Tuesday, April 15, 2008

दुबई में दिल्ली की बेरुखी, मुंबई की तेजी [बकलमखुद-18]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला की पंद्रह कड़ियों में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह और काकेश को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं दुबई में निवासी मीनाक्षी धन्वन्तरि से । मीनाक्षी जी प्रेम ही सत्य है नाम का ब्लाग चलाती हैं और चिट्ठाजगत का एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी के परिवेश से दूर रहते हुए भी वे कविताएं लिखती हैं खासतौर पर उनके हाइकू बहुत सुंदर होते हैं जिन्हें उन्होने त्रिपदम् जैसा मौलिक नाम दिया है। तो शुरू करतें बकलमखुद का पांचवां चरण और अठारहवीं कड़ी -


हर बसेरे की अपनी खासियत

तीन साल से दुबई में हैं. खुले माहौल में रहने का अलग ही मज़ा है. यहाँ बुरका नहीं पहनना पड़ता. मतुए का डर नहीं है. अकेले कहीं भी आ जा सकते हैं और चाहें तो लम्बी ड्राइव के लिए निकल जाएँ. यहाँ के अरब लोग अपने आप से मतलब रखते हैं. अलग अलग देशों के कुछ लोग एक दूसरे से दोस्ती करके एक दूसरे के बारे में जानने की कोशिश करते हैं. मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च हैं तो दूसरी तरफ सिनेमा, डिस्को, नाइट क्लब हैं. अपनी इच्छा से किसी भी रास्ते पर जाने की पूरी आज़ादी है. फिर भी साउदी अरब की सुकून वाली ज़िन्दगी याद आती है. जहाँ विकैंड का इंतज़ार रहता था जब 3-4 दोस्तों के परिवार मिल-जुल कर बैठते, बतियाते, खाते-पीते और पूरे हफ्ते की थकान दूर करते.
दुबई में मुम्बई की भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी और दिल्ली की बेरुखी है. सब भाग रहे हैं अपने अपने चक्रव्यूह को तोड़ने में लगे हैं. फिर भी बहुत से लोग हैं जो अपनी भाग-दौड़ की ज़िन्दगी से कुछ वक्त चुरा कर मस्ती भी करते हैं.

आह ! रेतीले धोरों पर वो मस्ती का आलम...

दो दिन पहले हम भी रियाद के मित्रों के साथ डैज़र्ट सफ़ारी के लिए गए. पहला अनुभव था लेकिन बेहद दिलचस्प. लैण्ड क्रूज़र घर से पिक करती है, रेगिस्तान में जाने से पहले गाड़ी के पहियों की कुछ हवा निकाल दी जाती है. फिर बड़े बड़े रेत के टीलों पर ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर गाड़ियाँ दौड़ाई जाती हैं. बीच बीच में लगता है कि गाड़ी उलट ही जाएगी. उसके बाद रेगिस्तान के बीच एक कैम्प में सभी गाड़ियाँ पहुँचती हैं. जहाँ सैंडयून बग्गी, कैमल राइड और सैंड स्कींग होती है. खाने-पीने और बैठने का बढिया इंतज़ाम होता है. औरते और बच्चे हिना लगवाते हैं. कुछ लोग हुक्का पीते हैं. अरबी संगीत चलता रहता है. सूरज डूबते ही बैली डाँसर बीच में बने प्लेटफॉर्म पर आकर अपने अनूठे डांस से सबको चमत्कृत कर देती है. रियाद में अरबी दोस्तों की छोटी छोटी बच्चियों को बैली डांस करते देखते तो तारीफ किए बिना रह न पाते.

