शब्दों के सफर में बकलमखुद की शुरुआत की थी कुछ हम कहें जैसा खिलंदड़ा ब्लाग चलाने वाली अनिता जी ने । उसके बाद ठुमरी वाले विमल वर्मा ने सुनाई अपनी दिलचस्प दास्तान और फिर तीसरे पड़ाव पर लावण्या शाह की प्रवासी डायरी आपने पढ़ी। बकलमखुद के इस चौथे पड़ाव और पंद्रहवें सोपान में पढ़ते हैं काकेश की बतकही (चिरकुटई)की अंतिम कड़ी
शिफ्टों में बंटी जिंदगी
कलकत्ता जाके फैक्ट्री में काम करना था. कॉलेज से निकले थे तो ख्वाब थे की अपन तो इंजीनियर हैं किसी ए.सी. वाले कमरे में बैठेंगे और बैठे बैठे ऑर्डर देंगे. लेकिन फैक्ट्री में जाके सारी हकीकत सामने आयी. मशीनों के शोर, बहुत अधिक ह्यूमेडिटी (आर्द्रता) और फैक्ट्री के अन्दर सामान्य से अधिक गर्मी से सारे ख्वाब हवा हो गये. ऊपर से कलकत्ता की फैक्ट्री. फैक्ट्री में सात सात युनियन. आये दिन वर्कर और मैनेजमैंट के बीच तकरार होते रहती थी.अपन ना तो वर्कर थे ना मैनेजमेंट लेकिन वर्कर हमें मैनेजमैंट का आदमी समझते और सीनियर समझते की हम जान बूझ कर वर्कर्स का पक्ष रखते हैं ताकि खुद भी काम से बच सकें.उन दिनों हम शिफ्ट में काम करते थे तो ना सोने का कोई निश्चित समय, ना खाने का.इसी तरह एक साल गुजर गया. जिन्दगी बोझ सी लगने लगी. तभी उस फैक्ट्री का कम्प्यूटरीकरण होना था जिसके लिये एक टीम बन रही थी. हमने भी अपना नाम दे दिया. एक इंटरव्यू हुआ और हम चुन लिये गये. कॉलेज के समय के कंप्यूटर को देखे पढ़े के अनुभव काम आये.फिर तो कंप्यूटर के कई कोर्स कर डाले फिर तो धीरे धीरे कंप्यूटर अपना सा लगने लगा और हम कंप्यूटर डिपार्टमेंट में ही शिफ्ट हो गये.
जब मन रम गया बंगाल की राजधानी में
अब जिन्दगी थोड़ी नियमित हो गयी थी. तो लगा कि कलकत्ता में जैसे मेरी कल्पनाओं को विस्तार मिल गया.नाटकों में रुचि कॉलेज के समय से ही थी. पहले संस्थान के लिये कुछ नाटक किये और फिर एक थियेटर ग्रुप ‘प्रयास’ जॉइन किया. कई नाटक किये. डा. शिवमूरत सिंह जैसे गुरु से परिचय हुआ. उनके लिखे नाटक ‘गांधारी’ और ‘पुरुष पुराण’ में अहम भूमिका निभायी.इनका मंचन कलकत्ता के अलावा गाजीपुर में भी हुआ.इसके अलावा “संजोग”,”ढाई आखर प्रेम का”,”आत्महत्या की दुकान”,”चरनदास चोर”, “हनीमून” जैसे कई नाटक किये.स्थानीय टीवी चैनल में न्यूज रीडिंग भी की.और भी बहुत कुछ... कुल मिला कर काफी कुछ सीखा जो अच्छा लगा.
ज्यादातर वेज, कभी-कभी नानवेज
दादा-दादी के जमाने में घर में प्याज-लहसुन भी बैन था.अब प्याज लहसुन तो घर में आने लगा लेकिन नॉन वेज, यहाँ तक की अंडा भी, अभी तक बैन है.लेकिन मैं बाहर मौका मिलने पर कभी कभी नॉन वेज खा लेता हूँ. हर जगह के कुछ व्यंजन बहुत पसंद हैं खासकर पहाड़ी व्य़ंजन जैसे भट की चुणकाणी, भट के डुबके, जौला या फिर पुए,सिंगल और बड़ा. इसके अलावा बंगाल का ईलीस-माछ-भात, पॉम्फ्रेट मछ्ली, राजस्थान का दाल-बाटी-चूरमा या बिहार का लिट्टी-चोखा सभी पसंद हैं.
