Tuesday, August 31, 2010

सिक्का-कहीं ढला, कहीं चला

जेम्स द्वितीय के ज़माने की ब्रिटिश गिन्नी




देखा जाए तो अरबी के इस छापे की छाप इतनी गहरी रही कि स्पेनी, अंग्रेजी सहित आधा दर्जन यूरोपीय भाषाओं के अलावा हिन्दी उर्दू में भी इसका सिक्का चल रहा है


फुटकर मुद्रा या छुट्टे पैसों के लिए सिक्के से बेहतर हिन्दी उर्दू में कोई शब्द नहीं है। दोनों ही भाषाओं में मुहावरे के तौर पर भी इसका प्रयोग होता है जिसका अर्थ हुआ धाक या प्रभाव पड़ना। मूल रूप से ये लफ्ज अरबी का है मगर हिन्दी में सिक्के के अर्थ में अग्रेजी से आया। हिन्दी में फकत ढाई अक्षर के इस शब्द के आगे पीछे कभी कई सारे अक्षर भी रहे हैं।


अरबी मे मुद्रा की ढलाई के लिए इस्तेमाल होने वाले धातु के छापे या डाई को सिक्कः (सिक्काह) कहा जाता है जिसका मतलब होता है रूपया-पैसा, मुद्रा,मुहर आदि । इसके दीगर मायनों में छाप, रोब, तरीका-तर्ज़ आदि भाव भी शामिल हैं इसीलिए हिन्दी-उर्दू में सिक्का जमाना या सिक्का चलाना जैसे मुहावरे इन्ही अर्थों में इस्तेमाल होते रहे हैं।  पुराने ज़माने में भी असली और नकली मुद्रा का चलन था। मुग़लकाल में सिक्कए-कासिद यानी खोटा सिक्का और सिक्कए-राइज़ यानी असली सिक्का जैसे शब्द चलन में थे। अरबों ने जब भूमध्य सागरीय इलाके में अपना रौब जमाया और स्पेन को जीत लिया तो यह शब्द स्पेनिश भाषा में भी जेक्का के रूप में चला आया। जेक्का का ही एक अन्य रूप सेक्का भी यहां प्रचलित रहा है। मगर वहां इसका अर्थ हो गया टकसाल, जहां मुद्रा की ढलाई होती है। अब इस जेक्का यानी टकसाल में जब मुद्रा की ढलाई हुई तो उसे बजाय कोई और नाम मिलने के शोहरत मिली जेचिनो के नाम से । जेचिनो तेरहवीं सदी के आसपास सिक्विन शब्द के रूप में ब्रिटेन में स्वर्ण मुद्रा बनकर प्रकट हुआ।

पंद्रहवीं सदी के आसपास अंग्रेजों के ही साथ ये चिकिन या चिक बनकर एक और नए रूप में हिन्दुस्तान आ गया जिसकी हैसियत तब चार रूपए के बराबर थी।

किस्से कहानियों में अशरफी, मोहर जितना जिक्र ही गिन्नी का भी है। गिन्नी ब्रिटिश स्वर्णमुद्रा थी और इसका उच्चारण था गिनी। हिन्दुस्तान के सर्राफा व्यापार की शब्दावली में सोने के भावों के संदर्भ में गिन्नी का उल्लेख आए दिन होता है

यही चिक तब सिक्का कहलाया जब इसे मुगलों ने चांदी में ढालना शुरू किया। आज ब्रिटेन में सिक्विन नाम की स्वर्णमुद्रा तो नहीं चलती मगर सिक्विन शब्द बदले हुए अर्थ में डटा हुआ है। महिलाओं के वस्त्रों में टांके जाने वाले सलमे-सितारों जैसी चमकीली सजावटी सामग्री सिक्विन के दायरे में आती है। जाहिर सी बात है कि सजाने से किसी भी चीज़ की कीमत बढ़ जाती है। यह भाव स्वर्णमुद्रा की कीमत और उसकी चमक दोनों से जुड़ रहा है। देखा जाए तो अरबी के इस छापे की छाप इतनी गहरी रही कि स्पेनी, अंग्रेजी सहित आधा दर्जन यूरोपीय भाषाओं के अलावा हिन्दी उर्दू में भी इसका सिक्का चल रहा है।

क अन्य स्वर्णमुद्रा थी गिन्नी जिसका चलन मुग़लकाल और अंग्रेजीराज में था। दरअसल गिन्नी का सही उच्चारण है गिनी जो कि उर्दू-हिन्दी में बतौर गिन्नी कहीं ज्यादा प्रचलित है। मध्यकाल में अर्थात करीब 1560 के आसपास ब्रिटेन में गिनी  स्वर्णमुद्रा शुरू हुई। इसे यह नाम इसलिए मिला क्योंकि अफ्रीका के पश्चिमी तट पर स्थित गिनी नाम के एक प्रदेश से व्यापार के उद्धेश्य से ब्रिटिश सरकार ने इसे शुरू किया था। गौरतलब है कि सत्रहवीं सदी में पश्चिमी अफ्रीका के इस क्षेत्र पर यूरोपीय देशों की निगाह पड़ी। अर्से तक यह प्रदेश पुर्तगाल और फ्रांस का उपनिवेश बना रहा। गिनी को अब एक स्वतंत्र देश का दर्जा प्राप्त है। गिनी का इस क्षेत्र की स्थानीय बोली में अर्थ होता है अश्वेत व्यक्ति। आस्ट्रेलिया के उत्तर में प्रशांत महासागर में एक द्वीप समूह है न्यूगिनी जिसके साथ लगा गिनी नाम भी अफ्रीकी गिनी की ही देने है। इस द्वीप का पुराना नाम था पापुआ। मलय भाषा परिवार के इस शब्द का अर्थ होता है घुंघराले बाल।  स्पेनियों ने इस द्वीप को ये नाम यहां के मूल निवासियों को इसी विशेषता के चलते दिया। दिलचस्प है कि अफ्रीकी गिनी का नाम भी उसके मूलनिवासियों के रंग के आधार पर पड़ा था। इस द्वीप का पश्चिमी हिस्सा इंडोनेशिया का हिस्सा है जबकि पूर्वी हिस्सा पापुआ न्यूगिनी कहलाता है और स्वतंत्र देश है।   
संशोधित पुनर्प्रस्तुति

