Monday, March 30, 2009

कितनी गहरी है भाषा की छाप ?

 Gray colors  सौरभ बुधकर6a00d834515c4369e200e54f21a8c18833-800wiशब्दों का सफर में हमने शब्द व्युत्पत्ति के अलावा हर हफ्ते भाषा संबंधी एक आलेख देने का विचार किया है। पेश है इस सिलसिले की पहली कड़ी। लेखक पुणे  में रहते हैं और एक मराठी मीडिया समूह के उच्च विपणन प्रबंधन से जुड़े हैं। परिचयmail.google.com
बा त 1996 की है। लन्दन में प्रोफ़ेसर मोनाको के क्लीनिक में एक केस आया।  एक ऐसे परिवार का जिसकी तीन पीढियों के लगभग आधे सदस्य कुछ खास ध्वनियों का उच्चारण नहीं कर पाते थे। प्रोफ़ेसर के शोधछात्रों ने खोज-बीन की। इस परिवार के डीएनए के सातवें chromosome पर FOXP2 नाम की एक gene में गड़बड़ थी। FOXP2 नाम तो बाद में इस gene की खोज होने पर इसे दिया गया। Speech-defect में इसी FOXP2 gene के आधे हिस्से का कमाल था।
ब आगे की बात, जो ज्यादा दिलचस्प है। मनुष्यों के सबसे निकटतम बंधु यानि चिम्पांजी (chimpanzee) और मनुष्य के FOXP2 प्रोटीन में केवल दो Amino-acid का ही फर्क है। अब ये बताने की तो ज़रुरत नहीं की चिम्पांजी भाषा के मामले में अति-विकसित प्राणी है। वैज्ञानिक मानते हैं की अमीनो एसिड का ये फर्क भी कुछ बहुत पुराना नहीं है. बस दो लाख साल। अब दो बातें हैं, या तो इस फर्क से मनुष्य ने भाषा का विकास कर लिया और एक वर्ग अलग हो गया। या जो वर्ग अलग हो गया उसमें gene का फर्क आ गया और भाषा का विकास हो गया। आज जैसी  परिष्कृत भाषा का विकास पचास हज़ार साल पहले माना जाता है. मगर परिवर्तन तभी से यानि दो लाख साल पहले से आना शुरू हो गया होगा। इसका एक अर्थ यह भी हुआ की एक समूह-विशेष के भीतर एक विशेष भाषा (ज्यादा ठीक शब्द होगा -लहजा) को बोलने के अनुवांशिक गुण भी होते हैं।
हाँ से मेरी दिलचस्पी बनी कि भाषा पर ईवोल्यूशन Evolution या ईवोल्यूशन पर भाषा का कितना गहरा प्रभाव रहा है। कुल मिलाकर क्या भाषा में भी विकासवाद जैसा कुछ है? भाषा  सिर्फ शब्दों, व्याकरण या ध्वनियों या संस्कृति Culture का खेल तो नहीं ही है। चार्ल्स डार्विन ने विकासवाद के सिद्धांत में भाषा पर विचार किया और विकासवाद के भाषा पर प्रभाव की संक्षिप्त में चर्चा भी की. आज के वैज्ञानिक भी उसी विचार को मानते हैं मगर ठीक उलट दिशा से। डार्विन ने Natural Selection और transmutation की बात की थी। यानि प्रकृति खुद सबसे योग्य प्रजाति को जीवित रहने के लिए चुनती है, साथ ही हर प्रजाति अपने परिवेश के हिसाब से अपने भीतर परिवर्तन लाती चलती है। मसलन फिंच Finch नाम की चिडिया में समय के साथ क्या परिवर्तन हुआ[1]  खान-पान की आदतों और जल-वायु के परिवर्तन के लिहाज़ से फिंच ने अपने को बदला। क्या भाषा भी ऐसा ही करती है? क्या कुछ शब्द, ध्वनियां, या कभी कभी एक भाषा ही नया स्वरुप ले लेती है या पूर्णत: विलुप्त ही हो जाती है? जी हाँ, ऐसा होता है। …और ऐसा अचानक से नहीं हो जाता।

darwin... चार्ल्स डार्विन ने अपनी विख्यात खोजी यात्रा के दौरान दक्षिण अमेरिका के गैलापगौस द्वीप समूह के विभिन्न द्वीपों पर एक खास चिड़िया फिंच देखी जिसकी चोंच की आकृति विभिन्न समूहों में अलग अलग थी। यहां से विकासवादी सिद्धांत का सूत्र उन्हें हाथ लगा…finch[1]

या यूँ कहें की अक्सर अचानक नहीं हो जाता। इन सबके भी कारण होते है। हम सभी लोग जाने-अनजाने इसमें अपनी भूमिका निभाते हैं।
भाषा की सबसे पहली कसौटी होती है व्यक्त करना, मगर आसानी से। इंग्लिश में कहें तो "expressiveness with simpicity". अब कितने सर्वनाम और कितनी क्रियायें एक भाषा को चाहियें? किस स्तर पर एक बच्चा भाषा को सीखना शुरू कर पायेगा? कौन सी ध्वनियां और कौन से शब्द हम आसानी से बोल पाते हैं? जैसी बातों का  निर्णय अपने आप होता रहता है। आर्यों की भाषा में घोड़ों और गायों[2] से सम्बंधित बहुत शब्द थे। कारण था, उनके आसपास ये सब था-जिससे उनका जीवन चलता था। मेरी आपकी भाषा में Save, Delete, File create, mobile, Bollywood, ATM जैसे तमाम शब्द हैं जो आज से बीस साल पहले किसी ने देखे सुने न थे। अगर पहले वाले उदाहरण से चलें और थोड़ा कल्पना को उड़ान दें तो इस सब नयी शब्दावली के लिए भी हमारे भीतर जैविक रूप से कुछ परिवर्तन चल रहे होंगे। अब इसका अर्थ यह नहीं की यह गुण कल सुबह दिखने लगेंगे। हां शायद एक लाख साल बाद कोई एक gene, हम देखेंगे transmutate कर चुकी होगी। इसका मतलब यह हुआ की human genome प्रोजेक्ट की तरह से अगर हम भाषा का जीनोम प्रोजेक्ट कर सकें तो शायद हम ढूंढ पायें की हमारे पूर्वज वास्तव में किस राह से चल कर यहाँ तक पहुंचे। वैज्ञानिक इसको थोडा सरल तरीके से करते हैं। वे एक विशेष शब्द समूह को पकड़ कर उसकी खोज करते हैं। इसी खोज से पता लगा की अधिकतर North और South अमेरिका की भाषाएँ Amerindian नाम के भाषा समूह से उपजी हैं।
[इससे आगे अगली कड़ी में ...कौन सा शब्द लुप्त हुआ और कौन सी भाषाएँ बनीं.]

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चाल, शालीनता और नर्क [आश्रय-10]

दुनियाभर में घरघुस्सू लोग ही शालीन और शरीफ माने जाते हैं।  family2
तार में बने कई बड़े प्रकोष्ठों या कमरों को शाला कहा जाता है। यह शालः से बना है जिसमें दीर्घाकार का भाव भी शामिल है। सामुदायिक निवास या आवास संकुल के रूप में यहां भी चाल शब्द से इसकी रिश्तेदारी की पुष्टि होती है। विशाल शब्द इसी मूल का है। मनुष्य के लिए आश्रय इतना महत्वपूर्ण है कि मृत्योपरांत भी आश्रय के लिए उसने स्वर्ग और नर्क की कल्पना कर ली। मगर ये दोनों जीवनकाल में ही, इसी पृथ्वी पर नज़र आते हैं। चाल, शाल, शाला, धर्मशाला, पाठशाला  का रिश्ता नर्क से भी जुड़ता है।
सीधे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति को शालीन कहा जाता है। जाहिर है यह शाल् से ही बना है। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक शालीन वह व्यक्ति है जिसके रहने का ठिकाना है। मोटे तौर पर यह अर्थ कुछ दुरूह लग सकता है, मगर गृहस्थी, निवास, आश्रय से उत्पन्न व्यवस्था और उससे निर्मित सभ्यता ही घर में रहनेवाले व्यक्ति को शालीन का दर्जा देती है। कन्या के लिए  हिन्दी का लोकप्रिय नाम शालिनी  संस्कृत का है जिसका अर्थ गृहस्वामिनी अथवा गृहिणी होता है।  व्यापक अर्थ में गृहस्थ ही शालीन है। स्पष्ट है कि आश्रय में ही शालीनता का भाव निहित है। जिसका कोई ठौर-ठिकाना न हो वह आवारा, छुट्टा सांड जैसे विशेषणों से नवाज़ा जाता है। हमेशा घर में रहनेवाले व्यक्ति को घरू या घरघूता, घरघुस्सू आदि विशेषण दिये जाते हैं। इन घरघुस्सुओं को दुनिया शालीन मानती है। इस अर्थ में शाल अर्थात चाल में रहनेवाले सभी जन शालीन कहलाने चाहिए, मगर इसके ठीक उलट बंगलों में रहनेवालों की निगाह में चाल वाले असभ्य, उजड्ड, मवाली होते हैं। आजकल की झोपड़पट्टियों वाली चालें कुछ हद तक इस नजरिये को सही भी साबित करती हैं। दगड़ी चाल जैसी बसाहट अब माफिया सरगना के नाम से जानी जाती हैं।
विशाल प्रकोष्ठ के अर्थ में अंग्रेजी का हॉल शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है। बल्कि यह हिन्दी का ही हो गया है। अंग्रेजी का हॉल hall, सेल cell, होल hole और हॉलो hollow जैसे शब्द शाल् की कड़ी में आते हैं। इन सभी शब्दों के मूल में प्राचीन भारोपीय धातु केल kel है जिसमें आश्रय, घिरा हुआ और निर्माण के ही भाव हैं। शाल शब्द के देसी रूप जैसे राजस्थानी का साल अर्थात टकसाल, घुड़साल से सेल cell की रिश्तेदारी पर गौर करें। शाल में जो आश्रय का भाव है वही अंग्रेजी के सेल में भी है। शाल का देशी रूप साल अंग्रेजी के सेल को और करीब ले आता है। हॉल के मूल में भी सेल ही है। सेल बना है पोस्ट जर्मनिक धातु khallo से जिसका अर्थ होता है घिरा हुआ, ढका हुआ, विस्तारित, बड़ा प्रकोष्ठ, खाली स्थान आदि। भारोपीय परिवार की भाषा पोस्ट जर्मनिक के khallo और सेमिटिक परिवार की अरबी के ख़ल्क़ khalq या ख़ला khala की समानता पर गौर करें। ख़ल्क का अर्थ भी निम्राण, सृजन, घेरा हुआ, विशाल, विस्तारित, अंतरिक्ष आदि ही होता है। हालांकि ख़ल्क़ शब्द का दायरा काफी व्यापक है जो सृष्टिरचना से संबंधित है। मगर अंततः सृष्टि है तो आश्रय ही।
अंग्रेजी के सेल cell का मतलब होता है कमरा, प्रकोष्ठ। यहां कमरे के अर्थ में भी सेल शब्द का प्रयोग होता है और किसी संगठन के विभाग की तरह भी। जेल के कतारबद्ध कमरों को भी सेल कहा जाता है। अंदमान की सेल्युलर जेल का नामकरण इसी सेल की वजह से हुआ है। खास बात यह कि संस्कृत के शाला और अंग्रेजी के हॉल में जहां विशाल प्रकोष्ठ का भाव है वहीं अंग्रेजी के ही सेल शब्द में छोटे कक्ष या कोठरी का भाव है। सेल कितना छोटा हो सकता है इसका अंदाज़ा मनुष्य के शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका के लिए प्रचलित सेल शब्द से होता है। गौर करें कि सेल का हिन्दी अनुवाद कोशिका के मूल में कष् धातु है जिससे जिसमें कुरेदने, घिसने, तराशने का भाव है जिससे आश्रय अर्थात कोष्ठ का निर्माण होता है। कोष एक घिरा हुआ स्थान है। इससे ही कोशिका शब्द बनाया गया। हिन्दी में बैटरी के लिए सेल शब्द ज्यादा प्रचलित है। विद्युत सेल भी एक छोटा सा कक्ष ही होता है। हॉलो का अर्थ है खाली, खोखला। इसी तरह अंग्रेजी का होल शब्द भी हिन्दी

