे ही फ़ारसी का रग़ बना होगा, दूर की कौड़ी है । रक्त से बने रग्ग का अर्थ भी खून ही होता है । फ़ारसी का रग़ निश्चित ही रक्त से नहीं है । गौरतलब है कि भारोपीय भाषा परिवार में ऋ-री जैसी ध्वनियों से बने कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनमें जलवाची भाव हैं अर्थात जिनकी अर्थवत्ता में गति व प्रवाह के साथ साथ नमी, आर्द्रता और गीलेपन का आशय निहित है । इसे यूँ समझें कि किसी स्रोत से रिसाव में मुख्यतः गति से भी पहले गीलेपन का अहसास होता है, फिर वह रिसाव धारा का रूप लेता है ।
ख्यात जर्मन भाषा विज्ञानी जूलियस पकोर्नी ने भारोपीय भाषाओं में धारा, बहाव, प्रवाह, गति, वेग, नमी, आर्द्रता को अभिव्यक्त करने वाले विभिन्न शब्दों के कुछ पूर्वरूप तलाशे हैं जिससे इनके बीच न सिर्फ़ सजातीय साम्य है बल्कि इनका व्युत्पत्तिक आधार भी एक है । res, ros, eres ऐसे ही पूर्वरूप हैं जिनसे ताल्लुक रखने वाले अनेक शब्द भारोपीय भाषाओं में हैं जैसे दौड़ने के लिए रेस, आवेग के लिए आइर , संस्कृत का रसा अर्थात रस, पानी या नदी आदि । इन सबमें ऋ – री नज़र आता है । प्रोटो इंडोयूरोपीय भाषा परिवार की एक धातु *reie- इसी कड़ी में आती है । इसमें भी ऋ की महिमा देखें । ऋ में मूलतः गति का भाव है। जाना, पाना, घूमना, भ्रमण करना, परिधि पर चक्कर लगाना आदि । प्राचीन संस्कृत धातु ऋत् और ऋष् में निहित गतिसूचक भावों का विस्तार अभूतपूर्व रहा है । संस्कृत धातु ऋ से बना है ऋत् जिसमें उचित राह जाने और उचित फल पाने का भाव तो है ही साथ ही चक्र, वृत्त जैसे भाव भी निहित हैं । हिन्दी के रेल शब्द में बहाव या प्रवाह का आशय निहित है । रेला शब्द की व्युत्पत्ति राल्फ़ लिली टर्नर संस्कृत के रय से मानते हैं जिसका अर्थ है तेज बहाव, तेज गति, द्रुतगामी, शीघ्रता आदि । रय बना है ऋ से जिसमें गति, प्रवाह का भाव है । इसी तरह र के मायने गति या वेग से चलना है जाहिर है मार्ग या राह का अर्थ भी इसमें छुपा है ।
प्राचीन धारा, प्रवाह या नदियों के नामों में भी प्रवाहवाची र, री या ऋ के दर्शन होते हैं । एटिमऑनलाइन के मुताबिक जर्मनी की की प्रसिद्ध नदी है राईन Rhine जिसके पीछे भारोपीय धातु *reie- ही है जिसका अर्थ है गति और प्रवाह । लैटिन में राइवस शब्द का अर्थ धारा होता है । वैदिकी की सहोदरा ईरान की अवेस्ता भाषा में नदीवाची एक शब्द है ranha जिसका अभिप्राय प्रवाही धारा है और इतिहासकारों के मुताबिक यह रूस की विशालतम नदी वोल्गा का प्राचीन नाम है । मोनियर विलियम्स के कोश में संस्कृत में रिण्व् या रिण्वति का अर्थ जाना है । वैसे तो रेणुका शब्द का अर्थ भी नदी होता है और अवेस्ता के रंहा ranha से इसका ध्वनिसाम्य भी है किन्तु भाषाविज्ञानी रंहा का साम्य वैदिकी के रसा से बैठाते हैं जिसका अर्थ रस, नमी, रिसन, नदी, धारा आदि है । भाषा विज्ञानियों के मुताबिक वोल्गा नदी का नामकरण प्रोटो-स्लाव शब्द वोल्गा से हुआ है जिसमें नमी का आशय है । उक्रेनी में भी वोल्गा का यही अर्थ है । रूसी भाषा के व्लागा का अर्थ होता है नम इसी तरह चेक भाषा में व्लेह का अर्थ है गीलापन । दरअसल ये सारे शब्द जन्मे हैं प्राचीन शकस्थान यानी सिथिया क्षेत्र में बोली जाने वाली किसी भाषा के रा शब्द से जिसका अर्थ था वोल्गा नदी । मूलतः यह रा शब्द रिसन या नमी का प्रतीक ही था । इसकी तुलना अवेस्तन रंहा या संस्कृत के रसा से करनी चाहिए ।
