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Monday, December 28, 2015

बात तफ़सील की...


वि वरण या विस्तार के अर्थ में हिन्दी में तफ़सील تفصيل शब्द का इस्तेमाल भी खूब होता है जो फ़ारसी से हिन्दी में आया ज़रूर पर है अरबी शब्द। मराठी में तफ़सील का रूप तपशील होता है। तफ़सील में सीमा, हद या विभाजन का भाव है। लिखित अथवा कही गई बात या चर्चा की व्याख्या-विश्लेषण भी इसके दायरे में आता है। एक मुहावरा है-तफ़सीलवार अर्थात किसी बात को तोड़ तोड़ कर बताना। अलग-अलग कर बताना। दरअअसल यही विवरण देना यानी तफ़सीलवार बताना हुआ। उर्दू में तफ़्सील लिखा जाता है। इस कड़ी के कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे फ़स्ल (फसल), फ़ैसला, फ़ासला, फ़सील, तफ़सील और मुफ़स्सिल।

तफ़सील को थोड़ा तफ़सील से समझा जाए। तफ़सील का रिश्ता यूँ तो अरबी शब्द फ़साला से है जो फ़ा-साद-लाम (फ-स-ल) अर्थात ف- ص- ل से है जिसमें विभाजन, अलग करना, किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच का अन्तराल या दूरी, घेरा या बाड़ा, अवरोध या सीमा, पृथक, विवरण, विस्तार, निर्णय आदि है, किन्तु मूल सेमिटिक धातु है P-S-L अर्थात पू-सादे-लम्द। ध्यान रहे प्राचीन सेमिटिक लिपियों में ‘फ’ ध्वनि नहीं थी। मज़े की बात यह कि आज अरबी लिपि में ‘प’ ध्वनि के लिए कोई चिह्न नहीं है।

P-S-L का अर्थ था पत्थर को तराशना। बात यह है कि इसका सम्बन्ध प्राचीन अरबी समाज में प्रचलित सनमपरस्ती अर्थात मूर्तिपूजा से था यानी बुत तराशना। गौर करें, प्रतिमा निर्माण के लिए पत्थर को धीरे धीरे विभाजित किया जाता है। अनघड़ पत्थर को तोड़ कर, तराशकर जो रूपाकार निर्मित होता है उस भाव का विस्तार बाद में अरबी के फ़ा-साद-लाम में मूलतः विभाजन हुआ इस कड़ी के कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे फ़स्ल (फसल), फ़ैसला, फ़ासला, फ़सील, तफ़सील और मुफ़स्सिल।

फस्ल का मूलार्थ है अंतर, दूरी या अंतराल। दो ऋतुओं के बीच स्पष्ट अंतराल होता है। अर्थात काल, समय या वक्त का भाव भी फस्ल में है। फस्ले बहार या फस्ले गुल का अर्थ वसंत ऋतु और फस्ले खिज़ां यानी पतझड़। फ़स्ल यानी मौसम और हर मौसम की पैदावार को मिल गया फसल का नाम। इसी तरह किसी पुस्तक के अलग-अलग अध्यायों को भी फस्ल ही कहते हैं। किसी ज़माने में दो फसलों के बीच के अंतराल में कोई भी मामला सुलझा लिया जाता था इसलिए उसे फ़ैसला कहा गया। फ़ैसला किसी उलझी बात का सुलझा हुआ, उससे अलग किया गया अंश ही होता है। अंतराल या दूरी के अर्थ में फ़स्ल से ही बना है फासला। दो फसलों के बीच का वक्त ही फासला कहलाता था। प्राचीन बस्तियां परकोटों से घिरी होती थीं जिन्हें फ़सील कहते थे। शहर और वीराने का फासला जो बताए, वही है फ़सील।

इस विवरण के बाद तफ़सील की तफ़सील स्पष्ट हुई होगी। तफ़सील में किसी कविता, कहानी पर टीक या टिप्पणी लिखना भी शामिल है। कोई फ़ेहरिस्त भी तफ़सील हो सकती है। स्पष्ट करने वाली हर क्रिया तफ़सील के दायरे में आती है। कोई भी विवरण तफ़सील या ब्योरा है। ये सारे भाव विकसित हुए हैं विभाजन करने से जो फ़साला मूलभाव है। किसी चीज़ का विभाजन दरअसल विस्तार की पहली शर्त है। यह ब्रह्माण्ड एक पिण्ड के विभाजन का परिणाम है। अन्तरिक्ष में ये पिण्ड लगातार फैल रहे हैं। विस्तार हो रहा है। यह विभाजन का परिणाम है। लिखित विवरण तब ज्यादा समझ में आते हैं जब उन्हें अलग अलग अध्यायों में समझाया जाए। गौर करें समझाना भी विस्तार का ही एक नाम है। अध्याय टुकड़ा या खण्ड ही है, जो किसी मूल पिण्ड का विभाजित हिस्सा है।

