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Monday, February 4, 2013

“हिन्दी सराय” से गुज़रते हुए

स बार पेश है डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल की ताज़ा पुस्तक "हिन्दी सरायः अस्त्राखान वाया येरेवान" की चर्चा । पुस्तक सोलहवीं-सत्रहवी सदी के उन भारतीय व्यापारियों की जड़ों की तलाश के बहाने से समूची भारतीय / हिन्दू संस्कृति की वैश्विक धरातल पर विद्वत्तापूर्ण पड़ताल करती है जो भारत से रूस के अस्त्राखान जा बसे थे।
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क़रीब दो साल पहले की बात है । अगस्त महिने की 21-22 तारीख़ की दरमियानी रात डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल को फ़ैसबुक पर मैसेज किया कि 11 सितम्बर 2011 को मै दिल्ली पहुँच रहा हूँ, क्या मुलाक़ात मुमकिन है ? 22 अगस्त की खुशनुमा सुबह । सात बजे डॉक्टसाब के फोन से ही नींद खुली । पता चला कि वे तो उन दिनों दिल्ली से बहुत दूर येरेवान-अस्त्राख़ान में होंगे ।
paggBपुरुषोत्तम अग्रवाल भारतीय इतिहास, साहित्य और संस्कृति के गंभीर अध्येता हैं । जेएनयूँ में सत्रह बरस पढ़ाने के बाद इन दिनों संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य हैं।
मध्यएशिया के इन दो शहरों का नाम सुनते ही रोमांचित हो उठा । पुलक के साथ डॉक्टसाब से अनुरोध किया कि वे यात्रावृतान्त ज़रूर लिखें और तस्वीरें भी लें । डॉक्टसाब ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा था-“ कोशिश पूरी होगी बंधु, अगर सब कुछ ठीक रहा तो क्योंकि वक़्त बहुत कम है ।” सात-आठ दिन का दौरा कर डॉक्टसाब लौट आए पर उनकी यात्रा तब तक अधूरी रहनी थी जब तक उनकी खोज-यात्रा के अनुभव जिल्द में बंध नहीं जाते । खुशी की बात है कि क़रीब एक साल के भीतर डॉक्टसाब ने येरेवान-अस्त्राख़ान यात्रा-वृत्तान्त पूरा कर लिया और बीते नवम्बर माह में उसका धूमधाम से लोकार्पण भी हो गया । हिन्दी जगत में आज इस क़िताब की खूब चर्चा है । ये सिर्फ़ यात्रावृत्तान्त नहीं बल्कि सांस्कृतिक अध्ययन है । एक संस्कृतिकर्मी के द्वारा वोल्गा और गंगा के बीच की दूरी को पाटने वाले उन पदचिह्नों की तलाश का आख्यान है जो सदियों से इस विशाल भूक्षेत्र में उभरते रहे ।
ब्दों का सफ़र करते हुए अपन बरसों से भूमध्य सागर समेत एशिया के मध्य, पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों का मानचित्र पर्यटन करते रहे हैं । हिन्दी-उर्दू समेत इस मुल्क़ की तमाम बोलियों में पूरा संसार नुमांया होता है । मग़रिब में छुपा मोरक्कों, ब्रुनेई में छुपा वरुण अगर सामान्यतौर पर नज़र नहीं आता तो यह भी कहाँ पता चलता है कि खजानेवाला कारूँ तुर्की का सनकी क्रोशस था और जिस शाबाशी की थपकी पीठ पर महसूस होती है उस शाबाश का रिश्ता फ़ारस की खाड़ी में स्थित बंदरअब्बास के संस्थापक शाहअब्बास से भी हो सकता है । शब्दों का सफ़र करते हुए ही इन तमाम इलाक़ों से परिचय होता गया ।  बृहत्तर भारतीयता का सांस्कृतिक परागण पूरी दुनिया में सदियों से होता रहा है । चाहे पूर्व में कम्बोडिया जैसा देश हो जहाँ अवध के अयोध्या की छाया अयुथाया में नज़र आती है या फिर सुदूर पश्चिमोत्तर का पेशावर हो जिसका नाम कनिष्क के ज़माने में पुरुषपुर था । बहरहाल, डॉक्टसाब ने अपनी किताब का नाम प्रतीकात्मक रखा है- हिन्दी सरायः अस्त्राखान वाया येरेवान । हिन्दी में एक तो वैसे ही सफ़रनामे कम लिखे जाते हैं । ऐसा नहीं कि हिन्दी वाले यात्रा नहीं करते मगर उस दृष्टि का क्या कीजे जो एक सच्चे लेखक के मन में होती है । लेखक अपने दौर का कालयात्री होता है । उसकी लिखी एक एक इबारत अपने समय की सच्चाई होती है । अपनी कल्पना से वह ऐसे अनेक पुलों का सृजन करता है जिससे समाज को विभिन्न समयावधियों के बीच से गुज़रने का मौका सुलभ होता है ।
स्त्राख़ान की जो यात्रा वाया येरेवान दिल्ली से शुरू हुई उसका बीज तो लेखक की चर्चित कृति “अकथ कहानी प्रेम की” की सृजनयात्रा के दौरान ही पड़ गया था । इसका ज़िक़्र लेखक ने अनेक स्थानों पर किया भी है । अस्त्राख़ान से अपना परिचय भी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान पर भोलानाथ तिवारी के विद्वत्तापूर्ण लेखन के ज़रिये हुआ था । उन्होंने हिन्दी में समाए विदेशज मूल के अनेक शब्दों की पड़ताल की थी इसके लिए उन्होंने मध्यएशिया के अनेक देशों की यात्रा भी की । डॉ अग्रवाल की यह यात्रा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है । सदियों पहले दक्षिणी रूस में वोल्गा के मुहाने पर बसा अस्त्राखान मध्यएशिया का बड़ा व्यापारिक केन्द्र था । हिन्दुस्तान के सिंध, मारवाड़ और पंजाब से कई व्यापारी वहाँ जाकर बसते रहे थे जो मूलतः वैष्णवपंथी थे । ऐसे समाज में जहाँ व्यापार के लिए सात समंदर पार करना निषिद्ध हो, ये कौन वैष्णव व्यापारी थे जिन्होंने सुदूर रूस के अस्त्राखान शहर को अपने पुरुषार्थ और व्यवसाय बुद्धि का अखाड़ा बनाने की सोची ? लेखक ने इस संदर्भ में विद्वत्तापूर्वक स्थापित किया है कि दूर-देशों की यात्रा करना भारतीयों का स्वभाव रहा है । पश्चिम की ओर जो व्यापारी जत्थे गए दरअसल वे रामानुज सम्प्रदाय से अलग हुए रामानंदी वैष्णव थे जिन्होंने रूढ़ धार्मिक मान्यताओँ के आगे अपने पुरुषार्थ और आस्था का ऐसा सन्तुलन बनाया जिसने भारत-रूस व्यापार का एक नया रास्ता खोल दिया ।
स्त्राख़ान बरास्ता येरेवान यह सफ़र लेखक के लिए एक तीर्थयात्रा जैसा था । पुरखों की खोज में की गई एक यात्रा जिसका मक़सद था अपनी जड़ों की तलाश । प्राचीनकाल से ही समूची दुनिया में जितने भी फेरबदल, उथल-पुथल और सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव आए हैं उनमें कारोबारी गतिविधियों की भूमिका ख़ास रही है । सौदागरों के ज़रिये ही न सिर्फ जिन्सों और माल-असबाब का कारोबार हुआ बल्कि उससे कई गुना ज्यादा और स्थायी व्यापार हुआ शब्दों, भाषाओं हिन्दी सरायऔर रिवायतों का । सदियों पहले भारत से अस्त्राखान जा बसे व्यापारी समुदाय के बारे में इतिहासकारों की दिलचस्पी कभी क्यों नहीं जागी, लेखक को यह सवाल लगातार मथता रहता है । इसके कारणों का चिन्तन-पक्ष भी बड़ी प्रमुखता से किताब में उभर कर आया है । तथ्यों को दर्ज़ करने की हमारी उदासीनता एक तरह से भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है । हमें अपने अतीत के गौरवगान में इतना आनंद आता है कि क्या कहें । शायद इसीलिए हम वास्तविक तथ्यों को अगली पीढ़ियों के लिए संजो कर, उनका दस्तावेजीकरण करने में कोताह हैं । सुविधानुसार अपने सुनहरे अतीत के पन्नों को जब चाहें और चमकीला बना कर नयी पीढ़ी के सामने रख देते हैं । अतीत के विवरणों को दर्ज़ न करने की भारतीयों की विशिष्ट प्रवृत्ति के बारे में ‘हिन्दी सराय’ में डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं, “...किसी घटना या अनुभव को ...लिखित दस्तावेज का रूप देने में हिन्दुओं की रुचि क्यों नहीं थी ? क्या इसलिए कि हिन्दू चित्त को, किसी सामाजिक अनुभव की स्मृति से जो सीखने योग्य है, उसे मौखिक परम्परा के जरिये अगली पीढ़ी के संस्कारों तक पहुँचा देना ज्यादा सुहाता था ...”
डॉक्टसाब की बात में काफ़ी हद तक सच्चाई है । अस्त्राख़ान के सैकड़ों गुमनाम भारतीय व्यापारियों के बारे में उनकी गहन पड़ताल के सारथी बने मास्कों में रहने वाले हिन्दी कवि अनिल जनविजय, जिन्होंने लेखक के लिए अस्त्राखान के अभिलेखागार में रूसी भाषा में दर्ज़ अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों का हिन्दी अनुवाद कर बेशक़ीमती मदद की । डॉक्टसाब ने किताब में अनेक स्थानों पर इस यात्रा में अनिलजी की महती भूमिका को याद किया है । अस्त्राखान के भारतीय व्यापारियों की खोज यात्रा के सम्बन्ध में मैं ज्यादा नहीं कहना चाहूँगा क्योंकि उनके बारे में जो भी जानकारियाँ हैं वे पहले ही बहुत कम हैं । डॉक्टसाब ने हर उपलब्ध जानकारी का बेहद रचनात्मक प्रयोग कर लिया है इसलिए चाहूँगा कि सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के इन व्यापारियों चाहे वो मशहूर मारवाड़ी बारायेव हो या टेकचंद लालायेव अथवा बगारी आलमचंदोफ़, इनके बारे में जानने के लिए आपको क़िताब खऱीद कर पढ़नी होगी । अगर अपने इस बयान-हाल में उनके बारे में ज़रा सा भी लिखा तो पढ़ने का मज़ा जाता रहेगा । यहाँ मैं क़िताब की दूसरी खूबियों के बारे में भी कुछ कहना चाहूँगा । भूमिका ने डॉक्टसाब ने इस किताब को ट्रैवेलॉग के साथ थॉटलॉग की संज्ञा भी दी है । व्यक्तिगत तौर पर मुझे ‘हिन्दी सराय’ के ट्रैवेलॉग वाले स्वरूप से थॉटलॉग वाले रूप ने ज्यादा मुतासिर किया । किताब के पहले सर्ग यानी बयान येरेवान में उन्होंने आर्मीनिया के लाड़ले कवि चॉरेन्त्स के बहाने आर्मीनिया के सामाजिक, सास्कृतिक और राजनीतिक इतिहास पर जो कुछ भी लिखा है वो बेहद दिलचस्प तब्सरा है । पाठक को बांध कर रखने वाला साथ ही ज्ञानवर्धक । कमाल ये कि चॉरेन्त्स के बारे में पढ़ते हुए लगता नहीं कि यह क़िस्सा रूसी क्रान्ति के महान नायकों में एक त्रात्स्की, उनके मैक्सिको निर्वासन और वहाँ उनकी हत्या तक जाएगा । रूस ही क्यों, समूचे पूर्वी यूरोप में अपने समाज नायकों से प्रेम करना एक तरह से सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है । ख़ास तौर पर कलाजीवियों के लिए उस समाज में सैकड़ों साल पहले ही कुलीन-समझ विकसित हो चुकी थी । येरेवान की माश्तोज स्ट्रीट पर वे आर्मीनियाई लेखक विलियम सारोयान की प्रतिमा देखते हुए याद करते हैं “दिल्ली में प्रेमचंद के नाम पर कोई सड़क नहीं है ।”
किताब का चिन्तन पक्ष इतना ताक़तवर है कि एक बार में इस क़िताब को सिर्फ़ फ्लैप पर दी गई तहरीर के मद्देनज़र ही पढ़ा जा सकता है, वरना इसे बार बार पढ़ना होगा । किसी ट्रैवेलॉग में सन्दर्भ ग्रन्थ की सिफ़त होनी चाहिए, मगर जैसा कि भारतीय लेखकों का स्वभाव है, उनके सफ़रनामे अक़्सर दिनांक-वृत्त या डायरी बन कर रह जाते हैं । येरेवान प्रसंग में ही डॉक्टसाब ने जरथुस्त्रवादी विचारधारा यानी शुभाशुभ संघर्ष, बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट के प्रसंग, इस्लामी कट्टरवाद, प्रसाद का आनंदवाद बनाम दुखवाद, ऋग्वैदिक सोच और एकेश्वरवाद बनाम बहुदेववाद आदि मुद्दों पर पृष्ठ 33 से 43 के बीच इतने दिलचस्प विमर्श का मुज़ाहिरा किया है कि कुछ कहा नहीं जा सकता । मेरी निग़ाह में ये सफ़हे किताब का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं । बेहद कठिन चीज़ों को उन्होंने इतनी आसानी से समझा दिया है कि मैं सिर्फ उनके प्रति आभार जता सकता हूँ । किताब में किन्हीं स्थानों और वस्तुओं की व्युत्पत्तियों की चर्चा भी डॉक्टसाब करते रहे हैं । हाँ, भारतीय व्यापारियों की जारज संतानों के अगरिजान नाम नें मुझे काफ़ी परेशान किया है । इसके पीछे पड़ा हूँ । इस बात पर दृढ़ हूँ कि इस शब्द का संदर्भ भारतीय भाषाओं से नहीं है । अस्त्राखानी तातारों के बीच या वहाँ के रूसियों के बीच अगरिजान नाम हिकारत भरा सम्बोधन था, ऐसा लगता है । अग्निपुत्र जैसी व्यंजना इसमें तलाशना उचित नहीं लगता । इस पर विस्तार से लिखने की इच्छा है । काम चल रहा है । इंडो-यूरोपीय या तुर्किक-तातारी धरातल में इस शब्द के बीज दबे हुए हैं, फ़िलहाल यही मान कर चल रहा हूँ ।
लते चलते यही कि ये सिर्फ़ पुस्तक चर्चा है । इसमें आलोचना या समीक्षा के तत्व न तलाशे जाएँ । इसके प्रारूप में कई खामियाँ होंगी । यूँ ही, जो मन में आया, ईमानदारी से लिख दिया । समाज-संस्कृति में रुचि रखने वाले हिन्दी पाठकों के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है । इसे ख़रीदने की सलाह दूँगा । प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या –131, मूल्य-395 (हार्डकवर)