शौक में पढ़ने का बहुत शौक है.जो मिल जाय वह पढ़ लेता हूँ. आजकल फिलहाल ब्लॉग का चस्का है तो अधिकतर समय ब्लॉग ही पढ़ता हूँ.
कुछ इच्छाऐं जो ना जाने कब पूरी होंगी.
फिलहाल एक कंपनी में मजदूरी कर रहा हूँ. सुबह 7.30 से शाम 9 बजे तक पूरी तरह मजदूरी. छुट्टियां मिलना भी आसान नहीं है. लेकिन ख्वाहिश है कि फक्कड़ी करूँ. खूब घूमूँ नयी नयी चीजें देखूँ उनके बारे में लिखूँ.राहुल सांस्कृत्यायन की तरह. उत्तराखंड के दूरस्थ गांवों मे जाकर जिन्दगी के नजदीक से दर्शन करूँ.जब ना नौकरी की चिंता हो ना घर की. घर में एक पुस्तकालय हो, जहाँ तरह तरह की किताबें हों. नयी नयी भाषाऐं सीखूँ. (उर्दू व फारसी सीखने की बहुत तमन्ना है.) नये नये लोगों से मिलूँ.काफी कुछ है दिल में.देखिये ना जाने कब ऐसा कर पाता हूँ.
ब्लॉगिंग की दुनिया में हम
ब्लागिंग से परिचय 2003 में हुआ. फिर 6 महीने तक अंग्रेजी ब्लॉगिंग की.कुछ साइट भी बनायी पर ऑफिस की व्यस्तता बढ़ती गयी और ब्लोगिंग से मोह भंग हो गया.फिर एक दिन इसी अवस्था में सब कुछ डिलीट कर दिया. फिर दिल्ली शिफ्ट हो गया. एक दिन नैट पर भटकते हुए दिल्ली के बारे में कुछ ढूंढ रहा था कि अमित जी के ब्लॉग पर पता चला कि 6 घंटे चली दिल्ली की ब्लॉगर वार्ता इसी से घूमते घूमते कई ब्लॉग पढ़े.लगा कि हिन्दी में तो मैं भी लिख सकता हूँ.फिर कंप्यूटर पर हिन्दी लिखनी सीखी और अंतत: हम भी इस नशे का शिकार हो गये.
धीरे धीर बढ़े दोस्त
ब्लागिंग की दुनिया में धीरे धीरे परिचय बढ़ा. कुछ लोग थे जिन्होने शुरुआती दिनों में टिप्पणीयों से बहुत सहारा दिया वरना हम तो कभी के लुढ़क चुके होते. जीतू भाई , अनूप जी , रवि जी , मसिजीवी , देबाशीष जी , रमण कौल जी , सागर भाई , संजय बैंगाणी जी , सृजन शिल्पी जी . श्रीश जी ,ई-स्वामी बहुत से ऐसे नाम हैं जो शुरुआती दौर में उत्साहवर्धन करते रहे.शुरु शुरु में चिट्ठाजगत के विवादित विषय़ों पर भी कलम चलायी उससे हिट तो मिली लेकिन फिर लगा कि इन सब पचड़ों से दूर रहकर कुछ सार्थक लेखन करें तो ज्यादा ठीक रहेगा.[काकेश के चिरंजीव वेदांत- पूत के पांव... ]
मेरी पसंद
बहुत से लोगों से आत्मीय संबंध भी बने. कुछ से उनके लेखन के जरिये कुछ से उनके व्यक्तित्व के जरिये. आइये अपने पसंद के कुछ चिट्ठों और कुछ आत्मीय ब्लॉगरों की बात करें, मैथिली जी जो ब्लॉगवाणी के संचालक और बहुत ही आत्मीय हैं उनसे एक ब्लॉग मीट में ही पहचान हुई. लेकिन देखते ही देखते कुछ ऐसा रिश्ता बना कि लगता ही नहीं हम एक दूसरे को इतने कम समय से जानते हैं. वो एक बड़े भाई की तरह समय समय पर अपनी सलाह भी देते रहते हैं लेकिन कई बार मैं उनकी सलाह नहीं भी मानता और वह बुरा भी नहीं मानते.