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, August 27, 2010

मसख़रे की मसख़री सिर माथे

Mask2

मतौर पर हंसोड़ और परिहासप्रिय व्यक्ति को समाज में पसंद किया जाता है। ये लोग चूंकि सामान्यत: हर बात में हंसी-ठट्ठे का मौका तलाश लेते हैं इसलिए ऐसे लोगों को अक्सर विदूषक या मसखरा की उपाधि भी मिल जाती है। हालांकि ये दोनों ही शब्द कलाजगत से संबंधित हैं और नाटक आदि में ठिठोलीबाजी और अनोखी वेषभूषा, बातचीत, हावभाव,मुखमुद्रा आदि से परिहास उत्पन्न कर दर्शकों के उल्लास में वृद्धि करनेवाले कलाकार को ही मसखरा या विदूषक कहा जाता है। हिन्दी में मसखरा शब्द अरबी के मस्खर: से बरास्ता फारसी उर्दू होते हुए आया। में अरबी में भी मस्खर: शब्द का निर्माण मूल अरबी लफ्ज मस्ख से हुआ जिसका मतलब है एक किस्म की खराबी जिससे अच्छी भली सूरत का बिगड़ जाना या विकृत हो जाना। यह तो हुई मूल अर्थ की बात । मगर यदि इससे बने मसखरा शब्द की शख्सियत पर जाएं तो अजीबोगरीब अंदाज में रंगों से पुते चेहरे और निराले नैन नक्शों वाले विदूषक की याद आ जाती है। हिन्दी के मसखरा शब्द का अरबी रूप है मस्खरः जिसके मायने हैं हँसोड़, हँसी-ठट्ठे वाला, भांड, विदूषक या नक्काल वगैरह। जाहिर है लोगों को हंसाने के लिए मसखरा अपनी अच्छी-भली शक्ल को बिगाड़ लेता है। मस्ख का यही मतलब मसखरा शब्द को नया अर्थ देता है।
सी नए अर्थ के साथ अरब के सौदागरों के साथ यह शब्द स्पेन और इटली में मैस्खेरा बन कर पहुंचता है जहां इसका मतलब हो जाता है मुखौटा या नकाब। अरब से ही यह यूरोप की दीगर जबानों में भी शामिल हो गया और इटालियन में मैस्ख और लैटिन में मैस्का बना । फ्रैंच में मास्करैर कहलाया जहां इसका मतलब था चेहरे को काला रंगना। अंग्रेजी में stilt_guy इसका रूप हुआ मास्क यानी मुखौटा। मध्यकाल में मसखरा शब्द ने मेकअप और कास्मैटिक की दुनिया में प्रवेश पाया और इसका रूपांतर मस्कारा mascara में हो गया जिसके तहत मेकअप करते समय महिलाएं काले रंग के आईलाईनर से अपनी भौहों और पलकों को नुकीला और गहरा बनाती हैं। आवारगी, बेचारगी, दीवानगी की तर्ज पर मस्खरः में ‘अगी’ प्रत्यय लगने से अरब,फारसी में बनता है मस्खरगी यानी मसख़रापन या ठिठोलेबाजी। मगर इसके विपरीत इसमें ‘शुदा’ प्रत्यय लगने से बन जाता है विकृत, रूपांतरित आदि।
हालांकि सेमेटिक भाषा परिवार की होने के बावजूद अरबी ज़बान में मस्ख की मौजूदगी मूलभूत नहीं जान पड़ती। संस्कृत में एक धातु है मस् जिसका मतलब है रूप बदलना, पैमाइश करना। इसके अतिरिक्त इसमें ऊपर का या ऊपरी जैसे भाव भी हैं। याद रहे मस्तक शरीर का सबसे ऊपरी हिस्सा या अंग है। इसी ऊपरी अंग पर ही मुखौटा भी लगाया जाता है जो मसखरे की खास पहचान है। इससे बना है मसनम् जिसका मतलब है एक प्रकार की बूटी (चेहरे पर लेपन के लिए )। हिन्दी-संस्कृत के मस्तक या मस्तकः या मस्तम् ( सिर, खोपड़ी ) शब्द के मूल में भी यही मस् धातु है। गौर करें कि मस्ख से बने मास्क को मस्तक पर ही लगाया जाता है। मस्तिष्क यानी दिमाग़ का मस्तक से क्या रिश्ता है बताने की ज़रूरत नहीं, ज़ाहिर है इसके मूल में भी यही धातु है। माथा, मत्था जैसे देशज शब्द भी इसी की उपज हैं। मस् धातु में निहित रूप बदलने के अर्थ से ही खुलता है एक और शब्द का जन्मसूत्र।
संस्कृत में सियाही के लिए मसि शब्द प्रचलित है। इसका हिन्दी में भी इस्तेमाल होता है। कबीर का मसि-कागद छुए बिना विशाल साहित्य रच देना सबको चमत्कृत करता है। यह मसि भी मस् की देन है। गौर करें मसिलेखन किसी भी सतह पर ही होता है। मसि अपने आप में एक रंग है और प्रकारांतर से लेपन ही। चेहरे को विविध रंगों से रंगना बहुरूपियों का शगल होता है। चेहरा बिगाड़ने के लिए सियाही भी पोती जाती है। जलपोत का सबसे ऊंचे सिरे को मस्तूल कहते हैं जिस पर ध्वज लहराता है और जो हवा बहने की दिशा भी बताता है। मस्तूल mastool अरबी का शब्द है। अंग्रेजी में इसे मास्ट कहते हैं। अखबारों के ऊपरी सिरे पर जिस पट्टी में अखबार का नाम लिखा होता है, उसे भी मास्ट हैड कहते हैं। सड़कों के किनारे बिजली के खम्भे अब हाईमास्ट high mastमें बदल गए हैं। मास्ट शब्द भी भारोपीय मूल का है और इसकी रिश्तेदारी मस् धातु में निहित ऊपरी शब्द से है। भाषा विज्ञानियों नें प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार में एक धातु mazdos खोजी है जिसका अर्थ है ऊंचा डण्डा। एटिमऑनलाईन के मुताबिक पोस्ट जर्मनिक में इससे mastaz शब्द बनता है जिसका अंग्रेजी रूपांतर mast हुआ।  -संशोधित पुनर्प्रस्तुति