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Monday, November 5, 2012

चारों ‘ओर’ तरफ़दार

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दिन भर के कार्यव्यवहार में इंगित करने, दिशा बताने के संदर्भ में हम कितनी बार ‘तरफ़’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, अन्दाज़ लगाना मुश्किल है । इस तरफ़, उस तरफ़, हर तरफ़ जैसे वाक्यांशों में तरफ़ के प्रयोग से जाना जा सकता है कि यह बोलचाल की भाषा के सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में एक है । ‘तरफ़’ अरबी ज़बान का शब्द है और बज़रिये फ़ारसी इसकी आमद हिन्दी में हई है । ‘तरफ़’ की अर्थवत्ता के कई आयाम हैं मसलन- ओर, दिशा, जानिब, पक्ष, किनारा, सिरा, पास, सीमा, पार्श्व , बगल, बाजू आदि । तरफ़ का बहुप्रयुक्त पर्याय हिन्दी में ओर है जैसे ‘इस ओर’, ‘उस ओर’, ‘चारों ओर’, ‘सब ओर, ‘चहुँ ओर’ आदि । ओर में भी इंगित करने या दिशा-संकेत का लक्षण प्रमुखता से है ।
रबी धातु T-r-f ता-रा-फ़ा [ ف - ر ط - ] में संकेत करने का आशय है । मूलतः इस संकेत में निगाह घुमाने, रोशनी डालने, पलक झपकाने, झलक दिखाने जैसी क्रियाएँ शामिल हैं । अरबी में इससे बने तरफ़ / तराफ़ में दिशा ( पूरब की तरफ़, उत्तर की तरफ़), ( मेरी तरफ़, तेरी तरफ़ ), किनारा ( नदी के उस तरफ़) का आशय है । इसके अलावा उसमें सिरा, छोर, पास, कोना, जानिब जैसी अर्थवत्ता भी है । तरफ़ में दिशा-संकेत का भाव आँख की पुतलियों के घूमने से जुड़ा है । सामने देखने के अलावा पुतलियाँ दाएँ-बाएँ घूम सकती हैं । आँख के दोनो छोर, जिसे कोर कहते हैं, तरफ़ का मूल आशय उससे ही है । पुतलियाँ जिस सीमा तक घूम सकती हैं, उससे बिना बोले या हाथ हिलाए किसी भी ओर इंगित किया जा सकता है । आँख के संकेत से दिशा-बोध कराने की क्रियाविधि से ही तरफ़ में दिशा, ओर, छोर, किनारा, पास, साइड side जैसे अर्थ स्थापित हुए । तरफ़ में फ़ारसी का बर प्रत्यय लगने से बरतरफ़ शब्द बनता है जिसका आशय बर्खास्तगी से है ।
रफ़ में पार्श्व, पक्ष या पास जैसी अर्थवत्ता भी है । अरबी के तरफ़ में फ़ारसी का ‘दार’ प्रत्यय लगने से तरफ़दार युग्मपद बना जिसका अर्थ है समर्थक, पक्ष लेने वाला अथवा हिमायती । जो आपके साथ रहे वह पासदार कहलाता है और तरफ़दार में भी साथी का भाव है । इससे ही तरफ़दारी बना जिसमें किसी का पक्ष लेने, पासदारी करने का आशय है । किसी को अपने पक्ष में करने के लिए कहा जाता है कि उसे अपनी तरफ़ मिला लो । सामान्यतया किसी एक का पक्ष लेने वाला व्यक्ति पक्षपाती कहलाता है । तरफ़दार निश्चित ही किसी एक पक्ष का समर्थनकर्ता होता है । हिन्दी के पक्षपाती में जहाँ नकारात्मक अर्थवत्ता नज़र आती है वहीं तरफ़दार में ऐसा नहीं है । उचित-अनुचित का विचार करने के बाद किसी पक्ष का समर्थन करने वाला तरफ़दार है । दोनों पक्षों की थाह लिए बिना मनचाहे पक्ष की आँख मूँद कर हिमायत करने वाला पक्षपाती है । चीज़ के दो पहलू होते हैं । तरफ़ में जो पक्ष का भाव है वह और अधिक स्पष्ट होता है उससे बने एकतरफ़ा, दोतरफ़ा जैसे युग्मपदों से । एकतरफ़ा में पक्षपात हो चुकने की मुनादी है जैसे एकतरफ़ा फ़ैसला । जबकि दोतरफ़ा में दोनों पक्षो का भाव है ।
ब्दों के सफ़र में अब चलते हैं उस दिशा में जहाँ खड़ा है तरफ़ का पर्याय 'ओर' । भाषाविदों के मुताबिक ओर का जन्म संस्कृत के ‘अवार’ से हुआ है जिसमें इस पार, निकटतम किनारा, नदी के छोर या सिरा का आशय है । मोनियर विलियम्स के मुताबिक अवार का ही पूर्वरूप अपार है । गौरतलब है कि आर्यभाषा परिवार की ‘व’ ध्वनि में या में बदलने की वृत्ति है । संस्कृत के अप में दूर, विस्तार, पानी, समुद्र आदि भाव हैं । इसी का एक रूप अव भी है जिसमें दूर, परे, फ़ासला, छोर जैसे भाव हैं । अवार के ‘वार’ में भी ‘पार’ का भाव है । इस किनारे के लिए पार और उस किनारे के लिए वार । ज़ाहिर है कि उस किनारे वाले व्यक्ति के लिए किनारों के संकेत इसके ठीक उलट होंगे । 
पार का ही अन्य रूप अवार है और अवार से ओर का निर्माण हुआ जिसमें छोर, किनारा, दिशा, दूरी, अन्तराल जैसे आशय ठीक अरबी के ‘तरफ़’ जैसे ही हैं । पारावार और वारापार शब्दों में यही भाव है । ‘वार’ और में ‘पार’ में मूलतः व और प ध्वनियों का उलटफेर है । पार का निर्माण पृ से हुआ है और वार का ‘वृ’ से । पार के मूल में जो पृ धातु है उसमें गति का भाव है सो इसका अर्थ आगे ले जाना, उन्नति करना, प्रगति करना भी है । आगे बढ़ने के भाव का ही विस्तार पार में । पार यानी किसी विशाल क्षेत्र का दूसरा छोर । वैसे पार का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ नदी का दूसरा किनारा ही होता है । पार शब्द भी हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में है । आर-पार को देखिए जिसमें मोटे तौर पर तो इस छोर से उस छोर तक का भाव है, मगर इससे किसी ठोस वस्तु को भेदते हुए निकल जाने की भावाभिव्यक्ति भी होती है । आर-पार में पारदर्शिता भी है यानी सिर्फ़ भौतिक नहीं, आध्यात्मिक, मानसिक भी ।
संबंधित शब्द- 1. पक्ष. 2. पारावार. 3. वारापार. 4. वस्तु. 5. नदी. 7. आँख. 9. वार.

