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Friday, July 29, 2016

'कमाल' की बात



ज देखते हैं कमाल की कुण्डली। हम सब अधूरे हैं। आम आदमी इस अधूरेपन को पूरा करने के चक्कर में ईश्वर का आविष्कार कर बैठा। ज्ञानमार्गियों ने पूर्णता की व्याख्या अनेक तरीकों से करते हुए अध्यात्म और दर्शन का घनघोर संसार रच दिया। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकला कि हर कोई अगर अपना अपना काम सही ढंग से करता चला जाए तो बात पूरी हो जाती है।

पूर्णता में ही 'कमाल'
यह जो पूर्णता है बड़ी चमत्कारी है। किसी चीज़ के पूरा होने का अहसास हमें गहरी शान्ति से भर देता है। पूर्णता सुख का सर्जन करती है और आगे बढ़ने का रास्ता खोलती है। हमारे हाथों उस चमत्कारी भविष्य की नींव रखी जाती है जिसके लिए हमने ईश्वर का आविष्कार किया था। ज्ञानियों ने इस कर्मयोग को ही ईश्वरोपासना कह दिया। बहरहाल पूर्णता में ही ‘कमाल’ है।

उपज्यो पूत 'कमाल'
अरबी से फ़ारसी होते हुए हिन्दी में आए कमाल के डीएनए में इसी पूर्णता का भाव है। कबीर ताउम्र इन्सानियत की बात करते रहे। वे सन्त थे। ज्ञानमार्गी थे जिसका मक़सद सम्पूर्णता की खोज था। आख़िर क्यों न वे अपने पुत्र का नाम कमाल रखते ! कमाल अपने पूरे कुनबे के साथ उर्दू में है और कुछ संगी साथी हिन्दी में भी नज़र आते हैं। कमाल کمال बना है अरबी की मूलक्रिया कमल کمل से जो मूलतः क-म-ल है, अर्थात काफ़(ک) मीम( م ) लाम (ل) से जिसमें पूर्ण होने, पूर्ण करने का भाव है।

'कमाल' का चमत्कार
इस तरह कमाल में परम, सम्पूर्णता, सिद्धि, पराकाष्ठा, सर्वोत्कृष्टता जैसे भाव स्थापित हुए हिन्दी में कमाल का बर्ताव चमत्कारी, अद्भुत या आश्चर्यजनक के अर्थ में ज्यादा होता है। जबकि इसका मूल भाव Completion, perfection या entire है। जब कोई चीज़ अपनी सम्पूर्णता में रची जाती है या घटित होती है तब सामान्य मनुष्य के लिए वह आश्चर्य ही होता है। इसीलिए सम्पूर्ण उपलब्धि को हम अनोखापन मानते हैं।

'कमाल' के मुहावरे
हिन्दी में कमाल दिखाना, कमाल करना, कमाल है जैसे मुहावरे हमारी रोज़मर्रा की अभिव्यक्ति का हिस्सा हैं। इनके बिना काम नहीं चलता। कमाल शब्द ग्रामीण बोली से लेकर शहरी ज़बान में छाया हुआ है। “कमाल की चीज़’, ‘कमाल की बात”, “कमाल की एक्टिंग”, “कमाल की सोच”, “कमाल की तकनीक”, “कमाल का हुनर”, “कमाल का आदमी”, “कमाल की औरत” जैसे दर्जनों पद हम रोज़ इस्तेमाल करते हैं जिसमें कमाल का अर्थ या तो प्रवीणता, पराकाष्ठा है अन्यथा आश्चर्य का भाव है।

'कमाल' का कुटुम्ब
कमाल-कुटुम्ब का ही एक अन्य शब्द है जो सम्पूर्णता के अर्थ में हिन्दी में प्रतिष्ठित है वह है مکمل मुकम्मल। कुछ लोग मुकम्मिल भी लिखते हैं। अनेक लोग मुक्कमल लिख देते हैं। सही मुकम्मल है अर्थात मीम काफ मीम लाम। मुकम्मल बना है कमाल से पहले ‘मु’ उपसर्ग लगने से जो मूलतः सम्बन्धकारक है।

'कमाल' यानी सम्पूर्णता

जिसमें सम्पूर्णता का गुण है उसका अर्थ होगा सम्पूर्ण। सो मुकम्मल में सम्पूर्ण, सर्वोत्कृष्टता जैसे भाव हैं। मुकम्मल वह है जो परिपूर्ण है, निर्मित है, बना हुआ है। वह जिसमें कुछ भी करने को शेष न रह गया हो। इसी कड़ी में आता है कामिल کامل इसमें भी यही सारे भाव समाहित हैं। कामिल अरबी की प्रसिद्ध और लोकप्रिय पुरुषवाची संज्ञा भी है। अखिल,योग्य, परिपूर्ण, सम्पूर्ण, सक्षम जैसी अर्थवत्ता इसमें है।

नामों में 'कमाल'
इसी तरह ताकमाल, मुकतामिल, ताकमुल, ताकमिल, कमालान जैसे पुरुषवाची नाम हैं तो कामिलात, कामिलिया, कमिल्ला जैसे स्त्रीवाची नाम भी इसी मूल से निकले हैं जिनमें उपरोक्त भाव ही हैं। इस कड़ी के ये सभी शब्त अरबी, फ़ारसी, हिन्दी, तुर्की, अज़रबैजानी, स्वाहिली, इंडोनेशियाई आदि अनेक भाषाओं में इस्तेमाल होते हैं। हिन्दी के अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में भी इस शृंखला के शब्द हैं।

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Friday, January 1, 2016

2016 के आगे क्या लिखेंगे- ‘सन्’ या ‘सन’


र नया साल बदलाव को अभिव्यक्त करने वाली इकाई भर है। एक ऐसा आँकड़ा जो पिछले वर्ष की तुलना में एक अंक ज्यादा होता है। इसे हिन्दी में ज्यादातर ‘सन्’ यानी 'न' में हलन्त लगाकर अभिव्यक्त किया जाता है। यह हैरत की बात है कि इसके सही उच्चारण और वर्तनी के मामले में हिन्दी कोशों में काफ़ी अन्तर नज़र आता है। हलन्त की वजह से अनेक लोगों को भ्रम भी होता है कि यह संस्कृत का शब्द है जबकि असल में यह अरबी आप्रवासी है और हिन्दी वालों की ज़बान पर भी चढ़ा हुआ है। सन बना है س ن ة यानी सीन-नून-हा से और यह शब्द "रास अस सनाह अल हिजरियाह" رأس السنة الهجرية पद के ज़रिये भारत में आया जिसका अर्थ होता है इस्लामी नव संवत्सर।

अरबी में सीन-नून-हा س ن ة धातुक्रिया का अर्थ होता है वर्ष, साल, अवधि, समय, काल, मौका, युग, ऋतु, वर्ष, मौसम, सुअवसर आदि। एक बड़ी खूबसूरत अर्थव्यवंजना सामने आती है। इसमें समय के बीतते जाने का भाव भी है और कायम रहने का भी। ध्यान रहे, काल व्यतीत होता जाता है फिर भी रीतता नहीं। समय जाता है और आता है, हाँ, लौटता नहीं। तो यही काल-प्रवाह है 'सन'।

'सन' में एक और सुंदर आशय निहित है- गुणवत्ता में परिवर्तन। अक्सर लोग हर नए साल पर कुछ नया करने, बदलाव लाने के प्रति खुद के साथ या किन्हीं अपनों के साथ कुछ प्रस्ताव पारित करते हैं, कुछ अनुबन्ध करते हैं, कुछ पाबन्दियाँ लगाते हैं, कुछ शपथ लेते हैं और यह सब इसलिए ताकि कुछ बदलाव आए। यह जो बदलाव है यह जीवन की बेहतरी के लिए ही तो है। बस, यही है गुणवत्ता में परिवर्तन। आप जो कल थे, बेहतर भविष्य के लिए अब खुद को बदलना चाहते हैं। यह खुद में गुणात्मक बदलाव लाना है।

हिन्दी मे 'सन' को हलन्त लगाकर सन् की तरह बरता जाता है। इसकी वजह समझ से परे है जबकि मूल अरबी की वर्तनी और उच्चार سنة (सीन-नून-हा) में हलन्त नहीं, विसर्ग है और उसका उच्चार सनः या सनह होता है। अगर बिना विसर्ग के लिखना हो तो سن सन (सीन-नून) लिखा जाएगा। गौरतलब है, ये दोनों ही प्रविष्टियाँ मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ ‘मद्दाह’ के कोश में भी दी गई हैं। हिन्दी कोशों में भी इसे अलग अलग ढंग से दर्ज़ किया गया है। करीब नब्बे साल पुराने हिन्दी शब्दसागर में इसे हलन्त लगाकर ही दर्ज़ किया है।

इसी तरह केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित उर्दू-हिन्दी परिचय कोश में सीताराम शास्त्री हलन्त लगाकर सन् लिखते हैं किन्त उर्दू वर्तनी में यह सन ही पढ़ा जाता है। गौरतलब है कि फ़ारसी, अरबी के विसर्गयुक्त शब्दों का उच्चार बोलचाल की भाषा में ‘आ’ स्वर के साथ होता है मसलन घर के अर्थ में 'खानः' का उच्चार 'खाना' हो जाता है, 'मुर्दः' का उच्चारण 'मुर्दा या मुरदा' हो जाता है इसी तरह सनः का उच्चार 'सना' हो जाता है जो एक लोकप्रिय स्त्रीवाची नाम भी है अलबत्ता वर्ष के अर्थ में इसका उच्चार 'सन' ही है। अरविन्दकुमार-कुसुमकुमार के हिन्दी थिसारस में भी ‘सन्’ के स्थान पर ‘सन’ ही दर्ज़ किया गया है।