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, August 24, 2010

वीणा से प्रवीण और कुश से कुशल

Radhika

प्रा यः सभी भाषाओं में शब्दसम्पदा के बढ़ने के कई कारण होते हैं जिनमें एक प्रमुख कारण अर्थविस्तार की प्रवृत्ति भी है। यह अर्थविस्तार इतना व्यापक होता है कि उस शब्द के मूलार्थ से नए अर्थ का दूर-पास का भी कोई रिश्ता नहीं जुड़ता है। प्रवीण भी ऐसा ही एक शब्द है। किसी कार्य को बहुत ही चतुराई और उत्तम प्रणाली से करने के लिए हिन्दी में आम प्रचलित शब्द है प्रवीण। किसी कार्य में दक्ष या निष्णात या सिद्धहस्त होने के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है। किसी वक्त प्रवीण का अर्थ होता था वह व्यक्ति जो वीणा बजाने में कुशल हो। वीणा प्राचीनतम् भारतीय वाद्य है। भारतीय देवी-देवताओं के हाथों में वीणा ही नजर आती है। वीणा बजाने में सिद्धहस्त कलाकार को प्रवीण कहा जाने लगा। स्पष्ट है कि वीणावादन का उस काल में कितना महत्वरहा होगा। कालान्तर में हर तरह के कार्य को कुशलता से करनेवाले के लिए प्रवीण शब्द प्रचलित हो गया और इसका मूलार्थ लोप हो गया। विडम्बना यह भी रही कि उत्तर भारतीय संगीत से भी वीणा की परम्परा धीरे धीरे कम होती चली गई, अलबत्ता दक्षिण भारत में उत्तर की बनिस्बत वीणा का चलन कहीं ज्यादा है।
पटे कोश में के अनुसार वीणा (वेति वृद्धिमात्रमपगच्छति- वी+न, नि. णत्वम्) का अर्थ सारंगी जैसा वाद्य, बीना, बताया गया है। इसके अलावा इसका एक अन्य अर्थ विद्युत भी है। संस्कृत की वी धातु में जाना, हिलना-डुलना, व्याप्त होना, पहुंचना जैसे भाव हैं। बिजली की तेज गति, चारों और व्याप्ति से भी वी में निहित अर्थ स्पष्ट है। विद्युत की व्युत्पत्ति भी वी+द्युति से बताई जाती है। वी अर्थात व्याप्ति और द्युति यानी चमक, कांति, प्रकाश आदि। प्रकाश की तीव्र कौंध ही विद्युत है। वी से बने हैं वेति, वेत या वीत जैसे शब्द जिनसे बने कुछ शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे चरैवेति यानी बढ़ते चलो। वीत भी गतिवाचक है जिसमें जाने का भाव है। चले जाना। इससे बना एक शब्द है वीतराग अर्थात सौम्य, शान्त, सादा, निरावेश। राग का अर्थ कामना, इच्छा, रंग, भावना होता है। वीतराग वह है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो। एक पौराणिक ऋषि का नाम भी वीतराग था। वीतरागी वह है जो संसार से निर्लिप्त रहता है। जाहिर है एक तन्त्रवाद्य होने के नाते वीणा की वी से व्युत्पत्ति में तीव्रता के साथ इसकी मधुर स्वर लहरियों की सब दूर व्याप्ति का भाव भी है। इन्हीं शब्दों के पूर्ववैदिक रूप वेण, वीण या वेणि रहे होंगे।
यूं वीणा में अंतर्निहित ध्वनि पर गौर करें तो वीणा का रिश्ता वाणी से भी हो सकता है। आपटे कोश के अनुसार वाणी शब्द बना है संस्कृत की वण् धातु से जिसका अर्थ है शब्द करना। वण् से बने वाणी में वचन, भाषण, वाक् शक्ति, बोलना, magadi2 ध्वनि आदि होता है। संस्कृत में वेण् या वेन् शब्द भी मिलते हैं जिनका अर्थ है जाना, हिलना-डुलना या बाजा बजाना। इसी क्रम में वेण् से बने वेणः का अर्थ होता है गायक जाति का एक पुरुष। बांसुरी को वेणु भी कहते हैं जो इसी मूल का है। वेणु मूलतः बांस को ही कहते हैं। बांसुरी शब्द को एक वाद्य की अर्थवत्ता इसीलिए मिली क्योंकि यह बांस से उत्पन्न है। वण् धातु से व्युत्पन्न बांस के अर्थ वाले वेणु शब्द की तार्किक विवेचना क्या हो सकती है? यही कि प्राचीनकाल से ही बांसों के जंगल से गुजरती हवा की तेज़ ध्वनि से मनुष्य परिचित था। यही बात उसने बांस के पोले तने से हवा गुज़ारने पर भी महसूस की। तात्पर्य यही है कि वेत, वेण जैसे शब्दों का मूल रिश्ता गति और प्रकारान्तर से ध्वनि से था।
खैरियत, मंगल और प्रसन्नता के अर्थ में भी कुशल शब्द का प्रयोग होता है। कुशल-क्षेम, कुशल-मंगल से यह साफ जाहिर है। यह बना है संस्कृत के कुशः से। हिन्दी में यह भी काफी आम है और इससे बने शब्द खूब प्रचलित हैं। संस्कृत के कुशः का मतलब होता है एक प्रकार की वनस्पति, तृण, पत्ती, घास जो पवित्र-मांगलिक कर्मों की आवश्यक सामग्री मानी जाती है। प्रायः सभी हिन्दू मांगलिक संस्कारों में इस दूब या कुशा का प्रयोग पुरोहितों द्वारा किया ही जाता है। प्राचीनकाल में गुरुकुलवासी बटुकों से मुनिजन कुश घास को एकत्र कराते थे जो विभिन्न कामों प्रयोग की जाती थी। छप्पर यज्ञ कर्म में इसका विशेष महत्व था। जो शिष्य सही तरीके से कुश को बीनता था वह कुशल कहलाता था। कालान्तर में किसी कार्य को दक्षतार्वक करने वाले के लिए यही कुशल शब्द रूढ हो गया।  इसी क्रम में आता है कुशाग्र।  हिन्दी के इस शब्द का मतलब होता है अत्यधिक बुद्धिमान, अक्लमंद। चतुर आदि। गौर करें कुशः के घास या दूब वाले अर्थ पर। यह घास अत्यंत पतली होती है जो अपने किनारों पर बेहद पैनी हो जाती है।  पचूंकि इसका आगे का हिस्सा नोकीला होता है इसलिए इस हिस्से को कुशाग्र कहा गया अर्थात कुश का अगला हिस्सा ( जो नोकीला है )। जाहिर सी बात है कि कालांतर में बुद्धिमान व्यक्ति की तीक्ष्णता आंकने के लिए कुशाग्र बुद्धि शब्द चल पड़ा। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में जो लिखा वो एक प्रसिद्ध उक्ति बन गई- पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे अचरहिं ते नर न घनेरे।। 

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

 