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Thursday, October 18, 2012

पग-पग पैग़म्बर

pag
सं देश के अर्थ में फ़ारसी का पैग़ाम शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है ।  पैग़म्बर का रिश्ता भी पैग़ाम से ही है यानी वो जो पैग़ाम लाए । पैग़ाम का ही दूसरा रूप पयाम payam भी होता है । पैग़म्बर की तरह ही इससे पयम्बर बनता है । यह उर्दू में अधिक प्रचलित है । संवाद से जुड़े विभिन्न शब्द दरअसल किसी भी भाषा की आरम्भिक और मूलभूत शब्दावली का हिस्सा होते हैं । भाषा का जन्म ही संवाद माध्यम बनने के लिए हुआ है । पुराने ज़माने में पदयात्रियों के भरोसे ही सूचनाएँ सफ़र करती थीं । बाद में इस काम के लिए हरकारे रखे जाने लगे । ये दौड़ कर या तेज चाल से संदेश पहुँचाते थे । आगे चलकर घुड़सवार दस्तों ने संदेशवाहकों की ज़िम्मेदारी सम्भाली । इसके बावजूद शुरुआती दौर से लेकर आज तक पैदल चल कर संदेश पहुँचाने वालों का महत्व बना हुआ है । हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी के शब्दकोशों में पैग़ाम के बारे में व्युत्पत्तिमूलक जानकारी नहीं मिलती ।

पैग़ाम शब्द की रिश्तेदारी निश्चित रूप से संदेशवाहन की पैदल प्रणाली से होनी चाहिए । जॉन प्लैट्स के फ़ारसी, हिन्दुस्तानी, इंग्लिश कोश में पैग़ाम paigham शब्द को संस्कृत के प्रतिगम्  pratigam शब्द का सगोत्रीय बताया गया है जिसमें किसी की ओर जाना, मिलने जाना, वापसी जैसे भाव हैं । संस्कृत की बहन अवेस्ता में प्रति उपसर्ग का समरूप पैति है । डॉ अली नूराई द्वारा बनाए गए इंडो-यूरोपीय भाषाओं के रूटचार्ट में पैति-गम शब्द मिलता है मगर उन्होंने इसका रिश्ता न तो संस्कृत के प्रतिगम् से और न ही फ़ारसी के पैग़ाम जोड़ा, अलबत्ता एक अलग प्रविष्टि में पयाम ज़रूर दिया है । नूराई पैतिगम का अर्थ बताते हैं- निकलना ( संदेश के साथ ) ।  स्पष्ट है कि यह फ़ारसी पैग़ाम से पैतिगम का संदेशवाची रिश्ता जोड़ने का प्रयास है मगर  इससे कुछ पता नहीं चलता । यह ध्वनिसाम्य पर आधारित व्युत्पत्ति है । भारोपीय भाषाओं में पैर के लिए पेड ped तथा इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इसका रूप पद् होता है । पद् से ही संस्कृत में पद, पदम्, पदकम् जैसे शब्द बनते हैं । अवेस्ता में भी पद का अर्थ पैर है । इसका एक अर्थ चतुर्थांश भी होता है । अंग्रेजी के फुट foot, ped, गोथिक के फोटस fotus, लैटिन के pes जैसे शब्दों में ये धातुरूप नज़र आते हैं । भारोपीय धातु पेड ped से बनने वाले शब्दों की लम्बी शृंखला है । गौर करें कि प्रतिगम में सिर्फ़ गति उभर रही है, साधन गौण है जबकि संदेशवाहक मूलतः सेवक है और इस आशय वाले शब्दों के मूल में पैदल चलना एक आवश्यक लक्षण है ।  प्यादा, हरकारा, प्यून, धावक, अनुचर, परिचर आदि शब्दों में चलना (पैदल) एक अनिवार्य ज़िम्मेदारी है ।
संस्कृत में पैदल चलने वाले को पादातिक / पदातिक कहते हैं । मूलतः इसमें अनुचर, सिपाही या संदेशवाहक का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली में पदातिक रूप प्रचलित है । संस्कृत में इसका अन्य रूप पायिक भी होता है । मोनियर विलियम्स इसका अर्थ a footman , foot-soldier , peon बताते हैं । वे पायिक को पादातिक का ही संक्षिप्त रूप भी बताते हैं । पद में पैर और कदम दोनो भाव हैं । इससे बने पदक, पदकम् का अर्थ कदम, डग, एक पैर द्वारा चली गई दूरी है । पदक का प्राकृत रूप पअक  है जिससे इसका अगला रूप पग बनता है । हिन्दी की बोलियों में में पग-पग, पगे-पगे या पैग-पैग जैसे रूप भी चलते हैं । मीरां कहती हैं- “कोस कोस पर पहरा बैठ्या पैग पैग  बटमार।”  इसी तरह मलिक मुहम्मद जायसी लिखते हैं – “पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ।” हमारा मानना है कि पैगाम में यही पैग उभर रहा है । निश्चित ही फ़ारसी के पूर्व रूपों में भी पदक से पैग रूपान्तर हुआ होगा ।
बसे पहले पादातिक का पायिक रूप संस्कृत में ही तैयार हो गया था । मैकेन्जी के पहलवी कोश के मुताबिक फ़ारसी के पूर्वरूप पहलवी में यह पैग payg है । पायिक की तर्ज़ पर इसे पायिग भी उच्चारा जा सकता है, मगर पहलवी में यह पैग ही हुआ है । पायिक से बने पायक का अर्थ हिन्दी में  पैदल सैनिक, या हरकारा होता है । इसी ‘पैग’ से संदेश के अर्थ वाला पैगाम शब्द तैयार होता है । कोशों में पैगाम और नुक़ते वाला पैग़ाम दोनो रूप मिलते हैं । मद्दाह के कोश में नुक़ते वाला पैग़ाम है । गौर करें कि अवधी का पैग, फ़ारसी में पैक के रूप में मौजूद है जिसका अर्थ है चिट्टीरसाँ, दूत, पत्रवाहक, डाकिया, हरकारा, प्यादा या एलची । पैग, फ़ारसी में सिर्फ़ पै रह जाता है जिसका अर्थ पदचिह्न या पैर है । फ़ारसी में पै के साथ ‘पा’ भी है जैसे पापोश, पाए-तख्त या पाए-जामा (पाजामा), पाए-दान (पायदान) आदि ।
पैगाम से ही ईश्वरदूत की अर्थवत्ता वाला पैग़म्बर शब्द बनता है । आमतौर पर पैग़म्बर नाम से इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद का बोध होता है । इंडो-ईरानी भाषाएँ बोलनेवाले समूहों में ईश्वरदूत, मुक्तिदाता के अर्थ में मुहम्मद के लिए पैग़म्बर शब्द रूढ़ हो गया । यूँ मूलतः इसमें संदेश लाने वाले का भाव ही है । दरअसल पैग़म्बर में वही अर्थवत्ता है जो हिन्दी के विभूति शब्द में है । दुनियseभर में जितनी भी विभूतियाँ पैदा हुई हैं, उनका दर्ज़ा ईश्वरदूत का ही रहा है । ग़लत राह पर चलते हुए कष्ट पाते मनुष्य को मुक्ति दिलाने के लिए समय समय पर ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने मानवता को राह दिखाई है । दुनिया ने ऐसे लोगों को ईश्वर का संदेश लाने वाले के तौर पैगम्बर माना । कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद सब ईश्वरदूत, पथप्रदर्शक या धर्मप्रवर्तक थे । पैगम्बर शब्द बना है पैग़ाम में फ़ारसी का ‘बर’ उपसर्ग लगने से । मूलतः पैग़ाम में संदेश भिजवाने का भाव है । संदेश भिजवाने की अत्यन्य प्राचीन तकनीक पग-पग या पैग-पैग ही थी सो पैग़ाम में संदेश की अर्थवत्ता पग-पग चल कर गन्तव्य तक मन्तव्य पहुँचाने की क्रिया से उभर रही है ।
भारोपीय धातु इंडो-यूरोपीय धातु bher से जिसमें बोझ उठाना, या ढोना जैसे भाव हैं । संस्कृत में एक धातु है ‘भृ’ जिसकी व्यापक अर्थवत्ता है मगर मोटे तौर पर उसमें संभालने, ले जाने, भार उठाने आदि का भाव है । इससे ही बना है भार शब्द जिसका अर्थ होता है वज़न, बोझ आदि । भार का एक रूप भर  है । यह वज़न की इकाई भी है । फ़ारसी में यह बर है जिसका आशय उठाना, ले जाना है । बर अपने आप में प्रत्यय है । पैग़ाम के साथ जुड़ कर इसमें “ले जाने वाला” का आशय पैदा हो जाता है । इस तरह पैग़ाम के साथ बर लगने से बनता है पैग़ाम-बर अर्थात संदेश ले जाने वाला । पैगामबर का ही रूप पैगंबर या पैगम्बर हुआ । पैग़म्बरी का अर्थ है पैग़म्बर होने का भाव या उसके जैसे काम । पैग़म्बरी यानी एक मुहिम जो इन्सानियत के रास्ते पर चलने को प्रेरित करे । इन्सानियत पर चलना ही ईश्वर प्राप्ति है । पैगम्बर भी डगर-डगर चल कर औरों के लिए राह बनाता है । सो पैगम्बर सिर्फ़ पैग़ाम लाने वाला नहीं बल्कि पैग-पैग चलाने वाला, पार उतारने वाला भी है । संदेशवाहक के लिए पैग़ामगुजार शब्द भी है ।
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Thursday, October 11, 2012