Mudmen-halo-2mask-smallMonument-death-smallAntelope_and_indian-small-mask2इस फ्रेम के सभी चित्र डिफरेंट व्यू से साभार

में बहुधा प्रयोग होता है जिसका अर्थ है छिद्र, विवर, छेद आदि। सुऱाख के अर्थ में होल शब्द का इस्तेमाल हिन्दी में आम है।
र्क के अर्थ में अंग्रेजी का हेल hell शब्द भी भारोपीय धातु kel से ही निकला है जिससे संस्कृत का शल् बना है। गौरतलब है कि संस्कृत में भी नर्क का एक नाम शाल्मली है। यह शब्द शल्, शालः से ही बना है दिलचस्प यह कि इसी मूल से अंग्रेजी का हेल भी है।  नर्क की कल्पना दुनिया की सभी संस्कृतियों में है। अतृप्त आत्माओं, प्रेतों-पिशाचों का आवास। स्वर्ग से पहले का पड़ाव जहां से आगे सिर्फ पुण्यात्माएं ही जा सकती हैं। ये तमाम बातें तो दार्शनिक हैं, मूल रूप से हेल शब्द कब्र के लिए बना होगा। वह संकरा, छोटा कक्ष जहां शवों को दफनाया जाता होगा। बाद में मृतात्माओं के ठिकाने के तौर पर इसका अर्थ विस्तार होता चला गया और नर्क की कल्पना के साथ यह शब्द जुड़ गया। वैसे आज भी बेहद छोटी, तंग जगह की रिहाइश को नर्क की संज्ञा ही दी जाती है। इस अर्थ में झोपड़पट्टी की चालें तो यकीनन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नर्क की ख्याति अर्जित कर चुकी हैं।
[ चाल पर तीन हिस्सों में यह दीर्घ आलेख समाप्त। आश्रय श्रंखला जारी है ]
पिछली कड़ियां-

1.किले की कलई खुल गई.2.कोठी में समाएगा कुटुम्ब!3.कक्षा, कोख और मुसाफिरखाना.4.किलेबंदी से खेमेबंदी तक.5.उत्तराखण्ड से समरकंद तक.6.बस्ती थी बाजार हो गई.7.किस्सा चावड़ी बाजार का.8.मुंबईया चाल का जायज़ा.9.अंडरवर्ल्ड की धर्मशाला बनी चाल.

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Sunday, March 29, 2009

अकड़ू, अक्खड़, बदमिजाज …

rude011 दम्भी व्यक्ति कभी सीधी चाल नहीं चलता। वह हाथ-पैरों को कुछ अधिक हिलाता हुआ, फैंकता हुआ, तना हुआ सा चलता है। इसे ही वक्र चाल कहते हैं। यह दूसरों से अलग दिखने का तरीका है
ज्ञा नी कहते हैं कि सीधी राह भली। आड़ा-टेढ़ापन ठीक नहीं। सच्चाई की राह भी सीधी होती है, इसके बावजूद लोग टेढ़ी चाल ही चलना ज्यादा पसंद करते हैं और अकड़ दिखाने से बाज नहीं आते। अकड़ना शब्द पर गौर करें। पदार्थ के संदर्भ में अकड़ना शब्द का अर्थ है तनाव, झुकाव, कठोर होना, दोहरा होना, मुड़ जाना आदि। इसी तरह मनुष्य के संदर्भ में अकड़ या अकड़ना शब्द के मायने हैं झूठी शान दिखाना, दंभ करना, ऐंठ दिखाना, घमंड करना आदि।
संस्कृत के अङ्क (अंक) शब्द में मूलतः वक्रता अर्थात टेढ़ा-पन, उकेरना, कोण, शरीर के अवयवों में घुमाव आदि भाव शामिल हैं। शरीर के अवयवों के लिए अंग शब्द प्रचलित है जो अंक का ही अगला रूप है। अंग किसी वस्तु का प्रभाग या अवयव, अंश, खंड। घुटना, कोहनी, ऐड़ी आदि अवयवों में यह मोड़ या झुकाव साफ नज़र आ रहा है। मगर मूलतः अंग ही से पूरे शरीर का संचालन होता है। अर्थात अंग ही कार्यशील इकाइयां हैं। अकड़ बना है अङ्क में करण लगने से। जब अंग वक्र होने लगें, उसे अकड़, अकड़ना कहते हैं। अच्छी भली वस्तुओं का उपयोग न किया जाए तो उसके कलपुर्जे काम करना बंद कर देते हैं। लकड़ी सूख कर मुड़ने लगती है, इसे ही अकड़ना कहते हैं।
नुष्य के संदर्भ में इसे देखें तो दम्भी व्यक्ति कभी सीधी चाल नहीं चलता। वह हाथ-पैरों को कुछ अधिक हिलाता हुआ, फैंकता हुआ, तना हुआ सा चलता है। इसे ही वक्र चाल कहते हैं। यह दूसरों से अलग दिखने का तरीका है। चाल के इसी अनोखेपन को बांकापन कहते हैं। हालांकि बांकापन में समाया तिरछापन जहां मनोहारी अदा के तौर पर देखा जाता है वहीं अकड़ में स्वभाव का तिरछापन अर्थात कुटिलता समायी है। दिलचस्प यह कि बांका शब्द भी वङ्क से ही बना है। हिन्दी का वक्र शब्द जिसका मतलब भी एंठन और टेढ़ापन ही है, से भी अकड़ का गहरा रिश्ता है क्योंकि इसका मूल भी वङ्क ही है। घमंडी व्यक्ति न सिर्फ अकड़ कर चलता है बल्कि उसके स्वभाव में भी ऐंठन आ जाती है इसी लिए उसे अकड़ू भी कहा जाता है। गौर करें ऐंठना अपने आप में एक किस्म की वक्रता है। अकड़ में अंगों के काम न करने का भाव है। अकड़ू व्यक्ति अपने अंगों से खुद ही सामान्य काम न लेते हुए वक्रता प्रस्तुत करता है। मस्तिष्क का सही प्रयोग न करते हुए वह शातिर चालें चलता है इसीलिए टेढ़े व्यक्ति को वक्रबुद्धि भी कहा जाता है। यह वक्रता जब मूर्खता सिद्ध होने लगती है तब ऐसे लोगों को डेढ़ अक्ल की उपाधि से भी नवाज़ा जाता है।
मंडी के लिए कुछ इन्हीं अर्थो में अक्खड़ शब्द का भी प्रयोग होता है। यूं अक्खड़ शब्द रूखे, कठोर, ठेठ स्वभाव के व्यक्तियों के लिए ज्यादा प्रचलित है मगर इसके दायरे में असभ्य, जंगली, असंस्कृत, घटिया और जाहिल जैसे भाव भी शामिल हैं। अक्खड़ बना है अ+कृत्त से

... सभी जीवों में मानव को श्रेष्ठ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसे दया, करुणा, क्षमा, शील जैसे गुण ईश्वर ने दिये हैं। ...

जिसका मतलब हुआ अनिर्मित या अनगढ़। अधबना। मनुष्य के संदर्भ में इसकी व्याख्या आसान है। सभी जीवों में मानव को श्रेष्ठ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसे दया, करुणा, क्षमा, शील जैसे गुण ईश्वर ने दिये हैं। ये गुण मानवता के लिए आनंद की सृष्टि करते हैं। कठोरता, रुखापन या तो जड़ पदार्थों का स्वभाव है या पशुओं का। ऐसे में जिस मनुष्य में ये दुर्गुण हैं उसे अकृत्त ही कहा जाएगा अर्थात जो अभी बना नहीं है। अकृत्त का ही अपभ्रंश रूप अक्खड़ हुआ। अक्खड़ शब्द के मूल में मानवीय स्वभाव का अभाव ही परिलक्षित होता है। समाज में अक्सर अक्खड़ लोगों से सावधान रहने की सलाह दी जाती है क्योंकि उनमें परिपक्वता नहीं होती, सहज सद्गुणों का विकास नहीं होता जो कि ज़रूरी हैं। इसीलिए अक्खड़ और अकड़ू लोग दुनियादारी में सफल नहीं होते क्योंकि वे बदमिजाज होते हैं।
कुछ विद्वान अक्खड़ शब्द की व्युत्पत्ति अक्षर से बताते हैं। अक्षर का मतलब होता है अ+क्षर अर्थात अनश्वर। अक्षर को ब्रह्म इसीलिए कहा जाता है क्योंकि सृष्टि में यह हमेशा विद्यमान है। अक्खड़ व्यक्ति खुद को बदलना नहीं चाहता इसलिए उसकी व्युत्पत्ति अक्षर से मानी जाती है। मगर यह व्युत्पत्ति बहुत तार्किक नहीं है।

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Saturday, March 28, 2009

अंडरवर्ल्ड की धर्मशाला बनी चाल [आश्रय-9]