इसी तरह पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र में मुफ़स्सल शब्द के अनेक रूप प्रचलित हैं मसलन मुफस्सिल (यूपी-बिहार), मोफस्सल (बंगाल) और मुफशील (मराठी) इन सभी भाषाओं में मुफ़स्सल का अभिप्राय भी अन्तराल, जुड़ा हुआ, सटा हुआ या अलग किया हुआ, दूर का, विस्तार ही होता है। मुफ़स्सिल का प्रयोग आमतौर पर भौगोलिक तौर पर दूर के क्षेत्रो के लिए होता है। इसका एक अर्थ देहात भी होता है जो शहर से सटा भी हो सकता है और दूरस्थ भी। मुफ़स्सिल अदालतें यानी दूर की या शहर की परिधि से बाहर के न्यायालय। मुफ़स्सिल संवाददाता यानी देहात के रिपोर्टर या ग्रामीण संवाददाता।
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Sunday, March 10, 2013

‘बिलंदर’ की बुलंदी

buland

त्रकार एम. हुसैन ज़ैदी की मुंबई माफ़िया पर लिखी क़िताब डोंगरी टू दुबई मराठी अनुवाद पढ़ते हुए एक नए शब्द से साबका पड़ा- बिलंदर। दाऊद इब्राहिम के अंडरवर्ल्ड में बढ़ते असर के संदर्भ में उसे बिलंदर कहा गया। कुछ कुछ अंदाज़ तो था कि इस बिलंद का हिन्दी-फ़ारसी के बुलंद से रिश्ता होना चाहिए। जिसमें पक्का, परम, कारगुज़ार, कद्दावर, असली जैसी अर्थवत्ता है। फ़ारसी शब्द चोला बदल कर जिस तरह से मराठी भाषा में पैठ गए हैं, वैसा हिन्दी में नहीं है। इस पर विस्तार से कभी लिखेंगे, फ़िलहाल बात बुलंद की। हिन्दी में भी बुलंद का एक रूप बिलंद होता है पर यह क़रीब-क़रीब अप्रचलित है। हिन्दी फ़ारसी में जहाँ बुलंद, बुलंदी में सकारात्मक भाव हैं वहीं वहीं मराठी के बिलंदर में आमतौर पर ठग, लुच्चा, चोर, भामटा या नीच जैसी अर्थवत्ता है। अर्थात बुलंद में निहित तमाम विशेषताएँ निम्न श्रेणी में प्रयुक्त होती हैं। हालाँकि सकारात्मक प्रयोग भी होता है पर कम है। देखा जाए तो बिलंदर का इस्तेमाल हिन्दी में किया जा सकता है।
हिन्दी-उर्दू के बुलंद, बुलंदी में ऊँचाई, उच्चता का भाव है। बुलंद इरादे, बुलंद हौसला जैसे वाक्याँश की मुहावरेदार अर्थवत्ता से यह ज़ाहिर है। इसके अलावा गुरुतर, भव्य, शीर्ष, उत्तुंग, मुख्य, भारी, प्रमुख, प्रतिष्टित, प्रतापी जैसे आशय भी इसमें हैं। मराठी में बुलंद अल्पप्रचलित है और बिलंद, बिलंदी या बिलंदर जैसे शब्द यहाँ मौजूद हैं। बिलंद रूप हिन्दी में भी है। बिलंदर मराठी का अपना आविष्कार है। फ़ारसी में बिलंदर नहीं है। वहाँ बुलंद ही चलता है। तब भी शुद्धता के नज़रिये से बलंद उच्चार ज़्यादा सही माना जाता है। बुलंद फ़ारसी ज़बान का शब्द है और इसके मूल में जो उच्चता, श्रेष्ठता, परम या खरा असल जैसा भाव है इसका रिश्ता बहुत गहराई से न सिर्फ इंडो-ईरानी भाषा परिवार से जुड़ता है बल्कि इसकी अर्थछायाएं पश्चिम एशियाई सांस्कृतिक आधार वाली भाषाओं यानी सुमेरी ( मेसोपोटेमियाई), बाबुली (बेबिलोनियन) और इब्रानी (हिब्रू) में भी नजर आती है।