दोस्तों के साथ मस्ती सबसे बड़ा शौक है

हाँ अधिकतर लोगों की दोस्ती होती अपनी ज़ुबान बोलने वाले भारत, पाकिस्तान, बंगला देश, श्री लंका आदि के लोगों से. हमें दूसरे देश के लोगों से दोस्ती करने ज़रा देर न लगती. इजिपशियन और फिलिस्तीनी लोग जल्दी दोस्ती कर लेते हैं लेकिन सीरियन और लेबनानी थोड़ा वक्त लेते हैं. एक दूसरे के रहन-सहन, खान-पान और संस्कृति को जानने की उत्सुकता सभी मे होती है. कितने ही साउदी, लेबनानी, सीरियन , इजिपशियन और ईरानी बॉलीवुड के दीवाने हैं. अधिकतर साउदी लोग अंर्तमुखी होते हैं. बहुत कम लोग दोस्ती कर पाते हैं. स्त्री और के ड्राइंगरूम अलग अलग होते हैं. भाषा की समस्या भी किसी हद तक जिम्मेदार होती है. जिन्हें अंग्रेज़ी आती है, वे अच्छी दोस्त बन जाती हैं.

ईरान जैसे दूसरा घर !

रान के दोस्त तो परिवार के हिस्सा ही हो गए हैं. विजय इंजीनियर और अली आग़ा आर्किटैक्ट सो उनकी दोस्ती आगे बढ़ी तो परिवार एक हो गए. पहली बार ईरानी मित्रों की भारत देखने की इच्छा पूरी की गई. एक महीने के दौरान ही परिवार जैसा स्नेह हो गया. हम साउदी अरब वापिस लौटे और वे ईरान के लिए रवाना हुए तो आँखों मे आँसू लेकर. कुछ महीनों बाद ईरान आने का न्यौता मिला.
पहली बार हम और बच्चे ईरान गए तो सभी हैरान परेशान कि कैसे हम उस देश मे अकेले जा सकते हैं बिना किसी डर के, हमेशा विजय बाद मे पहुँचते. 6 बार ईरान जा चुके हैं लेकिन एक बार भी कोई बुरा अनुभव नहीं हुआ. नाता और भी मज़बूत होता गया. वहाँ से लौटते हुए मित्र परिवार ही नहीं उनके मित्र और अन्य परिवार भी आँसू न रोक पाते. ठीक अपने देश के किसी गाँव का दृश्य होता, जहाँ बेटी की विदाई पर रोना धोना होता है.

और हमें सीता कहने लगे ईरानी

र यात्रा का अलग अलग अनुभव याद आ रहे हैं. पहली यात्रा के दौरान हम ईरान के जिस जिस शहर गए, लोगों ने खूब प्यार दिया. हमें पता चला कि उन दिनों वहाँ एक टी.वी. सीरियल "मुसाफिर ए हिन्द" बहुत मशहूर था और लोग बड़े चाव से देखते थे. हमारी बिन्दिया देखकर सीता पुकारने लगते. कई अंजाने लोग तो पहले फारसी में ही बात करने लगते. बच्चों में अमू विजय और खाला मीनू तो बड़ों मे आग़ा विजय और मीनू खानूम पुकारे जाते. करीबी लोग नाम के साथ जान लगाते हुए अपना प्यार दिखाते तो बहुत अच्छा लगता. उन दिनों हमने फारसी सीखने का मन बनाया कि अगली बार यहाँ आकर सबको चौंका देंगे. एक साल तक हमने बोलने और समझने लायक फारसी सीख ही ली. हमारी लिखावट पर भी हमें 20 में से 20 नम्बर मिलते तो बच्चों की तरह खुश होते.

