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Wednesday, January 27, 2016

खातून की खिदमत में...


‘ख़ा
तून’ भी हिन्दी क्षेत्र का जाना-पहचाना लफ़्ज़ है। इसमें भी बेग़म या खानुम की तरह कुलीन,प्रभावशाली स्त्री, साम्राज्ञी, भद्र महिला का भाव है जैसे मध्यकाल की ख्यात कश्मीरी कवयित्री हब्बा ख़ातून। बेग से बेगम और खान से ख़ानुम की तरह ख़ातून का रिश्ता 'क्षत्रप' से है। बात कुछ जमी नहीं। चलिए, बेग़म और ख़ानुम की तरह ख़ातून के जन्मसूत्रों को भी टटोला जाए। वैसे तो ख़ातून फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी में दाखिल हुआ मगर यह तुर्की मूल का शब्द माना जाता है। इसका विकास हुआ है ईरान के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में बोली जाने वाली सोग्दी और खोतानी भाषा के ‘ख्वातवा’ या खाता जैसे शब्दों से जिसमें ज़मींदार का आशय था। गौरतलब है कि तुर्की में खातून का हातून रूप ज्यादा प्रचलित है। इतिहास की किताबों में हम सबने क्षत्रप और महाक्षत्रप जैसे पदनाम पढ़े हैं। ये ईरानी मूल के शब्द हैं और हखामनी साम्राज्य की उपाधियाँ हैं। उस समय तक्षशिला, मथुरा, उज्जयिनी और नासिक इनकी प्रमुख राजधानियां थीं।

गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र भी इनके प्रभुत्व में था। क्षत्रप का चलन आमतौर पर युवराज के लिए होता था जबकि महाक्षत्रप राज्यपाल, सूबेदार या प्रान्तपाल को कहते थे। गौरतलब है शक जाति के लोग सोग्दी ज़बान बोलते थे और उपाधियों उन्हीं के शासनकाल की हैं। इन स्थानों के प्रधान शक शासक महाक्षत्रप कहलाते थे जबकि कनिष्ठ शासक या उप शासक क्षत्रप कहलाते थे।

‘क्षत्रप’ शब्द का प्रसार इतना था कि एशिया में जहां कहीं यूनानी और शक साम्राज्य के अवशेष थे, उन स्थानों के गवर्नर या राज्यपालों का उल्लेख भी सट्रप / खत्रप / ख्वातवा / शत्रप के रूप में ही मिलता है। शक जाति के लोग संभवतः उत्तर पश्चिमी चीन के निवासी थे। वैसे जब ये भारत में आए तब तक इनका फैलाव समूचे मध्य एशिया में हो चुका था। ईरान की पहचान शकों से होती थी।

दक्षिणी पूर्वी ईरान को ‘सीस्तान’ कहा जाता था जिसका अर्थ था ‘शकस्थान’। संस्कृत ग्रंथों में भारत से पश्चिम में सिंध से लेकर अफ़गानिस्तान, ईरान आदि क्षेत्र को शकद्वीप कहा गया है अर्थात यहां शकों का शासन था। ब्राह्मणों की एक शाखा शाकद्वीपीय भी मानी जाती है। शायद यही मागी ब्राह्मण थे जिनका रिश्ता मगध से था, जिन्हें बाद में शाकद्वीपीय कहा गया।

संस्कृत के क्षत्र में भी प्रभुत्व, साम्राज्य, वंश, आधिपत्य के आशय हैं। इसी कड़ी का क्षेत्र शब्द भूमि के अर्थ में भी हम जानते हैं। खेत इसी क्षेत्र का अपभ्रंश है। संस्कृत का क्षत्री भी राजकुल वाले अर्थ से कालान्तर में राजपूत जाति के अर्थ में क्षत्रीय में ढल गया। इसका एक रूप पंजाब में खत्री बना। नेपाली में यह छेत्री होता है। इस तरह क्षत्रप का खत्रप भी हुआ। तो ईरानी क्षत्रप का सोग्दी रूप ख्वातवा हुआ।

हमारा अनुमान है कि यहाँ ‘क्ष’ का रूपान्तर ‘ख्व’ हुआ होगा, ‘त्र’ का सिर्फ़ ‘त’ शेष रहा। भारत-ईरानी भाषाओं में ‘प’ का रूपान्त ‘व’ में हो जाता है। इसे यूँ समझ सकते हैं- क्षत्रप > ख्वतप > ख्वातवा। इसका रूप कहीं कहीं खाता / ख्वाती भी मिलता है जिसका अर्थ प्रमुख, परम, अधिपति, राजा, सामन्त आदि था।

ऐतिहासिक सन्दर्भों में बुम-ख़्वातवा जैसे सन्दर्भ भी मिलते है। यहाँ बुम वही है जो संस्कृत हिन्दी में भूमि है। इस तरह बुम-ख़्वातवा का आशय ज़मींदार, क्षेत्रपाल या क्षेत्रपति हुआ जो आमतौर पर राजाओं की उपाधि है। तो सोग्दी ज़बान के ख्वातवा या खाती का स्त्रीवाची हुआ ख़्वातीन या ख़ातून जिसमें राजा, श्रीमन्त, सामन्त की स्त्री अथवा कुलीन या भद्र महिला का आशय था। उर्दू में ख़ातून का बहुवचन ख़वातीन होता है।

प्रसंगवश संस्कृत के ‘क्ष’ वर्ण में क्षेत्र, भूमि, किसान और रक्षक का अर्थ छुपा है। क्षत्रप शब्द ईरान में शत्रप / खत्रप रूप में प्रसारित था जहाँ से यह ग्रीक में सट्रप बन कर पहुँचा। ग्रीक ग्रंथों में ईरान और भारत के क्षत्रपों का उल्लेख इसी शब्द से हुआ है। इसकी व्युत्पत्ति प्राचीन ईरानी के क्षत्रपवान से मानी जाती है जिसका अर्थ है राज्य का रक्षक। इसमें क्षत्र+पा+वान का मेल है। ‘क्षत्र’ यानी राज्य, ‘पा’ यानी रक्षा करना, पालन करना और ‘वान’ यानी करनेवाला।

गौर करें इससे ही बना है फारसी का शहरबान शब्द जिसमें नगरपाल का भाव है। इसे मेयर समझा जा सकता है। याद रखें संस्कृत के वान प्रत्यय का ही फारसी रूप है बान जैसे निगहबान, दरबान, मेहरबान आदि। संस्कृत वान के ही वन्त या मन्त जैसे रूप भी हैं जैसे श्रीवान या श्रीमन्त। रूपवान या रूपवंत आदि।
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Friday, January 1, 2016

शिलाओं में बसी आबादियाँ

श्चिमी एशिया का एक विश्वख्यात पर्यटन स्थल है पेट्रा। जॉर्डन की इस शिला-नगरी का प्राचीन सामी ज़बान में नाम है 'सेला' जिसका अर्थ चट्टान या शिला होता है। खासतौर पर आशय चट्टानी दरार से है। इस शहर के सभी आवास चट्टानों को तराशकर बनाए गए थे। सामान्य घर से लेकर भव्य प्रासाद तक। दरअसल यह प्राचीन सेमिटिक सभ्यता का बड़ा केन्द्र था। इसका शुमार दुनिया के सात अजूबों में भी होता है। ग्रीक में पेट्रा का अर्थ पत्थर, चट्टान, पाषाण होता है। इसी तरह भारत में पश्चिम से पूर्व तक तक्षशिला, कुरुशिला, प्रेतशिला, विक्रमशिला और धर्मशिला जैसे प्राचीन विद्याकेन्द्र मूलतः मानव बसाहटें थीं। किसी न किसी तौर पर इनका नाता पर्वतीय उपत्यका से रहा इसलिए इनके नाम के साथ शिला शब्द चस्पा हुआ।

प्राचीन मानव का पहला आश्रय चट्टानी दरारें ही बनी, बाद में इन्हें तराश कर आश्रय बनाने का हुनर भी इनसान ने सीख लिया। हिब्रू ने भी प्राचीन सेमिटिक के 'सेला' शब्द को जस का तस अपनाया जो शिला का पर्याय या प्रतिरूप था। भाषाविज्ञानियों का मानना है कि ग्रीक लोगों ने इस महान चट्टानी शहर का ‘पेट्रा’ नाम ‘सेला’ के ग्रीक प्रतिरूप ‘पेट्रा’ के बतौर चलाया। बाइबल में सेला का उल्लेख है, पेट्रा का नहीं। अरबी में सेला के कई प्रतिरूप हैं जैसे सुल्ल, सुल्ला यानी चट्टान। सेल्ले, सेल्ला या सिलात यानी पत्थर के पाट, पटिये, फलक या खण्ड। इन सब शब्दों की संस्कृत के शिला से समानता ध्यान देने योग्य है। संस्कृत में सिल, शिल जैसे शब्द भी हैं और सिला या शिला भी।

हम यही कहना चाहते हैं कि प्राचीन काल में चट्टानी आश्रयों के सहारे ही मानव बसाहटें हुईं। सेला या पेट्रा ऐसी ही प्राचीन बसाहट थी। यह पुख़्ता प्रमाण हैं कि अत्यन्त प्राचीन काल से आप्रवासन के ज़रिये भाषायी लेन-देन भी चल रहा था। वैदिक शिला के जितने सामी प्रतिरूप ऊपर देखे उतने संस्कृत या अन्य सजातीय भाषाओं में नहीं है, बस शिला, शैल या सिला ही हैं। फ्रांस का एक छोटा सा शहर है 'ला रोश्शेल' इसमें भी शेल, सेल, शिला को तलाशना आसान है। ला रोश्शेल का अर्थ है छोटी चट्टान। अंग्रेजी का Shells भी इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ काट-छाँट, तराशना, गोला, आवरण या पिण्ड होता है।

शिला-नगरों की परम्परा पुरानी रही है यह समरकन्द से भी साबित होता है। उज़्बेकिस्तान के इस प्राचीन शहर के नाम का रिश्ता संस्कृत के ‘अश्म’ से है। अश्म यानी पत्थर। अश्म का ईरानी रूप हुआ अस्मर। खण्ड का अर्थ होता है टुकड़ा, बस्ती, पिण्ड, समूह आदि। इसका ईरानी रूप कंद हुआ। ज़ाहिर है अस्मरकंद से ही समरकंद रूप सामने आया जिसमें पाषाण-नगर का भाव है।

पेट्रोलियम शब्द भी पेट्रा (पत्थर) के साथ ग्रीक ओलियम (तेल) जुड़ने से बना है। इसी तरह मिट्टी का तेल पेट्रोलियम का बहुत सरलीकृत रूप है, जबकि जीवाश्म ईंधन इसका सही अनुवाद है जो मूलतः पेट्रोलियम से न होकर फॉसिल ऑइल का सही अनुवाद है। फॉसिल का अर्थ होता है जीवाश्म जो जीव+अश्म से मिलकर बना है। अश्म शब्द का मतलब संस्कृत मे होता है चट्टान या पत्थर। इसका मतलब जीवधारियों के उन अवशेषों से है जो लाखों-करोड़ों वर्षों की भूगर्भीय प्रक्रिया के तहत प्रस्तरीभूत हो गए।

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Friday, March 1, 2013

असली ‘दारासिंह’ कौन?