सुमेरी यानी मेसोपोटेमियाई भाषा में यह शब्द बेल है और हिब्रू में बाल Baal के रूप में मिलता है। बाल शब्द बहुत महत्वपूर्ण है और इसकी अर्थवत्ता बहुत व्यापक है जिसमें शीर्षस्थ, प्रकाशमान, ऊपरी, बड़ा, परम शक्तिमान, भव्य, देवता अथवा स्वामी जैसे भाव समाए हैं। हिन्दी, उर्दू व फारसी में भी यह प्रचलित है। बाल में निहित ऊँचाई दूध की ऊपरी परत बालाई में नज़र आती है। हिन्दी में इसे मलाई कहते हैं जो फ़ारसी बालाई से ही बना है। लोगों को रत्ती भर खबर हुए बिना अंजाम दी गई कारगुजारी को बाले बाले (बाला) कहते हैं। यहाँ ऊपर ऊपर मामले को निपटाने का भाव ही प्रमुख है। पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाखाना कहते थे। बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान या कोष्ठ। अग्रेजी की बालकनी में भी ऊँचाई का ही भाव है और बालाख़ाना से बालकनी का ध्वनिसाम्य भी गौरतलब है।
सुमेर और अक्कादी मूल से उठ कर ही बाल शब्द फ़ारसी में भी दाख़िल हुआ। बाला ऐ ताक़ का अर्थ है किसी चीज़ को ऊपर रख देना। बालानशीं का अर्थ होता है सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च, सर्वोत्तम। मराठी में कही हुई बात, उल्लेख, ज़िक़्र, चर्चा के लिए फ़ारसी के मज़क़ूर शब्द का खूब प्रयोग होता है। उर्दू में मज़क़ूरे-बाला टर्म का प्रयोग ‘उपरोक्त’ यानी ऊपर लिखी हुई बात की तर्ज़ पर किया जाता है। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की ‘भ’ ध्वनि फारसी, ईरानी समेत सेमिटिक भाषाओं में जाकर ‘ब’ में बदलती रही है। संस्कृत के भर्ग में भी ऊँचाई का भाव है। इसका फारसी रूप बुर्ज होता है जिसका अर्थ मीनार या ऊंचा गुम्बद है। बुर्ज का huangshan ही यूरोपीय भाषाओं में बर्ग, बरो में रूपांतर होता है। कई स्थान नामों में यह जुड़ा नजर आता है। प्राचीन मनुष्य की शब्दावली और उसकी अर्थवत्ता का विकास प्रकृति के अध्ययन से ही हुआ था।
प्रायः ऊँचाई को इंगित करनेवाले शब्दों का मूलार्थ रोशनी, चमक, दीप्ति था। प्रकाशमान वस्तु के रूप में मनुष्य ने आसमान में चमकते खगोलीय पिण्डों को ही देखा था। पूर्व वैदिक भाषाओं में ‘भा’ ध्वनि में इसीलिए ऊंचाई के साथ चमक, कांति का भाव भी निहित है। संस्कृत के भर्गस् में एक साथ चमक, प्रकाश, भव्यता का भाव निहित है। The Nostratic macrofamily: a study in distant linguistic relationship पुस्तक में एलन बोम्हार्ड, जॉन सी कर्न्स ने विभिन्न भाषा परिवारों में प्रकाश और ऊंचाई संबंधी समानता दर्शानेवाले कई शब्द एक साथ रखे हैं। प्रोटो एफ्रोएशियाटिक भाषा परिवार की धातुओं bal और bel का अर्थ भी यही है और प्रोटो सेमिटिक के bala / bale में भी यही भाव है।
स्पष्ट है कि प्राचीन भारोपीय ध्वनि भा यहां बा में बदल रहा है। गहराई से देखें तो भा ध्वनि में निहित चमक का भाव विभा, विभाकर, भास्कर जैसे शब्दों में साफ है। तमिल-तेलुगू के pala pala में भी कांति, दीप्ति, चमक का भाव है। भा के बा में बदलने की मिसाल वजन के अर्थ में हिन्दी के भार और फारसी के बर या बार (बारदान, बारदाना, बोरी) से भी स्पष्ट है। ध्यान दें, बहुत महीन अर्थ में यहां भी ऊँचाई का भाव है। जिसे ऊपर उठाया जाए, वही भार है। अंग्रेजी के बर्डन में यही बार छुपा हुआ है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। रूस की बोल्शेविक क्रांति दुनिया में प्रसिद्ध है। बोल्शेविक का शाब्दिक अर्थ हुआ बहुसंख्यक। मगर इसमें भी बाल यानी सर्वशक्तिमान की महिमा नजर आ रही है।