मज़े की बात यह कि ज्ञानमण्डल के दो शब्दकोश इसकी अलग अलग वर्तनी बताते हैं। मुकन्दीलाल श्रीवास्तव/ कालिकाप्रसाद सम्पादित कोश में हलन्त रहित ‘सन’ है जबकि हरदेव बाहरी के कोश में सन् को हलन्त के साथ दर्ज़ किया गया है। गड़बड़झाला यही खत्म नहीं होता। एक ही सम्पादक के दो अलग-अलग कोशों में वर्तनी भी भिन्न है। रामचन्द्र वर्मा के बृहत कोश में भी सन का इन्द्राज बिना हलन्त लगाए हुआ है। दिलचस्प यह भी है कि रामचन्द्र वर्मा ही सबसे पुराने कोश “हिन्दी शब्दसागर” के सम्पादक मण्डल में भी शामिल थे जिसमें हलन्तयुक्त व्युत्पत्ति है।

मेरे संग्रह में पचास से ज्यादा कोश हैं और फ़िलहाल उन्हें पलटने का मौका नहीं मिला है। देखना चाहूँगा कि बरताव का यह अन्तर कहाँ कहाँ कायम है। ज़ाहिर है कुछ हलन्त लगा रहे होंगे और कुछ नहीं। कम से कम यह तो पता चलेगा कि बहुमत किस उच्चार/ वर्तनी के साथ है। इस सिलसिले में हम गूगल बाबा का सर्वे ज़रूर सामने रखना चाहेंगे। गूगल बिना हलन्त वाले सन की 4 लाख 48 हज़ार प्रविष्टियाँ उगलता है जबकि हलन्त वाला सन् लिखने पर पल भर में 50 करोड़ प्रविष्टियाँ उगल देता है। ज़ाहिर है, हलन्त लगा हुआ उच्चार ही हिन्दी में सर्वाधिक प्रचलित है मगर उसे अरविन्द कुमार का हिन्दी थिसारस भी मान्यता नहीं देता।

ऐसा लगता है कि हिन्दी सम्पादकों में हलन्त लगाने की सोच इसलिए बनी होगी क्योंकि हिन्दी में एकाधिक सन' हैं जैसे एक पौराणिक नाम, जूट के लिए प्रचलित सन अथवा ध्वनिसूचक सन आदि। अरबी के सन को उससे भिन्न दिखाने के लिए उसके साथ हलन्त लगा दिया गया होगा। इस सिलसिले में हमारा स्पष्ट मानना है कि वर्तनी अपनी जगह और सन्दर्भ अपनी जगह। वर्ष के अर्थ में सन का प्रयोग हमेशा अंकों के साथ ही होता है। किसी झमेले की गुंजाईश कहाँ ?

तो नए साल में यह भी तय कर लें कि 2016 के आगे लिखे सन के साथ हल् रखना है या नहीं। बहरहाल, सबको नया साल शुभ हो।

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Friday, May 24, 2013

गाछ और पेड़

mango-tree 

पे ड़ के अर्थ में पूर्वी भारतीय बोलियों में ‘गाछ’ शब्द बहुत आम है। बांग्ला में भी ‘गाछ’ का अर्थ वृक्ष ही है। पूर्वी बोलियों में ‘गाछी’ शब्द का अभिप्राय वृक्षवाटिका भी होता है और आम्रकुंज भी। खासतौर पर आम, कटहल, पीपल जैसे पेड़ों के समूह के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है। रतीनाथ की चाची उपन्यास में बाबा नागार्जुन ने बीजू आमों के बगीचे को गाछी कहा है। ‘बीजू’ यानी आम का वह पेड़ जिसे बीज बो कर लगाया गया हो। ‘कलमी’ आमों का बगीचा कलमी बाग कहलाता है। ‘गाछी’ का अर्थ छोटा पेड़ या पौधा भी होता है। इसी तरह ‘बाड़ी’ यानी छोटे बगीचे के लिए भी गाछी का प्रयोग देखा जाता है। कहीं कहीं गाछी और भी लघुता के चलते ‘गछिया’ हो जाती है। हिन्दी शब्दसागर में गाछ शब्द की प्रविष्टि में- “खजूर की नरम कोंपल जिसे लोग पेड़ कट जाने पर सुखाकर रख छोड़ते हैं और तरकारी के काम में लाते हैं । बोरा जो बैल आदि पशुओं की पीठ पर बोझ लादने के लिये रखा जाता है।” वैसे हिन्दी में पेड़ के लिए कई शब्द हैं जैसे अग, अगम, विटप, वृक्ष, द्रुम, अद्रि, कुट, जर्ण, झाड़, तरु, तरुवर, दरख़्त, पादप, भूजात या कुठारू आदि।
वृक्ष शब्द से कुछ नए नाम भी जन्मे हैं। वृक्ष से ‘व’ का लोप हुआ और रह गया ‘रूक्ष’। अब रूक्ष से मालवी-राजस्थानी में रूँख, रूँखड़ा जैसे कुछ नए नाम भी चल पड़े। इसी तरह वृक्ष से बिरछ, बिरिख या बिरिछ जैसे नाम भी चलन में हैं और लालित्यपूर्ण लेखन या देशी तड़का लगाने के लिए इनका प्रयोग सृजनधर्मी करते रहते हैं। वैसे वृक्ष के लिए ‘पेड़’ शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। इसकी व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में दो तरह के मत हैं। कुछ लोगों का मानना है कि पेड़ का जन्म प्राकृत के ‘पट्टी’ की कोख से हुआ है। ‘पट्टी’ के मूल में ‘पत्री’ है जिसका रिश्ता संस्कृत के ‘पत्र’ से है। पत्र यानी पत्ता। जॉन प्लैट्स इसी मत के हैं। इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मानना है कि पेड़ दरअसल ‘पिण्ड’ से आ रहा है। पिण्ड से पेड़ के उपजने की बात तार्किक भी है क्योंकि संस्कृत वाङ्मय के अनेक संदर्भों में पिण्ड का आशय वृक्ष से जुड़ता रहा है। कई तरह के वृक्षों के साथ ‘पिण्ड’ शब्द प्रत्यय या उपसर्ग की तरह लगा दिखाई देता है जिसमें ‘पिण्ड’ का अर्थ वृक्ष ही है जैसे पिण्ड खजूर। पिण्ड शब्द का अर्थ ताड़ जाति का वृक्ष, अशोक वृक्ष आदि भी है। इसी तरह आयुर्वैदिक गुणों वाले बेर जाति के एक कँटीले वृक्ष विकंकत का नाम पिण्डारा है जिसमें पिण्ड साफ़ नज़र आ रहा है। पिण्ड से पेंड और पेड़ का रूपान्तर होता चला गया। इसके विपरीत पत्र से पेड़ के रूपान्तर की कल्पना नहीं की जा सकती।
गाछ की बात। ‘गाछ’ अर्थात वृक्ष के मूल में संस्कृत शब्द ‘गच्छ’ है जिसका अर्थ है जाना, चलना, बढ़ना, गति करना। बतौर वृक्ष, गच्छ में लगातार बढ़ना, गति करना, वृद्धि करना जैसे भाव है। यूँ देखा जाए तो गति न करना भी वृक्ष की खासियत है और इस वजह से ही ‘अगम’ या ‘अग’ अर्थात जो चलते-फिरते नहीं, जैसे नाम भी उसे मिले हैं। यह दिलचस्प है कि निरन्तर ऊर्ध्वाधर गति और वर्ष में कई रूप बदलने वाले अनूठे-अपूर्व गुण के चलते ही एक ही स्थान पर बने रहने के बावजूद पेड़ों में लगातार गति करने का लक्षण भी देखा गया और इसीलिए उसे ‘गच्छ’ कहा गया और फिर उससे गाछ, गाछी जैसे शब्द बने हैं। पेड़ की व्युत्पत्ति पिण्ड से होने का एक मज़बूत आधार ‘गच्छ’ से बने एक समास में छुपा है।
गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित प्रख्यात बौद्ध ग्रन्थ महावस्तु में ‘गच्छ-पिण्ड’ शब्द आया है। मूलतः यह समास है। डॉ सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या इसे विचित्र समास मानते हुए इसके लिए अनुवादात्मक समास पद निर्धारित करते हैं। वैसे यह द्वन्द्व समास का उदाहरण है। ‘गच्छ’ यानी पेड़, पौधा आदि। गच्छ में निहित बढ़ने के भाव से गच्छ में वृक्ष का संकेत भी शामिल हुआ जिससे गाछ, गाछी आदि बने। पिण्ड किसी ढेर, अचल, ठोस, घन जैसा पदार्थ ही पिण्ड है। इसी तरह बढ़ने के अर्थ से ही गच्छ में परिवार, कुल या कुटुम्ब का भाव भी आया। इसी तरह पिण्ड में भी परिवार या कुल का भाव है। पश्चिमोत्तर भारत की बोलियों में मनुष्यों के आबाद समूह को पिण्ड भी कहा जाता है। गाँव के अर्थ में भी पिण्ड का प्रयोग होता है। अब जब पिण्ड का अर्थ भी वृक्ष है और गच्छ में भी पेड़ का ही भाव है तब ‘गच्छ-पिण्ड’ यानी ‘पेड़-पेड़’ जैसे समास से क्या अर्थसिद्धि हो सकती है? ज़ाहिर है जिस तरह ‘अच्छा-भला’ ‘ऋषि-मुनि’, ‘भाई-बंध’ या ‘कंकर-पत्थर’ आदि द्वद्व समास के उदाहरण हैं वैसा ही ‘गच्छ-पिण्ड’ के साथ भी है। मगर बात इतनी आसान नहीं है।
मेरे विचार में ‘गच्छ’ में वृद्धि का जो भाव है उससे ही ‘गच्छ-पिण्ड’ की अलग अर्थवत्ता स्थापित होती है। कुल, परिवार का महत्व उसके बढ़ते जाने के गुण से ही है। बाँस शब्द वंश से बना है। पूर्ववैदिक युग में वंश शब्द का अर्थ बांस ही रहा होगा। प्राचीन समाज में लक्षणों के आधार पर ही भाषा में अर्थवत्ता विकसित होती चली गई। स्वतः फलने फूलने के बाँस के नैसर्गिक गुणों ने वंश शब्द को और भी प्रभावी बना दिया और एक वनस्पति की वंश-परंपरा ने मनुष्यों के कुल, कुटुंब से रिश्तेदारी स्थापित कर ली। सो ‘गच्छ’ में निहित परिवार, कुल, कुटुम्ब के अर्थ में ही अगर वृद्धि का अर्थ वंश-परम्परा से लगाया जाए तो ‘गच्छ-पिण्ड’ का सीधा सा अर्थ वंश-वृक्ष निकलता है। बौद्धग्रन्थ महावस्तुअवदानम् में बुद्ध के जातक रूपों का उल्लेख है। स्पष्ट है कि यहाँ गच्छ-पिण्ड से तात्पर्य वंश-वृक्ष से ही होगा।

