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Monday, January 30, 2012

सजने-सँवरने की बातें (गहना-1)

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हनों के प्रति लगाव मनुष्य की का सहज स्वभाव है और सजना-सँवरना नैसर्गिक प्रवृत्ति । प्रकृति के विविध रंगरूपों नें ही मनुष्य के भीतर भी शृंगार की भावना जन्मी । शुरुआत में मनुष्य ने फूल पत्तियों से खुद को सजाया । बाद के दौर में धातु के वर्तुलाकार आभूषणों की खोज हुई । बौद्धिक विकास के साथ यह धारणा भी बनी कि त्वचा और स्नायुओं पर इन गहनों से दबाव पड़ता है जिससे मन को शान्ति मिलती है । ज़ाहिर है गहने रोगमुक्ति का ज़रिया भी बने । फलित ज्योतिष का विकास हुआ तो गहनों का महत्व और बढ़ गया । रोगमुक्ति से बढ़ कर भाग्योदय के संकेत भी धातुओं, नगीनों के साथ जुड़ गए । इस दौर में गहने सिर्फ इन्ही पदार्थों से बनने लगे थे । गहना के लिए हिन्दी में दागिना, आभरण, भूषण, विभूषण, आभूषण, अलंकार, ज़ेवर, अवतंस, ज्वैलरी आदि शब्द प्रचलित हैं । 
भूषण के लिए हिन्दी में गहना शब्द भी खूब प्रचलित है । गहनों को स्त्री और पुरुष दोनों ही धारण करते हैं पर स्त्रियों में हर वस्तु के संग्रह की वृत्ति होती है क्योंकि उसे गृहस्थी चलानी होती है । गहनों के प्रति एक स्वाभाविक आग्रह भी उनमें होता है । गहनों की सबसे बड़ी ग्राहक भी स्त्रियाँ ही होती हैं । गौर संग्रह, ग्रह, आग्रह जैसे शब्दों पर । ये सभी एक ही मूल से निकले हैं । हिन्दी के ज्यादातर शब्दकोशों में गहना शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ग्रहण से मानी गई है जिसका अर्थ है पकड़ना, फाँसना, लेना, पहनना, धारण करना आदि। ग्रहण बना है संस्कृत के ग्रहः शब्द से जिसके मूल में है ग्रह् धातु जिसमें पकड़ना, थामना, लपकना, प्राप्त करना आदि भाव समाए हैं। संस्कृत धातु ग्रह् से बने हैं ये सभी शब्द । ध्यान रहे शरीर को सज्जित करने की वस्तुएँ ही आभूषण हैं । ग्रहण में मूल भाव इन्हें पहनने से निकल रहा है । गहना वह है जिसे रूप-सज्जा के लिए शरीर पर ग्रहण किया जाए । 
गौरतलब है कि इन तमाम अर्थों के लिए मूलतः वेदों की भाषा अर्थात वैदिकी या छांदस् (संस्कृत नहीं) में ग्रह् नहीं बल्कि ग्रभ् शब्द है । भाषाविज्ञानियों ने अंग्रेजी के ग्रास्प (grasp) या ग्रैब (grab) जैसे शब्दों के लिए भी इसी ग्रभ् को आधार माना है। बस, उन्होंने किया यह कि प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार से एक काल्पनिक धातु ghrebh खोज निकाली है जो इसी ग्रभ् पर आधारित है और जिसमें पकड़ना, छीनना, झपटना, लपकना आदि भाव छुपे हैं। इसी से मिलते जुलते शब्द कई अन्य भाषाओं में भी हैं जैसे ग्रीक में baros यानी भारी या गोथिक में kaurus यानी वज़नी या अंग्रेजी का ग्रिप आदि। लपकने, हड़पने या अधिकार जमाने के भावों का अर्थ विस्तार ही गुरु या गुरुत्व जैसे शब्दों में है। सूर्य-ग्रहण या चंद्र-ग्रहण जैसे शब्दों के अर्थ एक ग्रह् की छाया में दूसरे ग्रह के अदृष्य होने में समझे जा सकते हैं ।
मोनियर विलियम्स के कोश में गहना शब्द की व्यत्पत्ति गहन से बताई गई है । संस्कृत के गहन का अर्थ है गहरा, सघन, सान्द्र जो गह् धातु से निकला है। हिन्दी का गहरा, गहराई जैसे शब्द इसी कड़ी में आते हैं । गुफा, कन्दरा या जंगल के अर्थ वाला गह्वर शब्द भी इसी मूल से निकला है । सज्जा के उपकरण के तौर पर गहना शब्द की व्युत्पत्ति इन अर्थों से मेल नहीं खाती बल्कि इन अर्थों के बीच अचानक ornament वाला अर्थ बेमेल नज़र आता है। शब्दसागर में भी इसी का अनुकरण मिलता है । दिलचस्प यह कि मोनियर विलयम्स को आधार मान कर बनाए गए वाशि आप्टे के कोष से गहन शब्द के भीतर से गहना वाली प्रविष्टि हटा ली गई है । स्पष्ट है गहन से आभूषण वाले गहना का कोई रिश्ता नहीं है । रॉल्फ़ लिली टर्नर और जॉन प्लैट्स भी ग्रहण से ही गहना की व्युत्पत्ति को सही मानते हैं । -जारी
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Friday, January 6, 2012

सब बराबर हैं…

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हि न्दी के सर्वाधिक प्रयुक्त शब्दों एक शब्द है ‘बराबर’ जिसे दिनभर में न जाने कितनी बार हम इस्तेमाल करते हैं। असमानता और भेदभाव से भरे समाज में हमारा तमाम वक्त या तो दूसरों की बराबरी करने में बीतता है या किसी को अपने बराबर न आ ने देने में जाता है। समतावादी समाज की चाहे लाख दुहाई दी जाए, पर गैरबराबरी ही समाज का असली चेहरा है। बराबर शब्द में जबर्दस्त मुहावरेदार अर्थवत्ता है। बराबर का प्रचलित अर्थ है समतुल्य, समान, एक साथ, एक जैसा आदि। इसमें लगातार का भाव भी है। “वह बराबर बोलता जा रहा था” इस वाक्य में समतुल्यता की बजाय सातत्य का भाव ज्यादा है। इसके साथ ही इसका मुहावरेदार प्रयोग भी होता है जिसमें चौपट करना, नष्ट करना, निपटा देना, मुकाबला करना, होड़ करना, स्पर्धा करना, अनिर्णित रहना, पड़ोस का, साथ का, बाजू में, समकक्ष रखना, लगातार आदि। गणित में equal के = चिह्न को ‘बराबर’ ही कहा जाता है।
राबर में जो समानता का भाव है उसके मूल में सचमुच सामाजिक समानता का भाव है। सभी लोगों के ‘बराबर’ होने का सन्देश इसमें छुपा है। मिलजुल कर काम करने के सम्बन्ध में अक्सर कंधे से कंधा मिलाने की बात कही जाती है। पारस्परिक सौहार्द के लिए, भाईचारा बढ़ाने के लिए दिल से दिल जोड़ने की बात कही जाती है। लेकिन इन सूक्ष्म निहितार्थों तक पहुँचने के लिए स्थूल रूप से गले मिलने की बात कही जाती है उसके मूल में भाईचारा ही है। गले मिलने की क्रिया ही दरअसल सीने से लगने की क्रिया भी है। इसे कलेजे से लगना या कलेजे से लगाना भी कहते हैं। देखते हैं ‘बराबर’ शब्द कहाँ से आया, कैसे बना। ‘बराबर’ इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है और हिन्दी में फ़ारसी से आया है। ऐसा लगता है मुस्लिम शासन के शुरुआती दौर में ही यह शब्द बोलीभाषा में समा गया था। कबीर ने इसका प्रयोग किया है-“सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥” बराबरी में दिल को दिल से जोड़ने के बहाने समानता का सन्देश महत्वपूर्ण है
राबर सामासिक पद है। इसके मूल में फ़ारसी का बर शब्द है जिसका अर्थ है वक्ष, सीना, छाती, हृदय, अन्तःस्थल वगैरह। संस्कृत में ‘उरः’, ‘उरस्’ शब्दों का आशय भी यही है। स्त्रियों की छाती, विशेषकर स्तनों के लिए ‘उरोज’ या ‘उरसिज’ शब्दों का रिश्ता भी इसी ‘उर’ से है। वात्सल्य भाव व्यक्त करने के लिए ‘उर’ का प्रयोग गोद की तरह भी होता है। इस उर का ज़ेन्द रूप है ‘वर’, जिसका फ़ारसी रूपान्तर ‘बर’ होता है। उरः > वर > बर । जॉन प्लैट्स को कोश के मुताबिक  ‘बराबर’ बना है ‘बर-आ-बर’ से जिसमें सीने से सीने को मिलाने की बात है।

Equal... बराबरी में दिल को दिल से जोड़ने के बहाने समानता का सन्देश महत्वपूर्ण है...

‘बर-आ-बर’ का प्रचलित रूप बराबर हुआ। भाव समानता का है। इस तरह ‘बराबर’ शब्द की अर्थवत्ता व्यापक होती चली गई और इसमें वे सब भाव आ गए जिनका उल्लेख ऊपर किय गया है। फ़ारसी में मुहावरा है “बराबर करदन” जिसमें एक जैसा, सपाट करने का आशय है। इसका हिन्दी रूप हुआ “बराबर करना”। जिन चीज़ों को यथावत रहना था, उन्हें एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड करने से मूल स्वरूप पर बुरा असर पड़ता है। इसे व्यक्त करने के लिए भी “सब बराबर कर दिया” का प्रयोग होता है।
राबर से मिलता जुलता एक अन्य शब्द भी हिन्दी में बारबार प्रयोग होता है। यह जो “बारबार” समास है यह खालिस हिन्दी का शब्द है और “बराबर” की बराबरी कर सकता है। ‘बारबार’ शब्द में जिस दोहराव का भाव है, आवृत्ति का भाव है वह संस्कृत के ‘वृ’ से आ रहा है। ‘वृ’ से बने ‘वर्’ में मूलतः काल का भाव है। साफ है कि प्राचीन काल से ही काल या अवधि की बड़ी इकाइयों की गणना मनुष्य ने ऋतु परिवर्तन और सूर्य-चंद्र के उगने और अस्त होने के क्रम की आवृत्ति यानी दोहराव को ध्यान में रखते हुए की। प्रकृति में दोहराव का क्रम महत्वपूर्ण है। चाहे वह वर्ष हो, माह हो या दिन। सप्ताह के दिनों के पीछे लगे ‘वार’ शब्द से यह स्पष्ट है। संस्कृत ‘वारः’ से बना है हिन्दी का वार जो इसी ‘वृ’ से आ रहा है जिसका अर्थ है सप्ताह का एक दिन, समूह, आवृत्ति, घेरा, बड़ी संख्या आदि। वृ धातु में निहित ‘आवृत्ति’ का भाव चौबीस घंटों में सूर्य को घूमने की गति में समझ सकते हैं जिससे एक दिन बनता है। तीस दिनों में एक माह और बारह मासिक-चक्रों से एक वर्ष तय होता है। यही आवृत्ति ‘ऋतु’ कहलाती है।
वृ धातु में संस्कृत का ‘ऋ’ भी छुपा है। वार का ही फारसी रूप ‘बारः’होता है जिसमें दोहराव, दफा, मर्तबा जैसे भाव है। संस्कृत के अनुस्वार की प्रवृत्ति ही अवेस्ता और फारसी में भी है। अक्सर के अर्थ में भी जिस ‘बारहा’ का प्रयोग हम हिन्दी उर्दू में देखते हैं वह यही ‘बारः’ है। बार-बार के अर्थ में हिन्दी में बहुधा शब्द है। संस्कृत में इसके लिए ‘वारंवारम’ शब्द है जिससे हिन्दी का ‘बारम्बार’ शब्द बना है। मराठी में इसका ‘बालंबाल’ रूप प्रचलित है।