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Tuesday, January 29, 2013

महिमा मरम्मत की

repair

रम्मत हिन्दी में खूब रचा-बसा शब्द है । अरबी मूल का यह शब्द फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी समेत कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित हुआ । मरम्मत शब्द का अर्थ है बिगड़ी वस्तु को सुधारना, उद्धार करना, संशोधन करना, सँवारना, कसना, योग्य बनाना, सुचारू करना, कार्यशील बनाना आदि । इन तमाम भावों के बावजूद हिन्दी में मरम्मत का प्रयोग ठुकाई-पिटाई या मार-पीट के तौर पर ज्यादा होता है । “इतनी मरम्मत होगी कि नानी याद आ जाएगी” जैसे वाक्य से पिटाई का भाव स्पष्ट है । किसी की पिटाई में भी उसे सबक सिखाने का भाव है, सज़ा देने का भाव है ।
रम्मत के मूल में अरबी की रम्म क्रिया है और इसकी मूल सेमिटिक धातु है र-म-म [ر م م] अर्थात रा-मीम-मीम । हेन्स वेर की ए डिक्शनरी ऑफ़ मॉडर्न रिटन अरेबिक अरबी क्रिया ‘रम्म’ का उल्लेख है जिसमें जीर्णोद्धार, दुरुस्ती या सुधारने का भाव है । इसी के साथ इसमें क्षय होने, क्षीण होने, बिगड़ने या खराब होने का भाव भी है । यही नहीं, इसमें बनाने, पहले जैसा कर देने, पूर्वावस्था, प्रत्यावर्तन, जस का तस जैसे आशय भी हैं । गौर करें, किसी वस्तु को सुधारने की क्रिया उसे पूर्ववत अवस्था में यानी चालू हालत में लाना है । ऐसा करते हुए उसके कल-पुर्जे ढीले करने होते हैं, आधार को खोलना होता है । रम्म में निहित बिगड़ने, क्षीण होने जैसे भावों का यही आशय है कि सुधार की प्रक्रिया में हम बिगड़े तन्त्र को पहले तो पूरी तरह से रोक देते हैं । फिर उसके एक एक हिस्से की जाँच कर उसे सँवारने का काम करते हैं ।
म्म में अरबी उपसर्ग ‘म’ लगने से बनता है (म)रम्मा जिसका अर्थ सुधारना, सँवारना होता है । फ़ारसी, उर्द-हिन्दी में मरम्मा के साथ ‘अत’ प्रत्यय का प्रयोग होता है और इस तरह मरम्मत शब्द बनता है । पंजाबी और हिन्दी की पश्चिमी शैलियों में इसका रूप मुरम्मत भी है । मराठी में इसके तीन रूप मरमत, मरामत, मर्हामत मिलते हैं । मरम्मत क्रिया का एक रूप हिन्दी में मरम्मती भी मिलता है । मरम्मत में पिटाई का भाव यूँ दाख़िल हुआ होगा क्योंकि अक्सर चीज़ों को सुधारने की क्रिया में ठोकने-पीटने की अहम भूमिका होती है । साधारणतया किसी कारीगर या मिस्त्री के पास भेजे जाने से पहले चीज़ों को दुरुस्त करने के प्रयास में उसे हम खुद ही ठोक-पीट लेते हैं । कई बार यह जुगत काम कर जाती है और मशीन चल पड़ती है । मरम्मत में ठुकाई-पिटाई दरअसल सुधार के आशय से है, ठीक होने के आशय से है । बाद में मरम्मत मुहावरा बन गया जैसे– “हाल ये था कि थोड़ी मरम्मत के बिना वो ठीक नहीं होती थी”, ज़ाहिर है इस वाक्य में मरम्मत का आशय पिटाई से है । पिटाई वाले मरम्मत की तर्ज़ पर कुटम्मस भी प्रचलित है जो कूटना या कुटाई जैसी क्रियाओं से आ रहा है । जिसमें सुधार की गुंजाइश हो उसे मरम्मततलब कहते हैं ।
सी तरह रम्मा से रमीम बनता है जिसका अर्थ भी मुरझाया हुआ, पुराना, पुरातन, जीर्ण-शीर्ण या खराब है । आमतौर पर चीज़ों के परिशोधन या उनके सुधारने के लिए तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । हिन्दी में अक्सर भाषायी सुधार के सम्बन्ध में तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । जैसे “कमेटी ने जो सिफ़ारिशें की हैं उनमें तरमीम की ज़रूरत है” ।