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Tuesday, January 15, 2013

चर्चा कैसी कैसी !!

talk

हि न्दी से प्यार करने वालों का उसके साथ बर्ताव और व्यवहार भी अनोखा होता है । मिसाल के तौर पर चर्चा की बात करें । उर्दू-हिन्दी में बातचीत, कथन, उल्लेख, ज़िक़्र के संदर्भ में चर्चा शब्द का प्रयोग होता है । यह बहुत प्रचलित शब्द है । अक्सर यह बहस भी चलती रहती है कि चर्चा स्रीवाची है या पुरुषवाची । “चर्चा चलती है” या “चर्चा चलता है” । “चर्चा रही” या “चर्चा रहा” । कुछ लोग कह देते हैं कि कथन, ज़िक़्र या उल्लेख की तरह चर्चा के प्रयोग में पुलिंग लगना चाहिए जबकि कुछ लोग इसे स्त्रीवाची कहते हैं और इस तरह चर्चा पर चर्चा चलती ही रहती है । जो हिन्दीप्रेमी नुक़्ते से परहेज़ करते हैं उनका कहना है कि चर्चा के साथ उर्दू वाला पुल्लिंग लगाया जाए । इसके बरख़िलाफ़ जिन हिन्दीप्रेमियों को मुसलमानी बिन्दी से लगाव है वो चाहते हैं कि चर्चा को उर्दू का न माना जाए और इसके साथ स्त्रीलिंग का प्रयोग किया जाए । उर्दू में चर्चा से चर्चे बना लिया गया है जो बहुवचन है ।
बसे पहले तो एक बात साफ़ कर दें कि चर्चा हिन्दी की अपनी ज़मीन पर तैयार हुआ शब्द है और स्त्रीवाची है । यह मूलतः तत्सम शब्द है । इसमें और संस्कृत के चर्चा शब्द में अगर कोई मूलभूत फ़र्क़ है तो सिर्फ़ यही कि संस्कृत-वैदिक शब्दावली का चर्चा पुरुषवाची है और हिन्दी का चर्चा स्त्रीवाची । संस्कृत का चर्चा लोकभाषा में स्रीवाची चरचा था और हिन्दी की ज़मीन पर भी इसी रूप में सामने आया । आज से क़रीब छह सौ सात सौ साल पहले हिन्दी की विभिन्न शैलियों में चर्चा के चरचा रूप का स्त्रीवाची प्रयोग के लिखित साक्ष्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं । ज़ाहिर है बोलचाल में इसकी रचबस कई सदी पहले हो चुकी होगी । कबीर अपनी सधुक्कड़ी में कहते हैं - “संगत ही जरि जाव न चरचा नाम की । दुलह बिना बरात कहो किस काम की।।” वहीं विनयपत्रिका में तुलसी की अवधी में भी चरचा है- “जपहि नाम रघुनाथ को चरचा दूसरी न चालु।” तो उधर राजस्थानी में मीराँ के यहाँ भी चरचा है - “राम नाम रस पीजै मनुआँ, राम नाम रस पीजै । तज कुसंग सतसंग बैठ णित, हिर चरचा सुण लीजै ।।
र्चा शब्द में विभिन्न आशय शामिल हैं मगर आमतौर पर इसका अर्थ बहस या विचार-विमर्श ही है । चर्चा में मूलतः दोहराव का भाव है । तमाम कोश चर्चा के अनेक अर्थ बताते हैं मगर रॉल्फ़ लिली टर्नर कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ में चर्चा प्रविष्टि के आगे सिर्फ़ रिपीटीशन यानी दोहराव लिखते हैं । ज़ाहिर है, बाकी आशय बाद में विकसित हुए हैं विलियम व्हिटनी पाणिनी धातुपाठ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि चर्च् धातु दरअसल चर् धातु में निहित भाव की पुनरावृत्ति दिखाने वाला रूप है । चर् का मूल भाव गति है (करना, अनुष्ठान, व्यवहार, आचरण, अभ्यास आदि । इससे ही चलने की क्रिया वाला चर बना है) । चर्चर (चर-चर) में दोहराव है । बहरहाल, चर्चा के मूल में चर्च् धातु है जिसका मूलार्थ है दोहराव । आप्टे कोश के मुताबिक इसमें पढ़ना, अनुशीलन करना, अध्ययन करना, विचार-विमर्श करना जैसे भाव हैं । इसी के साथ इसमें गाली देना, धिक्कारना, निन्दा करना, बुरा-भला कहना जैसे आशय भी हैं । इससे बने चर्चा में आवृत्ति, तर्क-वितर्क, स्वरपाठ, अध्ययन, सम्भाषण, वाद-विवाद, अनुशीलन, परिशीलन, अनुसंधान के साथ-साथ शरीर पर उबटन लगाना, मालिश करना, लेपन करना जैसे भाव भी हैं ।
र्च् में निहित दोहराव वाले भाव पर गौर करें तो चर्चा के अन्य आशय भी स्पष्ट हो जाते हैं । बार-बार या दोहराव वाली बात विमर्श के दौरान भी उभरती है और विचार मन्थन में भी । अनुसंधान या खोज के दौरान भी बार बार उन्हीं रास्तों, विधियों, प्रविधियों से गुज़रना होता है । बहस-मुबाहसों में एक ही बिन्दू पर लौटना होता है या किसी एक मुद्दे का बार बार उल्लेख होता है । चर्चा में अफ़वाह, गपशप, चुग़लख़ोरी जैसी बातें भी शामिल हैं । अफ़वाह में आवर्तन की वृत्ति होती है । किसी भी क़िस्म की गप्प, गॉसिप या अफ़वाह जैसी बातें लौट-लौट कर आती हैं । सो बारम्बारता चर्चा का ख़ास गुणधर्म है । यही बारम्बारता मालिश, मसाज़ या लेपन में भी है । मालिश या लेपन करना यानी बार-बार किसी एक सतह पर दूसरी सतह फेरना सो चर्चित का आशय लेपित से भी है । बृहत हिन्दी शब्दकोश में इसका उदाहरण दिया है चन्दन-चर्चित काया । लेपन की क्रिया को चर्चन भी कहते हैं । चर् में निहित गति की पुनरावृत्ति ही ‘चर्चन’ है ।
र्च् से ही बना है चर्चित जिसका अर्थ है- ऐसा कुछ जिस पर लोग बातें करतें हैं । इसमें वस्तु, व्यक्ति, विचार कुछ भी हो सकता है । चर्चित यानी जिस पर चर्चाएँ चल रही हों । कोशों के मुताबिक चर्चित का अर्थ है जिस पर विचार किया गया हो, जिस पर चर्चा हुई हो, जिसे खोजा गया हो। इसके अलावा चर्चित वह भी है जिसकी मालिश हुई हो, जिस पर लेप किया हुआ हो, जो सुगंधित, सुवासित, अभ्यंजित हो । चर्चित के दोनों ही अर्थों में दोहराव की प्रक्रिया स्पष्ट है । आम अर्थों में चर्चित चेहरा वह होता है जो खबरों में हो । खबर को चर्चा का पर्याय मानें । बार बार कोई मुद्दा या व्यक्ति जब चर्चा में आता है तो वह चर्चित कहलाता है । चर्चा योग्य के लिए मुखसुख के आधार पर चर्चनीय शब्द भी बना लिया है । चर्चा करने वाले को वार्ताकार की तर्ज पर चर्चाकार कहते हैं । संस्कृत नाटकों की परम्परा में दो अंकों के बीच दृष्यविधान बदलते हुए दर्शकों के मनोरंजन के लिए गाया जानेवाला गीत चर्चरिका कहलाता था । फ़ाग, होली, बुआई, कटाई जैसे अवसरों पर भी चर्चरिका का चलन था । लोक भाषा में इसे चाँचर, चँचरी या चाँचरी कहते हैं । चाँचरी एक पहाड़ी लोकनृत्य की शैली भी है ।
र्चा प्रायः आर्यपरिवार की सभी भारतीय भाषाओं में है । लोगों की ज़बान पर जब किसी बात का उल्लेख आम हो जाए तो उसे मराठी में जनचर्चा या लोकचर्चा कहा जाता है । इसी तरह रामचर्चा पद है जिसका शाब्दिक अर्थ तो राम का नाम लेना है मगर इसमें मुहावरेदार अर्थवत्ता है । मोल्सवर्थ का इंग्लिश-मराठी कोश इसके बारे में कहता है - A phrase used emphatically or expletively in a speech expressing any positive and utter denial. 