आंखों के तारे हैं वरुण और विद्युत

रुण ने जब से बोलना शुरु किया तब से आज तक सवाल ही सवाल पूछता आया. बचपन में स्कूल में उसे अभिमन्यु कहा जाता. दार्शनिक बातें और उनसे जुड़े सवाल. अपने आप ही किताबों में डूब कर अपने सवालों का जवाब पाने की कोशिश अब आदत सी हो गई है. कविता और कहानी लिखना, संगीत बजाना , बनाना और सुनना शौक हैं.
वरुण दुबई बिटस (पिलानी) से इलैक्ट्रोनिक्स एण्ड इंस्ट्रयूमेंटेशन कर रहा है. कॉलेज का आखिरी समेस्टर है जिसमें थीसिस का विषय है – ब्रेन कम्पयूटर इंटरफेस. अपनी एक प्रयोगशाला खोलना वरुण का जुनून है. छोटा बेटा विद्युत अलग ही तबियत का बच्चा है. अपने बड़े भाई का सेवक और सबसे अच्छा दोस्त. कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती और सेवा में हाज़िर हो जाता है. बचपन से ही कला में रुझान. खाली समय में पुराने कपड़े काट काट कर और उस पर स्प्रे पेण्ट करके नए
डिज़ाइन बनाने का शौक अब नए रूप में दिखाई देता है. रेड बुल के कैन आर्ट में सिलेक्ट हुआ. प्रदशर्नी में कैन से बनाया मास्क रखा गया. टैटू , चित्र , फोटोग्राफी का ही शौक नहीं बल्कि संगीत का इसे भी बहुत शौक है.
संगीत पूरे परिवार का शौक है इसलिए घर कभी कभी संगीतशाला लगता है. ड्रम, गिटार, वायलिन और तम्बोला तो है अब दोनो भाई पियानो खरीदने के लिए मिन्नत कर रहे हैं. जारी

16 कमेंट्स:

Arun Aditya said...

बकलम ख़ुद सीरीज अच्छी चल रही है। संकोची लोग भी अपने बारे में खुल कर बता रहे हैं। भोपाल भास्कर में अब तो दो ब्लोगर मित्र आशीष महर्षि और मनीषा भी आ गए होंगे।

Alpana Verma said...

मीनाक्षी जी संक्षिप्त में आप ने बहुत कुछ लिख दिया..लेकिन दिल्ली की बेरुखी??मेरे ख्याल में तो यह पूरी मुम्बई जैसी है..दिल्ली में अभी भी लोगों में मेल मिलान बाकी है-- दुबई सिर्फ़ कंक्रीट का जंगल बन कर रह गया है--२ साल की बीमार बच्ची को सड़क पर बीच ट्रैफिक में जा कर माँ का टैक्सी रोकने की कोशिश करने पर भी एक टैक्सी का न रुकना--[कुछ दिन पहले गल्फ न्यूज़ की ख़बर]-कितनी बेबसी महसूस हुई होगी उसे उस वक्त--ऐसा दिल्ली में तो नहीं होता न ही मुम्बई में--दुबई बस दुबई ही है--कंक्रीट का जंगल--

Dr. Chandra Kumar Jain said...

यह किस्त भी पढ़ ली, सुबह-सवेरे.
लगा दुनिया में इंसानियत और
ज़ज़्बातों के लिए स्पेस आज भी कम नहीं है .
मीनाक्षी जी!
आपने जिन आँसुओं की नम चर्चा की है
दरअसल उनका एक ही मज़हब हो सकता है - इंसानियत !
जहाँ दिशाएँ अपनी सीमाएँ खो देती हैं और
सबकी पीर तक पहुँच अपनी दिशाएँ पा लेती हैं.

आपकी शैली की सरसता भी हृदय स्पर्शी है.
और आपके दोनो चिरंजीव का क्या कहना ?
एक का संबंध तकनीक से तो दूसरे का संगीत से !
दिमाग़ और दिल का ऐसा दुर्लभ संगम !!!
सचमुच बड़ी बात है.

वरुण और विधुत जैसा प्रेम क्या संसार को भी अपेक्षित नहीं है ?

आपको बधाई और अजित जी के लिए
आभार से बड़े शब्द की तलाश जारी है.

डा. चंद्रकुमार जैन

काकेश said...

बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है आपके और दुनिया के बारे में.

मीनाक्षी said...