सचमुच घनचक्कर था मेघदूत

cloudburst

नि दा फ़ाज़ली ने बरसात के बादल को उसकी आवारा सिफ़त के मद्देनज़र सिर्फ़ दीवाना क़रार देते हुए बरी कर दिया, शायद इसलिए कि वह नहीं जानता, "किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है ।" मगर कालीदास का मेघदूत तो यक़ीनन घनचक्कर ही था । ये हम नहीं कह रहे हैं बल्कि उसके अनेक नामों में एक घनचक्र से ज़ाहिर हो रहा है । बोलचाल की भाषा में इधर-उधर भटकने वाले, निठल्ले, आवारा मनुष्य को घनचक्कर की संज्ञा दी जाती है । इसकी अर्थवत्ता में बेकार, सुस्त, आलसी, बेवकूफ़, मूर्ख जैसे आशय भी शामिल हो गए । घनचक्कर में दरअसल मुहावरेदार अर्थवत्ता है । यह तो तय है कि इसका पहला पद तत्सम घन है और दूसरा पद चक्कर, तद्भव है जो तत्सम चक्र से बना है । ज़ाहिर है मूल रूप में यह घनचक्र है । हिन्दी कोशों में घनचक्र का रिश्ता घनचक्कर से तो जोड़ा गया है मगर इसकी व्युत्पत्तिक व्याख्या नहीं मिलती कि हिन्दी वाङ्मय में घनचक्र का क्या सन्दर्भ है । जॉन प्लैट्स जैसे हिन्दी के यूरोपीय अध्येताओं नें घन शब्द के अन्तर्गत घनचक्कर को तो रखा है मगर इसके व्यावहारिक प्रयोग के उदाहरण उनके यहाँ नहीं मिलते साथ ही वे घनचक्कर का रिश्ता घनचक्र से भी स्थापित नहीं करते । उसकी जगह वे घनचक्कर का अर्थ घूमते हुए आकार (A revolving body), चकरीनुमा यन्त्र (a Catherine-wheel) अथवा इसके रूढ़ अर्थ मंदमति, बुद्धू आदि बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर में इसका अर्थ एक किस्म की आतिशबाजी भी मिलता है, मगर यह प्लैट्स के शब्दकोश से जस का तस ले लिया गया लगता है । शब्दों का सफ़र में देखते हैं घनचक्कर की घुमक्कड़ी ।
समें कोई संदेह नहीं कि घनचक्कर का मूल घनचक्र है मगर आज हिन्दी से घनचक्र गायब हो चुका है और इसकी जगह मुहावरेदार अर्थवत्ता वाला रूपान्तर घनचक्कर विराजमान है जिसका अर्थ मूर्ख, आवारा, गावदी, निठल्ला आदि है मुश्किल ये है कि यह अर्थवत्ता स्थापित कैसे हुई । हिन्दी की तुलना में घनचक्र शब्द का मराठी वाङ्मय संदर्भ मिलता है । घनचक्र का घणचक्र रूप भी मराठी में है जबकि घनचकर रूप मराठी के अतिरिक्त पंजाबी में भी है । यही नहीं, महाराष्ट्र में घनचकर उपनाम भी मिलता है । घनचक्र का संदर्भ सीधे सीधे बादलों की उमड़-घुमड़ से जुड़ता है । सोलहवीं सदी में श्रीधर स्वामी लिखित “शिवलीलामृत” में “होत युद्धाचे घनचक्र” में इसका संदर्भ आया है जिसका अर्थ है युद्ध के बादल । घनचक्कर में भटकन, यायावरी की अर्थवत्ता पहले स्थापित हुई । इसका घनचक्र अर्थात बादल से रिश्ता ही घुमक्कड़ी, भटकन और यायावरी से इसे जोड़ता है । बादल का प्रतीक सतत भटकन का आदि प्रतीक है । मेघदूत की मज़बूत मिसाल सामने है । आवारा बादल जैसे विशेषण बहुत आम हो चुके हैं । स्पष्ट है कि घनचक्र दरअसल बादल ही है न कि कोई मशीनी संरचना । चक्र का अर्थ किसी यान्त्रिक चक्र से नहीं बल्कि बादलों के वर्तुल से है । भटकन जब बिलावजह हो तो बेनतीजा रहती है । समाज में यूँ भी अकारण फिरने वाले को आवारा ही कहा जाता है । बादल इसीलिए आवारा कहलाते हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि कहाँ से गुज़रना है और कहाँ बरसना है । यानी अस्थिरता ही आवारा का मूल चरित्र है । जिसकी बुद्धि स्थिर न हो, वही घनचक्कर ।
नचक्कर शब्द कभी भी आतिशबाजी के अर्थ में हिन्दी में प्रचलित नहीं रहा । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका एक अर्थ स्पष्ट रूप से कैथराईन व्हील दिया हुआ है । मध्यकाल में यूरोप में कैथराइन व्हील दुर्दान्त सज़ा देने वाला चकरीनुमा यन्त्र था । बाद के दौर में आतिशबाजी का जब विकास हुआ तो चकरीनुमा आतिबाजी को यूरोप में कैथराईन व्हील नाम दिया गया । भारत में भी जब यूरोपीय ढंग की आतिशबाजी आई तो कैथराइन व्हील को यहाँ चकरी के नाम से लोकप्रियता मिली । भरपूर तलाशने के बावजूद मुझे चकरीनुमा आतिशबाजी के लिए घनचक्कर पर्याय नहीं मिला । इंटरनेट पर जितने भी सन्दर्भ हैं, वे उन शब्दकोशों तक पहुँचाते हैं जिनकी सामग्री हिन्दी शब्दसागर से जस की तस ले ली गई है । ज़ाहिर है, जॉन प्लैट्स के कोश से जो सन्दर्भ शब्दसागर के सम्पादकों ने उठाया, उसका प्रसार अन्य शब्दकोशों तक हुआ मगर उसकी पुष्टि भारतीय वाङ्मय में नहीं की गई । घनचक्र में घन का आशय बादल से है न कि मशीनी घन से । घने काले श्यमवर्णी, एक दूसरे में समाते हुए , लगातार वर्तुल चक्रों में उमड़ते –घुमड़ते, और ज्यादा सघन होते, अपने भीतर के वाष्पकणों से संतृप्त  बरसने को आतुर बादल ही घनचक्र कहलाते हैं ।
नचक्र में बादलों की उमड़-घुमड़ साबित करने वाले अनेक तथ्य मराठी में मिलते हैं । इसके अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी में घन शब्द में भी बादल, मेघ का आशय प्रमुखता से है । बादलों के प्रतीक से ही घनचक्र में प्रचण्ड युद्ध, कठिन संघर्ष या भीषण टकराव का भाव भी उभरता है । कुल मिला कर घन चक्र में भीषण गर्जना के साथ मूसलाधार बारिश लाने वाले बादलों की चक्रगतियों का स्पष्ट संकेत है । संस्कृत के घन शब्द की व्युत्पत्ति हन् से मानी गई है जिसमें आघात, प्रहार, चोट जैसे भाव हैं । हन् से बने घन का अर्थ है ठोस, कठोर, मज़बूत, स्थिर, अटल, चुस्त, सुगठित जैसे भाव है । सघन, सघनता, घनत्व, घनता जैसे शब्द इसी घन से बने हैं । घन का अर्थ हथौड़ा या बेहद मज़बूत शिलाखण्ड से भी है जिसका उपयोग आक्रमण के लिए किया जाए । घनत्व के भाव को उजागर करने वाला शब्द घनघोर है । जैसे घनघोर जंगल, घनघोर अंधेरा, घनघोर बारिश, घनघोर पाप आदि । घनश्याम श्रीकृष्ण का लोकप्रिय नाम है जिसमें उनके मेघवर्णी रूप का संकेत है अर्थात ऐसा काला रंग जैसे कि बरसाती बादल होते हैं । बादलों का संकेत चातक, पपीहा जैसे पक्षी के घनताल नाम से भी मिलता है । पपीहा को घनतोल भी कहते हैं क्योंकि उसे बारिश का अंदाज़ हो जाता है । सबसे निकट का, पास का के अर्थ में घन से बने घनिष्ठ का प्रयोग भी हिन्दी में खूब होता है ।

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Sunday, July 15, 2012

हरजाई, हरफ़नमौला, हरकारा

हि न्दी के बुनियादी शब्दभंडार में तीन तरह के “हर” हैं । पहला ‘हर’ वह है जो संस्कृत की ‘हृ’ धातु से आ रहा है जिसमें ले जाने, दूर करने, पहुँचाने, खींचने, लाने जैसे भाव हैं । इससे बने ‘हर’ में भी यही भाव हैं । अक्सर इसका प्रयोग प्रत्यय की तरह होता है जैसे मराठी का वार्ताहर यानी समाचार लाने वाला, कब्ज़हर यानी कब्ज़ियत दूर करनेवाला । दुखहर यानी दुख दूर करने वाला । ‘हृ’ से ही हरण जैसा शब्द भी बना है । दूसरा ‘हर’ वह है जिसका अर्थ शिव है । हर-हर महादेव में यही हर है । इसका अर्थ विभाजन करना भी होता है । भारतीय अंक गणित में हर उस संख्या को कहते हैं जिससे दूसरी संख्या विभाजित होती है । तीसरा ‘हर’ वह है जिसका बोली-भाषा में सर्वाधिक इस्तेमाल होता है । ‘हर’ यानी प्रत्येक...एक-एक । यही इसका सबसे लोकप्रिय अर्थ है । वैसे ‘हर’ में सब कोई, सर्वसाधारण या सर्व का भाव भी है । हिन्दी का ‘हर’ फ़ारसी की देन होते हुए भी नितांत भारतीय है ।
फ़ारसी ज़बान आर्यभाषा परिवार की है और आधुनिक वर्गीकरण में इसे इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के इंडो-ईरानी उपवर्ग में रखा जाता है । फ़ारसी भाषा के विकास में इरानी के मध्ययुगीन समाज की पहलवी भाषा और उससे भी प्राचीन अवेस्ता का योग रहा है । अवेस्ता और वैदिक संस्कृत में काफ़ी समानता है । इसके बावजूद कुछ प्रमुख फ़र्क़ भी हैं जैसे वैदिक ‘स’ ध्वनि ईरानी परिवार की भाषाओं में जाकर ‘ह’ में बदलती है । सर्वप्रिय उदाहरण ‘सप्त’ का ‘हप्त’ और ‘सिन्धु’ के ‘हिन्दू’ में बदलाव के हैं । भाषाविदों के मुताबिक वैदिक ‘सर्व’ का रूपान्तर ज़ेन्दावेस्ता में ‘हौर्व’   (haurva) होता है । मेकेन्जी के पहलवी कोश में इसका अर्थ all, each, every बताया गया है । इससे ही बना है पहलवी का ‘हरवीन’ जिसमें यही सब भाव हैं । मोहम्मद हैदरी मल्येरी के कोश में पूर्ण, समग्र के अर्थ वाले ग्रीक भाषा के होलोस ( holos ) की इससे रिश्तेदारी है । लैटिन भाषा में इन्ही भावों के लिए साल्वस salvus शब्द है । प्रोटो भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए *sol- धातु की कल्पना की गई है ।
हिन्दी में ‘हर’ शब्द की व्यापक मौजूदगी है । आम बोलचाल में इसका प्रयोग खूब होता है । हर रोज़, हर कोई, हर बार, हर तरफ़, हरसू, हर एक, हर दम, हर हाल में जैसे प्रयोग जाने पहचाने हैं और हिन्दी को मुहावरेदार अभिव्यक्ति देने में ये वाक्य खासे लोकप्रिय हैं । ‘हर’ से बनी कुछ संज्ञाएँ भी लोकप्रिय हैं जैसे ‘हर फ़न मौला’ । हिन्दी में अब इसे हरफ़नमौला की तरह ही लिखा जाता है जिसका अर्थ है किसी भी काम को कुशलतापूर्वक करने वाला । मराठी में इसे ‘हरहुन्नरी’ कहा जाता है । फ़ारसी-उर्दू में ‘हरबाबी’ शब्द भी इसी अर्थ में है । अभिहित करना ऐसा ही शब्द है ‘हर दिल अज़ीज़’ यानी सबका प्यारा । एक अन्य शब्द है ‘हरजाई’ जो स्त्रीवाची भी है और पुरुषवाची भी । ‘हरजाई’ का प्रयोग शायरी में बेवफ़ा प्रेमी, धोखेबाज प्रेमी के लिए खूब होता है । हरजाई  के ‘जाई’ में ‘जाना’ क्रिया को पहचानने से हसका अर्थ स्पष्ट होता है अर्थात कहीं भी, किधर भी घूमने वाला अर्थात आवारा, टहलुआ, भटकैंया, बेठिकाना आदि ।   मगर इसमें भाव स्थिर हुआ बेईमान, बेवफ़ा, धोखेबाज का । स्पष्ट है कि कहीं एक जगह स्थिर न होने वाला व्यक्ति ही आवारा होता है । ऐसा अस्थिरचित्त व्यक्ति ही होता है । मनचला इसी को कहते हैं । जिधर मन के, चल पड़े । स्त्रीवाची रूप में हिन्दी शब्दसागर कोश इसका अर्थ व्यभिचारिणी, कुलटा, वेश्या, रंडी जैसे अर्थ बताता है । स्त्री के लिए तो सभी समाजों का रवैया एक जैसा रहा है । जहाँ उसके लिए घर की देहरी लाँघना निषिद्ध हो वहाँ डोलने, फिरने वाली, मनचली प्रवृत्ति की स्त्री के लिए हरजाई शब्द  में कुलटा वेश्या जैसे भाव समाहित होने ही थे । 
संदेशवाहक के अर्थ में भारतीय ज़बानों में ‘हरकारा’ शब्द भी खूब प्रचलित है । यह भी फ़ारसी से हिन्दी में आया है । पुराने ज़माने में जब यातायात के साधन सुगम नहीं थे, दूर-दराज़ ठिकानों तक निरन्तर घुड़सवारों के ज़रिये संदेश पहुँचाए जाते थे । यह काम हरकारे करते थे । यूँ देखा जाए तो हरकारा शब्द ‘हर’ + ‘कारा’ से बना है । ‘हर’ यानी ‘सब’, ‘सर्वसाधारण’, ‘सभी तरह’, ‘सभी का’ आदि और ‘कारा’ यानी ‘काम करने वाला’ । ‘कारा’ बना है ‘कार’ से जिसके मूल में वैदिक ‘कार’ ही है जिसके मूल में ‘कृ’ धातु है जिसमें करने का भाव है । अवेस्ता, पहलवी और फ़ारसी में भी ‘कार’ रूप सुरक्षित है जिसमें बनाना, करना, प्रयास आदि भाव हैं । फ़ारसी, उर्दू हिन्दी में यह ‘कार’ प्रत्यय की तरह करने वाले के अर्थ में खूब प्रयोग होता है जैसे सरकार, पत्रकार, स्वर्णकार, ताम्रकार आदि । ‘कार’ की मौजूदगी कारकून, कार्रवाई, कार्यवाह, कारखाना, कारसाज़ आदि कई शब्दों में देखी जा सकती है । ‘हरकारा’ का अर्थ हुआ सब तरह के काम करने वाला । पुराने दौर में घर से बाहर के कामों को अंजाम देने के लिए अलग सेवक होते थे  जो अन्य कामों के साथ साथ चिट्ठीरसाँ यानी डाकिये की भूमिका भी निभाते थे ।