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Sunday, January 13, 2013

कोहरा और कुहासा

fog

र्दियों में शाम से ही धुंध छाने लगती है जिसे कोहरा या कुहासा कहते हैं । ठंड के मौसम में आमतौर पर हवा भारी होती है जिसकी वजह वातावरण में नमी का होना है । धरती की ऊपरी परत जब बेहद ठण्डी हो जाती है तो हवा की नमी सघन होकर नन्हें-नन्हें हिमकणों में बदल जाती है इसे ही कोहरा जमना कहते हैं । कोहरा बनने की प्रक़्रिया लगभग बादल बनने जैसी ही होती है । कभी-कभी बादलों की निचली परत भी पृथ्वी की सतह के क़रीब आकर कोहरा बन जाती है । कुल मिलाकर कोहरे में कुछ नज़र नहीं आता । धुँए में जिस तरह से दृश्यता कम हो जाती है उसी तरह हवा की नमी हिमकणों में बदल कर माहौल की दृश्यता को आश्चर्यजनक रूप से कम कर देती है । कोहरे के आवरण में समूचा दृश्यजगत ढक जाता है । देखी जा सकने वाली हर शै गुप्त हो जाती है, लुप्त हो जाती है, छुप जाती है, छलावे की तरह ग़ायब हो जाती है । कोहरा की अर्थवत्ता के पीछे भी गुप्तता या लुप्तता का भाव ही प्रमुख है ।
किसी भी किस्म का आवरण मूल रूप से सुरक्षा कवच होता है । कोहरा भी एक तरह से किन्हीं फ़सलों के लिए लाभदायक ही होता है । शत्रु से खुद को बचाने के लिए युद्ध के प्राचीनतम तरीक़ों में कैमोफ्लैज या छद्मावरण शैली भी है । कोहरा भी एक तरह से प्रकृति का कैमोफ्लैज है । संस्कृत में एक धातु है गुह् जिसमें ढकने, छिपाने, परदा डालने, गुप्त रखने का भाव है । गुहा और गुफा जैसे शब्दों के मूल में यही गुह् धातु है । आदिकाल से प्राणियों को आश्रय की खोज रही है । आदिम युग में आश्रय का अर्थ सुरक्षित स्थान से था सो आश्रय का अर्थ था गुप्त जगह, जहाँ खुद को छुपाकर बचाव किया जा सके । गुहा में गुप्तता का भाव प्रमुख है जो बाद में संरक्षित-सुरक्षित स्थान हुआ आप्टेकोश के मुताबिक बंद या सुरक्षित स्थान के अर्थ में गुहा का एक अर्थ हृदय भी होता है क्योंकि यह छाती के भीतर है ।
गुह् का पूर्ववैदिक रूप कुह् रहा होगा । याद रहे ‘क’ वर्णक्रम में ही ‘ग’ भी आता है। निश्चित ही ‘कुह्’ में वही भाव थे जो ‘गुह्’ में हैं । मोनियर विलियम्स के मुताबिक कुह् से कुहयते क्रिया बनती है जिसका अर्थ है to surprise or astonish or cheat by trickery or jugglery अर्थात छलावरण या मायाजाल फैलाना जिसका उद्धेश्य वास्तविकता छुपाना हो । इसीलिए कुह से कोहरा के अर्थ में ही संस्कृत में कोहरा के अर्थ में ही संस्कृत में कुहेलिका शब्द भी है जिसका अर्थ भी अंधकार, धुंधलापन, कोहरा आदि है । कुहेलिका में मुहारवरेदार आशय भी हैं जिसमें मिथ्यावरण या छलावरण की अभिव्यक्ति होती है । हिन्दी के कोहरा के जन्मसूत्र संस्कृत के कुहेड़िका या कुहेड़ से जुड़ते हैं जिसका अर्थ कोहरा, धुंध, तुषार, fog, mist, कुहासा आदि है । कुह का मतलब छली या फ़रेबी भी होता है । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक कुबेर का अन्य नाम भी कुह है । कुहक यानी मायाजाल, इन्द्रजाल । कुहककार याना माया अथवा प्रपंच रचने वाला । कुहासा भी इसी मूल से निकला है
छिपने-छिपाने, गुप्त-लुप्त जैसी अभिव्यक्ति की वजह से ही गुह् या कुह से पहाड़ की अर्थवत्ता वाले शब्द बने । संस्कृत में कुहरम् शब्द है जिसका मतलब है गुफा, गढ़ा आदि । आप्टेकोश में इसका एक अर्थ गला या कान भी बताया गया है । जाहिर है, इन दोनों ही शरीरांगों की आकृति गुफा जैसी है । नाभि के साथ नाभिकुहर जैसी उपमा भी मिलती है । संस्कृत के पूर्वरूप यानी वैदिकी या छांदस की ही शाखा के रूप में अवेस्ता का भी विकास हुआ जिससे फ़ारसी का जन्म माना जाता है । फ़ारसी में पहाड़ के लिए कोह शब्द है जो इसी मूल से आ रहा है । बरास्ता अवेस्ता कुह् में निहित गुप्त स्थान या गुफा का अर्थ विस्तार फ़ारसी में कोह के रूप में सामने आया अर्थात वह स्थान जहाँ बहुत सी गुफाएँ हों । स्पष्ट है कि गुफाएँ पहाड़ों में ही होती हैं, सो कुह् से बने कोह का अर्थ हुआ पहाड़ ।
गुफा के लिए हिन्दी में खोह शब्द भी खूब प्रचलित है । गौर करें कुह्-गुह् के अगले क्रम खुह् पर । इस खोह शब्द की फ़ारसी के कोह से समानता भी देखें । वैसे कोह से गोह भी बनता है जिसका अर्थ भी गुफा है । मोनियर विलियम्स इसका अर्थ गुप्तस्थान बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर खोह की व्युत्पत्ति के लिए गोह का संकेत भर देते हैं । मेरे विचार में खोह का निर्माण कुह्, कोह की कड़ी में ही हुआ होगा । फ़ारसी में कोहसार का अर्थ पहाड़ ही होता है । पर्वतीय भूमि के लिए कोहिस्तान एक प्रचलित नाम है । ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में इस नाम के कई स्थान हैं । पाकिस्तान में कोहमरी नाम का एक पर्यटन स्थल भी है जिसका लोकप्रिय नाम अब सिर्फ़ मरी रह गया है ।
कोहिनूर जैसे मशहूर हीरे के नामकरण के पीछे भी यही कुह् धातु है । कोहिनूर बना है कोह-ए-नूर से अर्थात रोशनी का पहाड़ । याद रहे, कोहिनूर ( अन्य लोकप्रिय उच्चारण कोहनूर, कोहेनूर भी हैं ) सदियों पहले गोलकुंडा की हीरा खदान से निकाला गया था, जो सदियों पहले दुनिया की इकलौती हीरा खदान थी । कोहिनूर दुनिया का सबसे विशाल हीरा था और इसके आकार की वजह से ही मुगलकाल में इसे रोशनी का पहाड़ जैसा नाम मिला । अंग्रेजी में गुफा को केव कहते हैं जो भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और इसकी रिश्तेदारी भी कुह् से है । डगलस हार्पर की एटिमआनलाइन के मुताबिक केव CAVE बना है प्रोटो इंडोयूरोपीय धातु क्यू keue- से जिसका अर्थ है मेहराब या पहाड़ के भीतर जाता ऐसा छिद्र जो भीतर से चौड़ा हो ।