आज के ताजिकिस्तान क्षेत्र का प्राचीन नाम सोग्दियाना था । सोग्दियन भाषा में रअक का अर्थ होता है वाहिका, नालिका आदि । र(अ)क यानी रक की तुलना फ़ारसी के रग़ से करनी चाहिए । दरअसल सोग्दियन र(अ)क ही फ़ारसी के रग़ का पूर्वरूप है । प्राचीन शक भाषा के मूल रिसन, नमी वाले भाव का स्लाव जनों नें अपनी भाषा में अनुवाद वोल्गा किया और इस तरह नदी का नाम वोल्गा बना । दरअसल मूल रंहा , राईन जैसे शब्द नदीवाची हैं और इनका अनुवाद वोल्गा हुआ । डॉ अली नूराई के कोश के मुताबिक भी अवेस्ता के रण्हा शब्द का अर्थ मूलतः एक कल्पित पौराणिक नदी है जिसे जरदुश्ती समाज मानता था । रंहा का ही रूपान्तर पहलवी में रघ, रग़ हुआ और फिर फ़ारसी में यह रग़ बना ।
गौर करें कि किसी स्रोत से जब रिसाव होता है तो उसकी अनुभूति नमी की होती है । सतत रिसाव प्रवाह बनता है । इस प्रवाही धारा तेज गति से सतह को काटते हुए अपने लिए मार्ग बनाती है जिसे नद, नदी, नाड़ी या नाली कहते हैं । शरीर में रक्त ले जाने वाली वाहिनियाँ ऐसी ही नाड़ियाँ या नालियाँ हैं । किसी विशाल भूभाग को सिंचित करने, पोषित करने और उसे हरा भरा रखने में भी नदियों की विशिष्ट भूमिका होती है । इन्हें हम किसी भूभाग की नाड़ियाँ कह सकते हैं । हमारे शरीर की नसें या रगें भी वही काम करती हैं । रग शब्द की व्युत्पत्ति रक्त से न होकर भारोपीय भाषा परिवार के ऋ-री ध्वनि से जन्मे जलवाची शब्द समूह से ज्यादा तार्किक लगती है । नस से जुड़े जितने भी मुहावरे हैं, वे सभी रग में समा गए हैं जैसे रग फड़कना यानी आवेग का संचार होना, रग दबना यानी किसी के वश में या प्रभाव में आना, रग चढ़ना यानी क्रोध आना, रग रग पहचानना यानी मूल चरित्र का भेद खुल जाना अथवा रग-पट्ठे पढ़ना यानी किसी चीज़ को बारीके से समझ लेना आदि ।
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Friday, April 27, 2012
लोबान की महक
दु निया में शायद ही कोई होगा जिसे खुशबू नापसन्द होगी । सुवास से न सिर्फ़ तन-मन बल्कि आसपास का माहौल भी महक उठता है । सुगन्धित पदार्थ की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है और इसमें लोबान का नाम भी शामिल है । अगरबत्ती, धूप और हवन सामग्री के निर्माण में लोबान का प्रयोग होता है । लोबान का प्रयोग दवा के रूप में भी होता है । इसे सुलगते हुए कंडे या अंगारे पर रख कर जलाया जाता है । इसका धुआँ सुगन्धित होता है । लोबान दरअसल एक क़िस्म की राल या वृक्ष से निकलने वाला पारदर्शी स्राव है जो सूख कर सफेद या पीली आभा वाले छोटे छोटे पिण्डों में रूपान्तरित हो जाता है । इसे हवन, पूजन के दौरान या अन्य आयोजनों में सुगन्धित वातावरण बनाने के लिए जलाया जाता है । इसके धुएँ से माहौल महक उठता है ।
लोबान या लुबान दरअसल असल भारत में फ़ारसी के ज़रिये आया है मूलतः यह सेमिटिक भाषा परिवार की धातु ल-ब-न ( l-b-n ) से बना अरबी शब्द है । यह एक अनोखा शब्द है जिसके भीतर बहुत सारे आशय छुपे हैं । इसके मूल में एक देश का नाम है । श्वेत अर्थात सफेदी के विविध आयाम इसमें नज़र आते हैं । इसमें एक विशिष्ट वृक्ष का स्पर्श भी है । देखतें है लोबान के वंशवृक्ष को । अधिकांश राल आधारित सुगन्धित पदार्थों की तरह ही लोबान भी एक विशिष्ट पेड़ बोसवेलिया सेरेटा Boswellia serrata से निकलने वाला दूध है । सेमिटिक धातु ल-ब-न में सफेदी या दुग्ध जैसे स्राव का भाव है । इससे बने अल-लुबान में भी दूध या सफेद पदार्थ का आशय है जिसमें वृक्ष से निकली सुगन्धित राल का अर्थ ही उभरता है । लुबान या लोबान का रिश्ता हिब्रू से भी है । ए जनरल सिस्टम ऑफ़ बॉटनी एंड गार्डनिंग में जॉर्ज डॉन अरेबिक al-luban के हिब्रू सजातीय lebonah का उल्लेख करते हैं । लेबोनाह का अर्थ होता है श्वेतकण या सफेदी का ढेर । इससे ही ग्रीक भाषा में लिबेनोस libanos बना, जिसका आशय भी लोबान ही है । ओलिबेनम का इतालवी रूप ओलिबेनो है ।
