Tuesday, July 31, 2012

मीरासियों के वारिस

miras

हि न्दी में नाचने-गाने वालों, वाचिक व आंगिक चेष्टाओं के जरिये मनोरंजन करने वालों को भांड-मीरासी कहा जाता है । यह शब्दयुग्म दरअसल सामंती व्यवस्था में ज्यादा प्रयोग में आता था । आज के दौर में इसका प्रयोग मुहावरे की तरह होता है जिसमें चाटूकारिता और खुश करने की चेष्टाओं का संकेत है । प्राचीनकाल मे भी इस पद का सम्बन्ध दरबार संस्कृति से जुड़ता था और आज भी किसी राजनेता के टहलुओं, चमचों, चापलूसों को भांड-मीरासी कह कर ही नवाज़ा जाता है । इस शब्दयुग्म का पहला पद भाण्ड हिन्दी की तद्भव शब्दावली का है तो मीरासी शब्द फ़ारसी से आया है जिसके जन्मसूत्र सेमिटिक परिवार की अरबी से जुड़ते हैं । हिन्दी में मीरासी शब्दको ह्रस्व लगा कर मिरासी लिखने की प्रवृत्ति ज्यादा है जबकि यह शब्द बना है अरबी के मीरास से जिसका अर्थ है विरासत या वंशानुगत प्राप्ति । ग़ालिब ने दुखों को मीरास-ऐ-ज़िंदगी कहा है अर्थात जीवन का अनिवार्य तत्व । ज़िन्दगी की विरासत । मीरासी में सीन का प्रयोग भी मिलता है और शीन का भी । मराठी में मीराशी भी लिखा जाता है और मीरासी भी जबकि हिन्दी में ज्यादातर मीरासी ही चलता है ।
बसे पहले बात करते हैं मीरासी की । मीरासी का प्रयोग उत्तर और दक्षिण भारत में अलग-अलग तरह से होता है । उत्तर भारत का मीरासी नचैया-गवैया-बजैया होने के साथ-साथ मूलतः संगीतजीवी-कलाजीवी तबका है, जिसका काम लोकरंजन है मगर जो लोक उपेक्षा और उपहास का पात्र भी था । दूसरी तरफ़ दक्कन का मीरासी ऐसा प्रभावशाली ज़मींदार तबका था । खासतौर पर मध्यभारत के खानदेश से लेकर कर्नाटक तक फैले शिवाजी के विस्तृत मराठा साम्राज्य की ज़मीन-बंदोबस्त और भू-राजस्व प्रणाली का अहम हिस्सा था मीरासी वर्ग । मीरासी बना है मीरास से जिसके मूल में है अरबी का मीराथ । गौरतलब है कि अरबी के “थ” वर्ण का उच्चार उर्दू में “स” की तरह होता है । जैसे हदीथ को उर्दू में हदीस कहते हैं । इसलिए मूल सेमिटिक उच्चारण वाले मीराथ का उर्दू रूप मीरास होता है जिसका अर्थ है विरासत । मीराथ के मूल में वारिथा waritha अथवा वारिसा है जिसमें परम्परा से पाने का भाव है जैसे उत्तराधिकार में पाना, विरासत में पाना, स्वामी या वारिस बनना आदि ।
त्तराधिकारी के लिए हिन्दी में वारिस शब्द आमतौर पर इस्तेमाल होता है । इसीतरह उत्तराधिकार, वंशाधिकार, कुलाधिकार जैसे आशयों के लिए विरासत बेहद सामान्य शब्द है । इसी कड़ी से मीराथ का जन्म हुआ है जिसमें विरासत का ही भाव है । इसी कड़ी में अरबी का एक शब्द है मूरिस । अगर उत्तराधिकार पाने वाला वारिस है तो उत्तराधिकार सौंपनेवाला कौन ? ज़ाहिर है वसीयतकर्ता ही मूरिस है इसके अलावा पुरखा, वंश प्रवर्तक या पूर्वज भी इसकी अर्थवत्ता में आते हैं । हिन्दुस्तानी ज़बान से हिन्दी को यह शब्द उत्तराधिकार में तो नहीं मिला मगर शेरो-शायरी में यह मूरिस चलता है जैसे, अकबर इलाहाबादी साहब ने फ़र्माया है – डारविन साहब हक़ीक़त से निहायत दूर थे । मैं न मानूंगा कि मूरिस आप के लंगूर थे ।। हाँ, मूरिस की कड़ी में मौरुस ज़रूर नज़र आता है जिसका इस्तेमाल अदालती भाषा में आज भी खूब होता है और बोलचाल में भी इसका दख़ल बना हुआ है । मौरुस का शुद्ध अरबी रूप मौरुथ है जिसका अर्थ है पैतृक या उत्तराधिकार में प्राप्त । हिन्दी में उत्तराधिकार, विरासत आदि अर्थों में इसका मौरूसी रूप ज्यादा प्रचलित है ।