800px-Sawarankaron_ki_Dharamshala_(Goldsmith_Resthouse),_Railway_road,_Hariwarहरिद्वार के स्टेशन रोड स्थित स्वर्णकारों की धर्मशाला
मुं बइया चाल एक मंजिला या बहुमंजिला एक या दो कमरे के आवासों का संकुल है। इसमें कतार या पंक्ति का भाव प्रमुख है। संस्कृत के शालः शब्द में कतार, पंक्ति या लकीर का भाव छुपा है। दक्षिणी भाषाओं में इसके चाल्, चालु, साल जैसे रूप होते हैं। कतारबद्ध रिहायश के लिए चाल, सरणि अथवा प्रकोष्ठ के अर्थ में राजस्थानी के साल जैसे शब्दों का इनसे गहरा रिश्ता है।
......पुण्य कमाने की आशा में श्रेष्ठिवर्ग हर तीर्थस्थल पर अपने नाम से या समाज के नाम से धर्मशालाएं बनवाता था...
ल् धातु से ही निकला है शाला शब्द जो चाल के अर्थ को भी स्पष्ट करता है और चाल के मूल स्वरूप का भी पक्का प्रमाण माना जा सकता है। शल् धातु में आश्रय अथवा घिरे हुए स्थान का भाव है। शाला का मतलब होता है बड़ा कक्ष, कमरा अथवा विशाल प्रकोष्ठों का संकुल। स्टेडियम अथवा सभा स्थल के लिए प्रशाल शब्द का अभिप्राय भी किसी घिरे हुए स्थान से ही है। गौर करें कि स्कूल अथवा विद्याध्ययन केंद्र के रूप में शाला शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। इसका मूल रूप पाठशाला है। मगर प्राचीनकाल से शाला शब्द की सामूहिक आवास, निवास, सम्मेलन, जमाव जैसे शब्दों से रिश्तेदारी है। पाठशाला की बनावट पर गौर करें। एक कतार में बने कमरे। एक लंबा गलियारा। एक सार्वजनिक अहाता। सार्वजनिक प्रसाधनों का निर्धारित स्थान। शाला में कतार का ही महत्व है। प्रार्थना की कतार, कक्षा में पंक्तिबद्ध बैठक व्यवस्था। आगमन और निगमन की कतार। अनुशासन का पहला सबक पंक्ति-क्रम बनाना ही हम पाठशाला में सीखते हैं। सफर की नियमित पाठिका किरण राजपुरोहित ने इस संदर्भ में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। .राजस्थान में रजवाड़ों के ठिकानों, महलों और गांवों की हवेलियों में आज भी बड़े कमरों को साल कहा जाता है। इनके भीतर, या बाहर की तरफ छोटे दरवाजों वाले कक्ष होते हैं, जहां कीमती सामान रखा जाता है। इन सालों के नाम देखिये-जूनी साल, बड़ी साल या बैसा री साल। चाल शब्द से साल का अर्थसाम्य व ध्वनिसाम्य महत्वपूर्ण है।
कुछ शब्दों पर गौर करें। घुड़साल, पंसाल, पंसार, पंसारी, पाकशाला, टकसाल, यज्ञशाला। आदि। खोजने पर ऐसे अनेक शब्द मिल जाएंगे जिनके साथ शाला शब्द लगा है। पंसारी शब्द बना है पण्य+शाल से। पण्य यानी वस्तु, सामग्री। शाल यानी विशाल कक्ष। प्राचीनकाल में बड़े सार्थवाह के स्वामी, श्रेष्टिजनों के विशाल कोष्ठागार होते थे, ठीक आज के वेयर हाऊसों की तरह। यही पण्यशाला थी। इसका मालिक पण्यशालिक हुआ जिसका अपभ्रंश पंसारी हुआ। कहां थोक व्यापारी के रुतबे वाला बड़ा स्टाकिस्ट पण्यशालिक और कहां आज के रिटेल व्यापार की अंतिम कड़ी बेचारा पंसारी! जिस स्थान पर घोड़ों की परवरिश होती है उसे घुड़साल कहते हैं। निश्चित ही यह शब्द घोटकशाला से बना है। पुरानी घुड़सालों को देखें तो वहां घोड़ों को बांधने के कताबद्ध बाड़े जो विशाल कक्ष होते थे, मिलेंगे। रजवाड़ों के दौर के बाद अनेक स्थानो पर इन विशाल घुड़सालों को होटल मे तब्दील कर दिया गया है। ये तमाम शब्द भी मुंबइया चाल की एक कतार या पंक्ति में रिहायश को ही साबित कर रहे हैं।
ज जिसे हम धर्मशाला कहते हैं वह यात्री-निवास जैसी व्यवस्था है। हर शहर में होटल, लॉज आदि होते हैं। धर्मशाला से तात्पर्य एक ऐसे विश्रामस्थल से है जहां दूरदराज के यात्री आकर निशुल्क या रियायती दरों पर रुक सकते हैं। प्राचीनकाल में यात्राएं अक्सर धार्मिक प्रयोजनों से होती थीं और लोग विशिष्ट अवसरों पर प्रसिद्ध तीर्थस्थलों पर जाया करते थे। दूरदराज के तीर्थयात्री लंबी पदयात्रा के बाद कई दिनों तक यहां टिकते थे। पुण्य कमाने की आशा में श्रेष्ठिवर्ग हर तीर्थस्थान पर ऐसी धर्मशालाएं बनवाया करते थे। मगर धर्मशाला का मूल स्वरूप दरअसल पाठशाला का ही था। ज्यादातर तीर्थस्थलों को किसी न किसी धार्मिक स्थल की वजह से ही महत्ता मिली है। चाहे वह हिन्दू , बौद्ध या जैन तीर्थ हो। नदियों किनारे ऋषिमुनियों के चातुर्मासी प्रवास भी उसे तीर्थ का दर्जा देते थे। धीरे धीरे ये बड़े मंदिरों और मठों का संकुल बन गए। यहां धार्मिक शिक्षा भी दी जाती थी जिसका प्रबंध मंदिरों से जुड़े मठ करते थे। चूंकि सन्यस्त व्यक्ति ही मठवासी हो सकता है इसलिए विद्याध्ययन के लिए शांत-सुरम्य स्थानों पर धर्मशालाएं बनवाई गईं। चातुर्मास अवधि का लाभ लेने यहां हर वर्ग के लोग आते

पाठशालाओं में बिखरता कतार का अनुशासनRural_school_and_students

और ठहरते तथा धार्मिक शिक्षा लेते थे। ऐसे पवित्र और प्राकृतिक स्थान पर ज्ञानार्जन का अलग महत्व होता है। बदलते वक्त में धार्मिक शिक्षा का महत्व कम होता गया, साथ ही यातायात के तेज साधनों ने चातुर्मास अवधि का महत्व भी घटा दिया, मगर तीर्थयात्राएं और बढ़ गईं। इस तरह धर्मशालाओं को यात्री निवास का रूप मिला।
माधव गोविंद वैद्य(शिक्षाविद, चिंतक ) अपनी संस्कृति पुस्तक में धर्मशाला की बहुत सुंदर दार्शनिक व्याख्या करते हैं। उनके मुताबिक व्यक्ति स्वयं को बड़ी इकाई में समर्पित कर दे, वही धर्म है। खुद के लिए आलीशान मकान बनवाना धर्मकार्य नहीं कहलाएगा मगर जब दूसरों के निवास के लिए आवास बनवाते हैं तो उसे धर्मशाला कहा जाता है। वहां कोई पूजा-पाठ, यज्ञ-कर्म आदि नही होते तो भी वह धर्मशाला क्यों है ? वैद्यजी का जवाब है, केवल इसलिए क्योंकि वहां व्यक्ति खुद को समूह अथवा समाज से जोड़ता है। यही धर्म है। इसीलिए जो आश्रय धर्म का निमित्त बना वह धर्मशाला है। मुंबईया चालों में सुदूर अंचलों से आए मेहनतकशों, श्रमजीवियों ने दशकों पहले परस्परता और सहअस्तित्व वाला आदर्श समाज रचा। मुंबई की चालों में सर्वधर्म-समभाव बसता रहा है, यह हमने किताबों में पढ़ा और फिल्मों में देखा। अफसोस है कि पाठशाला और धर्मशाला से रिश्तेदारी वाली चाल अब गुंडे मवालियों और अंडरवर्ल्ड सरगनाओं की “धर्मशाला” भी है जहां बसने से उन्हें “अनोखा पुण्य” मिलता है। -जारी

इस श्रंखला की पिछली कड़ियां-

1.किले की कलई खुल गई.2.कोठी में समाएगा कुटुम्ब!3.कक्षा, कोख और मुसाफिरखाना.4.किलेबंदी से खेमेबंदी तक.5.उत्तराखण्ड से समरकंद तक.6.बस्ती थी बाजार हो गई.7.किस्सा चावड़ी बाजार का.8.मुंबईया चाल का जायज़ा

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Friday, March 27, 2009

द्रोण, दोना और डोंगी…[पोत-1]