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Thursday, November 24, 2011

फ़ानूस की फ़ंतासी

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वि देशी भाषाओं से भारतीय भाषाओं में समाए शब्दों में ‘फ़ानूस’ और ‘फंतासी’ का शुमार भी होता है। फ़ानूस यानी छत से लटकता विशाल कंदील जिसमें शमा (ज्योति) के इर्दगिर्द शीशे का जारनुमा आवरण होता है जो उसे बुझने से बचाता है और रोशनी को कई गुना बढ़ा देता है। फिल्मों और नाटकों में कल्पनालोक को मूर्त रूप देने में रोशनियों का बेहद खूबसूरत प्रयोग होता है। झाड़ियों, पेड़ों से फूटती रंगबिरंगी रोशनियाँ दर्शकों को एक ऐसी रम्य-मरीचिका में ले जाती हैं जहाँ सब कुछ सुहाना लगता है। यही फंतासी है। हालाँकि सिर्फ़ दृष्यविधान ही फ़ंतासी नहीं होता बल्कि कथाविधान भी फंतासी है। फ़ानूस और फ़ंतासी का रिश्ता यूँ ही नहीं है। गौरतलब है कि ये दोनों शब्द क्रमशः फैंच और अंग्रेजी से हिन्दी में आए हैं। फानूस शब्द जहाँ सैकड़ों बरसों से भारतीय बोलियों में रचा-बसा है वहीं फंतासी बहुत पुराना नहीं है। ग्रीक ट्रैजेडी के लिए त्रासदी, कॉमेडी के लिए कामदी की तरह ही फैंटेसी का फंतासी रूपान्तर बीसवीं सदी के भारतीय रंगकर्म की देन है, ऐसा मुझे लगता है।
बसे पहले ‘फ़ानूस’ की बात। प्रो. पी.डी. गुणे के मुताबिक ‘फ़ानूस’ बरास्ता फ्रैंच, मराठी में दाखिल हुआ। अपनी किताब-इन्ट्रोडक्शन ऑफ कॉम्पेरिटिव फ़िलोलॉजी में वे लिखते हैं कि फ्रैंच भाषा से फ़ैशन और सैन्य प्रबन्ध सम्बन्धी अनेक शब्द दिए हैं और उसी कड़ी में ‘फ़ानूस’ शब्द भी आता है। लालटेन के लिए इसका रूप फाणस है तो साधारण लैम्प के लिए फाणूस है। समझा जा सकता है कि दक्खनी शैली की हिन्दी में इसका रूप ‘फ़ानूस’ ही था। इस मत के बावजूद प्रो. गुणे फ़ानूस के लिए मूल फ्रैंच शब्द क्या था, इसका उल्लेख नहीं करते हैं। कई सन्दर्भों को टटोलने के बाद भी मुझे फ्रैंच भाषा में फ़ानूस शब्द नहीं मिला। अनुमान है कि‘फ़ानूस’ शब्द बरास्ता फ्रैंच ज़बान भारतीय भाषाओं में दाखिल नहीं हुआ बल्कि इसकी आमद अरबी, फ़ारसी, दक्खनी और उर्दू के ज़रिए ही हुई है। फ्रैंच लोगों के समुद्री रास्तों से हिन्दुस्तान दाखिल होने से पहले ही मुग़लकाल में फ़ानूस यहाँ आ चुका था। अरबी में फ़ानूस का बहुवचन फ़ानिस होता है। 
फ़ानूस सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द न होते हुए भी अरबी से ही हिन्दी में आया है। अरब में भी इसका रूप ‘फ़ानूस’ ही हैं और यह ग्रीक भाषा के ‘फ़ैनोस’ से बना है। अरबी और ग्रीक भाषाओं में पुरानी रिश्तेदारी रही है। ग्रीक फ़ैनोस का मतलब होता है लालटेन, दीपक, दीया, चिराग़ मगर ग्रीक ज़बान में फ़ैनोस का अर्थ मशाल है। यह मूलतः इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है और भारोपीय धातु ‘भा’ (bha) बना है जिसका आशय है चमक, प्रकाश। मोनियर विलियम्स के मुताबिक समकक्ष संस्कृत धातु है ‘भा’, ‘भात्’ जिसमें जगमग, स्वच्छ, पारदर्शकता, चमक जैसे भाव हैं। दुनिया को अपनी रोशनी से चकाचौंध कर देने वाले सूर्य का नाम ‘भास्कर’ इसी वजह से है। चमक, तेज जैसे भावों के लिए प्रभा और आभा में भी इस भा की मौजूदगी देखी जा सकती है। फ़ैनोस का रिश्ता ग्रीक ‘फॉस’ phos से भी है जिसमें किरणें बिखेरने का भाव है।
र्व-त्योहारों हमारे उल्लास की ही अभिव्यक्ति हैं। इसलिए रोशनियों के ज़रिये इसे नुमायाँ करने की परम्परा दुनियाभर में है। ग्रीक फ़ैनोस सबसे पहले इजिप्शियन अरबी में दाखिल हुआ जहाँ ईसापूर्व मिस्र के प्रसिद्ध शासकों ‘फराओं’ के ज़माने से पांच दिवसीय विशिष्ट प्रकाशोत्सव मनाने की परम्परा रही थी। बाद में यह परिपाटी क्रिसमस-पर्व की विशिष्टता बन गई। तब यरुशलम में शहर को रोशनियों से सराबोर करने के लिए रास्तों के किनारे खम्भों पर कंदील टाँगे जाते थे। तब भी इन्हें फ़ानूस कहा जाता था क्योंकि पड़ौसी ग्रीस में मधुमक्खी के छत्तों से बनी मोमबत्तियों को ‘फैनोस’ कहा जाता था। इस्लामी दौर में फराओं की यही परम्परा मुस्लिम दौर के फ़ातमिद शासकों के काल में फलीफूली। भारत में फ़ानूस शब्द के साथ साथ ‘झाड़ फ़ानूस’ टर्म भी प्रचलित है। यह झाड़ क्या है? ऐसा लगता है छत से लटकते कंदील को कांच के जिस गिलाल में जलाया जाता है, उसे जार भी कहते हैं। अंग्रेजी में जार-लैम्प जैसी टर्म मौजूद है। कागज के आवरण वाले कंदील को सामान्य फ़ानूस कहाजाता होगा और जब कांच के कवच वाले फ़ानूस 4b799587dadebप्रचलित हुए तो उन्हें ज़ार फ़ानूस कहा जाने लगा होगा। मगर इस विचार का प्रमाण मुझे नहीं मिला। हालाँकि अंग्रेजी का जार शब्द अरबी से आया है। दरअसल लटकते हुए कंदील फ्रांसीसी सैनिक असबाब का एक ख़ास हिस्सा थे। मैदानों, जंगलों, रेगिस्तानों में जब सैनिक पड़ाव होते थे, तब पेड़ों पर या पेड़नुमा जंगलों पर  लालटेनों को लटका कर बड़े क्षेत्र को प्रकाशित किया जाता था। दरअसल पुरानी फ्रैंच में candeltreow शब्द दीपाधार के लिए प्रयुक्त होता था। बाद में अंग्रेजी में इससे कैंडल-ट्री कहा जाने लगा। मुझे लगता है इस कैंडल-ट्री की तर्ज पर ही फ़ानूस के साथ ट्री के अर्थ में झाड़ शब्द लगाकर हिन्दी में झाड़-फ़ानूस पद प्रचलित हुआ होगा।
ब आते हैं फंतासी पर। इसका मूल है फैंटेसी और यह फैंटेसिया से आ रहा है। फैंटेसी का आशय ऐसी प्रस्तुति से है जो ऐंद्रजालिक हो, अद्भुत हो, कल्पनाशील हो। फैंटेसी दरअसल मायालोक जैसा प्रदर्शन है। यह फैंटेसिया उसी फैनोस के संज्ञा रूप निकला है जिससे फ़ानूस बना है। संज्ञा रूप में फ़ैनोस का अर्थ होता है प्रकाश और इसके क्रियारूप फैनो का अर्थ है सबके सामने आना। फ़िनॉमिनॉन इसी मूल का है जिसमें इसी अद्भुत प्रस्तुति का आशय है। ध्यान रहे कोई चीज़ तभी नज़र आती है जब उस पर रोशनी पड़ती है, यह सामान्य प्रस्तुति है। लेकिन फैंटेसी दरअसल ऐसा आविर्भाव है जो चकाचौंध से भरा और चकित कर देने वाला है। फैंटेसी का हिन्दीकरण फंतासी भी खूब लोकप्रिय है।
प्रचलित अर्थों में फ़ानूस सिर्फ दीया अथवा रोशनी का ज़रिया नहीं बल्कि यह कंदील है जिसका अभिप्राय ऐसे दीये से है जिसकी लौ के इर्द-गिर्द हवा से बचाव के लिए शीशे का आवरण या कागज का कवच लगाया जाता है। एक प्रसिद्ध शेर में भी यही बात है- फानूस बनकर जिसकी हिफाज़त हवा करे। वो शम्अ क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे।। यहाँ फानूस का अर्थ रोशनी नहीं बल्कि लैम्प-शेड है। लालटेन, कंदील या फ़ानूस दरअसल दीये के ऐसे ही प्रकारों के नाम हैं जिसके चारों ओर शीशे का आवरण होता है और जिसकी जोत को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। जॉन शेक्सपीयर की हिन्दुस्तानी डिक्शनरी में शैन्डेलियर (फ्रैंच भाषा का शब्द जिसका अर्थ लटकने वाला लैम्पशेड ही है) को फानूस कहा गया है। लालटेन, कंदील को भी फ़ानूस कहा है। साथ ही झाड़-फानूस का अर्थ भी उसमें शैन्डेलियर बताया गया है।
हिन्दी में खूब प्रचलित कंदील शब्द अंग्रेजी के कैंडल का रूपान्तर है। यह भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और मूल kand से इसकी व्युत्पत्ति हुई है जिसमें चमक, प्रकाश का भाव है। खास बात यह कि प्रखरता, चमक में अगर ताप का गुण है तो शीतलता का भी। भारोपीय धातु कंद kand का एक रूप cand चंद् भी होता है। इससे बने चंद्रः का मतलब भी श्वेत, उज्जवल, कांति, प्रकाशमान आदि है। चंद्रमा, चांद, चांदनी जैसे शब्द इससे ही बने हैं। लैटिन के कैंडिड से जिसमें सच्चाई, सरलता और निष्ठा जैसे भाव निहित हैं। इसका प्राचीन रूप था कैंडेयर candere जिसका अर्थ है श्वेत, चमकदार, निष्ठावान। कैंडेयर से ही बना है मशाल, ज्योति के अर्थ मे अंग्रेजी का कैंडल शब्द जिसके हिन्दी अनुवाद के तौर पर मोमबत्ती शब्द सामने आता है। त्योहारों पर छत से रोशनी के दीपक लटकाए जाते हैं जिन्हें कंदील कहते हैं। यह शब्द अरबी से फारसी उर्दू होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ। अरबी में यह लैटिन के कैंडिला और Candela ग्रीक के कंदारोस kandaros से क़दील में तब्दील हुआ।
लालटेन तो हिन्दी में सबसे ज्यादा प्रचलित वस्तुओं और शब्दों में शुमार है। कमनज़र आदमी को भी कभी कभी लालटेन कह दिया जाता है। लालटेन में पढ़ना जैसी मुहावरेदार अभिव्यक्ति का आशय संघर्षों के बीच राह बनाने से है। लालटेन शब्द अंग्रेजी के लैन्टर्न से बना है। एटिमऑनलाइन के मुताबिक अंग्रेजी में इसकी आमद मध्यकालीन फ्रैंच के लैन्टर्ने से हुई। ग्रीक भाषा के लैम्पीन शब्द है, जिसमें चमक, द्युति का भाव है। इससे बने लैम्टर से लैटिन का लैन्टर्ना बना। गौरतलब है कि लैन्टर्ना, लैटिन के ही लुसर्न के आधार पर बना है जिसका अर्थ प्रकाश है। स्विट्ज़रलैण्ड के लुसर्न शहर का नाम भी इसी मूल से निकला है। अंग्रेजी के लैम्प शब्द की व्युत्पत्ति भी लैम्पीन से ही हुई है। लैम्प भी हिन्दी में प्रचलित है।