तिहासविद् डॉ. रहीस सिंह अपनी पुस्तक मध्यकालीन भारत में लिखते हैं कि “मध्यकालीन दक्कन की मीरासी व्यवस्था भूमि-व्यवस्था में सबसे प्रमुख और प्रथम श्रेणी की थी । यह कृषक स्वामित्व की व्यवस्था थी । भू-व्यवस्था के तहत मीरास का तात्पर्य उस भूमि से है जिस पर व्यक्ति का एकछत्र पुश्तैनी अदिका हो । मराठी दस्तावेजों में इसका प्रयोग ऐसे किसी पुश्तैनी और हस्तान्तरित अधिकार के लिए किया गया है जिसे व्यक्ति ने उत्तराधिकार में खरीदकर या उपहार द्वारा प्राप्त किया हो ।” महाराष्ट्र में वंशानुगत रूप से भूमि स्वामित्व अधिकार प्राप्त व्यक्ति को मीरासदार (मीराज़दार) कहते हैं और जागीरदार, जमीनदार की तरह मीरासदार का प्रयोग कुलनाम के तौर पर भी होता है । मोल्सवर्थ के कोश में मीरासी का एक रूप मीराशी भी बताया गया है । मध्यकालीन दक्कन में मीरासी का तात्पर्य खुदकाश्त के सम्बन्ध में चार वर्गों से भी था जिसमें सबसे क्रमशः ‘वतनदार’, ‘मीरासदार’, ‘ऊपरी’ और ‘ओवांडकरू’ शामिल थे । महारों के लिए भी ‘मिरासी’ नाम प्रचलित था जो गांव की चौकीदारी करते थे ।
त्तर भारत में ‘भांड-मीरासी’ युग्म के दोनो ही शब्दों को जातीय पहचान भी मिली हुई है । उस्ताद रजब अली खाँ पर लिखी अपनी पुस्तक में अमीक हनफ़ी कहते हैं- “मीरासी शब्द का अर्थ आनुवंशिक है । ऐसी संगीतजीवी जातियाँ जिन्होने कालान्तर में धर्म-परिवर्तन कर लिया और मुसलमान हो गईं, मीरासी कहलाने लगीं ।” जब राजे-रजवाड़े न रहे, इन कलाजीवी वर्ग के लोगों की अवनति हुई और ये गाने-बजाने वाले कहलाने लगे । कोठों के साज़िन्दों को भी मीरासी कहते हैं । मज़हबी तौर पर ये मुसलमान होते हैं मगर मुस्लिमों में भी इनकी जात नीच समझी जाती है । शेरो-सुख़न की भूमिका में अयोध्याप्रसाद गोयलीय लखनऊ के वाजिदअली शाह के दरबार का वर्णन करते हुए लिखते हैं –“उनके दरबार में शायरों-गवैयों का तो बोलबाला था ही, नचैयों, भांडों, मसख़रों और लतीफ़े कहनेवालों की भी एक बहुत बड़ी जमाअत थी । ‘भड़ुवे-मीरासी’ मीर साहब कहलाए जाते थे ।” ऐसा भी माना जाता है कि मीरासियों का रिश्ता पैगम्बर मोहम्मद की शिक्षाओं को सुनने वाले शुरुआती लोगों के समूह से है । इनमें से कुछ लोग इस्लाम के प्रचारक बने और ईरान, अफ़गानिस्तान तक आए । सूफ़ी-सन्तों के काफ़िलों में के साथ ये मीरासी चलते थे । ख़्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती के साथ भी ऐसे ही मीरासी जत्थे आए जो बाद में राजस्थान में बस गए । इनके डेरो प्रायः आबादी के बाहर होते थे और इनका मुखिया मीर कहलाता था
ब बात भांड की । संस्कृत में कहने, सुनने, पुकारने, शोर मचाने के आशय वाली धातु भण् है । कहने की ज़रूरत नहीं कि दरबारों में राजाओं की कीर्ति का बखान करनेवाले भांड समुदाय का नाम भी इसी भण् धातु से हुआ है। भण् से बने भाण्डकः का मतलब होता है घोषणा करनेवाला। किसी ज़माने में भाण्ड सिर्फ विरुदावली ही गाते थे और वीरोचित घोषणाएं करते थे ताकि सेनानियों में शौर्य और वीरता का भाव जागे। कालांतर में एक समूचा वर्ग राज्याश्रित व्यवस्था में शासक को खुश करने के लिए झूठा स्तुतिगान करने लगा । इसे समाज ने भँड़ैती कहा और शौर्य का संचार करनेवाला पुरोहित भाण्ड बनकर रह गया। जोर-शोर से मुनादी करनेवाले को जिस तरह से ढ़िंढोरची, भोंपू आदि की उपमाएँ मिलीं जिनमें चुगलखोर, इधर की उधर करनेवाला, एक की दो लगानेवाला और गोपनीयता भंग करनेवाले व्यक्ति की अर्थवत्ता थी उसी तरह भांड शब्द की भी अवनति हुई और भाण्ड समाज में हँसी का पात्र बन कर रह गया। स्वांग करनेवाले व्यक्ति, हास्य कलाकार, विदूषक भी भाण्ड की श्रेणी में आ गए । इसके अलावा चुगलखोर और ढिंढोरापीटनेवाले को भी भाण्ड कहा जाने लगा। यही नहीं, चाटूकार और चापलूस व्यक्ति को दरबारी भांड की उपाधि से विभूषित किया जाने लगा जो किसी ज़माने में दरबार का सम्मानित कलाकार का पद होता था । जब बहुत कुछ कहने-सुनने को कुछ नहीं रहता तब भी अक्सर हम कुछ न कुछ कहते ही हैं जिससे भुनभुनाना कहते हैं ।

