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Thursday, July 21, 2016

मोरचा सम्भाले...


हि हिन्दी में दो तरह का मोरचा प्रचलित है। एक मोरचा वह है जो लोहे को ख़राब कर देता है। धार कुंद कर देता है। जिसे ज़ंग लगना कहते हैं। संयोग से दूसरा मोर्चा भी जंग से ही जुड़ा है, बस नुक़ते का फ़र्क़ है। उसे जंग का मोरचा कहते हैं। दोनो ही मोरचे फ़ारसी से आयातित हैं। ग़ौर करें कि हिन्दी में युद्धस्थल पर तैनाती की जगह वाला मोरचा ज़्यादा प्रचलित है। ज़ंग के अर्थ वाला मोरचा अब हिन्दी में कम प्रयोग होता है। हाँ आंचलिक बोलियों में बना हुआ है। मोरचा मूलतः مورچال है यानी मोरचाल जो मीम वाव रे चे अलिफ़ लाम से मिलकर बनता है। पर हिन्दी में मोरचा ही प्रचलित हुआ।


अनेक लोग इसकी वर्तनी ‘मोर्चा’ भी लिखते हैं। मूलतः मोरचा में "अंकन करना" जैसे भाव हैं जिनका आशय था सीमा या सरहद का निर्धारण। इसके साथ ही इसमें निशान लगाना, धार करना, कगार, किनारा जैसे आशय भी शामिल हुए। भारत और यूरोप की भाषाओं में इसी अर्थशृंखला से विकसित होकर अनेक शब्द बने हैं। वक़्त के साथ-साथ इसमें चौहद्दी बनाना, क़िला बनाना भी शामिल हो गया।

कोई भी चौहद्दी से घिरी जगह दरअसल अधिकार क्षेत्र का प्रतीक होती है। रक्षा प्रणालियों का जब विकास हुआ तो क़िला या गढ़ी के इर्दगिर्द खाई खोदना भी प्रमुख रणनीति बनी बाद में खाई क़िला निर्माण का अनिवार्य हिस्सा हो गई। खाई दरअसल सैनिको के छुपने के लिए भी खोदी जाती थी और दुश्मन के लिए रोक का काम भी करती थी। कभी इसमें पानी भरा जाता था तो कभी कांटे बिछाए जाते थे।

इसी तरह खुदाई कर खोहनुमा जगह बनाना जिसमें छुप कर एक या दो फौजी छुप कर वार कर सकें, खंदक कहलाती है। दरअसल इन्हीं सारी क्रियाओं को मोर्चाबंदी कहा जाता है अर्थात सुरक्षा के सारे उपाय करना। इस तरह देखें तो खंदक का अर्थ ही मोर्चा हुआ जहाँ पर स्थित फ़ौजी दुश्मन पर तक तक कर वार करता है। मोरचे पर जाना यानी कर्तव्य स्थल पर जाना। मोरचा सम्भालना यानी जिम्मेदारी सम्भालना। मोरचा मारना यानी लक्ष्य पर पहुँचना, जीत जाना आदि।

यूरोप की अनेक भाषाओं की रिश्तेदारी संस्कृत, अवेस्ता से रही है। इसे आर्यभाषा परिवार के नाम से भी समझा जाता है और भारत-यूरोपीय (भारोपीय) भाषा परिवार के नाम से भी। भाषा विज्ञानियों ने मोर्चा श्रृंखला के शब्दों का मूल जानने के लिए प्रोटो भारोपीय धातु मर्ग / मर्ज की कल्पना की है जिसमें सीमा, चिह्नांकन या मोर्चाबंदी करना जैसे भाव हैं।

अवेस्ता और वैदिक भाषा में काफी समानता रही है। वैदिकी के मर्ग, मर्क जैसे शब्दों में गति, गमन, निरीक्षण, आक्रमण जैसे भाव है। इन्ही क्रियाओं से मानव अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाता चलता था। फ़ारसी का मोरचा अवेस्ता के मारेज़ा से विकसित हुआ है जिसका अर्थ है सीमान्त या सरहद।

सीमा का निर्धारण निरन्तर चलते जाने की प्रक्रिया है। चलते हुए चिह्न बनाना इसमें प्रमुख है। अंग्रेजी का मार्जिन शब्द भी इसी मूल से आ रहा है जिसका अर्थ है सीमान्त, हाशिया, किनारा आदि। ये सब विकसित होती एक ही अर्थशृंखला की कड़ियाँ हैं। इसी तरह अंग्रेजी का मार्क शब्द है जिसका अर्थ भी निशान, चिह्न, ठप्पा, अंकन, मुहर, छाप, अंक आदि ही है।

अंग्रेजी के इसी मार्क से हिन्दी में ‘मार्का’ मुहावरा चल पड़ा था ठीक वैसे ही जैसे पिछले कुछ दशकों से ‘टाइप’ चल पड़ा हैं। जिसका आशय सादृश्यता सम्बन्धी है यानी “...किसी के जैसा”। सरकारी मार्का, फर्जी मार्का आदि। इसका अर्थ चिह्न से है पर भाव सादृष्यता का है। “यूपी टाइप,” “मूर्खटाइप” जैसे वाक्य प्रयोग भी यही कहते नज़र आते हैं।

हिन्दीमें रास्ते के अर्थ वाला मार्ग इसी कड़ी का शब्द है। कश्मीरी में मर्ग़ घास के विशाल चारागाह भी हैं। बाद में इनका अर्थ घाटी, रास्ता, मैदान भी हो गया। टंगमर्ग, गुलमर्ग, सोनमर्ग जैसे स्थान नामों में यही मर्ग है।
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Sunday, March 31, 2013

हथियारों के साथ ‘पंचहत्यारी’

‘पंचहत्यारी’ शिवाजी की सैन्य शब्दावली का एक शब्द है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानों इसका रिश्ता पाँच जनों की हत्या करने वाली से हो। दरअसल यह एक विशेषण, पद या उपाधि है जिसका अर्थ है बंदूक, भाला, ढाल, तलवार और तीर-कमान से सज्जित सैनिक या शिकारी पशु। यहाँ अभिप्राय मुख समेत चारों पंजों के ज़रिये शिकार को चीर-फाड़ करने से है। पंच से तो पाँच स्पष्ट है, हत्यारी क्या है ? दरअसल मराठी में हथियार को हत्यार ही लिखते और बोलते हैं। ‘पंचहत्यार’ का तात्पर्य पाँच हथियारों से है। हिन्दी में ‘हत्यार’ का आशय ‘हत्यारा’ से है और हत्यारी यानी हत्या करने वाली स्त्री।
ऐसे ही बनती है। मराठी में हथियार की 'थ' ध्वनि से 'ह' का लोप होकर 'त' शेष रहा। मध्य वर्ण 'य' चूँकि अन्तस्थ व्यंजन है इसलिए 'त' में निहित 'इ' स्वर य से जुड़ गया और 'त' का बर्ताव अर्धव्यंजन की तरह होने से हथियार का देशी रूप ‘हत्यार’ हुआ। उधर हिन्दी का ‘हत्यार’ दरअसल ‘हत्यारा’ से बन रहा है। इसके मूल में ‘हत्या’ है। जिसका अर्थ किसी के प्राण लेना है। संस्कृत के हत से हत्या का रिश्ता जोड़ा जाता है। वैसे वैदिकी में ‘हथ’ शब्द भी है जिसका अर्थ है मारना, जान लेना, धकेलना, वार करना आदि। इस हथ से साबित होता है कि वैदिक संस्कृत में भी हस्त से ‘हथ’ रूप बन चुका था जिसमें हाथ से सम्बन्धित का भाव था। गौर करें हथियार का रिश्ता दरअसल ‘हाथ’ से नज़र आता है। प्राकृत में ‘हत्थ’ शब्द का अर्थ हाथ है। ‘हत्थ’ का संस्कृत या वैदिक रूप ‘हस्त’ है। ये दोनों शब्द हिन्दी के हाथ के पुरखे हैं। हथेली, हथौड़ी, हत्था, हाथी जैसे अनेक शब्दों के मूल में हस्त ही है। ‘हथिया’ में ‘आर’ प्रत्यय लगने से हथियार बना जिसमें ऐसे उपकरण का आशय है जिसे हाथ में पकड़ कर या हाथों से फेंक कर कोई काम किया जाए या किसी पर घात किया जाए। मूलतः हथियार में शस्त्र का भाव है।
थियार हिन्दी का बहुप्रयुक्त शब्द है। शस्त्रास्त्रों के लिए इसका इस्तेमाल आम है। मराठी में इसकी प्रकृति बदल गई और यह ‘हत्यार’ हो गया। हथियार से जुड़े कई मुहावरे प्रचलितहैं जैसे हथियार डालना यानी पराजय स्वीकार करना, हथियार चलाना यानी लड़ाई छेड़ना, हथियार बांधना या हथियार लगाना यानी संघर्ष के लिए सुसज्ज होना। चलताऊ या बाज़ारू हिन्दी में ‘हथियार’ शब्द का प्रयोग पुरुष जननेन्द्रिय के लिए भी होता। हथिया से ही ‘हथियाना’ क्रिया भी बनती है जिसका अर्थ है जबर्दस्ती कब्ज़ा करना, अपने स्वामित्व में लेना आदि।