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मूचे भारतीय उपमहाद्वीप में ‘दारा’ नाम शक्ति का प्रतीक माना जाता है। पश्चिम में पेशावर से लेकर पूर्व में पूर्णिया तक ‘दारा’ नामधारी लोग मिल जाएँगे जैसे हिन्दुओं में दारा के साथ ‘सिंह’ का प्रत्यय जोड़ कर दारासिंह जैसा प्रभावी नाम बना लिया जाता है वहीं मुस्लिमों में ‘खान’ या ‘अली’ जैसे प्रत्ययों के साथ दाराख़ान या दाराअली जैसे नाम बन जाते हैं। कहते हैं यह ख्यात पहलवान, अभिनेता दारासिंह के नाम का प्रभाव है कि ‘दारा’ नाम के साथ ताक़त जुड़ गई। चलिए मान लिया। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाँचवे-छठे दशक में उनके नाम का वो ज़हूरा था कि वे एक चलती-फिरती किंवदंती बन गए थे। उनका नाम मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने लगा और कहावतें तक चल पड़ीं। सवाल यह है कि वो ‘दारा’ कौन था जिससे प्रभावित होकर दारासिंह के पिता ने अपने बेटे का नाम रखा और इस नाम के मायने क्या हैं ?
ब्दों का सफ़र में अक़्सर इतिहास में गोते लगाने की नौबत आ जाती है। इतिहास में ऐसे क़िरदार या प्रतीक मशहूर हो जाते हैं जिनकी खूबियाँ मनुष्य खुद में देखना चाहता है। नतीजतन वे लोग प्रतीक / संज्ञा-नाम में बदल जाते हैं। लोग अपनी संतानों, नायक-नायिकाओं को उन नामों से बुलाने लगते हैं। ऐसा ज्यादातर पुरुषवाची नामों के साथ ही होता है। उदाहरण कई हैं जैसे राम ( रामदयाल, रामकृपाल, रामनरेश, आयाराम, गयाराम आदि), कृष्ण (रामकृष्ण, हरिकृष्ण, रामकिशन आदि), बहादुर (वीरबहादुर, रामबहादुर), सिंह (रामसिंह, वीरसिंह, बहादुरसिंह) आदि कई नाम हैं। इसी कड़ी में दारा का नाम भी आता है जो ईरान के प्रसिद्ध हखामनी वंश के संस्थापक साइरस प्रथम जितना ही महान, वीर और महत्वाकांक्षी नरेश था। इस राजवंश का चौथा शासक था। दरहक़ीक़त हम जिस दारा की बात कर रहे हैं, वह इतिहास में डेरियस प्रथम के नाम से जाना जाता है। फ़ारस के इतिहास में दो साइरस और तीन डेरियस हुए हैं।
यूँ तो तीनों ही डेरियस वीर, लड़ाके थे मगर इतिहास में दारा के नाम से जो डेरियस प्रसिद्ध हो गया वह चौथा हखामनी शासक डेरियस प्रथम ( 521- 486 ) ही था। इतिहास में फ़ारस के हख़ामनी वंश को ही भारत पर चढ़ाई करने वाला पहला विदेशी वंश माना जाता है। इस वंश के संस्थापक साइरस ने 551-530 के बीच अपना साम्राज्य पेशावर से लेकर ग्रीस तक फैला लिया था। डेरियस का पिता विष्तास्पह्य भी हखामनी राजवंश का क्षत्रप था। समझा जाता है कि उसने साइरस के अधीन भी काम किया था। बहरहाल, डेरियस ने साइरस महान की आन, बान और शान को कायम रखा था इसीलिए उसके जीवनकाल में ही उसे भी डेरियस महान कहा जाने लगा था। हखामनी वंश की राजधानी पर्सेपोलिस के शिलालेखों पर ऐसा ही दर्ज है। पुरातत्व पर्यटन के लिए मशहूर पर्सेपोलिस शहर डेरियस की राजधानी हुआ करता था। ऐसा माना जाता है कि यह शहर उसने ही बसाया था। पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ परशियनों का शहर। ध्यान रहे ईरान का पुराना नाम फ़ारस था जिसके मूल में अवेस्ता का पार्श (संस्कृत का पर्शु) शब्द था। पार्श से ही फ़ारस बना। ग्रीक संदर्भों में इसे पर्शिया कहा गया। ग्रीक भाषा के पोलिस प्रत्यय का अर्थ वही होता है जो हिन्दी में पुर या पुरी का होता है। इस तरह पर्सेपोलिस का अर्थ हुआ पर्शुपुरी अर्थात पारसिकों की राजधानी हुआ।
प्राचीन फ़ारसवासी अग्निपूजक थे। भारत के पारसी उन्हें के वंशज हैं। इस्लाम की आंधी में उजड़ कर वे भारत आ बसे, फ़ारस के पारसी मुसलमान होते चले गए। दारा का मूल दरअसल डेरियस भी नहीं है। पर्सेपोलिस के शिलालेख के मुताबिक उसका शुद्ध पारसिक उच्चारण दारयवौष है। शिलालेख में दर्ज़ कीलाक्षर लिपि वाले मज़मून का रोमन और देवनागरी उच्चार इस तरह है- Dârayavauš दारयवौष xšâyathiya क्षायथिय vazraka वज्रक xšâyathiya क्षायथिय xšâyâthiânâm क्षायथियानाम xšâyathiya क्षायथिय dahyunâm दह्युनाम Vištâspahya विष्तास्पह्य Haxâmanišiya पुश puça हक्ष्मनिषिय hya ह्य imam इमम taçaram तशराम akunauš अकौनष। इसका अर्थ है- “यह प्रासाद हखामनी वंश के विस्ताष्पह्य के पुत्र और महाराज, राजाधिराज, राज्याधिपति दारयवौष के द्वारा बनवाया गया है”। विद्वानों ने इसे पहलवी का प्राचीन रूप बताया है जो अवेस्ता के क़रीब थी। अवेस्ता को संस्कृत की मौसेरी बहन समझा जाता है।
ह समझना आसान है कि अवेस्ता के दारयवौष का ही ग्रीक रूप डेरियस हुआ होगा। ग्रीक इतिहासकार हेरियोडोटस के उल्लेखों से यही रूप प्रचलित हुआ। इसी तरह वर्णसंकोच के साथ दारयवौष का परवर्ती रूप दारा हुआ। दारयवोष के रूपान्तर की दो दिशाएँ रहीं। दारयवौष > दारयवश >दारयस > दारा (फ़ारसी) > डेरियस (ग्रीक) । पश्चिम की ओर यह डेरियस हुआ जबकि पूर्व की ओर इसका रूपान्तर दारा हुआ। दरअसल का दारा रूप ही अब व्यावहारिक तौर पर प्रचलन में है। ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश आदि में दारा कई नामों में मौजूद है जैसे- दाराबख्त, दाराअली, दाराखान, वीरदारा, दारा शुकोह, दाराप्रसाद, दारानाथ, दारासिंह आदि। दारायवौष की पूर्व में दारा के नाम से प्रसिद्धी की बड़ी वजह उसके पंजाब और सिंध अभियानों की कामयाबी रही। वर्तमान पाकिस्तान का पेशावर प्रान्त दारा के आधिपत्य में था। पश्चिम में मिस्र, ग्रीस, उत्तर में आमू दरिया और पूर्व में पंजाब-सिंध दारा के साम्राज्य की सीमाएँ थीं। यही उस काल का ज्ञात विश्व भी था।
देखते हैं दारा का, प्रकारान्तर से दारियवौष का अर्थ क्या है, इसका जन्मसूत्र क्या है। आज की फ़ारसी में दारा का दाराब रूप भी मिलता है। भारत-ईरानी भाषाओं के अध्येता क्रिश्चियन बार्थोलोमिए ने (1855-1925) ने दारयवौष को अवेस्ता का शब्द माना है और इसे जरथ्रुस्ती शब्दावली में स्थान दिया है। इसका अर्थ है धारण करने वाला। राज्य को धारण करना, प्रजा को धारण करना, शासन को धारण करना, नायकोचित गुणों को धारण करना और सद्गुणों को धारण करना इसमें निहित है। दारियवौष के मूल में प्रोटो भारोपीय धातु dher है। भाषाविद् जूलियस पकोर्नी इसका रिश्ता वैदिक धातु धर् से जोड़ते हैं। धर् में उठाने, सम्भालने, देखभाल करने, अंगीकार करने जैसे भाव है। धारण करने में ये सारे भाव निहित हैं। धर् से संस्कृत, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक शब्द बने हैं। पृथ्वी को धारिणी कहा जाता है। धरती में यही धर है। आधार यानी टिकाव, पड़ाव, फाऊंडेशन में भी यही ‘धर’ है जिसमें स्थिरता है। डॉ रामविलास शर्मा ‘धर्’ के एक रूप ‘स्थर’ की कल्पना करते हैं। संस्कृत ‘दारु’, ‘द्रुम’, ‘तरु’, ग्रीक ‘द्रुस’, अंग्रेजी के ‘ट्री’ में दरअसल धर् के रूपान्तर ‘दर्’ और ‘तर्’ हैं । यह भी दिलचस्प है की ‘धर’ में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । दारयवौष् से बने दारा का अर्थ हिन्दी फ़ारसी में सर्वशक्तिमान, भगवान, राजा, पालक आदि है।
स्पष्ट है कि ताक़त, वीरता आदि के पर्याय के रूप में दारा नाम डेरियस अर्थात दारयवौष् से आ रहा है। इसका प्रचार अनेक देशों में हुआ। नायकोचित नामकरण की अभिलाषा में अनेक दारा सामने आए मगर भारत में तो पंजाब के दारासिंह की ख्याति ने डेरियस द ग्रेट को भी पछाड़ दिया।