@अल्पना जी, "दुबई में मुम्बई की भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी और दिल्ली की बेरुखी है." ---- इस पंक्ति को नज़रअन्दाज़ भी किया जा सकता है क्योंकि हम दिल्ली में जन्मे,पले-बढ़े हैं.रियाद की तुलना में कही गई बात है जो कई लोगों ने कही.
जिस घटना की बात आप कर रही हैं वह हमारे इलाके में ही हुई थी जो दुखद थी लेकिन उसका सुखद पक्ष भी देखिए कि अरब लड़के ने मदद की.
कंक्रीट के जंगल में कहीं खुश्की है तो कहीं नमी .

@ डॉ.जैन, हमेशा की तरह आज भी आपकी टिप्पणी स्नेहपूर्ण है. आभार

Ashok Pande said...

बढ़िया चल रही है आपकी गाथा. हम पढ़ रहे हैं ध्यान लगाकर. अरब जगत मुझे अपने कला-साहित्य के कारण बहुत आकर्षित करता रहा है; अब आपके माध्यम से इस संसार के सामाजिक तानेबाने के बारे में जानना सुखद है.

शुभकामनाएं

mamta said...

मीनाक्षी जी बहुत अच्छा लगा पढ़कर।
आपको सीता पुकारा जाना और अनजाने देश मे लोगों से आपकी दोस्ती होना इस बात का प्रतीक है की आप कितने साफ दिल की है।
और हाँ तो आपने फारसी बोली या नही। :)

कभी वरुण और विद्युत का बजाया हुआ संगीत सुनवाइये।

Sanjeet Tripathi said...

पढ़ रहा हूं, एक अच्छी बात यह है कि मीनाक्षी जी न केवल अपने आप से बल्कि अपने आसपास से भी परिचित कराती चल रही हैं।

Udan Tashtari said...

बहुत खूब चल निकली है मीनाक्षी जी की कलम...सारा श्रेय भाई अजित को. :)

थोड़ा सा श्रेय मीनाक्षी जी को भी-अच्छा लगा जानकर.

कंचन सिंह चौहान said...

अच्छा लग रहा है दीदी ....! जारी रखें.....!

मीनाक्षी said...

@ममता खानूम, खेलि ममनून बराए नवशस्ते के दादी. शोमा खेलि खूब वा मेहरबान हस्ति के मिगि मन खुश गलब हस्तम.(आप दो बार पढिए आपको समझ आ जाएगा.) कभी दोनों बेटो का संगीत भी सुनवाएँग़े.
@समीरजी,पूरा का पूरा श्रेय अजितजी को जाना चाहिए.
@काकेशजी अशोकजी, संजीतजी, कंचन और अरुनजी अरब दुनिया आपको अच्छी लगी इसके लिए आपका शुक्रिया.

Manas Path said...

बढिया धारावाहिक चला रहे हैं. जारी रखें.

Manish Kumar said...

अच्छा लगा आपके सउदी और दुबई प्रवास के बारे में जानकर !.

Anita kumar said...

सीता खानूम कलम खूब चिकनी चल रही है नहीं कागज पर, नहीं ब्लोग पर फ़िसल रही है। बहुत कुछ जानने को मिल रहा है अरब जगत के बारे में जो नहीं मालूम था, आप एक पूरी सीरीज ही क्युं नहीं लिखती वहां के बारे में, उनकी सस्कृंति,जीवन शैली, उनके विचार विभिन्न विषयों पर, वगैरह, वगैरह।


अजीत भाई खुद को तो निमंत्रण देने से रहे, चलिए हम एकदम औपचारिक रुप से न्यौता दे रहे हैं…। अजीत भाई क्या आप शब्दों के सफ़र पर बकलम खुद लिख कर इस चिठ्ठे को इज्जत बक्शेगें?…॥:)

Asha Joglekar said...

मीनाक्षी जी मजा़ आ गया आपके जिंदगी का अब तक का सफर पढ कर । आगे की किश्त का इंतजार रहेगा ।

Dr.Bhawna Kunwar said...

मीनाक्षी जी बहुत अच्छा लगा आपका लेख, इस लेख को पढ़कर अपनी दुबई यात्रा ताज़ा हो गई बहुत-बहुत बधाई यूँ ही लिखते रहिये...

अजित जी को भी बधाई...

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