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Tuesday, January 25, 2011

तारीखों का चक्कर-मिती, बदी, सुदी

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क्सर शादी-ब्याह की पत्रियों और ज्योतिषीय पत्रकों-पंचांगों में तिथियों का उल्लेख जहाँ भी होता है वहाँ मिति-सुदी-बदी जैसे शब्द ज़रूर आते हैं मसलन मिति फागुन बदी पांच या मिति कातिक सुदी चौथ वगैरह वगैरह। सबसे पहले बात मिति की। हिन्दी में इसे मिती लिखने का चलन है। मिति में मूलभाव तिथि या या तारीख़ का है। जिस तरह से आजकल तिथि का उल्लेख करते वक्त दिनांक का उल्लेख सबसे पहले होता है उसी तरह पुरानी पद्धति में अथवा यूँ कहें कि महाजनी पद्धति में देशी महिनों के नामों के साथ तारीख का उल्लेख करते हुए दिनांक की जगह मिति का प्रयोग होता था जैसे मिति कातिक चौथ सुदी अर्थात कार्तिक मास का चौथा दिन।
प्टेकोश के मुताबिक मिति का मूलरूप संस्कृत का मितिः है जो मि से बना है जिसमें मापना, प्रत्यक्ष ज्ञान करना या स्थापित करना जैसे भाव हैं। इससे मित या मिति जैसे शब्द बने हैं जिनमें मापा हुआ, नपा-तुला, सीमाबद्ध, मर्यादित, जाँचा-भाला जैसे भाव हैं। तिथि में ये सभी भाव स्पष्ट हैं। तिथि वह गणना है जो काल विशेष को निर्दिष्ट करती है। इसकी सीमा तय है। यह एक मर्यादा में बंधी है अर्थात निश्चित पहरों के बाद तिथि बदलती है। इसीलिए मिति का एक अन्य भाव है साक्षात प्रमाण या साक्ष्य। ज्योतिषीय निष्कर्षों के सत्यापन का काम बिना तिथि गणना के असंभव है। हिन्दी शब्दसागर के अनुसार मिती में परिमाण, सीमा, कालावधि का भाव है। दिया हुआ वक्त या मोहलत भी मिति है। मिति पूजना मुहावरे का एक अर्थ है आयु के दिन पूरे होना।
हाजनी पद्धति में मिति का खास महत्व है क्योंकि ब्याज की गणना मे मितियों का बड़ा महत्व है। मितिकाटा एक प्रणाली है जिसके तहत अगर समयपूर्व हुंडी की रकम चुकता कर दी जाए तो शेष दिनों का ब्याज काटने की क्रिया को मितिकाटा कहते हैं। मूलतः मितिकाटा शब्द मिति काटना से बना है जिसका अर्थ है ब्याज काटना। मिती चढ़ाना यानी 200px-Hindu_calendar_1871-72तारीख़ लिखना या ब्याज की गणना करना, मिती पूजना या मिती उगना का अर्थ है हुंडी की अवधि पूरी होना, भुगतान का दिन आना। अब आते हैं बदी और सुदी पर।
बदी और सुदी मूलतः बदि और सुदि हैं। आमतौर पर माना जाता है कि बड़े शब्दों या पदों के संक्षिप्तिकरण की परिपाटी हिन्दी में अंग्रेजी से आई है जैसे भारतीय जीवन बीमा निगम के लिए भाजीबीनि, भारतीय जनता पार्टी के लिए भाजपा आदि। गौरतलब है कि बदि और सुदि दोनों शब्द हिन्दी के प्राचीनतम संक्षिप्तरूप हैं जो मूल पदों के लगातार प्रयुक्त होने से पंडितों ने खुद ही बनाए। यह अंग्रेजों के आने से सैकड़ों वर्ष पहले ही हो चुका था।
दुनियाभर की काल गणना प्रणालियाँ चान्द्रमास पर आधारित हैं जिसमें चन्द्रकलाओं अर्थात उसके घटने और बढ़ने की गतियों को ध्यान में रखा जाता है। भारत में इसे शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष कहते हैं। शुक्ल पक्ष वह अवधि है जब चांद बढ़ता है और पूर्णता प्राप्त करता है। घटते हुए दिन अर्थात अमावस्या की ओर बढ़ते दिन कृष्णपक्ष कहलाते हैं। भारतीय समाज शुरु से ही तिथि-वार और शकुनविचार का महत्व रहा है। ऐसे में बारह महिनों के दौरान तिथियों का लेखा जोखा रखनेवाले पंडितों ज्योतिषियों के लिए हर बार माह के उजियारे दिनों (पक्ष, पाख) अथवा अंधियारे पाख  का उल्लेख करना आवश्यक होता था। इस तरह उजियारे पाख को हर बार शुक्ल दिवस लिखना ज़हमत का काम लगा सो उन्होंने उसे शुदि लिखना शुरू कर दिया। हिन्दी की पूर्वी शैलियों में अक्सर के में बदलने की प्रवृत्ति रही है सो शुदि पहले सुदि हुआ फिर भाषा में स्वर के दीर्घीकरण की वृत्ति के चलते यह सुदी बन गया। यही बात कृष्णपक्ष के संदर्भ में हुई। संस्कृत में बहुल का एक अर्थ होता है काला। कृष्ण पक्ष के लिए ज्योतिषीय भाषा में बहुल दिवस या बहुल कृष्णदिवस पद प्रसिद्ध रहा है जिसका संक्षेप हुआ बदि जो बाद में दीर्घीकरण के चलते बदी हो गया। सुदी बदी के प्रयोग सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखित ज्योतिषीय ग्रन्थों में भी मिलते हैं।
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Thursday, November 4, 2010