मतौर पर पौराणिक ग्रंथों, ऐतिहासिक-पुरातात्विक स्मारकों से मिलनेवाले प्रमाणों और संकेतों को ही लोग अतीत की सभ्यता-संस्कृति को समझने का जरिया मानते हैं। मगर बीती डेढ़ सदी में दुनियाभर की प्राचीन सभ्यताओ-संस्कृतियों को समझने में भाषा विज्ञान का योगदान अभूतपूर्व रहा है। अतीत के साक्ष्य मिट जाते हैं मगर पुरा सभ्यता के पुख्ता प्रमाण विभिन्न लोकभाषाओं में हैं जिनके जरिये मिलते निष्कर्षों को नकारा नहीं जा सकता। भाषाओं के विकासक्रम पर अगर नज़र डालें तो यह तथ्य
   लकड़ी के शहतीरों को जोड़ कर नौका निर्माण की तकनीक मनुष्य ने बाद में सीखी, उससे पहले समूचे वृक्ष के खोखले तने का नाव के तौर पर उपयोग करना उसे सूझा। village s_Carving_a_Dugout_Canoe_Great_Falls_ MT182149Papyrus reed boat or "tankwa", Lake Tana, Ethiopia, Africa 250px-Dcp_5863 
भी पता चलता है कि विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में भी मनुष्य की चिंतन प्रणाली एक जैसी थी।
प्रारम्भिक मनुष्य ने स्थल मार्ग पर ही यात्राएं की। तटवर्ती क्षेत्रों के लोगों ने ही यात्रा के लिए जलमार्गों और जलपरिवहन की शुरूआत की। प्राचीनकाल में प्रायः सभी सभ्यताओं में मनुष्य ने पानी में सुरक्षित आवागमन के लिए वनस्पति का सहारा लिया। प्रारम्मिक तौर पर टहनियों, पत्तों को जोड़ कर अनघड़ से बेड़े बनाए गए। लकड़ी के शहतीरों को जोड़ कर नौका निर्माण की तकनीक मनुष्य ने बाद में सीखी, उससे पहले समूचे वृक्ष के खोखले तने का नाव के तौर पर उपयोग करना उसे सूझा। वृक्ष के खोखल का यह अनूठा प्रयोग किसी एक स्थान से पूरी दुनिया में प्रसारित नहीं हुआ होगा बल्कि यह तरकीब सहज बुद्धि से अलग अलग कालखंडों में विभिन्न मानव-समूहों को सूझी।
नाव के लिए प्रचलित अंग्रेजी, स्वाहिली, संस्कृत और हिन्दी में प्रचलित कुछ शब्दों पर गौर करने से यही बात सामने आती है। पानी पर तैरती छोटी सी नाव को डोंगी कहा जाता है। चाहे कश्मीर की झीलें हों, मैदानी नदियां हों या शांत समंदर, डोंगी शब्द हर भाषा में प्रचलित है और खूब बोला-समझा जाता है। भारतीय मूल अर्थात संस्कृत से निकला यह शब्द अफ्रीकी तट पर भी जाना जाता है तो ब्रिटेन समेत यूरोप की भाषाओं में भी डोंगी शब्द कुछ बदले हुए रूप में मौजूद है। संस्कृत में एक धातु है द्रु जिसकें वृक्ष का भाव है। इससे ही बना है द्रुमः शब्द जिसका अर्थ भी पेड़ ही होता है और द्रुम के रूप में यह परिनिष्ठित हिन्दी में भी प्रचलित है। द्रु शब्द से ही बना है संस्कृत का द्रोणः शब्द जिसका अर्थ होता है काठ का बना हुआ शंक्वाकार पात्र। हिन्दी का दोना-पत्तल वाला दोना इसी द्रोण से बना है। सामूहिक भोज में पत्तों से बने ऐसे ही द्रोण में दाल या तरीदार सब्जी परोसी जाती है।   
दिलचस्प बात यह कि मनुष्य जब चुल्लू भर-भर पानी पी कर थक गया तो उसने पत्ते के मोड़ कर द्रोण या दोना बनाने की तरकीब ईजाद की ताकि उसमें पानी भर सके। बाद में इस द्रोण को ही पानी पर तैरा दिया! तीर्थस्थलों पर पत्तों से बने ऐसे ही द्रोण पावन नदियों में श्रद्धास्वरूप तैरा कर शाम के समय दीपदान करने की परिपाटी रही है। माली समुदाय के लोग द्रोण बनाने का काम करते हैं। गोल आकार के दोनों के अलावा दीपदान वाले द्रोण की नौका जैसी आकृति पर ध्यान दें तो साफ होता है कि इसी आकार के चलते द्रोणिका से डोंगी शब्द बना है। संस्कृत और परिनिष्ठित हिन्दी में द्रोणिः या द्रोणि दो पहाड़ों के बीच की घाटी को कहते हैं। द्रोण या द्रोणिका पहाड़ी सरोवर के लिए भी प्रयुक्त होता है। द्रु से ही बना है दारुकः शब्द जो एक प्रसिद्ध पहाड़ी वृक्ष है जिसका नाम देवदारु है। द्रुः अर्थात वृक्ष के खोखल को जब मनुष्य ने पानी में बहते देखा तो उसने इसे भी द्रोणिः ही कहा जिसका अपभ्रंश रूप ही डोंगी है। बाद में विशाल मगर पोले तनों वाले वृक्षों को आग से जला कर खोखला किया जाने लगा और इस तरह बडे़ पैमाने पर डोंगियां बनाई जाने लगीं। यह क्रम तब तक जारी रहा जब तक मनुष्य ने रस्सी, कील और आरी जैसे उपकरण नहीं बना लिए। उसके बाद ही लकड़ी के तख्तों को काट कर, उन्हें जोड़ कर सुविधाजनक आकार में पोत बनने शुरू हुए। चौडें मुंह वाला डोंगा नामका एक बड़ा सा पात्र भी होता है जिसमें सालन रखा जाता है।
अंग्रेजी में इसका डिंघी dinghy रूप प्रचलित है जो संभवतः फ्रैंच भाषा से शामिल हुआ। मूलतः डोंगी का यह रूप स्वाहिली भाषा का है। अफ्रीका के पूर्वी तटवर्ती प्रदेशों में यह भाषा बोली जाती है जहां से प्राचीन भारतीयों के सदियों पुराने कारोबारी रिश्ते रहे हैं। अफ्रीकियों ने भारतीयों से नौपरिवहन की बारीकियां सीखी। डोंगी शब्द उन्होंने भारतीय नाविकों से ही सीखा। इनमें से कई क्षेत्र फ्रांस के उपनिवेश थे इस तरह डिंघी शब्द यूरोप भी पहुंचा।
लपोत के अर्थ में अंग्रेजी के शिप शब्द का निर्माण भी द्रु से बनी डोंगी जैसा रहा। भारोपीय भाषाओं में काटने, तोड़ने, विभक्त करने के लिए एक धातु है स्कै skei जिसका संस्कृत रूप है छिद् जिसमें भी काटना, विभक्त करना, टुकड़े करना जैसे भाव है। शिप ship का पुराना रूप था स्किप scip जो प्रोटो जर्मनिक के स्किपन से आया। जर्मन में इसका रूप है शिफ़ Schiff। मूल रूप से इस स्कै धातु में वृक्ष को खोखला करने या विभक्त करने का ही भाव है। मोटे वृक्षों को काट कर मनुष्य लंबाइ में उसे दो भागों में विभक्त करता था। इस तरह दोनो टुकड़ों को बीच से खोखला कर एक वृक्ष से दो नौकाओं का निर्माण हो जाता था। बाद में मस्तूल वाली नौकाओं के लिए शिप शब्द का प्रयोग होने लगा। मस्तूल वाले पोत की शान ही कुछ और थी। जहाजों के बेड़े में खास पोत पर ध्वज लगाया जाता था। उसे फ्लैगशिप कहते थे। आगे चलकर प्रमुख या खास के अर्थ में फ्लैगशिप मुहावरा चल पड़ा।

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Thursday, March 26, 2009

मुंबईया चाल का जायज़ा [आश्रय-8]

 
जिस दौर में मुंबई में चालें आकार ले रही थीं, कमोबेश उन्हीं हालात में उससे कुछ अर्सा पहले सुदूर पूर्व में बीजिंग, शंघाई, ढाका, कोलकाता, चेन्नई, से लेकर बोस्टन, न्यूयार्क तक ऐसी ही आवासीय व्यवस्थाएं बन चुकी थीं मगर शोहरत चाल को ही मिलीomkarmhsdharavi-sकोलीवाड़ा, धारावी की एक चाल चित्र साभार airoots.org

मुं बई की विश्वप्रसिद्ध चाल के बारे में ज्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। संभवतः इन्हें अब वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा भी मिलने वाला है। जो लोग मुंबई नहीं गए हैं, फिल्मों के जरिये ही ज्यादातर भारतीयों का परिचय चालों से हुआ। मुंबई के जीवन पर बनी फिल्म में चाल न हो, ऐसा हो नहीं सकता। लोकल ट्रेन की तरह ही मुंबई की आत्मा भी चालों में बसती है। एक जिज्ञासा अर्से से  रही कि चाल का मतलब क्या होता है। चाल शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में मुझे कोई ठोस जानकारी नहीं मिली। मुंबई से जुड़े जितने भी संदर्भों को मैने टटोला है वहां चाल के सामाजिक संदर्भों पर तो लिखा गया है मगर बसाहट के तौर पर इस शब्द का खुलासा नहीं मिलता। मेरे अपने कुछ अनुमान, कुछ निष्कर्ष यहां प्रस्तुत हैं।
मुंबई चाल की व्युत्पत्ति पर चर्चा करने से पहले चाल की बसाहट-बनावट को समझ लें। आज से करीब डेढ़ सदी पहले अंग्रजी राज में मुंबई तेजी से बड़े आर्थिक केंद्र के रूप में विकसित होने लगी थी। देशभर के विभिन्न हिस्सों से यहां कामगार आने लगे थे जो मुख्यतः निर्माण मजदूर थे। राजस्थान से मारवाड़ी समुदाय के हजारों लोग सट्टा, हुंडी, व अन्य व्यवसायों के लिए मुंबई को अपनी कर्मभूमि बना चुके थे। चाल जैसी रिहायशी व्यवस्था भारी तादाद में मुंबई आने वाले आप्रवासियों के आश्रय की वजह बनी जिसमें निम्नमध्यमवर्गीय और मध्यमवर्गीय परिवारों ने मिल-जुल कर एक ऐसे आत्मीय परिवेश का निर्माण किया जिसने इसे दुनियाभर में मशहूर कर दिया। हालांकि जिस दौर में मुंबई में चालें आकार ले रही थीं, कमोबेश उन्हीं हालात में उससे कुछ अर्सा पहले सुदूर पूर्व में बीजिंग, शंघाई, ढाका, कोलकाता, चेन्नई, से लेकर बोस्टन, न्यूयार्क तक ऐसी ही आवासीय व्यवस्थाएं बन चुकी थीं मगर शोहरत चाल को ही मिली। अनुमान है मुंबई में पिछली सदी की शुरूआत से चालें बनने लगी थीं। यह वही दौर था जब मुंबई में लगातार मिलें खुल रही थीं जिनमें काम करने वाले लोगों को लिए मिल क्षेत्र के आसपास ही चालों के निर्माण का क्रम शुरु हुआ।
चाल दरअसल भूमि के चौरस टुकड़े पर बनी चार पांच मंजिला इमारत को कहते हैं। इसके हर तल पर कतार में एक दूसरे से जुडे दो कमरों की दस से पंद्रह इकाइयां होती हैं। कुछ इमारतों में चारों तरफ ऐसी ही आवासीय इकाइयां होती थीं और बीच में विशाल दालान होता था जिसमें कुआ, हैंडपम्प होते। हर मंजिल पर सार्वजनिक शौचालय होता। कुछ इमारतों में अंग्रेजी के सी आकार में तीन तरफ निर्माण होता है। ऐसी इमारतों में चाल का स्वरूप बाहर से ही साफ नजर आता है। सभी आवासीय इकाईयां  अगले और पिछले हिस्से में लंबी बालकनी से जुड़ी रहती है। हालांकि ऐसी चालों का निर्माण अब बंद हो गया है मगर सत्तर-अस्सी साल पुरानी कई चाले हैं जो अभी भी आबाद है। औद्योगिक विकास के साथ जब झोपड़पट्टी का विस्तार हुआ तो कतारनुमा मकानों को
88209853_3ea70e6d1d फोटो सौजन्य फ्लिकरmunicipalchawl धारावी की म्यूनिसिपल चाल.चित्र साभार airoots.org
भी चाल का नाम मिल गया।
क बात जो पकड़ में आ रही है वह है चाल के साथ कतार में बने आश्रयस्थल का भाव। मुंबई की विश्वप्रसिद्ध चाल की व्युत्पत्ति के मूल में संभवतः संस्कृत का शालः शब्द है जिसका अर्थ होता है कतार, पंक्ति, क्यारी, बाड़ा आदि। चाल शब्द संस्कृत शाल का ही रूप है। मगर इसका चाल रूपांतर दक्षिणी भाषाओं में ही हुआ है। तमिल चाल् का अर्थ है खेत में बुवाई करने के लिए बनाई गई लंबी क्यारी अथवा नाली। खेत की मेड, जिस पर चल कर किसान आते-जाते है, भी चाल् कहलाती है। संस्कृत में धान के नन्हें रोपों की कतार को शालि ही कहते हैं जिसमें पंक्ति या सरल रेखा का ही भाव है। सीधी रेखा वाला यही भाव खेत में हल जोतने से बनी सरल बुवाई पंक्ति से भी जुड़ता है। इसी का सजातीय समर्थी शब्द है शील जिसका अर्थ भी सीधा, सरल, अग्रगामी, चिन्तन-मनन, अभ्यास या कृषिकर्म आदि है।