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Wednesday, January 2, 2013

क़िस्त दर क़िस्त…

Money
हि न्दी के बहुप्रयुक्त शब्दों में क़िस्त का भी शुमार है हालाँकि अक्सर ज्यादातर लोग ‘क़िस्त’ को ‘किश्त’ लिखने और बोलने के आदी हैं । ‘प्रसाद’ तथा ‘सौहार्द’ के ग़लत रूप ( प्रशाद, सौहार्द्र ) भी इसी तरह ज्यादा प्रचलित हैं । हिन्दी में क़िस्त का आशय हिस्सा, भाग, आंशिक भुगतान, होता है । इसके अलावा इसमें न्याय या इन्साफ़ की अर्थवत्ता भी है । यूँ तो क़िस्त शब्द हिन्दी में बरास्ता फ़ारसी आया है और शब्दकोशों में इसकी हाजिरी अरबी के खाते में नज़र आती है । यह बहुरूपिया भी है और यायावर भी । खोज-बीन करने पर अरबी के कोशों में इसे ग्रीक भाषा का मूलनिवासी माना गया है । देखते हैं किस्त की जनमपत्री । 

हिन्दी में किस्त का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रयोग कई हिस्सों में भुगतान के लिए होता है । आजकल इसके लिए इन्स्टॉलमेंट या इएमआई शब्द भी प्रचलित हैं मगर किस्त कहीं ज्यादा व्यापक है । भुगतान-संदर्भ के अलावा मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के अनुसार किस्त में सामान्य तौर पर किसी भी चीज़ का अंश, हिस्सा, टुकड़ा, portion या भाग का आशय है । अरबी कोशों में अंश, हिस्सा, पैमाना, पानी का जार या न्याय जैसे अर्थ मिलते हैं । न्याय में निहित समता और माप में निहित तौल का भाव किस्त में है और इसीलिए कहीं कहीं किस्त का अर्थ न्यायदण्ड या तुलादण्ड भी मिलता है । 

बसे पहले क़िस्त के मूल की बात । अरबी कोशों में क़िस्त को अरबी का बताया जाता है जिसकी धातु क़ाफ़-सीन-ता (ق س ط) है । हालाँकि अधिकांश भाषाविद् अरबी क़िस्त का मूल ग्रीक ज़बान के ख़ेस्तेस से मानते हैं जिसका अर्थ है माप या पैमाना । लैटिन ( प्राचीन रोम ) में यह सेक्सटैरियस (Sextarius) है । ग्रीक ज़बान का ख़ेस्तेस, लैटिन के सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप है । यूँ ग्रीक भाषा लैटिन से ज्यादा पुरानी मानी जाती है मगर भाषाविदों का कहना है कि सेक्सटैरियस रोमन माप प्रणाली से जुड़ा शब्द है । यह माप पदार्थ के द्रव तथा ठोस दोनों रूपों की है । सेक्सटेरियस दरअसल माप की वह ईकाई है जिसमें किसी भी वस्तु के 1/6 भाग का आशय है । समूचे मेडिटरेनियन क्षेत्र में मोरक्को से लेकर मिस्र तक और एशियाई क्षेत्र में तुर्की से लेकर पूर्व के तुर्कमेनिस्तान तक ग्रीकोरोमन सभ्यता का प्रभाव पड़ा । खुद ग्रीक और रोमन सभ्यताओं ने एक दूसरे को प्रभावित किया इसीलिए यह नाम मिला । 

सेक्सटैरियस में निहित ‘छठा भाग’ महत्वपूर्ण है जिसमें हिस्सा या अंश का भाव  तो है ही साथ ही इसका छह भी खास है । दिलचस्प है कि सेक्सटैरियस में जो छह का भाव है वह दरअसल भारोपीय धातु सेक्स (seks ) से आ रहा है । भाषाविदों का मानना है कि संस्कृत के षष् रूप से छह और षष्ट रूप से छट जैसे शब्द बने  । अवेस्ता में इसका रूप क्षवश हुआ और फिर फ़ारसी में यह शेश हो गया । ग्रीक में यह हेक्स हुआ तो लैटिन में सेक्स, स्लोवानी में सेस्टी और लिथुआनी में सेसी हुआ । आइरिश में यह छे की तरह ‘से’ है । अंग्रेजी के सिक्स का विकास जर्मनिक के सेच्स sechs से हुआ है । सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप ही ग्रीक में खेस्तेस हुआ । खेस्तेस की आमद सबसे पहले मिस्र मे हुई। 

मझा जा सकता है कि इसका अरब भूमि पर प्रवेश इस्लाम के जन्म से सदियों पहले हो चुका था क्योंकि अरब सभ्यता में माप की इकाई को रूप में क़िस्त का विविधआयामी प्रयोग होता है । यह किसी भी तरह की मात्रा के लिए इस्तेमाल होता है चाहे स्थान व समय की पैमाईश हो या ठोस अथवा तरल पदार्थ । हाँ, प्राचीनकाल से आज तक क़िस्त शब्द में निहित मान इतने भिन्न हैं कि सबका उल्लेख करना ग़ैरज़रूरी है । खास यही कि मूलतः इसमें भी किसी पदार्थ के 1/6 का भाव है जैसा कि पुराने संदर्भ कहते हैं । आज के अर्थ वही हैं जो हिन्दी-उर्दू में प्रचलित हैं जैसे फ्रान्सिस जोसेफ़ स्टैंगस के कोश के अनुसार इसमें न्याय, सही भार और माप, परिमाप, हिस्सा, अंश, भाग, वेतन, किराया, पेंशन, दर, अन्तर, संलन, संतुलन, समता जैसे अर्थ भी समाए हैं । क़िस्त में न्याय का आशय भी अंश या भाग का अर्थ विस्तार है । कोई भी बँटवारा समान होना चाहिए । यहाँ समान का अर्थ 50:50 नहीं है बल्कि ऐसा तौल जो दोनों पक्षों को ‘सम’ यानी उचित लगे । यह जो बँटवारा है , वही न्याय है । इसे ही संतुलन कहते हैं और इसीलिए न्याय का प्रतीक तराजू है । 

हाँ तक क़िस्त के किश्त उच्चार का सवाल है यह अशुद्ध वर्तनी और मुखसुख का मामला है । वैसे मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश में किश्त का अलग से इन्द्राज़ है । किश्त मूलतः काश्त का ही एक अन्य रूप है जिसका अर्थ है कृषि भूमि, जोती गई ज़मीन आदि । काश्तकार की तरह किश्तकार का अर्थ है किसान और किश्तकारी का अर्थ है खेती-किसानी । किश्तः या किश्ता का अर्थ होता है वे फल जिनसे बीज निकालने के बाद उन्हें सुखा लिया गया हो । सभी मेवे इसके अन्तर्गत आते हैं । किश्त और काश्त इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है । फ़ारसी के कश से इसका रिश्ता है जिसमें आकर्षण, खिंचाव जैसे भाव हैं । काश्त या किश्त में यही कश है । गौर करें ज़मीन को जोतना दरअसल हल खींचने की क्रिया है । कर्षण यानी खींचना । आकर्षण यानी खिंचाव । फ़ारसी में कश से ही कशिश बनता है जिसका अर्थ आकर्षण ही है ।
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Thursday, November 8, 2012

