शब्दकौतुक / अरबी गली से हिन्दी भवन का सफ़रनामा
हिन्दी-उर्दू बोलनेवालों के लिए यह शब्द इतना सहज और स्वाभाविक है कि हम इसके गहरे अर्थों पर शायद ही कभी ग़ौर करते हैं। लेकिन क्या हो अगर आपको बताया जाए कि जिस 'जनाब' को हम व्यक्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं, उसका मूल अर्थ 'पहलू', 'चौखट', 'ड्योढ़ी' या 'आँगन' है, तो? यह विरोधाभास ही हमें एक रोमांचक भाषायी सफ़र पर ले जाता है—एक ऐसा सफ़र जो अरबी के रेगिस्तानों से शुरू होकर, फ़ारसी के दरबारों से गुज़रता हुआ, भारतीय भाषाओं में रच-बस जाता है। 'जनाब' शब्द की जड़ें अरबी भाषा के त्रि-अक्षरीय धातु ج−ن−ب (जीम–नून–बा) में निहित हैं। यह धातु अरबी भाषा में निकटता, दूरी, पार्श्व और अलग होने के भावों को भीतर समेटे हुए है। इसी से अरबी की संज्ञा जनाब बनती है, जिसका आशय है किसी चीज़ का किनारा, आँगन, दहलीज़, ड्योढ़ी या शरण लेने की जगह। यह वह स्थान था जो किसी मुख्य संरचना के पहलू में या निकट होता था।
निकटता, स्थान
और सम्मान तक
सवाल पैदा होता है कि अगर जनाब का आशय 'ड्योढ़ी' या 'आँगन' है तो एक स्थानवाची शब्द किसी के
लिए सम्मान-संबोधन कैसे बन गया? यह
भाषा के तिलिस्मी संसार की बड़ी दुर्लभ अय्यारी है कि जब कोई शब्द किसी अन्य शब्द
का पर्याय बनकर नया अर्थबोध देने लगता है—जैसे दरबार, सरकार, हुक़ुम आदि अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं।
राजतन्त्र में इन सभी महिमावान संज्ञाओं से सम्बद्ध शिखर व्यक्तियों को भी यही
सम्बोधन मिलता रहा है। आम तौर पर सामन्ती व्यवस्थाओं में प्रजा की ओर से राजा को हुक़ुम, दरबार या सरकार कहकर सम्बोधित किया जाता रहा है।
इसी तरह यहाँ ताज, जो कि राजशाही का प्रतीक है, स्वयं शासक का पर्याय बन जाता है।
राजभवन से आम रास्तों तक
जनाब के साथ भी ठीक यही हुआ। किसी
शक्तिशाली सुल्तान, अमीर
या बादशाह से सीधे बात करना या उनका नाम लेना असभ्यता या दुस्साहस माना जा सकता
था। सम्मान और विनम्रता दर्शाने के लिए लोग सीधे शासक को सम्बोधित करने के बजाय उस
स्थान को सम्बोधित करते थे, जहाँ
वह विराजमान होता था—
2. "मैं 'ड्योढ़ी' (जनाब) से गुहार लगाता हूँ।" अर्थात मैं जनाब से न्याय की गुहार लगाता हूँ।
3. "कितना ही चिल्ला लीजिए, जनाब (ड्योढ़ी) तक आवाज़ नहीं जाएगी।" अर्थात राजा तक फ़रियाद पहुँचना मुश्किल है। और इस तरह के संवादों के ज़रिए यह शैली औपचारिक संवाद का ज़रूरी सम्बोधन बनने लगी। उसके बाद दरबारों–ड्योढ़ियों को लाङ्घकर जनाब कहने की यह शैली गली–मुहल्लों, महफ़िलों, मुशायरों में आम हो गई।
ड्योढ़ी से आदरणीय तक
इस प्रक्रिया में, स्थान (ड्योढ़ी) धीरे-धीरे वहाँ
आसीन व्यक्ति (शासक) का प्रतीक और फिर उसका पद-नाम (honorific) बन गया। अरबी अलंकार
शास्त्र में इस शैली को 'किनाया' (kinayah) कहा जाता
है, जिसका
अर्थ है किसी बात को सीधे कहने के बजाय इशारे या संकेत में कहना। इस मुक़ाम पर मीर
तकी मीर साहब का शेर न याद आए, हो
नहीं सकता—
मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में
नहीं
और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है