इसी तरह लैटिन का ओलिबेनम olibanumशब्द ओषधिविज्ञान का जाना पहचाना पदार्थ है जिसका उपयोग प्रायः सिरदर्द की दवा बनाने में होता रहा है । इसका आशय भी गोंद, राल या लोबान से ही है । कई संदर्भ इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि लैटिन का ओलिबेनम दरअसल अरबी के अल-लुबान al-luban का सीधा सीधा लिप्यंतरण है जिसमें उच्चारण भिन्नता की वजह से हलका बदलाव आया । लोबान या ओलिबेनम का रिश्ता कई तरह से एशिया के सुदूर पश्चिमी छोर पर स्थित लेबनान से भी जुड़ता है । ऑक्सफोर्ड इन्साक्लोपीडिया के अनुसार ओलिबेनम दरअसल “ऑइल ऑफ़ लेबेनोज” या लेबेनान टर्म का संक्षेप है जिसका अर्थ है “लेबनान का तेल” । मगर यह बहुत पुख्ता आधार नहीं है । कुछ भाषाविदों का मानना है कि प्राचीनकाल से ही लेबनान में पाए जाने वाले ख़ास देवदार से निकलने वाले सुगन्धित पदार्थ की माँग भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के बाज़ार में खूब रही है । इसीलिए लेबनान से आने वाले राल को लोबान नाम मिला । कुछ हद तक स्वीकार्य होते हुए भी यह व्युत्पत्ति सही नही है ।
दरअसल लेबनान lebanon शब्द भी सेमिटिक मूल का ही है और इसा जन्म भी ल-ब-न से हुआ है । पश्चिमी एशिया के इस पहाड़ी प्रान्त में बर्फ़ से लदी चोटियाँ हैं । शुष्क अरब क्षेत्र में बर्फीली चोटियों वाले लेबनान को ल-ब-न में निहित सफेदी, शुभ्रता की वजह से ही पहचान मिली । लेबनान यानी लुब + नान अर्थात सफेद धरती । तात्पर्य बर्फ़ से ढकी चोटियों से ही है । यहाँ का सबसे ऊँची चोटी का नाम भी माऊंट लेबनान ही है । स्पष्ट है कि लेबनान से ‘लोबान’ नहीं बना है बल्कि ल-ब-न से ही लेबनान और लोबान बने हैं । दोनों में खास बात सफेदी है । प्राचीन अरब के सौदागरों का दूर दराज़ तक व्यापार करने में कोई सानी नहीं था । दरअसल अफ्रीका और पूर्वी एशिया के देशों से भारी मात्रा में अरब के सौदागर लोबान loban खरीदते थे और उसे लेबनान में साफ़ किया जाता था । वहाँ से उसे फिर दुनियाभर के बाज़ारों में बेचा जाता था । लेबनान से लोबान का रिश्ता इसलिए है क्योंकि वह लोबान की बड़ी मण्डी थी ।
इस संदर्भ में अल्बानिया, एल्प्स जैसे क्षेत्रों को भी याद कर लेना चाहिए । सेमिटिक धातु ल-ब-न से मिलती जुलती धातु है a-l-b ( कुछ लोग इसे गैर भारोपीय धातु भी मानते हैं)। एल्ब *alb- का अर्थ है श्वेत, सफेद, धवल, पहाड़, पर्वत । इससे मिलती जुलती प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा परिवार की एक धातु है *albho-जिसमें भी यही भाव है और माना जाता है कि इसका विकास *alb-से हुआ है । पूर्व से पश्चिम तक फैली यूरोप की प्रसिद्ध पर्वत शृंखला का नाम एल्प्स है । यह नाम इसी मूल से आ रहा है । ध्यान रहे आल्प्स के न सिर्फ उच्च शिखरों पर हमेशा बर्फ जमी रहती है । alps में alb धातु साफ दिखाई पड़ रही है । पर्वतीय या पहाड़ी के अर्थ में एल्पाईन शब्द भी इसी मूल से आ रहा है ।
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