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Wednesday, June 27, 2012

फरारी, फुर्र और फर्राटा

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वि भिन्न समाज-संस्कृतियों में शब्द निर्माण की प्रक्रिया न सिर्फ़ एक समान होती है बल्कि उनका विकास क्रम भी एक जैसा ही होता है । हिन्दी में भाग छूटना, निकल भागना, पलायन करना जैसे अर्थों में ‘फ़रार’ शब्द का सर्वाधिक प्रयोग भी किया जाता है । ‘फ़रार’ अपने आप में क्रिया भी है और संज्ञा भी । वैसे हिन्दी में इसका क्रियारूप ‘फ़रारी’ ज्यादा प्रचलित है । ‘फ़रार’ वह व्यक्ति है जो प्रतिबन्ध के बावजूद भाग खड़ा हुआ है । अचानक गायब हो जाने, भाग खड़ा होने के लिए हिन्दी में अन्य अभिव्यक्तियाँ भी हैं जैसे “रफ़ूचक्कर हो जाना”, “नौ-दो-ग्यारह होना” या “फ़ुर्र हो जाना” आदि । इनमें “फ़ुर्र हो जाना” बेहद सहज मुहावरा है जिसकी अभिव्यक्ति दिन भर में न जाने कितनी दफ़ा इन्ही अर्थों में होती है । कहने की ज़रूरत नहीं है कि फुर्र हो जाना इस अभिव्यक्ति का रिश्ता उड़ जाने से है । ध्यान रहे उड़ जाने का रिश्ता गायब हो जाने से है । यूँ भी चलने-दौड़ने की क्रिया की बनिस्बत उड़ना में तीव्रता का भाव है । इसलिए तेज गति वाली वस्तु निगाहों से बहुत जल्दी ओझल हो जाती है । इसे ही गायब होना कहते हैं । इत्र की शीशी से रिस कर सुगंध हवा में तैरती है । शीशी से जब सुगंध खत्म हो जाती है तो उसे इत्र का उड़ना कहा जाता है ।
फुर्र या ‘फ़रार’ जैसे शब्दों का रिश्ता मूलतः उड़ने से है । ‘फ़रार’ या ‘फ़रारी’ जैसे शब्द हिन्दी में फ़ारसी से होते हुए आए हैं । इनका मूल ठिकाना अरबी ज़बान है । ‘फ़ुर्र’ शब्द हिन्दी का देशज है या अरबी, फ़ारसी की अभिव्यक्ति है यह कहना मुश्किल है मगर इतना तय है कि फुर्र और फ़रार शब्द सेमिटिक और इंडो-ईरानी परिवारों के बीच रिश्तेदारी के पुख्ता सबूत पेश करते हैं । ‘फुर्र’ से जुड़ी शब्दावली पर गौर करें-फड़फड़ाना, फड़कना, फरफर, फरफराना, फहर-फहर, फहराना आदि । ये सभी शब्द डैनों के ज़रिये उड़ने की आवाज़ से पैदा होने का बोध कराते हैं । हिन्दी में ‘डैना’, ‘पंख’ और ‘पर’ दोनों शब्द प्रचलित हैं । ‘पंख’ हिन्दी का अपना है और ‘पर’ फ़ारसी से आया है । संस्कृत के ‘पक्ष’ से ‘पंख’ के जन्मसूत्र जुड़े हैं जिसका अर्थ है किसी वस्तु, स्थान या विचार के दो प्रमुख भाग या हिस्से । पंख का विकास पक्ष > पक्ख > पंख के क्रम में हुआ । पंख को पंजाबी में 'खंब' भी कहते हैं । गौर करें कि पंख का वर्ण विपर्यय ही खंब में हो रहा है ।
वैदिक शब्दावली के ‘पर्ण’ से फ़ारसी के पर की रिश्तेदारी है । संस्कृत के ‘पर्ण’ की धातु ‘पृ’ है जिसमें सरपास करना, आगे बढ़ जाना, दूर चले जाना या मात कर देना जैसे भाव हैं । संस्कृत में ‘प’ वर्ण अपने में उच्चता का भाव समेटे है। उड़ान का ऊँचाई से ही रिश्ता है । परम, परमात्मा जैसे शब्दों से यह जाहिर हो रहा है । पंख की उच्चता का संकेत इस बात से भी मिलता है कि सभी प्राचीन संस्कृतियों में पंखों से ही मुकुट बनाए जाते थे ।  ‘पर’ में भी यही उच्चता लक्षित हो रही है। संस्कृत की पत् धातु का अभिप्राय है उड़ना, फहराना, उड़ान आदि । पत का रिश्ता अंग्रेजी के 'फैदर' ( feather) से है जिसका अर्थ पंख होता है । द्रविड़ परिवार की कोत भाषा में पर्न या पर्नद का मतलब भी उड़ना ही है । यहाँ संस्कृत के ‘पर्ण ‘से सादृश्यता पर विचार करना चाहिए । द्रविड़ और फारसी में एक जैसा रूपांतर यह भी स्थापित करता है कि किसी ज़माने में द्रविड़ भाषाओं का प्रसार सुदूर उत्तर पश्चिम तक था । ‘पर’ से ही बना है फ़ारसी का ‘पर्चः’  जिसका अर्थ काग़ज़ का टुकड़ा या पुर्जा । इस पर्चः का उच्चारण हिन्दी में परचा या पर्चा होता है जिसका रिश्ता पर्चम / परचम से भी जुड़ रहा है जिसका अर्थ है झंडा, झंडे का कपड़ा। ‘पर्चम’ किसी भी राष्ट्र, समाज या संगठन का सर्वोच्च प्रतीक होता है । पुर्जा या काग़ज़ का टुकड़ा पर्चा कहलाता है जो इसी शब्दावली से जुड़ा है ।
रबी के ‘फ़रार’ का विकास फ़र्रा से हुआ है जिसका अर्थ है उड़ना या उड़ान । अल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक इसकी धातु फ़े-रे-रे अर्थात (फ़-र-र) है । भाषाविज्ञानियों के मुताबिक इसका विकास सेमिटिक धातु पे-रे-रे (प-र-र) से हुआ है । प्राचीन सेमिटिक भाषा अक्कद में एक शब्द ह पररू (पर्रू) जिसमें छिटकने, दूर जाने, विभक्त होने का भाव है । इन तथ्यों के मद्देनज़र संस्कृत के ‘पृ’ , फ़ारसी के ‘पर’ और अरबी-सेमिटिक ‘फ़-र-र’ और ‘प-र-र’ समतुल्य जान पड़ते हैं । संस्कृत की ‘पृ’ धातु और सेमिटिक ‘प-र-र’ धातुओं में समानता है न सिर्फ़ ध्वनिसाम्य बल्कि अर्थसाम्य भी है । दोनों का अर्थ छिटकना, दूर जाना है । दूर जाने, छिटकने के लिए हिन्दी में “परे हटो”, “परे जाओ” कहा जाता है जिसमें उपरि वाला ‘परि’ ही नज़र आ रहा है । इसका रिश्ता परिधी वाले ‘परि’ से भी हो सकता है ।  दूसरी तरफ़ ‘प’ वर्ण में निहित उच्चता पर ध्यान दें । ‘पंख’ ऊँचाई पर ले जाते हैं । पंख के अर्थ में ‘डैना’ शब्द पर गौर करें । यह संस्कृत के उड्डीन से आर रहा है जिसमें उड़ने का भाव है । उड़ान, उड़ना, उड़ाका, उड़न, उड्डयन जैसे शब्दों के मूल में ‘उड्डीन’ ही है जिसकी धातु ‘उद्’ है और इसका प्रयोग उपसर्ग की तरह भी होता है जिसकी उपस्थिति ‘उदीयमान’, ‘उच्चाटन’, ‘उत्पात’ आदि अनेक शब्दों में नज़र आती है । ‘उद्’ में भी छिटकने, विभक्त होने, दूर जाने, ऊपर उठने का भाव है । कहने का तात्पर्य है है  कि उड़ने से जुड़े जितने भी शब्द हैं, उनमें मूल भाव छिटकने, पृथक होने का है । यह पार्थक्य धरातल से दूर जाने में प्रकट होता है ।
ड़फड़ाहट हर तरह से छिटकने-छिटकाने की क्रिया है । पंखों के गतिशील होने, धरातल से दूर हवा में उठने के लिए यह क्रिया होती है । पंख फड़फड़ाकर पक्षी खुद को सुखाते हैं अर्थात पानी को दूर छिटकाते हैं, खुद को साफ करते हैं । इस छिटकने में गति है । मूल अवस्था या बिन्दू से लगातार दूर जाने का भाव । एन्ड्रास रज्की के कोश में अरबी के ‘फ़र्राटा’ farrata शब्द का उल्लेख है (हिन्दी के फर्राटा से इसके रिश्ते पर सोचें) जिसका अर्थ है सीमा पार कर जाना, आगे बढ़ जाना । हिन्दी के फर्राटा में सरपट, बहुत शीघ्रता  जैसे भाव हैं । इसी तरह उड़ने की क्रिया और ‘फरफर’ ध्वनि के आधार पर अरबी में एक चिड़िया का नाम भी फ़ुरफ़ुर है । अल सईद एम बदावी के कोश में फ-र-र का अर्थ पलायन, स्थान छोड़ना, जल्दबाजी में होना आदि है । पलायन का यही भाव फ़रार ( फ़िरार ) में आता है जिसका मूल अरबी अर्थ है दौड़ जाना, भाग जाना, बच निकलना, छोड़ जाना, गच्चा देना या उड़ जाना आदि । हिब्रू में भी छिटकने, दूर जाने के अर्थ में प-र-र धातु ही है ।
इंडो-ईरानी शब्द सम्पदा के ‘पर्ण’ से फ़ारसी में ‘पर’ का विकास पंख के अर्थ में हुआ । यूँ संस्कृत का ‘पर्ण’ पत्ता है जिसमें छा जाने, रक्षा करने का भाव है । इसकी मूल धातु ‘पृ’ में दूर जाने, छिटकने, ऊँचे उठने, पार जाने की अर्थवत्ता है । पत्तों के ऊँचाई पर स्थित होने, हवा में फड़फड़ाने, उड़ने जैसे लक्षणों से फ़ारसी के ‘पर’ में पंख की अर्थवत्ता स्थापित होती है । सेमिटिक बाराखड़ी में ‘प’ वर्ण है जबकि अरबी में ‘प’ वर्ण नहीं है । अक्कद भाषा अरबी से भी प्राचीन है और प्राचीन सुमेरियाई सभ्यता में इसका चलन था । भाषाविज्ञानियो का स्पष्ट मत है कि प्राचीन सुमेर संस्कृति का प्राचीन भारत से गहरा सरोकार था । उड़ने, छिटकने, पलायन के अर्थ में अरबी के फरार ( फ़र्रा ) का रिश्ता एन्ड्रास रज्की सेमिटिक ‘प-र-र’ से जोड़ते हुए इसका विकास अक्कद भाषा के ‘पररू’ से बताते हैं । अरबी में ‘पर्रू’ का रूप फर्रा हुआ । संस्कृत के पृ > पर्ण का विकास फ़ारसी में ‘पर’ हुआ । समझा जा सकता है कि आर्य परिवार की ध्वनियों का प्रभाव उस दौर में आज के इराक तक रहा होगा ।  शब्दों का अध्ययन विश्व भाषाओं की अनेकता से ज्यादा उनकी एकता को पहचानने का सफ़र है ।