तालियां, जोरदार तालियां-दीपावली की शुभकामनाएं

VMT_1[1][5]विजय मनोहर तिवारी

[शब्दों का सफ़र के पाठकों के लिए दीवाली की यह बधाई भेजी है वरिष्ठ पत्रकार-लेखक विजय मनोहर तिवारी ने। पुस्तक चर्चा स्तम्भ के जरिए सफ़र के साथी उनसे परिचित हैं। इस बधाई में जिन नामों से पाठक अपरिचित हैं, उनके चरित्र के बारे में गूगल पर जानकारियां उपलब्ध हैं।]
Diya-Diwlaनेता मसरूफ हैं। अफसरों को भी सांस लेने की फुरसत नहीं। सरकारी नौकर-चाकर भी दिन-रात लगे हैं। देश बड़ा है। सेवा आसान नहीं। सब मिलकर कर रहे हैं। देश की सेवा। जनता देश में ही रहती है। इसलिए जनता की सेवा भी हो जाती है। सब साहब लोग त्योहार के वक्त भारी व्यस्त हैं। दीपावली पर शुभकामना संदेश और तोहफे मेरे पास रखकर भूल गए। चलिए, मैं ही सबको दिए देता हूं। तालियां बजाते जाएं। हौसला बना रहेगा...
Diya-Diwlaहली शुभकामना दूर-देहात के बच्चों को। वे बच्चे जो सचिन और सानिया जैसे बनना चाहते हैं। दम है इसलिए ख्वाहिश है। पर हालत की पूछिए मत और हालात जाकर देखिए। न मैदान, न कोच। न सडक़, न बिजली। कोई बात नहीं। रात के बाद सुबह होती है। सपने देखो। बड़े सपने। वी केन डू एवरीथिंग। पता है ये किसकी शुभकामना है? माननीय सुरेश कलमाड़ी की। तालियां...
Diya-Diwlaर वो कारगिल वाले पीछे क्यों हैं? लीजिए ये गुलदस्ता। मुबारक हो। अरे, आंखों में आंसू? कोई याद आ गया। तो रोइए मत, सिर ऊंचा करिए। वे देश के लिए शहीद हुए। हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। वो बहादुर थे। हमें आप पर गर्व है। ये लीजिए ताजे फूलों का गुलदस्ता। अब पूछिए ये किसने भेजा? नहीं मालूम? मुंबई से अशोक चव्हाण ने। महाराष्ट्र के महामुख्यमंत्री हैं वे। तालियां...
Diya-Diwlaवो पीछे डरे-सहमे कौन खड़े हैं? अच्छा-अच्छा, कश्मीरी पंडित हैं। आगे आओ भाई। आप ये दीए ले लो। जलाओ इन्हें। सुना है दीपावली में दीप भी है और अली भी? यह गंगा-जमुनी संस्कृति बेमिसाल है? दीप और अली। मुबारक हो। जलाओ न दीप। जानते हो इतनी मोहब्बत से ये दीप-बत्ती कौन भेज रहा है? ये श्रीनगर से गिलानी साहब ने दिल से भेजी है। जोरदार तालियां...
Diya-Diwlaदानिशमंदों से गुजारिश है कि वे आतिशबाजी लेने आगे आएं। हैप्पी दिवाली। आपको कहने की पूरी आजादी है। अरे भई हक है आपका। हां-हां कहिए। कुछ भी कहिए। कह दीजिए कि नार्थ-ईस्ट पर इंडिया का कोई हक नहीं। आतिशबाजी लीजिए। कुछ कह भी दीजिए और इसका मजा लीजिए। ले भी लीजिए। बड़े जतन से भेजी हैं मोहतरमा अरुंधति राय ने। तालियां...
Diya-Diwlaब संघ वाले पथ संचलन करें। फूलों के वंदनवार आपके लिए। दीपपर्व पर शुभकामनाएं। मायूस हैं आप? अच्छा इंद्रेशजी। गनीमत समझो। अभी चंद्रेशजी, नंद्रेशजी, गिरजेशजी, अवधेशजी के नाम नहीं जुड़े। हमें क्या जोडऩा ही तो है। भटकते रहिए अदालत में आप। अदालत में हमारी आस्था है। यहां मामले जरा लंबे ही चलते हैं। ये स्पष्ट संदेश है चिदंबरम् साहब की जानिब से। तालियां...
Diya-Diwlaकौन गांव के गरीब। आगे आ जाओ। रास्तो दो इन्हें। हमारे अन्नदाता हैं ये। इन्हेंं साहब ने मिठाइयां भेजी हैं। मेमसाब ने खुद बनाई हैं। लीजिए। मुबारक हो। भैया साब-मेमसाब के लिए दुआएं करना। भगवान से प्रार्थना करें कि वे मुसीबतों से निजात पाएं। अरे उन्हें नहीं जानते? सुनो तो सही, ये डिब्बे आए हैं भोपाल के श्रीमान् अरविंद जोशी और श्रीमती टीनू जोशी के बंगले से। तालियां...
Diya-Diwlaक्या पांडाल में लाचार मरीज भी हैं। आओ, आओ। आराम से आगे आ जाओ। आपको हुजूर ने दवाएं भेजी हैं। पार्टनर की फैक्टरी की ही बनी हैं। आपकी सेहत उम्दा हो जाएगी। पांच नई स्कीमें आ रही हैं सेंट्रल से। ये लीजिए भारी पैकेट है। घर भर के लिए दवाएं। दीवाली मुबारक। पैकेट पर तो पढि़ए डॉक्टर योगीराज शर्मा का नाम लिखा है। भूल गए क्या? जोरदार तालियां...
Diya-Diwlaखिरी बधाई भोपाल के गैस पीडि़तों को। एक लिफाफा है। शायद ग्रीटिंग है। अरे वाह। क्या लिखा है कसम से। आप खुशनसीब हैं, जो भारत में जन्में। एक प्राचीन सभ्यता, एक महान् देश। वीरों और महावीरों की भूमि। तीज-त्योहारों के देश में हे मनुष्य, आपको नमन् है। क्या भाषा है। मोतियों से अलफाज। पर भेजा किसने है? न्यूयार्क से? अच्छा वॉरेन मार्टिन एंडरसन साहब हैं। तालियां...
Diya-Diwlaरे ये ढेर तो बहुत बड़ा है। देखिए, इतनी व्यस्तता के बाद भी सज्जनों ने शुभकामनाएं भेजी हैं। बाकायदा लैटरहेड पर। कई तो राजकीय चिन्ह वाले लिफाफों में। इन्हें फाइलों में रखना। पहले किसी ने भेजे थे? पीढिय़ां याद रखेंगी। गर्व करेंगी। अपने पूर्वजों पर। महान् पूर्वज। ऐसे पूर्वज जिन्हें बड़े-बड़े लोग शुभकामनाएं भेजा करते थे। बधाई। एक बार फिर जोरदार तालियां...

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Friday, August 27, 2010

मसख़रे की मसख़री सिर माथे

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मतौर पर हंसोड़ और परिहासप्रिय व्यक्ति को समाज में पसंद किया जाता है। ये लोग चूंकि सामान्यत: हर बात में हंसी-ठट्ठे का मौका तलाश लेते हैं इसलिए ऐसे लोगों को अक्सर विदूषक या मसखरा की उपाधि भी मिल जाती है। हालांकि ये दोनों ही शब्द कलाजगत से संबंधित हैं और नाटक आदि में ठिठोलीबाजी और अनोखी वेषभूषा, बातचीत, हावभाव,मुखमुद्रा आदि से परिहास उत्पन्न कर दर्शकों के उल्लास में वृद्धि करनेवाले कलाकार को ही मसखरा या विदूषक कहा जाता है। हिन्दी में मसखरा शब्द अरबी के मस्खर: से बरास्ता फारसी उर्दू होते हुए आया। में अरबी में भी मस्खर: शब्द का निर्माण मूल अरबी लफ्ज मस्ख से हुआ जिसका मतलब है एक किस्म की खराबी जिससे अच्छी भली सूरत का बिगड़ जाना या विकृत हो जाना। यह तो हुई मूल अर्थ की बात । मगर यदि इससे बने मसखरा शब्द की शख्सियत पर जाएं तो अजीबोगरीब अंदाज में रंगों से पुते चेहरे और निराले नैन नक्शों वाले विदूषक की याद आ जाती है। हिन्दी के मसखरा शब्द का अरबी रूप है मस्खरः जिसके मायने हैं हँसोड़, हँसी-ठट्ठे वाला, भांड, विदूषक या नक्काल वगैरह। जाहिर है लोगों को हंसाने के लिए मसखरा अपनी अच्छी-भली शक्ल को बिगाड़ लेता है। मस्ख का यही मतलब मसखरा शब्द को नया अर्थ देता है।
सी नए अर्थ के साथ अरब के सौदागरों के साथ यह शब्द स्पेन और इटली में मैस्खेरा बन कर पहुंचता है जहां इसका मतलब हो जाता है मुखौटा या नकाब। अरब से ही यह यूरोप की दीगर जबानों में भी शामिल हो गया और इटालियन में मैस्ख और लैटिन में मैस्का बना । फ्रैंच में मास्करैर कहलाया जहां इसका मतलब था चेहरे को काला रंगना। अंग्रेजी में stilt_guy इसका रूप हुआ मास्क यानी मुखौटा। मध्यकाल में मसखरा शब्द ने मेकअप और कास्मैटिक की दुनिया में प्रवेश पाया और इसका रूपांतर मस्कारा mascara में हो गया जिसके तहत मेकअप करते समय महिलाएं काले रंग के आईलाईनर से अपनी भौहों और पलकों को नुकीला और गहरा बनाती हैं। आवारगी, बेचारगी, दीवानगी की तर्ज पर मस्खरः में ‘अगी’ प्रत्यय लगने से अरब,फारसी में बनता है मस्खरगी यानी मसख़रापन या ठिठोलेबाजी। मगर इसके विपरीत इसमें ‘शुदा’ प्रत्यय लगने से बन जाता है विकृत, रूपांतरित आदि।
हालांकि सेमेटिक भाषा परिवार की होने के बावजूद अरबी ज़बान में मस्ख की मौजूदगी मूलभूत नहीं जान पड़ती। संस्कृत में एक धातु है मस् जिसका मतलब है रूप बदलना, पैमाइश करना। इसके अतिरिक्त इसमें ऊपर का या ऊपरी जैसे भाव भी हैं। याद रहे मस्तक शरीर का सबसे ऊपरी हिस्सा या अंग है। इसी ऊपरी अंग पर ही मुखौटा भी लगाया जाता है जो मसखरे की खास पहचान है। इससे बना है मसनम् जिसका मतलब है एक प्रकार की बूटी (चेहरे पर लेपन के लिए )। हिन्दी-संस्कृत के मस्तक या मस्तकः या मस्तम् ( सिर, खोपड़ी ) शब्द के मूल में भी यही मस् धातु है। गौर करें कि मस्ख से बने मास्क को मस्तक पर ही लगाया जाता है। मस्तिष्क यानी दिमाग़ का मस्तक से क्या रिश्ता है बताने की ज़रूरत नहीं, ज़ाहिर है इसके मूल में भी यही धातु है। माथा, मत्था जैसे देशज शब्द भी इसी की उपज हैं। मस् धातु में निहित रूप बदलने के अर्थ से ही खुलता है एक और शब्द का जन्मसूत्र।
संस्कृत में सियाही के लिए मसि शब्द प्रचलित है। इसका हिन्दी में भी इस्तेमाल होता है। कबीर का मसि-कागद छुए बिना विशाल साहित्य रच देना सबको चमत्कृत करता है। यह मसि भी मस् की देन है। गौर करें मसिलेखन किसी भी सतह पर ही होता है। मसि अपने आप में एक रंग है और प्रकारांतर से लेपन ही। चेहरे को विविध रंगों से रंगना बहुरूपियों का शगल होता है। चेहरा बिगाड़ने के लिए सियाही भी पोती जाती है। जलपोत का सबसे ऊंचे सिरे को मस्तूल कहते हैं जिस पर ध्वज लहराता है और जो हवा बहने की दिशा भी बताता है। मस्तूल mastool अरबी का शब्द है। अंग्रेजी में इसे मास्ट कहते हैं। अखबारों के ऊपरी सिरे पर जिस पट्टी में अखबार का नाम लिखा होता है, उसे भी मास्ट हैड कहते हैं। सड़कों के किनारे बिजली के खम्भे अब हाईमास्ट high mastमें बदल गए हैं। मास्ट शब्द भी भारोपीय मूल का है और इसकी रिश्तेदारी मस् धातु में निहित ऊपरी शब्द से है। भाषा विज्ञानियों नें प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार में एक धातु mazdos खोजी है जिसका अर्थ है ऊंचा डण्डा। एटिमऑनलाईन के मुताबिक पोस्ट जर्मनिक में इससे mastaz शब्द बनता है जिसका अंग्रेजी रूपांतर mast हुआ।  -संशोधित पुनर्प्रस्तुति