पंगेबाज यानि अरुण अरोरा जब पंगे लेते हैं तो किसी को भी नहीं छोड़ते लेकिन काफी संवेदनशील और मस्त आदमी हैं.दिल के साफ हैं जो मुंह में आता है बक देते हैं. आजकल अच्छा लिखने भी लगे हैं.उनसे भी कुछ ऐसा संबंध है कि लगता ही नहीं कि हाल ही में मिले हैं.
घुघुती जी का जब से नाम सुना तब ही यह तो अंदाजा था कि उन्होने अपना नाम उत्तराखंड की एक चिड़िया के नाम पर रखा है. लेकिन फिर धीरे धीरे उनके लेखन के जरिये उनसे और पहचान बनी. उनकी मार्मिक संवेदनाऐं बहुत अच्छी लगती है.वह गद्य कम ही लिखती हैं लेकिन जब लिखती हैं जानदार लिखती हैं. उनके गद्य का मैं मुरीद हूँ. उनके पास अनुभवों की पूंजी हैं लेकिन वो उसे हमसे बहुत धीरे धीरे बांटती हैं.मैं आशा करता हूँ कि वह ज्यादा से ज्यादा अनुभव हम से बांटें.
आलोक पुराणिक बेशक व्यंग्य की तोप हैं. हर दिन कम से कम एक व्यंग्य लिखना कोई आसान काम नहीं हैं लेकिन फिर भी आलोक जी उसे कितना सहज बना देते हैं. उनकी मुझसे शिकायत है कि मैं ज्यादा व्यंग्य नहीं लिखता जबकि मुझे केवल व्यंग्य पर ही फोकस करना चाहिये. मैं अक्सर उनकी सलाह पर अमल नहीं करते हुए इधर उधर भटक जाता हूँ. लेकिन फिर भी उनका स्नेह मुझे मिलता रहा है.
टिप्पणी किंग समीरानंद हमें अपना मित्र कहते हैं.कहते ही नहीं बल्कि मानते भी होंगे ऐसा मुझे लगता है. मित्र मानने का कारण शायद यह हो कि उनकी तरह हम भी भयानक डील डौल के मालिक हैं. लेकिन कारण जो भी हो उनकी टिप्पणियां हमेशा से उत्साह वर्धन करती रही हैं.
अजदक या यानि प्रमोद सिंह जब कुछ बुरा लगता है तो हड़का देते हैं और बुरा भी नहीं लगता.उनकी भी सारी पोस्ट पढ़ता हूँ कहीं टिप्पणी करता हूँ, कहीं नहीं लेकिन उनके लेखन से कई चीजें सीखने को मिलती है.
ज्ञान जी को मैं हमेशा छेड़ता रहता हूँ राखी सावंत के बारे में बातें करके.उन्हें बुरा लगता होगा लेकिन जब तक वह राखी सावंत के बारे में अपने विचार सार्वजनिक ना कर दें तब तक उन्हें छेड़ता ही रहुंगा.
इसके अलावा बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्हें पढ़ता रहा हूँ और उनके लेखन से उनसे परिचित होता रहा हूँ.
निर्मल आनंद अभय जी, फुरसतिया जी,शिव कुमार जी,अनीता जी, विमल जी, बेजी जी, मनीषा जी, संजीत त्रिपाठी जी, मसिजीवी, सुजाता जी,रचना जी, सृजन शिल्पी, अनिल रघुराज, प्रत्यक्षा, संजय और पंकज बैंगाणी, अविनाश जी,अजीत जी,उन्मुक्त जी,श्रीश,अतुल शर्मा,तरुण, इरफान, युनुस,मनीष, बोधि भाई, रवि रतलामी,संजय तिवारी, सागर भाई, नीरज रोहिल्ला,नीरज गोस्वामी,चंद्रभूषण सभी को नियमित पढ़ता हूँ.