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Monday, December 31, 2012

चक, चकला, चकलादार

chakla-tokenहिन्दी के तीन चकले-2

क्र का चकला रूप मूलतः हिन्दी, पंजाबी में है । हिन्दी के चकला में चपटा, गोल, वृत्ताकार वाले आशय के साथ साथ प्रान्त का भाव भी है जबकि पंजाबी चकला में वृत्ताकार, गोल, घेरदार, विस्तीर्ण के साथ साथ शहर का खुला चौक, ज़िला अथवा वेश्यालय का आशय भी है । ज़ाहिर है ये फ़ारसी का असर है । भाषायी स्तर पर नहीं बल्कि मुस्लिम शासन का प्रभाव । विभिन्न संदर्भों से पता चलता है कि चकला मूलतः मुस्लिम शासन के दौरान भूप्रबन्धन, उपनिवेशन और राजस्व सम्बन्धी मामलों की शब्दावली से निकला है । चकला व्यवस्था से तात्पर्य एक राजस्व ज़िले से था । राजस्व अधिकारी चकलादार कहलाता था जिसे नाज़िम भी कहते थे । चकला में स्थानवाची भाव प्रमुख है । इसमें ‘चक’ में निहित तमाम आशय तो शामिल हैं ही, साथ ही आबादी और बसाहट का भाव भी है  । जिस तरह कई आबादियों के साथ चक नाम जुड़ा नज़र आता है ( रामपुर चक या चक बिलावली ) वही बात चकला में भी है जैसे मीरपुर चकला या चकला-सरहिन्द और दर्जनों ऐसे ही अन्य स्थानों के नाम । विभिन्न संदर्भों में चकला का अर्थ सर्किल, वृत्त, खण्ड या भाग होता है ।
मुस्लिमकाल की सरकारी भाषा अर्थात फ़ारसी में चकला यानी एक सब डिवीज़न या उपखण्ड जिसके अधीन कई परगना होते थे । आज इसे अनुभाग, उपवृत्त, उपखण्ड की तरह समझा जा सकता है । ख्यात इतिहासकार इरफ़ान हबीब के अनुसार क्षेत्रीय इकाई के रूप में चकला का संदर्भ शाहजहाँ के शासनकाल से मिलना शुरू होता है । परगना व्यवस्था के साथ साथ चकला व्यवस्था भी कायम थी । मुग़ल काल में लगभग समूचे उत्तर भारत में कई गाँवों के समूहों को पुनर्गठित कर उन्हें चकला कहा जाता था । चकले का प्रमुख नाज़िम, चकलादार या भूयान कहलाता था । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि मुग़ल दौर में अलग-अलग राज्य इकाई को ‘सरकार’ का दर्ज़ा प्राप्त था । ‘सरकार’ या ‘सिरकार’ अर्थात एक राज्य शासन । एक ‘सरकार’ कई छोटी राजस्व इकाइयों में बँटी होती थी जो चकला कहलाती थीं । पूर्वी भारत में एक चकले का आकार मुग़ल सरकार (प्रशासनिक इकाई) का छठा हिस्सा होता था । शेरशाह सूरी शासित क्षेत्र को 47 सरकारों में बाँटा गया था । एक अन्य संदर्भ के अनुसार मुर्शिदकुली खाँ के ज़माने में बंगाल को 13 चकलों में बाँटा गया था ।
कोठे के अर्थ में भी चकला शब्द का स्थानवाची आशय ही उभरता है । देहव्यापार केन्द्र के रूप में चकला शब्द कैसे सामने आया इसे जानने से पहले यह समझ लेना ज़रूरी है कि प्राचीनकाल से ही समाज के प्रभावशाली तबके द्वारा देह व्यापार को प्रश्रय दिया जाता रहा है । शासन, सामंत, श्रेष्ठीवर्ग ने वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया । सत्ता का जैसे-जैसे विकास होता गया, स्त्री-देह राजतन्त्र का एक विशिष्ट उपकरण बनती चली गई । वेश्यावृत्ति या देहव्यापार के पीछे स्त्री की मजबूरी नहीं बल्कि उसे ऐसा करने के लिए विवश किया गया । ब्राह्मणों-पुरोहितों नें इसके लिए न जाने कितने विधान-अनुष्ठान रचे । धर्म से लेकर कर्म तक स्त्री जकड़ी हुई है । वैसे भी स्त्री के रूप-लावण्य के आगे उसकी जाति-धर्म-वर्ण को ब्राह्मणों-पुरोहितों ने गौण माना है । विवाह, संतानोत्पत्ति आदि मुद्दों पर भी उपविधान रच कर पुरोहित समाज ने श्रेष्ठियों के लिए किसी भी वर्ण की स्त्री को सुलभ बनाया । देवदासी, नगरवधु का दर्ज़ा देकर सत्ता ने उसे विशिष्ट बना दिया और गणिका, वेश्या कह कर श्रेष्ठी वर्ग ने उसे बाजार में बैठा दिया । कभी कूटनीतिक दाँवपेच का हिस्सा बनी स्त्री देह कालान्तर में निरन्तर युद्धरत शूरवीरों की यौनपिपासा को शान्त करने का ज़रिया बनी । सेनाओं के साथ सरकारी खर्चे पर वारांगनाओं का काफ़िला भी चला करता था ।
हिन्दी शब्दकोशों में चकला का अर्थ वृत्त, चौका, रोटी बेलने का गोल, सपाट पत्थर, राज्य, सूबा, इलाक़ा, क्षेत्र के अलावा देहव्यापार का अड्डा, तवाइफ़खाना, वेश्यालय आदि बताया गया है । चकला के स्थानवाची आशय के साथ इसमें कसबीनों, तवाइफ़ों और जिस्मफ़रोशी के डेरों की अर्थवत्ता पश्चिमोत्तर सीमान्त क्षेत्र की बोलियों में स्थापित हुई होगी, ऐसा लगता है । गाँव, सूबा, इलाक़ा के लिए चक़, चक़ला जैसे शब्द फ़ारसी, पश्तो, पहलवी, बलूची, सिंधी के अलावा अनेक पश्चिमी बोलियों में मिलते हैं । मुग़ल फ़ौजों के लिए वेश्याओं की अलग जमात चलती थी । यही नहीं मुग़ल दौर में यह पेशा काफ़ी फलाफूला । चकला, रंडीखाना, ज़िनाख़ाना, ज़िनाक़ारी का अड्डा, तवाइफ़ख़ाना, कोठा जैसे कितने ही पर्यायी शब्दों की मौजूदगी से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है जो मुग़लदौर में प्रचलित थे । यही नहीं फ़ौजी चकला, रेजिमेंटल चकला जैसे शब्दों से भी इसकी पुष्टि होती है कि पहले मुग़ल दौर में और फिर औपनिवेशिक दौर में सामान्य चकला आबादी से इन चकलों को पृथक करने के लिए इनके आगे फौजी या रेजिमेंटल जैसे विशेषण लगाए गए । गौरतलब है कि दो सदी पहले तक यूरोप में भी मिलिटरी ब्रॉथेल जैसी व्यवस्था प्रचलित थी । रेजिमेंटल चकला भी वही है । ये सरकारी चकले होते थे ।
क़रीब सवा सौ साल पहले एलिजाबेथ एन्ड्र्यू और कैथरीन बुशनैल द्वारा लिखी गई पुस्तक - “द क्वींस डॉटर्स इन इंडिया” में फ़िरंगियों की सरपरस्ती में चलते ऐसे ही वेश्यालयों की दारुण गाथा बयान की गई है । क़िताब में इन अड्डों के लिए चकला शब्द का प्रयोग ही किया गया है । किताब बताती है कि ब्रिटिश दौर की हर अंग्रेज छावनी में चकला होता था जहाँ के रेट भी सरकार ने फिक्स किए हुए थे । चकलों के बारे में किताब में लिखा है कि, “In the regimental bazaars it is necessary to have a sufficient number of women, to take care that they are sufficiently attractive, to provide them with proper houses, and, above all, to insist upon means of ablution being always available.” ध्यान रहे रेजिमेंटल बाजार यानी छावनी बाजार जिनकी मूल पहचान रूपजीवाओं के डेरों यानी चकलों की वजह से ही थी । कृ.पा. कुलकर्णी के ‘मराठी व्युत्पत्ति कोश’, रॉल्फ़ लिली टर्नर की 'ए कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़’ के मुताबिक चकला शहर का केन्द्रीय स्थान भी है । शहर के मध्य स्थित वृत्ताकार क्षेत्र, बाज़ार, पीठा, कोई भी गोलाकार बसाहट, अड्डा, दुकान, चौक आदि । यह मध्यवर्ती बसाहट ही कोठों का इलाक़ा यानी चक़ला था । किसी ज़माने में चक़ला तवाइफ़ों की बस्ती थी । बाद में चकला एक पेशे का पर्याय भी हो गया । कुछ लोग चक़ला और कोठा को एक मानते हैं । चक़ला शुरू से ही देह व्यापार केन्द्र रहा है जबकि कोठा महफ़िलों से आबाद होता था । चकला क्षेत्र था, कोठा इमारत थी । 
संदर्भों के मुताबिक मुग़ल बादशाहों ने जहाँ-जहाँ अपने स्थायी पड़ाव और लश्कर आदि रखे वहाँ तवायफ़ों और वेश्याओं को बसाया । जब लश्कर और पड़ाव जैसी आबादियाँ स्थायी बस्तियों में तब्दील हुईं तो वहाँ क़िलों की तामीर की गईं । फौज़ी और सरकारी अमलों की दिलज़ोयी के लिए इन नाचने-गानेवालियों, डेरेदारनियों, वेश्याओं को स्थायी ठिकाना बनाने के लिए जगह दी गईं । इन्हें भी चकला कहा गया । ये बसाहटें प्रायः छोटी गढ़ियों के बाहर और बड़े क़िलों में मुख्य बाज़ार से जुड़े हिस्सों में होती थीं । गौर करें चावड़ी बाज़ार शब्द पर । यह भी औपनिवेशिक दौर का शब्द हैं । चावड़ी यानी शहर के मध्य स्थित मुख्य चौराहा या चौक । इन्हें ही चावड़ी बाजार chawri bazar कहा गया। धनिकों के मनोरंजन के लिए ऐसे ठिकानों पर रूपजीवाओं के डेरे भी जुटने लगते हैं । इसीलिए चावड़ी बाजार शब्द के साथ तवायफों का ठिकाना भी जुड़ा है । ग्वालियर के चावड़ी बाजार की भी इसी अर्थ में किसी ज़माने में ख्याति थी । स्पष्ट है कि वेश्यालय के अर्थ में रसोई का चकला या स्थानवाची चकला में सिर्फ़ वृत्ताकार लक्षण की ही समानता है । स्थाननाम के साथ जुड़े चकला शब्द में पहले सिर्फ़ भूक्षेत्र का भाव था । बाद में इसमें बसाहट या आबादी का आशय जुड़ा । ब्रॉथेल की अर्थवत्ता वाले चकले में भी मूलतः आबादी, बसाहट का भाव था, न कि देहव्यापार का । समाप्त [ पिछली कड़ीः हिन्दी के तीन चकले-1]

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चक्र, चक्कर, चरखा

हिन्दी के तीन चकले-1circles
हिन्दी में तीन चकले बहुत प्रसिद्ध हैं । पहला ‘चकला’ है रसोई का जिसका साथ निभाता है बेलन । दूसरा ‘चकला’ स्थानवाची अर्थवत्ता रखता है जैसे चकला-खानपुर या नरवर-चकला । तीसरा चकला  है रूपजीवाओं का ठिकाना जो कला-व्यापार से ज्यादा देह-व्यापार के लिए कुख्यात है । तीनों ही तरह के चकलों का आज भी अस्तित्व है बल्कि ये भाषा-प्रयोग में भी बने हुए हैं । ये अलग बात है कि रसोई वाले चकले को छोड़ कर दोनो चकलों का सम्बन्ध भारत-ईरानी भाषा परिवार की फ़ारसी भाषा से है । गौरतलब है कि चक्कर, व्हील, साइकल, सर्कल जैसे शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध हैं और एक ही गर्भनाल से जुड़े हैं और इनका रिश्ता वैदिक / संस्कृत शब्दावली के ‘चक्र’ से है । चकले के भीतर दाखिल होने से पहले जायज़ा लेते हैं चक्र का । भाषाविदों का मानना है कि वैदिक चक्र का पूर्वरूप चर्क रहा होगा और इसी वजह से वे चक्र की ‘चर्’ क्रिया में निहित निरन्तर गति का भाव देखते है । निरन्तर गति सीधी दिशा में हमेशा मुमकिन नहीं है किन्तु वलयाकार परिभ्रमण करते हुए इस निरन्तरता को सौफ़ीसद सम्भव बनाया जा सकता है । इसी लिए ‘चक्र’ के पूर्वरूप ‘चर्क’ से निरन्तर ‘चर्’ ( चल् = चलना ) वाली क्रिया सिद्ध होती है । अक्ष पर चारों दिशाओं में घूमना ही ‘चक्र’ है ।

इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भाषाओं में रोमन ध्वनियां ‘c’ और ‘k’ के उच्चारण में बहुत समानता है और अक्सर ये एक दूसरे में बदलती भी हैं । इसी तरह अंग्रेजी का कैमरा camara, चैम्बर और हिन्दी का कमरा  एक ही मूल के हैं मगर मूल c (स) वर्ण की ध्वनि यहाँ अलग-अलग है । यह जानना ज़रूरी है कि ग्रीक और आर्यभाषाओं के ‘च’ और ‘क’ वर्णों से बनने वाले शब्दों में आपसी रूपान्तर होने की प्रवृत्ति है । भारोपीय धातु kand ( कैंड / कंद ) का एक रूप cand ( चैंड / चंद् ) भी होता है। इससे बने चंद्रः का मतलब भी श्वेत, उज्जवल, कांति, प्रकाशमान आदि है । डॉ. रामविलास शर्मा ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी’ में लिखते हैं - “संस्कृत चक्र का ग्रीक प्रतिरूप कुक्लॉस है । चक्र का पूर्वरूप चर्क होगा; वर्णविपर्यय से र् का स्थानान्तरण हुआ । कुक्लॉस का पूर्वरूप कुल्कॉस होगा; यहाँ भी वर्णविपर्यय से ल् का स्थानान्तरण हुआ । कुल्, कुर् क्रिया का पूर्वरूप घुर् होगा । कर्, सर्, चर् परस्पर समबद्ध हैं । सर्, चर् वाले रूप द्रविड़ भाषाओं में उल्लेखनीय हैं ।” एमिनो-बरो के द्रविड़ व्युत्पत्ति कोश के चुनींदा शब्दों के ज़रिये वे इसे साबित भी करते हैं मसलन । तेलुगु सारि (आवर्तन), सुरगालि (बवंडर), कन्नड़ सुळि, (घूमना), सुरुळि (छल्ला), तुलु सुळि (भंवर), सुत्तु (चक्कर खाना), तमिल चुर्रू ( चक्कर खाना), चूरई (बवंडर) आदि । किक्लोस से लैटिन के प्राचीन रूप में साइक्लस शब्द बना जिसका अंग्रेजी रूप साइकल cycle है । चक्र और साइकल एक ही है ।

वैदिक चक्र और बरास्ता अवेस्ता, पहलवी होते हुए फ़ारसी के चर्ख रूप में वर्णविपर्यय स्पष्ट नज़र आ रहा है । जिस तरह वैदिक ‘शुक्र’ से फ़ारसी में ‘सुर्ख़’ बनता है, ‘चक्रवाक’ का ‘सुरख़ाब’ होता है उसी तरह ‘चक्र’ से ‘चर्ख़’ बनता है । हिन्दी की पश्चिमी बोलियों में यही रूप सुरक्षित रहा और इससे ही गोल, वलयाकार यन्त्र के लिए ‘चर्ख’ शब्द बना जिसका एक रूप ‘चरख’ भी है । मानक बृहद हिन्दी कोश के मुताबिक फ़ारसी के ‘चर्ख़’ का अर्थ घूमने वाला गोल चक्कर, खराद, गोफन, तोपगाड़ी, रथ, करघा आदि होता है । करघे के लिए चरखा शब्द के मूल में चर्ख़ / चरख ही है । ध्यान रहे कलफ़ किए हुए विशाल आकार के सूती कपड़ों को चरख किया जाता है । दरअसल यह इसी चर्ख़ से निकला है । एक विशाल चरखी पर कपड़े को लपेटने की क्रिया ही चरख़ कहलाती है । ऐसा करने से कपड़े की सिलवटें दूर हो जाती हैं । पहिये या स्टीयरिंग को चक्का कहते हैं । चरखा, चरखी, चकरी, चक्की जैसे नाम पहिए, झूले, यन्त्र, उपकरण के होते हैं । सिर घूमने को चकराना कहते हैं । यह चक्कर से बना है । जो आपको चक्कर में डाल दे ऐसे व्यक्ति को ‘चक्रम’ की संज्ञा दी जाती है । चक्कर, चकराना, चकरम (चक्रम) जैसे शब्दों के मूल में चक्र ही है ।
हले जानते हैं ‘चक’ को जो फ़ारसी से हिन्दी में दाखिल हुआ । गाँव-देहात की जानकारी रखने वाले लोग ‘चक’ से खूब परिचित हैं । चक्र का ही रूपान्तर है चक जिसका अर्थ है ज़मीन का एक विशाल टुकड़ा । बड़ी आबादी से बसा हुआ क्षेत्र । कृषि भूमि या किसी भी किस्म की गोचर ज़मीन पर बसी आबादी । उपत्यका भूमि अथवा घाटी, दर्रा या तराई का क्षेत्र । व्यवस्थित बसाहट वाला गाँव । सतपुड़ा और मैकल पर्वत की तराई के एक क्षेत्र को बैगाचक कहते हैं । यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ बैगा जाति की दर्जनों बस्तियाँ हैं । किन्हीं गाँवों के नामों के साथ भी यह शब्द लगा रहता है जैसे चक-चौबेवाला या चक-माजरा । यहाँ चक का अर्थ है चक्र अर्थात घेरा, वर्तुल, वृत्त आदि । पुराने ज़मानें से ही दुनियाभर में उपनिवेशन होता आया है । कृषिभूमि और जलस्रोतों के इर्दगिर्द आबादियाँ बसती रहीं । घिरी हुई जगह पर लोग बसते रहे । प्रायः शक्तिशाली व्यक्ति या शासक अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए निर्जन स्थानों पर लोगों को बसाया करते थे । खेतों के निकट अनुपजाऊ भूमि पैमाइश कर लोगों को बाँट दी जाती थी । इसी तरह प्रत्येक परिवार को खेत भी दिए जाते थे । भूमि के चौकोर टुकड़ों की पैमाइश होती थी, मगर चारों ओर से घिरे होने की वजह से उन्हें चक्र अर्थात ‘चक’ कहा जाने लगा था । सिलसिलेवार राज्यसत्ता के विकास के बाद भूक्षेत्र के रूप में चक शब्द का प्रयोग रूढ़ हुआ होगा । राजस्व शब्दावली के अंतर्गत हिन्दी में चक की आमद फ़ारसी से मानी जाती है । यूँ भी कह सकते हैं कि भारत-ईरानी परिवार की पश्चिमोत्तर बोलियों में प्राकृत चक्क के कई रूप प्रचलित होंगे जिनका सम्बन्ध वैदिक ‘चक्र’ से था । ऐसे कई चक होते थे जो बस्तियों में तब्दील हो जाते थे । किसी एक के स्वामित्व वाला खेतों का समूह भी चक कहलाता है जो अलग अलग मेड़ों के बावजूद मूलतः भूमि का एक ही खण्ड हो। इसी कड़ी का शब्द है चकबंदी जिसका अभिप्राय भूमि का सीमांकन या हदबंदी है । छोटी जोतों वाले खेतों को मिलाना या बड़े खेत में तब्दील करना ही चकबंदी है।
चकले की चर्चा । चक्कर ( चक्र ) और साइकल एक ही है । इसी तरह चक्र और सर्कल भी एक ही है । cycle में ‘c’ के लिए ‘स’ के स्थान पर ‘च’ का उच्चारण करें तो हमें अंदाज़ होता है इन दोनों में ( चक्कर ) ज्यादा अंतर नहीं है । साइकल भी एक वृत्त है और चक्कर भी मूलतः एक वृत्त ही है । डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- संस्कृत में चक्र का एक ग्रीक प्रतिरूप और है- किरकॉस । ग्रीक भाषा में ही इसका एक वैकल्पिक रूप क्रिकॉस है । ‘कर’, ‘कल’ दोनो क्रियारूप ग्रीक में हैं । कॅर, कॉर, ये दोनो रूप उस भाषा में हैं । किरकॉस से इस बात की पुष्टि होती है कि कुक्लॉस का पूर्वरूप कुल्कॉस था । इसी प्रकार फ़ारसी चर्ख से इस बात की पुष्टि होती है कि संस्कृत चक्र का पूर्वरूप चर्क था । लैटिन किर्कुस (चक्र), किर्रुस (छल्लेदार बाल) का आधार कॅर है ।” जो भी हो, चक्र के पूर्वरूप चर्क की बात करें या र के ल रूपान्तर पर सोचें, चकला शब्द का रिश्ता चक्र से ही जुड़ता है । चक्र को अगर खोला जाए तो च-क-र हाथ लगता है । चकला में भी च-क-ल ध्वनियाँ हैं । 'र’ का रूपान्तर ‘ल’ में होता है और इस तरह सीधे सीधे चक्र से चकला ( बरास्ता चक्ल ) हासिल हो रहा है । रॉल्फ़ लिली टर्नर की कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ में चकला की व्युत्पत्ति संस्कृत के चक्रल से मानी है । भारत का ‘चकराला’ और पाकिस्तान के ‘चकलाला’ नाम के स्थानों के मूल में यही ‘चक्रल’ है । अन्य कोशों में भी चकला का रिश्ता चक्रल से जोड़ा गया है । यह चक्रल वही है जो अंग्रेजी में सर्कल है । अगर चक्र का पूर्व रूप चर्क माने तो अंगरेज़ी सर्कल के आधार पर इंडो-ईरानी परिवार में चर्कल जैसे रूप की कल्पना भी की जा सकती है अर्थात संस्कृत के चक्रल का पूर्ववैदिक बोलियों में चर्कल ( सर्कल सदृश ) जैसा रूप रहा होगा । सर्कल की कड़ी में सर्कस भी है । –जारी
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Saturday, October 27, 2012

‘दफा’ हो जाओ …

पिछली कड़ियाँ-kicked out1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.
मयवाची शब्दों की कड़ी में इस बार अरबी के ‘दफा’ शब्द की बात । रोजमर्रा की बोली भाषा में ‘बार-बार’ इस्तेमाल होने वाले शब्दों में ‘बार-बार’ का ‘बार’ भी शामिल है जैसे - ‘इस बार’, ‘उस बार’, ‘कई बार’, ‘हर बार’, ‘मेरी बारी’, ‘तेरी बारी’, ‘उसकी बारी’, ‘बारी-बारी’ आदि । इसी कड़ी में ‘बार’ का एक और पर्याय है ‘दफा / दफ़ा’ जिसका इस्तेमाल भी बार की तर्ज़ पर ही होता है मसलन ‘इस दफ़ा’, ‘उस दफ़ा’, ‘हर दफ़ा’, मगर ‘दफ़ा’ का इस्तेमाल और अलग अर्थों में भी होता है । किसी को चलता करने के लिए कहा जाता है “दफ़ा हो जाओ” । अगर कोई ‘दफ़ा’ होने को राज़ी न हो तो मुमकिन है कानून की ‘दफ़ा’ लगाने की नौबत आ जाए । ये सभी दफ़ा एक ही सिलसिले की कड़ियाँ हैं । दफ़ा का प्रयोग दफे की तरह भी होता है जैसे “पहली दफ़े…”।

हिन्दी में ‘दफ़ा’ शब्द का प्रयोग फ़ारसी के ज़रिए शुरू हुआ । फ़ारसी में इसकी आमद अरबी से हुई जिसमें इसका सही रूप ‘दफ्अ’ है । दफ़्अ की व्युत्पत्ति अरबी की d-f-a ( दा-फ़ा-ऐन ) त्रिअक्षरी धातु से हुई है । भाषाविज्ञानियों का मानना है कि मूलतः यह अक्कादी भाषा का शब्द है । अक्कादी में ‘प’ ध्वनि  है और अरबी में ‘फ’ है , ‘प’ नहीं । अक्कादी में इसका रूप d-p-a ( दा-पे-ऐन ) है जिसमें धकेलने ( बाहर की ओर ) की बात उभरती है । अरबी में दफ़्अ में भी धकेलने ( बाहर निकालने ) का भाव है । गौरतलब है कि संस्कृत की समयवाची क्रियाओं में भी गति, शक्ति, प्रवाह के आशय निकलते हैं । संस्कृत की वा-या क्रियाओं में गतिवाची भाव है मगर इनसे समयवाची शब्द भी बने हैं ।  अरबी के दफ़ा शब्द की अर्थवत्ता के नज़रिए से काफी पेचीदा है । कहीं यह प्रवाहवाची नज़र आता है और प्रकारान्तर से कही इसी वजह से इसमें समूहवाची अर्थवत्ता उभर आती है ।