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Friday, June 4, 2010

जरूर कोई ‘कांड’ हुआ है…

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हि न्दी में कांड (काण्ड) शब्द खूब प्रचलित है। कांड का अर्थ है कोई घटना। आमतौर पर इसके साथ अप्रिय, अशुभ प्रसंग का संदर्भ जुड़ा है। कांड से काणा की भी रिश्तेदारी है। ऐसा कोई प्रकरण जो अतीत से चला आ रहा है, कांड के दायरे में आता है। मीडिया का भी यह प्रिय शब्द है। खबरों की दुनिया में जब तक कांड न हो, अखबार नीरस लगते हैं। रिश्वत कांड, घूस कांड, हथियार कांड, बलात्कारकांड, आंख फोड़ो कांड आदि। पड़ोसी के घर से ऊंचे सुर में चिल्लाने या रोने की आवाज आते ही लगता है, जरूर कोई कांड हुआ है यानी बड़ी घटना हुई है।  जिस तरह किसी भी कांड यानी प्रकरण की कई परतें होती हैं उसी तरह ‘कांड’ बहुआयामी अर्थवत्तावाला शब्द है और इसकी रिश्तेदारियां बोलचाल के कई आमफहम शब्दों से है। मूलतः कांड शब्द का अर्थ अनुभाग, अंश, हिस्सा या खंड होता है। प्रसंग, अध्याय या विभाग भी इसकी अर्थवत्ता में शामिल हैं। किसी पुस्तक के अलग अलग अध्यायों को भी कांड कहा जाता है। रामचरित मानस ग्रंथ के अध्याय कांड कहलाते हैं जैसे अयोध्या कांड, लंका कांड आदि। धार्मिक ग्रंथों के कांड या प्रसंगों का आकार चाहे जितना सीमित रहा हो परंतु उनकी विवेचना इतनी विस्तृत होती चली गई कि कांड शब्द में विस्तार शब्द समा गया। इसीलिए कालांतर में बड़ी घटना या अप्रिय अंतहीन प्रसंग के रूप में ही कांड शब्द रूढ़ हो गया।
कांड शब्द बना है संस्कृत की कण् धातु से जिसमें क्षीण, सूक्ष्म और छोटे होते जाने का भाव है। कण् से ही बना है संस्कृत का कणः और हिन्दी का कण शब्द जिसका अर्थ है अनाज का दाना, अणु, जर्रा, बूंद या सूक्ष्मतम परिमाण आदि।कण अर्थात सूक्ष्मतम अंश या परिमाण की निर्मिति के पीछे उसका लघुतम होते जाना ही है। कण् में पीसना, चूरना, चूर्ण जैसा भाव भी है। चूर्ण करने या पीसने की क्रिया किसी वस्तु या पदार्थ को लगातार तोड़ना या विभाजित करना ही है। इसके लिए

thai-dance9 कांड का अर्थ लकड़ी, लाठी या बेंत भी होता है। कांड में निहित अनुच्छेद या अनुभाग का भाव बांस के तने की बनावट पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है।

सबसे पहले उस वस्तु पर आघात करना पड़ता है, अथवा उसमें छेद करना पड़ता है। इस तरह उस वस्तु का आकार लगातार सूक्ष्मतम होता जाता है। यही है कण् में निहित छोटा होते जाने के भाव की व्याख्या। कांड में निहित अध्याय, परिच्छेद जैसे भावों पर गौर करें। किसी सम्पूर्ण ग्रंथ को विविध प्रसंगों में विभाजित करते हैं ये अध्याय। अध्याय यानी खंड, हिस्सा, अंश आदि। संस्कृत के खण्ड, खांड, गुंड, गंड, गुड़ या अग्रेजी का कैंडी आदि भी इसी शब्द शृंखला का हिस्सा हैं।
संस्कृत के खण्डः शब्द की बड़ी व्यापक पहुंच है। इससे मिलती जुलती ध्वनियों वाले कई शब्द द्रविड़, भारत-ईरानी, सेमेटिक और यूरोपीय भाषाओं में मिलते हैं। क ख ग वर्णक्रम में आनेवाले ऐसे कई शब्द इन तमाम भाषाओं में खोजे जा सकते हैं जिनमें खण्ड, खांड, गुंड, गंड, गुड़ या अग्रेजी का कैंडी की मिठास के साथ-साथ अंश, अध्याय या वनस्पति का भाव भी शामिल है। यह भाषाविज्ञानियों के बीच की सनातन बहस का विषय हो सकता है कि इन शब्दों का प्रसार पूर्व से पश्चिम को हुआ अथवा पश्चिम से पूर्व को। इस वर्ग के शब्द उन आर्यों की शब्द संपदा का हिस्सा हैं जिनकी मूलभूमि भारत ही मानी जाती है या उन आर्यों की शब्द संपदा से आए जिनकी मूलभूमि पश्चिमी विचारकों के मुताबिक एशिया माइनर थी।
खंड से पहले का रूप कण्ड है जिसमें फटकने, पके हुए अनाज से भूसी और दाने अलग करने का भाव है। यहां विभाजन का भाव स्पष्ट है। धार्मिक ग्रंथों के अनुच्छेद को भी कंडिका कहा जाता है। यह कांड का ही छोटा रूप है। कांड का अर्थ लकड़ी, लाठी या बेंत भी होता है। कांड में निहित अनुच्छेद या अनुभाग का भाव बांस के तने की बनावट पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है। बांस में थोड़ी थोड़ी दूरी पर जोड़ या गठान जैसे उभार होते हैं। इस उभार को संस्कृत में पर्व कहा जाता है। हिन्दी का पोर शब्द इसी मूल से आ रहा है। पोर पोर में दर्द जैसी अभिव्यक्ति के पीछे जोड़ों के दर्द की बात ही आ रही है। जाहिर है शरीर में जहां जोड़ होता है, वहां उठान भी होती है। इसे पर्व या पोर कहते हैं। उभार या उठान का का आकार ही पहाड़ में भी होता है, इसीलिए पर्व् से ही पर्वत शब्द बना। किन्ही सौर तिथियों के मेल को मांगलिक माना जाता है इसे भी पर्व कहते हैं। रामगोपाल सोनी की शब्द संस्कृति में वेद के तीन विभागों कर्मकांड, उपासना कांड और ज्ञानकांड का उल्लेख है। वेद के किसी विशिष्ट कांड या विभाग की विवेचना करनेवाले ऋषि को कांडर्षि भी कहा जाता है। [-जारी]

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Wednesday, May 26, 2010

इनकी रामायण, उनका पारायण!!!

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भा रतीय मनीषा का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है आस्था जिसकी वजह से उसने ज्ञान के विविध आयामों को छुआ है। समष्टि के प्रति आस्था के भाव ने न सिर्फ सृष्टि के स्थूल रूप को अनुभव किया बल्कि इस स्थूल भाव में भी जीवन के स्पंदन का चिंतन किया। इस विराट विश्व चिंतन का मार्ग आस्था की राह से ही होकर गुजरता रहा है। भारतीयता को अगर आस्था की संस्कृति कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसी आस्था-संस्कृति से उपजा एक आम शब्द है पारायण। मोटे तौर पर इसमें किसी ग्रंथ के आदि से अंत तक पाठ करने का भाव है। वाणी की सत्ता और  शब्दों की अर्थवत्ता में लगातार परिवर्तन और विस्तार होता रहता है सो पारायण parayana शब्द में भी घोटा लगाने का भाव समा गया। पारायण मूलतः ज्ञानमार्गी शब्द है। किसी धार्मिक ग्रंथ को नियमित रूप से आदि से उपसंहार तक पढ़ना ही पारायण है। पारायण में अखंड पाठ का भाव भी समाया है अर्थात पाठ का क्रम एक बार शुरू होने के बाद उसकी समाप्ति तक न रूके। नवरात्रों में इस तरह के अखंड पाठ होते हैं। देशज बोली में इसक किस्म के आयोजनों को रतजगा या जगराता कहा जाता है। हालांकि ग्रहस्थ लोग धार्मिक ग्रंथ का एक निश्चित भाग रोज पढ़ने का अनुशासन बांधना ज्यादा पसंद करते हैं और इस तरह एक निश्चित अवधि में ग्रंथ का पाठ सम्पूर्ण हो जाता है और फिर नया क्रम शुरू होता है।
पारायण बना है पारः + अयन से। संस्कृत में पारः या पारम् का अर्थ होता है दूसरा किनारा, किसी वस्तु या क्षेत्र का अधिकतम विस्तार, सम्पन्न करना, निष्पन्न करना, पूरा करना आदि। पारः बना है पृ धातु से जिसमें उद्धार करना, अनुष्ठान करना, उपसंहार करना, योग्य या समर्थ होना जैसे भाव हैं। स्पष्ट है कि मूल रूप से किसी क्रिया के सम्पूर्ण विस्तार के साथ सम्पन्न होने का भाव ही पार में निहित है। दूसरा किनारे की कल्पना तभी साकार होती है जब बीच का अन्तराल अपनी सम्पूर्णता के साथ सम्पन्न होता है। हिन्दी में परे हटना, परे जाना जैसे वाक्य आम बोलचाल में शामिल हैं। इनमें जो परे है उसका सम्बंध पृ धातु से ही है जिसमें निहित विस्तार का भाव दूर जाने, छिटकने जैसे अर्थों में उभर रहा है। पृ में निहित विस्तार का भाव पृथक में भी उभरता है और पृथ्वी में भी। असीम विस्तार की अनुभूति होने के बाद ही भारतीय मनीषियों नें धरती को पृथिवी कहा। अलग होना, छोडना, छिटकना में भी विस्तार का भाव है जो संस्कृत के पृथक में अभिव्यक्त हो रहा है।
पारायण का दूसरा हिस्सा है अयन् जिसका संस्कृत रूप है अयनम् या अयणम् जिसमें जाने, हिलने, गति करने का भाव है। अयनम् का अर्थ रास्ता, मार्ग, पगडण्डी, पथ आदि भी होता है। अवधि या संधिकाल जैसे भाव भी इसमें निहित हैं। अयनम् बना है अय् धातु से। इसमें फलने-फूलने, निकलने का भाव है जो गतिवाचक हैं। जाहिर है अयनम् में निहित गति, राह, बाट का स्रोत तार्किक है। उदय शब्द में छिपे अय् को पहचानिए और फिर इसमें निहित उदित होने, उगने जैसे मांगलिक भाव स्वतः स्पष्ट हो जाएंगे। संस्कृत की उद् धातु में ऊपर उठने का भाव है। उद् + अय् के योग का अर्थ हुआ अपनी सम्पूर्णता का, सकारात्मकता के
6_470x340पारायण इन्सान के हिस्से ही आया है, दीमकें कभी पारायण नहीं करती अलबत्ता हर सफे से गुजरना उन्हें भी आता है। सजी संवरी जिंदगी के विद्रूप ठहराव है। पारायण रट्टा या घोटा नहीं, जीवन से गुजरना है।
साथ ऊपर उठना। प्रकृति में सूर्य और चंद्र ही इस भव्यता और मंगल रूप में दिखते हैं। सूर्य और चंद्र मनुष्य के आदि-शुभंकर हैं और इसीलिए सूर्योदय, चंद्रोदय मांगलिक हैं। उदय से बने कुछ अन्य शब्द हैं अभ्युदय, भाग्योदय आदि। उत्तरायण, दक्षिणायन, चान्द्रायण जैसे शब्द भी इसी कड़ी से जन्मे हैं।
रामायण ramayana इस कड़ी का सबसे महत्वपूर्ण शब्द है जिसका अर्थ हुआ राम का चरित्र मगर इसका भावार्थ है राम का अनुगमन करना, राम शब्द के पीछे जाना। चरित्र शब्द चर् धातु से बना है जिससे चरण भी बना है। राह –बाट  चलने की शैली से ही किसी व्यक्ति का किरदार यानी चरित्र बनता है।  घर के बुजुर्गों की चरणवंदना भी “चलते रहने” अर्थात उनकी अनुभवी जीवन यात्रा का सम्मान करना है क्योंकि जिन चरणों से वे चले हैं उन्हें छूकर, प्रकारांतर से उनके ज्ञानी होने को मान्यता देने की विनम्रता और कृतज्ञता ही चरणस्पर्श का उद्धेश्य है। सो राम की राह है रामायण। इसीलिए तुलसीदासजी द्वारा रामायण अर्थात रामकथा का भावानुवाद रामचरितमानस् अद्भुत है। यही भाव कृष्णायन मे भी है। आज हिन्दी में घोटा लगाने, रटने  के रूप में पारायण को नई अर्थवत्ता मिल मिल गई है और रामायण का भी असमाप्त कथा या ऊबाऊ किस्से के रूप में अर्थ-पतन हो गया है।
य् से बने अयनम् में जब पारः जुड़ता है तब बनता है पारायणम् जिसका भावार्थ हुआ किसी एक बिन्दु से यात्रा शुरू कर धीरे-धीरे विस्तार में जाना और उसे सम्पन्न कर अंतिम बिन्दु तक पहुंचना। पारायण में राह, गति, विस्तार और फिर विराम का भाव है। आदि से अंत तक ग्रंथ के नियमित पाठ का भाव इसमें रूढ़ हुआ, मगर पारायण में निहित दार्शनिक भाव में शून्य से अनंत की जीवन यात्रा का संकेत छुपा हुआ है। अगर हम जिंदगी की किताब के पन्ने भी पारायण वाली शिद्दत से पलटते रहे तो यकीनन जिंदगी का असली मज़ा भी ले पाएंगे। वर्ना शेल्फ में सजी-संवरी किताबों जैसी जिंदगी किसी काम की नहीं। याद रखें पारायण इन्सान के हिस्से ही आया है, दीमकें कभी पारायण नहीं करती अलबत्ता हर पृष्ठ से गुजरना उन्हें भी आता है। सजी संवरी जिंदगी का विद्रूप ठहराव है।  पारायण रट्टा या घोटा नहीं, जीवन से गुजरना है।