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Monday, February 25, 2013

क़िस्सा दक़ियानूस का

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दु नियाभर में प्रचलित मुहावरों-कहावतों में शासकों या प्रभावशाली लोगों का अत्याचारी, सनकी चरित्र भी झलकता है। ऐसे क़िरदारों में रावण, कंस, नीरो या तुग़लक जैसे नाम स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। कुछ नामों के पीछे न तो कहानी नज़र आती है न ही क़िस्सा। ऐसा ही एक नाम है दक़ियानूस जो सिर्फ़ एक संज्ञा भर नहीं बल्कि एक प्रसिद्ध रोमन सम्राट था। आज के तुर्की और प्राचीन अनातोलिया का इफ़ेसस शहर इसके राज्य में शामिल था। अंधविश्वासी या पुरानी सोच वाले व्यक्ति को दक़ियानूस कहते हैं। बोलचाल की हिन्दी में यह शब्द खूब प्रचलित है। इसी तरह दकियानूसी शब्द के तहत पुरानी सोच वाला, रूढ़ीवादी और अधिक उम्र वाला, कोई बेकार, पुरानी और मनहूस चीज़ या पुरातनपंथी विचारधारा आती है। मसलन दक़ियानूसी लोग, दक़ियानूसी बातें, दक़ियानूसी चीज़े। अरबी-फ़ारसी में दक़ियानूस शब्द का सही रूप दक़्यानूस है।
हिन्दी-फ़ारसी के कोशों में अव्वल तो दक़ियानूस के संदर्भ में ज्यादा जानकारियाँ नहीं मिलतीं। कुछ कोशों में तो इसका संदर्भ बतौर रोमन शासक भी नहीं मिलता और कहीं पर उसके अत्याचारी सम्राट होने जितनी ही संक्षिप्त जानकारी मिलती है। ग्रीक संदर्भों में दकियानूस का उल्लेख बतौर देसियस मिलता है। पश्चिम एशिया के समाज-संस्कृति पर यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों धर्मों की गहरी छाप पड़ी है। ईसाइयत पर यहूदी धर्म का असर और इस्लाम पर अपने पूर्ववर्ती यहूदी और ईसाई चिन्तन का असर नज़र आता है। बाईबल के गोस्पेल और कुरान के सूरों (सुरह) की अनेक कथाओं में समानता से यह साबित भी होता है। बाइबल और कुरान दोनों में ही थोड़ी बहुत भिन्नता के साथ देसियस या दक़्यानूस के बारे में लगभग एक जैसी ही कहानी है।
सा के जन्म के वक़्त पश्चिम एशिया और समूचे यूरोप में मूर्तिपूजा का ही बोलबाला था। ईसा के बाद भी रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा का चलन था। किन्हीं संदर्भों में इतिहास प्रसिद्ध इस निरंकुश सम्राट को 359 ईपू. का बताया गया है मगर यह भ्रामक है। दक्यानूस यानी देसियस का काल ईसा के क़रीब ढाई सदी बाद का है। रोमन साम्राज्य में शासकों की मूर्तिपूजा सम्बन्धी सनक, अत्याचार और उत्पीड़न का इतिहास ईसा के सूली पर चढ़ने के बाद सातवीं आठवीं सदी तक भी जारी रहा रहा। देसियस या दक़्यानूस का रिश्ता अनातोलिया से जोड़ा जाता है और माना जाता है कि तुर्की के प्रसिद्ध तारसस और इफ़ेसस शहरों पर उसका शासन था। ईसाई धर्म के महान प्रचारक सेंट पॉल का जन्म तारसस में ही हुआ था। माना जाता है कि कि तारसस का नाम तार्कु के आधार पर पड़ा है जो हित्ती भाषा का शब्द है। इस इलाके में बसने वाले आदिजन हिट्टाइट ही थे। तार्कु एक देवता था जिसकी पूजा हित्तीजन करते थे। वैसे अधिकांश संदर्भो में इफ़ेसस से इसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है। यह वही इफ़ेसस है जहाँ का आर्टेमिस का मंदिर सात अजूबों में गिना जाता है। अरब-फ़ारसी संदर्भों में इफ़ेसस को अफ़सूस कहा जाता है।
देसियस मूर्तिपूजा में विश्वास रखता था। उसका शासन बड़ा सख़्त और पूजा-विधान के आधार पर चलता था। कहने की ज़रूरत नहीं कि ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव की वजह से रोमन साम्राज्य में मूर्तिपूजा के लिए आग्रह ज्यादा बढ़ा-चढ़ा था। देसियस का नज़रिया इस सिलसिले में ज्यादा सख़्त था। पूरे राज्य में उसके जासूस फैले हुए थे जो राई-रत्ती की खबरें देते थे। मूर्तिपूजा के विरोधियों को देसियस बर्दाश्त नहीं करता था। ईश्वर एक है और अदेखा है जैसी बातों पर यक़ीन करने वालों को वह आनन-फ़ानन में सज़ाए मौत सुना देता था जिसके तहत दोषियों को ज़िंदा जलाने, ज़मीन में गाड़ देने, हाथ-पैर काट कर पशुओं का ग्रास बनाने जैसे अमानवीय तरीके  शामिल थे। बहरहाल, बाइबल में वर्णित कथा के अनुसार इफ़ेसस के सात युवा लोगों ने शहर की देवी के मंदिर में सिर झुकाने से इनकार कर दिया। किन्हीं संदर्भों में यह घटना 156ईस्वी की भी बताई गई है। देसियस के कोप से बचने के लिए उन्होंने शहर के बाहर पहाड़ी गुफा में शरण ली। थके हारे सातों लोग गुफ़ा में जाते ही नींद के आग़ोश में चले गए। उधर देसियस को जब ख़बर लगी तो उसने गुफ़ा का दरवाज़ा चट्टानों से बंद करवा दिया ताकि वे अंदर ही मर-खप जाएँ। गोस्पेल के मुताबिक ये लोग दो सदियों तक सोते रहे। इसके आगे क्या हुआ ये जानने से पहले इस कहानी के इस्लामी संस्करण का जायज़ा लिया जाए।
गोस्पेल की तरह कुरान के अध्यायों को सूरा (सुरह) कहा जाता है। गुफ़ा में सोए लोगों की कहानी कुरान के सूरह-कह्फ़ (18वाँ अध्याय) में आती है। कहानी के मुताबिक अफ़सूस शहर (ग्रीक इफ़ेसस) में सात लोगों का एक समूह था जो ईसाइयत में भरोसा रखते थे। दक्यानूस के कहर से बचने के लिए उन्होंने गुफ़ा में शरण ली, जिसका दरवाज़ा उसके ही हुक्म से बंद करा दिया गया। इस्लामी संदर्भों में इन सात लोगों को अस्हाबे-कह्फ़ कहा गया है। अस्हब का अर्थ होता है पैग़म्बर के कृपापात्र, मोहम्मद के दोस्त। मूलतः अस्हब, साहिब का बहुवचन है जिसका अर्थ है साहिबान, मान्यवर आदि। इसी तरह कह्फ़ का अर्थ होता है गुफ़ा, कंदरा, गार आदि। कह्फ़ अरबी का शब्द है लेकिन, गुहा, गुफा, कोह, खोह जैसे इंडो-ईरानी परिवार के शब्दों से इसकी साम्यता गौरतलब है।
गोस्पेल के मुताबिक क़रीब दो सौ साल ये लोग सोते रहे जबकि सूरह् के मुताबिक इनकी नींद 309 साल बाद टूटी। जो भी हो, नींद टूटने पर इनमें से कुछ लोग भोजन की तलाश में पास की बस्ती तक पहुँचे। उन्होंने कुछ रोटियाँ खरीदी। जब नानबाई को इन्होंने कुछ सिक्के दिए तो वह हैरत में पड़ गया। सिक्के उसके लिए अनजाने थे। धीरे-धीरे ये बात पूरे बाज़ार में फैल गई कि कुछ अनोखे लोग वहाँ आए हैं। जानकारों ने देख-परख कर पहचाना कि इन सिक्कों पर दक़्यानूस नाम के राजा की तस्वीर छपी है जो क़रीब तीन सदी पहले हुआ था और बेहद ज़ालिम था। नींद से जागने वालों के लिए अब हैरत में पड़ने की बारी थी। उन्होंने बताया कि बेशक दक़्यानूस ज़ुल्मी है और उससे बचने के लिए ही तो वे कल शहर छोड़ कर भागे थे। वो तो झपकी लग गई और वे नींद में ग़ाफ़िल हो गए। तीन सदी लम्बी नींद उनके लिए ही नहीं, सबके लिए बड़ी ख़बर थी। फिर यह हुआ कि वे सातों लोग वहीं रहने लगे। उनकी यही चाहत थी कि जिस काल की गुफा में सदियों तक सोते हुए उन्हें ईश्वरीय अनुभूति हुई है, उनकी उम्र पूरी होने के बाद वे हमेशा के लिए भी उसी गुफा में सोएँ। शहरवासियों ने उनकी यह इच्छा भी पूरी की। बाद के दौर में आम लोगों में भी यह धारणा बनी कि उस गुफा में दफ़नाए जाने पर उन्हें मोक्ष मिलेगा।  पुरातत्ववेत्ताओं को एशिया व यूरोप में तुर्की, जॉर्डन से लेकर चीन के उईगुर प्रान्त तक में ऐसी गुफाएँ मिली हैं जिन्हें स्थानीय लोग अस्हाबे-कह्फ कहते हैं। इन सभी स्थानों पर कब्रें हैं। 
क़िस्सा-कोताह यह कि इस्लाम और ईसाई दोनों ही धर्मों में इस कहानी का प्रयोग अपने अपने पैग़म्बर की महानता स्थापित करने में किया। लोगों को यह पता चला कि कुल मिला कर एकेश्वरवाद ही सही रास्ता है। ईश्वर एक है और उन्होंने ही ज़ालिम के कहर से बचाने के लिए अपने सात नेक बंदों को सदियों तक सुलाए रखा। कहानी जो भी कहती हो, धर्मों की बात धर्मोपदेशक जानें, शब्दों के सफ़र में हमें तो दक़ियानूस लफ़्ज का सफ़र जानना था, जो जान लिया। अल्लाह के उन सात नेक बंदों का नाम आज कोई नहीं जानता। हाँ, जुल्मी दक़ियानूस को हम क़रीब क़रीब रोज़ ही याद कर लेते हैं।

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Monday, December 31, 2012

चक, चकला, चकलादार

chakla-tokenहिन्दी के तीन चकले-2

क्र का चकला रूप मूलतः हिन्दी, पंजाबी में है । हिन्दी के चकला में चपटा, गोल, वृत्ताकार वाले आशय के साथ साथ प्रान्त का भाव भी है जबकि पंजाबी चकला में वृत्ताकार, गोल, घेरदार, विस्तीर्ण के साथ साथ शहर का खुला चौक, ज़िला अथवा वेश्यालय का आशय भी है । ज़ाहिर है ये फ़ारसी का असर है । भाषायी स्तर पर नहीं बल्कि मुस्लिम शासन का प्रभाव । विभिन्न संदर्भों से पता चलता है कि चकला मूलतः मुस्लिम शासन के दौरान भूप्रबन्धन, उपनिवेशन और राजस्व सम्बन्धी मामलों की शब्दावली से निकला है । चकला व्यवस्था से तात्पर्य एक राजस्व ज़िले से था । राजस्व अधिकारी चकलादार कहलाता था जिसे नाज़िम भी कहते थे । चकला में स्थानवाची भाव प्रमुख है । इसमें ‘चक’ में निहित तमाम आशय तो शामिल हैं ही, साथ ही आबादी और बसाहट का भाव भी है  । जिस तरह कई आबादियों के साथ चक नाम जुड़ा नज़र आता है ( रामपुर चक या चक बिलावली ) वही बात चकला में भी है जैसे मीरपुर चकला या चकला-सरहिन्द और दर्जनों ऐसे ही अन्य स्थानों के नाम । विभिन्न संदर्भों में चकला का अर्थ सर्किल, वृत्त, खण्ड या भाग होता है ।
मुस्लिमकाल की सरकारी भाषा अर्थात फ़ारसी में चकला यानी एक सब डिवीज़न या उपखण्ड जिसके अधीन कई परगना होते थे । आज इसे अनुभाग, उपवृत्त, उपखण्ड की तरह समझा जा सकता है । ख्यात इतिहासकार इरफ़ान हबीब के अनुसार क्षेत्रीय इकाई के रूप में चकला का संदर्भ शाहजहाँ के शासनकाल से मिलना शुरू होता है । परगना व्यवस्था के साथ साथ चकला व्यवस्था भी कायम थी । मुग़ल काल में लगभग समूचे उत्तर भारत में कई गाँवों के समूहों को पुनर्गठित कर उन्हें चकला कहा जाता था । चकले का प्रमुख नाज़िम, चकलादार या भूयान कहलाता था । इतिहास की किताबों में दर्ज़ है कि मुग़ल दौर में अलग-अलग राज्य इकाई को ‘सरकार’ का दर्ज़ा प्राप्त था । ‘सरकार’ या ‘सिरकार’ अर्थात एक राज्य शासन । एक ‘सरकार’ कई छोटी राजस्व इकाइयों में बँटी होती थी जो चकला कहलाती थीं । पूर्वी भारत में एक चकले का आकार मुग़ल सरकार (प्रशासनिक इकाई) का छठा हिस्सा होता था । शेरशाह सूरी शासित क्षेत्र को 47 सरकारों में बाँटा गया था । एक अन्य संदर्भ के अनुसार मुर्शिदकुली खाँ के ज़माने में बंगाल को 13 चकलों में बाँटा गया था ।
कोठे के अर्थ में भी चकला शब्द का स्थानवाची आशय ही उभरता है । देहव्यापार केन्द्र के रूप में चकला शब्द कैसे सामने आया इसे जानने से पहले यह समझ लेना ज़रूरी है कि प्राचीनकाल से ही समाज के प्रभावशाली तबके द्वारा देह व्यापार को प्रश्रय दिया जाता रहा है । शासन, सामंत, श्रेष्ठीवर्ग ने वेश्यावृत्ति को बढ़ावा दिया । सत्ता का जैसे-जैसे विकास होता गया, स्त्री-देह राजतन्त्र का एक विशिष्ट उपकरण बनती चली गई । वेश्यावृत्ति या देहव्यापार के पीछे स्त्री की मजबूरी नहीं बल्कि उसे ऐसा करने के लिए विवश किया गया । ब्राह्मणों-पुरोहितों नें इसके लिए न जाने कितने विधान-अनुष्ठान रचे । धर्म से लेकर कर्म तक स्त्री जकड़ी हुई है । वैसे भी स्त्री के रूप-लावण्य के आगे उसकी जाति-धर्म-वर्ण को ब्राह्मणों-पुरोहितों ने गौण माना है । विवाह, संतानोत्पत्ति आदि मुद्दों पर भी उपविधान रच कर पुरोहित समाज ने श्रेष्ठियों के लिए किसी भी वर्ण की स्त्री को सुलभ बनाया । देवदासी, नगरवधु का दर्ज़ा देकर सत्ता ने उसे विशिष्ट बना दिया और गणिका, वेश्या कह कर श्रेष्ठी वर्ग ने उसे बाजार में बैठा दिया । कभी कूटनीतिक दाँवपेच का हिस्सा बनी स्त्री देह कालान्तर में निरन्तर युद्धरत शूरवीरों की यौनपिपासा को शान्त करने का ज़रिया बनी । सेनाओं के साथ सरकारी खर्चे पर वारांगनाओं का काफ़िला भी चला करता था ।
हिन्दी शब्दकोशों में चकला का अर्थ वृत्त, चौका, रोटी बेलने का गोल, सपाट पत्थर, राज्य, सूबा, इलाक़ा, क्षेत्र के अलावा देहव्यापार का अड्डा, तवाइफ़खाना, वेश्यालय आदि बताया गया है । चकला के स्थानवाची आशय के साथ इसमें कसबीनों, तवाइफ़ों और जिस्मफ़रोशी के डेरों की अर्थवत्ता पश्चिमोत्तर सीमान्त क्षेत्र की बोलियों में स्थापित हुई होगी, ऐसा लगता है । गाँव, सूबा, इलाक़ा के लिए चक़, चक़ला जैसे शब्द फ़ारसी, पश्तो, पहलवी, बलूची, सिंधी के अलावा अनेक पश्चिमी बोलियों में मिलते हैं । मुग़ल फ़ौजों के लिए वेश्याओं की अलग जमात चलती थी । यही नहीं मुग़ल दौर में यह पेशा काफ़ी फलाफूला । चकला, रंडीखाना, ज़िनाख़ाना, ज़िनाक़ारी का अड्डा, तवाइफ़ख़ाना, कोठा जैसे कितने ही पर्यायी शब्दों की मौजूदगी से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है जो मुग़लदौर में प्रचलित थे । यही नहीं फ़ौजी चकला, रेजिमेंटल चकला जैसे शब्दों से भी इसकी पुष्टि होती है कि पहले मुग़ल दौर में और फिर औपनिवेशिक दौर में सामान्य चकला आबादी से इन चकलों को पृथक करने के लिए इनके आगे फौजी या रेजिमेंटल जैसे विशेषण लगाए गए । गौरतलब है कि दो सदी पहले तक यूरोप में भी मिलिटरी ब्रॉथेल जैसी व्यवस्था प्रचलित थी । रेजिमेंटल चकला भी वही है । ये सरकारी चकले होते थे ।
क़रीब सवा सौ साल पहले एलिजाबेथ एन्ड्र्यू और कैथरीन बुशनैल द्वारा लिखी गई पुस्तक - “द क्वींस डॉटर्स इन इंडिया” में फ़िरंगियों की सरपरस्ती में चलते ऐसे ही वेश्यालयों की दारुण गाथा बयान की गई है । क़िताब में इन अड्डों के लिए चकला शब्द का प्रयोग ही किया गया है । किताब बताती है कि ब्रिटिश दौर की हर अंग्रेज छावनी में चकला होता था जहाँ के रेट भी सरकार ने फिक्स किए हुए थे । चकलों के बारे में किताब में लिखा है कि, “In the regimental bazaars it is necessary to have a sufficient number of women, to take care that they are sufficiently attractive, to provide them with proper houses, and, above all, to insist upon means of ablution being always available.” ध्यान रहे रेजिमेंटल बाजार यानी छावनी बाजार जिनकी मूल पहचान रूपजीवाओं के डेरों यानी चकलों की वजह से ही थी । कृ.पा. कुलकर्णी के ‘मराठी व्युत्पत्ति कोश’, रॉल्फ़ लिली टर्नर की 'ए कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़’ के मुताबिक चकला शहर का केन्द्रीय स्थान भी है । शहर के मध्य स्थित वृत्ताकार क्षेत्र, बाज़ार, पीठा, कोई भी गोलाकार बसाहट, अड्डा, दुकान, चौक आदि । यह मध्यवर्ती बसाहट ही कोठों का इलाक़ा यानी चक़ला था । किसी ज़माने में चक़ला तवाइफ़ों की बस्ती थी । बाद में चकला एक पेशे का पर्याय भी हो गया । कुछ लोग चक़ला और कोठा को एक मानते हैं । चक़ला शुरू से ही देह व्यापार केन्द्र रहा है जबकि कोठा महफ़िलों से आबाद होता था । चकला क्षेत्र था, कोठा इमारत थी । 
संदर्भों के मुताबिक मुग़ल बादशाहों ने जहाँ-जहाँ अपने स्थायी पड़ाव और लश्कर आदि रखे वहाँ तवायफ़ों और वेश्याओं को बसाया । जब लश्कर और पड़ाव जैसी आबादियाँ स्थायी बस्तियों में तब्दील हुईं तो वहाँ क़िलों की तामीर की गईं । फौज़ी और सरकारी अमलों की दिलज़ोयी के लिए इन नाचने-गानेवालियों, डेरेदारनियों, वेश्याओं को स्थायी ठिकाना बनाने के लिए जगह दी गईं । इन्हें भी चकला कहा गया । ये बसाहटें प्रायः छोटी गढ़ियों के बाहर और बड़े क़िलों में मुख्य बाज़ार से जुड़े हिस्सों में होती थीं । गौर करें चावड़ी बाज़ार शब्द पर । यह भी औपनिवेशिक दौर का शब्द हैं । चावड़ी यानी शहर के मध्य स्थित मुख्य चौराहा या चौक । इन्हें ही चावड़ी बाजार chawri bazar कहा गया। धनिकों के मनोरंजन के लिए ऐसे ठिकानों पर रूपजीवाओं के डेरे भी जुटने लगते हैं । इसीलिए चावड़ी बाजार शब्द के साथ तवायफों का ठिकाना भी जुड़ा है । ग्वालियर के चावड़ी बाजार की भी इसी अर्थ में किसी ज़माने में ख्याति थी । स्पष्ट है कि वेश्यालय के अर्थ में रसोई का चकला या स्थानवाची चकला में सिर्फ़ वृत्ताकार लक्षण की ही समानता है । स्थाननाम के साथ जुड़े चकला शब्द में पहले सिर्फ़ भूक्षेत्र का भाव था । बाद में इसमें बसाहट या आबादी का आशय जुड़ा । ब्रॉथेल की अर्थवत्ता वाले चकले में भी मूलतः आबादी, बसाहट का भाव था, न कि देहव्यापार का । समाप्त [ पिछली कड़ीः हिन्दी के तीन चकले-1]