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, August 19, 2010

ऑनर किलिंग के बहाने महिमा गोत्र की…

8-3-07

जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर  दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते, जबकि जाति एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते। गोत्र मातृवंशीय भी हो सकता है और पितृवंशीय भी। ज़रूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरुष के नाम से चले। जनजातियों में विशिष्ट चिह्नों से भी गोत्र तय होते हैं जो वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षी तक हो सकते हैं। शेर, मगर, सूर्य, मछली, पीपल, बबूल आदि इसमें शामिल हैं। यह परम्परा आर्यों में भी रही है। हालांकि गोत्र प्रणाली काफी जटिल है पर उसे समझने के लिए ये मिसालें सहायक हो सकती हैं। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लोकायत में लिखते हैं कि कोई ब्राह्मण कश्यप गोत्र का है और यह नाम कछुए अथवा कच्छप से बना है। इसका अर्थ यह हुआ कि कश्यप गोत्र के सभी सदस्य एक ही मूल पूर्वज के वंशज हैं जो कश्यप था। इस गोत्र के ब्राह्मण के लिए दो बातें निषिद्ध हैं। एक तो उसे कभी कछुए का मांस नहीं खाना चाहिए और दूसरे उसे कश्यप गोत्र में विवाह नहीं करना चाहिए। आज समाज में विवाह के नाम पर आनर किलिंग का प्रचलन बढ़ रहा है उसके मूल में गोत्र संबंधी यही बहिर्विवाह संबंधी धारणा है।
ह जानना दिलचस्प होगा कि आज जिस गोत्र का संबंध जाति-वंश-कुल से जुड़ रहा है, सदियों पहले यह इस रूप में प्रचलित नहीं था। गोत्र तब था गोशाला या गायों का समूह अथवा गोवंश का बाड़ा। दरअसल संस्कृत में एक धातु है त्रै-जिसका अर्थ है पालना, रक्षा करना और बचाना आदि। गो शब्द में त्रै लगने से जो मूल अर्थ प्रकट होता है जहां गायों को शरण मिलती है, जाहिर है गोशाला मे। इस तरह गोत्र शब्द चलन में आया। गौरतलब है कि ज्यादातर और प्रचलित गोत्र ऋषि-मुनियों के नाम पर ही हैं जैसे भारद्वाज-गौतम आदि मगर ऐसा क्यों ? इसे यूं समझें कि प्राचीनकाल में ऋषिगण HittPlowविद्यार्थियों पढ़ाने के लिए गुरुकुल चलाते थे। इन गुरूकुलों में खान-पान से जुड़ी व्यवस्था के लिए बड़ी-बड़ी गोशालाएं होती थीं जिनकी देखभाल का काम भी विद्यार्थियों के जिम्मे होता था। ये गायें इन गुरुकुलों में दानस्वरूप आती थीं और बड़ी तादाद में पलती थीं। गुरुकुलों के इन गोत्रो में समाज के विभिन्न वर्ग भी दान-पुण्य के लिए पहुंचते थे। कालांतर में गुरूकुल के साथ साथ गोशालाओं को ख्याति मिलने लगी और ऋषिकुल के नाम पर उनके भी नाम चल पड़े। बाद में उस कुल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों और समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने भी अपनी पहचान इन गोशालाओं यानी गोत्रों से जोड़ ली जो सदियां बीत जाने पर आज भी बनी हुई है।
मूलतः गोत्र शब्द भी हमारी पशुपालन संस्कृति से उपजा है। सप्तसैंधव क्षेत्र के निवासी आर्यों का प्रिय पशुधन गौ था। इसी रूप में गोपालक समुदाय के लिए गोत्र शब्द उपजा होगा जो बाद में वंश के विशिष्ट गुणों की पहचान का आधार बना। सफाई देवता पुस्तक में ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रख्यात विद्वान राहुल सांकृत्यायन के हवाले से लिखते हैं कि गोत्रकाल का ज्ञान हमारे पास बहुत ही कम है। विश्वामित्र, भरद्वाज आदि जितने भी गोत्र (ब्राह्मणी काल) प्रसिद्ध हैं, ये वस्तुतः गोत्रकाल या पित्रसत्ताकाल के भी नहीं हैं। ये सारे ऋषि 1500 ईसा पूर्व के काल में दासता और सामन्तवादी युग में हुए हैं। हो सकता है कुभा (काबुल) और सुवास्तु (स्वात) की उपत्यका में रहते वक्त गोत्रसत्ता उनमें मौजूद रही हो। डीएन झा के मुताबिक जो लोग अपनी गायों के साथ एक ही गोष्ठ में रहते थे, उनका संबंध उसी गोत्र से हो जाता था। बाद में रक्तसंबंध का अभिप्राय भी इस शब्द से जुड़ गया। गोत्र का अभिप्राय ऐसे समूह से भी लगाया जाता है जो रक्तसंबंध से बाहर हो। कालांतर में विवाह संबंधों के संदर्भ में गोत्र का अर्थ बहिर्विवाही समूह हो गया। डॉ काणे के अनुसार गोत्र में कोई भी व्यक्ति अपने गुरू के साथ सम्पूर्ण परिवार को संबंधित करता है, ठीक वैसे ही जैसे सामान्य जीवन में हम खुद को अपने पिता से संबंधित करते हैं। हालांकि ऋग्वेदकाल में गोत्र का अर्थ सिर्फ गोशाला या गोपालक समूह ही था मगर उपनिषद काल तक गोत्र की पहचान विशिष्ट समूहों के रूप में हो चुकी थी।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, August 14, 2010