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Sunday, May 9, 2010

अपना हाथ जगन्नाथ…यानी महिमा कर्म की

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भा रतीय मनीषियों ने हाथों का प्रतीकार्थ और उसका आध्यात्मिक महत्व बहुत पहले जान लिया था इसीलिए "प्रभाते करदर्शनम्" जैसे आत्मानुशासन की व्यवस्था की। वे हाथ, जो हमारे भाग्यविधाता हैं, उनकी स्तुति दर्शनमात्र से हो जाती है। मनुष्य के हाथों में ही पुरुषार्थ है। अथर्ववेद में कहा गया है कि अगर पुरुषार्थ मेरे दाएं हाथ में है तो सफलता बाएं में अवश्यंभावी है। इसी तरह श्रमार्जित सफलता (कर) के सामाजिक बंटवारे के बारे में भी वेदों में उल्लेख है कि सैकड़ों हाथों से अर्जित करो और हजारों हाथों से वितरित करो। वितरण के अर्थ में भी "कर" शब्द महत्वपूर्ण है। कर यानी भेंट, दक्षिणा, उपहार आदि। कुछ करने पर उत्पन्न पदार्थ की भेंट ही "कर" है। राज्य-प्रशासन की अवधारणा विकसित होने के साथ ही जब वाणिज्य-व्यवसाय का विकास भी होता गया तब इस श्रमार्जित कर के सामाजिक बंटवारे के लिए टैक्स tax के रूप में "कर" शब्द को नया अर्थ मिला। कर के रूप में समाज को मिलनेवाली भेंट या उपहार जब अनिवार्य हो गया तो उस व्यवस्था को कराधान कहा गया। तय हैgiving-hands-thumb कि टैक्स यानी कर का संबंध कार्य करने से है, कर यानी हाथों से है। भारतीय संस्कृति में  हाथ अर्थात "कर" को इतना ऊंचा दर्जा दिया गया है कि उसे सभी प्रकार के कर्मों का आवास कहा गया है। प्रातःकाल उठते ही स्व हस्त दर्शनम् के आध्यात्मिक अर्थ है। सुख-समृद्धि और कल्याण – मंगल के चिह्न भारतीय मनीषा हथेलियों में देखती है- कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वतीम्। करमूले स्थिता काली प्रभाते कर दर्शनम्।। अर्थात हथेली के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती, मूल में काली का निवास होने से सुबह हथेलियों को देखना शुभ होता है।
हाथ के लिए संस्कृत में "कर" शब्द है जो कृ धातु से बना है और जिसका अर्थ है करनेवाला। मनुष्य के शरीरांगों में हाथों के जरिये ही क्रियाएं सम्पन्न होती हैं इसलिए जो करता है या कराता है के अर्थ में हाथों के लिए कर शब्द स्थिर हुआ। सिखों में धार्मिक सामाजिक प्रयोजन से किए गए श्रमदान को कारसेवा कहा जाता है। अक्सर लोग इसे कार्यसेवा समझ बैठते हैं पर यह गलत है। इसका रिश्ता भी कर से है। कार्य भी एक क्रिया है और सेवा भी क्रिया ही है सो एक ही अर्थवाली दो क्रियाओं
HANDS गौर करें शरीर से बाहर निकलती दो भुजाएं वृद्धि का ही प्रतीक हैं। यूं भी भुजाओं का लम्बा होना शुभकारी माना जाता है। शास्त्रों में असमान भुजाओं वाले व्यक्ति को चोर कहा गया है।  छोटी भुजाओवाला व्यक्ति दास होता है। घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाला व्यक्ति दैवीय और राजसी गुणों से सम्पन्न होता है। ईश्वर को आजानुभुज कहा गया है क्योंकि उनकी भुजाएं लम्बी होती हैं।
से बने समास का औचित्य नहीं है। कारसेवा कर + सेवा से मिलकर बना है। पंजाबी में प्रथमाक्षर के साथ स्वरविस्तार हो जाता है सो करसेवा का कारसेवा रूप प्रचलित है। संस्कृत की कृ धातु से बना है "कर" जिसका अर्थ होता है हाथ, हथेलियां। कृ धातु बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी व्याप्ति भारोपीय भाषाओं के कई शब्दों में नजर आती है। हिन्दी की सर्वाधिक प्रयुक्त क्रियाओं करना का शुमार है जो इसी कृ से बनी है। क्रिया शब्द का निर्माण भी कृ से ही हुआ है। कृ में मूलतः रचना, बनाना, नष्ट करना, छितराना, बिखराना, फैलाना जैसे भाव है जिनमें सृष्टि विस्तार का संकेत निहित है। कृ धातु में निर्माण से जुड़े सारे भाव समाहित हैं। लिखना, जन्म देना, काम लेना या आज्ञा मानना, धारण करना, पहनना, सोचना, इस्तेमाल करना जैसी क्रियाएं भी इसमें शामिल हैं।
कृ की महिमा किराना या किरानी जैसे शब्दों में भी नजर आ रही है जो हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में हैं। कृ का ही एक अन्य रूप है क्री इसका मतलब होता है खरीदना, मोल लेना। किराए पर लेना या बेचना। कृ में निहित करने का क्रियाभाव क्री में सिर्फ खरीदने-बेचने की क्रिया में सीमित हुआ है। विनिमय या अदला बदली भी इसमें शामिल है। क्री से ही एक अन्य क्रियारूप बनता है क्रयः जिसका अर्थ भी खरीदना, मूल्य चुकाना है। इसमें वि उपसर्ग लगने से बना विक्रय जिसका मतलब हुआ बेचना। जाहिर है क्रय से ही हिन्दी के खरीद, खरीदना जैसे शब्द बने और विक्रय से बिक्री बना। इससे ही बने क्रयणम् या क्रयाणकः जिसने हिन्दी उर्दू में किरानी और किराना का रूप लिया। किरानी का एक दूसरा मतलब है क्लर्क, बाबू। खाताबही लिखने वाला। अब इन अर्थो में इस शब्द का प्रयोग हिन्दी में लगभग बंद हो गया है मगर अंग्रेजीराज से संबंधित संदर्भों में यह शब्द अनजाना नहीं है। यह बना है करणम् से जिसका मतलब है कार्यान्वित करना, धार्मिक कार्य, व्यापार-व्यवसाय, बही, दस्तावेज, लिखित प्रमाण आदि । गौरतलब है कि यह लफ्ज भी बना है संस्कृत धातु कृ से जिसका मतलब है करना, बनाना, लिखना, रचना करना आदि। हाथ को संस्कृत में "कर" कहते हैं। यह इसीलिए बना क्योंकि हम जो भी करते हैं, हाथों से ही करते हैं सो कृ से ही बना कर यानी हाथ। मोरक्को का प्रसिद्ध यात्री अबु अब्दुल्ला मुहम्मद जिसे हम इब्न बतूता के नाम से जानते हैं चौदहवीं सदी में भारत आया था और उसके यात्रा वर्णन में भी किरानी शब्द का उल्लेख है जो एकाउंटेंट के अर्थ में ही है।
कृ धातु का एक अर्थ हाथी की सूंड भी होता है। गौर करें सूंड ही हाथी के लिए हाथ का काम करती है। संस्कृत में हाथ के लिए हस्तः शब्द है। हस्तः से ही बना है हस्तिन् जिसका मतलब हुआ हाथ जैसी सूंडवाला। गौरतलब है कि वो तमाम कार्य, जो मनुष्य अपने हाथों से करता है, हाथी अपनी सूंड से कर लेता है इसीलिए पृथ्वी के इस सबसे विशाल थलचर का हाथी नाम सार्थक है। हस्तिन् का एक अर्थ गणेश भी होता है जो उनके गजानन की वजह से बाद में प्रचलित हुआ। इसी तर्ज पर कर यानी जो करता है अर्थात मनुष्य के धड़ से जुड़े अंगों के लिए हाथ का भाव स्थिर हुआ। हस्ति की तरह ही कर में भी हाथी की सूंड का भाव स्थिर हुआ और इससे बने करटः या करटिन् का मतलब हुआ हाथी। कर से बने करिन् का अर्थ भी हाथी होता है। हाथी के बच्चे को करिनशावक कहते हैं। गणेश का एक नाम गजानन की तरह करिनमुख भी है। करिणी यानी हथिनी। करतालिका का अर्थ हुआ दोनों हथेलियों को आपसे में थपकने से पैदा होने वाली ध्वनि जिसे करतल ध्वनि कहते हैं अर्थात हथेलियों के तल से उत्पन्न आवाज। इसका ही hand संक्षिप्त रूप ताली हुआ। हाथ के लिए संस्कृत में हस्त शब्द है। हथेली बना है हस्त+तालिकः = हथेली से। हस्त यानी हाथ और तालिकः यानी खुला पंजा जिसकी सतह नजर आती है। यही हाथ का तल या सतह है जो भूमि पर टिकती है। हाथ का महत्व अपना हाथ जगन्नाथ जैसी कहावत में भी नजर आता है। कर शब्द में विशालता का भाव भी है जो मूलतः वृद्धि अर्थात समृद्धि से जुड़ा है। गौर करें शरीर से बाहर निकलती दो भुजाएं वृद्धि का ही प्रतीक हैं। यूं भी भुजाओं का लम्बा होना शुभकारी माना जाता है। शास्त्रों में असमान  भुजाओं वाले व्यक्ति को चोर कहा गया है। छोटी भुजाओवाला व्यक्ति दास होता है। घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाला व्यक्ति दैवीय और राजसी गुणों से सम्पन्न होता है। ईश्वर को आजानुभुज कहा गया है क्योंकि उनकी भुजाएं लम्बी होती हैं। इसी अर्थ में अपना हाथ, जगन्नाथ जैसी लोकोक्ति को भी समझना चाहिए।
कृ धातु का एक अर्थ प्रकाश भी है जिसका रिश्ता किरण से है। किरण में यही कृ धातु उभर रही है। किसी भी प्रकाश पुंज से निकलती आलोक-रेखाओं को आमतौर पर रश्मि कहते हैं। बोलचाल की भाषा में इसके लिए किरण शब्द खूब चलता है। किरणों का बिखरना ही उजाला होना है। किरण और बिखराव में गहरी रिश्तेदारी जो ठहरी। कृ धातु में फैलाना, बिखेरना, इधर-उधर फेंकना, छितराना, तितर-बितर करना, भरना, प्रहार करना, काटना आदि भाव शामिल हैं। इसके खुदाई करना भी इसमें शामिल है। विकिरः, विकिरण या विकीर्ण शब्द इससे ही बने हैं और बिखराव, बिखरना, बखरना या बिखराना जैसे शब्द इसी विकिरण के रूपांतर हैं। खेती किसानी के काम आने वाले उपकरणों में हल-बक्खर आम हैं। इसमें जो बक्खर है उसकी रिश्तेदारी भी विकिरः यानी बिखराने से है। बीजों को बोने से पहले भूमि को जोता जाता है। जुताई में मिट्टी को छितराने, फैलाने और बिखेरने जैसी क्रियाएं ही तो शामिल हैं। खेती के लिए कृषि शब्द की मूल धातु है कृष् जिसमें भी यही कृ नज़र आता है। कृष् का अर्थ हुआ हल चलाना, खींचना आदि। प्रतिमाओं को तराशने , नक्काशी करने के लिए संस्कृत में उत्कीर्ण शब्द है। ध्यान दें, कृ में शामिल काटना, खुदाई करना या चोट पहुंचाने जैसे अर्थों पर। कृ में उद् उपसर्ग [ यानी ऊपर से ] लगने से बना उत्कीर्ण जिसका भाव हुआ शिला या प्रस्तर पर ऊपर से काट-छांट कर प्रतिमा की आकृति तराशना। तराशने, उत्कीर्ण करने के अर्थ में अंग्रेजी के कार्व [CARVE] में भी कृ में मौजूद खोदने का भाव झांक रहा है। आकृति शब्द भी कृ धातु की ही देन है।