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चक्र, चक्कर, चरखा

हिन्दी के तीन चकले-1circles
हिन्दी में तीन चकले बहुत प्रसिद्ध हैं । पहला ‘चकला’ है रसोई का जिसका साथ निभाता है बेलन । दूसरा ‘चकला’ स्थानवाची अर्थवत्ता रखता है जैसे चकला-खानपुर या नरवर-चकला । तीसरा चकला  है रूपजीवाओं का ठिकाना जो कला-व्यापार से ज्यादा देह-व्यापार के लिए कुख्यात है । तीनों ही तरह के चकलों का आज भी अस्तित्व है बल्कि ये भाषा-प्रयोग में भी बने हुए हैं । ये अलग बात है कि रसोई वाले चकले को छोड़ कर दोनो चकलों का सम्बन्ध भारत-ईरानी भाषा परिवार की फ़ारसी भाषा से है । गौरतलब है कि चक्कर, व्हील, साइकल, सर्कल जैसे शब्द इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध हैं और एक ही गर्भनाल से जुड़े हैं और इनका रिश्ता वैदिक / संस्कृत शब्दावली के ‘चक्र’ से है । चकले के भीतर दाखिल होने से पहले जायज़ा लेते हैं चक्र का । भाषाविदों का मानना है कि वैदिक चक्र का पूर्वरूप चर्क रहा होगा और इसी वजह से वे चक्र की ‘चर्’ क्रिया में निहित निरन्तर गति का भाव देखते है । निरन्तर गति सीधी दिशा में हमेशा मुमकिन नहीं है किन्तु वलयाकार परिभ्रमण करते हुए इस निरन्तरता को सौफ़ीसद सम्भव बनाया जा सकता है । इसी लिए ‘चक्र’ के पूर्वरूप ‘चर्क’ से निरन्तर ‘चर्’ ( चल् = चलना ) वाली क्रिया सिद्ध होती है । अक्ष पर चारों दिशाओं में घूमना ही ‘चक्र’ है ।

इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भाषाओं में रोमन ध्वनियां ‘c’ और ‘k’ के उच्चारण में बहुत समानता है और अक्सर ये एक दूसरे में बदलती भी हैं । इसी तरह अंग्रेजी का कैमरा camara, चैम्बर और हिन्दी का कमरा  एक ही मूल के हैं मगर मूल c (स) वर्ण की ध्वनि यहाँ अलग-अलग है । यह जानना ज़रूरी है कि ग्रीक और आर्यभाषाओं के ‘च’ और ‘क’ वर्णों से बनने वाले शब्दों में आपसी रूपान्तर होने की प्रवृत्ति है । भारोपीय धातु kand ( कैंड / कंद ) का एक रूप cand ( चैंड / चंद् ) भी होता है। इससे बने चंद्रः का मतलब भी श्वेत, उज्जवल, कांति, प्रकाशमान आदि है । डॉ. रामविलास शर्मा ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी’ में लिखते हैं - “संस्कृत चक्र का ग्रीक प्रतिरूप कुक्लॉस है । चक्र का पूर्वरूप चर्क होगा; वर्णविपर्यय से र् का स्थानान्तरण हुआ । कुक्लॉस का पूर्वरूप कुल्कॉस होगा; यहाँ भी वर्णविपर्यय से ल् का स्थानान्तरण हुआ । कुल्, कुर् क्रिया का पूर्वरूप घुर् होगा । कर्, सर्, चर् परस्पर समबद्ध हैं । सर्, चर् वाले रूप द्रविड़ भाषाओं में उल्लेखनीय हैं ।” एमिनो-बरो के द्रविड़ व्युत्पत्ति कोश के चुनींदा शब्दों के ज़रिये वे इसे साबित भी करते हैं मसलन । तेलुगु सारि (आवर्तन), सुरगालि (बवंडर), कन्नड़ सुळि, (घूमना), सुरुळि (छल्ला), तुलु सुळि (भंवर), सुत्तु (चक्कर खाना), तमिल चुर्रू ( चक्कर खाना), चूरई (बवंडर) आदि । किक्लोस से लैटिन के प्राचीन रूप में साइक्लस शब्द बना जिसका अंग्रेजी रूप साइकल cycle है । चक्र और साइकल एक ही है ।

वैदिक चक्र और बरास्ता अवेस्ता, पहलवी होते हुए फ़ारसी के चर्ख रूप में वर्णविपर्यय स्पष्ट नज़र आ रहा है । जिस तरह वैदिक ‘शुक्र’ से फ़ारसी में ‘सुर्ख़’ बनता है, ‘चक्रवाक’ का ‘सुरख़ाब’ होता है उसी तरह ‘चक्र’ से ‘चर्ख़’ बनता है । हिन्दी की पश्चिमी बोलियों में यही रूप सुरक्षित रहा और इससे ही गोल, वलयाकार यन्त्र के लिए ‘चर्ख’ शब्द बना जिसका एक रूप ‘चरख’ भी है । मानक बृहद हिन्दी कोश के मुताबिक फ़ारसी के ‘चर्ख़’ का अर्थ घूमने वाला गोल चक्कर, खराद, गोफन, तोपगाड़ी, रथ, करघा आदि होता है । करघे के लिए चरखा शब्द के मूल में चर्ख़ / चरख ही है । ध्यान रहे कलफ़ किए हुए विशाल आकार के सूती कपड़ों को चरख किया जाता है । दरअसल यह इसी चर्ख़ से निकला है । एक विशाल चरखी पर कपड़े को लपेटने की क्रिया ही चरख़ कहलाती है । ऐसा करने से कपड़े की सिलवटें दूर हो जाती हैं । पहिये या स्टीयरिंग को चक्का कहते हैं । चरखा, चरखी, चकरी, चक्की जैसे नाम पहिए, झूले, यन्त्र, उपकरण के होते हैं । सिर घूमने को चकराना कहते हैं । यह चक्कर से बना है । जो आपको चक्कर में डाल दे ऐसे व्यक्ति को ‘चक्रम’ की संज्ञा दी जाती है । चक्कर, चकराना, चकरम (चक्रम) जैसे शब्दों के मूल में चक्र ही है ।
हले जानते हैं ‘चक’ को जो फ़ारसी से हिन्दी में दाखिल हुआ । गाँव-देहात की जानकारी रखने वाले लोग ‘चक’ से खूब परिचित हैं । चक्र का ही रूपान्तर है चक जिसका अर्थ है ज़मीन का एक विशाल टुकड़ा । बड़ी आबादी से बसा हुआ क्षेत्र । कृषि भूमि या किसी भी किस्म की गोचर ज़मीन पर बसी आबादी । उपत्यका भूमि अथवा घाटी, दर्रा या तराई का क्षेत्र । व्यवस्थित बसाहट वाला गाँव । सतपुड़ा और मैकल पर्वत की तराई के एक क्षेत्र को बैगाचक कहते हैं । यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ बैगा जाति की दर्जनों बस्तियाँ हैं । किन्हीं गाँवों के नामों के साथ भी यह शब्द लगा रहता है जैसे चक-चौबेवाला या चक-माजरा । यहाँ चक का अर्थ है चक्र अर्थात घेरा, वर्तुल, वृत्त आदि । पुराने ज़मानें से ही दुनियाभर में उपनिवेशन होता आया है । कृषिभूमि और जलस्रोतों के इर्दगिर्द आबादियाँ बसती रहीं । घिरी हुई जगह पर लोग बसते रहे । प्रायः शक्तिशाली व्यक्ति या शासक अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए निर्जन स्थानों पर लोगों को बसाया करते थे । खेतों के निकट अनुपजाऊ भूमि पैमाइश कर लोगों को बाँट दी जाती थी । इसी तरह प्रत्येक परिवार को खेत भी दिए जाते थे । भूमि के चौकोर टुकड़ों की पैमाइश होती थी, मगर चारों ओर से घिरे होने की वजह से उन्हें चक्र अर्थात ‘चक’ कहा जाने लगा था । सिलसिलेवार राज्यसत्ता के विकास के बाद भूक्षेत्र के रूप में चक शब्द का प्रयोग रूढ़ हुआ होगा । राजस्व शब्दावली के अंतर्गत हिन्दी में चक की आमद फ़ारसी से मानी जाती है । यूँ भी कह सकते हैं कि भारत-ईरानी परिवार की पश्चिमोत्तर बोलियों में प्राकृत चक्क के कई रूप प्रचलित होंगे जिनका सम्बन्ध वैदिक ‘चक्र’ से था । ऐसे कई चक होते थे जो बस्तियों में तब्दील हो जाते थे । किसी एक के स्वामित्व वाला खेतों का समूह भी चक कहलाता है जो अलग अलग मेड़ों के बावजूद मूलतः भूमि का एक ही खण्ड हो। इसी कड़ी का शब्द है चकबंदी जिसका अभिप्राय भूमि का सीमांकन या हदबंदी है । छोटी जोतों वाले खेतों को मिलाना या बड़े खेत में तब्दील करना ही चकबंदी है।
चकले की चर्चा । चक्कर ( चक्र ) और साइकल एक ही है । इसी तरह चक्र और सर्कल भी एक ही है । cycle में ‘c’ के लिए ‘स’ के स्थान पर ‘च’ का उच्चारण करें तो हमें अंदाज़ होता है इन दोनों में ( चक्कर ) ज्यादा अंतर नहीं है । साइकल भी एक वृत्त है और चक्कर भी मूलतः एक वृत्त ही है । डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- संस्कृत में चक्र का एक ग्रीक प्रतिरूप और है- किरकॉस । ग्रीक भाषा में ही इसका एक वैकल्पिक रूप क्रिकॉस है । ‘कर’, ‘कल’ दोनो क्रियारूप ग्रीक में हैं । कॅर, कॉर, ये दोनो रूप उस भाषा में हैं । किरकॉस से इस बात की पुष्टि होती है कि कुक्लॉस का पूर्वरूप कुल्कॉस था । इसी प्रकार फ़ारसी चर्ख से इस बात की पुष्टि होती है कि संस्कृत चक्र का पूर्वरूप चर्क था । लैटिन किर्कुस (चक्र), किर्रुस (छल्लेदार बाल) का आधार कॅर है ।” जो भी हो, चक्र के पूर्वरूप चर्क की बात करें या र के ल रूपान्तर पर सोचें, चकला शब्द का रिश्ता चक्र से ही जुड़ता है । चक्र को अगर खोला जाए तो च-क-र हाथ लगता है । चकला में भी च-क-ल ध्वनियाँ हैं । 'र’ का रूपान्तर ‘ल’ में होता है और इस तरह सीधे सीधे चक्र से चकला ( बरास्ता चक्ल ) हासिल हो रहा है । रॉल्फ़ लिली टर्नर की कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ में चकला की व्युत्पत्ति संस्कृत के चक्रल से मानी है । भारत का ‘चकराला’ और पाकिस्तान के ‘चकलाला’ नाम के स्थानों के मूल में यही ‘चक्रल’ है । अन्य कोशों में भी चकला का रिश्ता चक्रल से जोड़ा गया है । यह चक्रल वही है जो अंग्रेजी में सर्कल है । अगर चक्र का पूर्व रूप चर्क माने तो अंगरेज़ी सर्कल के आधार पर इंडो-ईरानी परिवार में चर्कल जैसे रूप की कल्पना भी की जा सकती है अर्थात संस्कृत के चक्रल का पूर्ववैदिक बोलियों में चर्कल ( सर्कल सदृश ) जैसा रूप रहा होगा । सर्कल की कड़ी में सर्कस भी है । –जारी
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Tuesday, December 25, 2012