नये ब्लॉगरों में डा. प्रवीन चोपड़ा, डा. अमर कुमार, दिनेश राय जी, विनीत हैं जिन्हें पढ़ता हूँ. बहुत से लोगों को शिकायत रही है कि मैं टिप्पणी नहीं करता.उनकी शिकायत जायज है लेकिन ऐसा समयाभाव के कारण होता है. विश्वास कीजिये अधिकतर चिट्ठे पढ़ता हूँ लेकिन टिप्पणी कर पाना हमेशा संभव नहीं हो पाता.
ब्लागिंग का शुक्रिया-फिर हिन्दी किताबें मिलीं
हिन्दी ब्लॉग लेखन से कम से कम मुझे एक लाभ हुआ है कि हिन्दी किताबों में रुचि फिर से बढ़ने लगी है.जब से प्राइवेट सैक्टर में नौकरी प्रारम्भ की तब से अधिकतर काम अंग्रेजी में ही होता है इसलिये अंग्रेजी ज्यादा रास आने लगी थी…और फिर अंग्रेजी किताबें पढ़ने का सिलसिला भी चालू हुआ. हिन्दी किताबें छूटती ही जा रहीं थी.हालाँकि रस्म अदायगी के तौर पर हिन्दी किताबें कम से कम साल में एक बार खरीदता रहा लेकिन सब किताबें पढ़ी जायें ये संभव नहीं हो पाया. अब ब्लॉग लेखन के बाद हिन्दी की किताबों में दिलचस्पी फिर से बढ़ी है.इसीलिये कुछ नयी किताबें खरीद रहा हूँ कुछ पुरानी पढ़ रहा हूँ.राजकमल की ‘पुस्तक मित्र योजना’ का भी सदस्य बन गया हूँ.कई अच्छे लोगों को जानने का मौका मिला ब्लॉग से जिसे अपने जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ.अजीत भाई ने लिखने का अवसर दिया.इसी बहाने कुछ पुराने लम्हों को फिर से जी पाया,कुछ अपने बारे में कह पाया इसके लिये उनका शुक्रिया.
Monday, April 7, 2008
अधूरी इच्छाएं काकेश की....[बकलमखुद-15]
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22 कमेंट्स:
बन्धुवर
बड़ा सहज और संदेश परक भी
रहा बकलमख़ुद आपको जानना .
शक्ति आराधना के पर्व में
माँ से यही प्रार्थना है कि
आपकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हों.
शुभकामनाएँ........और ....
अजित जी आपका आभार.
डा.चंद्रकुमार जैन
बू हू हू हू... मेरा बिलौगवा नहीं पढते हैं.. :(
बहुत सी बातें आप के बारे में जाननी थी। छूट गई हैं। कोई बात नहीं धीरे-धीरे जान जाएंगे। हम आप को पढ़ते हैं पर धारावाहिक से बचते हैं, इकट्ठा पढ़ने के लिए। संतोष हुआ जानकर कि हमें आप पढ़ते हैं। पीडी को भी पढ़िए। अपना नाम न पाकर जनाब रुआँसा हो रहे हैं। बढ़िया लिखते हैं।
खूब!!
काकेश जी आपने जिन साहिबान के नाम गिनाए है वे सब वाकई नए ब्लॉगर्स का उत्साह वर्धन बखूबी करते हैं!!
और काकेश जी, आपके लेखन के बारे में क्या कहें, आपकी परूली सीरीज़ को पढ़कर क़ायल हो गए हैं!
शुभकामनाएं आपके लिए!!
आपके बारे मे अभी और जानना बाकि है, ऐसा लगा. जितना जाना, अच्छा लगा पढ़कर.. नन्हें नटखट वेदांत को हमारा प्यार और आशीर्वाद. परुली के सपने पूरे हों, यही शुभकामनाएँ.
पढ़ कर अच्छा लगा काकेश जी.
बहुत मन से लिखा है काकेश ने बकलम खुद। वैसे वे जो भी लिखते हैं; बहुत मन से ही लिखते हैं।
वाह जी-यह मित्र काकेश की बिना स्पीड ब्रेकर वाली लेखनी-बस मानो गंगा बह निकली हो-शुद्ध. बहुत खूब रहा इस तरह उनको जानना-मानो सामने बैठे उनसे उनके विचार सुन रहे हो.