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Tuesday, July 17, 2012

बुनियाद के बिना

brick-base

हि न्दी में दो ‘बिना’ प्रचलित हैं । पहला ‘बिना’ वह है जिसके बिना हिन्दी में बातचीत पूरी हो ही नहीं सकती है । ‘बिना’ संस्कृत मूल का है और ‘विना’ से बना है । विना का अर्थ है से रहित, को छोड़कर, से हीन आदि । संस्कृत में विना का प्रयोग ‘रसगंगाधर’ के इस सुभाषित में देखिए- “पंकैर्विना सरो भाति सदः खलजनैर्विना । कटुवर्णैर्विना काव्यं मानसं विषयैर्विना ॥” अर्थात कीचड़ बिना सरोवर, दुष्ट बिना गोष्ठी, कटुवर्ण रहित कविता और विषय-वासना-मुक्त मन सर्वोत्तम है । तत्सम शब्दावली का ‘व’ देशज या लोकबोली में आकर ‘ब’ में बदलता है इसलिए संस्कृत का विना हिन्दी मे ‘बिना’ हो जाता है जैसे “बिना आवाज़ ऊँची किए कोई काम हो ही नहीं सकता” या “बिना विचारे काम नहीं करना चाहिए” । ‘बिना’ का एक रूप ‘बिन’ भी है जिसका इस्तेमाल अक्सर काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए होता है जैसे “तुम बिन जीवन”, “तुझ बिन रैना”, “जल बिन मछली” आदि ।
हिन्दी का दूसरा ‘बिना’ अरबी से फ़ारसी होते हुए आया है । यह संस्कृत मूल के ‘बिना’ की बजाय कुछ कम प्रचलित है मगरइस ‘बिना’ के बिना भी हिन्दी का दिल नहीं लगता । यह दूसरा ‘बिना’ बना है सेमिटिक धातु बा-नून-या (b-n-y) से जिसमें निर्माण अथवा रचना का भाव शामिल है । इससे बनता है अरबी का ‘बना’ जिसमें भी यही भाव हैं । ‘बना’ का ही एक रूप होता है ‘बिना’ । इस ‘बिना’ का अर्थ होता है इमारत, निर्मिति, रचना या आधार । गौर करें कि किसी भी चीज़ का एक आधार होता है । आधार यानी नींव, बेस, धरातल, स्टैंड, धरातल, ज़मीन आदि । इसका प्रयोग देखें- “आप किस बिना पर इतना बड़ा आरोप लगा रहे हैं ?” अर्थात यहाँ पर आरोप का आधार पूछा जा रहा है ।
कोई भी स्ट्रक्चर, ढाँचा, इमारत या रचना का निर्माण किसी न किसी आधार पर ही होता है । इसे बुनियाद कहते हैं । बुनियाद का प्रयोग हिन्दी में आधार या नींव के अर्थ में होता है । शब्दकोशों में इसे फ़ारसी का बताया गया है । दरअसल हिन्दी का ‘बुनियाद’ मूल फ़ारसी में ‘बुन्याद’ है, ठीक उसी तरह जैसे दुनिया का तुर्की रूप ‘दुन्या’ है । स्टैंगास के इंग्लिश फ़ारसी कोश में आधार के अलावा इसका अर्थ संरचना, दीवार, बनावट भी है । उधर अरबी में इससे ‘बिना’ की कतार में खड़ा है ‘बुनिया’ जिसका निर्माण भी सेमिटिक धातु बा-नून-या (b-n-y) से हुआ है । इसका फ़ारसी रूप ‘बोन्ये’ और तुर्की रूप ‘बून्ये’ होता है । बुनिया का अर्थ भी वही है जो अरबी ‘बिना’ या फ़ारसी ‘बुनियाद’ का होता है ।
जॉन प्लैट्स के कोश में बुन्याद ( बुनियाद ) का रिश्ता फ़ारसी के बुन से बताया गया है जिसका पूर्वरूप अवेस्ता का बुना है । अवेस्ताई बुना का रिश्ता प्लैट्स वैदिक ‘बुध्न’ से है । मोनियर विलियम्स के मुताबिक इसका अर्थ है bottom , ground , base , depth अथवा किसी भी ढाँचे या संरचना का सबसे निचला हिस्सा । फ़ारसी ‘बून’ की रिश्तेदारी बुध्न से सम्भव है मगर प्लैट्स बुनियाद का मूल बून नहीं बताते बल्कि बनियाद वाली प्रविष्टि में “देखें बुन” लिखते हैं और ‘बुन’ वाली प्रविष्टि में ‘बुनियाद’ को ‘बुन’ के समतुल्य बताते हैं । कुल मिलाकर अवेस्ताई ‘बुना’, फ़ारसी ‘बून’ और अरबी ‘बिनिया’ अथवा ‘बुनिया’ समतुल्य हैं मगर फ़ारसी बुनियाद का विकास अरबी ‘बुनिया’ से होना तार्किक लगता है । एन्ड्रास रज्की के कोश के अनुसार अरबी बुनिये का फ़ारसी रूप टबोन्ये है । गौरतलब है कि फ़ारसी में बुनियाद का रूप बुन्याद होता है जो बोन्ये के क़रीब है । अरबी में बिल्डर, निर्माता के लिए बन्ना शब्द है जबकि इसका फ़ारसी पर्याय बुन्यादगर है । भवन की नपाई करने वाले को बुन्यादसाज़ कहते हैं ।