मोदीख़ाना और मोदी

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[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]

पिछली कड़ी- मोदी की जन्मकुंडली

मोदी की अर्थवत्ता में शामिल भावों पर गौर करें तो इसका रिश्ता आपूर्ति, भंडार, स्टोर, राशन, दुकान, रसद, मिलिट्री सप्लाई, किराना, राजस्व, कर वसूली आदि से जुड़ता है । इन आशयों से जुड़े शब्दों की एक लम्बी शृंखला सेमिटिक धातु मीम-दाल-दाल (م د د ) यानी m-d-d से बनी है जिसमें आपूर्ति, सप्लाई, सहायता, सहारा, फैलाव जैसे भाव है । गौर करें हिन्दी में सहायता का लोकप्रिय पर्याय ‘मदद’ है जो इसी कड़ी से जुड़ा है । मद्द’ में निहित आपूर्ति या सहायता के भाव का विस्तार मदद में हैं जिससे मददगार, मददख़्वाह जैसे शब्द बने हैं । इसी कड़ी में आता है ‘इमदाद’ जिसका अर्थ भी आपूर्ति, सहायता, आश्रय, हिमायत अथवा सहारा होता है ।
द्द धातु से बने शब्दों में एक और दिलचस्प सब्द की शिनाख़्त होती है । बहीखातों की पहचान लम्बे-लम्बे कॉलम होते हैं जिनमें हिसाब-किताब लिखा जाता है । अरबी में इसके लिए ‘मद्द’ शब्द है । घिसते घिसते हिन्दी में यह ‘मद’ हो गया । हिन्दी में इसका प्रयोग जिन अर्थों में होता है उसका आशय खाता, पेटा, हेड या शीर्षक है जैसे- “यह रकम किस ‘मद’ में डाली जाए” या “मरम्मत वाली ‘मद’ मे कुछ राशि बची है” आदि । मद / मद्द के कॉलम, स्तम्भ या सहारा वाले अर्थ में अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में अलहदा धातु ऐन-मीम-दाल से बताई गई है । इससे बने इमादा, इमाद, अमीद, अमूद और उम्दा जैसे शब्द हैं जिनमें सहारा, मुखिया, स्तम्भ, प्रमुख, विश्वसनीय, प्रतिनिधि जैसे भाव भी हैं, अलबत्ता ये हिन्दी में प्रचलित नहीं हैं । सम्भव है यह मद्द की समरूप धातु हो ।
मोदी शब्द की व्युत्पत्ति को मद्द से मानने की बड़ी वजह है इसमें निहित वे भाव जिनसे मोदी की अर्थवत्ता स्थापित होती है । ‘मद’ तो हुआ खाता मगर इसका ‘मद्द’ रूप भी हिन्दी में नज़र आता है जैसे मद्देनज़र, मद्देअमानत आदि । मद्देनज़र का अर्थ है निग़ाह में रखना । ‘मदद’ में जहाँ सहायता का भाव है वहीं आपूर्ति भी उसमें निहित है । ‘मदद’ अपने आप में सहारा भी है सो ‘मदद’ में निहित ‘मद्द’ पहले कॉलम या स्तम्भ हुआ फिर यह बहीखातों का कॉलम या खाना हुआ और फिर इसे मदद की अर्थवत्ता मिली । अरबी में एक शब्द है ‘मद्दा’ जिसका अर्थ है विस्तार, फैलाव, सहारा वहीं इसमें सामान, वस्तु, चीज़, पदार्थ अथवा मवाद आदि की अर्थवत्ता भी है । शरीर के भीतर जख्म होने पर जब वह पकता है तो उसका आकार फूलता है । प्रसंगवश ‘मवाद’ शब्द भी अरबी का है और इसी मूल से निकला है । ‘मद्द’ में निहित फैलाव, विस्तार इसमें निहित है । ध्यान रहे आपूर्ति में भी विस्तार, फैलाव की अर्थवत्ता है । किसी स्थान पर किसी चीज़ की आपूर्ति से फैलाव होता है । गुब्बारे में हवा की आपूर्ति से समझें । भोजन करने पर पेट के फूलने से समझें । इसी तरह विशाल क्षेत्र में राशन की आपूर्ति में भी फैलाव का वही आशय है ।
यूँ मुग़लदौर में एक सरकारी विभाग ‘मोदीखाना’ भी प्रसिद्ध था जिसका अर्थ था रसद-आपूर्ति विभाग । हिन्दुस्तानी – फ़ारसी कोशों में मोदीखाना शब्द मिलता है जिसका अर्थ भण्डारगृह , किराना-स्टोर, अनाज की आढ़त, granary या commissariat ( कमिसरियत, सेना रसद विभाग ) मिलता है । हालाँकि इन्स्टीट्यूट ऑफ सिख स्टडीज़ के डॉ. कृपाल सिंह ने अपनी पुस्तक सिख्स एंड अफ़गान्स में ‘मोदी’ को अरबी शब्द माना है और इसका अर्थ “भुगतान किया जा चुका” बताया है । इसी पुस्तक में वे ‘मोदीखाना’ के बारे में बताते हैं कि यह दरअसल मुस्लिम दौर की उन सरकारों में एक महत्वपूर्ण विभाग था जहाँ किन्हीं कारणों से मौद्रिक लेन-देन कम होता था  और भू-राजस्व का भुगतान जिन्सी तौर पर किया जाता था । अर्थात मुद्रा के बदले अनाज, राशन, पशु आदि दे दिए जाते थे । सरकार इसे ही महसूल समझ कर रख लेती थी । इसी मोदीखाने का प्रमुख ‘मोदी’ कहलाता था । यह ‘मोदी’ कर वसूल करता था । उसे जमा करता था और फिर जमा की गई जिंसों को वह शासन द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेच भी सकता था । ज़ाहिर है इस नाम के पीछे मद्दा में निहित वस्तु, सामग्री, जिंस, चीज़ जैसे आशय ही व्युत्पत्तिक आधार हैं । प्रसंगवश सुलतानपुर के नवाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में अपने शुरुआती जीवन में गुरुनानक भंडारी (मोदी) के पद पर थे जहाँ खाद्यान्न के रूप में लगान जमा किया जाता था ।
सेनाओं में प्राचीनकाल से ही यह परिपाटी रही है कि कूच करते वक्त उनके साथ दुनियाजहान का असबाब भी चलता था । चालू भाषा में जिसे लवाजमा या फौजफाटा कहते हैं उसका तात्पर्य यही है । मुग़ल दौर में जब फौज चलती थी उसके साथ पंसारी की दुकान भी होती थी जिसे मोदीख़ाना कहते थे । दवाईखाना, मरम्मतखाना, फराशखाना जैसे विभागों में ही एक विभाग मोदीखाना था । स्थायी तौर पर किसी श्रेष्ठी को सेना में रसद आपूर्ति का काम मिल जाता था और कभी शासन की तरफ़ से ही प्रत्येक बड़े शहर में वणिकों को फौज को राशन पहुँचाने का अनुबंध मिल जाता था । सरकार के स्वामीभक्त व्यवसायी, प्रभावशाली धनिक ऐसे करार (ठेके) पाने के लिए जोड़-तोड़ करते थे । मगर उसकी मुश्किलें भी थीं । ये काम पाने के लिए उन्हें आज की ही तरह से सरकार के असरदार लोगों की जेबें गर्म करनी पड़ती थीं । आठवीं-नवीं सदी के भारत में भ्रष्टाचार के कई नमूने शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम’ नाटक से भी पता चलते हैं ।
चार्य विष्णुशर्मा लिखित पंचतन्त्र में इसका उल्लेख है जिससे पता चलता है कि सेना में रसद आपूर्ति का काम प्राचीनकाल से ही मोटी कमाई वाला माना जाता था । पंचतन्त्र की संस्कृत – हिन्दी व्याख्या में श्यामाचरण पाण्डेय लिखते हैं- गौष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः। वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाSद्य लब्धा किमन्येन ।। अर्थात “मोदी का काम करने वाला व्यापारी जब किसी राजकीय सेना आदि को रसद पहुँचाने का कार्य पा जाता है तो प्रसन्न होकर अपने मन में सोचता है कि आज मैने पृथ्वी पर सम्पूर्ण धन ही प्राप्त कर लिया है । पुनः निश्चित होकर लोगों को लूटता है ।” आज के दौर के बड़े कारोबारियों के पुरखों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में रसद आपूर्ति ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे किए थे, यह किसी से छुपा नहीं है । सेना सहित विभिन्न विभागों के कैंटीन और रेलवे की खानपान सेवा जैसी व्यवस्थाएँ दरअसल “मोदीखाना” जैसी प्राचीन आपूर्ति सेवाओं के ही बदले हुए रूप हैं । यूँ ‘मोद’ से भी ‘मोदी’ का रिश्ता जोड़ा जा सकता है क्योंकि उसके सारे प्रयत्न खुद के आमोद-प्रमोद के लिए होते हैं ।-समाप्त 

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Monday, December 24, 2012

मोदी की जन्मकुंडली

gnatmodikhana[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]
प्रा  यः सभी भाषाओं के बुनियादी शब्दभंडार में जिन ख़ास स्रोतों से शब्द आते हैं उनमें सैन्य-प्रशासन जैसे क्षेत्र भी है । ऐसा ही एक शब्द है ‘मोदी’ modi वणिक वर्ग का एक उपनाम भी है जैसे प्रसिद्ध व्यावसायिक घराना ‘मोदी’ के संस्थापक रायबहादुर गूजरमल मोदी । उपनामों पर अगर गौर करें तो अधिकांश उपनामों के निर्माण का आधार स्थानवाची या कर्मवाची है अर्थात उपनाम धारण करने वाले के निवास या उसके खानदानी पेशा का संकेत इसमें छुपा होता है जैसे दारूवाला ( मद्य व्यवसाय ) या पोखरियाल (पोखरा वाला अर्थात पोखरा का निवासी ) आदि । ऐसा ही एक नाम ‘मोदी’ है मगर दो अक्षरों के इस सरनेम से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता जिससे इसमें निहित व्यवसायगत या जातिगत संकेत मिलें । हम सिर्फ़ रूढ़ अर्थ में जानते हैं कि ‘मोदी’ बनिया जाति का एक उपनाम है और बनिया व्यापार करता है । किन्तु मोदी शब्द में व्यापार जैसी अर्थवत्ता भी नहीं है । जानते हैं ‘मोदी’ की जन्मकुंडली ।