आभार अजित भाई.
काकेश जी ने अन्य चिट्ठाकारों का जिक्र भली प्रकार किया है. बढ़िया लगा. कुल मिलकर बेहद रोचक रहा काकेश जी का बकलमखुद. अजित जी का शुक्रिया.
लिखते रहिए काकेशजी। अच्छा लग रहा है।
जमाये रहियेजी।
अब क्या कहे जी ,आप हमारी सलाह नही मानते और हम पंगा भी नही ले सकते ,अज पहली बार किसी ने इतनी बडाई की है जी कैसे ले..:)
वैसे कुछ जल्दी नही खत्म कर डाली पोस्ट..:)
काकेश जी,
वेद से हो विशद तुम माना मगर
वेदांत ख़ुद देखो यहाँ मुसका रहे हैं
आप अपने ख्वाब के मालिक बनेंगे
दिन वो जल्दी आ रहे हैं.... आ रहे हैं.
चलते रहिए !
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
काकेश जी के बारे जानने को मिला. ये और इसके पहले दोनों पोस्ट शानदार रहीं. अजित भाई, धन्यवाद..
काकेश जी बहुत अच्छा लगा आप के कलकत्ता के दिनों को जानना। शायद व्यस्तता के कारण जल्दी जल्दी निपटा दी ये पोस्ट्। अभी तो जानना बाकि है कलकत्ता से दिल्ली कैसे पहुंच गये। आशा करते है अजीत जी आप से एक और पोस्ट निकलवाने में कामयाब हो जाएगें
गांव में मनु भैया आते थे साइकिल पर झोले में आम लिये की तर्ज़ पर सबको सुखी कर दिये? चिरंजीवी, अतीतजीवी सब फ़ोटुएं चढ़ा ली और घर में हंटर चलानेवाली की छिपा ली? और फिर भी सबकी वाहवाही बटोर रहे हो, अच्छा कर रहे हो?
जानने के बाद एक अपनापन जैसा झलकने लगा है काकेश से। वैसे, भी पहाड़ के इंसान बड़े सच्चे होते हैं, वो भी अल्मोडे के। अजित भाई, एक प्यारे और सच्चे इंसान से मिलवाने के लिए शुक्रिया।
टिप्पणीयों के लिये आप सब का धन्यवाद.
प्रमोद जी ..अंत में एक राज की बात भी बताता चलूँ..घर में हंटर चलाने वाली स्त्री को फोटू कैसे छिपा सकता था/हूँ.उस दिन फोटू में जिस स्त्री के सामने शीश नवा रहा था..वह मेरी पत्नी ही है...नाटक गांधारी में उन्होने गांधारी की भूमिका निभायी थी और मैने युधिष्ठिर की.
काकेशजी की कलम से अपने बारे में लिखे सारे भाग एक साथ पढ़े तो बहुत अच्छा लगा मानों किसी की जीवनी ही पढ़ रहे हों।
बहुत बढ़िया लगा पढ़ना और यह जानना भी अच्छे अच्छे सूरमाओं को भी हंटरवालियों के सामने शीश नवाना पड़ता है। ( चिन्ता ना करें आप अकेले सूरमा नहीं है, हमें भी आपके साथ समझिये)
:) :)
काकेशजी, अब तो हम आपके बारे में जान गये,जब मिलेंगे तो संवादहीनता की स्थिति तो कम से कम नहीं ही होगी...अच्छा लगा,अजित भाई इस तरह से परिचय कराना अद्भुत लग रहा है,मिलते रहें मिलाते रहें,बहुत बहुत शुक्रिया
you are very popular yourself as you got he highest number of votes in a poll { ok u will say it was no.2 position } i would call it top most votes as you were not backed by a group . it shows many people read you as well
काकेश जी बेहतरीन आत्मकथ्य ।
एक बार में पूरा पढ़ा । चारों के चारों लेख । आपके बारे में विस्तार से जानना अच्छा लगा ।
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