बात ग़ुस्लखाने की…

picture-2

हि न्दी की कुछ बोलियों में पाखाना के लिए तारत शब्द का प्रयोग भी होता है। पूर्वांचल में जहां यह तारत है वहीं मालवी में कहीं कहीं इसका उच्चारण तारज भी सुनाई पड़ता है। ये शब्द दरअसल प्राकृत-संस्कृत से नहीं उपजे हैं बल्कि इस्लामी संस्कृति की देन है सो अलग अलग क्षेत्रों में उच्चारण भिन्नता है। यह शब्द बना है अरबी के तहारत से जिसमें शुद्धता का भाव है। मूल रूप से तहारत इस्लामी परम्परा का शब्द है और इसका इबादत से पूर्व की शुचिता प्रक्रिया से रिश्ता है। स्नान, अंगप्रक्षालन जैसी क्रियाएं इसमें निहित हैं। पाखाना शब्द जिस तरह से पाकखाना से बना है वहीं बात तारत में भी है।
ट्टी या शौचालय के अर्थ में हिन्दी में पाखाना शब्द का भी खूब इस्तेमाल होता है। इसके कई रूप प्रचलित हैं जैसे पैखाना, पखाना या पाखाना। यह फारसी के पाखानः या पाखानह से जन्मा शब्द है। पाखाना के साथ लगा “खाना” साफ बता रहा है कि यह स्थानवाची शब्द है। पाखाना में आए पा का अर्थ प्रायः पैर से लगाया जाता है। कुछ व्याख्याकार पाखाना का अर्थ वह स्थान बताते हैं जहां पाद प्रक्षालन अर्थात पैर धोए जाएं। इस अर्थ में पाखाना का अन्वय हुआ पा + खाना। पुराने ज़माने में बाहर से आने पर लोग घर के आंगन में एक नियत स्थान पर पैर धोकर ही कमरों में प्रवेश करते थे। शौचालय में निहित शुचिता यानी पवित्रता की व्यंजना के आधार पर अगर पाखाना शब्द का अन्वय अगर पाक+ खाना किया जाए तब इसका भावार्थ वहीं निकलता है जो शौचालय का स्थूल अर्थ है। पाक में क्रिया और विशेषण का बोध भी होता है। मुझे लगता है बतौर शौचालय इस शब्द की यह व्युत्पत्ति तार्किक है।
spiral-vip-latrine-1 तारत या तारज का मूल रूप है तहारतखाना अर्थात पवित्र होने का स्तान। मराठी में पाखाना के लिए शेतखाना या तारतखाना ही चलन में हैं। शौचालय शब्द भी चलता है मगर लोक परम्परा में इन्ही दो शब्दों की व्याप्ति है। दिलचस्प यह कि दोनों शब्द मुस्लिम दौर में प्रचलित हुए। पाकखाना की तरह ही तहारतखाना का अर्थ हुआ शुद्ध या पवित्र होने का स्थान। मुस्लिमों में वुज़ू के संदर्भ में तहारत, ग़ुस्ल आदी शब्दों का प्रयोग होता है। वुज़ू जहां नमाज़ से पूर्व शुद्धि की प्रक्रिया के लिए रूढ़ हो चुका है वहीं तहारत या ग़ुस्ल में दैहिक पवित्रता के विभिन्न क्रिया-आयाम अभिव्यक्त होते हैं। सामान्यतौर पर स्नान के अतिरिक्त शौच के उपरान्त तीन बार गुप्तांग को धोने का भाव भी तहारत में है। तहारतखाना शब्द के साथ जुड़े शौचालय की अर्थवत्ता चस्पा होने की वजह यही है। हिन्दी में भी स्नानगृह और शौचालय का भाव एक ही है पर नहाने के स्थान को कोई शौचालय नहीं कहता। इसी तरह ग़ुसलखाना शब्द का अर्थ स्नानगृह या बाथ रूम है। गुसलखाना बना है ग़ुस्ल ghusl शब्द से जिसमें पवित्रता और स्नान का भाव है। इसका अरबी मूल है ग़साला ghasala जिसकी मूल धातु है gh-s-l जिसका अर्थ है शुचितापूर्ण, पवित्र।   
मुहम्मद मुस्तफा खां मद्दाह के  उर्द-हिन्दी कोश के अनुसार तहारत का अर्थ है शुद्धता, पवित्रता, पाकीज़गी, स्नान और ग़ुस्ल आदि। मलविसर्जन के उपरांत पवित्र होने का भाव इसमें बाद में जुड़ा। अरबी में इसके लिए इस्तिंजा और फ़ारसी में आबदस्त शब्द पहले से हैं। आबदस्त इंडो ईरानी मूल का शब्द है जिसमें आब यानी पानी और दस्त यानी हाथ अर्थात हाथों के जरिये अंग प्रक्षालन की बात स्पष्ट है। अब आते हैं मराठी के शेतखाना शब्द पर। मराठी में शेत का अर्थ खेत होता है जो क्षेत्र से बना है। इस अर्थ में देखें तो शेतखाना का एक अर्थ खलिहान हो सकता है जहां खेत की उपज का भंडारण होता है। पेशवाओं के ज़माने में मराठी में फारसी का काफी असर आया। यहां शेत शब्द फारसी के सेहत शब्द का रूपांतर या देशज रूप है। सेहतखाना यानी पवित्र होने की जगह। फारसी का सेहत भी इंडो ईरानी मूल का शब्द है। मेरी नज़र में इसका रिश्ता संस्कृत के स्वस्थ से है। स ध्वनि यहां यथावत है। का लोप होकर मे निहित त+ह ध्वनियों का अन्वय होता है और फिर वर्ण विपर्यय के जरिये का स्थान लेता है और बनता है सेहत। गौरतलब है  कि पवित्र होने की सभी क्रियाओं ने अंग्रेजी के बाथरूम शब्द में ठौर पाया है जहां नहाने के अलावा भी “सब कुछ” किया जा सकता है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, August 10, 2010

ज़ुबानदराज़, ड्रॉअर और दीर्घदर्शी

measuring-height

हि न्दी में दीर्घ deergh का अर्थ होता है लंबा, दूर तक पहुंचनेवाला, ऊंचा, उन्नत आदि। अरबी फारसी का दराज़ शब्द भी हिन्दी में खूब प्रचलित है जिसके दो मायने हैं। एक दराज़ वह है जिसका अर्थ है मेज़ या टेबल में छिपा वह खाना जिसे खींच कर खोला जाता है और दूसरा दराज़ वह है जिसमें लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई जैसे आयामों के साथ विशालता का भाव है। आमतौर पर दराज से तात्पर्य लम्बाई से होता है जैसे ज़बानदराज़ यानी ज्यादा बोलनेवाला, दराज़दुम यानी लम्बी पूछवाला, उम्रदराज यानी वृद्ध या लम्बी उम्रवाला। इस दीर्घकाय का अर्थ हुआ लंबा व्यक्ति मगर दीर्घकाय शब्द का अभिप्राय आमतौर पर विशालकाय के अर्थ में ही लगाया जाता है। दरअसल जब किसी आकार के साथ दीर्घ शब्द का विशेषण की तरह प्रयोग होता है तब लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई के आयाम भी उसमें जड़ जाते हैं, इस तरह दीर्घाकार, दीर्घकाय जैसे शब्दों में बड़ा अथवा विशाल का भाव आ जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति को दूरदर्शी कहा जाता है। संस्कृत में इसके लिए दीर्घदर्शी शब्द भी है यानी दूर तक देखनेवाला। लंबी आयु के लिए दीर्घजीवी शब्द प्रचलित है।
भाषाविज्ञानियों नें संस्कृत के दीर्घ शब्द की रिश्तेदारी प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की धातु dlonghos में खोजी है। अंग्रेजी का लाँग long शब्द भी इससे ही बना है जिसका अर्थ भी लंबा या दीर्घ ही होता है। गौरतलब है कि संस्कृत दीर्घ शब्द ने ही बरास्ता अवेस्ता, ईरानी परिवार की भाषाओं में जाकर दराग, दिरंग होते हुए फारसी के दराज़ शब्द का रूप लिया। फारसी के दराज़ का अर्थ होता है लंबा। गौरतलब है कि भारोपीय भाषाओं मे र-ल और क-ग-घ जैसे वर्णों में आपस में तब्दीली होती है। फारसी का दराज़ शब्द उम्रदराज़ के रूप में हिन्दी में भी इस्तेमाल होता है जिसका अर्थ होता है लंबी आयु वाला अर्थात बूढ़ा, वृद्ध, बुजुर्ग। गौरतलब है कि फारसी के बुजुर्ग शब्द की भी संस्कृत-हिन्दी के वज्र से रिश्तेदारी है जिसका मतलब होता है महान, कठोर, वरिष्ठ आदि। बुजुर्ग में भी मूलतः आदरणीय, महान, प्रभुतासम्पन्न जैसे भाव ही हैं। मगर कालांतर में इसके साथ वरिष्ठता के विभिन्न भाव जुडते चले गए जिनका अर्थ विस्तार रसूख, प्रभाव में हुआ और बाद में आयु के उत्कर्ष के तौर पर ये सब बुजुर्ग में सिमट गए।
वाचालता अथवा अशिष्ट सम्भाषण के लिए ज़ुबानदराज़ी शब्द भी हिन्दी में इस्तेमाल होता है जिसका अर्थ है ज्यादा बोलना। जुंबानदराज़ी करना मुहावरा मूलतः