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Friday, January 11, 2013

देहात की बात

gaon

ग्रा मीण अंचल के लिए गाँव-देहात शब्दयुग्म का हिन्दी में खूब प्रयोग होता है । “वे दूर देहात से आए हैं,” “देहात में रहने के अपने फ़ायदे हैं,” जैसे वाक्यों में देहात का अर्थ गाँव ही है । गँवई या ग्रामीण के लिए देहात से देहाती विशेषण बनता है । देहात हमें भारतीय परिवेश से जुड़ा शब्द लगता है तो इसलिए क्योंकि यह भारत-ईरानी भाषा समूह का शब्द है और फ़ारसी मूल के ‘देह’ से हिन्दी की बोलियों में आया । फ़ारसी में देह के दीह, दिह जैसे रूप भी मिलते हैं । देह यानी गाँव और देह का बहुवचन देहात यानी ग्रामीण क्षेत्र । हिन्दी में देह, देहात जैसे शब्दों का प्रयोग ग्यारहवीं सदी से ही शुरू हो चुका था । यूल-बर्नेल के एंग्लो-इंडियन कोश हॉब्सन-जॉब्सन के अनुसार पंद्रहवीं सदी के कम्पनी राज के दस्तावेज़ों में कोलकाता को ‘दे कलकत्ता’ लिखा गया है । यह ‘दे’ दरअसल फ़ारसी का ‘देह’ है जिसका अर्थ है ग्राम । ‘दे कलकत्ता’ का अर्थ हुआ गाँव कलकत्ता जो तब हुगली के मुहाने पर स्थित एक मामूली बसाहट थी । करीब साढ़े तीन सौ साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की कासिम बाजार कोठी का फर्स्ट आफिसर था जाब चार्नक जो बाद में कंपनी एजेंट बना और उसी की देख-रेख में सूतानटी और ‘दे कलकत्ता’ का विकसित रूप आज की कोलकाता महानगरी है ।
ख्यात भाषाविद जूलियस पकोर्नी द्वारा खोजी गई प्रोटो भारोपीय धातुओं में dheigh (-धिघ, मोनियर विलियम्स ) से बना है अवेस्ता का ‘देगा’ जिसका अर्थ है निर्माण, बनाना, मिट्टी, ढाँचा अथवा लेपन । ईरानी परिवार की भाषाओं में इसके अन्य रूप हैं दिज़, देज़, दाएज़ा, दाएजायति जिनका अर्थ है दीवार, परकोटा या क़िला । अवेस्ता में पइरीदाएज़ा शब्द है जिसका अर्थ है जन्नत, वैकुण्ठ, स्वर्गवाटिका या परकोटा । अंग्रेजी का पेराडाइस इसका ही रूपान्तर है । यूनिवर्सिटी ऑफ़ टैक्सास के लिंग्विस्टिक रिसर्च सेंटर के मुताबिक पुरानी फ़ारसी में ‘दिदा’ का अर्थ कोट या क़िलेबंदी होता है । हिन्दी का ‘दीवार’ इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की इंडो-ईरानी शाखा का शब्द है और भारतीय भाषाओं में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । यह अवेस्ता के एक सामासिक पद ‘देगावरा’ [dega-vara] से बना है । संस्कृत की ‘दिह्’ धातु का रिश्ता dheigh से जुड़ता है । इसका अर्थ परकोटा, आश्रय, कोट, हदबंदी, किलेबंदी करना, बचाव करना, लीपना, पोतना आदि । ध्यान रहे घास-फूस के ढाँचे को मिट्टी से सान-पोत कर उसे मज़बूती दी जाती थी ।
फ़ारसी के ‘दहलीज’ शब्द में यही ‘देह’ है । इन सभी में बनाने या निर्माण की क्रिया शामिल है । ‘दहलीज’ का अर्थ होता है पौड़ी, सीढ़ी, द्वार या चौखट । इसी मूल से बने हैं देहरी, देहरा, देहरी जैसे शब्द जो चौखट या द्वार की अर्थवत्ता रखते हैं । गौर तलब है कि उत्तराखंड के कई स्थानों के साथ कोट, पौड़ी या द्वार शब्द जुड़े नज़र आते हैं जैसे कोटद्वार, हरिद्वार, पौड़ी गढ़वाल आदि । जहाँ तक ‘देहरादून’ के देहरा की व्युत्पत्ति का प्रश्न है , तमाम विकल्पों के साथ फ़ारसी के देह, दिह से भी देहरा की