 कन्नड़ में इसका रूप साल है। दक्षिणी भाषाओं में मराठी के बाद कन्नड़ पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। शाल् का कन्नड़ में साल रूप यही दर्शाता है। तेलुगू चालु और मलयालम चाल् में भी यही भाव हैं। वैसे यह तमिल चाल् का परिवर्तन भी हो सकता है पर दोनों में भाव वही है। बांग्ला में कतार के लिए सारि शब्द है। एक पंक्ति में बने मकानों की गली को सरणि कहा जाता है। जैसे रवीन्द्र सरणि। यह सारि या सरणि शब्द भी शालः का ही रूपांतर है। चाल भी एक कतार वाले आवासों को ही कहते हैं।
गौर करें कि मुंबई में कई चालों का समूह वाड़ी या वाड़ा कहलाता है। शालः का एक अर्थ घिरा हुआ स्थान या बाड़ा भी यही साबित कर रहा है कि चाल के लिए यह विशेषण भी प्राचीन शालि या शालः से ही निकला है। संस्कृत का शालः बना है शल् धातु से जिसमें तीक्ष्ण, तीखा, हिलाना, हरकत देना, गति देना, उलट-पुलट करना जैसे भाव है। ये सभी भाव भूमि में हल चला कर खेत जोतने की क्रिया से मेल खाते हैं। हल की तीक्ष्णता भूमि को उलट-पुलट करती है। शालः शब्द के मूल में बाड़ा अथवा घिरे हुए स्थान का अर्थ भी निहित है। भूमि में शहतीरों को गाड़ कर प्राचीन काल में उसके चारों और बाड़ बनाकर आश्रय का निर्माण किया जाता था। उत्तर भारत से पहले मुंबई में बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय मजदूर पहुंचते रहे हैं। यूं भी मराठी पर दक्षिणी बोलियों का भी असर है तो ताज्जुब नहीं कि कोंकण क्षेत्र में कतारनुमा बसाहट के लिए चाल शब्द पहले से प्रचलित रहा हो। यह भी संभव है कि दक्षिणी आप्रवासियों ने जब कतारनुमा आशियानों में रहना शुरू किया तब उनकी बोली के जरिये इनके लिए चाल शब्द प्रचलित हो गया।            -जारी
इस श्रंखला की पिछली कड़ियां-
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Wednesday, March 25, 2009

अरदली की कतार में खड़े लोग…

260697576_221f864d34बाज, कुत्तों और अरदलियों के साथ अवध के नवाब का शिकार पर निकलना यूं हुआ करता था। 1844 की एक लिथो पेंटिंग
कि सी के मातहत काम करने के संदर्भ मे हिन्दी में अक्सर एक मुहावरा प्रचलित है अरदली में रहना, अरदली करना या अरदली में चलना। यह बना है अर्दली या अरदली शब्द से जिसकी बनावट और ध्वनियों की वजह से पहली नजर में यह उर्दू-फारसी का लगता है पर मूलतः यह शब्द बना है अंग्रेजी के आर्डली (आर्डरली) से जिसका मतलब होता है सुव्यवस्थित, अनुशासित रूप से कार्य करनेवाला मगर व्यवहार में आर्डली से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो किसी ओहदेदार का सहायक, अनुचर या परिचर होता था। भारत में आमतौर पर अर्दली की पहचान  नौकर की रही। पुराने ज़माने में किसी रसूखदार का अरदली हो जाना बड़ी शान की बात हुआ करती थी। आज भी इसमें कमी नहीं आई है।
अंग्रेजी राज में ही आर्डली orderly शब्द रियासती राजकाज की भाषा का हिस्सा बन चुका था जिसका उर्दू संस्कार अर्दली के तौर पर हुआ। ठीक वैसे ही जैसे ज्योग्रॉफी geography  से उर्दू-पंजाबी का जुगराफिया बना। अंग्रेजी राज में आर्डली एक ऐसा सहायक होता था जो उसकी राह आसान करते हुए उसके बताए हुए कामों का बेहतर इंतजाम करते हुए अधिकारी के आगे-पीछे चलता था। आमतौर पर फौज और सामान्य प्रशासन में इस शब्द को अपनाया गया। सहायक या अनुचर की भूमिका में जन-समान्य में नौकर-सेवक-भ्रत्य जैसे शब्द चलते रहे। इससे ही अरदली मुहावरा भी बना जिसका मतलब किसी की सरपरस्ती में, मातहती में जीविकोपार्जन करनेवाला। अरदली या ऑर्डली शब्द में ऑर्डर शब्द साफ नुमायां हो रहा है।
र्डर भारोपीय भाषा परिवार से जुड़ा शब्द है और इसमें भी संस्कृत के अथवा वर्ण की महिमा झांक रही है। इसका हिन्दी में प्रयोग आमतौर पर आदेश, हुक्म या आज्ञा के तौर पर होता है जिसका सीधा संबंध अरदली से जुड़ता है। मगर मूल रूप में ऑर्डर में क्रम, पंक्ति, एकसूत्रता, सरलता, वर्ग, श्रेणी, कोटि और व्यवस्था जैसे भाव शामिल हैं। इनमें क्रम सबसे महत्वपूर्ण है। आजकल के अर्दली खुद ऑर्डर देते हैं, अफसर के मुलाकातियों को कतार में खड़ा करते हैं। आर्डर शब्द बना है मूल इतालवी भाषा की धातु ored(h) से जिसमें व्यवस्था का भाव है। इससे लैटिन का ऑडिनेम , फ्रैच का ऑद्रे और अंग्रजी का ऑर्डर शब्द बना जिसमें पंक्ति, व्यवस्था जैसे अर्थ समाए हैं। गौर करें, इन तमाम शब्दों में छुपे भावों में क्रम सबसे महत्वपूर्ण है। क्रम में शामिल भाव बहुत व्यापक हैं। आदेश पालन में क्रम ही महत्वपूर्ण है। कोई भी आदेश, किसी व्यवस्था के तहत और व्यवस्था निर्माण के लिए होता है। व्यवस्था किन्हीं चीज़ों या बातों को क्रम देने का ही नाम है। क्रम का स्वरूप हमेशा सरल या रैखिक ही होता है। कतार के अर्थ में अंग्रेजी का रो row शब्द भी इसी कड़ी का हिस्सा है। भारोपीय भाषा परिवार की एक धातु है  री rei जिससे आर्डर या रो जैसे शब्द बने हैं।
संस्कृत में ऋष या रिष् धातु का अर्थ है कुरेदना, खुरचना, जख्मी करना आदि। संस्कृत के ऋष् शब्द में कुरेदना, खंरोचना, काटना, छीलना आदि भाव समाहित हैं। ऋष् का अपभ्रंश रूप होता है रिख जिसका

     पुराने ज़माने में किसी रसूखदार का अरदली हो जाना बड़ी शान की बात हुआ करती थी। आज भी इसमें कमी नहीं आई 260703193_7026a5e6cf

मतलब होता है पंक्ति। हिन्दी का रेखा इससे ही बना है। मराठी में रेखा को रेषा कहते हैं। प्राचीनकाल में अंकन का काम सबसे पहले पत्थर पर शुरू हुआ था। पत्थरों पर उत्कीर्ण लकीर में ऋष् धातु में निहित कुरेदने, खरोचने की बात साफ हो रही है। दुनिया की प्राचीनतम रेखा किसी काग़ज़ पर नहीं बल्कि पत्थर पर ही उकेरी गई थी।
गौर करें रो और रेखा की समानता पर। बसाहट के अर्थ में भी कतार, पंक्ति का भाव आता है। बांग्ला में सरणि शब्द आम है। सिविल लाइन या पुलिस लाइन की तरह वहां सरणि शब्द चलता है। रो हाऊसिंग भी इसी तरह का प्रयोग है। या सरल रेखा के अर्थ में ही राह की पहचान होती है जिसका संबंध ऋ धातु से है। फारसी में रिश्ता तन्तु, सूत्र या धागे को कहते हैं जिसे रेखा के अर्थ में समझा जाता है और जिसका अर्थ विस्तार संबंध में होता है। संस्कृत का मराठी का रेषा, हिन्दी का रेशा एक ही धागे से बंधे हैं जिससे रेशम जैसा शब्द भी बना है।  रिश्ता भी एक धागा है जो दो लोगों में रिश्तेदारी अर्थात संबंध बनाता है। कुरेदने, खरोचने की क्रिया के जरिये ही प्राचीन मानव ने चिह्नांकन सीखा। यही रेखांकन है। रेखा, क्रम का विस्तार ही पदानुक्रम में आता है जिसके लिए अंग्रेजी में रैंक शब्द प्रचलित है और हिन्दी में भी यह आम बोलचाल में प्रचलित है। आर्डर का रिश्ता क्रम या पंक्ति से स्थापित हो चुका है। व्यवस्था तभी बनती है जब उसकी कोई प्रणाली हो। यही रीति कहलाती है जो ऋत् धातु से बनती है। ऋत् में भी क्रम निहित है। मौसम के लिए ऋतु शब्द में एक खास अनुशासन, क्रम या चक्र साफ समझा जा सकता है। इसका बदला हुआ रूप रुत है जिसका प्रयोग रुत बदलना जैसे मुहावरे में भी होता है जो  परिवर्तन को ही इंगित करता है।