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Thursday, May 6, 2010

सैनिक सन्यासियों का स्वरूप/आस्था का अखाड़ा-2

shankaracharyas_020401देशभर में दशनामियों की कुल 52 मढ़ियां हैं जो शंकराचार्यों की चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं। सर्वाधिक 27 मठिकाएं गिरि दशनामियों की है
शंकराचार्य ने दशनामी परम्परा को महाम्नाय के अनुशासन से बांधा। आम्नाय का अर्थ है रीति, वैदिक ज्ञान, पुण्य-प्रेरित ज्ञान, कुल तथा राष्ट्र की परम्पराएं। जैन तथा बौद्ध दर्शन में भी आम्नाय शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। चारों दिशाओं में स्थापित मठों को जब महाम्नाय अर्थात सनातन हिन्दुत्व की नवोन्मेषी धारा से बांधा गया तो उसे मठाम्नाय कहा गया। इन्हीं मठाम्नायों के साथ दशनामी सन्यासी संयुक्त हुए। वन, अरण्य नामधारी सन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए, पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदपीठ के साथ तीर्थ एवं आश्रम नामधारी सन्यासियों को जोड़ा गया। उत्तर स्थित बदरीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी सन्यासी जुड़े तो सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के शृंगेरी मठ के साथ जोड़ागया।
धर्मरक्षक सेना
ठाम्नायों के साथ अखाड़ों की परम्परा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से ही जुड़ गई थी। चारों पीठों की देशभर में उपपीठ स्थापित हुई। कई शाखाएं-प्रशाखाएं बनीं जहां धूनि, मढ़ी अथवा अखाड़े जैसी व्यवस्थाएं बनी जिनके जरिये स्वयं kumbh सन्यासी पोथी, चोला का मोह छोड़ कर थोड़े समय के लिए शस्त्रविद्या सीखते थे बल्कि आमजन को भी इन अखाड़ों के  जरिये आत्मरक्षा (प्रकारांतर से धर्मरक्षा ) के लिए सामरिक कलाए सिखाते थे। इस तरह अखाड़ों के जरिये धर्मरक्षक सेना का एक स्वरूप बनता चला गया। हिन्दूधर्म को इस्लाम की आंधी से बचाने के लिए सिख पंथ एक सामरिक संगठन के तौर पर ही सामने आया था। इसके महान गुरुओं ने अध्यात्म की रोशनी में लोगों को धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाने की प्रेरणा दी। अखाड़ों का यह स्वरूप प्रायः हर धर्म-सम्प्रदाय में रहा है। दुनियाभर के धार्मिक आंदोलनों के साथ अखाड़ा अर्थात आत्मरक्षा से जुड़ी तकनीक को ध्यान-प्राणायाम से जोड़कर अपनाया गया। हर धार्मिक सम्प्रदाय के साथ शस्त्रधारी रहे हैं और धर्म या पंथ अथवा मठ पर आए खतरों का सामना इन्होंने किया है। बौद्ध धर्म चीन तक पहुंचाने का श्रेय पांचवीं सदी के जिन आचार्य बोधिधर्म को दिया जाता है उन्हें ही चीन की प्रसिद्ध मार्शल आर्ट शैलियों को विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। अहिंसक धर्म के आचार्य ने मूलतः ध्यान केन्द्रित करने की तकनीक के तौर पर इस कला को जन्म दिया जिसे बाद में आत्मरक्षा की कला के तौर पर मान्यता दे दी गई। गौरतलब है कि ध्यान ही जापान पहुंच कर ज़ेन हुआ। मध्यकाल मे चारों पीठों से जुड़ी दर्जनों पीठिकाएं सामने आई जिन्हें मठिका कहा गया। इसका देशज रूप मढ़ी प्रसिद्ध हुआ। देशभर में दशनामियों की ऐसी कुल 52 मढ़ियां हैं जो चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं। इनमें सर्वाधिक 27 मठिकाएं गिरि दशनामियों की है, 16 मठिकाओं में पुरी नामधारी सन्यासी काबिज है, 4 मढ़ियों में भारती नामधारी दशनामियों का वर्चस्व है और एक मढ़ी लामाओं की है। साधुओं में दंडी और गोसाईं दो प्रमुख भेद भी हैं। तीर्थ, आश्रम, भारती और सरस्वती दशनामी दंडधर साधुओं की श्रेणी में आते है जबकि बाकी गोसाईं कहलाते हैं।
अखाड़ों की शुरुआत
हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों का अस्तित्व यूं तो प्राचीनकाल से ही रहा है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा अखंड आह्वान अखाड़ा सन् 547ई में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं। अखाड़ा शब्द के मूल में अखंड शब्द को भी देखा जाता है। कालांतर में अखंड का देशज रूप अखाड़ा हुआ। हालांकि भाषाशास्त्र की दृष्टि से अखाड़ा की यह व्युत्पत्ति सही नहीं है। आज जो अखाड़े प्रचलन में हैं उनकी शुरूआत चौदहवी सदी से मानी जाती है। वर्तमान में हरिद्वार के कुम्भ में शाही स्नान के क्रम में प्रसिद्ध सात शैव अखाड़ों में श्रीपंचायती तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनाम जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा और श्रीपंचायती अटल अखाड़ा हैं। वैष्णव साधुओं के अखाड़ों के बाद कुछ अन्य अखाड़े भी आते हैं। गुरु नानकदेव के पुत्र श्रीचंद ने उदासीन सम्प्रदाय चलाया था। इसके दो अखाडे श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा और श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा भी सामने आए। इसी तरह सिखों की एक पृथक जमात निर्मल सम्प्रदाय का श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा भी सामने आया। पहले सिर्फ शैव साधुओं के अखाड़े होते थे। बाद में वैष्णव साधुओं में भी अखाड़ा परम्परा शुरू हुई। शैव जमात के सात अखाड़ों के बाद वैष्णव बैरागियों के तीन खास अखाड़े हैं-श्री निर्वाणी अखाड़ा, श्रीनिर्मोही अखाड़ा और श्रीदिगंबर अखाड़ा। शैवों और वैष्णवों में शुरू से संघर्ष रहा है। शाही स्नान के वक्त अखा़ड़ों की आपसी तनातनी और साधु-सम्प्रदायों के टकराव खूनी संघर्ष में बदलते रहे हैं। हरिद्वार कुंभ में तो ऐसे अनेक बार हुए हैं। वर्ष 1310 के महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानंद वैष्णवों के बीच हुए झगड़े ने खूनी संघर्ष का रूप ले लिया था। वर्ष 1398 के अर्धकुंभ में तो तैमूर लंग के आक्रमण से कई जानें गई थीं । वर्ष 1760 में शैव सन्यासियों व वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ था। 1796 के कुम्भ में शैव संन्यासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गए थे। विभिन्न धार्मिक समागमों और खासकर कुम्भ मेलों के अवसर पर साधु संगतों के झगड़ों और खूनी टकराव की बढ़ती घटनाओं से बचने के  लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई जो सरकार से मान्यता प्राप्त है। इसमें कुल मिलाकर उक्त तेरह अखाड़ों को शामिल किया गया है। प्रत्येक कुम्भ में शाही स्नान के दौरान इनका क्रम तय है।
क्या है अखाड़ा ?
खाड़ा यूं तो कुश्ती से जुडा हुआ शब्द है मगर जहां भी दांव-पेच की गुंजाइश होती है वहां Varanasi7इसका प्रयोग भी होता है। आज की ही तरह प्राचीनकाल में भी शासन की तरफ से एक निर्धारित स्थान पर जुआ खिलाने का प्रबंध रहता था जिसे अक्षवाटः कहते थे। यह बना है दो शब्दों अक्ष+वाटः से मिलकर। अक्षः के कई अर्थ है जिनमें एक अर्थ है चौसर या चौपड़, अथवा उसके पासे। वाटः का अर्थ होता है घिरा हुआ स्थान। यह बना है संस्कृत धातु वट् से जिसके तहत घेरना, गोलाकार करना आदि भाव आते हैं। इससे ही बना है उद्यान के अर्थ में वाटिका जैसा शब्द। चौपड़ या चौरस जगह के लिए बने वाड़ा जैसे शब्द के पीछे भी यही वट् धातु झांक रही है। इसी तरह वाटः का एक रूप बाड़ा भी हुआ जिसका अर्थ भी घिरा हुआ स्थान है। वर्ण विस्तार से कही कहीं इसे बागड़ भी बोला जाता है। इस तरह देखा जाए तो अक्षवाटः का अर्थ हुआ जहां पर पांसों का खेल खेला जाए । जाहिर है कि पांसों से खेला जानेवाला खेल जुआ ही है सो अक्षवाटः का अर्थ हुआ द्यूतगृह अर्थात जुआघर। अखाड़ा शब्द कुछ यूं बना - अक्षवाटः > अक्खाडअ > अक्खाडा > अखाड़ा। द्यूतगृह जब अखाड़ा कहलाने लगा और खेल के दांव-पेंच से ज्यादा महत्व हार-जीत का हो गया तो नियम भी बदलने लगे। अब दांव पर रकम ही नहीं , कुछ भी लगाया जाने लगा । महाभारत का द्यूत-प्रसंग सबको पता है। इसी तरह अखाड़े में वे सब शारीरिक क्रियाएं भी आ गईं जिन्हें क्रीड़ा की संज्ञा दी जा सकती थी और जिन पर दांव लगाया जा सकता था। जाहिर है प्रभावशाली लोगों के बीच आन-बान की नकली लड़ाई के लिए कुश्ती इनमें सबसे खास शगल था , सो घीरे धीरे कुश्ती का बाड़ा अखाड़ा कहलाने लगा और जुआघर को अखाड़ा कहने का चलन खत्म हो गया। अब तो व्यायामशाला को भी अखाड़ा कहते हैं और साधु-सन्यासियों के मठ या रुकने के स्थान को भी अखाड़ा कहा जाता है। कहां जुआ खेलने की जगह और कहां साधु-सन्यासियों की संगत ! [समाप्त]