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Sunday, July 15, 2012

हरजाई, हरफ़नमौला, हरकारा

हि न्दी के बुनियादी शब्दभंडार में तीन तरह के “हर” हैं । पहला ‘हर’ वह है जो संस्कृत की ‘हृ’ धातु से आ रहा है जिसमें ले जाने, दूर करने, पहुँचाने, खींचने, लाने जैसे भाव हैं । इससे बने ‘हर’ में भी यही भाव हैं । अक्सर इसका प्रयोग प्रत्यय की तरह होता है जैसे मराठी का वार्ताहर यानी समाचार लाने वाला, कब्ज़हर यानी कब्ज़ियत दूर करनेवाला । दुखहर यानी दुख दूर करने वाला । ‘हृ’ से ही हरण जैसा शब्द भी बना है । दूसरा ‘हर’ वह है जिसका अर्थ शिव है । हर-हर महादेव में यही हर है । इसका अर्थ विभाजन करना भी होता है । भारतीय अंक गणित में हर उस संख्या को कहते हैं जिससे दूसरी संख्या विभाजित होती है । तीसरा ‘हर’ वह है जिसका बोली-भाषा में सर्वाधिक इस्तेमाल होता है । ‘हर’ यानी प्रत्येक...एक-एक । यही इसका सबसे लोकप्रिय अर्थ है । वैसे ‘हर’ में सब कोई, सर्वसाधारण या सर्व का भाव भी है । हिन्दी का ‘हर’ फ़ारसी की देन होते हुए भी नितांत भारतीय है ।
फ़ारसी ज़बान आर्यभाषा परिवार की है और आधुनिक वर्गीकरण में इसे इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के इंडो-ईरानी उपवर्ग में रखा जाता है । फ़ारसी भाषा के विकास में इरानी के मध्ययुगीन समाज की पहलवी भाषा और उससे भी प्राचीन अवेस्ता का योग रहा है । अवेस्ता और वैदिक संस्कृत में काफ़ी समानता है । इसके बावजूद कुछ प्रमुख फ़र्क़ भी हैं जैसे वैदिक ‘स’ ध्वनि ईरानी परिवार की भाषाओं में जाकर ‘ह’ में बदलती है । सर्वप्रिय उदाहरण ‘सप्त’ का ‘हप्त’ और ‘सिन्धु’ के ‘हिन्दू’ में बदलाव के हैं । भाषाविदों के मुताबिक वैदिक ‘सर्व’ का रूपान्तर ज़ेन्दावेस्ता में ‘हौर्व’   (haurva) होता है । मेकेन्जी के पहलवी कोश में इसका अर्थ all, each, every बताया गया है । इससे ही बना है पहलवी का ‘हरवीन’ जिसमें यही सब भाव हैं । मोहम्मद हैदरी मल्येरी के कोश में पूर्ण, समग्र के अर्थ वाले ग्रीक भाषा के होलोस ( holos ) की इससे रिश्तेदारी है । लैटिन भाषा में इन्ही भावों के लिए साल्वस salvus शब्द है । प्रोटो भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए *sol- धातु की कल्पना की गई है ।
हिन्दी में ‘हर’ शब्द की व्यापक मौजूदगी है । आम बोलचाल में इसका प्रयोग खूब होता है । हर रोज़, हर कोई, हर बार, हर तरफ़, हरसू, हर एक, हर दम, हर हाल में जैसे प्रयोग जाने पहचाने हैं और हिन्दी को मुहावरेदार अभिव्यक्ति देने में ये वाक्य खासे लोकप्रिय हैं । ‘हर’ से बनी कुछ संज्ञाएँ भी लोकप्रिय हैं जैसे ‘हर फ़न मौला’ । हिन्दी में अब इसे हरफ़नमौला की तरह ही लिखा जाता है जिसका अर्थ है किसी भी काम को कुशलतापूर्वक करने वाला । मराठी में इसे ‘हरहुन्नरी’ कहा जाता है । फ़ारसी-उर्दू में ‘हरबाबी’ शब्द भी इसी अर्थ में है । अभिहित करना ऐसा ही शब्द है ‘हर दिल अज़ीज़’ यानी सबका प्यारा । एक अन्य शब्द है ‘हरजाई’ जो स्त्रीवाची भी है और पुरुषवाची भी । ‘हरजाई’ का प्रयोग शायरी में बेवफ़ा प्रेमी, धोखेबाज प्रेमी के लिए खूब होता है । हरजाई  के ‘जाई’ में ‘जाना’ क्रिया को पहचानने से हसका अर्थ स्पष्ट होता है अर्थात कहीं भी, किधर भी घूमने वाला अर्थात आवारा, टहलुआ, भटकैंया, बेठिकाना आदि ।   मगर इसमें भाव स्थिर हुआ बेईमान, बेवफ़ा, धोखेबाज का । स्पष्ट है कि कहीं एक जगह स्थिर न होने वाला व्यक्ति ही आवारा होता है । ऐसा अस्थिरचित्त व्यक्ति ही होता है । मनचला इसी को कहते हैं । जिधर मन के, चल पड़े । स्त्रीवाची रूप में हिन्दी शब्दसागर कोश इसका अर्थ व्यभिचारिणी, कुलटा, वेश्या, रंडी जैसे अर्थ बताता है । स्त्री के लिए तो सभी समाजों का रवैया एक जैसा रहा है । जहाँ उसके लिए घर की देहरी लाँघना निषिद्ध हो वहाँ डोलने, फिरने वाली, मनचली प्रवृत्ति की स्त्री के लिए हरजाई शब्द  में कुलटा वेश्या जैसे भाव समाहित होने ही थे । 
संदेशवाहक के अर्थ में भारतीय ज़बानों में ‘हरकारा’ शब्द भी खूब प्रचलित है । यह भी फ़ारसी से हिन्दी में आया है । पुराने ज़माने में जब यातायात के साधन सुगम नहीं थे, दूर-दराज़ ठिकानों तक निरन्तर घुड़सवारों के ज़रिये संदेश पहुँचाए जाते थे । यह काम हरकारे करते थे । यूँ देखा जाए तो हरकारा शब्द ‘हर’ + ‘कारा’ से बना है । ‘हर’ यानी ‘सब’, ‘सर्वसाधारण’, ‘सभी तरह’, ‘सभी का’ आदि और ‘कारा’ यानी ‘काम करने वाला’ । ‘कारा’ बना है ‘कार’ से जिसके मूल में वैदिक ‘कार’ ही है जिसके मूल में ‘कृ’ धातु है जिसमें करने का भाव है । अवेस्ता, पहलवी और फ़ारसी में भी ‘कार’ रूप सुरक्षित है जिसमें बनाना, करना, प्रयास आदि भाव हैं । फ़ारसी, उर्दू हिन्दी में यह ‘कार’ प्रत्यय की तरह करने वाले के अर्थ में खूब प्रयोग होता है जैसे सरकार, पत्रकार, स्वर्णकार, ताम्रकार आदि । ‘कार’ की मौजूदगी कारकून, कार्रवाई, कार्यवाह, कारखाना, कारसाज़ आदि कई शब्दों में देखी जा सकती है । ‘हरकारा’ का अर्थ हुआ सब तरह के काम करने वाला । पुराने दौर में घर से बाहर के कामों को अंजाम देने के लिए अलग सेवक होते थे  जो अन्य कामों के साथ साथ चिट्ठीरसाँ यानी डाकिये की भूमिका भी निभाते थे ।