मनहूस और तहस-नहस

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पशकुनी की अर्थवत्ता वाला मनहूस शब्द हिन्दी में बहुत प्रचलित है । मनहूस का प्रयोग बहुत व्यापक है । तिथि, वार, जगह, नाम, वस्तु, ग्रह-नक्षत्र आदि वे सब चीज़ें जो शकुन-विचार के दायरे में आती हैं उनके साथ मनहूस का प्रयोग होता है । जो कुछ भी अशुभ, अलाभकारी है उसे हम मनहूस कहते हैं । हिन्दी में ‘मनहूस शक्ल’, ‘मनहूस आदमी’, ‘मनहूस घड़ी’, ‘मनहूस ख्याल’, ‘मनहूस बात’, ‘मनहूस लोग’ और ‘मनहूस ख्वाब’ जैसे संदर्भ नज़र आते हैं । अरबी का मनहूस शब्द फ़ारसी से होता हुआ हिन्दी में आया है । मनहूस के मूल में अरबी क्रिया-विशेषण नह्स / नहूसा है जिसका अर्थ है अशुभ, दुर्भाग्यशाली, अपशकुन आदि । अल सईद एम बदावी के कुरानिक कोश में नह्स / नहूसा के मूल में सेमिटिक धातु नून-हा-सीन ( n-h-s) है जिसमें मुसीबत, कठिनाई, दुख, विपत्ति जैसे भाव हैं । अरबी के नह्स में ‘म’ उपसर्ग लगने से मनहूस बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के मुताबिक मनहूस में अशुभ, अनिष्ट, अकल्याणकारी, बद, अभागा, बदक़िस्मत जैसे आशय हैं ।
नहूस के मूल में जो नहूसा है वह नहूसत बनकर उर्दू में विराजमान है । हिन्दी में अब यह अल्पप्रचलित है अलबत्ता आज़ादी से पहले की हिन्दोस्तानी में यह चलता था । नहूसत में भी मनहूसी का ही भाव है । निस्तेज, उदासीनता, दीनता, असहायता, क्लेश, आत्मदया, दुख या खिन्नता के भाव इसमें हैं । नहूसा में धूल, गर्द का भाव भी है । गौर करें कि किसी चीज़ की परवाह न की जाए तो उस पर धूल जम जाती है यानी वह वस्तु अपनी आभा या तेज खो देती है । चेहरा निस्तेज तभी होता है जब उस पर दुख या चिन्ता की छाया हो । चीज़ों पर धूल जमना बुरे दिनों का संकेत है । खुशहाली में चमक है, बदहाली को गर्दिश कहते हैं । चीज़ों पर धूल जमना अपशकुन है । यही नहूसा है । उर्दू में गर्दे-नहूसत भी एक पद है जिसका अर्थ है दुर्भाग्य की धूल, अशुभ लक्षण आदि । अस्त-व्यस्त में भी गर्दे-नहूसत को देखा जा सकता है । अस्त-व्यस्त के ‘अस्त’ में निहित निस्तेजता ( सूर्यास्त ) साफ़ पहचानी जा सकती है । परास्त में यही अस्त है । हार भी अपशकुन है । प्रेमचंद और उनके दौर की भाषा में नहूसत शब्द मिलता है ।
धूल जमने वाले लक्षण की तरह अन्य लक्षणों के आधार पर भी मनहूसियत को समझा जा सकता है । निकम्मे, कामचोर, आलसी, सुस्त लोगों को भी मनहूस कहा जाता है, क्योंकि उनकी वजह से परिवार, समूह, समाज में बरक्कत की उम्मीद नहीं रहती । अक्सर किसी भी संस्थान की बदहाली की वजह निठल्लों की जमात होती है । हाथ पर हाथ धरे बैठना, उंगलियाँ चटकाना, असमय सोना, उबासियाँ लेना, गुमसुम रहना, ऊँघना, नाखून से ज़मीन कुरेदना, आसमान ताकना, शून्य में देखना, निश्चेष्ट बैठे रहना, देर से जागना समेत दैनंदिन कार्य-व्यवहार के अनेक ऐसे संकेत हैं जिन्हें नहूसत या मनहूसी के दायरे में समझा जाता है क्योंकि इनमें गति अथवा क्रिया नहीं है । निष्क्रियता विकास को अवरुद्ध करती है । यही सबसे बड़ा अपशकुन है ।
नेस्तनाबूद, नष्ट-भ्रष्ट या बरबादी के संदर्भ में हिन्दी का तहस-नहस मुहावरा आम लोगों की ज़बान पर है । यह भी इसी कड़ी में आता है और तहस + नहस से मिलकर बना है । अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में जॉन प्लैट्स तहस-नहस का मूल नह्स-तह्स ( naḥs + taḥs ) बताते हैं । नह्स के तौल पर तह्स शब्द की रचना अनुकरण और साम्य का नतीजा है । स्वतंत्र शब्द के रूप में इसकी कोई अर्थवत्ता नहीं है । अरबी की नह्स-तह्स टर्म का हिन्दुस्तानी में विपर्यय होकर तहस – नहस रूपान्तर हुआ । नहूसा में निहित दुर्भाग्य, बदक़िस्मती, अशुभ जैसे आशय नहस में खराबी, बिगाड़, विनष्ट, खंडित, बरबाद, तितर-बितर, विध्वस्त में अभिव्यक्त हो रहे हैं । दुर्भाग्यपूर्ण जैसी अर्थवत्ता यहाँ सुरक्षित है । नहूसा में निहित गर्द वाला भाव अगर देखे तो तहस-नहस का हिन्दी पर्याय धूल-धूसरित सर्वाधिक योग्य नज़र आता है ।

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Monday, November 5, 2012

चारों ‘ओर’ तरफ़दार

direction

दिन भर के कार्यव्यवहार में इंगित करने, दिशा बताने के संदर्भ में हम कितनी बार ‘तरफ़’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, अन्दाज़ लगाना मुश्किल है । इस तरफ़, उस तरफ़, हर तरफ़ जैसे वाक्यांशों में तरफ़ के प्रयोग से जाना जा सकता है कि यह बोलचाल की भाषा के सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में एक है । ‘तरफ़’ अरबी ज़बान का शब्द है और बज़रिये फ़ारसी इसकी आमद हिन्दी में हई है । ‘तरफ़’ की अर्थवत्ता के कई आयाम हैं मसलन- ओर, दिशा, जानिब, पक्ष, किनारा, सिरा, पास, सीमा, पार्श्व , बगल, बाजू आदि । तरफ़ का बहुप्रयुक्त पर्याय हिन्दी में ओर है जैसे ‘इस ओर’, ‘उस ओर’, ‘चारों ओर’, ‘सब ओर, ‘चहुँ ओर’ आदि । ओर में भी इंगित करने या दिशा-संकेत का लक्षण प्रमुखता से है ।
रबी धातु T-r-f ता-रा-फ़ा [ ف - ر ط - ] में संकेत करने का आशय है । मूलतः इस संकेत में निगाह घुमाने, रोशनी डालने, पलक झपकाने, झलक दिखाने जैसी क्रियाएँ शामिल हैं । अरबी में इससे बने तरफ़ / तराफ़ में दिशा ( पूरब की तरफ़, उत्तर की तरफ़), ( मेरी तरफ़, तेरी तरफ़ ), किनारा ( नदी के उस तरफ़) का आशय है । इसके अलावा उसमें सिरा, छोर, पास, कोना, जानिब जैसी अर्थवत्ता भी है । तरफ़ में दिशा-संकेत का भाव आँख की पुतलियों के घूमने से जुड़ा है । सामने देखने के अलावा पुतलियाँ दाएँ-बाएँ घूम सकती हैं । आँख के दोनो छोर, जिसे कोर कहते हैं, तरफ़ का मूल आशय उससे ही है । पुतलियाँ जिस सीमा तक घूम सकती हैं, उससे बिना बोले या हाथ हिलाए किसी भी ओर इंगित किया जा सकता है । आँख के संकेत से दिशा-बोध कराने की क्रियाविधि से ही तरफ़ में दिशा, ओर, छोर, किनारा, पास, साइड side जैसे अर्थ स्थापित हुए । तरफ़ में फ़ारसी का बर प्रत्यय लगने से बरतरफ़ शब्द बनता है जिसका आशय बर्खास्तगी से है ।
रफ़ में पार्श्व, पक्ष या पास जैसी अर्थवत्ता भी है । अरबी के तरफ़ में फ़ारसी का ‘दार’ प्रत्यय लगने से तरफ़दार युग्मपद बना जिसका अर्थ है समर्थक, पक्ष लेने वाला अथवा हिमायती । जो आपके साथ रहे वह पासदार कहलाता है और तरफ़दार में भी साथी का भाव है । इससे ही तरफ़दारी बना जिसमें किसी का पक्ष लेने, पासदारी करने का आशय है । किसी को अपने पक्ष में करने के लिए कहा जाता है कि उसे अपनी तरफ़ मिला लो । सामान्यतया किसी एक का पक्ष लेने वाला व्यक्ति पक्षपाती कहलाता है । तरफ़दार निश्चित ही किसी एक पक्ष का समर्थनकर्ता होता है । हिन्दी के पक्षपाती में जहाँ नकारात्मक अर्थवत्ता नज़र आती है वहीं तरफ़दार में ऐसा नहीं है । उचित-अनुचित का विचार करने के बाद किसी पक्ष का समर्थन करने वाला तरफ़दार है । दोनों पक्षों की थाह लिए बिना मनचाहे पक्ष की आँख मूँद कर हिमायत करने वाला पक्षपाती है । चीज़ के दो पहलू होते हैं । तरफ़ में जो पक्ष का भाव है वह और अधिक स्पष्ट होता है उससे बने एकतरफ़ा, दोतरफ़ा जैसे युग्मपदों से । एकतरफ़ा में पक्षपात हो चुकने की मुनादी है जैसे एकतरफ़ा फ़ैसला । जबकि दोतरफ़ा में दोनों पक्षो का भाव है ।
ब्दों के सफ़र में अब चलते हैं उस दिशा में जहाँ खड़ा है तरफ़ का पर्याय 'ओर' । भाषाविदों के मुताबिक ओर का जन्म संस्कृत के ‘अवार’ से हुआ है जिसमें इस पार, निकटतम किनारा, नदी के छोर या सिरा का आशय है । मोनियर विलियम्स के मुताबिक अवार का ही पूर्वरूप अपार है । गौरतलब है कि आर्यभाषा परिवार की ‘व’ ध्वनि में या में बदलने की वृत्ति है । संस्कृत के अप में दूर, विस्तार, पानी, समुद्र आदि भाव हैं । इसी का एक रूप अव भी है जिसमें दूर, परे, फ़ासला, छोर जैसे भाव हैं । अवार के ‘वार’ में भी ‘पार’ का भाव है । इस किनारे के लिए पार और उस किनारे के लिए वार । ज़ाहिर है कि उस किनारे वाले व्यक्ति के लिए किनारों के संकेत इसके ठीक उलट होंगे । 
पार का ही अन्य रूप अवार है और अवार से ओर का निर्माण हुआ जिसमें छोर, किनारा, दिशा, दूरी, अन्तराल जैसे आशय ठीक अरबी के ‘तरफ़’ जैसे ही हैं । पारावार और वारापार शब्दों में यही भाव है । ‘वार’ और में ‘पार’ में मूलतः व और प ध्वनियों का उलटफेर है । पार का निर्माण पृ से हुआ है और वार का ‘वृ’ से । पार के मूल में जो पृ धातु है उसमें गति का भाव है सो इसका अर्थ आगे ले जाना, उन्नति करना, प्रगति करना भी है । आगे बढ़ने के भाव का ही विस्तार पार में । पार यानी किसी विशाल क्षेत्र का दूसरा छोर । वैसे पार का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ नदी का दूसरा किनारा ही होता है । पार शब्द भी हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में है । आर-पार को देखिए जिसमें मोटे तौर पर तो इस छोर से उस छोर तक का भाव है, मगर इससे किसी ठोस वस्तु को भेदते हुए निकल जाने की भावाभिव्यक्ति भी होती है । आर-पार में पारदर्शिता भी है यानी सिर्फ़ भौतिक नहीं, आध्यात्मिक, मानसिक भी ।
संबंधित शब्द- 1. पक्ष. 2. पारावार. 3. वारापार. 4. वस्तु. 5. नदी. 7. आँख. 9. वार.