ब्दकोशों में ‘मोदी’ शब्द के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारियाँ नहीं मिलतीं । लगभग सभी शब्दकोशों में ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मोद’ ( आनंद ) या मोदक ( लड्डू ) से जोड़ने का प्रयत्न नज़र आता है । खास बात यह भी कि तमाम कोशों में इसका अर्थ बनिया, अनाज का व्यापारी, नून-तेल-मिर्ची, आटा-दाल-चावल का आढ़ती, खाद्य सामग्री बेचने वाला परचूनिया, राशन-अनाज का किरानी आदि बताया गया है । ये सभी आशय संस्कृत के ‘मोद’ अर्थात आनंद, हर्ष, सुख के व्यावहारिक अर्थ से मेल नहीं खाते । जॉन प्लैट्स ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत से जोड़ते हैं मगर उसका मूल नहीं बताते । यही नहीं, वे मोदी का मुख्य अर्थ मिठाईवाला या हलवाई बताते हैं । सम्भव है उनके दिमाग़ में ‘मोद’ से ‘मोदक’ अर्थात एक क़िस्म का लड्डू रहा हो । ‘मोदी’ का रिश्ता ‘मोदक’ से हिन्दी शब्दसागर में भी जोड़ा गया है, अलबत्ता ‘मोदक’ के अलावा उसके अरबी मूल का होने की सम्भावना भी जताई गई है । 

प्लैट्स के कोश में भी ‘मोदी’ को दुकानदार, बनिया, भंडारी आदि बताया गया है । गुजरात में मोढ़ वैश्य समुदायको मोढी भी कहा जाता है। इसका उच्चार भी कहीं कहीं मोदी की तरह किया जाता है। इस तरह यह स्थानवाची शब्द हुआ।  कुछ लोग सोचते हैं कि देशव्यापी मोदी का रिश्ता गुजरात के मोढेरा या गुजराती मोढ़ वैश्य समूदाय से है तो वह संकुचित दृष्टि है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में साहू तेली होते हैं। यह साहू मूलतः साह, साधु से ही आ रहा है। प्रभावशाली वर्ग। अरबी मोदी की तुलना में मोढी या मोढ़ उपसर्ग का अर्थ व्यापक है। मोढेरा से जिनका रिश्ता है वे सभी मोढ हैं। खास तौर पर वणिकों और ब्राह्मणों में आप्रवासन ज्यादा हुआ सो मोढेरा के लोग मोढ हो गए। गुजाराती विश्वकोश के मुताबिक मोढ़ समुदाय में ब्राह्मण, वैश्य, किरानी, तेली, पंसारी, साहूकार सब आ जाते हैं।
 

मारा मानना है कि ‘मोदी’ भी सैन्य शब्दावली से आया शब्द है । इसका रिश्ता सेना की रसद आपूर्ति व्यवस्था से है । ‘मोदी’ का निर्माण निश्चित ही मुस्लिम दौर में हुआ जब अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस भारतीय भाषाओं में हो रही थी । फ़ौजदार, जमादार, नायब, एहदी, बहादुर, नौकर, चाकर, ज़मींदार, कानूनगो, मुनीम समेत सैकड़ों अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं जो अरबी-फ़ारसी मूल के हैं और जिनका रिश्ता फ़ौज से रहा है । ‘मोदी’ भी मूल रूप से अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में दाखिल हुआ । इतिहास-पुरातत्व के ख्यात विद्वान हँसमुख धीरजलाल साँकलिया ने गुजरात के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इसे अरबी मूल का माना है । हालाँकि एस. डब्ल्यू फ़ैलन की न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी में भी ‘मोदी’ का रिश्ता मोदक अर्थात लड्डू से जोड़ा गया है । ध्यान रहे मोदक का रिश्ता ‘मोद’ अर्थात आनंद से हैं ।
मोदी शब्द के अरबी होने के कई प्रमाण हैं । औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हैंक्लिन-जैंक्लिन में भी बनिया प्रविष्टि के अंतर्गत ‘मोदी’ का भी उल्लेख है । इसमें लिखा है कि “रियासती दौर में लगान की वसूली अनाज के रूप में होती थी उसे जिस गोदाम में इकट्ठा किया जाता था उसे मोदीखाना कहते थे । व्यापारी के अर्थ में एक अन्य शब्द ‘मोदी’ भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका दर्ज़ा पंसारी या किरानी का है ।” आज भी देश के सैकड़ों शहरों-क़स्बों में ‘मोदीखाना’ नाम की इमारतें हैं जिनकी वजह से समूचे मोहल्ले या इलाक़े को भी मोदीखाना modikhana के नाम से जाना जाता है जैसे जयपुर का चौकड़ी मोदीख़ाना । इतिहास की क़िताबों में पंसारी या दुकानदार की अर्थवत्ता से इतर ‘मोदी’ शब्द के जो संदर्भ हैं उनमें उसे लगान अधिकार, कारिंदा, गुमाश्ता, दीवान, गाँव का मुखिया आदि बताया है। 

कृ.पा. कुलकर्णी के प्रसिद्ध मराठी व्युत्पत्तिकोश में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ अनाज व्यापारी, दीवान, चौधरी, भंडारी आदि बताया है । ‘मोदी’ की व्युत्पत्ति अरबी के ‘मुदाई’ से बताई गई है जिसका अर्थ होता है विश्वस्त या भंडारी । मोदी के साथ ही मोदीखाना शब्द भी है जिसका अर्थ है फौजी रसद विभाग । ज़ाहिर है मोदी ही फ़ौजी रसद विभाग का प्रमुख यानी भंडारी हुआ । सिख विकी में भी मोदी शब्द का रिश्ता रसद, राशन, किराना से ही जुड़ता है न कि मिठाई या हलवाई से – “Modi Khana is a reference to a provision store or a food supplies store. It is referred to in the Janamsakhis of Guru Nanak when he worked in a food store in Sultanpur while staying in the town where his sister, Nanaki and her husband Bhai Jai Ram lived. ”  यही नहीं फारसी-मराठी कोशों में भी मोदी शब्द का उल्लेख है और इसका मूल ‘मुदाई’ बताया गया है ये अलग बात है कि अरबी, फ़ारसी, उर्दू कोशों में मुदाई शब्द नहीं मिलता । 
sutlerइंग्लिश-हिन्दुतानी, इंग्लिश-इंग्लिश, फ़ारसी-हिन्दी कोशों में मोदी का अर्थ सामान्य तौर पर आढ़ती ( grain merchant ) पंसारी ( grocer) बनिया ( trader ) विक्रेता ( vender ), व्यापारी ( Merchant ) दुकानदार ( shopkeeper ) के अलावा बतौर हलवाई या मिठाईवाला  'A sweetmeat-maker, a confectioner' भी मिलता है जिसका व्युत्पत्तिक सम्बन्ध कोशकारों नें ‘मोद’ या ‘मुद’ से जोड़ा है । ऐसा लगता है कि कोशकारों के मन में मोद = आनंद = मिठाई = हलवाई जैसा समीकरण रहा होगा अगर इसे किसी तरह कबूल भी कर लिया जाए तो भी यह मानना कठिन है कि हलवाई की अर्थवत्ता में पंसारी, आढ़ती, व्यापारी, बनिया, दुकानदार जैसे भाव कहाँ से समा गए ?

इसी कड़ी में क़रीब 110 साल पहले पोरबंदर रियासत के गजेटियर में ‘मोदी’ के बारे में लिखी ये पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं- “In order No. 45* dated 17-8-1901 published in State Gazette Vol. XV regarding the Modi's duty to be present when called to fix the Nirakh of the Modikhana, the word " Modi " includes gheevvalas, fuel sellers, grocers, sweetmeat sellers, butchers &c.( The Porbandar State directory (Volume 2)” गजेटियर यह भी लिखता है कि मोदीखाना के लिए साल में एक बार स्थानीय व्यापारियों में से किसी एक को ठेका दिया जाता था ।
डिक्शनरी ऑफ़ द प्रिन्सीपल लेंग्वेजेज़ स्पोकन इन द बेंगाल प्रेसिडेंसी में पी.एस. डी’रोजेरियो भी ग्रोसर अर्थात किरानी के पर्याय के लिए ‘मोदी’ शब्द ही बताते हैं । हालाँकि वे इसके बांग्ला रूप ‘मुदी’ का उल्लेख करते हैं । बांग्ला और मराठी में ‘मोदी’ के साथ ‘मुदी’ mudi शब्द भी मिलता है । अंग्रेजी में एक शब्द है सटलर sutler जो मध्यकालीन डच भाषा के soeteler से बना है अर्थात सेना के लिए खान-पान सेवा चलाने वाला व्यापारी । अधिकांश प्रसिद्ध कोशों के पुस्तकाकार या ऑनलाईन संस्करणों में इसका हिन्दी अनुवाद मोदी ही दिया हुआ है । ध्यान रहे सामान्य तौर पर कैंटीन का अर्थ भी रसोई ही होता है । फौजी छावनियों को केंटोनमेंट cantonment कहते हैं जिसका संक्षेप कैंट होता है । अंग्रेजी कोशों में भी कैंट का मूलार्थ फौजी छावनी में राशन की दुकान है । अरबी के ‘आमद्दा’ में राशन पहुँचाने, मदद पहुँचाने या आपूर्ति का भाव है । ग्रोसर या पंसारी के तौर पर अरबी में ‘मोदी’ शब्द नहीं मिलता और फ़ारसी में भी नहीं पर इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे मद्दी ( विषय-वस्तुओं में रुचि रखनेवाला), मुअद्दी ( पहुँचानेवाला, भेजनेवाला ), मद्दा ( विषय-वस्तु, सामग्री, चीज़, पदार्थ ) आदि जिनसे फ़ारस या भारत की ज़मीन पर मोदी शब्द विकसित हुआ होगा और वहीं से अन्य मुस्लिम शासित इलाक़ों की बोलियों में यह रचा-बसा होगा । –जारी 
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Friday, September 21, 2012

मुनीमजी की खोजखबर

nawabसंबंधित शब्द-1.तहसीलदार. 2.वजीर. 3.वायसराय. 4.जागीरदार. 5.कानूनगो. 6.श्रीमंत. 7.नौकर. 8.चाकर. 9.मुसद्दी. 10.एहदी. 11.अमीर. 12.फौजदार. 13.क्षत्रप 