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Thursday, July 12, 2012

‘मानसर’ की खोज में

Manasarovar

मा नसर का उल्लेख जायसी के पद्मावत में आता है । दरअसल यह ‘मानसरोवर’ का लोकरूप है । ‘मानसरोवर’ ऐसा शब्द है जिससे लगभग हर पढ़ा-लिखा भारतीय परिचित है । मानसरोवर सुनते ही हिमाच्छादित उपत्यका में स्थित नील-प्रशान्त झील की छवि उभरती है । तिब्बत की मानसरोवर झील और कैलाश-पर्वत एक दूसरे के पर्याय हैं । ‘मानसरोवर’ का महत्व इस बात में है कि इसे भारतीय मनीषा के हर आयाम में देखा जाता है । आध्यात्मिक-दार्शनिक अर्थों में ‘मानसर’ परम उपलब्धि का प्रतीक है । पौराणिक युग से कैलास-मानसरोवर की यात्रा का लक्ष्य, मोक्ष-प्राप्ति ही था । खुद जायसी ने ‘मानसर’ को परमतत्व बताया है । ‘मानसर’ का ‘सर’, सरोवर का पूर्वरूप है । संस्कृत में ‘सर’ का अर्थ होता है बहाव, आवेग, तरल आदि । इसकी मूल धातु ‘सृ’ है जिसमें बहाव, गति, तरलता जैसे भाव हैं । पंजाब की सतलुज और असम की ब्रह्मपुत्र नदियाँ इसी झील से निकली हैं ।
मानसर के संदर्भ में मेरे मन में दो विचार आते हैं । यह जो ‘सर’ है वह सरोवर से आ रहा है या ‘सायर’ से क्योंकि मानसरोवर का उल्लेख कई संदर्भों में मान-सायर भी हुआ है । ‘सायर’ दरअसल सागर का प्राकृत रूप है । लोकबोलियों में सागर का रूप ‘सायर’ ही मिलता है । मानसरोवर की कल्पना इतनी ख्यात है कि जिस तरह से गंगा नाम वाले कई जलस्रोत देशभर में हैं उसी तरह ‘मानसर’ भी कई हैं । सवाल है कि यह ‘मानसर’ दरअसल ‘मान-सायर’ तो नहीं ? ध्यान रहे, ‘सागर’ यूँ तो समुद्र को कहते हैं मगर जलभंडार के रूप में सामान्यतः झील, जलाशय के लिए भी हिन्दी में ‘सागर’ शब्द का प्रयोग होने लगा । जलस्रोतों के किनारे जनसमूहों के बसने से ही बस्तियों ने आकार लिया । मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक शहर सागर का नाम दरअसल एक झील की वजह से पड़ा जिसके इर्दगिर्द  इसकी बसाहट है ।
ध्यान रहे ‘मानसर’ या ‘मानसरोवर’ के नाम की दो प्रमुख झीलें प्रसिद्ध हैं । मानसर जम्मू के पास है जबकि मानसरोवर तिब्बत में है । ‘सर’ की गुत्थी सुलझाने से पहले यह जानें की ‘मानसर’ या ‘मानसरोवर’ दोनों में जो ‘मान’ है, वह कहाँ से आ रहा है । ‘मानसरोवर’ के पौराणिक महत्व ने इस शब्द को अर्थविस्तार दिया । मानसरोवर परमउपलब्धि, परमलक्ष्य का प्रतीक बना । भौतिक रूप में मानसरोवर की दैहिक यात्रा आज भी बेहद श्रमसाध्य है । प्राचीनकाल में तो और भी कष्टकर रही होगी । तीर्थयात्राएँ हमारे लिए दुखों से त्राण पाने का ज़रिया थीं । माना जाता था कि तीर्थयात्रा से कोई लौट कर नहीं आता । दूसरी ओर दैहिक यात्रा के सूक्ष्म रूप की कल्पना कर ‘मानसरोवर’ की परम उपलब्धि में मानस की कल्पना की गई । ‘मानस’ यानी मन की विवेक-बुद्धि और उससे उपजा अध्यात्म । हमारे जीवन का उद्धेश्य ही मन में विवेक को जागृत करना है । जिसे विवेकबोध हो गया, उसका जीवन सफल । इस तरह मानसरोवर को मानस + सरोवर के रूप में लिया जाने लगा ।
जो भी हो, मानसरोवर का आध्यात्मिक भाव भी मानसरोवर भौतिक यात्रा से ही उपजा है और एक झील के तौर पर इसके साथ मानस शब्द का कोई तर्क नहीं मिलता है । यूँ देखें तो जम्मू वाला ‘मानसर’ और तिब्बत वाला ‘मानसरोवर’ दोनो ही बर्फीले क्षेत्र हैं । बौद्ध साहित्य में मानसरोवर को पृथ्वी का स्वर्ग कहा गया है । भाषा वैज्ञानिक नज़रिए से हमें ‘मानसरोवर’ और ‘मानसर’ के साथ जुड़े ‘मान’ का तार्किक जवाब मिलता है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली में बर्फ़ के लिए ‘हिम’ शब्द है । संस्कृत के ‘हिम’ में पाला, तुषार, बर्फ़ आदि भाव हैं । मूल भाव सर्दी का है । ध्यान रहे सर्दी के मौसम को ‘हेमन्त’ कहा जाता है । ‘हिम’ की कड़ी में ही हेमन् है । ‘मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक इसका अर्थ होता है आवेग, बुधग्रह, कांति, कनक और पानी । इसी मूल के ‘हेम’ में इन्ही तमाम भावों के साथ एक अर्थ नदी अथवा जलधारा का भी जुड़ता है । ‘हेमन्’ की कतार में ही हेमन्त भी खड़ा है जिसका अर्थ है शीतऋतु । रॉल्फ लिली टर्नर की कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज़ के मुताबिक दार्द परिवार की ही कई भाषाओं में इसके प्रतिरूप प्रमुखता से मौजूद हैं जैसे तिराही भाषा में इसका रूप ऐमन तो इसी परिवार षुमास्ती में येमन है, निंगारामी में यह ईमन्द है तो गावार-बाती और सावी में यह हेमान्द है । दार्द परिवार की प्रमुख भाषा खोवार में इसका रूप योमून है तो बाश्करीक में हामन, गौरो में यह हेवान्द है तो पंजाबी कांगड़ी में हियुन्द, हियुन्धा है और पश्चिमी पहाड़ी में इसकी अनुनासिकता गायब हो जाती है और इसकी ध्वनि सिर्फ़ ह्यूत रह जाती है ।
सी तरह संस्कृत में ‘हैम’ शब्द भी है जिसका अर्थ शीत सम्बन्धी, हिमाच्छादित है । इसका एक रूप ‘हैमन’ भी है । ‘हिम’  अर्थात बर्फ़ भी इसी शृंखला का शब्द है । विश्व की सबसे बड़ी पर्वत शृंखला का नाम हिमालय इसीलिए है क्योंकि वह बर्फ़ का ठिकाना है । यह ‘हेम’ भी ‘हिम्’ से ही आ रहा है। हेमन्त से ‘त’ का लोप होकर पहाड़ी बोलियों में हिमन्, हेमन्, हिम्ना, हिमान्, एमन, खिमान् जैसे रूप भी बनते हैं। सर्दी का, बर्फ़ीला या शीत सम्बन्धी अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग होता है। कश्मीरी में हिमभण्डार के लिए मॉन / मोनू शब्द भी है। जाहिर है यहाँ ‘ह’ का भी लोप हो गया है । उत्तर पूर्वांचल में मॉन, मुनमुन जैसे कोमल शब्द खूब सुनाई पड़ते हैं । इनमें और हिमाचल, उत्तराखण्ड, कश्मीर क्षेत्रों में हिमन्, हेमन् का मन, मोन, मॉन नज़र आ रहा है । हिमालय, हिमाल से ही शिमला रूप है, ऐसी सम्भावना रामविलास शर्मा जता चुके हैं । मराठी में हिंवाँळ और गुजराती में हिमालु का अर्थ भी बर्फ सम्बन्धी, शीत सम्बन्धी  होता है । बर्फीले क्षेत्रों में पाया जाना वाला एक रंगबिरंगा पक्षी है जिसका नाम ‘मोनाल’ है । उत्तर-पूर्वांचल में भी एक चिड़िया का नाम ‘मुनमुन’ है । यहाँ ‘मोनाल’ पक्षी का अर्थ बर्फीला या हिम क्षेत्र का सार्थक हो रहा है । ‘मोनाल’ का आल् प्रत्यय आलय यानी आश्रय, निवास का द्योतक है । हिमालय से हिमाल या हिमाला में भी आलय ही है ।  आलय से बना ‘आल्’ प्रत्यय निश्चित ही पहाड़ी बोलियों में भी प्रचलित है । ‘हेमन’ से ‘ह’ का लोप और मन से ‘आल्’ जुड़ कर पहाड़ी और बर्फीले क्षेत्र के तीतर, मुर्गेनुमा पक्षी के लिए मोनाल नाम सार्थक है ।
हुत सम्भव है कि ‘मानसरोवर’ और ‘मानसर’ दोनो के ही साथ जो मान है वह इसी मोन से आ रहा हो । जहाँ तक सागर > सायर का प्रश्न है, ध्यान रहे कि हिमालय क्षेत्र की सारी नदियाँ बर्फीले ग्लेशियरों से निकलती हैं । ग्लेशियर यानी हिमवाह या हिमप्रवाह । गंगा का उद्गम गंगोत्री मूलतः ग्लेशियर ही है । इसमें निहित प्रवाही भाव सृ से बने सर मे निहित है । हालाँकि ‘सर’ अब ‘सरोवर’ का पर्याय हो गया है किन्तु सरोवर भी किसी न किसी जलस्रोत से बहते पानी से ही बनते हैं । अलबत्ता जलाशय के अर्थ में ‘सर’ और ‘सायर’ का प्रयोग स्थानीय प्रभाव है । जम्मू के पास की झील को कुछ लोग ‘मानसर’ कहते हैं कुछ ‘मान-सायर’ । कुल मिला कर मान में शीत या बर्फ़ का आशय है । इसका प्रमाण कुमाऊँ अंचल के प्रसिद्ध पर्यटनस्थल मुन्स्यारी में मिलता है । इसमें भी मान/मोन और सायर साफ़ नज़र आ रहा है । गौरतलब है कि इस क्षेत्र में हिमवाह भी हैं । मोन यानी हिम और सर में निहित प्रवाही भाव से यह भी स्पष्ट होता है कि इसमें हिमवाह का आशय भी रहा होगा ।