team-7-custom-closet-drawersjpg ...इंडो यूरोपीय मूल का ड्राअर्ज drawers शब्द भी भारोपीय मूल का है जिसका अर्थ है मेज़ में छुपा एक खाना जिसे आगे खींच कर खोला जाता है। ध्यान दें खींचना के भाव पर जिसमें लम्बा होने का भाव सुरक्षित है। ...

फ़ारसी से ही हिन्दी में आया है जिसका मूल रूप है ज़ुबानदराज़ करदन यानी बढ़-चढ़ कर बोलना। राज शब्द का एक अन्य अर्थ में भी हिन्दी में प्रयोग होता है जिसका मतलब होता है टेबल, मेज या आलमारी में बना हुआ काग़ज-पत्र या अन्य छोटी सामग्री रखने का खाना या खण्ड जिसे खींच कर बाहर निकाला जा सके। संभवतः इस दराज़ से इसका कोई रिश्ता नहीं है। मुहम्मद मुस्तफा खां मद्दाह के कोश के मुताबिक मूलतः यह अरबी के दरजः (दर्जः) से बना है। यह उर्दू में दर्जः हो गया और इसका हिन्दी उच्चारण दराज की तरह होने लगा। दर्जः का मतलब है वर्ग, खण्ड, ओहदा, श्रेणी आदि। गौरतलब है कि उत्तर भारत में आज भी कक्षा के लिए भी दर्जा शब्द का ही इस्तेमाल होता है। रेलवे की आरक्षण शब्दावली में श्रेणी शब्द चाहे लिखा जाता है, पर इस्तेमाल मे दर्जा शब्द ही आता है। दर्जा का मतलब इमारत की मंजिल या माला भी होता है। अवस्था के लिए भी दर्जा शब्द का प्रयोग होता है।
कुछ लोग अंग्रेजी के ड्राअर्ज को दराज़ शब्द का मूल मानते हैं। अग्रेजी के ड्राअर से दराज शब्द का बनना तार्किक तो लगता है, पर खण्ड या खाना के अर्थ में फारसी में दरजः शब्द पहले से मौजूद है। मैने कई संदर्भों को टटोलने के बाद ही मेज की दराज को भी इसी मूल का माना है। ये ठीक है कि आगे खींच कर बाहर निकालने के लिए अंग्रेजी के ड्राअर्ज शब्द से इसकी समानता कई लोगों को नजर आती है। पर मूलतः यह है तो खण्ड या आला ही। और मेज, आलमारी में भी इसकी कई मंजिलें यानी दरजे होते हैं। यह मान लेना कुछ मुश्किल लगता है कि यूरोपीयों के आने से पहले अरब, फारस या भारत के लोग टेबल या मेजनुमा किसी देशी व्यवस्था के बिना गुजारा करते थे। खास कर तब, जब प्रायः सभी सभ्यताओं-समाजों में काष्ठकला सर्वाधिक प्रारम्भिक कलाओं में रही है। जब मुहम्मद मुस्तफा खां मद्दाह के कोश में संदर्भ टटोला तो वहां अपनी धारणा को पुष्ट करता हुआ उदाहरण मिला। इसी तरह सीरियक अरबी में भी सीधे सीधे इसका अर्थ मेज की दराज दिया हुआ है। मैं भी यही मानता हूं कि यह अंग्रजी से नहीं बल्कि फारसी-अरबी मूल का ही शब्द है।
वैसे भी इंडो यूरोपीय मूल का ड्राअर्ज drawers शब्द भी भारोपीय मूल का है जिसका अर्थ है मेज़ में छुपा एक खाना जिसे आगे खींच कर खोला जाता है। ध्यान दें खींचना के भाव पर जिसमें लम्बा होने का भाव सुरक्षित है। ड्राअर्ज शब्द बना है ड्रॉ से जिसमें खींचने, बाहर निकालने का भाव है। ड्रॉ की मूल भारोपीय धातु *dhragh- मानी गई है जिसकी संस्कृत के दीर्घ deergh से तुलना गौरतलब है। ड्रॉ शब्द का विकास ओल्ड हाई जर्मन के tragen से हुआ है। इसकी रिश्तेदारी ड्रैग या ड्रैगन से भी है। सेमेटिक भाषा परिवार की अरबी की ही एक बोली है यमनी जिसमें दराजू शब्द है जिसमें विकसित होने का भाव है। मोशे पिमेन्ता की अ डिक्शनरी ऑफ पोस्ट अरेबिक यमनी  के मुताबिक आंखों में आश्चर्य का भाव भी इसमें है। गौरतलब है कि चकित होने पर आंखे बड़ी होती हैं। परिनिष्ठित हिन्दी में इसे विस्फारित नेत्र कहा जाता है और चालू भाषा में आंखे फटी की फटी रह जाना। विस्फारित और फटना दोनों ही शब्दों में विस्तार का भाव है। दीदे फाड़ना भी इसे ही कहते हैं। विस्तार में निहित लम्बाई के भाव को व्याख्या की जरूरत नहीं है। इसी तरह दराज़ा शब्द का अर्थ लपेटना, गोल गोल घुमाना भी है। चड़स या रहंट को भी दराजा कहते हैं जिसमें खींचने की क्रिया निहित है। -परिवर्धित पुनर्प्रस्तुति