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Monday, March 23, 2009

तू-तड़ाक के बहाने कुछ शब्द…

वाटर स्टोरेज के अर्थ में अंग्रेजी का टैंक शब्द दरअसल पुर्तगालियों की देन है। WaterTank
अं ग्रेजी में टैंक शब्द के दो मायने हैं। पहला, पानी का प्राकृतिक या कृत्रिम भंडारण। दूसरा तोप लगा युद्ध वाहन। इसी तरह हिंदी में भी इससे मिलते जुलते शब्द हैं मसलन टांका, टांकी या टंकी। गुजराती, मराठी और राजस्थानी में भी करीब करीब ऐसे ही शब्द हैं। इनके मायने भी जलाशय, झील या पानी के भंडारण के अर्थ में हैं। ये तमाम शब्द बने हैं संस्कृत के तड़ागम् से जिसका मतलब होता है झील, जलाशय तालाब,गहरा जोहड आदि। इन तमाम शब्दों की रिश्तेदारी तू-तड़ाक और प्रताड़ना से भी है जिसके बाद आंसुओं की धार लग जाया करती है। 
लाशय प्राकृतिक भी होते हैं और मानवनिर्मित भी। पानी की कमी वाले स्थानों पर कृत्रिम जलाशयों का निर्माण पुराने जमाने से होता रहा है। सस्कृत की एक धातु है तड् जिसका मतलब होता है आघात करना। गौर करें जलाशय का निर्माण धरती की खुदाई से ही सम्पन्न होता है। खुदाई करने की क्रिया धरती की सतह पर आघात करने से ही सम्पन्न होती है। तड् में मारना, पीटना आदि भाव भी शामिल हैं। गाल पर चांटा मारने के अर्थ में तड़ शब्द में इसी पिटाई का भाव है।  शरीर पर आघात किया जाता है तब भी वेदनास्वरूप अश्रुजल ही निकलता है। धरती के सीने पर जब आघात किया जाता है तब भी जल नकलता है। प्राकृतिक लक्षणों पर गौर करें, शायद हमें किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिले।
ब बोली ही किसी आघात से कम न हो तो उसे मुहावरेवाली भाषा में तू-तड़ाक कहा जाता है। यह तड़ाक भी इसी तड् से आ रहा है। बंदूक से निकलती गोलियों के लिए भी तड़ातड़ जैसा शब्द प्रचलित है जो इसी मूल से निकला है। आकाशीय विद्युत के लिए संस्कृत का तड़ित शब्द हिन्दी में भी प्रचलित है। आसमान से गिरने वाली गाज एक तरह का आघात ही है, इसीलिए उसे गाज गिरना भी कहा जाता है। यहां तड़ित नाम सार्थक है। शारीरिक प्रताड़ना और मानसिक प्रताड़ना शब्दों पर गौर करें। पिटाई शारीरिक प्रताड़ना कहलाती है जबकि दबाव डालना, बहलाना, फुसलाना मानसिक प्रताड़ना। ये दोनों ही बातें एक किस्म का आघात है। इसीलिए तड् से ही ताड़ना शब्द बना जिसमें प्र उपसर्ग लगने से बना है प्रताड़ना जिसका मतलब भी आघात ही होता है।
वाटर स्टोरेज के अर्थ में अंग्रेजी का टैंक शब्द दरअसल पुर्तगालियों की देन है। पुर्तगालियों ने जब पंद्रहवीं सोलहवीं सदी में भारत के पश्चिमी तट पर स्थित दियू-दमण पर कब्जा किया तो वे गुजराती संस्कृति के संपर्क में आए। जल भंडार के अर्थ में तब उन्हें एक नया शब्द जानने को मिला टांख या टांका। पुर्तगाली भाषा में इसका रूप tanque हुआ । यहीं से यह अंग्रेजी में गया और टैंक के रूप में ढल गया जहां इसका मतलब हुआ पानी की बड़ी सी टंकी, नांद या हौद। आज जिसे हम हिन्दी में टंकी कहते हैं दरअसल अंग्रेजी का टैंक इसी पर खड़ा है। मिलिटरी में इस टैंक शब्द के प्रयोग का किस्सा दिलचस्प है। 1915 में जब प्रथम

americatank ... जिस स्थान पर प्रयोग चल रहे थे वहां ये बात फैला दी गई थी कि यहां एक बड़ी पानी की टंकी बनाई जा रही है अर्थात टैंक बनाया जा रहा है। ...

विश्वयुद्ध का दौर था, ब्रिटिश फौज में एक बहुउपयोगी युद्ध वाहन विकसित करने के गुप्त मिशन को अंजाम दिया जा रहा था। जिस स्थान पर प्रयोग चल रहे थे वहां ये बात फैला दी गई थी कि यहां एक बड़ी पानी की टंकी बनाई जा रही है अर्थात टैंक बनाया जा रहा है। उस समय फौजी हल्कों में टैंक इस संभावित मशीन का कोडनेम बन गया। गौरतलब है कि यह कूटनाम भी इसलिए बना क्योंकि इस नए यद्ध वाहन का जो मुख्य ढांचा तब तक बना था वह काफी कुछ वाहन पर ले जाए जाने वाले पानी के टैंक से मिलता-जलता था। बस, इसके बाद जब मिशन पूरा हो गया तो उस अनोखे युद्ध वाहन को बजाय कोई नया नाम मिलने के जो नाम मिला वह था टैंक।
टैंक से निकलने वाले गोले भी बडे बडे़ निर्माणों को आघात ही पहुंचाते हैं, सो तड् धातु के निहितार्थ का इससे भी सीधा रिश्ता जुड़ रहा है। यूं तालाब लफ्ज भी आमतौर पर पूरे भारत में झील, जोहड़ आदि अर्थों में बोला-समझा जाता है । इसका जन्म हुआ है संस्कृत की तल् धातु से जिसमें गड़्ढा, पोखर,सरोवर निचली सतह अथवा झील जैसे अर्थ समाहित हैं। तल् से ही बने तलकम् और तलम् जैसे शब्दों से बना तालाब शब्द। इसे संयोग ही मानना चाहिए कि तालाब से निकलने वाली अन्त्य ध्वनि आब का अर्थ भी पानी ही होता है।

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Saturday, March 21, 2009

मियां, ऐश हो रही है !!!


सु ख-समृद्धि की ज़िंदगी के लिए ऐश शब्द का प्रयोग किया जाता है। अक्सर ही इसका इस्तेमाल मुहावरे की तरह भी होता है। ऐश शब्द में बेफिक्री के साथ गुज़र-बसर करने का भाव होता है प्रमुख है इसीलिए जेल में बंद सजायाफ्ता मुजरिमों के लिए भी ऐश करना मुहावरा प्रयोग किया जाता है क्योंकि जेल उनके लिए किसी ऐशगाह से कम नहीं होती।
न्सान को जीने के लिए क्या चाहिए? हवा, पानी और रोटी। और ज्यादा की बात करें तो सिर और बदन पर साया (कपड़ा-मकान) भी इसमें जोड़ लीजिए। ज्यादातर लोगों के लिए ये तमाम चीज़े तो जीवन का आधार हैं। इनके जरिये सिर्फ जिंदा रहा जा सकता है, ऐश नहीं की जा सकती। दिलचस्प बात यह कि किसी ज़माने में ऐश का वह मतलब नहीं था जो आज प्रचलित हो चुका है।ऐश aish अरबी भाषा का शब्द है जिसका मतलब होता है रोटी, ब्रेड। अरबी में ही इसका एक अन्य अर्थ भी होता है जीवन।  दार्शनिक अर्थ में विचार करें तो यह सच भी है। इन्सान को हवा-पानी तो ईश्वर ने मुफ्त में दिया। मगर इसके बूते उसकी जिंदगी चलनी मुश्किल थी। उसने तरकीब लगाई। मेहनत की और रोटी बना ली। बस, उसकी ऐश हो गई। हर तरह से वंचित व्यक्ति के लिए सिर्फ रोटी ही जीवन है। रोटी जो अन्न का पर्याय है, अन्न से बनती है। लेकिन बदलते वक्त में ऐश में वे तमाम वस्तुएं भी शामिल हो गईं जिनमें से सिर्फ रोटी को गायब कर दिया जाए तो उस तथाकथित ऐश से हर कोई तौबा करने लग जाएं। कबीरदास के शब्दों में भी ऐश का अर्थ वहीं है-साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय। मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय।।
श से ही बना है फारसी, उर्दू, हिन्दी का अय्याश शब्द। अय्याश का जिक्र होते ही एक नकारात्मक भाव उभरता है। सुखविलास के सभी साधनों का अनैतिक प्रयोग करनेवाले के को आमतौर पर अय्य़ाश कहा जाता है। मद्दाह साहब के शब्दकोश में तो लोभी, भोगी के साथ व्यभिचारी को भी अय्याश की श्रेणी में रखा गया है। यह अय्याश शब्द भी ऐश की ही कतार में खड़ा है और उसी धातु से निकला है जिसका मूलार्थ जीवन का आधार रोटी थी मगर जिसका अर्थ समृद्धिशाली जीवन हो गया। उर्दू-फारसी-अरबी में लड़कियों का एक नाम होता है आएशा/आयशा ayesha जो इसी कड़ी का शब्द है मगर इसमें सकारात्मक भावों का समावेश है। आयशा का मतलब होता है समृद्धिशाली, सुखी, जीवन से भरपूर। पैगम्बर साहब की छोटी पत्नी का नाम भी हजरत आय़शा था और उन्हें इस्लाम के अनुयायियों की मां का दर्जा मिला हुआ है। अरबी के आएशा/आयशा से कुछ संगति हिन्दी के ऐश्वर्या से जुड़ती हुई लगती है। ऐश्वर्या का वही अर्थ है जो आएशा का है, मगर इन दोनों शब्दों का मूल अलग है। ऐश्वर्य या ऐश्वर्या बना है संस्कृत के ईश्वर से। जो परमसत्ता है, जो स्वयंप्रभु है, सर्वशक्तिमान है और इसलिए ईश्वर है। जाहिर है सुख और समृद्धि जैसे भाव तो ईश्वर में निहित हैं इसीलिए ऐश्वर्य का अर्थ ही सुख, संपत्ति, प्रभुता और शक्ति है। ऐश्वर्या अर्थात देवी। जिस (स्त्री) के पास ऐश्वर्य है, वह ऐश्वर्या है।
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Friday, March 20, 2009

ग्लोबल गुल्लक और अपना गल्ला….