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Friday, November 2, 2012

तारीफ़ अली उर्फ़…

praising

प्र शंसा के अर्थ में हिन्दी मे तारीफ़ शब्द बोलचाल में रचा-बसा है । प्रशंसा क्या है ? हमारे आस-पास जो कुछ खास है उसकी शैली, गुण, वृत्ति, स्वभाव के बारे में सकारात्मक उद्गार । तारीफ़ दरअसल किसी व्यक्ति, वस्तु के गुणों का बखान ही होता है । हिन्दी की विभिन्न बोलियों समेत मराठी, गुजराती, बांग्ला में भी तारीफ़ शब्द है । तारीफ़ सबको अच्छी लगती है । कई लोग सिर्फ़ तारीफ़ सुनने के आदी होते हैं और कई लोग तारीफ़ करना जानते हैं ।  ज़रा सी तारीफ़ दो लोगों के बीच मनमुटाव खत्म कर सकती है । इसलिए तारीफ़ ज़रिया है, रिश्ता है, पुल है । खुशामदी लोग अक्सर तारीफ़ों के पुल बांध देते हैं । कहना न होगा कि झूठी तारीफ़ के रिश्ते इसलिए जल्दी ढह जाते हैं । वैसे तारीफ़ों के पुल ही नहीं बनते, तारीफ़ो की बरसात भी होती है ।
तारीफ़ सेमिटिक मूल का शब्द है और अरबी से बरास्ता फ़ारसी बोलचाल की हिन्दी में दाखिल हुआ । तारीफ़ के मूल में अराफ़ा क्रिया है जिसका जन्म अरबी धातु ऐन-रा-फ़ा [ع-ر-ف] से हुआ है । ऐन-रा-फ़ा [ 'a-r-f ] में पहचानना, मानना, स्वीकार करना जैसे भाव हैं । प्रकारान्तर से इसके साथ ज्ञान, बोध, अनुभूति, परिचय जैसे भाव जुड़ते हैं । “आपकी तारीफ़” जैसे वाक्य में परिचय का आशय है, न कि सामने वाले के मुँह से उसकी प्रशंसा सुनने की मांग ।  कुछ कोशों में इसका अर्थ गन्ध दिया हुआ है । यूँ देखा जाए तो गन्ध से ही किसी चीज़ की पहचान, बोध या ज्ञान होता है । अरबी का ‘ता’ उपसर्ग लगने से तारीफ़ बनता है जिसमें मूलतः किसी घोषणा, उद्गार (सकारात्मक) का भाव है । तारीफ़ में विवरण, वर्णन भी होता है । तारीफ़ में प्रशंसाभर नहीं बल्कि इसका एक अर्थ गुण भी है । सिर्फ़ प्रशंसा झूठी हो सकती है, मगर गुण का बखान झूठ की श्रेणी में नहीं आता । सो गुण ( परिचय ) की जानकारी, उसकी व्याख्या, विवरण, प्रकटन, बखान आदि तारीफ़ के दायरे में है ।
सामान्यतया परिचय के अर्थ में हम तआरुफ़ शब्द का प्रयोग करते हैं । ताआरुफ़ सिर्फ़ किन्ही दो लोगों को एक दूसरे से मिलाना अथवा किन्ही दो लोगों का आपस में परिचय भर नहीं है । अराफ़ा में जानने का भाव है, जो सीखने के लिए ज़रूरी है । इसी तरह औरों को योग्य बनाने के लिए सीखना ज़रूरी है । हमने जो कुछ जाना है, वही दूसरे भी जान लें, यही तआरुफ़ है । बुनियादी तौर पर तआरुफ़ में समझने-समझाने, शिक्षित होने का भाव है । इसका एक रूप तअर्रुफ़ भी है जिसका अर्थ जान-पहचान, समझना आदि है । इसी शृंखला के कुछ और शब्द हैं जो हिन्दी क्षेत्रों में इस्तेमाल होते हैं जैसे संज्ञानाम आरिफ़ जिसका अर्थ है जानकार, विशेषज्ञ, प्रवीण, निपुण, चतुर आदि । इसी तरह एक अन्य नाम है मारूफ़ । संज्ञानाम के साथ यह विशेषण भी है । मारूफ़ वह है जिसे सब जानते हों । ख्यात । प्रसिद्ध । नामी । जाना-माना । बहुमान्य । मशहूर आदि । साहित्य में मारूफो-मोतबर ( नामी और विश्वसनीय ) या मारूफ़ शख्सियत जैसे प्रयोग जाने-पहचाने हैं ।
सी कड़ी में उर्फ़ भी है । हिन्दी में उर्फ़ शब्द का प्रयोग भी बहुतायत होता है । उर्फ़ तब लगाते हैं जब किसी व्यक्ति के मूल नाम के अलावा अन्य नाम का भी उल्लेख करना हो । उर्फ़ यानी बोलचाल का नाम, चालू नाम । जैसे राजेन्द्रसिंह उर्फ़ ‘भैयाजी’ । ज़ाहिर है मूल नाम के अलावा जिस नाम को ज्यादा लोकमान्यता मिलती है वही ‘उर्फ़’ है । उस शख्सियत का बोध समाज को प्रचलित नाम से जल्दी होता है बजाय औपचारिक नाम के । इसलिए उर्फ़ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि समाज में उसी नाम से लोग उसे पहचानते हैं । फ़ारसी में इसका उच्चार ‘ओर्फ़’ की तरह होता है । लोग कहतें है, ज़रा सी तारीफ़ करने में क्या जाता है ? अर्थात तारीफ़ में कोई मेहनत नहीं लगती, अपनी जेब से कुछ नहीं जाता । एक धेला खर्च किए बिना तारीफ़ से काम हो जाता है । ऐसी तारीफ़ खुशामद कहलाती है । 
रबी, तुर्की में ही तारीफ़ का तारिफ़ा रूप भी है जिसका अर्थ किसी चीज़ का मूल्य अथवा किराया है । करें कि जिस तरह किसी चीज़ की गन्ध ही उसका परिचय होती है या यूँ कहें कि किसी चीज़ के अस्तित्व का बोध उसकी गंध से होता है । मनुष्य जीवन में मूल्यवान अगर कुछ है तो वह गुण ही हैं । गुणों से ही स्व-भाव विकसित होता है । मूल्य बना है ‘मूल’ से जिसमें मौलिक, असली, खरा का भाव है । जो जड़ में है । जो उसका स्व-भाव है । जब हम किसी चीज़ का मूल्य आँकते हैं तब गुणवत्ता की परख ही महत्वपूर्ण होती है । गुण ही मूल्य हैं । गुण ही किसी चीज़ को विशिष्ट बनाते हैं, मूल्यवान बनाते हैं । मनुष्य के आचार-विचार ही उसके गुण हैं । वही उसके जीवनमूल्य होते हैं । कहते हैं कि सिर्फ़ तारीफ़ से पेट नहीं भरता । इसका अर्थ यह कि गुण का मूल्यांकन करने के बाद ज़बानी प्रशंसा काफ़ी नहीं है ।
सी तरह किसी चीज़ का मूल्य दरअसल उसका परिचय ही है । भौतिकवादी ढंग से सोचें तो किसी चीज़ का मूल्य अधिक होने पर हम फ़ौरन उसकी खूबी ( गुण ) जानना चाहते हैं । यानी मूल्य का गुण से सापेक्ष संबंध है । तारिफ़ा में मूल्य का जो भाव है उसका अर्थ भी प्रकारान्तर से परिचय ही है । अरबी के तारिफ़ा में जानकारी, सूचना जैसे भावों का अर्थसंकोच हुआ और इसमें मूल्य, मूल्यसूची, खर्रा, फेहरिस्त समेत दाम, दर, शुल्क, भाव, मूल्य, कर जैसे आशय समाहित हो गए । यह जानना भी दिलचस्प होगा कि अंग्रेजी के टैरिफ़  tariff शब्द का मूल भी अरबी का तारिफ़ा ही है । अरब सौदागरों का भूमध्यसागरीय क्षेत्र में दबदबा था । मूल्यवाची अर्थवत्ता के साथ तारिफ़ा लैटिन में दाखिल हुआ और फिर अंग्रेजी में इसका रूप टैरिफ़ हो गया जिसमें मूलतः शुल्क, दर या कर वाला अभिप्राय है ।