फ़्अ का हिन्दी, फ़ारसी में दफ़ा रूप प्रचलित है । हिन्दी में नुक़ता नहीं होता तो भी दफा में नुक़ता लगाया जाना चाहिए । अलसईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक दा-फ़ा-ऐन में प्रवाह, झोंका, बौछार, धारा, धावा जैसे भाव हैं । इससे बने दफ्अ में धावा, हमला या चढ़ दौड़ने, टूट पड़ने के साथ-साथ बचाव करने, रोकने का आशय भी है । मराठी में भी दफा शब्द है । करीब साढ़े तीन सौ साल पहले शिवाजी ने पंडित रघुनाथ हणमंते से शासन-व्यवहार में प्रचलित अरबी-फ़ारसी शब्दों की सूची बनवाई थी ( राजव्यवहार कोश ), उसमें भी दफा शब्द का उल्लेख है । कृ.पा. कुलकर्णी के कोश के मुताबिक इसमें समय और पाली का आशय है साथ ही दफ़ा शब्द का अर्थ सेना की पंक्ति, टुकड़ी भी है । खासतौर पर घुड़सवार टुकड़ी का इसमें आशय है ।
हिन्दी-मराठी-गुजराती में दफ़ेदार एक उपनाम भी होता है जिसका रिश्ता मुग़लदौर की सैन्य शब्दावली से हैं । दफ़ा शब्द का अर्थ प्रभावी या ताक़तवर व्यक्ति भी है । फ़ैलन के कोश में इसका एक फ़ारसी रूप दफ़े  है जिसमें फौजी टुकडी, सेना का घुड़सवार दस्ता अथवा पैदल टुकड़ी का आशय है । इससे ही दफ़ेदार शब्द बना है अर्थात किसी सैन्य दल का सरदार । रियासती दौर में दफ़ेदार होना सम्मान की बात थी । जनरल से जरनैलसिंह और कर्नल से करनैलसिंह की तरह ही सैन्य जातियों में ‘दफ़ेदार’ नाम रखने की परम्परा भी रही है । गौर करें ये सभी आशय मूलतः अरबी के ‘दफ्अ’ में निहित प्रवाहवाची ( धकेलना ) अर्थ से ही विकसित हुए हैं । सेना की टुकड़ी धावा ही करती है । गति, वेग और प्रवाह को फौजी धावे के सन्दर्भ में समझा जा सकता है ।
फ़ा में निहित समय, बारी, समूह, धक्का, वेग, टुकड़ी, पिण्ड, हटाना, हमला जैसे तमाम अर्थों को देखने पर मूल दफ्अ में निहित धकेलने का आशय ही उभर कर आता है । ध्यान रहे  धकेलने की क्रिया से दबाव बनता  है । दबाव से जमाव पैदा होता है । यही बात दफ़ा में समूह, टुकड़ी, खण्ड, पिण्ड आदि की अर्थवत्ता पैदा करती है । अरबी में दफ़्अ का एक अर्थ हाथी की लीद ( पिण्ड )भी होता है । इसमें जमाव और धकेल कर बाहर निकाले जाने के भाव को समझा जाना चाहिए । फ़ौजी टुकड़ी के मुखिया को दफ़ेदार इसलिए कहा जाता है क्योंकि दफ़ा में समूह का भाव है । यह टुकड़ी दुश्मन की फोज को पीछे धकेलती है । तेजी से आगे बढ़ती है ।  छत्तीसगढ़ के कोयलांचल में मज़दूर बस्ती को दफाई कहा जाता है । यह दफाई मनुष्यों का समूह या दल ही है । स्टैंगास की अरेबिक डिक्शनरी के मुताबिक दफ़ाफ का अर्थ परिवार, बस्ती या समूह है । अरबी में जमाअत का अर्थ भी दल या समूह है । दलपति या दलनायक को जमाअतदार कहा जाता था । बाद में इसका रूपान्तर जमादार हो गया । कहने का तात्पर्य यही कि दफ़ेदार में जमादार का ही भाव है ।
फ़ा का हिन्दी-उर्दू में कालवाची अर्थ में ही ज्यादातर प्रयोग होता है । दफ़ा के समूहवाची अर्थ में ढलने की प्रक्रिया को समझने के बाद दफ़ा यानी बार-बार, बारी अर्थात turn, मौका अवसर, समय आदि भावों को समझना आसान है । समय की गति सीधी सपाट नहीं बल्कि घुमावदार है । दिन-रात 12-12 घंटों में विभाजित है और 24 घंटों बाद यही क्रम फिर शुरू होता है । सप्ताह सात दिन का और महिना तीस दिन का । एक अन्तराल के बाद फिर वही क्रम शुरू होता है । यह वृत्ताकार है । यह जो मुड़ कर लौटने की क्रिया  है, यही बारी या टर्न है । पहला क्रम खत्म होने के बाद फिर वही क्रम शुरू होने को बारी कहते हैं । इस तरह ‘बारी’ समय का वह अंश, हिस्सा या खण्ड है जिसकी पुनरावृत्ति हो रही है । ध्यान दें, पुनरावृत्ति में ‘वृत्त’ ही है जिसके मूल में वर् है । वर् में घुमाव है जिससे एक दिन के अर्थ वाला वार बन रहा है । वार का फ़ारसी रूप ही ‘बार बार’  वाला बार है । पुनरावृत्ति का वृत्त या मोड़ वही है जिसे ‘बारी’ कहते हैं, इसका आशय कालांश, कालखंड से भी लगाया जा सकता है । बारम्बारता के लिए दफ्अतन का प्रयोग भी होता है, जिसमें दफ्अ या दफ़ा साफ़ पहचाना जा सकता है। दफ़ा का बहुवचन दफ़ात होता है। उसमें ‘अन’ प्रत्यय जुड़ने से कर्मकारक दफ्अतन बनता है जिसका अर्थ है समय समय पर, अक्सर, हमेशा, बार-बार, बहुधा आदि।
ई समूह किसी न किसी बड़ी रचना के हिस्से होते हैं । सो दफ़ा एक टुकड़ी भी है, समूह भी है, जमाव भी है, दल भी है । कई इकाइयों से समूह बनता है और कई समूहों की स्थिति में हर समूह एक इकाई होता है । समूह के रूप में इकाई एक पिण्ड, खण्ड, अनुच्छेद, प्रभाग आदि है । दफ़ा का अर्थ अनुच्छेद, धारा, अनुभाग, भाग आदि भी होता है । न्याय व्यवस्था में दफ़ा शब्द का प्रयोग होता है । हिन्दी में जिसे धारा हैं, रियासती दौर में उसे दफ़ा कहा जाता था । आज भी यह प्रचलित है । दफ़ा 302 का आशय भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 से है । हिन्दी-उर्दू में दफ़ा ( दफ्अ ) शब्द का एक अर्थ दूर करना, चले जाने का आदेश देना । मूलतः इसमें धकेलने वाले भाव का विस्तार ही है । धकेलने की क्रिया में दूर करने का भाव है । व्यावहारिक रूप में यह तिरस्कार है । ‘दफ़ान हो जाओ,’ ‘दफ़ा हो जाओ’ वाक्यों में तिरस्कार की नाटकीय अभिव्यक्ति देखने को मिलती है । इसका प्रयोग खुद चले जाने जाने के लिए भी होता है जैसे “मैं तो दफ़ा होता हूँ”अगली कड़ी में-  ‘रफ़ा-दफ़ा’ की बात
इन्हें भी देखें-1.फसल के फ़ैसले का फ़ासला.2.सावधानी हटी, दुर्घटना घटी.3.क़िस्मत क़िसिम-क़िसिम की.4.चरैवेति-चरैवेति.5.दुर्र-ऐ-दुर्रानी.6.कमबख़्त को बख़्श दो !.7.चोरी और हमले के शुभ-मुहूर्त.8.मौसम आएंगे जाएंगे.9.बारिश में स्वयंवर और बैल.10.साल-दर-साल, बारम्बार.11.नीमहकीम और नीमपागल.12.कै घर , कै परदेस !.13.सरमायादारों की माया [माया-1] .14.‘मा’, ‘माया’, ‘सरमाया’
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Friday, September 21, 2012

मुनीमजी की खोजखबर

nawabसंबंधित शब्द-1.तहसीलदार. 2.वजीर. 3.वायसराय. 4.जागीरदार. 5.कानूनगो. 6.श्रीमंत. 7.नौकर. 8.चाकर. 9.मुसद्दी. 10.एहदी. 11.अमीर. 12.फौजदार. 13.क्षत्रप 