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, August 6, 2010

छिनाल का जन्म

...छिन्न का आमतौर पर इस्तेमाल छिन्न-भिन्न के अर्थ में होता है। ...
हि न्दी में कुलटा, दुश्चरित्रा, व्यभिचारिणी या वेश्या के लिए एक शब्द है छिनाल। आमतौर पर हिन्दी की सभी बोलियों में यह शब्द है और इसी अर्थ में इस्तेमाल होता है और इसे गाली समझा जाता है। अलबत्ता पूरबी की कुछ शैलियों में इसके लिए छिनार शब्द भी है। छिनाल शब्द बना है संस्कृत के छिन्न से जिसका मतलब विभक्त , कटा हुआ, फाड़ा हुआ, खंडित , टूटा हुआ , नष्ट किया हुआ आदि है। गौर करें चरित्र के संदर्भ में इस शब्द के अर्थ पर । जिसका चरित्र खंडित हो, नष्ट हो चुका हो अर्थात चरित्रहीन हो तो उसे क्या कहेंगे ? जाहिर है बात कुछ यूं पैदा हुई होगी- छिन्न + नार> छिन्नार> छिनार> छिनाल। जॉन प्लैट्स के हिन्दुस्तानी-इंग्लिश-उर्दू कोश में इसका विकासक्रम कुछ यूं बताया है-छिन्ना + नारी > छिन्नाली> छिनाल। इसी तरह हिन्दी शब्दसागर में -छिन्ना+नारी से उसकी व्युत्पत्ति बताते हुए इसके प्राकृत रूप छिणणालिआ> छिणणाली > छिनारि के क्रम में इसका विकासक्रम छिनाल बताया गया है। परस्त्रीगामी और लम्पट के लिए हिन्दी में छिनाल का पुरुषवाची शब्द भी पनपा है छिनरा
छिन्न शब्द ने गिरे हुए चरित्र के विपरीत पुराणों में वर्णित देवी-देवताओं के किन्ही रूपों के लिए भी कुछ खास शब्द गढ़े हैं जैसे छिन्नमस्ता या छिन्नमस्तक। इनका मतलब साफ है- खंडित सिर वाली(या वाला)। छिन्नमस्तक शब्द गणपति के उस रूप के लिए हैं जिसमें उनके मस्तक कटा हुआ दिखाया जाता है। पुराणों में वर्णित वह कथा सबने सुनी होगी कि एक बार स्नान करते वक्त पार्वती ने गणेशजी को पहरे पर बिठाया। इस बीच शिवजी आए और उन्होंने अंदर जाना चाहा। गणेशजी के रोकने पर क्रोधित होकर शिवजी ने उनका सिर काट दिया। बाद मे शिवजी ने गणेशजी के सिर पर हाथी का सिर लगा दिया इस तरह गणेश बने गजानन। इसी तरह छिन्नमस्ता देवी तांत्रिकों में पूजी जाती हैं Picasso और दस महाविद्याओं में उनका स्थान है। इनका रूप भयंकर है और ये अपना कटा सिर हाथ में लेकर रक्तपान करती चित्रित की जाती हैं। हिन्दी में सिर्फ छिन्न शब्द बहुत कम इस्तेमाल होता है। साहित्यिक भाषा में फाड़ा हुआ, विभक्त आदि के अर्थ में विच्छिन्न शब्द प्रयोग होता है जो इसी से जन्मा है। छिन्न का आमतौर पर इस्तेमाल छिन्न-भिन्न के अर्थ में होता है जिसमें किसी समूह को बांटने, विभक्त करने, खंडित करने या छितराने का भाव निहित है। छिन्न बना है छिद् धातु से जिसमें यही सारे अर्थ निहित है। इससे ही बना है छिद्र जिसका अर्थ दरार, सूराख़ होता है। छेदः भी इससे ही बना है जिससे बना छेद शब्द हिन्दी में प्रचलित है। संस्कृत में बढ़ई के लिए छेदिः शब्द है क्योंकि वह लकड़ी की काट-छांट करता है।सहज ही प्रश्न उठता है कि जिस समाज ने छिन्न शब्द से स्त्री के लिए छिनाल जैसा उपालम्भ-सम्बोधन बनाया वहीं छिनाल के लक्षणोंवाले पुरुष के लिए कौन सा शब्द है? हिन्दी की पूर्वी बोलियों में इसके लिए छिनरा, छिनारा है। हिन्दी के जानेमाने कवि बोधिसत्व ने छिनरा के बारे में जो लिखा है वह जस का तस यहां प्रस्तुत है-
जिन संदर्भों में छिनाल की चर्चा होती है उन्हीं संदर्भों में छिनरा व्यक्ति की भी चर्चा होती है। छिनाल के साथ जो छिनरई करते धरा जाता है सहज ही वह छिनरा होता है। वहाँ दोनों का कद बराबर है- छिनरा छिनरी से मिले हँस-हँस होय निहाल। किसी भी समाज में अकेली स्त्री छिनाल नहीं हो सकती। उसे सती से छिनाल बनाने में पहले एक अधम पुरुष की उसके ठीक बाद एक अधम समाज की आवश्यकता होती है। छिनाल शब्द की उत्पत्ति पहले हुई या छिनरा की यह एक अलग विवाद का विषय हो सकता है । साथ ही समाज में पहले छिनरा पैदा हुआ या छिनाल। क्योंकि बिना छिनरा के छिनाल का जन्म हो ही नहीं सकता। एक पक्का छिनरा ही किसी को छिनार बना सकता है। तत्सम छिनाल का पुलिंग शब्द भले ही न मिले लेकिन तद्भव छिनरी का पुलिंग शब्द छिनरा जरूर मिलता है...। छिनरा का शाब्दिक अर्थ है लंपट, चरित्रहीन और परस्त्रीगामी। वहीं छिनाल या छिनार का अर्थ है व्यभिचारिणी, कुलटा,पर पुरुषगामी। रोचक बात यह है कि लोक ने उस स्त्री में छिपे छिनाल को खोज लिया जिसके गालों में हँसने पर गड्ढे पड़ते हों- हँसत गाल गड़हा परै, कस न छिनरी होय।’
सम्पूर्ण संशोधित पुनर्प्रस्तुति

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, August 3, 2010

मै इधर जाऊं या उधर जाऊं!!!