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Friday, April 6, 2012

टिकट की रिश्तेदारियाँ

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गर पूछा जाए कि फ़िरंगी ज़बान के वे कौन से शब्द हैं जिनका इस्तेमाल भारतीय भाषाओं के लोक साहित्य में खूब हुआ है । फिरंगी शब्द का मतलब यूँ तो विदेशी होता है मगर हिन्दी में फ़िरंगी से अभिप्राय अंग्रेजों से है इसलिए फ़िरंगी भाषा यानी अंग्रेजी भाषा से ही आशय है । हिन्दी और उसकी आंचलिक बोलियों में जैसे राजस्थानी, मालवी, ब्रज, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, छत्तीसगढ़ी आदि भाषाओं के लोकगीतों के संदर्भ में ऐसे शब्द गिने-चुने ही हैं मगर इनमें भी फ़िरंगी के साथ रेल और टिकट ऐसे हैं जिनका उल्लेख कई लोकगीतों में हुआ है । गौरतलब है कि भारत में रेल और टिकट शब्द का इस्तेमाल एक साथ ही शुरू हुआ । 1853 में भारत में रेल चलने के बाद ही लोग टिकट से परिचित हुए । ज़ाहिर है कि रेल से ज्यादा तेज यातायात सेवा इससे पहले तक नहीं थी । यह भी दिलचस्प है कि हिन्दी के तेज और अंग्रेजी के टिकट में रिश्तेदारी है क्योंकि टिकट शब्द भी भारोपीय मूल का ही है । टिकट शब्द अंग्रेजी के सबसे ज्यादा बोले जान वाले शब्दों में एक है । टिकस, टिकिट, टिकट, टिकटवा, टिकस बाबू जैसे अनेक शब्द हैं जो इससे बने हैं और लोकांचल में खूब बोले जाते हैं । टिकट जैसी व्यवस्था विभिन्न सेवाओं के लिए प्रचलित हुई और बाद में देशसेवा के लिए भी राजनीतिक पार्टियों में टिकट खरीदे बेचे जाने लगे ।
चिपकाना, सटाना, छेदना
टिकट शब्द का रिश्ता कि फ्रैंकिश भाषा में एस्टिकर से है जिसका अर्थ होता है चिपकाना, नत्थी करना आदि होता है । एटिमआनलाइन के मुताबिक इस एस्टिकर का रिश्ता पुरानी अंग्रेजी के stician से जुड़ता है जिसमें भेदना, चस्पा करना जैसे भाव हैं । एस्टिकर से पुरानी फ्रैंच का एस्टिकट शब्द बना जिसमें चिप्पी, रुक्का या पर्चा है । मध्यकालीन फ्रैंच में इससे एटिकट शब्द बना जिससे अंग्रेजी का टिकट शब्द सामने आया । एटिमआनलाइन के मुताबिक 1520 के दौर में यह शब्द मौजूदा रूप में प्रकट हुआ जिसमें शार्ट नोट, रुक्का या किसी दस्तावेज का भाव था । 1670 तक इसमें टिकट, लाइसेंस या परमिट जैसे भाव जुड़ गए । इनके मूल में भारोपीय धातु *steig- है जिसमें खोसना, खुबना, चुभोना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसमें तीक्ष्णता का आशय उभरता है । याद रहे महत्वपूर्ण दस्तावेज के साथ टिकट या रसीद नत्थी करने के लिए पिन का उपयोग किया जाता है । नत्थी करने या सटाने के आशय का अर्थ विस्तार चिपकाना हुआ । अंग्रेजी का स्टिकर भी इसी मूल का है जिसमें चिपचिपी सतह वाले लेबल का आशय है । कुल मिला कर टिकट एक ऐसी रसीद है जिसे किसी सेवा के उपयोग हेतु अधिकार पत्र, लाइसेंस या परमिट का दर्जा प्राप्त है । निर्धारित प्रारूप में आवेदन करने या सेवा का मूल्य चुकाने के बाद आधिकारिक सील ठप्पे वाला यह रुक्का टिकट कहलाया । रसीदी टिकट भी प्रचलित है । 
तीक्ष्ण, तीखा और मार्गदर्शक
भारोपीय धातु *steig- से रिश्तेदारी वाली संस्कृत धातु तिज् है जिसमें तीक्ष्णता का भाव है । मोनियर विलियम्स के कोश में तिज्, तिक् और तिग् समानधर्मी धातुओं का उल्लेख है जिनकी अर्थवत्ता में यही सब बातें हैं । तिज् का अवेस्ता में तिघ्री, तिग्रा जैसे रूपान्तर सामने आए । सिविलाइजेशन ऑफ़ द ईस्टर्न ईरानियंस इन एन्शिएंट टाइम्स पुस्तक में विल्हेम जैगर तिघ्री और तिग्मा की तुलना करते हुए प्राचीन ईरानी के स्तिज का उल्लेख करते हुए उसमें निहित तीखी नोक वाले हथियार का आशय बताते हैं । अंग्रेजी के स्टिक stick शब्द से छड़ी का अर्थ सबसे पहले उभरता है । नोकदार छड़ी आदिमानव का पसंदीदा हथियार था । मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश में तिग्म का अर्थ तीखा, नोकदार, ज्वलनशील, प्रखर आदि बताते हैं । निश्चित ही भाला, तीर जैसे हथियारों का आशय निकलता है । इन तमाम शब्दों का रिश्ता स्टिक से है जिसके क्रिया रूप में सटाना, जोड़ना, चस्पा करना, चिपकाना जैसे भाव हैं और संज्ञा रूप में इसमें छड़ी, सलाख, दण्ड, डण्डी, संटी जैसे आशय हैं । मूल रूप से छड़ी या दण्ड भी प्राचीन काल में धकेलने, चुभोने, हाँकने, निर्देशित करने के काम आते थे । अंकुश की तीक्षणता और उसका शलाका-रूप याद करें । 
तेग़ यानी तलवार, कृपाण
त्तरी ईरान की जज़ाकी भाषा में चुभन और दंश के अर्थ में तिग शब्द है जिसे तलवार के अर्थ वाले तेग शब्द से जोड़ कर देखें । पहलवी में तिग्रा शब्द है जिसका अर्थ तलवार होता है । इसी तरह जॉन प्लैट्स के कोश में तेग़, तेग़ा जैसे फ़ारसी शब्दों का उल्लेख है जिनका अर्थ तलवार या कृपाण होता है । इन शब्दों का विकास ज़ेंद के तिघा से हुआ जिनका सम्बन्ध संस्कृत के तिज्, तिग्, तिग्म से ही है । तिग्म में प्रखरता, चमक , किरण का भाव है । तिग्मांशु का अर्थ सूर्य है । तलवार या कृपाण को हिन्दी में भी तेग ही कहते हैं । सिखों के दशम गुरू का नाम तेग बहादुर है । भारोपीय स्तिग, ईरानी स्तिज, संस्कृत की तिज, तिग और जेंदावेस्ता की तिघ् धातुओं में धार, तीक्ष्णता वाले अर्थों का विकास तिग्म, तेग, स्टिक जैसे शब्दों मे हथियार के रूप में हुआ । तीर का निशान राह बताता है । दिशासूचक के रूप में भी तीर लगाया जाता रहा है । पहलवी में तिग्रा तीक्ष्ण, धारदार है तो अवेस्ता का तिघ्री तीर का पर्याय है । स्टिक पहले हथियार थी, बाद में सहारा बनी । अशक्त, दृष्टिहीन व्यक्ति छड़ी से टटोलकर राह तलाशता है ।
तेज, तेजस, तेजोमय
तिज् से ही बना है हिन्दी का तेज शब्द । उर्दू-फारसी में एक मुहावरा है तेज़ी दिखाना। इसका मतलब है होशियारी और शीघ्रता से काम निपटाना। तेज शब्द हिन्दी में भी चलता है और फारसी में भी । फर्क ये है कि जहां हिन्दी के तेज में नुक़ता नहीं लगता वहीं फारसी के तेज़ में लगता है । फारसी-हिन्दी में समान रूप से लोकप्रिय यह शब्द मूलतः इंडो़-इरानी भाषा परिवार का शब्द है। संस्कृत और अवेस्ता में यह समान रूप से तेजस् के रूप में मौजूद है । दरअसल हिन्दी , उर्दू और फारसी में जो तेज, तेज़ है उसके मूल में है तिज् धातु जिसका मतलब है पैना करना, बनाना । उत्तेजित करना वगैरह। तिज् से बने तेजस का अर्थ विस्तार ग़ज़ब का रहा। इसमें चमक, प्रखरता, तीव्रता, शीघ्रता जैसे भाव तो हैं ही साथ ही होशियारी, दिव्यता, बल, पराक्रम, चतुराई जैसे अर्थ भी इसमें निहित है । इसके अलावा चंचल, चपल, शरारती, दुष्ट, चालाक शख्सियत के लिए भी तेज़ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी में तेजवंत, तेजवान , तेजस्वी, तेजोमय, तेजी जैसे शब्द इससे ही बने हैं । इसी तरह उर्दू – फारसी में इससे तेज़ निग़ाह, तेज़ तर्रार, तेज़ दिमाग़, तेज़तर, जैसे शब्द बने हैं जो व्यक्ति की कुशलता, होशियारी, दूरदर्शिता आदि ज़ाहिर करते हैं । दिलचस्प बात ये कि तीव्रगामी, शीघ्रगामी की तर्ज पर हिन्दी में तेजगामी शब्द भी है। सिर्फ नुक़ते के फर्क़ के साथ यह लफ्ज़ फारसी में भी तेज़गामी है ।
तीता और तीखा स्वाद
स्वाद के सन्दर्भ में जो तिक्त, तीखा जैसे शब्द भी इसी तिज् में निहित तीक्ष्णता से जुड़ते हैं । तेजी़ में तीखेपन का भाव भी है। तेज धार या तेज़ नोक से यह साफ है । दरअसल संस्कृत शब्द तीक्ष्ण के मूल में भी तिज् धातु है । तिज् से बना तीक्ष्ण जिसका मतलब होता है नुकीला, पैना, कठोर, कटु, कड़ा वगैरह। उग्रता , उष्णता, गर्मी आदि अर्थों में भी यह इस्तेमाल होता है । तीक्ष्ण का ही देसी रूप है तीखा जो हिन्दी के साथ साथ उर्दू में भी चलता है । इस तीखेपन में मसालों की तेजी भी है । तेज़ मिर्च-मसाले वाले भोजन को तीखा कहा जाता है । तिक्त भी इसी मूल का है जिससे मालवी, राजस्थानी में तीखे के अर्थ वाला तीता शब्द बना । भारतीय मसालों की एक अहम कड़ी के रूप में तेजपान, तेजपात, तेजपत्ता या तेजपत्री के रूप में समझा जा सकता है । अपनी तेज गंध और स्वाद के चलते तेजपत्र को भारतीय मसालों में खास शोहरत मिली हुई ।

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Sunday, April 1, 2012

नामालूम का अता-पता

सम्बन्धित आलेख-1.गुमशुदा और च्यवनप्राश.2.address-book-appsलोक क्या है ?