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Wednesday, July 4, 2012

बेहुदा हिदायतें …

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दो चीज़ों के मेल से हमेशा नई बात पैदा हो जाती है । इस दुनिया में जो कुछ भी सरल है, सुपाच्य है, सुंदर है , सुग्राह्य है वह सब किन्ही दो या दो से अधिक चीज़ों के सुमेल से ही प्रकाश में आया है । अरबी के बहुत से शब्द इसीलिए हिन्दी के सर्वाधिक प्रचलित शब्दों में शुमार हुए हैं क्योंकि उन्हें भारतीय प्रकृति के अनुकूल बनने के लिए फ़ारसी का संस्कार मिला । रहित के अर्थ वाला बे उपसर्ग कई अरबी शब्दों में लगने से नया शब्द बना है । ऐसा ही एक शब्द है बेहुदा जो हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है । बेहुदा यानी अशिष्ट, बदतमीज़, असभ्य, अभद्र, अशालीन, बुरा और खराब । बेहुदा का स्त्रीवाची बेहुदी बनता है । इसी तरह अशिष्टता के लिए बेहूदगी शब्द प्रचलित है ।
बेहुदा शब्द बना है अरबी के हुदा में फ़ारसी के निषेधात्मक उपसर्ग ‘बे’ लगने से । गौरतलब है कि फ़ारसी का ‘बे’ वैदिक भाषा के वि का जोड़ीदार है । ध्यान रहे इंडो-ईरानी परिवार में ‘व’ का रूपान्तर ‘ब’ होता है । अरबी में अल-हुदा पद प्रचलित है जिसका अर्थ है राह दिखाना, निर्देशित करना, मार्गदर्शन करना, निर्वाण, मुक्ति, मोक्ष प्रदान करना आदि । इसके मूल में सेमिटिक धातु हा-दा-ये (h-d-y) से जिसमें अगुवाई, नेतृत्व, स्पष्टता, प्रदर्शन, निदर्शन जैसे भाव हैं । इस तरह अरबी के हुदा में किसी को समर्थ बनाना, उसमें सही-गलत की समझ पैदा करना, जीने का सही मार्ग बतलाना, आत्मरक्षा की तरकीब सिखाना जैसे भाव हैं । हुदा से पहले ‘बे’ लगाने से इन सब भावों का निषेध होने का आशय पैदा हो जाता है । ध्यान रहे, हुदा में निहित सभी भाव मूलतः किसी भी व्यक्ति को शिष्ट और शालीन बनाते हैं सो जिस व्यक्ति में इनका अभाव है वह स्वतः अशिष्ट या अशालीन की श्रेणी में आ जाएगा । इसीलिए अभद्र के अर्थ में ही हमेशा बेहुदा शब्द का प्रयोग होता है ।
सेमिटिक धातु हा-दा-ये (h-d-y) से बने कुछ और शब्द भी हैं जो इसी शब्दार्थ शृंखला से जुड़े हैं जैसे हादी । हिन्दी में हादी अल्प प्रचलित मगर जानी पहचानी टर्म है । हादी का अर्थ है पथप्रदर्शक, मार्गदर्शक, नेता, अगुवा, प्रमुख, गुरु आदि । हादी एक उपाधि भी थी । इस्लाम धर्म के तहत धार्मिक आध्यात्मिक शिक्षाएँ देने वाले प्रमुख व्यक्ति को हादी कहा जाता था । मिर्ज़ा हादी रुस्वा पिछली सदी में उर्दू-फ़ारसी के मशहूर लेखक हुए हैं । उनकी लिखी उमराव जान अदा पुस्तक बहुत आज भी लोकप्रिय है । इस पर एक मशहूर फिल्म भी बन चुकी है । राह दिखाना दरअसल सिर्फ़ हाथ से किसी दिशा में जाने का इशारा भर करना नहीं होता । पथप्रदर्शक दरअसल ज़िंदगी जीने का ढंग सिखाता है । वह नसीहत देता है, परामर्श देता है । अपने अनुभवों का निचोड़ बताता है और उस पर आधारित दिशा-निर्देश देता है ।
हुदा की कड़ी में खड़ा है अरबी का हिदाया शब्द जिसका उर्दू, फ़ारसी और हिन्दी रूप है हिदायत जिसका अर्थ है निर्देश, संचालन, सलाह या परामर्श । हिदायत हिन्दी में खूब प्रचलित है । उर्दू में हिदायत का बहुवचन हिदायात बनता है जबकि हिन्दी में हिदायतों या हिदायतें जैसे रूप बनते हैं । “हिदायत करना”, “हिदायत देना” जैसे वाक्यांशों का आशय किसी ज़माने में जीवन-दर्शन के बारे में बताना था । इसके धार्मिक या आध्यात्मिक आशय एकदम स्पष्ट थे । अब सामान्य परामर्श या निर्देश के तौर पर हिदायत शब्द का प्रयोग होता है । इसीलिए अब हिदायतें भी बेहुदा होने लगी हैं । जिस तरह हुदा शब्द अरबी का प्रसिद्ध स्त्रीवाची संज्ञानाम है उसी तरह हादी पुरुषवाची संज्ञा है । हिदायत का प्रयोग भी पुरुषवाची संज्ञानाम की तरह होता है जैसे हिदायतअली, हिदायतउल्ला या हिदायतखाँ ।

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Sunday, July 1, 2012

‘दीन’ में समाया ‘ध्यान’ [2]