व्युत्पत्ति सम्भावित है जिसमें गाँव, दीवार, परकोटा जैसे भाव हैं । इस तरह ‘देहरादून’ का अर्थ हुआ वादी का गाँव । ग्वालियर के पास एक घाटीगाँव भी है । देहरादून का एक अर्थ दर ऐ वादी अर्थात घाटी का दरवाज़ा भी हो सकता है । वह बस्ती जहाँ से द्रोणिका अर्थात दून घाटी शुरू होती है । वैसे देहरादून का रिश्ता देवघर या डेरा से भी जोड़ा जाता है । इसी कड़ी में ‘टिहरी गढ़वाल’ भी आता है । संदर्भों के अनुसार टिहरी / टेहरी शब्द ‘त्रिहरी’ यानी तीन विषयों ( मनसा, वाचा, कर्मणा ) का शमन करने वाला स्थान । यह व्युत्पत्ति काल्पनिक है । ‘टिहरी’ शब्द भी ‘देहरी’ का रूपान्तर है, ऐसा मुझे लगता है ।
संस्कृत की दिह् धातु से बना है ‘देह’ शब्द जिसका अर्थ काया, शरीर होता है मगर इसका मूलार्थ है ढाँचा, आवरण, कवच या बचाव । गौर करें दिह् में निहित लेपन के अर्थ पर । किसी वस्तु पर लेपन उसे सुरक्षित बनाने के लिए ही किया जाता है । देह एक तरह से शरीर के भीतरी अंगों का सुरक्षा कवच है । मोनियर विलियम्स के कोश के अनुसार ‘देह’ का अर्थ है आवरण, लेपन, मिट्टी, ढाँचा, साँचा, गूँथना, ढालना आदि। दार्शनिक अर्थों में देह को मिट्टी से निर्मित भी कहा जाता है और इसे किले की उपमा भी दी जाती है। गौरतलब है कि अंग्रेजी के ‘डो’ dough का अर्थ होता है सानना, गूँथना आदि । डो का रिश्ता भी प्रोटो भारोपीय धिघ् dheigh से जुड़ता । कबीर ने मनुष्य को माटी का पुतला यूँ ही नहीं कहा । देह, दिह्, दिज़् शब्दों के भावार्थों पर जाएँ तो माटी के पुतले के निर्माण की सारी क्रियाएँ स्पष्ट होती है यानी मिट्टी को पीटना, सानना, राँधना, गूँथना, साँचा बनाना और फिर पुतला बनाना । स्पष्ट है कि संस्कृत के दिह् और फ़ारसी के दीह या देह परस्पर समानार्थी हैं और एक ही मूल से निकले हैं । 
गौर करें, फ़ारसी के दीह / दिह या देह शब्द में मूलतः क़िलेबंदी, हदबंदी या परकोटा बनाने का भाव ही है । प्राचीनकाल में आबादियाँ इसी तरह रहती थीं । ‘वास’ करने की वजह से ही राजस्थानी में ‘बासा’ शब्द है । बस्ती के मूल में भी ‘वास’ ही है । सर रॉल्फ़ लिली टर्नर के कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ के अनुसार संस्कृत के देही में ढूह, क़िला, परिधि, चाहरदीवारी, परकोटा की अर्थवत्ता का समावेश हैं । सिन्धी में यह दिहु है जिसका अर्थ पलस्तर लगाना, परत चढ़ाना, मज़बूत करना, ढूह बनाना आदि । फ़ारसी में इसका एकवचन रूप दिह या देह होता है और बहुवचन रूप देहात है जिसका अर्थ ग्रामीण क्षेत्र है । डीएन मैकेंजी के पहलवी कोश में ‘देह’, ‘दिह’ में देश, इलाक़ा, ग्राम या क्षेत्र, भूमि जैसे भाव हैं और इससे बने पहलवी के ‘दहिगन’ में ग्रामीण या कृषक का भाव है । दहिगन का फ़ारसी रूप देहक़ान होता है । हिन्दी में इसे दहकान भी लिखा जाता है । देहक़ानी या देहक़ानियत का अर्थ होता है गँवारू, गँवई या उजड्डपन । यह ठीक वैसे ही है जैसे ग्राम से गाँव और फिर गँवई । किसी व्यक्ति को असभ्य के अर्थ में गँवार इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वह उजड्ड होता है । मगर इसका आशय यह है कि ग्रामीण व्यक्ति शहरी संस्कार से अपरिचित होता है सो वह गँवार हुआ । बाद में गँवार का रूढ़ार्थ ही असभ्य हो गया ।