कि सी बात की जानकारी होने के सम्बन्ध में आए दिन हम ‘मालूम’ और ‘पता’ शब्द का प्रयोग करते हैं । “मालूम नहीं”, “पता नहीं” कह कर दरअसल हम आई बला को टालने में खुद को कामयाब समझते हैं, दरअसल यह हमारी अज्ञानता का प्रदर्शन होता है । मालूम malum शब्द को कई तरह से इस्तेमाल करते हैं जैसे – “मालूम नहीं”, “मालूम है” अथवा “मालूम करो” आदि वाक्य हमारे इर्दगिर्द सुबह से शाम तक तैरते रहते हैं । हमें अक़्सर बहुत कुछ मालूम रहता है मगर हम किसी को कुछ मालूम नहीं चलने देते और पूछे जाने पर मालूम नहीं कह कर काम चला लेते हैं । मालूम में मूलतः जानकारी, ज्ञान का भाव है और इसका बहुवचन ‘मालूमात’ malumat है । मालूम में ख्यात, विलक्षण, सर्वज्ञात, प्रसिद्ध, असाधारण जैसे भाव भी हैं । मालूम के साथ जब ‘ना’ उपसर्ग लगाया जाता है तब यह अर्थवत्ता उभरती है मिसाल देखें – “मेरे सरीखे नामालूम शख़्स को कौन पूछता है ?” इसी तरह जब पता के साथ जब अरबी का ला उपसर्ग लगाया जाता है तो बनता है ‘लापता’ जिसका अर्थ है गुमशुदा । आइये शब्दों के सफ़र में इस मालूम का अता-पता लगाते हैं ।
मालूम सेमिटिक भाषा परिवार की अरबी से बरास्ता फ़ारसी होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ । इसके मूल में ‘इल्म’ ilm शब्द है जिसका अर्थ है ज्ञान, जानकारी । ‘इल्म’ से ही बनता है तालीम जिसका अर्थ है शिक्षा, पढ़ाई, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन आदि । तालीम शब्द का प्रयोग भी हिन्दी में खूब होता है । शोधकर्ता, विद्वान के अर्थ में ‘अलीम’ या ‘आलिम’ शब्द से भी हिन्दीवाले खूब परिचित हैं  और इसी सन्दर्भ में ‘आलिम-फ़ाज़िल’ मुहावरा भी याद आ जाता है । संस्कृत का एक शब्द है लोक जो बना है लोक् धातु से जिसमें देखना जानना का भाव है । लोक का अर्थ है विश्व, दुनिया, समस्त दृष्यजगत, व्यक्ति आदि । स्पष्ट है कि हमारे सामने जो कुछ नज़र आता है वही लोक है । इस तरह लोक यानी देखना का अर्थविस्तार “जो दिख रहा है” के रूप में हुआ । कुछ यह प्रक्रिया ‘आलम’ में भी नज़र आती है । अरबी का आलम शब्द फ़ारसी-हिन्दी में भी प्रचलित है । हमें जिस किसी भी चीज़ का इल्म होता है, जो कुछ भी हमें मालूम है, दरअसल वही सब तो हमारा ज्ञात-विश्व है । जो हम नहीं जानते, वह हमारे अनुभूत जगत का हिस्सा भी नहीं होता । ‘आलम’ अर्थात विश्व, ब्रह्माड या जो कुछ भी दृष्यजगत में शामिल है, सब ‘आलम’ है । आलम की अर्थवत्ता में अब ‘हाल’, ‘परिस्थिति’ जैसे भाव भी समाहित हो गए हैं जैसे – “आलम ये है कि कोई सुनने को राजी नहीं ।” यहाँ प्रयुक्त आलम शब्द में परिस्थिति पर ज़ोर है किन्तु प्रकारान्तर से दुनिया की प्रवृत्ति की ओर ही संकेत है ।
लम alam का एक रूप अलम alam भी है जिसमें चिह्न, प्रतीक का आशय है ।  इसमें ध्वज, पताका या झण्डे की अर्थवत्ता समा गई । किसी भी समूह या देश का ध्वज दरअसल एक चिह्न ही होता है ताकि उसकी शिनाख्त हो सके । इस शिनाख्त में ही ज्ञान अथवा जानकारी का भाव है । अब आते हैं अलमबरदार पर । कुछ लोग इसे हिन्दी में अलंबरदार भी लिखते हैं जो ग़लत प्रयोग है । यह शब्द भी अरबी फारसी के ज़रिये हिन्दी उर्दू में आया । अलमबरदार भी शाही दौर में एक पद था । जब सेना या राजा का काफिला निकलता था तो सबसे आगे ध्वजवाहक ही चलते थे जिन्हें अलमदार या अलमबरदार कहा जाता था । आज इसका मुहावरे के तौर पर भी प्रयोग होता है जिसका अर्थ है किसी खास पंथ, धर्म अथवा राजनीतिक विचारधारा के बडे नेता। आलम शब्द का प्रयोग उपनाम की तरह भी होता है जैसे आफ़ताब आलम ।
ल्म का असर नीलाम पर भी नज़र आता है । बोली लगाकर किसी वस्तु की सार्वजनिक बिक्री की क्रिया नीलाम कहलाती है । सफ़र में इस पर विस्तार से लिखा जा चुका है । दरअसल यह शब्द हिन्दी में पुर्तगाली के leilao से जन्मा है । प्रख्यात प्राच्यविद चार्ल्स फिलिप ब्राऊन (1798-1884) ने अपनी तेलुगू-इंग्लिश डिक्शनरी में पुर्तगाली leilao की व्युत्पत्ति अरबी मूल के अल-इल्म से मानी है जिससे बना है इल्म जिसमें जानकारी होना, बतलाना, ज्ञान कराना, विज्ञापन जैसे भाव है। गौर करें कि नीलाम की प्रक्रिया में खरीददार को वस्तु के मूल्य और वस्तु के अन्य विवरणों से अवगत कराया जाता है । प्रकाण्ड पण्डित के अर्थ में उर्दू का अल्लामा शब्द इसी मूल का है । स्पष्ट है कि मालूम शब्द में सबसे ज्यादा ‘इल्म’ यानी ज्ञान का महत्व है । ‘मालूम’ के सन्दर्भ में ‘इल्म’ शब्द का प्रयोग देखें- “मुझे इस बात का इल्म था कि बात तो बिगड़नी है ।” इसे यूँ भी कहा जा सकता है – “मुझे मालूम था कि बात बिगड़ जाएगी ।”
ब करते हैं पते की बात । पता शब्द भी हिन्दी की सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाली शब्दावली में शामिल है । “क्या पता”, “पता नहीं”, “पता चलेगा” जैसे अल्फ़ाज़ बोलते हुए हम दिन भर अपना काम चलाते हैं । इस ‘पता’ का प्रयोग लगभग मालूम की तर्ज़ पर ही होता है और पता शब्द में भी जानकारी या ज्ञान का ही आशय है ‘पता’ को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं । ‘पता’ शब्द सामने आते ही किसी व्यक्ति या वस्तु से सम्बन्धित विशेष स्थान की स्थिति का बोध होता है । इस सन्दर्भ में अक्सर पता-ठिकाना जैसा पद इस्तेमाल किया जात है । किसी को पत्र लिखते समय पते का सर्वाधिक महत्व होता है । जॉन प्लैट्स पता का रिश्ता संस्कृत के पत्रकः से ही जोड़ते हैं, मगर यह तार्किक नहीं लगता । ध्यान रहे संस्कृत के पत्रकः संस्कृत के पत्त्र से बना है और चिट्ठी के सन्दर्भ में इसमें पेड़ का पत्ता, छाल, धातु की पतली सतह जैसा भाव है । प्राचीन काल में संदेशों का आदान-प्रदान पेड़ की छाल या पत्तों पर लिख कर होता ता जैसे ताड़-पत्र या भोज-पत्र । पत्र में मूलतः मज़मून लिखने की बात है । जॉन प्लैट्स पत्रकः में चिह्न, संकेत, निशानी जैसे अर्थ देखते हैं मगर इससे एड्रेस यानी पता नहीं उभरता । संस्कृत का पत्त्र शब्द पत् धातु से बना है जिसका अर्थ है गिरना । पतित, पतिता, पतन जैसे शब्द इसी मूल के हैं । पत्ता पेड़ पर लगता है और अन्ततः सूख कर गिरता है । इस गिरने की क्रिया में वे तमाम लक्षण नहीं है जिनका आशय चिट्ठी का पक्का ठिकाना होना चाहिए ।
कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में पता की व्युत्पत्ति ‘प्रत्यय’ से बताई गई है । प्रत्यय एक बहुआयामी शब्द है मगर आम हिन्दी भाषी इसे व्याकरण का शब्द समझता है जिसका अर्थ है किसी शब्द के अन्त में लगने वाला परसर्ग । मोनियर विलियम्स के कोश के मुताबिक प्रत्यय का अर्थ है भरोसा, विश्वास, निश्चितता, दृढ़ता, सिद्धि, हासिल, ठोस प्रमाण, सबूत, आधार, स्थापना आदि । वैदिक शब्दावली में ‘प्रत्यय’ का अभिप्राय ऐसे गृहस्थ से है जिसने अपने घर में पवित्राग्नि की स्थापना की हो । यहाँ ‘पते’ की मूल बात उभर रही है । आप्टे कोश में ‘प्रत्यय’ का अर्थ स्थान की दृष्टि से अंदाज़ लगाते हुए बताया गया है । साथ ही इसमें प्रसिद्धि, यश, कीर्ति भी शामिल है । मुहर लगी, मुद्रांकित अंगूठी या मुद्रिका को भी ‘प्रत्यय’ कहा जाता है । हिन्दी शब्दसागर में भी ‘पता’ की व्युत्पत्ति ‘प्रत्यय’ ही बताई गई है । ‘प्रत्यय’ का प्राकृत रूप पत्तअ होता है जिसका अगला रूप पता हुआ । कोश में इसका रूप-विकास यूँ बताया गया है –प्रत्यायक > पत्ताअ > पताअ > पता । ध्यान रहे, कीर्ति, प्रसिद्धि अथवा यश का एक ठोस आधार होता है । यह आधार ही प्रत्यय है, ‘पता’ है । पता शब्द में मुहावरेदार अर्थवत्ता है जैसे काम की, सटीक या भेद खोलने वाली बात के लिए पते की बात मुहावरा प्रसिद्ध है । ‘अता-पता’ मुहावरा भी खूब प्रचलित है जिसमें किसी व्यक्ति या वस्तु की खोज-खबर, सूचना या समाचार जानने का भाव है । हिन्दी में गुमशुदा को लापता कहते हैं जबकि मराठी में यह बेपत्ता होता है ।