पिछली कड़ी-‘दीन’ में समाया ‘ध्यान’ [1] से आगेworld-religions2

मे केंजी के पहलवी कोश के अनुसार जरथ्रुस्ती साहित्य में उल्लेखित ‘दाएना-वंगुही’ का विपर्यय होकर ‘वेह-दीन’ शब्द सामने आया और फिर इसका रूप वेह-दीन > विहदीन > बिहदीन हो गया । हालाँकि फ़ारसी के ‘बिह’ का अधिकांश रूप ‘बेह’ उच्चारा जाता है । गौरतलब है कि ‘बेह’ का अर्थ भी फ़ारसी में अच्छा होता है और इसके जन्मसूत्र वैदिक भाषा के ‘भद्र’ से जुड़े हैं । बेहतर, बेहतरीन वाला ‘बेह’ भद्र से निकला ‘बेह’ है । अवेस्तन डिक्शनरी के अनुसार वंगुही का अर्थ है भला, अच्छा, सदाचारी, अच्छी चीज़ वगैरह और इससे निकला ‘बिह’ भी ‘बेह’ के रूप में सामने आया । ‘बेह-दीन’ से यह स्पष्ट है । जॉन प्लैट्स के मुताबिक ‘दाएना’ का मूल अवेस्ता की ‘दी’ धातु है जो संस्कृत ( या वैदिक ) शब्दावली के ‘धी’ का प्रतिरूप है । वैदिक ‘धी’ में मूलतः चिन्तन, विचार, ध्यान, मेडिटेशन जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक ‘धी’ स्वतंत्र शब्द है, धातु नहीं और उसका मूल ‘धा’ है जिसमें रखने, धारण करने के साथ-साथ उपरोक्त सारे भाव हैं ।
मेरे विचार में अवेस्ता के ‘दाएनम’ शब्द को वैदिक भाषा के ‘ध्यानम्’ के समतुल्य देखना चाहिए । जेनी रोज़ की “जोरास्टरियनिज़्म: एन इंट्रोडक्शन” में ‘दाएनम’ का रिश्ता ऐसी धातु से सम्भावित बताया है जिसमें परख (अन्तर्चक्षुओं से) का भाव है और इस तरह ‘दाएना’ शब्द में धार्मिक अन्तर्ज्ञान का भाव आता है । गौरतलब है कि जॉन प्लैट्स, अवेस्ताई धातु दी = धी ( वैदिकी ) की बात करते हैं, जबकि वामन शिवराम आप्टे ‘धी’ की धातु ‘ध्यै’ बताते हैं जिसका अर्थ है सोचना, चिन्तन करना, मनन करना आदि । ‘ध्यै’ से बने ‘ध्यानम्’ में इन्हीं सब भावों के समावेश से जो अर्थ उभरता है, वह है दिव्य अन्तर्ज्ञान या अन्तर्विवेक । इसी तरह 1860 में प्रकाशित “आइरिश ग्लॉसेसः मिडाइवल ट्रैक्ट ऑन लैटिन डिक्लैंशन” में आइरिश प्राच्यविद् डॉ रुडोल्फ़ थॉमस सीगफ्रीड के हवाले से ‘दाएना’ की धातु भी ‘ध्यै’ ही बताई गई है । ‘ध्यानम्’ और अवेस्ता के ‘दाएनम’ में ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य यहाँ समतुल्य हैं और इनमें व्युत्पत्तिक रिश्ता भी नज़र आ रहा है ।
‘मज़हबी’ के संदर्भ जिस तरह ‘धर्म’ से ‘धार्मिक’ बनता है उसी तरह ‘दीन’ से ‘दीनी’ शब्द बनता है । मैंकेन्जी के कोश में पहलवी के ‘दैनीग’ शब्द का उल्लेख जिसका अर्थ ‘दीनी’ यानी धार्मिक है । मेरे विचार में यह वैदिक ‘ध्यानिक’ का सहोदर है जिसका अर्थ धार्मिक (आचार) होता है । वामन शिवराम आप्टे के कोश में ‘ध्यानिक’ का अर्थ है “सूक्ष्म चिन्तन से प्राप्त” ( आचार, विचार, नीति ) । गौरतलब है बौद्धधर्म के प्रभाव में ‘ध्यान’ शब्द का प्रसार अलग-अलग रूपों में पूर्वी देशों में हुआ । चीनी, तिब्बती, कोरियाई, वियेतनामी और जापानी में ‘ध्यान’ के विविध रूप मौजूद है । बौद्ध विचार-सरणी में ‘ध्यान’ शब्द में व्यापक विस्तार हुआ और सूक्ष्म चिंतन का भाव भी इसमें शामिल हुआ । भगवान बुद्ध ने ध्यान के ‘ञ्झान’ या झान रूप को ग्रहण किया । गौरतलब है कि अधिकांश बौद्ध साहित्य पालि भाषा में ही है और उनमें ध्यान के लिए ‘ञ्झान’ रूप ही मिलता है । राजेशचंद्रा लिखित बुद्ध का चक्रवर्ती साम्राज्य पुस्तक के अनुसार बुद्ध ने जिस ‘ञ्झान’ का प्रयोग किया, कालांतर में पंडितो नें उसका परिष्कार कर उससे ‘ध्यान’ बना लिया।
भारत से पूर्व दिशा में सबसे पहले बौद्ध धर्म चीन पहुँचा जहाँ ञझान का रूप ‘चियान’, ‘चान’ अथवा ‘चा’आन’ हुआ जिसने एक पंथ का रूप लिया। ‘ञ्झान’ के कोरियाई भाषा में भी ‘सिओन’, ‘सोन’ अथवा ‘सॉनजान’ जैसे रूप बने। वियतनामी में ‘ञ्झान’ का रूप हुआ ‘थियेन’ और जापानी में यह ‘ज़ेन zen’ हो गया । बौद्ध धर्म के उपपंथ के रूप मे आज दुनियाभर में ‘ज़ेन’ को ही सर्वाधिक जाना जाता है । स्पष्ट है कि वैदिक शब्दावली ‘ध्यै’ से ‘ध्यानम्’ और इसके समकक्ष अवेस्ता के किसी पूर्वरूप ‘ध्यै’ से अवेस्ताई शब्दावली के ‘दाएनम’ का जन्म हुआ । पंथ, मार्ग, विचार-सरणी, चिन्तन-धारा, अन्तर्चेतना, अन्तर्ज्ञान और अन्ततः धर्म के रूप में इस ‘दाएनम’ से ‘दाएना’, ‘दैन’ और फिर ‘दीन’ जैसा रूपान्तर हुआ । इसी रूप का प्रसार अरबी में भी हुआ । अरबी नामों के साथ अन्तिम सर्ग के रूप में ‘दीन’ शब्द का प्रयोग आम है जैसे ‘अल-दीन’ या ‘उद-दीन’ और इसमें “ जिस पर भरोसा हो” इनसे बने नाम भारत में जाने पहचाने हैं जैसे अलाउद्दीन, मुईनुद्दीन, अमीनुद्दीन, आलमुद्दीन आदि ।

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