Coins John Deere Childrens Bank
गुल्लक की रिश्तेदारी सचमुच दुनियादारी से इतनी नज़दीकी है कि दुनिया गोल नज़र आती है…
चपन से ही सभी को बचत का पाठ पढ़ाया जाता है। आज की बचत को कल की खुशहाली भी कहा जाता है क्योंकि इसी बचत से बच्चों को दुनियादारी का पाठ सिखाया जाता रहा है। बच्चों को बचत की प्रेरणा देने के लिए अक्सर उन्हें गुल्लक थमा दी जाती है। पारंपरिक गुल्लक अक्सर मिट्टी की होती है मगर अब प्लास्टिक से लेकर धातु तक की गुल्लकें मिलती है। अक्सर खिलौना गुल्लक या बच्चों की गुल्लक जैसा विशेषण भी इसके आगे लगाया जाता है। इंड़ो-यूरोपीय भाषा परिवार से ताल्लुक रखनेवाले गुल्लक की रिश्तेदारी सचमुच दुनियादारी से इतनी नज़दीकी है कि भूगोल और ग्लोब जैसे हिन्दी और अंग्रेजी के शब्दों में भी इसकी गोलाई नजर आती है। इस शब्द में न सिर्फ बचत अर्थात संग्रह का भाव है बल्कि गोलाई, समष्टि, समूह का अर्थ भी निहित है।
गुल्लक एक गोल आकार का घड़ेनुमा बंद मुंह वाला मिट्टी से बना पात्र होता है। इसमें सिक्के इकट्ठा करने के लिए एक छोटा छिद्र बना होता है। जब पात्र भर जाता है तो इसे तोड़ कर सिक्के निकाल लिये जाते हैं। प्रायः मिट्टी की गुल्लक बच्चों के लिए होती है या देहातों में महिलाएं रसोई की बचत के तौर पर इसे प्रयोग करती हैं। गुल्लक बना है मूल रूप से संस्कृत के गोलः शब्द से। गोलः का अर्थ होता है पिंड, गेंद, खंड आदि। प्राचीनकाल से ही मनुश्य प्रकृति चिंतन करता था। पृथ्वी, आकाश, अंतरिक्ष आदि के बारे में मौलिक विचार वह रखता था। इसीलिए गोलः शब्द में अंतरिक्ष, आकाश अथवा भूगोल जैसे अर्थ भी समाहित हैं। गोलः शब्द बना है गुडः से जिसका मतलब भी होता है पिंड या पिंड बनाना, गोल आकार देना। गुड का एक अन्य अर्थ गुड़ भी होता है।
प्राचीन काल से ही गन्ने के रस से बने गर्म गाढ़े शीरे को मोटे कपड़े में बांध कर रखा जाता है जो ठंडा होने पर एक पिंड में बदल जाता है। इसे ही गुड़ की भेली कहते हैं। भेली शब्द की सटीक व्युत्पत्ति तो अभी तक ज्ञात नहीं है। हमारे विचार में हिन्दी की कई बोलियों में भेला, भेली जैसे शब्दों का अलग अलग अर्थो में प्रयोग होता है। इसका आशय एकत्र करना, मिलना, समेटना होता है। यह बना है मिल् धातु से जिसमें मिलना, समेटना जैसे भाव ही हैं। गाढ़े शीरे को कपड़े में उंडेल कर बांधने की प्रक्रिया दरअसल शीरे को बहने से रोकने, समेटने का ही प्रयास है। मालवी में इकट्टा होने को भेला होना कहते हैं। गुडः से बने गोलः से ही बना है गोलकः जिसमें गोल पात्र, गेंद, पानी का मटका, गुड़ की भेली जैसे अर्थ इसमें शामिल हैं। वैसे गन्ने के छोटे छोटे टुकड़ों

piggybank1कहानी पिग्गी बैंक की  अल्पबचत के प्रतीक तौर पर दुनियाभर में पिग्गीबैंक बहुत प्रचलित हैं। इसकी शुरूआत भी दिलचस्प है। मध्यकालीन इंग्लैंड में भी भारतीय महिलाओं की ही तरह ब्रिटिश गृहिणियां भी रसोई की बचत को मिट्टी के जार में रखती थीं। ये जार एक खास मिट्टी से बनते थे जिसे पिग कहते थे। इन पात्रों को पिग जार कहा जाता था। रसोई से बचत की यह प्रक्रिया पूरे ब्रिटेन के समाज में खूब लोकप्रिय थी। बचत के अर्थ में धीरे-धीरे इसे इसे पिगी बैंक कहा जाने लगा। वहां तक तो कोई खास बात नहीं थी। मगर जैसे ही पिग से जुड़ कर गुल्लक का आकार सूअर की तरह हुआ यह एक दिलचस्प वृत्तांत बन गया। क्योंकि पिगी बैंक से सूअर का दूर पास का कोई रिश्ता नहीं।

को गड़ेरी कहते हैं जो इसी गुडः से बना शब्द है।
गोलकः और गुल्लक की रिश्तेदारी संभव है भारत में फारसी की आमद के बाद हुई हो। घड़े के लिए गोलक शब्द तो भारतीय भाषाओं में प्रयोग होता रहा है। हिन्दी में भी गोलक और गुल्लक दोनों शब्द मिलते हैं। मगर गोल शब्द के फारसी-ईरानी रूपों को देखने से ऐसा लगता है कि गुल्लक रूप फारसी प्रभाव में बना होगा। फारसी-ईरानी की विभिन्न शैलियों में बरास्ता अवेस्ता के गुडे से बने कुछ रूप देखिये-गुलूले, गुल्ले, गोरूक, गुल्लू, गुला आदि। दिलचस्प यह कि ये सभी रूप गोलाई के साथ साथ संग्रह को भी इंगित कर रहे हैं। आमतौर पर अनाज मंडी को गल्ला मंडी कहा जाता है। यह गल्ला क्या है ? गल्ला शब्द का प्रयोग मोटे तौर पर अनाज के भंडारण के लिए किया जाता है। पुराने ज़माने में हवेलियों के भीतर अनाज रखने के लिए बड़ी बड़ी घड़ेनुमा टंकियां बनाई जाती थीं जिन्हें गोलक कहा जाता था। गोलक से गल्ला जैसा शब्द बनने के पीछे गोल पात्र में रखे संग्रह का भाव  ही है। यही गल्ला व्यापारी के लिए नगद राशि का पर्याय भी बनता है। कारोबारी भाषा में गल्ले की कमी का मतलब नगदी मुद्रा की समस्या से होता है। अंग्रेजी का ग्लोब भी इसी शब्द समूह का हिस्सा है। प्राचीन इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की एक धातु है गेल gel जिससे ग्रीक में ग्लूटोस gloutos शब्द बना। इसके लैटिन में glomus, globus जैसे रूप बने और बाद में अंग्रेजी का ग्लोब globe बना। संस्कृत के गोलः या गोलकः का अर्थ भी पृथ्वी, अंतरिक्ष या भूगोल ही होता है। ग्लोब का अर्थ भी गोलाई के भाव में पृथ्वी या धरापिंड से ही है। विश्वबैंक को ग्लोबल गुल्लक कह सकते हैं। पूरी दुनिया इसमें तगड़ी रकम डालती है ….बचत के लिए नहीं बल्कि कर्ज की किस्तें चुकाने के लिए।

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Thursday, March 19, 2009

मौसेरी बहनें हैं क्वीन, ज़नानी, महारानी

प्र कृति में निहित उर्वरा शक्ति सिर्फ और सिर्फ स्त्री को प्राप्त हुई है। शक्ति के दो महत्वपूर्ण स्वरूप हैं संहार और सृजन। पुरुष चाहे बाहुबल को परमतत्व मानते हुए हजारों वर्षों से मिथ्यागर्व में लीन रहा हो मगर प्रकृति ने उसे परमशक्ति नही दी है। शक्ति के रूप में पुरुष भी स्त्री को ही पूजने को विवश है। वजह सिर्फ एक ही है कि शक्ति के दोनों रूपों को पुरुष नहीं साध सकता। शक्ति का प्रयोग पुरुष सिर्फ संहार या विनाश के लिए कर सकता है। संहार के साथ सृजन को को साधना शायद पुरुष के स्वभाव में नहीं है। इसी लिए स्त्री ही शक्तिवाहिनी बनी। यही वजह है कि निर्माण-सृजन-पालन से जुड़ी शब्दावली में स्त्रीवाची शब्द ज्यादा मिलेंगे। प्रकृति, पृथ्वी, धरणि, धारिणी, मां, अम्म, वसुधा, सृष्टि यहां तक कि स्वयं शक्ति शब्द की व्यंजना भी स्त्रीवाची ही है।
हिला के लिए उर्दू-हिन्दी में एक शब्द चलता है ज़नाना zanana जिसका अर्थ होता है महिलाओं जैसा अर्थात स्त्रैण यहां आशय औरताना सिफ़त वाले मर्द से है। इसमें हिजड़ा भी शामिल है। इसका शुद्ध फारसी farssi रूप है जनानः। मगर हिन्दी में जनाना का प्रयोग महिलाओं का या महिलाओं संबंधी के अर्थ में भी  होता है जैसे ज़नाना लिबास या  लेडीज कूपे के लिए ज़नाना डिब्बा।   इसका ज़नानी रूप भी हिन्दी में प्रचलित है और महिला यात्री को ज़नानी सवारी ही कहा जाता है। मूलतः यह फारसी का शब्द है और अवेस्ता के जनिश से रूपांतरित हुआ है जिसका मतलब है पत्नी।
...संस्कृत में जहां जन धातु में निहित उत्पन्न करने, जन्म देने जैसे भाव उद्घाटित हुए वहीं पाश्चात्य भाषाओं में इससे सिर्फ स्त्री,पत्नी जैसे सीमित अर्थ प्रकट हुए...
अरबी-फारसी में इसका रूप है ज़न जिसकी रिश्तेदारी इंडो-ईरानी भाषा परिवार के जन शब्द से है जिसमें जन्म देने का भाव है। संस्कृत में उत्पन्न करने, उत्पादन करने के अर्थ में जन् धातु है। इससे बना है जनिः, जनिका, जनी जैसे शब्द जिनका मतलब होता है स्त्री, माता, पत्नी। जिससे हिन्दी-उर्दू के जन्म, जननि, जान, जन्तु जैसे अनेक शब्द बने हैं। भाषा विज्ञानियों ने ज़न, ज़नान, जननि जैसे शब्दों को प्रोटो इंडो-यूरोपीय मूल का माना है और एक धातु खोजी है- gwen जिसका मतलब है स्त्री, माता, पत्नी। इन तीनों शब्दों का व्यापक अर्थ उत्पन्न करने, प्रजनन करने के दैवी गुण से जुड़ा हुआ है। इस धातु से भारतीय, ईरानी समेत अनेक यूरोपीय भाषाओं में कई स्त्रीवाची शब्द बने हैं।
प्राचीन आर्यों के भाषा संस्कार में ज्ञ जैसा व्यंजन आदिकाल से रहा है। ज्ञ का तिलिस्म आर्य तो जानते थे मगर इस व्यंजन में छुपी ज+ञ अथवा ग+न+य जैसी ध्वनियां हजारों सालों से आर्यों के विभिन्न भाषा-भाषी समूहों को भी वैसे ही प्रभावित करती रही हैं जैसे आज भी करती हैं। हिन्दी भाषी ज्ञ का उच्चारण ग्य करते हैं तो गुजराती मराठी भाषी ग्न्य या द्न्य और आर्यसमाजी ज्न। मूल रूप से प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की धातु gwen में कुछ ज्ञ जैसी ही ध्वनियां रही होंगी इसी लिए इंडो-ईरानी भाषा परिवार में जहां इससे बने शब्दों में ज-ज़ ध्वनियां प्रमुख रहीं वहीं यूरोपीय भाषाओं में और इसकी निकटवर्ती ध्वनि प्रमुख हो गईं। अंग्रेजी के क्वीन queen शब्द को देखिये जिसका मतलब होता है रानी, यह दरअसल गोथिक भाषा के qino से निकला है जो प्रोटो जर्मनिक kwoeniz से बना है। प्रोटो इंडो-यूरोपीय gwen का ही परिवर्तित रूप है kwoeniz. ग्रीक में इसका रूप है गाइने gynē जिससे अंग्रेजी में गाइनोकोलॉजी gynaecology (स्त्रीरोग संबंधी) जैसे शब्द बने हैं। गौर करें आर्यभाषियों के जो समूह पश्चिम की ओर गए, gwen धातु से बने स्त्रीवाची शब्दों ने वहां और जैसी ध्वनियां ग्रहण की। इसी gwen का प्रसार जब पूर्व की ओर हुआ तो वहां ध्वनियों वाले शब्दों का निर्माण हुआ जैसे जन, ज़नान आदि। कुछ अपवाद भी हैं। कुर्दिश में इसका रूप जिन है जबकि क्रोशिया में ज़ेना। क्रोशिया

ma-durgaपुरुष चाहे शक्तिमान होने का अहंकार पाल ले मगर असली शक्ति तो प्रकृति ने नारी को ही दी है...