यह शेर समाज के नैतिक पतन पर टिप्पणी करता है। दुनिया में असली इंसानियत और करुणा का न होना और केवल तंज़–किनाया की भाषा का चलन होना—यही इसका मूल आशय है। किसी को जनाब कहना केवल सम्मान देना नहीं था, बल्कि यह स्वीकार करना था कि उनका रुतबा–प्रभाव इतना बड़ा है कि उनके सम्बोधन में भी (दरबार, ड्योढ़ी) आदि की भव्यता, दिव्यता प्रदर्शित होनी चाहिए।
फ़ारसी की टकसाल में जनाब-ए-आला, आली जनाब
फ़ारसी संस्कृति में तार्रुफ़ नामक शिष्टाचार की एक बहुत ही
परिष्कृत और जटिल प्रणाली है, जिसमें
दूसरे को अत्यधिक सम्मान देना और स्वयं को विनम्र दिखाना शामिल है। इसीलिए जिस जनाब का मूलार्थ कभी ड्योढ़ी, कोर्टयार्ड, दहलीज़ आदि हुआ करता था, धीरे-धीरे किनाया अर्थात व्यञ्जना अथवा इशारों में
कहने का शिष्टाचार आम हो जाने के चलते 'श्रीमान, मान्यवर, आदरणीय, हुज़ूर' के आशय में जनाब शब्द बहुधा बरता जाने लगा। इसे
"विनम्रता की होड़" भी कहा जा सकता है। 'जनाब' शब्द तार्रुफ़ की इस प्रणाली के लिए एक आदर्श
उपकरण था। किसी को जनाब कहना उसे सम्मान देने का एक
स्पष्ट और सुरुचिपूर्ण तरीक़ा था। फ़ारसी ने इस शब्द को न केवल अपनाया, बल्कि आली (उच्च) और आला (प्रतिष्ठित) जैसे विशेषणों से और
भी अलंकृत किया।
मराठी में खावंद और जनाब
दिलचस्प बात यह है कि भारत की अलग-अलग भाषाओं ने इसे
अपनी-अपनी तरह से अपनाया। मराठी भाषा इस मामले में एक अनूठी मिसाल पेश करती है।
मराठी ने 'जनाब' के आदरसूचक अर्थ ('स्वामी' या 'महाराज') को तो अपनाया ही, साथ ही इसके मूल अरबी अर्थों को
भी जीवित रखा। मराठी शब्दकोशों में 'जनाब' का अर्थ उंबरठा (दहलीज़) और अंगण (आँगन) भी मिलता है। एक पुराना
मराठी वाक्य—
"खावंदाचे जनाबांत सेवक लोकांनीं हजर असावें।"
(सेवकों को मालिक के आँगन/दरबार में उपस्थित रहना चाहिए), मराठी का यह वाक्य भाषायी
पुरातत्त्व की दुर्लभ मिसाल है कि जनाब शब्द का मूल आशय कभी ड्योढ़ी, सहन, प्राङ्गण अथवा दरबार था। यह शब्द केवल उत्तर भारत तक
सीमित नहीं रहा। इसकी प्रतिष्ठा इतनी थी कि इसने आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों के
बीच की सीमा को भी लाङ्घते हुए कन्नड़, मलयालम
में भी पहुँच बनाया।
एक शब्द, इतिहास
का साक्षी
भाषाएँ विभिन्न संस्कृतियों, विचारों और सत्ता के प्रवाह के
साथ यात्रा करती हैं। जनाब यानी ड्योढ़ी, दहलीज़ से दरबार तक की यात्रा
महज़ एक शब्द के अर्थ बदलने की कहानी नहीं है। यह शब्द स्वयं इतिहास का एक गवाह
है। इसकी यात्रा एक अरबी स्थानवाची संज्ञा के रूप में शुरू हुई। फिर यह अरबी
अलंकार शास्त्र की मदद से एक आदरसूचक शब्द बना। फ़ारसी की परिष्कृत दरबारी संस्कृति
ने इसे सँवारा और इसकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई की। अन्त में, इसने भारतीय उपमहाद्वीप में
प्रवेश किया और यहाँ के अनेक भाषायी समूहों की अभिव्यक्ति में पैठ बनाई। हर रोज़
जब हम किसी को 'जनाब' कहकर पुकारते हैं, तो सदियों पुराने शिष्टाचार को
दोहरा रहे होते हैं।
पिछली कड़ी- दहलीज़ से देहली तक: ध्वनि, अर्थ और भ्रम की कथा / देहली_3_जनाब
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