हि न्दी की खूबी है कि उसने अन्य भाषाओं से ख़ासतौर पर अरबी-फ़ारसी से आए शब्दों को उनके शुद्धतम रूप में स्वीकार किया है । बहुत कम शब्द ऐसे हैं जिनके देसी रूपों को बोल-चाल और लिखत-पढ़त में जगह मिली है अन्यथा अरबी-फ़ारसी के शब्दों को अलग से पहचाना जाता है । मुनीम भी ऐसे ही दुर्लभ शब्दों में है जिससे यह अंदाज़ नहीं लगता कि यह हिन्दी में अरबी से आयात हुआ है । आज़ादी के बाद सिनेमा और साहित्य ने मुनीम के ज़रिए ही औपनिवेशिक काल के संघर्षशील और शोषित समाज की तकलीफ़, बदक़िस्मती, दुश्वारी और दुर्दशा को उजागर किया । सामन्ती समाज के निरंकुश चरित्र को सामने लाने वाला कारिन्दा था मुनीम जिसकी संवेदना सिर्फ़ वसूली, कब्ज़ा और दोहन से जुड़ी थी । आम आदमी के लिए बुरे सपने समान था का मुनीम । कम्पनीराज में जब सामन्तों को नवाब की उपाधियाँ रेवड़ियों की तरह बँट रही थीं, तब उनके नायब की ज़िम्मेदारी इन्हीं मुनीमों ने बखूबी सम्भाली । मौकापरस्ती इनकी खूबी थी और वह दौर भी आया जब नवाबों की बदचलनी का फ़ायदा उठा कर कुछ मुनीम खुद नवाब बन बैठे । आख़िर नवाब, नायब और मुनीम में रिश्तेदारी जो ठहरी ।
सेमिटिक भाषा परिवार की एक धातु है नून-वाव-बा (n-w-b) । मूल रूप से इसमें घूमना, मुड़ना, परिवर्तन, लौटना, फिरना, बारी, बदली जैसे भाव हैं । अल सईद एम बदावी की अरेबिक इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ कुरानिक यूज़ेज़ में जिसके कब्ज़ा, वसूली, अधिग्रहण, दुर्दशा, विपत्ति, निरीक्षण जैसे अर्थ दिए गए हैं । सहायक या डिप्टी के अर्थ में हिन्दी में अरबी मूल का नायब शब्द भी प्रचलित है जो इसी धातु से जन्मा है । इसका अरबी रूप नाइब है । ध्यान दीजिए नून-वाव-बा की अर्थवत्ता पर जिसमें मूल रूप से स्थानापन्न का भाव उभर रहा है । कब्ज़ा या अधिग्रहण क्या है ? किसी ओर का काबिज हो जाना । सहायक, नायब या डिप्टी कौन है ? जो प्रमुख व्यक्ति के स्थान पर काम करे । किसी बदले काम करने वाला व्यक्ति ही नायब होता है । नायब का अर्थ है प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा तैनात अफ़सर । वरिष्ठ अधिकारी । नून-वाव-बा (n-w-b) घूमने, लौटने, मुड़ने के भावों का विस्तार मुआइना, निरीक्षण, बारी, अवसर, पाली, बदली में होता है और नायब की ड्यूटी में ये सभी काम शामिल हैं । किसी ज़माने में तहसील ही रियासतों की सबसे बड़ी ईकाई होती थी । तब तहसीलदार का रुतबा कलेक्टर का होता था । तहसीलदार का प्रमुख सहकारी नायब तहसीलदार कहलाता था । आज़ादी के बाद तहसील से ऊपर ज़िला बना और कलेक्टर, तहसीलदार से ऊपर हो गया । इस तरह तहसीलदार को डिप्टी कलेक्टर कहा जाने लगा । मगर नायब तहसीलदार अपनी जगह कायम रहा ।
सी तरह नवाब शब्द भी इसी कड़ी में आता है । नवाब की व्युत्पत्ति भी n-w-b से हुई है और इसका एक रूप नव्वाब भी है । आमतौर पर नवाब शब्द को हिन्दी में शासक, राजा या बादशाह का पर्याय समझा जाता है पर ऐसा नहीं है । नवाब दरअसल एक उपाधि है और यह नाइब (नायब) का रूपान्तर है । इस्लामी शासकों की मान्यता के मुताबिक दुनिया पर खुदा की बादशाहत है और वे महज़ उसके प्रतिनिधि हैं । नवाब इसी रूप में शासक शब्द का प्रतिनिधित्व करता है । नवाब में भी प्रतिनिधि, नुमाइंदा, अहलकार, मुख्तार जैसे भाव हैं । मुस्लिम शासकों ने कई सूबेदारों को नवाब की इज़्ज़त बख़्शी क्योंकि वे उस सूबे में केन्द्रीय सत्ता के प्रतिनिधि थे । राज्यपाल के अर्थ में भी नवाब शब्द प्रचलित रहा । अंग्रेजों ने भी नवाब की पदवियाँ बाँटीं । कई घरानों ने नवाब शब्द को पैतृक उपाधि की तरह अपने नाम के साथ जोड़ लिया । नवाबजादा, नवाबजादी जैसे शब्दों में मुहावरेदार अर्थवत्ता कायम हुई जिसका अर्थ था शानशौकत, दिखावापंसद औलादें । कुल आशय बिगड़ैल संतान से है ।
नून-वा-बा से बने मूल नाब शब्द में प्रतिनिधित्व, सूचना जैसे भाव हैं । उर्दू फारसी का नौबत शब्द हिन्दी में भी सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में शामिल है । नौबत आना, नौबत पहुँचना, या नौबत बजना जैसे मुहावरे खूब प्रचलित हैं। नौबत का सीधा सीधा मतलब है घड़ी, अवसर, बारी, दशा इत्यादि । इसका अन्यार्थ सचेत होना, सतर्क होना भी है क्योंकि बारी, घड़ी या अवसर एक तय आवृत्ति के बाद आता है जिसके लिए हम तैयार रहते हैं । इसी तरह नबाहा शब्द भी इसी कड़ी में आता है । नौबत वैसे अरबी ज़बान के नौबा से बना है जिसमें बारी, अवसर जैसे ही भाव थे मगर बाद में इसमें ईश्वर की आऱाधना (बारंबार), धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना जैसे भाव भी शामिल हो गए । इस रूप में समय का बोध कराने के नियत समय पर लिए नक्कारा बजाया जाता था जिसे नौबत कहा जाने लगा । आमतौर पर यह परंपरा ईश्वरआराधना के लिए सावधान करने के लिए थी मगर ऐसा लगता है कि राज्यसत्ता ने बाद में इसे अपना लिया। फिर समाज के प्रभावशाली व्यक्ति अपने घर के दरवाजे पर किसी भी किस्म की सूचना करने के लिए नौबत बजवाने लगे और बजानेवाला नौबती या नौबतचीं कहलाने लगा ।
मय चक्र पर गौर करें । सूरज का उगना, ढलना, फिर उगना । यह चक्र है । समय सूचक घड़ी के काँटे भी गोल घूमते हैं । यानी निरन्तर गति । हर बार उसी स्थान पर लौटना । स्थानापन्न होना । अरबी में घड़ी के लिए मुनब्बिह शब्द है । ‘मु’ उपसर्ग लगने से मुनीब शब्द बनता है । जॉन प्लैट्स की अ डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसारी मुनीब का अर्थ “to make (one) supply the place (of another),' iv of ناب (for نوب) 'to supply the place (of another)'), s.m. One who appoints a deputy; a patron; master; client; constituter; constituent;—one appointed to conduct a business, foreman, factor, agent, headman.” दिया गया है । ज़ाहिर है मुनीब सहायक भी है, मातहत भी है, नायब भी है । कार्यपालन अधिकारी की शक्तियाँ उसमें निहित होने के चलते वही सरपरस्त है, मालिक और प्रशासक भी है । मुस्लिम शासन के दौरान मुनीब ये सब काम करते थे । मूलतः राजस्व अधिकारी की तरह ये काम करते थे और दौरा करते थे । धीरे-धीरे इनका काम हिसाब-किताब देखने तक सीमित हो गया और इनकी हैसियत सामान्य बाबू की हो गई । मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश में मुनीब का अर्थ है प्रतिनिधि, नुमाइदः, अभिकर्ता, एजेंट या गुमाश्ता । जहाँ तक मुनीब के मुनीम में तब्दील होने का सवाल है, तो हमें अम्मा शब्द पर विचार करना चाहिए । हिन्दी में अन्त्य वर्ण में अनुनासिकता की वृत्ति है । अम्मा का एक रूप अम्ब भी है । यहाँ का लोप होकर ध्वनि शेष है । यही बात मुनीब के मुनीम रूप में भी हो रही है ।

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Monday, August 13, 2012

षड्यन्त्र का पर्दाफ़ाश

SKULL
हि न्दी की तत्सम शब्दावली के सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में ‘षड्यन्त्र’ का शुमार होता है । षड्यन्त्र के साथ सबसे खास बात यह है कि अपनी मूल प्रकृति में यह शब्द तत्सम शब्दावली का होते हुए भी इसका इन्द्राज संस्कृत के किसी कोश में नहीं मिलता । षड्यन्त्र यानी साजिश, भेद, अहितकर्म, फँसाना, अनिष्ट साधन, साँठगाँठ, कपट, भीतरी चालबाजी, दुरभिसन्धि, कुचाल, जाल बिछाना, दाँवपेच या कांस्पिरेसी इत्यादि । सभ्यता के विकास के साथ-साथ समाज में पेचीदापन बढ़ता रहा है । हर चीज़ में राजनीति का दखल नज़र आता है । राजनीति के साथ ही षड्यन्त्रों का चक्र शुरू हो जाता है । जिस तरह वक्त के साथ राजनीति का अर्थ भी बदलता चला गया उसी तरह सदियों पहले षड्यन्त्र का जो अभिप्राय था, आज उससे भिन्न है । आज तो राजनीति और षड्यन्त्र एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं । बल्कि यूँ कहें कि राजनीति शब्द धीरे-धीरे बोलचाल की हिन्दी से षड्यन्त्र को बेदखल कर देगा । “ज्यादा राजनीति मत करो”, “मेरे साथ राजनीति हो गई”, “वो बहुत पॉल्टिक्स करता है” जैसे वाक्यों का प्रयोग अक्सर षड्यन्त्र को व्यक्त करने में भी होता है ।

ड्यन्त्र हिन्दी शब्दसम्पदा की षट्वर्गीय शब्दावली का हिस्सा है जैसे षट्कर्म, षट्कार, षट्कोण आदि । षड्यन्त्र मूलतः ‘षट्’ + ‘यन्त्र’ से बना है । ‘षट्’ का अर्थ तो स्पष्ट है अर्थात छह । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक संस्कृत के ‘षट्’ से ही षट् > षष् > छ (प्राकृत) और छह (अपभ्रंश) के क्रम में हिन्दी के ‘छह’ का विकास हुआ है । संस्कृत में ‘ट’ का ‘य’ के साथ मेल होने पर अक्सर ‘ट’ ध्वनि , ‘ड’ में बदल जाती है । जैसे ‘जाट्य’ का ‘जाड्य’ ( जो जड़ है ) रूप भी प्रचलित है । संस्कृत के यन्त्र शब्द की बहुआयामी अर्थवत्ता है । ऐसा उपकरण जिससे उठाने, धकेलने, ठेलने, खोदने, काटने जैसी विविध क्रियाएँ सम्पन्न हो सकें । मूलतः यन्त्र में बल, शक्ति, साधन के भाव के साथ किन्ही वस्तुओं, क्रियाओं अथवा लोगों को काबू में करने के उपकरण, प्रणाली या विधि का आशय निहित है । काबू पाने, वश में करने जैसे भावों की अभिव्यक्ति होती है ‘नियन्त्रण’ शब्द से । इसमें छुपे यन्त्र को हम आसानी से पहचान सकते हैं । ‘यन्त्रण’ में रहित के भाव वाला ‘निः’ उपसर्ग लगाने से बनता है ‘नियन्त्रण’ जिसमें स्वयंचालित या किसी अन्य व्यवस्था के अधीन काम करने वाली वस्तु या व्यक्ति को अपने अधीन करने का आशय है ।
गौरतलब है कि प्रणाली या सिस्टम के अर्थ में मराठी का ‘यन्त्रणा’ शब्द ‘यन्त्रण’ से ही आ रहा है जबकि हिन्दी के ‘यन्त्रणा’ का प्रयोग कष्ट, संत्रास, दुख, पीड़ा, व्यथा को अभिव्यक्त करने में होता है न कि किसी व्यवस्था या प्रणाली के अर्थ में । ‘यन्त्र’ में ‘अन’ प्रत्यय लगने से बहुआयामी अर्थवत्ता वाला ‘यन्त्रण’ शब्द बना जिसमें प्रणाली, विधि या व्यवस्था के साथ-साथ पीड़ा, वेदना या व्यथा का भाव भी है । आशय ऐसी चीज़ से है जो एक खास तरीके से संचालित हो रही है । प्रश्न है यन्त्र से बने यन्त्रणा में संत्रास, पीडा या वेदना के भाव की क्या व्याख्या है । दरअसल यन्त्र में दबाव, काबू, जकड़न, कसना, बांधना जैसे भाव हैं । मशीन वाली यान्त्रिकता के तहत ये सभी भाव एक व्यवस्था से जुड़ते हैं या यूँ कहें कि यन्त्र किन्हीं कलपुर्जों, उपकरणों का समुच्चय है जो आपसे में गुँथे हैं, बन्धे हैं, कसे हैं, जकड़े हैं । किन्तु जब इन्हीं भावों के साथ यन्त्रणा शब्द बनता है तो उसका अर्थ जहाँ मराठी में जहाँ मशीनी व्यवस्था से लिया जाता है वहीं हिन्दी में यह सचमुच यातना से जुड़ता है । कोई भी बन्धन, कसाव, जकड़न या दबाव संत्रास, पीड़ा या कष्ट का कारण बनते हैं ।
न्त्र में भौतिक उपकरण के अलावा तान्त्रिक वस्तु या चिह्न का भाव भी है जैसे गंडा, ताबीज या यौगिक रेखाचित्र । कल्पित अतीन्द्रिय शक्तियों की आराधना के लिए तन्त्र-योग आदि शास्त्रों में कई तरह के प्रतीकों का प्रयोग होता है । ऐसा माना जाता है कि इनमें निहित शक्तियों के ज़रिये दूर स्थित शत्रुओं या विपरीत ताक़तों पर काबू पाया जा सकता है । बौद्धधर्म का अवसानकाल भारत में तन्त्र-मन्त्र और योगिक शक्तियों के अभूतपूर्व उभार का था । ‘षड्यन्त्र’ दरअसल मध्यकाल के इसी परिवेश से उपजा शब्द है । पूरवी बोली में षड्यन्त्र को ‘खड्यन्त्र’ भी कहते हैं । ‘ष’ का रूपान्तर ‘ख’ में होता है । ‘षड्यन्त्र’ अर्थात छह तरह की विधिया, प्रणाली या तरीके जिनके ज़रिये शत्रु को वश में किया जा सके । सीधी से बात है, यौगिक तन्त्र-मन्त्र का विस्तार ही जादू-टोना में हुआ । अलग-अलग पंथों के मान्त्रिकों के अपने अपने नुस्खे, मन्त्र और यन्त्र थे । हर कोई इनके ज़रिये बस षड्यन्त्रों में लगा रहता था । आज षड्यन्त्र को जिस अर्थ में प्रयोग किया जाता है उसमें बदले हुए परिवेश में कुचाल, दुरभिसन्धि या कांस्पिरेसी जैसे भाव हैं जबकि पुराने ज़माने में शत्रु पर विजय पाने के टोटके जैसा भाव इसमें था ।
ड्यन्त्र के तहत जिन छह विधियों का हवाला दिया जाता है वे हैं- 1.जारण 2. मारण 3. उच्चाटन 4. मोहन 5. स्तंभन और 6. विध्वंसन । ‘जारण’ का अर्थ जलाना या भस्म करना है । यह संस्कृत के ‘ज्वल्’ से निकला है । टोटका के रूप में हम झाड़-फूँक से परिचित हैं । यह जो फूँक है दरअसल इसमें अनिष्टकारी शक्तियों को भस्म करने का आशय है । ‘मारण’ यन्त्र का आशय एकदम स्पष्ट है । शत्रु का अस्तित्व समाप्त करने, उसे मार डालने के लिए जो जादू-टोना होता है वह ‘मारण’ कहलाता है । ‘उच्चाटन’ का अर्थ है स्थायी भाव मिटाना । वर्तमान परिस्थिति को भंग कर देना । उखाड़ना, हटाना आदि । विरक्ति, उदासीनता या अनमनेपन के लिए आम तौर पर हम जिस उचाट, दिल उचटने की बात करते हैं उसके मूल में संस्कृत का ‘उच्चट’ शब्द है जो ‘उद्’ और ‘चट्’ के मेल से बना है । उद्-चट् की संधि उच्चट होती है । ‘उद’ यानी ऊपर ‘चट्’ यानी छिटकना, अलग होना, पृथक होना आदि । ‘उच्चाटन’ भी इसी उच्चट से बना है जिसका अर्थ हुआ उखाड़ फेंकना, जड़ से मिटाना, निर्मूल करना आदि ।
ब ‘जारण’, ‘मारण’, ‘उच्चाटन’ जैसे यन्त्रों से काम नहीं बनता तो ‘मोहिनी विद्या’ काम आती है । ‘मोहन’ का अर्थ है मुग्ध होना । इसके मूल में ‘मुह्’ धातु है जिसका अर्थ है सुध बुध खोना, किसी के प्रभाव में खुद को भुला देना । अक्सर नादान लोग ऐसा करते हैं और इसीलिए ऐसे लोग ‘मूढ़’ कहलाते हैं । मूढ़ भी ‘मुह्’ से ही निकला है और ‘मूर्ख’ भी । ‘मोहन यन्त्र’ का मक़सद शत्रु पर ‘मोहिनी शक्ति’ का प्रयोग कर उसे मूर्छित करना है । श्रीकृष्ण की छवि में ‘मोहिनी’ थी इसलिए गोपिकाएँ अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं इसलिए उन्हें ‘मोहन’ नाम मिला । पाँचवी विधि है ‘स्तम्भन’ जिसका अर्थ है जड़ या निश्चेष्ट करना । यह ‘स्तम्भ’ से बना है । जिस तरह से काठ का खम्भा कठोर, जड़ होता है उसी तरह किसी सक्रिय चीज़ को स्तम्भन के द्वारा निष्क्रिय बनाया जाता था । षड्यन्त्र की छठी और आखिरी प्रणाली है ‘विध्वंसन’ अर्थात पूरी तरह से नाश करना ।
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Wednesday, August 8, 2012