dilemma
मतौर पर मीडिया में आसान हिन्दी के नाम पर हिन्दी की तत्सम शब्दावली से पीछा छुड़ाने की प्रक्रिया इन दिनों जोरों पर है। यातायात के स्थान पर अब ट्रैफिक शब्द के इस्तमाल का आग्रह ज़्यादा है। कठिनाई, दुविधा अथवा निर्णय न ले पाने की स्थिति के लिए हिन्दी में असमंजस एक बहुत लोकप्रिय शब्द के तौर पर डटा हुआ है। कठिन शब्द से तात्पर्य आमतौर पर ऐसे शब्द से होता है जो भाषा में कम इस्तेमाल होता हो और जिसका अर्थ जानने के लिए शब्दकोश की मदद लेनी पड़े। निश्चित ही असमंजस शब्द का शुमार इस समूह के शब्दों में नहीं है। मगर अब असमंजस को भी कठिन कहा जाने लगा है। दरअसल यह इसी वजह से होता है क्योंकि हमारे भीतर शब्दों की व्युत्पत्ति जानने की जिज्ञासा नहीं है। उद्गम को जानने के बाद ही किसी चीज़ की अर्थवत्ता के विभिन्न आयामों का खुलासा होता है। असमंजस के स्थान पर दुविधा शब्द भी चिरपरिचित है मगर यह जानकर ताज्जुब हुआ कि गूगल पर असमंजस शब्द की 109000 प्रविष्टियां है जबकि दुविधा शब्द की प्रविष्टियां उससे बीस हजार कम यानी 107000 निकलीं। मज़े की बात यह भी कि असमंजस की तुलना में दुविधा को आसान माननेवालों से जब दुविधा का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ पूछा गया तब यह भी असमंजस जितना ही कठिन साबित हुआ।

खैर, बात करते हैं असमंजस के जन्मसूत्रों पर। असमंजस की व्युत्पत्ति अगर पूछी जाए तो यह अ + समञ्जस से निकलती है। संस्कृत में समञ्जस का अर्थ है सही, उचित, भली प्रकार से, सुसंगत, ठीक, न्यायोचित, तार्किक आदि। इसके  अलावा अभ्यस्त, यथार्थ, स्वस्थ आदि भी इसकी अर्थवत्ता में शामिल हैं। आप्टे कोश के मुताबिक असमञ्जस शब्द बना है सम्यक् अञ्ज औचित्यं यत्र यानी सब दूर से भली प्रकार से उद्घाटित या दृष्यमान। जाहिर है जो बोधगम्य है, उचित है, वही समञ्जस है। समञ्जस में उपसर्ग लगने से इसमे निहित भावों का विलोम होता है इस तरह संस्कृत के असमञ्जस शब्द का अर्थ है जो समझ न आए, अस्पष्ट, अनुपयुक्त, असंगत, बेतुका, निरर्थक आदि। समञ्जस में शामिल संस्कृत धातु अञ्ज को Sleeper'sDilemmaसमझने से असमंजस का अर्थ और स्पष्ट होता है। अञ्ज् धातु का अर्थ है प्रस्तुत करना, स्पष्ट करना, चमकना, प्रकाशित होना, चित्रण करना आदि। जाहिर है अञ्ज् में स उपसर्ग लगने से बना है समञ्जस। ध्यान रहे संस्कृत के स उपसर्ग में सहित या गुणवृद्धि का भाव है। अञ्ज् से ही बना है अञ्जन या अंजन जिसमें लीपने, पोतने, मिलाने, मलने, प्रकट करने का भाव है। आंखों में सुरमा लगाने को आंजना भी कहते हैं। सुरमा या काजल को संस्कृत में अञ्जन कहा जाता है। दोनों हथेलियों को मिलाकर बने कमलवत आकार को भारतीय संस्कृति में मांगलिक माना जाता है। इसे अञ्जलि कहते हैं। हिन्दी में इसे ही अंजुरी कहा जाता है। किसी पदार्थ को ग्रहण करने अथवा किसी को दान देने के लिए हथेलियों की यही मुद्रा मान्य है। जाहिर है वह वस्तु जिसे अंजुरी में रखा जाता है भली भांति नुमायां होती है, स्पष्ट होती है अतएव प्रस्तुत होती है इसीलिए यह मुद्रा अंजुरी है। सुसंगतता, संतुलन या तादात्म्य के अर्थ में सामंजस्य शब्द भी हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है जो इसी कड़ी से जुड़ा है। अंञ्ज् के स्पष्ट होते ही समञ्जस् के अर्थ खुलते हैं और फिर असमंजस के साथ कोई असमंजस नहीं रह जाता।
ब बात दुविधा की। दुविधा का अर्थ भी पसोपेश में पड़ना होता है। अनिर्णय की स्थिति को दुविधा कहते हैं। किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए जब एकाधिक संभाव्य विकल्प मौजूद हो तो असमंजस की स्थिति बनती है, यही दुविधा है। दुविधा शब्द का दुबधा रूप भी लोकशैली में प्रचलित है। दुविधा बना है द्वि + विधा से। द्वि अर्थात दो और विधा यानी राह, रास्ता, रीति या विकल्प। संस्कृत का विधा शब्द बना है विध् धातु से जिसमें चुभोना, काटना, सम्मानित करना, पूजा करना, राज्य करना जैसे भाव हैं। विध् का ही एक रूप वेध भी है जिसमें छेद करना, प्रवेश करना, चुभोना का भाव है। बींधना या बेधना जैसे शब्द इसी मूल से उपजे हैं। मोटे तौर पर विध् में राह, परिपाटी या रीति का भाव है। प्राचीन मानव ने पत्थरों पर उत्कीर्णन के जरिये ही खुद को विविध रूपों में अभिव्यक्त किया था। लकीरें खींचने, कुरेदने में पहले नुकीले पत्थर माध्यम बने, फिर तीरों के सिरे और फिर तराशने के महीन औजारों से यह काम हुआ। लकीर ही राह या रास्ते का पर्याय बनी। बाद में विकल्प, समाधान, रीति और तरीका के रूप में भी राह, रीति जैसे शब्द को नई अभिव्यक्त मिली। द्विविधा में किसी बात के दो समाधान या दो रूपों का ही भाव है। जाहिर है सत्य तो एक ही है। चुनाव अगर एक का करना है तब द्विविधा स्वाभाविक है। यही दुविधा है। प्रणाली, अनुष्ठान, रीति या तरीका के अर्थ में विधि का अर्थ भी यही है। विधि-विधान शब्द भी यहीं से आ रहा है। किसी बिध मिलना होय…में मिलने की राह तलाशने की जो उत्कंठा व्यंजित हो रही है उसका सूत्र इसी विध् से जुड़ता है। नियम, रीति, कानून के अर्थ मे विधान शब्द का मूल भी यही विध् है। आप्टे कोश इसका मूल वि+ धा बताता है किन्तु यह सिर्फ व्याकरिणक आधार है। दरअसल विधान के मूल में भी विध् धातु ही है। स्वाभाविक है कि नियम संहिता के अर्थ मे संविधान जैसा शब्द, जिसकी आत्मा में रीति-नीति बसती है, के जन्मसूत्र भी यहीं मिलते हैं।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


Blog Widget by LinkWithin