जहाँ भीतर और बाहर मिलते हैं
एक पारम्परिक संरचना के भाषिक, सामाजिक और सांस्कृतिक
अर्थों की पड़ताल
ड्योढ़ी का वास्तु में ढल जाना 口'ड्योढ़ी' केवल एक शब्द नहीं, अपितु एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक एवं सांस्कृतिक सूझबूझ का नमूना है। आधुनिक विचारधारा में ईंट-गारे-चूने के इस सुदृढ़़ ढाँचे को सामन्ती संकल्पना से प्रेरित निर्माण भी कहा जा सकता है। यह किसी भी नगर-बस्ती के मुख्यमार्ग और आवासीय परिसर के बीच एक निजी, सुरक्षित प्रवेश स्थान होता था। हवेलियों और महलों जैसी पारम्परिक संरचनाओं में, ड्योढ़ी एक साधारण प्रवेश द्वार से कहीं बढ़कर थी; यह एक प्रवेश-कक्ष, आगन्तुकों के लिए एक प्रतीक्षालय और 'ड्योढ़ीदार' या 'प्रतिहार' (द्वारपाल) के लिए एक चौकी के रूप में काम करती थी, जो घर की सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करता था । भाषा और वास्तुशिल्प स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं कि 'ड्योढ़ी' के विकास में भाषाशास्त्रीय बदलावों के साथ साथ सुरक्षा और सामाजिक स्थिति के दृष्टिकोण से वास्तु में भी परिवर्तन हुआ। 'ड्योढ़ी' प्रवेश द्वार से बढ़कर सुरक्षा और नियन्त्रण का स्थान बन गई।
'देहली' से देह तक
口हिन्दी शब्द 'ड्योढ़ी' संस्कृत के प्राचीन शब्द 'देहली' का सीधा, ध्वन्यात्मक रूप से विकसित वंशज है । 'ड्योढ़ी' की भाषाई यात्रा का आरम्भ प्राचीन भारतीय-आर्य भाषा संस्कृत से होता है, जहाँ 'देहली' शब्द की जड़ें गहराई से स्थापित हैं । संस्कृत कोशों के अनुसार, 'देहली' शब्द की व्युत्पत्ति मूल धातु 'दिह्' से मानी जाती है, जिसका अर्थ है 'लेपन करना', 'पोतना' या 'बढ़ाना' । इसी धातु से 'देह' (अर्थात् शरीर) भी बना है, जो एक आकार या रूप की अवधारणा को दर्शाता है। इस व्युत्पत्ति से यह सङ्केत मिलता है कि 'देहली' का मूल अर्थ किसी लिपे-पुते या मिट्टी से बने ऊँचे चबूतरे से था जो किसी आवास के प्रवेश द्वार पर बनाया जाता था । शास्त्रीय संस्कृत में इसके प्रमुख अर्थ "द्वार की चौखट (विशेषकर निचली लकड़ी)", "देहरी" या "घर के सामने का उठा हुआ चबूतरा या बरामदा" हैं ।
जटिल बदलाव: 'देहली' , ‘डेहरी’, 'ड्योढ़ी'
口'देहली' से 'डेहरी' और फिर 'ड्योढ़ी' जैसे शब्दों के विकास में 'द' का कठोर 'ड' में बदलने को मूर्धन्यीकरण कहा जाता है। मूर्धन्य ध्वनियों का विकास प्राचीन मानव जत्थों के आप्रवासन से एक बहुभाषी समाज के निर्माण और सांस्कृतिक मिश्रण की एक शक्तिशाली भाषिक प्रतिध्वनि है। अक्सर 'ल' और 'र' जैसी मिलती-जुलती ध्वनियाँ एक-दूसरे की जगह ले लेती हैं। इसी सहज प्रवृत्ति के कारण 'देहली' का 'ल', 'र' में बदल गया और देहरी रूप सामने आया। इसके विपरीत, 'ड्योढ़ी' अधिक परिवर्तित रूप है, जो कई ध्वन्यात्मक पड़ावों से गुज़रा। इस प्रक्रिया में पहले 'देहली' का 'ल' एक कठोर ध्वनि 'ढ' में बदला, जिससे 'देहुड़ी' जैसा मध्यवर्ती रूप बना । बाद में, शब्द के बीच की कमज़ोर 'ह' ध्वनि लुप्त हो गई और फिर 'ए' तथा 'उ' स्वरों के आपस में मिलने से 'यो' की नई ध्वनि का जन्म हुआ, जिससे 'ड्योढ़ी' शब्द बना। कुल मिला कर देहली → देहुडि → देउड़ / देवढी → ड्योढ़ी यह क्रमिक विकास रहा होगा। राजस्थानी में डोडी जैसा रूपभेद भी है।