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Monday, October 29, 2012

रफूगरी, रफादफा, हाजत-रफा

पिछली कड़ियाँ- 1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.darn 4. दफ़ा हो जाओ 

हि न्दी की अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने में विदेशज शब्दों के साथ-साथ युग्मपद और मुहावरे भी है शामिल हैं । रफ़ा-दफ़ा ऐसा ही युग्मपद है जिसका बोलचाल की भाषा में मुहावरेदार प्रयोग होता है । “रफ़ा-दफ़ा करना” यानी किसी मामले को निपटाना, किसी झगड़े को सुलझाना, विवादित स्थिति को टालना, दूर करना । रफ़ा-दफ़ा में नज़र आ रहे दोनो शब्द अरबी के हैं । यहाँ ‘दफ़ा’ का अर्थ ढकेलने, दूर करने से है । इसकी विस्तृत अर्थवत्ता के बारे में पिछली कड़ी में बात की जा चुकी है । रफा ( रफ़ा ) का मूल अरबी उच्चारण रफ़्अ है । फ़ारसी में भी इसका ‘रफ़्अ’ रूप ही इस्तेमाल होता है
फ्अ शब्द की अरबी धातु रा-फ़ा-ऐन ر-ف-ع है जिसमें मूलतः उन्नत करने, सुधारने, ठेलने का भाव है । अरबी क्रियापद है रफ़ाआ जिसमें मरम्मत करना, सुधारना, सीना, ठीक करना, उन्नत करना, तब्दील करना, हटाना जैसे भाव हैं । रफ़ा-दफ़ा में यही भाव है । आमतौर पर हाज़त-रफ़ा पद का प्रयोग भी शौच जाने के अर्थ में उत्तर भारत में इस्तेमाल होता है । जैसे “उनके लिए सुबह सुबह हाजत-रफा करना बड़ा मुश्किल काम था” । इसी कड़ी में आता है ‘रफू’ या ‘रफ़ू’ शब्द । सिलेसिलाए वस्त्र में खोंच लगने पर रफ़ू किया जाता है । इसक अन्तर्गत फटे हुए स्थान की खास तरीके से मरम्मत की जाती है । इसमें बारीक सुई से, जिस कपड़े की मरम्मत होनी है, उसी के अनावश्यक टुकड़े और धागे निकाल कर फटे हुए स्थान को इस खूबी से सिला जाता है कि सिलाई का पता नहीं चलता । यह सिलाई का हुनर है कि मरम्मतशुदा हिस्सा भी कपड़े के टैक्सचर ( बुनावट ) से मेल खाता लगता है ।
रअसल फटे कपड़ों की मरम्मत से विकसित हुई सिलाई की खास तकनीक ने धीरे धीरे कला का रूप ले लिया । फ़ारस में इसका विकास हुआ और मरम्मत के सामान्य उपाय से रफ़ू एक कलाविधा बन गई । फ़ारसी में इसे रफ़ूगरी कहते हैं । रफ़ूगरी यानी रफ़ूकारी । फ़ारसी में ‘करने’ के संदर्भ में ‘गरी’ और ‘कारी’ प्रत्यय प्रचलित हैं । भारोपीय भाषाओं में ‘क’ का रूपान्तर ‘ग’ वर्ण में होता है । वैदिक क्रिया ‘कृ’ इसके मूल में है जिसमें करने का भाव है । इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इनका प्रयोग देखने को मिलता है जैसे - कर ( बुनकर ) , कार ( कर्मकार, कलाकार, कुम्भकार ) , कारी ( कलाकारी , गुलकारी , फूलकारी ) , गार ( गुनहगार, रोज़गार ), गर ( रफ़ूगर, कारीगर, बाजीगर ) , गरी ( कारीगरी, रफ़ूगर, बाजीगरी ) आदि उदाहरण आम हैं । सो खोंच से बने छिद्र को उसी वस्त्र के टुकड़े और उसी के धागे से पूरने, भरने, बराबर करने की हुनरकारी ही रफ़ूगरी है । इस मुक़ाम पर रफ्अ में निहित सुधारने, उन्नत करने जैसे भावों को समझना आसान होगा ।
फ़ूगरी का कला के रूप में इतना विकास हुआ कि न सिर्फ़ फटे कपड़े की मरम्मत बल्कि गोटा-किनारी कशीदाकारी, फुलकारी जैसे सजावटी हुनर के रूप में भी कपड़ों को खूबसूरत बनाने में रफ़ूगरी का उपयोग होने लगा । सामान्य समस्या से निपटने की तरकीबें कैसे मूल्यवान हो जाती हैं, यह जानना दिलचस्प है । फटे कपड़े की मरम्मत थिगला लगा कर भी होती है । यह थिगला आज पैचवर्क जैसी कलाविधा के रूप में मशहूर है जो रफ़ूगरी का ही एक रूप है । रफ़ू का महत्व इतने पर ही खत्म नहीं हुआ । रफ्अ में सुधारना, उन्नत करना जैसे भावों के चलते ही रफ़ू शब्द का प्रयोग वाग्मिता या वक्तृत्व कला में भी होने लगा है । बातों के बाजीगरों को रफ़ूगरी भी आनी चाहिए । अपने तर्कों से दो असम्बद्ध बातों को मिला देना या वाक्पटुता के चलते अलग-अलग पटरी पर चल रहे वार्तलाप को सही दिशा में ले आना या विवाद को खत्म करना इसी रफ़ूगरी में आता है । ऐसे लोगो की वजह से ही ज़बानी विवाद रफ़ा-दफ़ा हो पाते हैं । कुल मिलाकर यह भी उन्नत तकनीक का मामला है ।
शब्द का इस्तेमाल एक अन्य लोकप्रिय युग्मपद में भी बखूबी नज़र आता है । रफूचक्कर या रफ़ूचक्कर भी हिन्दी का लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है चम्पत हो जाना, भाग जाना अथवा गायब हो जाना । रफ़ू की अर्थवत्ता समझ लेने के बाद रफ़ूचक्कर को समझना कठिन नहीं है । खोंच लगे स्थान पर रफ़ू करने के दो तरीके होते हैं । छोटा खोंच है तो उसी वस्त्र के धागे से सिलकर छिद्र को भर दिया जाता है । खोंच बड़ा है तो फटे स्थान पर उसी कपड़े का थिगला लगा कर गोलाई में रफ़ू कर दिया जाता है । माना जा सकता है कि चकरीनुमा इस थिगले से ही रफ़ूचक्कर शब्द निकला होगा । रफ़चक्कर में खोंच के गायब हो जाने के भाव का विस्तार है । इसका प्रयोग किसी भी चीज़ के देखते देखते ग़ायब हो जाने में होने लगा । चोरों और उठाईगीरों के सन्दर्भ में आज  रफ़ूचक्कर का इस्तेमाल ज्यादा होता है ।

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Saturday, October 27, 2012

‘दफा’ हो जाओ …

पिछली कड़ियाँ-kicked out1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.
मयवाची शब्दों की कड़ी में इस बार अरबी के ‘दफा’ शब्द की बात । रोजमर्रा की बोली भाषा में ‘बार-बार’ इस्तेमाल होने वाले शब्दों में ‘बार-बार’ का ‘बार’ भी शामिल है जैसे - ‘इस बार’, ‘उस बार’, ‘कई बार’, ‘हर बार’, ‘मेरी बारी’, ‘तेरी बारी’, ‘उसकी बारी’, ‘बारी-बारी’ आदि । इसी कड़ी में ‘बार’ का एक और पर्याय है ‘दफा / दफ़ा’ जिसका इस्तेमाल भी बार की तर्ज़ पर ही होता है मसलन ‘इस दफ़ा’, ‘उस दफ़ा’, ‘हर दफ़ा’, मगर ‘दफ़ा’ का इस्तेमाल और अलग अर्थों में भी होता है । किसी को चलता करने के लिए कहा जाता है “दफ़ा हो जाओ” । अगर कोई ‘दफ़ा’ होने को राज़ी न हो तो मुमकिन है कानून की ‘दफ़ा’ लगाने की नौबत आ जाए । ये सभी दफ़ा एक ही सिलसिले की कड़ियाँ हैं । दफ़ा का प्रयोग दफे की तरह भी होता है जैसे “पहली दफ़े…”।