यूरोपीय देश है मगर इस्लाम का प्रभाव होने के चलते वहां जे़ना शब्द को फारसी अरबी प्रभाव माना जा सकता है।
गौर करें की संस्कृत शब्द राज्ञी से ही रानी  बना है। यहां ज्ञ की ही महिमा रही और ज+ञ में से  ज का लोप हो गया और की अनुनासिकता शुद्ध में तब्दील हो गई  और इस तरह हुए रानी शब्द बना। इसी का पूर्व रूप था जनि जिससे जननि जैसा शब्द बना और स्त्री की प्रजनन, जन्मदात्री, तथा पोषण करने की शक्तियों का भाव सुरक्षित रहा जबकि रानी में शासन शक्ति का भाव उभरा। साफ है कि क्वीन और रानी मौसेरी बहनें हैं। अंग्रेजी का क्वीन मूल रूप से प्राचीनकाल में सामान्य स्त्री, मां या पत्नी के लिए प्रयोग होता रहा किन्तु बाद में महारानी अथवा राजा की संगिनी के अर्थ में यह शब्द रूढ़ हो गया। दिलचस्प यह कि भारत में जहां राज्ञी जैसे प्रभावी शब्द को अपनाने की चाह में जनसामान्य ने इसका रानी रूप अपना लिया जो एक सामान्य नाम की तरह प्रयोग होता है। जबकि ब्रिटेन में क्वीन एक ओहदा बना। इस शब्द की महिमा उत्तरोत्तर बढ़ती रही हालांकि यह शब्द सामान्य धरातल से उठा था। भारत में देवी को भी रानी या महारानी की उपमा दी जाती है जबकि पाश्चात्य संस्कृति में देवी के लिए क्वीन शब्द का प्रयोग विरल है।

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Wednesday, March 18, 2009

क़िस्सा चावड़ी बाज़ार का [आश्रय-7]…

2667573250_7e35557867... पुराने ज़माने में सम्पन्न लोग पालकियों-बैलगाड़ियों में ही सफर करते थे। लबे सफर के बाद मुसाफिरों के लिए शहर के बीचों-बीच प्रशस्त स्थान पर ही सराय या धर्मशालानुमा व्यवस्था को चावड़ी कहा गया। 
भारत के कई शहरों में एक खास नाम का मौहल्ला, बाजार या बसाहट ज़रूर होती है जिसे चावड़ी या चावड़ी बाजार कहा जाता है। ग्वालियर और दिल्ली के चावड़ी बाजार का नाम इस संदर्भ में लिया जा सकता है। यूं भी चावड़ी chawdi शब्द अलग-अलग रूपों में हिन्दी में इस्तेमाल होता है। आखिर इस चावड़ी का मतलब क्या है ? पुराने समय से चली आ रही घनी आबादी के बीच चावड़ी बाजार नाम की बसाहट में तवायफों और नृत्यांगनाओं के डेरे भी होते रहे है। मुगल काल में दिल्ली के चावड़ी बाजार की एक खासियत यहां की तवायफें भी हुआ करती थीं। यहां की सघन गलियों में इनके ठिकाने हैं।
चावड़ी शब्द मूलतः दक्षिण भारतीय भाषाओं में विभिन्न रूपों में प्रचलित है। हिन्दी क्षेत्रों में इसका प्रयोग मराठों के उत्कर्षकाल में बढ़ा है मगर दक्षिणी भाषाओ में यह बहुत प्राचीनकाल से व्यवहृत होता रहा है। चावड़ी शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में ठोस जानकारी नहीं मिलती है। मलयालम में इसका रूप चावटी, तेलुगू और तमिल में यह चावडी है। उत्तर भारत में इसका चावड़ी रूप प्रचलित है। मोटे तौर पर चावड़ी शब्द का अर्थ है एक ऐसा सार्वजनिक स्थान जहां व्यापार-व्यवसाय के लिए लोगों की आमदरफ्त हो। गांव-देहात के विभिन्न मेलों-ठेलों से भी यह शब्द जुड़ा हुआ है। बहुप्रतीक्षित मेले के लिए जब भूमिपूजन होता है और पहले दौर की दुकाने आ जाती हैं उसे भी चावड़ी लगना कहते हैं। चावड़ी खुलना भी एक व्यापारिक टर्म है जो आमतौर पर पशु मेलों के समापन पर इस्तेमाल होती है। मेले  में व्यापारी पशुओं के सौदे करते हैं, उन्हें देखते-भालते और पसंद करते हैं। पेशगी रकम देकर सौदा पक्का किया जाता है मगर खरीद नहीं होती है। मेले के अंतिम दिन सौदे का पूरा भुगतान किया जाता है। सरकारी दस्तावेजों में जब इन सौदों का इन्द्राज शुरू होता है उसे कहते हैं चावड़ी खुलना। इस रूप में देखा जाए तो चावड़ी उस सरकारी दफ्तर को भी कहा जा रहा है जहां व्यापारिक सौदे पक्के हो रहे हैं।

चावड़ी में मूलतः अस्थायी मण्डप, छतरी, शामियाना या टैंट का भाव है । चावड़ी बाजार यानी जहाँ मण्डप, छाजन आदि डालकर दुकाने डाल ली गई हों । ऐसा वहीं होता है जहाँ काफिले, कारवाँ आकर रुकते हैं अथवा जहाँ व्यापारिक गतिविधियाँ होती हैं । चावड़ी खुलना का अर्थ यहाँ मेले का समापन भी है और दूसरे अर्थ में रजिस्ट्री के लिए उस पंडाल में कामकाज का शुरू होना भी है जहाँ सरकारी कारिंदा सौदों को दर्ज करता है ।
विभिन्न संदर्भों में चावड़ी का एक ऐसे स्थान के तौर पर उल्लेख है जहां लोगों का जमघट है। चावड़ी का एक अर्थ अदालत, पंचायत या कचहरी भी है। शहर के व्यस्ततम क्षेत्र में लोगों का जमाव ज्यादा होता है और ऐसा स्थान शहर का प्रमुख चौराहा होता है जहां चारों और से रास्ते मिलते हैं। हॉब्सन-जॉब्सन के प्रसिद्ध कोश में चावड़ी की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द चतुर+वाट से बताई गई है। चतुर का अर्थ चार की संख्या से है। संस्कृत की चत् धातु से यह बना है। चार या चौथा हिस्सा के लिए इस्तेमाल होने वाला चतुर्थ शब्द भी इसी मूल का है। चौकी, चौराहा, चौका जैसे आमफहम शब्द इससे ही निकले हैं। संस्कृत में वाट शब्द का अर्थ घिरा हुआ स्थान होता है। इसका एक अर्थ मार्ग या रास्ता भी है। इस तरह चातुर्वाट का अर्थ चारों और से घिरा हुआ स्थान या चौराहा हुआ। दक्षिणी बोलियों में प्रचलित इस शब्द का अपभ्रंश रूप चावटी-चावडी हुआ। एक ऐसा स्थान जहां लोगों के झगड़े सुलझाए जाते। एक तरह से अदालत। उपनिवेशकालीन एंग्लो-इंडियन शब्दावली में इसके लिए चौल्ट्री जस्टिस/चौल्ट्री कोर्ट्स शब्द खूब आया है। एक ऐसी इमारत जहां न्याय होता हो। इस इमारत के आस पास शहर के प्रमुख व्यक्तियों के निवास होते थे। पुराने ज़माने में सार्वजनिक स्थलों पर ही झगड़े सुलझाए जाते थे ताकि आबादी के बड़े हिस्से को इसकी जानकारी हो सके।
चावडी शब्द पहले दक्कनी हिन्दी में चावरी हुआ और फिर उत्तर भारतीय क्षेत्रों में कुछ और बदले हुए रूप और अर्थ में चावड़ी बनकर पहुंचा। यहां इसका मतलब हुआ चारों और से घिरा हुआ ऐसा आश्रय,


chawri
ठिकाना जहां पद यात्रियों को आराम मिल सके।अलायड चैम्बर्स डिक्शनरी (p138) में भी इसका अर्थ कारवांसराय caravansary या राहगीरों के रुकने की जगह ही बताया गया है। कुछ संदर्भों में इसे पालकियों-गाड़ियों के रुकने की जगह भी कहा गया है।  जाहिर है पुराने ज़माने में सम्पन्न लोग पालकियों में ही सफर करते थे। लबे सफर के बाद मुसाफिरों के लिए शहर के बीचों-बीच प्रशस्त स्थान पर ही सराय या धर्मशालानुमा व्यवस्था को चावड़ी कहा गया। दूरदेश के मुसाफिर, जिनमें ज्यादातर व्यापारी ही होते थे, लंबे समय तक यहां मुकाम करते। यह क्षेत्र व्यस्त कारोबार की जगह बन जाते थे क्योंकि यात्रियों का आना-जाना लगा रहता था। इन्हें ही चावड़ी बाजार chawri bazar कहा गया। धनिकों के मनोरंजन के लिए ऐसे ठिकानों पर रूपजीवाओं के डेरे भी जुटने लगते हैं। इसीलिए चावड़ी बाजार शब्द के साथ तवायफों का ठिकाना भी जुड़ा है। ग्वालियर के चावड़ी बाजार की भी इसी अर्थ में किसी ज़माने में ख्याति थी।
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