जासूस की जासूसी

Spy

न्सान शुरू से बेहद फ़ितनासिफ़त रहा है । उसे सब कुछ जानना है । एक ओर धरती के पेट में क्या है, यह जानने और फिर उसे निकालने में वह दिन-रात एक किए रहता है, दूसरी तरफ़ चांद-सितारों के पार क्या है इसके लिए बेचैन रहता है । जो कुछ छुपा हुआ है, जो कुछ अदृष्ट है वह सब उसे देखना है, जानना है । जानने की यह चाह ही जासूस की राह बनती है । सामान्य जिज्ञासा रखने से समझदारी के दरवाज़े खुलते हैं और किन्हीं निजी दायरों के भेद जानने कोशिश से जासूसी की कहानी बनती है । इन दायरों की सीमा किसी देश की सरकार और राजनीतिक दल से लेकर घरानों, परिवारों और एक व्यक्ति विशेष तक भी सीमित हो सकती है । दुनिया के सबसे पुराना पेशा देहव्यापार कहा जाता है । हमारा मानना है कि जासूसी को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए ।
किसी के भेद लेना, टोह लेना, गुप्तचरी कराना जैसी क्रियाओं के लिए हिन्दी में जासूसी सबसे ज्यादा लोकप्रिय शब्द है । हिन्दी में जासूस शब्द की आमद फ़ारसी के ज़रिये हुई है मगर यह सामी मूल का शब्द है । अल सईद एम बदावी, अरबी-इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ़ कुरानिक यूज़ेज के मुताबिक इसका अर्थ हाथों से परीक्षण करना, जाँच करना, झाँकना, ढूँढना, तलाशना, टोह लेना, भेद लेना, छान-बीन करना जैसी बातें हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि ये सभी बातें किसी की निजता के दायरे में करने का आशय इस धातु में निहित है । आज आज जिस अर्थ में जासूस शब्द का प्रयोग होता है निश्चित ही उसका विकास राजनीति के इतिहास के साथ-साथ हुआ । जासूस शब्द अरबी की जीम-सीन-सीन धातु से बना है । बदावी ने इसके लिए j-s-s का प्रयोग किया है जबकि अन्द्रास रज्की इसके लिए g-s-s का प्रयोग करते हैं । हालाँकि दोनों ही स्थानों पर वर्ण का ही संकेत है ।
रबी मूल के जासूस की व्याप्ति कई सेमिटिक और भारोपीय भाषाओं में है जैसे तुर्की में जासुस, अज़रबेजानी में जासूस, स्वाहिली में जासिसी, उज़्बेकी में जोसस है । इसी कड़ी में अरबी का जस्सा शब्द भी है जिसका हिब्रू रूप गिशेश है जिसका अर्थ है परीक्षण करना । मूलतः जासूस शब्द का अर्थ भी छूना, टटोलना, महसूस करना, परीक्षण करना, जाँचना है । मराठी में जासूस को जासूद कहते हैं जिसका मूलार्थ संदेशवाहक, हरकारा या दूत है । जासूस के अर्थ में चोरजासूद शब्द है जो दरअसल गुप्तचर या भेदिया होता है । संदेशवाहकों की जोड़ी जासूदजोड़ी कहलाती है । मराठी में जासूस के लिए हेर, बातमीदार या निरोप्या शब्द भी हैं जबकि संस्कृत-हिन्दुस्तानी में एक लम्बी कतार नज़र आती है जैसे- अपसर्प, हरकारा, अवलोकक, अवसर्प, गुप्तचर, गुरगा, सूचक, गोइंदा, मुखबिर, दूत, चर, चरक, भेदिया, कासिद, जबाँगीर, चारपाल, जरीद, टोहिया, थांगी, पनिहा, प्रणिधि, वनमगुप्त, प्रवृतिज्ञ, वार्तायन, वार्ताहर, प्रतिष्क, संदेशवाहक आदि ।
जासूस के अलावा हिन्दी में भेदिया शब्द भी है जो बना है संस्कृत धातु भिद् से जिसमें दरार, बाँटना, फाड़ना, विभाजित करने जैसे भाव हैं । दीवार के लिए भित्ति शब्द इसी मूल से आ रहा है । कोई भी दीवार दरअसल किसी स्थान को दो हिस्सों में बाँटती है। एक समूचे मकान की दीवारें विभिन्न प्रकोष्ठों का निर्माण करती हैं । भेद, भेदन, भेदना जैसे शब्द भी भिद् से तैयार हुए हैं। रहस्य के अर्थ में जो भेद है उसमें दरअसल आन्तरिक हिस्से में स्थित किसी महत्वपूर्ण बात का संकते है जो उजागर नहीं है । ज़ाहिर है इस बात को रहस्य की तरह माना गया, इसलिए भेद का एक अर्थ गुप्त या रहस्य की बात भी है । भेद को उजागर करने के लिए उस स्थान पर भेदने की क्रिया ज़रूरी है, तभी वह गुप्त बात सामने आएगी । भेदिया शब्द भी इसी धातु से तैयार हुआ है जिसका अर्थ है जासूस, भेदने वाला । कई बार प्रकार, अन्तर, फर्क आदि के अर्थ में भी भेद शब्द का प्रयोग होता है । बात वही विभाजन की है । किसी चीज़ के जितने विभाजन होंगे, उसे ही भेद कहेंगे जैसे नायिका-भेद यानी नायिकाओं के प्रकार । फूट डालने के अर्थ मे भेद डालना मुहावरा भी प्रचलित है । “दीवारों के भी कान होते” हैं जैसी कहावत में दीवारों के पीछे छुपने वाले और वहाँ बसने वाले भेदों का ही तो संकेत मिलता है अर्थात दीवारे भी जासूसी करती हैं ।
संस्कृत का गुप्तचर शब्द हिन्दी की तत्सम शब्दावली में भी जासूस के अर्थ में मौजूद है । यह बना है गुप् धातु से जिसमें रक्षा करना, बचाना, आत्मरक्षा जैसे भाव तो हैं ही, साथ ही इसमें छुपना, छुपाना जैसे भाव भी हैं । गौर करें कि आत्मरक्षा की खातिर खुद को बचाना या छुपाना ही पड़ता है । मल्लयुद्ध के दाव-पेच दरअसल क्या हैं ? दरअसल अपने अंगों को आघात से बचाने की रक्षाविधि ही दाव-पेच है । रक्षा के लिए चाहे युद्ध आवश्यक हो किन्तु वहां भी शत्रु के वार से खुद को बचाते हुए ही मौका देख कर उसे परास्त करने के पैंतरे आज़माने पड़ते हैं। यूँ बोलचाल में गुप्त शब्द का अर्थ होता है छुपाया हुआ, अदृश्य । गोपन, गोपनीय, गुपुत जैसे शब्द इसी मूल से आ रहे हैं। प्राचीनकाल में गुप्ता एक नायिका होती थी जो निशा-अभिसार की बात को छुपा लेने में पटु होती थी । इसे रखैल या पति की सहेली की संज्ञा भी दी जा सकती है। गुप्ता की ही तरह गुप्त से गुप्ती भी बना है जो एक छोटा तेज धार वाला हथियार होता है। इसका यह नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि इसे वस्त्र-परिधान में आसानी से छुपाया जा सकता है ।
गुप्त और चर दोनों से मिलकर बना है गुप्तचर जिसका का शाब्दिक अर्थ हुआ छुप-छुप कर चलने वाला । गुप्तचर में जो मूल भाव है वह है खुद की पहचान को छुपाना न कि चोरी-छिपे चलना । खुद को छुपाने से बड़ी बात है खुद की पहचान को गुप्त रखते हुए लोगों के बीच रहना, उठना-बैठना । ये सब बातें “चर” में निहित हैं । राजनय और कूटनीति के क्षेत्र में गुप्तचरी का महत्व सर्वाधिक होता है जहाँ एक अध्यापक, एक चिकित्सक, एक सिपाही, एक सब्ज़ीवाला, नाई, गृहिणी गर्ज़ यह कि कोई भी जासूस हो सकता है । यही है गुप्तचर का असली अर्थ ।
इसे भी देखें- जासूस की जासूसी