घर और बाहर का सन्धिस्थल
口देह, देहली और दीवाल तीनों एक ही स्रोत
से विकसित हुए हैं। या शृङ्खला दिघ्, दिह्, दिज़, देगा, दाएज़ा में परिधि, कोट, किला और सुरक्षित स्थान का भाव विकसित होता चला गया। इससे दिलचस्प रूपक भी
बनता है। दिह्, देह में बाहरी संरचना
का भाव है। देह बाहरी ढाँचा है जिसके अन्दर नाज़ुक अङ्ग सुरक्षित रहते हैं। इसी
तरह घर के चारों ओर की दीवार और देहली के भीतर समूचा परिवार, कुटुम्बी, सम्पत्ति,
गिरस्ती यहाँ तक कि रिश्ते-नाते तक सुरक्षित रहते हैं। अवेस्ता में इसी कड़ी का दिज़ शब्द है और जिसका अर्थ किला होता
है। पुराने दौर में यह मिट्टी के लौंदों को एक के ऊपर एक पाथ कर, लीप पोत कर खड़ी की गई दीवार होती थी जिसका मक़सद था सुरक्षा। बाद में इसी मूल
से दीवाल, दीवार जैसे शब्द भी बने। फिरदौस और
पैराडाइज़ (स्वर्गोद्यान) शब्दों का दूसरा पद यही दाएज़ा है जिसमें परिधि का भाव
है।
देहरी जो घर की देह है
口ईरानी में जो दिज, दाएजा मिट्टी की दीवाल या परिधि है, उसका ही संस्कृत रूप दिह् है जिसमें भी उभार का भाव आया। मूलतः यह घर में प्रवेश के स्थान वाले उभार जिस पर चौखट टिकती है, से सम्बद्ध हुआ। पुराने दौर में वहाँ पर कुछ देर रुका जाता था। मुँह हाथ धोया जाता था, चप्पल उतारी जाती थी सुस्ताया जाता था तब घर में प्रवेश किया जाता था। इस तरह देहली और देह वाले रूपक को भी समझा जा सकता है। देहरी घर के भीतर प्रवेश से पहले का ठहराव है, जहाँ बाहर का संसार पीछे छूटता है और भीतर की निजी दुनिया खुलती है। यह वही मध्यस्थ बिंदु है जो देह भी अपने स्तर पर निभाती है—बाहरी जगत और आत्मानुभूति के बीच का पहला संपर्क। इस प्रकार ‘देहरी’ घर की ‘देह’ प्रतीत होती है- दोनों ही सुरक्षा, सीमा और अस्तित्व की गारंटी
चलते चलते- 'ढेलज' की बात
口एक आम ग़लतफ़हमी यह भी है कि उर्दू
का दहलीज और मराठी का ढेलज जैसे शब्द भी 'देहली' से व्युत्पन्न हैं । ध्वनि व अर्थ, दोनों ही कारक यहाँ प्रबल हैं, पर ऐसा नहीं है । ये दोनों अलग-अलग मूल के हैं, पर अर्थगत साम्य की वजह से इन्हें देहली-ड्योढ़ी वाली शृङ्खला से सम्बन्धित
मानना भी असहज नहीं है। यद्यपि 'दहलीज' और 'ढेलज' के स्रोत भिन्न हैं, पर 'देहली' के साथ इनका अर्थगत व ध्वनिसाम्य इतना गहन है कि व्यवहार में ये एक-दूसरे के
पर्याय बन जाते हैं । इनके मूल और विकास की विस्तृत चर्चा हम इस शृंखला की आगामी 'देहली_3 : दहलीज' वाली कड़ी में करेंगे।
पिछली कड़ी- 'देहली_1/ डेहरी : टीले का उभार या देहरी की छाया!
◾समाप्त
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