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Sunday, May 2, 2010

[नामपुराण-11] घुड़दौड़ वाले वाजपेयीजी

 VCharRace

दे वीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी पुस्तक लोकायत में वाजपेय का रिश्ता अन्न और पेय से जोड़ते हैं। वाजपेय यज्ञ सोमयज्ञ की श्रेणी में आता है। अपने सरल रूप में वाजपेय जैसे अनुष्ठान का रिश्ता अन्न और पेय से ही है। अन्न उत्पादन और कृषि उत्पादन कार्यों के संदर्भ में इस अनुष्टान के साथ दार्शनिक सामाजिक और राजनैतिक चिंतन बाद में जुड़ा। कालांतर में वाजपेय अनुष्ठान यज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। कहा जा सकता है कि ग्रामीण संस्कृति में वाजपेय अनुष्ठान उत्तम कृषि उत्पादन की अभिलाषा में किया जाने वाला अनुष्ठान था। उपज प्राप्ति के बाद इसे करने का प्रचलन शुरू हुआ जिसमें प्राप्त सम्पदा में और अभिवृद्धि की अभीप्सा शामिल थी। कालांतर में यह अनुष्ठान एक
पिछली कड़ियां-1.नाम में क्या रखा है 2.सिन्धु से इंडिया और वेस्ट इंडीज़ तक 3.हरिद्वार, दिल्लीगेट और हाथीपोल 4. एक घटिया सी शब्द-चर्चा 5.सावधानी हटी, दुर्घटना घटी 6.नेहरू, झुमरीतलैया, कोतवाल, नैनीताल 7.दुबे-चौबे, ओझा-बैगा और त्रिपाठी-तिवारी 8.यजमान का जश्न और याज्ञिक.9.पुरोहित का रुतबा, जादूगर की माया.10.वाजपेयीजी की गति, जोश और शक्ति
उत्सव में परिवर्तित हुआ। वाजपेय यज्ञ में यज्ञादि क्रिया से इतर जनपदीय लोकानुरंजन भी जुड़े। वाज में निहित क्षमता, उत्साह, जोश, गति, वेग जैसे भावों का विस्तार परीक्षण, स्पर्धा, दौड़ जैसे भावों में हुआ। सदा के घुमक्कड़ आर्यों के साथ घोड़े शुरु से रहे हैं। पशुपालन संस्कृति में अश्व की बहुत महत्ता है।
वैदिक साहित्य में अश्व का विविधरूपी उल्लेख है। इस तरह वाज शब्द का एक अन्य अर्थ घोड़ा भी स्थिर हुआ और वाजपेय यज्ञ के संदर्भ में इसमें जंगी घोड़ा, युद्धाश्व जैसे अर्थ बने। ग्रामीण मेलों-ठेलों में होने वाले बैल दौड़, घुड़दौड़ जैसे आयोजनों में इसी वाजपेय की छाया देखी जा सकती है। वाजपेय यज्ञ का आयोजन अपने आरम्भिक स्वरूप में लोकोत्सव जैसा ही था। घुड़दौड़ या रथदौड़ इसका प्रमुख घटक बना। यह अश्व विजय का प्रतीक था और इस पर यज्ञकर्ता का स्वामित्व होता था। यज्ञकर्ता को वाजपेयी कहा जाता था। यह माना जा सकता है कि ब्राह्मण यजमान भी वाजपेयी कहलाता था और आहूति दिलानेवाला यज्ञकर्ता भी, जो बाद में पुरोहित कहलाता था।  हिलब्रांट ने इन आयोजनों की तुलना प्राचीन ओलिम्पिक से की है जो प्राचीन ग्रीकोरोमन संस्कृति का जनपदीय उत्सव ही था। राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार बाद में यह यज्ञ शासक की सार्वभौम सम्राट बनने की इच्छापूर्ति का जरिया बने। जो शासक अन्य राज्यों पर अधिकार कर उनके अधिपति बन जाते थे वे राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ अथवा वाजपेय यज्ञ कराने के भी अधिकारी बन जाते थे। प्रायः वाजपेय आयोजन में होने वाली घुड़दौड़ में यज्ञकर्ता के अलावा उसके परिजनों और अधीनस्थों के अश्व भी हिस्सा लेते थे पर यज्ञकर्ता का अश्व ही विजयी कहलाता था। प्रभावशाली व्यक्ति के लिए हर आयोजन में सुभीते निकल आते हैं। पुरोहित बहुत आसानी से रास्ते निकालते थे। मैच फिक्सिंग की परिपाटी बहुत प्राचीन रही है। वैतरणी पार कराने वाली कामधेनु आज तीर्थघाट पर अशक्त बछिया के रूप में दिखाई पड़ती है और दिन में सवा सत्ताईस बार वैतरणी पार करते हुए  बुढ़ा जाती है।
क्षत्रियों के वाजपेय में इसका प्रतीकार्थ शौर्य और दिग्विजय से जुड़ा। काशीप्रसाद जायसवाल के मुताबिक वाजपेय यज्ञ राजनीतिक उद्धेश्य से न होकर ऐश्वर्य की विजय (ओलिम्पिक विक्ट्री) का ही प्रतीक था। अलबत्ता इसे करनेhorse1 के बाद सम्राट की सार्वभौमिकता सिद्ध हो जाती थी। विद्वानों के मुताबिक प्राचीनकाल में विभिन्न वर्णों के लिए अलग अलग यज्ञों का विधान था। क्षत्रिय के लिए राजसूय यज्ञ धर्म था तो ब्राह्मण के लिए अधर्म। वाजपेय यज्ञ ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए धर्म था मगर वैश्य के लिए अधर्म। क्षत्रिय यज्ञकर्ता के लिए यह यज्ञ राज्याभिषेक से लेकर सम्राट पद प्राप्ति का निमित्त था और ब्राह्मण के लिए यह पुरोहित पद का पूर्वसंस्कार था। वाज या वाजि शब्द में निहित शक्ति का प्रतीकार्थ आयुर्वेद में भी काम आया। आयुर्वेद में ओषधि के जरिए शक्तिवर्धक प्रक्रिया को वाजिकरण कहा जाता है। यहां भाव अश्व के समान शक्तिवान होने से ही है। यह स्पष्ट है कि वाजपेय अनुष्ठान करानेवाले यज्ञकर्ता ही वाजपेयी कहलाए।  क्षत्रिय शासक द्वारा प्रतिष्ठा सिद्ध करने हेतु किए वाजपेय यज्ञ के बाद वह राजा या सम्राट कहलाता था और ब्राह्मण इस यज्ञ के बाद पुरोहित पद का अधिकारी होता था। दिलचस्प है यह कि इस अनुष्ठान के जरिये पुरोहित का रुतबा हासिल करनेवाले ब्राह्मणों ने अपने नाम के साथ वाजपेयी जोड़ कर इस यज्ञ को पुरोहित उपाधि की तुलना में भी अधिक महत्व दिया।
स यज्ञ में सतरह की संख्या का महत्व है। आश्वलायन श्रौत सूत्र में वाजपेय यज्ञ की दक्षिणाओं का ब्योरा मिलता है। वाजपेय यज्ञ के उपरांत यजमान के जीते हुए रथ का अधिकारी हो जाता है। यज्ञ दक्षिणा के रूप में 17 परिधान, 1700 गाएं, 17 घोड़े, 17 बैल, 17 अन्य पशु, 17 गाडियां और 17 हाथी पुरोहितों में बांट दी जाती हैं। वाजपेय जैसे सोम यज्ञों के दौरान दिन में तीन बार यानी प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल प्यालियों में सोमरस पिया जाता था। ध्यान रहे वाजपेय में वाज अर्थात वनस्पति या अन्न- शक्ति तथा पेय यानी तरल, रसपान का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में सोम का अत्यंत महत्व रहा है और इसके विविध प्रतीकार्थ हैं। मोटे रूप में सोम को शक्तिवर्धक तत्व के रूप में ही देखा जाता है और इसे उपज, मनुष्य को प्रदत्त दैवीय प्रसाद समझा जाता है। -जारी

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