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Thursday, June 28, 2012

मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [2]

पिछली कड़ी-मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [1]

ब आते हैं चाकर / चाकुर पर । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर की तुलना में अल्प प्रचलित है अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ शब्दयुग्म का बहुधा प्रयोग होता है । अकेले ‘चाकर’ का इस्तेमाल हिन्दी की लोकबोलियों में ज्यादा होता है, परिनिष्ठित हिन्दी में कम । दरअसल यह शब्दयुग्म एक व्यवस्था का नाम है जिससे सेवकों के वरिष्ठता-क्रम का पता चलता है । उच्च स्तरीय सेवक ‘नौकर’ के दायरे में आते हैं जैसे मुंशी, गुमाश्ता आदि और निम्नस्तरीय सेवक ‘चाकर’ जैसे रसोइया अथवा माली । मध्यकाल में ‘नौकर’ को मुसाहब समझा जाता था जबकि ‘चाकर’ की श्रेणी में टहलुआ और भृत्य आते हैं । ये अलग बात है कि अब ‘नौकर’ और ‘चाकर’ में कोई अंतर नहीं है ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास सम्बन्धी विविध ग्रन्थों में ‘चाकर’ को तुर्की-फ़ारसी मूल का ही बताया गया है । सेवक के अर्थ में ‘चाकर’ का रिश्ता संस्कृत के ‘चक्र’ से किसी ने नहीं जोड़ा है । मराठी में भी ‘चाकर’ शब्द का इस्तेमाल होता है और मित्र, स्नेही, सोहबती जैसे विशिष्ट अभिप्रायों से गुज़रता हुआ यह सेवक, भृत्य में अर्थान्तरित हुआ है । ईरानदोख़्त और विकीपीडिया के मुताबिक घरेलु सेवक को ‘चाकर’ बताया गया है और हिन्दी में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । ‘चाकर’ शब्द हिन्दी में नौकर जितना प्रचलित नहीं इसकी गवाही हॉब्सन-जॉब्सन कोश में भी मिलती है । हेनरी यूल लिखते है कि ‘चाकर’ शब्द का स्वतंत्र प्रयोग अब कम हो गया है । ध्यान रहे यह कोश एक सदी पहले प्रकाशित हुआ था यानी उस वक्त के एंग्लो-इंडियन समाज में ‘चाकर’ शब्द का प्रयोग कम हो चुका था, अलबत्ता ‘नौकर-चाकर’ मुहावरा आज की तरह ही ठाठ से डटा हुआ था ।
स्ट इंडिया कम्पनी द्वारा 1855 में प्रकाशित और एच.एच. विल्सन द्वारा सम्पादित ‘ए ग्लॉसरी ऑफ जुडिशियल एंड रेवेन्यु टर्म्स’ में चक्र से सम्बन्धित गोल, घेरा, दायरा जैसे अर्थों वाले अनेक शब्द दर्ज़ हैं जैसे चकबंदी, चक, चकबंदी, चाक, चकरी, चकली, चाकी, चक्का आदि । इसी सूची में शामिल ‘चाकर’, ‘चाकुर’ का इन्द्राज भी मिलता है जिसे फ़ारसी मूल का बताते हुए इसका अर्थ सेवक दिया गया है । मुग़ल दौर में बंगाल प्रान्त की राजस्व व्यवस्था में करमुक्ति के संदर्भ में ‘चाकरान’, ‘पीरान’, ‘फ़क़ीरान’ जैसी शब्दावलियाँ थीं जिसका आशय ऐसी ज़मीनों की आय को करमुक्त करने से था जिनसे चाकरों, पीरों या फ़कीरों का पोषण होता था । ‘नुकुर’ या ‘नौकर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की ‘चाकुर’ में भी योद्धा का ही भाव है । याकोव लेव सम्पादित ‘वार एंड सोसाइटी ऑफ़ ईस्टर्न मेडिटरेनियन’ में कहा गया है कि मंगोल ‘नुकुर’ की तरह ही तुर्की में ‘चाकुर’ शब्द का प्रयोग सरदार के प्रमुख योद्धा, सहयोगी अथवा अंगरक्षक होता था ।
लेना बोइकोवा और रोस्तीस्लाव रिबाकोव लिखित ‘किनशिप इन द आल्ताइक वर्ल्ड’ में ‘चाकुर’ शब्द पर विस्तार से चर्चा की है । ‘चाकुर’ शब्द चीनी मूल से उठकर तुर्की में आया और फिर सोग्दियन भाषा के जरिये ईरान की अन्य ज़बानों में भी गया । सोग्दियन भाषा तुर्को-ईरानी परिवार की प्राचीन भाषा है । ‘चाकुर’ का अर्थ है खाकान की रक्षा करने वाला प्रमुख बहादुर योद्धा या अंगरक्षक । ‘नुकुर’ की ही तरह ही कभी कभी ‘चाकुर’ भी राजवंश से जुड़े लोग ही होते थे और उन्हें खाकान के खास सहकारी की जिम्मेदारी दी जाती थी । धीरे धीरे यह संस्था कमजोर होती गई । ‘नुकुर’ जैसा हश्र ही ‘चाकुर’ का भी हुआ । खुद को ‘चाकुर’ कहने में गौरव महसूस करने वाले कुछ समूह आज भी अफ़गानिस्तान, ईरान, उत्तर – पश्चिमी पाकिस्तान में हैं ।
लूचिस्तान के लोग पंद्रहवीं सदी में हुए महान बलूच योद्धा मीर ‘चाकुर खान’ को देवता की तरह पूजते हैं । यहाँ का रिन्द कबीला खुद को ‘चाकुर’ या ‘चाकर’ कहता है । ये लोग जबर्दस्त लड़ाके होते हैं । पंद्रहवीं सदी के इस महान नायक का नाम ‘चाकर खान’ या ‘चाकुर खान’ उसी तरह है जिस तरह तुर्की शब्द ‘बहादुर’ का प्रयोग होता है । चाकर एक सम्बोधन, उपाधि या पद था इसका पता इससे भी चलता है कि बलूचियों ने उसे ‘चाकरे-आज़म’ भी कहा जाता है । अर्थात चाकरों में सर्वश्रेष्ठ । ज़ाहिर है चाकर अगर चक्र से जन्मा और चक्कर लगाने को अभिषप्त सेवक है तो उनके मुखिया के लिए ‘चाकरे-आज़म’ जैसा नाम तो लोकप्रिय नहीं होगा । ‘चाकर’ में निहित योद्धा की अर्थवत्ता ही यहाँ उभर रही है । अर्थात ‘नायक योद्धा’ । नाम के साथ गुलाम या दास लगाने की चर्चा ऊपर हो चुकी है । गौर तलब है दायरा, घेरा के अर्थ में बलूच भाषा में भी ‘चाकर’ शब्द की स्वतंत्र अर्थवत्ता है, मगर उसका रिश्ता योद्धा ‘चाकर’ से कहीं नहीं जोड़ा गया है ।
भारत में इस्लामी शासन का सबसे लम्बा दौर मुग़लों का रहा है जो तुर्क़ थे । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि बाबर के खानदान में फ़ारसी नहीं बल्कि तुर्की बोली जाती थी । मुग़ल शब्द मंगोल का अपभ्रंश है । स्पष्ट है कि मुग़ल कुटुम्ब तुर्क़ और मंगोल जातीय पहचानवाला था । ज़ाहिर है मंगोलों की ‘नुकुर’ और उसी तर्ज़ पर बनी तुर्कों की ‘चाकुर’ जैसी संस्थाओं की अलग पहचान मुग़लों के यहाँ एक हो गई और कालान्तर में सेवकवर्ग के तौर पर ‘नौकर-चाकर’ का प्रयोग मुग़लों ( सीमित अर्थ में शासक परिवार नहीं, वरन समूचा मुग़ल समाज ) के यहाँ हुआ । इसी मुहावरेदार अर्थवत्ता को हिन्दी की पूर्ववर्ती शैलियों ने भी अपनाया । यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी के बुनियादी शब्द भण्डार में अरबी, तुर्की, फ़ारसी के शब्द बड़ी संख्या में हैं । आम हिन्दी भाषी के लिए इनकी शिनाख़्त करना आसान नहीं है और इसकी ज़रूरत भी नहीं है । साहब, हजूर, फिकर, बाजू, मरजी, हाजिरी जैसे कितने ही शब्द मध्यकालीन कवियों की रचनाओं में रवानी के साथ इस्तेमाल हुए हैं । मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ महाकाव्य फ़ारसी लिपि में लिखा था । सिर्फ़ इस वजह से उसे फ़ारसी साहित्य की कृति तो नहीं मान लिया गया ? पद्यावत हिन्दी साहित्य का स्तम्भ है । इसी तरह चौदहवीं सदी में हुए मीरा या कबीर के साहित्य में चाकर शब्द का प्रयोग मिलता है तो सिर्फ़ इसी वजह से इसे हिन्दी आधार से उपजा नहीं कहा जा सकता ।
भारतीय संदर्भों में ‘चाकर’ के विदेशज मूल का होने के बारे में सबसे पुख़्ता साक्ष्य ख़ुसरो की ‘ख़ालिकबारी’ से मिलता है । अमीर खुसरो के साहित्यिक व्यक्तित्व की पहचान सिर्फ़ कवि की नहीं है बल्कि वे एक कोशकार भी थे । फ़ारसी-तुर्की और हिन्दी का छंदबद्ध कोश ‘खालिक-बारी’ अब निर्विवाद रूप से खुसरो की रचना माना जाता है । हिन्दी कोशों की परम्परा में यह काफ़ी पुराना कोश है । करीब बारह सौ शब्दों के अर्थ बताने वाले इस कोश का निर्माण खुसरो ने तेरहवीं सदी में किया था । सन् खुसरो का जन्म ईस्वी 1252-53 माना जाता है । खुसरो के पिता तुर्क थे जबकि माँ एक नवमुस्लिम मगर मूलतः हिन्दू आचार-विचार वाले परिवार से ताल्लुक रखती थीं जहाँ हिन्दी का चलन था । खुसरो के नाना अमादुल्मुल्क ने इस्लाम कुबूल कर लिया था । अपने नाम के आगे वे राजपूतों की उपाधि रावल लगाते थे । यहाँ हम खालिक-बारी, अमीर खुसरो और उनके परिवार के बारे में जिन तथ्यों का ज़िक्र कर रहे हैं, चाकर को तुर्की-फ़ारसी मूल का सिद्ध करने के संदर्भ में उनका महत्व है ।
खालिक-बारी में ‘चाकर’ शब्द के बारे में भी खुसरो ने लिखा है- दूद काजल सुर्मह् अंजन कीमत मोल । चाकर सेवक बंदह चेरा क़ौल सो बोल ।। इस पद की व्याख्या में खुसरो ने चाकर शब्द को फ़ारसी का बताया है । देखें- [ दूद ( फ़ा., धुआँ, धुंध) = काजल (सं. कज्जल) सुर्मह् ( फ़ा., सुर्मा ) = अंजन (हिन्दी)। क़ीमत ( अरबी ) = मोल ( हिं. सं. मूल्य) । चाकर (फ़ा. नौकर ) = सेवक ( हिं )। बंदह् ( फ़ा. सेवक) = चेरा ( हिं. सेवक ) । क़ौल ( अर., वचन = बोल ( हिं.) ] कुछ पीढ़ियों से भारत आकर बस चुके और उस दौर के अरब, तुर्क और ईरानी लोगों के लिए भारतीय परिवेश में संवाद स्थापित करने के लिए बोलचाल की ज़बान जानना ज़रूरी था । खालिक-बारी मूलतः ऐसे ही लोगों के लिए की गई रचना थी । गौरतलब है कि तेरहवीं सदी में खुसरो इस अनूठे कोश में चाकर शब्द को बतौर सेवक का पर्याय समझा रहे थे, यह समझना मुश्किल नहीं है कि उस वक्त की हिन्दी ( लोकबोली ) में ‘चाकर’ की रच-बस नहीं हुई थी ।
ह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि खुसरो अपने ननिहाल से हिन्दू संस्कारों वाले थे । उनके नाना नवमुस्लिम थे और उनका पूरा परिवार रावल उपनाम लगाता था । ज़ाहिर है ख़ुसरो खूब जानते थे कि कौन सा शब्द हिन्दी का है और कौन सा फ़ारसी का । उस ज़माने में चाकर शब्द आमफ़हम नहीं था इसीलिए खालिकबारी में खुसरो नें सेवक शब्द से परिचय कराने के लिए तुर्की-फ़ारसी के चाकर को चुना जो कि उस दौर के तुर्क-मुस्लिमों में आम चलन में था । यह कहा जा सकता है कि क्या ख़ुसरो चाकुर के तुर्की मूल को नहीं जानते थे जो उन्होंने इसे फ़ारसी शब्द बताया है । इस पर इतना ही कह सकते हैं कि खुसरो विद्वान थे पर भाषा विज्ञानी नहीं । सदियों पहले तुर्की से फ़ारसी में आ बसे इस शब्द को उन्होंने फ़ारसी का ही माना है । इसके उलट देखें कि ‘चाकर’ भी हिन्दी और ‘सेवक’ भी हिन्दी का शब्द है तब खालिकबारी में ख़ुसरो किस शब्द से और आखिर किसे परिचित करा रहे थे ?