हि न्दी की खूबी है कि उसने अन्य भाषाओं से ख़ासतौर पर अरबी-फ़ारसी से आए शब्दों को उनके शुद्धतम रूप में स्वीकार किया है । बहुत कम शब्द ऐसे हैं जिनके देसी रूपों को बोल-चाल और लिखत-पढ़त में जगह मिली है अन्यथा अरबी-फ़ारसी के शब्दों को अलग से पहचाना जाता है । मुनीम भी ऐसे ही दुर्लभ शब्दों में है जिससे यह अंदाज़ नहीं लगता कि यह हिन्दी में अरबी से आयात हुआ है । आज़ादी के बाद सिनेमा और साहित्य ने मुनीम के ज़रिए ही औपनिवेशिक काल के संघर्षशील और शोषित समाज की तकलीफ़, बदक़िस्मती, दुश्वारी और दुर्दशा को उजागर किया । सामन्ती समाज के निरंकुश चरित्र को सामने लाने वाला कारिन्दा था मुनीम जिसकी संवेदना सिर्फ़ वसूली, कब्ज़ा और दोहन से जुड़ी थी । आम आदमी के लिए बुरे सपने समान था का मुनीम । कम्पनीराज में जब सामन्तों को नवाब की उपाधियाँ रेवड़ियों की तरह बँट रही थीं, तब उनके नायब की ज़िम्मेदारी इन्हीं मुनीमों ने बखूबी सम्भाली । मौकापरस्ती इनकी खूबी थी और वह दौर भी आया जब नवाबों की बदचलनी का फ़ायदा उठा कर कुछ मुनीम खुद नवाब बन बैठे । आख़िर नवाब, नायब और मुनीम में रिश्तेदारी जो ठहरी ।
सेमिटिक भाषा परिवार की एक धातु है नून-वाव-बा (n-w-b) । मूल रूप से इसमें घूमना, मुड़ना, परिवर्तन, लौटना, फिरना, बारी, बदली जैसे भाव हैं । अल सईद एम बदावी की अरेबिक इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ कुरानिक यूज़ेज़ में जिसके कब्ज़ा, वसूली, अधिग्रहण, दुर्दशा, विपत्ति, निरीक्षण जैसे अर्थ दिए गए हैं । सहायक या डिप्टी के अर्थ में हिन्दी में अरबी मूल का नायब शब्द भी प्रचलित है जो इसी धातु से जन्मा है । इसका अरबी रूप नाइब है । ध्यान दीजिए नून-वाव-बा की अर्थवत्ता पर जिसमें मूल रूप से स्थानापन्न का भाव उभर रहा है । कब्ज़ा या अधिग्रहण क्या है ? किसी ओर का काबिज हो जाना । सहायक, नायब या डिप्टी कौन है ? जो प्रमुख व्यक्ति के स्थान पर काम करे । किसी बदले काम करने वाला व्यक्ति ही नायब होता है । नायब का अर्थ है प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा तैनात अफ़सर । वरिष्ठ अधिकारी । नून-वाव-बा (n-w-b) घूमने, लौटने, मुड़ने के भावों का विस्तार मुआइना, निरीक्षण, बारी, अवसर, पाली, बदली में होता है और नायब की ड्यूटी में ये सभी काम शामिल हैं । किसी ज़माने में तहसील ही रियासतों की सबसे बड़ी ईकाई होती थी । तब तहसीलदार का रुतबा कलेक्टर का होता था । तहसीलदार का प्रमुख सहकारी नायब तहसीलदार कहलाता था । आज़ादी के बाद तहसील से ऊपर ज़िला बना और कलेक्टर, तहसीलदार से ऊपर हो गया । इस तरह तहसीलदार को डिप्टी कलेक्टर कहा जाने लगा । मगर नायब तहसीलदार अपनी जगह कायम रहा ।
सी तरह नवाब शब्द भी इसी कड़ी में आता है । नवाब की व्युत्पत्ति भी n-w-b से हुई है और इसका एक रूप नव्वाब भी है । आमतौर पर नवाब शब्द को हिन्दी में शासक, राजा या बादशाह का पर्याय समझा जाता है पर ऐसा नहीं है । नवाब दरअसल एक उपाधि है और यह नाइब (नायब) का रूपान्तर है । इस्लामी शासकों की मान्यता के मुताबिक दुनिया पर खुदा की बादशाहत है और वे महज़ उसके प्रतिनिधि हैं । नवाब इसी रूप में शासक शब्द का प्रतिनिधित्व करता है । नवाब में भी प्रतिनिधि, नुमाइंदा, अहलकार, मुख्तार जैसे भाव हैं । मुस्लिम शासकों ने कई सूबेदारों को नवाब की इज़्ज़त बख़्शी क्योंकि वे उस सूबे में केन्द्रीय सत्ता के प्रतिनिधि थे । राज्यपाल के अर्थ में भी नवाब शब्द प्रचलित रहा । अंग्रेजों ने भी नवाब की पदवियाँ बाँटीं । कई घरानों ने नवाब शब्द को पैतृक उपाधि की तरह अपने नाम के साथ जोड़ लिया । नवाबजादा, नवाबजादी जैसे शब्दों में मुहावरेदार अर्थवत्ता कायम हुई जिसका अर्थ था शानशौकत, दिखावापंसद औलादें । कुल आशय बिगड़ैल संतान से है ।
नून-वा-बा से बने मूल नाब शब्द में प्रतिनिधित्व, सूचना जैसे भाव हैं । उर्दू फारसी का नौबत शब्द हिन्दी में भी सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में शामिल है । नौबत आना, नौबत पहुँचना, या नौबत बजना जैसे मुहावरे खूब प्रचलित हैं। नौबत का सीधा सीधा मतलब है घड़ी, अवसर, बारी, दशा इत्यादि । इसका अन्यार्थ सचेत होना, सतर्क होना भी है क्योंकि बारी, घड़ी या अवसर एक तय आवृत्ति के बाद आता है जिसके लिए हम तैयार रहते हैं । इसी तरह नबाहा शब्द भी इसी कड़ी में आता है । नौबत वैसे अरबी ज़बान के नौबा से बना है जिसमें बारी, अवसर जैसे ही भाव थे मगर बाद में इसमें ईश्वर की आऱाधना (बारंबार), धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना जैसे भाव भी शामिल हो गए । इस रूप में समय का बोध कराने के नियत समय पर लिए नक्कारा बजाया जाता था जिसे नौबत कहा जाने लगा । आमतौर पर यह परंपरा ईश्वरआराधना के लिए सावधान करने के लिए थी मगर ऐसा लगता है कि राज्यसत्ता ने बाद में इसे अपना लिया। फिर समाज के प्रभावशाली व्यक्ति अपने घर के दरवाजे पर किसी भी किस्म की सूचना करने के लिए नौबत बजवाने लगे और बजानेवाला नौबती या नौबतचीं कहलाने लगा ।
मय चक्र पर गौर करें । सूरज का उगना, ढलना, फिर उगना । यह चक्र है । समय सूचक घड़ी के काँटे भी गोल घूमते हैं । यानी निरन्तर गति । हर बार उसी स्थान पर लौटना । स्थानापन्न होना । अरबी में घड़ी के लिए मुनब्बिह शब्द है । ‘मु’ उपसर्ग लगने से मुनीब शब्द बनता है । जॉन प्लैट्स की अ डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसारी मुनीब का अर्थ “to make (one) supply the place (of another),' iv of ناب (for نوب) 'to supply the place (of another)'), s.m. One who appoints a deputy; a patron; master; client; constituter; constituent;—one appointed to conduct a business, foreman, factor, agent, headman.” दिया गया है । ज़ाहिर है मुनीब सहायक भी है, मातहत भी है, नायब भी है । कार्यपालन अधिकारी की शक्तियाँ उसमें निहित होने के चलते वही सरपरस्त है, मालिक और प्रशासक भी है । मुस्लिम शासन के दौरान मुनीब ये सब काम करते थे । मूलतः राजस्व अधिकारी की तरह ये काम करते थे और दौरा करते थे । धीरे-धीरे इनका काम हिसाब-किताब देखने तक सीमित हो गया और इनकी हैसियत सामान्य बाबू की हो गई । मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश में मुनीब का अर्थ है प्रतिनिधि, नुमाइदः, अभिकर्ता, एजेंट या गुमाश्ता । जहाँ तक मुनीब के मुनीम में तब्दील होने का सवाल है, तो हमें अम्मा शब्द पर विचार करना चाहिए । हिन्दी में अन्त्य वर्ण में अनुनासिकता की वृत्ति है । अम्मा का एक रूप अम्ब भी है । यहाँ का लोप होकर ध्वनि शेष है । यही बात मुनीब के मुनीम रूप में भी हो रही है ।

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Wednesday, August 8, 2012

जासूस की जासूसी

Spy

न्सान शुरू से बेहद फ़ितनासिफ़त रहा है । उसे सब कुछ जानना है । एक ओर धरती के पेट में क्या है, यह जानने और फिर उसे निकालने में वह दिन-रात एक किए रहता है, दूसरी तरफ़ चांद-सितारों के पार क्या है इसके लिए बेचैन रहता है । जो कुछ छुपा हुआ है, जो कुछ अदृष्ट है वह सब उसे देखना है, जानना है । जानने की यह चाह ही जासूस की राह बनती है । सामान्य जिज्ञासा रखने से समझदारी के दरवाज़े खुलते हैं और किन्हीं निजी दायरों के भेद जानने कोशिश से जासूसी की कहानी बनती है । इन दायरों की सीमा किसी देश की सरकार और राजनीतिक दल से लेकर घरानों, परिवारों और एक व्यक्ति विशेष तक भी सीमित हो सकती है । दुनिया के सबसे पुराना पेशा देहव्यापार कहा जाता है । हमारा मानना है कि जासूसी को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए ।
किसी के भेद लेना, टोह लेना, गुप्तचरी कराना जैसी क्रियाओं के लिए हिन्दी में जासूसी सबसे ज्यादा लोकप्रिय शब्द है । हिन्दी में जासूस शब्द की आमद फ़ारसी के ज़रिये हुई है मगर यह सामी मूल का शब्द है । अल सईद एम बदावी, अरबी-इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ़ कुरानिक यूज़ेज के मुताबिक इसका अर्थ हाथों से परीक्षण करना, जाँच करना, झाँकना, ढूँढना, तलाशना, टोह लेना, भेद लेना, छान-बीन करना जैसी बातें हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि ये सभी बातें किसी की निजता के दायरे में करने का आशय इस धातु में निहित है । आज आज जिस अर्थ में जासूस शब्द का प्रयोग होता है निश्चित ही उसका विकास राजनीति के इतिहास के साथ-साथ हुआ । जासूस शब्द अरबी की जीम-सीन-सीन धातु से बना है । बदावी ने इसके लिए j-s-s का प्रयोग किया है जबकि अन्द्रास रज्की इसके लिए g-s-s का प्रयोग करते हैं । हालाँकि दोनों ही स्थानों पर वर्ण का ही संकेत है ।
रबी मूल के जासूस की व्याप्ति कई सेमिटिक और भारोपीय भाषाओं में है जैसे तुर्की में जासुस, अज़रबेजानी में जासूस, स्वाहिली में जासिसी, उज़्बेकी में जोसस है । इसी कड़ी में अरबी का जस्सा शब्द भी है जिसका हिब्रू रूप गिशेश है जिसका अर्थ है परीक्षण करना । मूलतः जासूस शब्द का अर्थ भी छूना, टटोलना, महसूस करना, परीक्षण करना, जाँचना है । मराठी में जासूस को जासूद कहते हैं जिसका मूलार्थ संदेशवाहक, हरकारा या दूत है । जासूस के अर्थ में चोरजासूद शब्द है जो दरअसल गुप्तचर या भेदिया होता है । संदेशवाहकों की जोड़ी जासूदजोड़ी कहलाती है । मराठी में जासूस के लिए हेर, बातमीदार या निरोप्या शब्द भी हैं जबकि संस्कृत-हिन्दुस्तानी में एक लम्बी कतार नज़र आती है जैसे- अपसर्प, हरकारा, अवलोकक, अवसर्प, गुप्तचर, गुरगा, सूचक, गोइंदा, मुखबिर, दूत, चर, चरक, भेदिया, कासिद, जबाँगीर, चारपाल, जरीद, टोहिया, थांगी, पनिहा, प्रणिधि, वनमगुप्त, प्रवृतिज्ञ, वार्तायन, वार्ताहर, प्रतिष्क, संदेशवाहक आदि ।
जासूस के अलावा हिन्दी में भेदिया शब्द भी है जो बना है संस्कृत धातु भिद् से जिसमें दरार, बाँटना, फाड़ना, विभाजित करने जैसे भाव हैं । दीवार के लिए भित्ति शब्द इसी मूल से आ रहा है । कोई भी दीवार दरअसल किसी स्थान को दो हिस्सों में बाँटती है। एक समूचे मकान की दीवारें विभिन्न प्रकोष्ठों का निर्माण करती हैं । भेद, भेदन, भेदना जैसे शब्द भी भिद् से तैयार हुए हैं। रहस्य के अर्थ में जो भेद है उसमें दरअसल आन्तरिक हिस्से में स्थित किसी महत्वपूर्ण बात का संकते है जो उजागर नहीं है । ज़ाहिर है इस बात को रहस्य की तरह माना गया, इसलिए भेद का एक अर्थ गुप्त या रहस्य की बात भी है । भेद को उजागर करने के लिए उस स्थान पर भेदने की क्रिया ज़रूरी है, तभी वह गुप्त बात सामने आएगी । भेदिया शब्द भी इसी धातु से तैयार हुआ है जिसका अर्थ है जासूस, भेदने वाला । कई बार प्रकार, अन्तर, फर्क आदि के अर्थ में भी भेद शब्द का प्रयोग होता है । बात वही विभाजन की है । किसी चीज़ के जितने विभाजन होंगे, उसे ही भेद कहेंगे जैसे नायिका-भेद यानी नायिकाओं के प्रकार । फूट डालने के अर्थ मे भेद डालना मुहावरा भी प्रचलित है । “दीवारों के भी कान होते” हैं जैसी कहावत में दीवारों के पीछे छुपने वाले और वहाँ बसने वाले भेदों का ही तो संकेत मिलता है अर्थात दीवारे भी जासूसी करती हैं ।
संस्कृत का गुप्तचर शब्द हिन्दी की तत्सम शब्दावली में भी जासूस के अर्थ में मौजूद है । यह बना है गुप् धातु से जिसमें रक्षा करना, बचाना, आत्मरक्षा जैसे भाव तो हैं ही, साथ ही इसमें छुपना, छुपाना जैसे भाव भी हैं । गौर करें कि आत्मरक्षा की खातिर खुद को बचाना या छुपाना ही पड़ता है । मल्लयुद्ध के दाव-पेच दरअसल क्या हैं ? दरअसल अपने अंगों को आघात से बचाने की रक्षाविधि ही दाव-पेच है । रक्षा के लिए चाहे युद्ध आवश्यक हो किन्तु वहां भी शत्रु के वार से खुद को बचाते हुए ही मौका देख कर उसे परास्त करने के पैंतरे आज़माने पड़ते हैं। यूँ बोलचाल में गुप्त शब्द का अर्थ होता है छुपाया हुआ, अदृश्य । गोपन, गोपनीय, गुपुत जैसे शब्द इसी मूल से आ रहे हैं। प्राचीनकाल में गुप्ता एक नायिका होती थी जो निशा-अभिसार की बात को छुपा लेने में पटु होती थी । इसे रखैल या पति की सहेली की संज्ञा भी दी जा सकती है। गुप्ता की ही तरह गुप्त से गुप्ती भी बना है जो एक छोटा तेज धार वाला हथियार होता है। इसका यह नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि इसे वस्त्र-परिधान में आसानी से छुपाया जा सकता है ।
गुप्त और चर दोनों से मिलकर बना है गुप्तचर जिसका का शाब्दिक अर्थ हुआ छुप-छुप कर चलने वाला । गुप्तचर में जो मूल भाव है वह है खुद की पहचान को छुपाना न कि चोरी-छिपे चलना । खुद को छुपाने से बड़ी बात है खुद की पहचान को गुप्त रखते हुए लोगों के बीच रहना, उठना-बैठना । ये सब बातें “चर” में निहित हैं । राजनय और कूटनीति के क्षेत्र में गुप्तचरी का महत्व सर्वाधिक होता है जहाँ एक अध्यापक, एक चिकित्सक, एक सिपाही, एक सब्ज़ीवाला, नाई, गृहिणी गर्ज़ यह कि कोई भी जासूस हो सकता है । यही है गुप्तचर का असली अर्थ ।
इसे भी देखें- जासूस की जासूसी