हिन्दी में ‘दफ़ा’ शब्द का प्रयोग फ़ारसी के ज़रिए शुरू हुआ । फ़ारसी में इसकी आमद अरबी से हुई जिसमें इसका सही रूप ‘दफ्अ’ है । दफ़्अ की व्युत्पत्ति अरबी की d-f-a ( दा-फ़ा-ऐन ) त्रिअक्षरी धातु से हुई है । भाषाविज्ञानियों का मानना है कि मूलतः यह अक्कादी भाषा का शब्द है । अक्कादी में ‘प’ ध्वनि  है और अरबी में ‘फ’ है , ‘प’ नहीं । अक्कादी में इसका रूप d-p-a ( दा-पे-ऐन ) है जिसमें धकेलने ( बाहर की ओर ) की बात उभरती है । अरबी में दफ़्अ में भी धकेलने ( बाहर निकालने ) का भाव है । गौरतलब है कि संस्कृत की समयवाची क्रियाओं में भी गति, शक्ति, प्रवाह के आशय निकलते हैं । संस्कृत की वा-या क्रियाओं में गतिवाची भाव है मगर इनसे समयवाची शब्द भी बने हैं ।  अरबी के दफ़ा शब्द की अर्थवत्ता के नज़रिए से काफी पेचीदा है । कहीं यह प्रवाहवाची नज़र आता है और प्रकारान्तर से कही इसी वजह से इसमें समूहवाची अर्थवत्ता उभर आती है ।

फ़्अ का हिन्दी, फ़ारसी में दफ़ा रूप प्रचलित है । हिन्दी में नुक़ता नहीं होता तो भी दफा में नुक़ता लगाया जाना चाहिए । अलसईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक दा-फ़ा-ऐन में प्रवाह, झोंका, बौछार, धारा, धावा जैसे भाव हैं । इससे बने दफ्अ में धावा, हमला या चढ़ दौड़ने, टूट पड़ने के साथ-साथ बचाव करने, रोकने का आशय भी है । मराठी में भी दफा शब्द है । करीब साढ़े तीन सौ साल पहले शिवाजी ने पंडित रघुनाथ हणमंते से शासन-व्यवहार में प्रचलित अरबी-फ़ारसी शब्दों की सूची बनवाई थी ( राजव्यवहार कोश ), उसमें भी दफा शब्द का उल्लेख है । कृ.पा. कुलकर्णी के कोश के मुताबिक इसमें समय और पाली का आशय है साथ ही दफ़ा शब्द का अर्थ सेना की पंक्ति, टुकड़ी भी है । खासतौर पर घुड़सवार टुकड़ी का इसमें आशय है ।
हिन्दी-मराठी-गुजराती में दफ़ेदार एक उपनाम भी होता है जिसका रिश्ता मुग़लदौर की सैन्य शब्दावली से हैं । दफ़ा शब्द का अर्थ प्रभावी या ताक़तवर व्यक्ति भी है । फ़ैलन के कोश में इसका एक फ़ारसी रूप दफ़े  है जिसमें फौजी टुकडी, सेना का घुड़सवार दस्ता अथवा पैदल टुकड़ी का आशय है । इससे ही दफ़ेदार शब्द बना है अर्थात किसी सैन्य दल का सरदार । रियासती दौर में दफ़ेदार होना सम्मान की बात थी । जनरल से जरनैलसिंह और कर्नल से करनैलसिंह की तरह ही सैन्य जातियों में ‘दफ़ेदार’ नाम रखने की परम्परा भी रही है । गौर करें ये सभी आशय मूलतः अरबी के ‘दफ्अ’ में निहित प्रवाहवाची ( धकेलना ) अर्थ से ही विकसित हुए हैं । सेना की टुकड़ी धावा ही करती है । गति, वेग और प्रवाह को फौजी धावे के सन्दर्भ में समझा जा सकता है ।
फ़ा में निहित समय, बारी, समूह, धक्का, वेग, टुकड़ी, पिण्ड, हटाना, हमला जैसे तमाम अर्थों को देखने पर मूल दफ्अ में निहित धकेलने का आशय ही उभर कर आता है । ध्यान रहे  धकेलने की क्रिया से दबाव बनता  है । दबाव से जमाव पैदा होता है । यही बात दफ़ा में समूह, टुकड़ी, खण्ड, पिण्ड आदि की अर्थवत्ता पैदा करती है । अरबी में दफ़्अ का एक अर्थ हाथी की लीद ( पिण्ड )भी होता है । इसमें जमाव और धकेल कर बाहर निकाले जाने के भाव को समझा जाना चाहिए । फ़ौजी टुकड़ी के मुखिया को दफ़ेदार इसलिए कहा जाता है क्योंकि दफ़ा में समूह का भाव है । यह टुकड़ी दुश्मन की फोज को पीछे धकेलती है । तेजी से आगे बढ़ती है ।  छत्तीसगढ़ के कोयलांचल में मज़दूर बस्ती को दफाई कहा जाता है । यह दफाई मनुष्यों का समूह या दल ही है । स्टैंगास की अरेबिक डिक्शनरी के मुताबिक दफ़ाफ का अर्थ परिवार, बस्ती या समूह है । अरबी में जमाअत का अर्थ भी दल या समूह है । दलपति या दलनायक को जमाअतदार कहा जाता था । बाद में इसका रूपान्तर जमादार हो गया । कहने का तात्पर्य यही कि दफ़ेदार में जमादार का ही भाव है ।
फ़ा का हिन्दी-उर्दू में कालवाची अर्थ में ही ज्यादातर प्रयोग होता है । दफ़ा के समूहवाची अर्थ में ढलने की प्रक्रिया को समझने के बाद दफ़ा यानी बार-बार, बारी अर्थात turn, मौका अवसर, समय आदि भावों को समझना आसान है । समय की गति सीधी सपाट नहीं बल्कि घुमावदार है । दिन-रात 12-12 घंटों में विभाजित है और 24 घंटों बाद यही क्रम फिर शुरू होता है । सप्ताह सात दिन का और महिना तीस दिन का । एक अन्तराल के बाद फिर वही क्रम शुरू होता है । यह वृत्ताकार है । यह जो मुड़ कर लौटने की क्रिया  है, यही बारी या टर्न है । पहला क्रम खत्म होने के बाद फिर वही क्रम शुरू होने को बारी कहते हैं । इस तरह ‘बारी’ समय का वह अंश, हिस्सा या खण्ड है जिसकी पुनरावृत्ति हो रही है । ध्यान दें, पुनरावृत्ति में ‘वृत्त’ ही है जिसके मूल में वर् है । वर् में घुमाव है जिससे एक दिन के अर्थ वाला वार बन रहा है । वार का फ़ारसी रूप ही ‘बार बार’  वाला बार है । पुनरावृत्ति का वृत्त या मोड़ वही है जिसे ‘बारी’ कहते हैं, इसका आशय कालांश, कालखंड से भी लगाया जा सकता है । बारम्बारता के लिए दफ्अतन का प्रयोग भी होता है, जिसमें दफ्अ या दफ़ा साफ़ पहचाना जा सकता है। दफ़ा का बहुवचन दफ़ात होता है। उसमें ‘अन’ प्रत्यय जुड़ने से कर्मकारक दफ्अतन बनता है जिसका अर्थ है समय समय पर, अक्सर, हमेशा, बार-बार, बहुधा आदि।
ई समूह किसी न किसी बड़ी रचना के हिस्से होते हैं । सो दफ़ा एक टुकड़ी भी है, समूह भी है, जमाव भी है, दल भी है । कई इकाइयों से समूह बनता है और कई समूहों की स्थिति में हर समूह एक इकाई होता है । समूह के रूप में इकाई एक पिण्ड, खण्ड, अनुच्छेद, प्रभाग आदि है । दफ़ा का अर्थ अनुच्छेद, धारा, अनुभाग, भाग आदि भी होता है । न्याय व्यवस्था में दफ़ा शब्द का प्रयोग होता है । हिन्दी में जिसे धारा हैं, रियासती दौर में उसे दफ़ा कहा जाता था । आज भी यह प्रचलित है । दफ़ा 302 का आशय भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 से है । हिन्दी-उर्दू में दफ़ा ( दफ्अ ) शब्द का एक अर्थ दूर करना, चले जाने का आदेश देना । मूलतः इसमें धकेलने वाले भाव का विस्तार ही है । धकेलने की क्रिया में दूर करने का भाव है । व्यावहारिक रूप में यह तिरस्कार है । ‘दफ़ान हो जाओ,’ ‘दफ़ा हो जाओ’ वाक्यों में तिरस्कार की नाटकीय अभिव्यक्ति देखने को मिलती है । इसका प्रयोग खुद चले जाने जाने के लिए भी होता है जैसे “मैं तो दफ़ा होता हूँ”अगली कड़ी में-  ‘रफ़ा-दफ़ा’ की बात
इन्हें भी देखें-1.फसल के फ़ैसले का फ़ासला.2.सावधानी हटी, दुर्घटना घटी.3.क़िस्मत क़िसिम-क़िसिम की.4.चरैवेति-चरैवेति.5.दुर्र-ऐ-दुर्रानी.6.कमबख़्त को बख़्श दो !.7.चोरी और हमले के शुभ-मुहूर्त.8.मौसम आएंगे जाएंगे.9.बारिश में स्वयंवर और बैल.10.साल-दर-साल, बारम्बार.11.नीमहकीम और नीमपागल.12.कै घर , कै परदेस !.13.सरमायादारों की माया [माया-1] .14.‘मा’, ‘माया’, ‘सरमाया’
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