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मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [1]


नौ कर-चाकर या “नौकरी-चाकरी” हिन्दी के बहुप्रयुक्त शब्दयुग्म है । आमतौर पर इसे विदेशज और देशज शब्दों के मेल से बना संकर युग्म माना जाता है । कई शब्द विदेशी मूल के होते हुए भी दूसरी भाषाओं में इतने समरस हो जाते हैं कि रूप-संरचना के आधार पर उनमें भिन्नता नज़र नहीं आती । ‘चाकरी’ भी हिन्दी का अपना तद्भव या देशज शब्द ही जान पड़ता है । ‘नौकर’ शब्द तो पहली नज़र में ही अरबी-फ़ारसी मूल का नज़र आता है जबकि ‘चाकर’ शब्द को देशज समझा जाता है । दरअसल इस शब्दयुग्म के में भिन्न-भिन्न भाषाएँ हैं । ‘नौकर-चाकर’ का पहला सर्ग मंगोलियाई भाषा का है और इसका मूल ‘नुकुर’ है तो दूसरा सर्ग ‘चाकर’ तुर्किश ज़बान का शब्द है जिसका मूल ‘चाकुर’ है । फ़ारसी में आकर दोनों शब्दों का रूप ‘नौकर’, ‘चाकर’ हुआ । हिन्दी में ये दोनों ही शब्द बरास्ता फ़ारसी आए । इसीलिए हिन्दी, अंग्रेजी, सिन्धी, मराठी आदि अधिकांश शब्दकोशों में इन्हें फ़ारसी का बताया गया है । मेरी स्पष्ट मान्यता है कि नौकर और चाकर मंगोल और तुर्क कबीलों की सैन्य शब्दावली से अर्थान्तरित शब्द है ।

ई लोग ‘चाकर’ को भारतीय मूल का समझते हैं और ऐसा समझने के पीछे ‘चाकर’ की ‘चक्र’ से सादृश्यता है । ‘चक्र’ से बने ‘चाक्रिक’, ‘चक्कर’, ‘चकरी’, ‘चाकोर’, ‘चाकर’ जैसे शब्द संस्कृत, हिन्दी, मराठी, बलूच या फ़ारसी मं मौजूद हैं जिनमें कुम्हार, घेरा, घुमाव, फिरकनी, गोलाकार, जैसे भाव हैं । सेवक अपने स्वामी द्वारा सौपे गए कामों को अंजाम देने के लिए उसके इर्द-गिर्द चक्करघिन्नी बना रहता है इस भाव को लक्ष्य कर चक्र से ‘चाकर’ ( सेवक ) का रिश्ता जोड़ा जाता है, जबकि ‘चाकर’ ( सेवक ) की अर्थवत्ता इससे अलहदा है । अपने मूल रूप में ‘चाकुर’ यानी ‘चाकर’, सेवक नहीं बल्कि मित्र, सखा और स्वयंसेवक है । तुर्की ‘चाकुर’ दरअसल मंगोलियाई ज़बान के ‘नुकुर’ की तर्ज़ पर बना है । ‘चाकर’ को समझने के लिए मंगोल शब्द ‘नुकुर’ यानी ‘नौकर’ को जान लेना ज़रूरी है ।
विभिन्न संदर्भ बताते हैं कि मंगोलियाई ‘नुकुर /नोकोर’ की तर्ज़ पर ही तुर्की के ‘चाकुर / चाकर’ का जन्म हुआ है । कहीं कहीं इसका उच्चारण ‘चाकोर’ भी है । मंगोल भाषा के ‘नुकुर [ nukur / nokor- प्रोटो मंगोलियन रूप । Nuokur- औपनिवेशिक इंग्लिश ] में बंधु, सखा, मित्र का भाव है । संस्थागत रूप में इसका बहुवचन नोकोद ( nokod ) होता है । प्राचीन मंगोल कबीलों के सैन्य ढाँचे में ‘नूकुर’ का अर्थ विस्तार हुआ और इसमें मित्र-योद्धा का भाव समाहित हुआ । बाद में इसमें अंगरक्षक या निजी सहायक का आशय समाहित हुआ और धीरे-धीरे इस शब्द (नुकुर) ने एक ऐसी संस्था का रूप ले लिया जो मंगोल कबीलों के सामाजिक ढाँचे का महत्वपूर्ण हिस्सा थी । ये लोग मूलतः स्वतंत्र योद्धा होते थे खुद को खाकान की सेवा में समर्पित करते थे । मंगोल कबीलों के सरदार को खाकान कहा जाता । प्रत्येक ख़ाक़ान के साथ अनुयायियों का जमावड़ा लाज़मी था जिसमें पारम्परिक तौर पर उसकी माँ और पत्नी के पक्ष के रिश्तेदार खास होते थे । मगर कुछ समर्थक कुटुम्बी न होकर सामान्य जन होते थे । सरदार के प्रति निजी आस्था के चलते वे उसके नज़दीकी दायरे में आ जाते थे । ऐसे लोगों को ‘नुकुर’ या ‘नोकोर’ कहा जाता था । अमेरिकी अध्येता लुईस एम.जे. शर्म “ द मंगर्स ऑफ द कान्सु-तिब्बतन फ़्रन्टियर ” में लिखते हैं कि इस वर्ग के लोग स्वेच्छा से खाकान को अपनी सेवाएँ समर्पित करते थे । इनमें गुलाम भी हो सकते थे और युद्बबंदी भी । वैसे आमतौर पर ये स्वयंसेवक होते थे और युद्ध के दौरान हरावल दस्ते की तरह सबसे आगे चलते थे । चंगेज़ खान के दौर तक नुकुर / नोकोर परिपाटी ने संस्थागत रूप ले लिया था और नोकोर वर्ग के लोग राज्य में उच्चपदों पर तैनात थे । कई नुकुर /नोकोर तो सूबेदार का ओहदा तक पा लेते थे ।
नुकुर /नोकोर शब्द की व्याप्ति समूचे आल्ताइक भाषा परिवार में है और सभी में इसका आशय सखा, बंधु या अंगरक्षक का है जैसे तातार भाषा में यह नुगर है । उज्बेकी में यह नागार है जहाँ इसका अर्थ या तो खाकान का निजी सहायक है अथवा अथवा विवाह के दौरान दूल्हा-दुल्हन का बन्नायक या बेस्टमैन । तुर्किक भाषा में यह नावकर या नुकुर है जिसमें सेवक का भाव है । रशियन स्टेट यूनिवर्सिटी के एटिमोलॉजिकल डेटाबेस में संग्रहित तुर्की भाषा विज्ञानी बत्तल अप्तुल्लाह के तुर्की और मंगोल व्युत्पत्ति कोश “इब्नु मुहेन्ना लुगाती” के मुताबिक समूचे मंगोल क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं मसलन-खाल्खा, बुरिअत, कल्मुक, ओर्दोस, दोम्खियन,बओअन, दागुर, शारी-योघुर और मंगर आदि प्रमुख भाषाओं में नुकुर /नोकोर की व्याप्ति है । गौरतलब है कि मंगोल प्रभावित क्षेत्र एशिया के सुदूर दक्षिण साइबेरिया, उत्तरी चीन से लेकर मध्यएशिया और पूर्वी यूरोप के हंगरी तक फैला है ।
पनिवेशिक काल के एंग्लो-इंडियन समाज और कंपनीराज में जो शब्द प्रचलित थे उनका उनका संग्रह हेनरी यूल के कोश ‘हॉब्सन-जॉब्सन’ में है । इसके मुताबिक ‘नौकर’ शब्द तुर्की मूल का है । हेनरी यूल जर्मन भाषाविद् इसाक जेकब श्मिट (1779 –1847) के हवाले से बताते हैं कि ‘नौकर’ शब्द मंगोल मूल के ‘नुकुर’ से निकला है जिसका अर्थ स्वयंसेवक, मित्र या आश्रित है । मंगोल-तुर्क क्षेत्र से लगते सोग्दियाना जैसे उत्तर-पूर्वी ईरान के लोग इससे पहले से ही परिचित थे ।इसका सर्वाधिक प्रसार चंगेज़ खान के सामरिक अभियानों के दौरान ही हुआ । चंगेज की अधीनता स्वीकारने वाले सरदारों को ‘नुकुर’ का दर्जा मिला । यह लगभग अरबी के गुलाम और माम्लुकों जैसा मामला था जो अधीनस्थ होते हुए भी ऊँचे ओहदे पर थे । भारतीय ‘दास’ शब्द को भी इसी कड़ी में देख सकते हैं । रामदास, रामसेवक, रामगुलाम जैसे नामों से ज़ाहिर है कि ये नाम सर्वशक्तिमान की अधीनता की महिमा बतलाने के लिए बनाए गए । मेरे विचार में उच्चवर्ग के इस शब्द का उपहासात्मक प्रयोग आम लोगों में शुरु हुआ । बाद में मित्रयोद्धा, सहकारी, अंगरक्षक, सहचर की अर्थवत्ता वाला यह शब्द सिर्फ़ सेवक के अर्थ में रूढ़ हो गया । ‘नौकर’ से बने ‘नौकरी’ शब्द में असम्मान का वह भाव नहीं है जो ‘नौकर’ में समझा जाता है । ‘नौकरी’ आज आजीविका-कर्म का पर्याय है जबकि ‘नौकर’ को सिर्फ़ सेवाकर्मी समझा जाता है । अलबत्ता ‘नौकरशाह’ या ‘नौकरपेशा’ शब्दों में इस शब्द का महत्व सुरक्षित है । 

मंगोल नौकर, तुर्की चाकर [2]
[अगली कड़ी में समाप्त]
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