कमलकान्त बुधकर, हरिकृष्ण देवसरे, विभा देवसरे के साथ | पल्लव बुधकर तस्वीर लेते हुए |
लेले साहब, अशोक वाजपेयी और कमलकान्त बुधकर | ख्यात आलोचक विश्वनाथ मिश्र के साथ |
पंकज बिष्ट और राजेन्द्र यादव | अशोक माहेश्वरी और नामवरसिंह के साथ |
कृति-पाण्डुलिपि के साथ | पल्लव बुधकर के साथ |
समारोह से पहले-त्रिवेणी सभागार, दिल्ली | मंच पर.... |
अपनी बात | नामवरसिंह, अविनाश वाचस्पति और राजेन्द्र यादव |
समारोह से पहले गपशप | अनामिका, कमलकान्त बुधकर, अनिता ताटके व विश्वनाथ त्रिपाठी |
विश्वनाथ त्रिपाठी, वसंत बुधकर व कमलकान्त बुधकर | रवीन्द्र शाह, नीलाभ मिश्र, मैत्रेयी पुष्पा व अन्य |
उपन्यास का आनंद है सफ़र में
मैं श्री अजित वडनेरकर की पुस्तक शब्दों का सफर हाथ में आते ही उसे रुचिपूर्वक पढ़ गया। पुस्तक यद्यपि भाषा शास्त्र से सम्बन्धित है लेकिन पढ़ने में उपन्यास का आनन्द देती है। कहते हैं कि सच्चा ज्ञान आनन्द के द्वारा प्राप्त होता है। इस पुस्तक के पाठक भी मनोरंजन और कथा रस के आस्वाद की प्रक्रिया से ज्ञान-लाभ करेंगे। ऐसी पठनीय पुस्तकें आए दिन पढ़ने को नहीं मिलती जिसमें इतने सहज और अनायास पाठकों को जानकारी काखजाना मिले और यह समझने का मौका मिले कि भाषा में देश जाति धर्म आदि का बन्धन नहीं रहता। और वे मुक्त भाव से परस्पर आदान-प्रदान करते हुए विकसित और समृद्ध होती हैं। हमारी भाषा हिन्दी भी इसी प्रक्रिया से फलती-फूलती हुई हमें प्राप्त हुई हैं। शब्दों का सफर निःसन्देह एक उल्लेखनीय प्रकाशित पुस्तक है जो पाठकों को पसन्द आएगी।
-विश्वनाथ त्रिपाठी
अपने से लगते हैं वडनेरकर
सब से पहले राजकमल पुरस्कार पाने पर भाई अजित वडनेरकर को बधाई। मैंने अजित को कभी देखा नहीं है, लेकिन वह बहुत जाने-पहचाने से, अपने से लगते हैं। कारण हिन्दी विमर्श पर उनका शब्दों कासफर मैं नियमित पढ़ता रहा हूं। उनकी हर मेल अपने कम्प्यूटर पर सेव कर के संजो कर रखता रहा हूं। नम्बर दो पर - राजकमल प्रकाशन के अशोकजी को बधाई कि उन्हें अजित की किताब छापने को मिली। साथ ही धन्यवाद भी कि उन्होंने यह किताब छापी। छापी में कोई अनोखपन नहीं है। अब तक जितना मैंने उन्हें जाना है। उनकी नज़र बढ़ी पारखी है। वह देखते ही ताड़ लेते हैं कि असली माल कहां है। उनके पास शब्दों कासफर कैसे पहुंची यह मैं तो नहीं जानता, लेकिन उसमें भरे असली माल को पहचानने में देर नहीं लगी।
प्रसंगवश एक और उदाहरण। 1990 के आसपास हंस पत्रिकामें शब्दों पर मेरी लेखमाला छप रही थी। एक सुबह एक अनजान नौजवान मेरे घर आ पहुंचा, मेरी आने वाली किताब को छापने काप्रस्ताव लिए। तब उसके पास लगभग कुछ नहीं था। बस भविष्य था। वह था। अशोक माहेश्वरी। मैंने उससे वादा किया कि पूरा होने पर मेरा कोश उसे मिलेगा। ऐसा नहीं हुआ इसके कारण विचित्र थे। यह सबूत है कि अशोक दूर तक देख पाते हैं।
कुछ ऐसा ही गुण अजित वडनेरकर में भी है। वह दूर तक देख पाते हैं। न केवल भविष्य में बल्कि भूत में भी। एक संस्कृति से दूसरी तक शब्दों का सफर में। पता नहीं कैसे वह इतनी गहराई से देख पाते हैं। फिर इस सफर काबयान हाल बेहद आसान भाषा में रोचक तरीके से, कमाल है। आप लोग कई जाने-माने विदेशी कोश देखिए। कई में शब्दों के बारे में अलग से बॉक्स बना होता है। अजित उन से आगे, बहुत आगे जाते हैं। व्युत्पति बताते हैं, कई देशों, समाजों में कोई शब्द कैसे पहुंचा, बदला, रंगा, संवरा सब दिखाते हैं। कुल तीन-चार हद से हद पांच-छह पैरों में। पाठक के ऊबने से पहले विदा हो जाते हैं। जाते-जाते शब्दों में पैठने की हमारी रुचि, हमारी तमन्ना जगा जाते हैं।
उन के शब्दों के सफर केतीन खण्ड तैयार हैं। ऐसा मुझे बताया गया है। पर मैं कल्पना कर सकता हूं की उनके पास अभी और तीस खण्डों का मसाला तैयार होने को होगा। मैं उन सब लोगों को, जिन्हें हिन्दी डूबती नज़र आती है और आप सबको आश्वस्त करना चाहता हूं, भरोसा दिलाना चाहता हूं कि मेरा दावा 125 प्रतिशत सही निकलेगा कि 2050 तक हिन्दी संसार कीसमृद्धतम भाषा में होगी। आंखें खोलकर देखिए, हिन्दी पढ़ने वाले बढ़ रहे हैं, हिन्दी वालों के पास पैसा बढ़ रहा है। हाल ही में मुझे पता चला कि अकेले एक प्रमुख हिन्दी दैनिक के पास देशभर में फैला पांच हजार कम्प्यूटर से जुड़ा पत्रकारों कामहाजाल है। आज कम से कम 50 हजार हिन्दी पत्रकार तो हैं ही, पांच लाख भी हो सकते हैं। और लेखक गांव-गांव में, अनजाने अनचीन्हे लोग हिन्दी लिखने में लगे हैं। अन्त में बस इतना ही... हिन्दी रुकेगी नहीं, बढ़ती रहेगी। अजित वडनेरकर और उन की यह किताब इस बात काएक और सबूत है। दूसरा सबूत है राजकमल कीयह पुरस्कार योजना। मुझे भरोसा है, और आप को भी यह भरोसा दिलाता हूं कि धीरे-धीरे अशोक माहेश्वरी इस पुरस्कार को हिन्दी कानहीं भारत का सबसे बड़ा अवॉर्ड बनाकर रहेंगे। हिन्दी के और भारत के बढ़ते रहने का यह दूसरा सबूत होगा।
-अरविन्द कुमार, 26 फरवरी, 2011
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