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Thursday, March 15, 2012

लाजमी है मुलाजिमों का लवाजमा

personageसम्बन्धित आलेख-1.घर-गिरस्ती की रस्सियाँ 2.दिल चीज़ क्या है…नाचीज़ क्या है 3.ज़बान को लगाम या मुंह पर ताला!!! 3.साथियों में फ़र्क़ करना सीखो साथी! 5.कारवां में वैन और सराय की तलाश 6.टट्टी की ओट और धोखे की टट्टी 7.‘अहदी’ यानी आलसी की ओहदेदारी 8. मुसद्दी की तलाश… 9. अरदली की कतार में खड़े लोग 10. सब ठाठ धरा रह जाएगा

र व्यक्ति के मन में ठाठ-बाट की कल्पना अलग-अलग होती है । सूफ़ियाना अंदाज़ में सोचें तो किसी के लिए मुफ़लिसी में ठाठ हैं तो किसी के लिए इन्तेहाई रईसी ठाठ है । मगर दुनियावी सोच के हिसाब वाले ठाठ-बाट में रईसी का दख़ल लाज़मी है । किसी के लिए बंगला ठाठ की निशानी है तो किसी के लिए बंगले के साथ गाड़ी । किसी के लिए खूबसूरत कपड़ों की नुमाइश ही ठाठ-बाट है तो किसी के पास फ़िज़ूलखर्ची के ठाठ-बाट हैं । हमारा मानना है कि नोकर-चाकर के बिना हर ठाठ-बाट फीका है । कोर्निश बजाते चाकरों के ज़माने गए मगर आज भी अगर हर क़दम पर आदाब आदाब कहने वाले मुलाजिम मिलते जाएँ तो तबीयत बाग़बाग़ हो जाती है । नौकर, चाकर, अर्दली, मुसाहब, अहलकार, खादिम, सेवक, मुलाजिम ये सब सेवक वर्ग के अलग अलग नाम हैं जिनके बिना ठाठ-बाट की कल्पना करना बेमानी है । ठाठ-बाट का मतलब सिर्फ़ रईसी नहीं है । असली ठाठ तो रसूख का होता है । रसूख़दारों के साथ मुलाज़िमों का लवाजमा ही उनके ठाठ की नुमाइश करता है और यह लाज़मी भी है । लवाजमा का प्रयोग आमतौर पर किसी मुहिम, यात्रा या किसी अन्य प्रयोजन से की जाने वाली तैयारी के सन्दर्भ में होता है । लवाजमा में समूहवाची व्यंजना है । पुराने ज़माने के काफ़िलों और कारवाँ के साथ तो लवाजमा चलता ही था ।
लाज़मी, मुलाज़िम और लवाज़मा ये तीनों ही शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित हैं । अत्यावश्यक या अनिवार्य के अर्थ में हिन्दी में लाजमी शब्द का भी इस्तेमाल होता है । मूलतः यह सेमिटिक धातु ल-ज़-म से बना है जिसमें बान्धना, जुड़ना, सटना, लगना, चिपकना, बाध्यता, सेवा-टहल, साथ होना, वफ़ादार होना, कर्तव्यनिष्ठा, अनिवार्यता, आवश्यक, ज़रूरी, अवश्यंभावी अथवा अटल जैसे भाव हैं । ल-ज़-म से अरबी में लाज़िम शब्द बना जिसमें यही सारे भाव हैं । ध्यान रहे कोई चीज़ बन्धनकारी तभी होती है जब वह आवश्यक या अनिवार्य है । किसी के साथ तभी हुआ जाता है जब वैसा करना आवश्यक होता है । किन्हीं दो इकाइयों का आपस में जुड़ना या सटना किसी अनिवार्यता के चलते ही होता है । हर व्यक्ति से नैतिक रूप से कुछ न कुछ काम करने की अपेक्षा समाज रखता है । ये काम उस व्यक्ति से जुड़े हुए हैं और इसीलिए इन्हें फ़र्ज़ या कर्तव्य कहा जाता है । फ़र्ज़ निभाना आवश्यक होता है जिसके लिए अरबी में लाज़िम शब्द है ।
ज़ादी से पहले तक उर्दू-फ़ारसी मिश्रित हिन्दी, जिसे हिन्दुस्तानी कहा जाता था, बोली जाती थी उसमें लाज़िम शब्द का इस्तेमाल खूब होता था । शायरी में भी आवश्यक, फ़र्ज़, कर्तव्य आदि के सन्दर्भ में लाज़िम शब्द का इस्तेमाल होता रहा है मसलन फ़ैज़ की वो नज़्म याद करें – “ लाज़िम है कि हम भी देखेंगे ” । तत्सम शब्दावली अक्सर बोली-भाषा में वर्णविपर्यय या स्वरविपर्यय के ज़रिए बदलती है । यहाँ भी वही हो रहा है । अरबी के तत्सम शब्द लाज़िम में स्वरविपर्यय हुआ और ज़ के साथा जुड़ा ह्रस्व स्वर के साथ चस्पा हो गया इस तरह लाज़िम का रूपान्तर लाजमी हो गया । हिन्दी में नुक़ता लगाने का रिवाज़ नहीं है सो स्वरविपर्यय के साथ ही नुक़ता भी गायब हो गया । यह उसी तरह हुआ जैसे अरबी का वाजिब, बोली भाषा में वाजबी हो गया । ‘लाजमी’ यानी अनिवार्य । किसी काम की अनिवार्यता के सन्दर्भ में ‘लाजमी’ शब्द का हिन्दी में खूब प्रयोग होता है मसलन- “उनकी नाराज़गी लाज़मी है” या फिर “ उन्हें लाज़मी तौर पर सियासत करनी थी ” जैसे वाक्यों से इसे समझा जा सकता है । ‘लाजमी’ के स्थान पर ‘लाज़िमी’ शब्द का प्रयोग भी होता है ।
सेमिटिक धातु l-z-m ( ल-ज़-म) से बने ‘लाज़िम’ से कुछ अन्य शब्द भी बने हैं जैसे मुलाजिम या ‘लवाजमा’ । अरबी का प्रसिद्ध उपसर्ग है ‘मु’ जिसका अर्थ होता है “वह जो” । गौर करें लाज़िम में निहित बाध्यता, सेवा-टहल, साथ होना, वफ़ादार होना, कर्तव्यनिष्ठा जैसे भावों पर । ‘मु’ उपसर्ग लगने पर कर्ता का भाव उभरता है अर्थात ये सब काम करने वाला यानी चाकर, कर्मचारी, अर्दली, सेवक आदि । लाज़िम के साथ जब मु उपसर्ग लगता है तो बनता है मुलाज़िम जिसमें यही सारे भाव हैं । किसी की नौकरी करना, चाकरी करने को ही मुलाज़मत कहा जाता है । मुलाज़िम के लिए कर्तव्यनिष्ठ होना ज़रूरी है । ‘लाज़िम’ में अनिवार्यता का जो भाव है, मुलाज़िम की मुलाज़मत की यह सबसे पहली शर्त है । अनिवार्यता यानी बाध्यता यानी गुलामी । जिस काम के बदले भोजन के अलावा कुछ न मिले वह गुलामी, दासता और जिस काम के बदले कुछ उजरत यानी पारिश्रमिक, मेहनताना मिले वह नौकरी । सो नौकर और गुलाम का यह फ़र्क़ भी मुलाज़िम में नहीं है । मुलाज़िम के साथ बतौर सेवक, चाकर , नौकर , ख़िदमतगार चाहे कर्तव्यनिष्ठा और सेवा की अनिवार्यता जुड़ी हो मगर उसके साथ उजरत की अनिवार्यता स्पष्ट नहीं है ।
ब बात ‘लवाजमा’ की । हिन्दी में लवाजमा लवाजमा शब्द में ठाठ-बाट का भाव पैबस्त है । आमतौर पर हिन्दी में इसका आशय दल-बल, साज़ो-सामान से लैस होकर लोगों के सामने आने से लगाया जाता है । ‘लवाजमा’ सेमिटिक मूल का शब्द है और अरबी से होते हुए फ़ारसी के ज़रिये यह हिन्दी में दाखिल हुआ है । हिन्दी का लवाजमा अपने मूल अरबी रूप में लवाज़िमा है जिसकी पैदाइश भी सेमिटिक धातु l-z-m ( ल-ज़-म) से हुई है जिसमें मूलतः ज़रूरी या आवश्यक जैसे वही भाव हैं जिनकी चर्चा ऊपर हो चुकी है । आज जिस रूप में हम लवाजमा शब्द का प्रयोग करते हैं उसमें नौकर-चाकर, फौज - फाटा सहित खूब सारा माल – असबाब भी शामिल है । गौर करें माल असबाब के अर्थ में लवाजमा में समूची गृहस्थी या पूरा दफ्तर शामिल नहीं है बल्कि सिर्फ़ वही जो बेहद ज़रूरी होता है । जैसे पुराने ज़माने के स्वयंपाकी लोग कहीं भी यात्रा पर जाते थे तो रसोई का सामान उनके साथ चलता था । यह सामान दरअसल समूची रसोई नहीं है , पर सफ़र में अपना भोजन बनाने का सुभीता हो जाने पुरता असबाब ही काफी है । यही ‘लवाजमा’ है । अब समर्थ व्यक्ति इस रसोई के साथ महाराज भी रखेगा । एक चाकर भी रख लेगा । यह भी ‘लवाजमा’ में शामिल है ।
मूल अरबी ‘लवाज़िमा’ में भी अंगरक्षक, नौकर चाकर और रोज़मर्रा की वो तमाम चीज़ें शामिल है जिनके बिना काम न चल सके । अब बात यह है कि आवश्यकता का अन्त नहीं । इच्छाएँ भी अनन्त हैं । तो ज़रूरी या अनिवार्य जैसे शब्द भी अलग अलग व्यक्तियों के सन्दर्भ में सापेक्ष होते हैं । किसी के लिए दिन में चार बार का भोजन ज़रूरी है तो कोई एक वक्त की रोटी को ही खुदाई नेमत समझता है । किसी के रोज़ छप्पन भोग का थाल चाहिए और किसी के लिए सूखा टिक्कड़ ही मोहनभोग समान है । किसी को फर्श पर नींद आती है किसी को चारपाई ज़रूरी है । सो लवाज़िमा के ज़रूरी वाला दायरा लोगों के स्तर के हिसाब से छोटा-बड़ा होता रहता है । मराठी में लवाजिमा शब्द प्रचलित है जिसमें नौकर - चाकर, साज़ो - सामान, परिजन समेत ठाठ-बाट शामिल है । कुल मिलाकर यही सारी बातें लवाजमा में शामिल हैं । ठाठ-बाट भी ऐसे ही नहीं आ जाता । रसूख़दारों के साथ रहना ही अपने आप में मेहनताना है । इसे पुराने ज़माने के लोग जानते थे इसीलिए चमचे, टहलुए चापलूस के भेस में भी वे अपना पारिश्रमिक वसूल कर लेने की कला में माहिर थे । आज के दौर में अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ, नारी उत्पीड़न विरोधी मंच, उपभोक्ता मंच, पारिवारिक कल्याण प्रकोष्ठ, गली-मोहल्ला सुधार मंच, स्वदेशी अपनाओ मंच आदि विभिन्न प्रकल्पों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महासचिव, सचिव समेत सवा सत्ताईस पदाधिकारियों और सैकड़ों सदस्यों की फ़ौज ही रसूख़दारों की मुलाज़मत में इसीलिए होती है ताकि ठाठ-बाट बना रहे ।

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