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Tuesday, July 31, 2012

मीरासियों के वारिस

miras

हि न्दी में नाचने-गाने वालों, वाचिक व आंगिक चेष्टाओं के जरिये मनोरंजन करने वालों को भांड-मीरासी कहा जाता है । यह शब्दयुग्म दरअसल सामंती व्यवस्था में ज्यादा प्रयोग में आता था । आज के दौर में इसका प्रयोग मुहावरे की तरह होता है जिसमें चाटूकारिता और खुश करने की चेष्टाओं का संकेत है । प्राचीनकाल मे भी इस पद का सम्बन्ध दरबार संस्कृति से जुड़ता था और आज भी किसी राजनेता के टहलुओं, चमचों, चापलूसों को भांड-मीरासी कह कर ही नवाज़ा जाता है । इस शब्दयुग्म का पहला पद भाण्ड हिन्दी की तद्भव शब्दावली का है तो मीरासी शब्द फ़ारसी से आया है जिसके जन्मसूत्र सेमिटिक परिवार की अरबी से जुड़ते हैं । हिन्दी में मीरासी शब्दको ह्रस्व लगा कर मिरासी लिखने की प्रवृत्ति ज्यादा है जबकि यह शब्द बना है अरबी के मीरास से जिसका अर्थ है विरासत या वंशानुगत प्राप्ति । ग़ालिब ने दुखों को मीरास-ऐ-ज़िंदगी कहा है अर्थात जीवन का अनिवार्य तत्व । ज़िन्दगी की विरासत । मीरासी में सीन का प्रयोग भी मिलता है और शीन का भी । मराठी में मीराशी भी लिखा जाता है और मीरासी भी जबकि हिन्दी में ज्यादातर मीरासी ही चलता है ।
बसे पहले बात करते हैं मीरासी की । मीरासी का प्रयोग उत्तर और दक्षिण भारत में अलग-अलग तरह से होता है । उत्तर भारत का मीरासी नचैया-गवैया-बजैया होने के साथ-साथ मूलतः संगीतजीवी-कलाजीवी तबका है, जिसका काम लोकरंजन है मगर जो लोक उपेक्षा और उपहास का पात्र भी था । दूसरी तरफ़ दक्कन का मीरासी ऐसा प्रभावशाली ज़मींदार तबका था । खासतौर पर मध्यभारत के खानदेश से लेकर कर्नाटक तक फैले शिवाजी के विस्तृत मराठा साम्राज्य की ज़मीन-बंदोबस्त और भू-राजस्व प्रणाली का अहम हिस्सा था मीरासी वर्ग । मीरासी बना है मीरास से जिसके मूल में है अरबी का मीराथ । गौरतलब है कि अरबी के “थ” वर्ण का उच्चार उर्दू में “स” की तरह होता है । जैसे हदीथ को उर्दू में हदीस कहते हैं । इसलिए मूल सेमिटिक उच्चारण वाले मीराथ का उर्दू रूप मीरास होता है जिसका अर्थ है विरासत । मीराथ के मूल में वारिथा waritha अथवा वारिसा है जिसमें परम्परा से पाने का भाव है जैसे उत्तराधिकार में पाना, विरासत में पाना, स्वामी या वारिस बनना आदि ।
त्तराधिकारी के लिए हिन्दी में वारिस शब्द आमतौर पर इस्तेमाल होता है । इसीतरह उत्तराधिकार, वंशाधिकार, कुलाधिकार जैसे आशयों के लिए विरासत बेहद सामान्य शब्द है । इसी कड़ी से मीराथ का जन्म हुआ है जिसमें विरासत का ही भाव है । इसी कड़ी में अरबी का एक शब्द है मूरिस । अगर उत्तराधिकार पाने वाला वारिस है तो उत्तराधिकार सौंपनेवाला कौन ? ज़ाहिर है वसीयतकर्ता ही मूरिस है इसके अलावा पुरखा, वंश प्रवर्तक या पूर्वज भी इसकी अर्थवत्ता में आते हैं । हिन्दुस्तानी ज़बान से हिन्दी को यह शब्द उत्तराधिकार में तो नहीं मिला मगर शेरो-शायरी में यह मूरिस चलता है जैसे, अकबर इलाहाबादी साहब ने फ़र्माया है – डारविन साहब हक़ीक़त से निहायत दूर थे । मैं न मानूंगा कि मूरिस आप के लंगूर थे ।। हाँ, मूरिस की कड़ी में मौरुस ज़रूर नज़र आता है जिसका इस्तेमाल अदालती भाषा में आज भी खूब होता है और बोलचाल में भी इसका दख़ल बना हुआ है । मौरुस का शुद्ध अरबी रूप मौरुथ है जिसका अर्थ है पैतृक या उत्तराधिकार में प्राप्त । हिन्दी में उत्तराधिकार, विरासत आदि अर्थों में इसका मौरूसी रूप ज्यादा प्रचलित है ।
तिहासविद् डॉ. रहीस सिंह अपनी पुस्तक मध्यकालीन भारत में लिखते हैं कि “मध्यकालीन दक्कन की मीरासी व्यवस्था भूमि-व्यवस्था में सबसे प्रमुख और प्रथम श्रेणी की थी । यह कृषक स्वामित्व की व्यवस्था थी । भू-व्यवस्था के तहत मीरास का तात्पर्य उस भूमि से है जिस पर व्यक्ति का एकछत्र पुश्तैनी अदिका हो । मराठी दस्तावेजों में इसका प्रयोग ऐसे किसी पुश्तैनी और हस्तान्तरित अधिकार के लिए किया गया है जिसे व्यक्ति ने उत्तराधिकार में खरीदकर या उपहार द्वारा प्राप्त किया हो ।” महाराष्ट्र में वंशानुगत रूप से भूमि स्वामित्व अधिकार प्राप्त व्यक्ति को मीरासदार (मीराज़दार) कहते हैं और जागीरदार, जमीनदार की तरह मीरासदार का प्रयोग कुलनाम के तौर पर भी होता है । मोल्सवर्थ के कोश में मीरासी का एक रूप मीराशी भी बताया गया है । मध्यकालीन दक्कन में मीरासी का तात्पर्य खुदकाश्त के सम्बन्ध में चार वर्गों से भी था जिसमें सबसे क्रमशः ‘वतनदार’, ‘मीरासदार’, ‘ऊपरी’ और ‘ओवांडकरू’ शामिल थे । महारों के लिए भी ‘मिरासी’ नाम प्रचलित था जो गांव की चौकीदारी करते थे ।
त्तर भारत में ‘भांड-मीरासी’ युग्म के दोनो ही शब्दों को जातीय पहचान भी मिली हुई है । उस्ताद रजब अली खाँ पर लिखी अपनी पुस्तक में अमीक हनफ़ी कहते हैं- “मीरासी शब्द का अर्थ आनुवंशिक है । ऐसी संगीतजीवी जातियाँ जिन्होने कालान्तर में धर्म-परिवर्तन कर लिया और मुसलमान हो गईं, मीरासी कहलाने लगीं ।” जब राजे-रजवाड़े न रहे, इन कलाजीवी वर्ग के लोगों की अवनति हुई और ये गाने-बजाने वाले कहलाने लगे । कोठों के साज़िन्दों को भी मीरासी कहते हैं । मज़हबी तौर पर ये मुसलमान होते हैं मगर मुस्लिमों में भी इनकी जात नीच समझी जाती है । शेरो-सुख़न की भूमिका में अयोध्याप्रसाद गोयलीय लखनऊ के वाजिदअली शाह के दरबार का वर्णन करते हुए लिखते हैं –“उनके दरबार में शायरों-गवैयों का तो बोलबाला था ही, नचैयों, भांडों, मसख़रों और लतीफ़े कहनेवालों की भी एक बहुत बड़ी जमाअत थी । ‘भड़ुवे-मीरासी’ मीर साहब कहलाए जाते थे ।” ऐसा भी माना जाता है कि मीरासियों का रिश्ता पैगम्बर मोहम्मद की शिक्षाओं को सुनने वाले शुरुआती लोगों के समूह से है । इनमें से कुछ लोग इस्लाम के प्रचारक बने और ईरान, अफ़गानिस्तान तक आए । सूफ़ी-सन्तों के काफ़िलों में के साथ ये मीरासी चलते थे । ख़्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती के साथ भी ऐसे ही मीरासी जत्थे आए जो बाद में राजस्थान में बस गए । इनके डेरो प्रायः आबादी के बाहर होते थे और इनका मुखिया मीर कहलाता था
ब बात भांड की । संस्कृत में कहने, सुनने, पुकारने, शोर मचाने के आशय वाली धातु भण् है । कहने की ज़रूरत नहीं कि दरबारों में राजाओं की कीर्ति का बखान करनेवाले भांड समुदाय का नाम भी इसी भण् धातु से हुआ है। भण् से बने भाण्डकः का मतलब होता है घोषणा करनेवाला। किसी ज़माने में भाण्ड सिर्फ विरुदावली ही गाते थे और वीरोचित घोषणाएं करते थे ताकि सेनानियों में शौर्य और वीरता का भाव जागे। कालांतर में एक समूचा वर्ग राज्याश्रित व्यवस्था में शासक को खुश करने के लिए झूठा स्तुतिगान करने लगा । इसे समाज ने भँड़ैती कहा और शौर्य का संचार करनेवाला पुरोहित भाण्ड बनकर रह गया। जोर-शोर से मुनादी करनेवाले को जिस तरह से ढ़िंढोरची, भोंपू आदि की उपमाएँ मिलीं जिनमें चुगलखोर, इधर की उधर करनेवाला, एक की दो लगानेवाला और गोपनीयता भंग करनेवाले व्यक्ति की अर्थवत्ता थी उसी तरह भांड शब्द की भी अवनति हुई और भाण्ड समाज में हँसी का पात्र बन कर रह गया। स्वांग करनेवाले व्यक्ति, हास्य कलाकार, विदूषक भी भाण्ड की श्रेणी में आ गए । इसके अलावा चुगलखोर और ढिंढोरापीटनेवाले को भी भाण्ड कहा जाने लगा। यही नहीं, चाटूकार और चापलूस व्यक्ति को दरबारी भांड की उपाधि से विभूषित किया जाने लगा जो किसी ज़माने में दरबार का सम्मानित कलाकार का पद होता था । जब बहुत कुछ कहने-सुनने को कुछ नहीं रहता तब भी अक्सर हम कुछ न कुछ कहते ही हैं जिससे भुनभुनाना कहते हैं ।

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