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Friday, January 4, 2013

अहाते में…

round

हि न्दी में अहाता शब्द इतना प्रचलित है कि गाँव-देहात से शहरों तक लोगों की ज़बान पर ये शब्द किसी भी घिरे हुए स्थान के संदर्भ में फ़ौरन ज़बान पर आता है । इसकी मिसाल देखिए कि सरकार ने आबक़ारी नीति के तहत शराब की हर दुकान की बगल में अहाता खोलने का प्रावधान करके इस शब्द को हर आदमी की ज़बान पर ला दिया है । अब मध्यप्रदेश के मयक़शों की ज़बान पर अहाता शब्द चढ़ा हुआ है । देश के मध्य में स्थित यह सूबा लगता है जल्दी ही मद्यप्रदेश बन जाएगा । बहरहाल, अहाता निहायत देशी रंग-ढंग वाला शब्द है । चलताऊ तौर पर इसे हाता भी कहा जाता है । इसीलिए ज़रा भी शुबहा नहीं होता कि अहाता अरब से चला और फ़ारसी के रास्ते हिन्दुस्तानी ज़बानों में दाख़िल हुआ ।
हाता का मूल रूप इहाता है और इसका जन्म अरबी धातु हा-वाव-थे यानी  ط – و -ح के पेट से हुआ है । अहाता को हाता कहने का चलन दरअसल भारतीय ज़मीन पर इस शब्द के बिगड़ने का प्रमाण नहीं है बल्कि अरबी में ही इहाता के अलावा हाता, हीता जैसे संक्षिप्त रूप पहले से मौजूद थे और ये भी जस के तस हिन्दी में चले आए । इहाता या अहाता के हाता, हीता जैसे संक्षिप्त रूप दरअसल शब्द-चलन की मुख-सुख प्रक्रिया से नहीं बने हैं बल्कि इन रूपों से इहाता, अहाता का व्युत्पत्तिक या धात्विक आधार मज़बूत होता है । अहाता की तुलना में h-w-t अर्थात ह-व-थ ध्वनियों से حاطه हाता का निर्माण होता है । अरबी में का स्वरूप स्वर के ज्यादा निकट है । हाता में स्वरागम की प्रक्रिया से इहाता या अहाता जैसे रूप बनते हैं ।
ल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक अरबी धातु हा-वाव-थे में मूलतः दीवार, घेरा, बाड़ा, समेटना, समाविष्ट करना, सुरक्षा, रखवाली करना, आरक्षित करना जैसे भाव हैं । इससे बने अहाता / इहाता जैसे शब्दों में घेरा हुआ, बाड़ा लगाना, हर तरफ़ से आरक्षित जैसे भाव हैं । भारतीय परिवेश में इसका प्रयोग आंगन, दालान की तरह ही ज्यादा होता रहा है । जैसे मेम्वार्ज ऑन द हिस्ट्री, फोकलोर, एंड डिस्ट्रीब्यूश ऑफ द रेसेस ऑफ द नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज़ ऑफ इंडिया (1869) में सर हेनरी मायर्स इलियट ने हाता के लिए परिसर, दालान, आंगन, प्रिमिसेस, कम्पाऊंड जैसे शब्द बताते हुए इसे अरबी के इहाता का बिगड़ा रूप बताया है ।
जॉन शेक्सपियर की हिन्दुस्तानी – इंग्लिश डिक्शनरी के मुताबिक इसमें फेंसिंग, बंद, घिरे हुए या अवरुद्ध क्षेत्र का भाव है । मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के कोश के मुताबिक अरबी का इहाता एक घर भी हो सकता है या चारदीवारी भी । इसमें वेष्ठन, प्राचीर के अलावा इलाक़ा, प्रदेश क्षेत्र या हलक़ा जैसे आशय भी वे बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर में भी चारदीवारी के साथ साथ हाता में क्षेत्रवाची व्यापक अर्थवत्ता बताई गई है । इसका अर्थ प्रान्त, हलका या सूबा भी होता है जैसे बंबई हाता, या बंगाल हाता । इसके अलावा इसमें सरहद, सीमान्त या रोक जैसे भाव भी हैं । बाडा, चकला, मोहाल, कटरा, चक जैसा ही इलाक़ाई विशेषण भी हाता में है जैसे पंडित हाता, बाभन हाता, कुरमी हाता, हाता चौक आदि ।
हाता, हाता, इहाता आश्रय व्यवस्था से जुड़ी शब्दावली के शब्द हैं । दुनियाभर की सभ्यताओं में मनुष्य ने विकासक्रम में सबसे पहले घिरे हुए स्थान में ही आश्रय तलाशा । प्राकृतिक रूप से किसी जगह के घिरे होने की वजह से उसे उस स्थान का रक्षात्मक महत्व समझ में आया और फिर आगे चल कर वह खुद भी किसी स्थान के चारों ओर उसी तरह के सुरक्षात्मक सरंजाम जुटाने लगा । पहले कंदरा, फिर बाड़ा, फिर झोपड़ी और कालान्तर में भवन, क़िले आदि भी वह बनाने लगा । इस सबके मूल में सुरक्षा का भाव ही प्रमुख था । अरबी धातु हा-वाव-थे यानी ط- و- ح की कोख से एक और महत्वपूर्ण शब्द जन्मा है एहतियात जिसमें सावधानी, ख़बरदारी, होशयारी का भाव है । यूँ भी कह सकते हैं कि अहाते की तामीर इन्सान ने एहतियातन की । “ एहतियात बरतना”या “एहतियात बरतते हुए” जैसे वाक्य आम बोल-चाल में सुने जाते हैं ।

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Monday, October 29, 2012

रफूगरी, रफादफा, हाजत-रफा

पिछली कड़ियाँ- 1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.darn 4. दफ़ा हो जाओ 

हि न्दी की अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने में विदेशज शब्दों के साथ-साथ युग्मपद और मुहावरे भी है शामिल हैं । रफ़ा-दफ़ा ऐसा ही युग्मपद है जिसका बोलचाल की भाषा में मुहावरेदार प्रयोग होता है । “रफ़ा-दफ़ा करना” यानी किसी मामले को निपटाना, किसी झगड़े को सुलझाना, विवादित स्थिति को टालना, दूर करना । रफ़ा-दफ़ा में नज़र आ रहे दोनो शब्द अरबी के हैं । यहाँ ‘दफ़ा’ का अर्थ ढकेलने, दूर करने से है । इसकी विस्तृत अर्थवत्ता के बारे में पिछली कड़ी में बात की जा चुकी है । रफा ( रफ़ा ) का मूल अरबी उच्चारण रफ़्अ है । फ़ारसी में भी इसका ‘रफ़्अ’ रूप ही इस्तेमाल होता है
फ्अ शब्द की अरबी धातु रा-फ़ा-ऐन ر-ف-ع है जिसमें मूलतः उन्नत करने, सुधारने, ठेलने का भाव है । अरबी क्रियापद है रफ़ाआ जिसमें मरम्मत करना, सुधारना, सीना, ठीक करना, उन्नत करना, तब्दील करना, हटाना जैसे भाव हैं । रफ़ा-दफ़ा में यही भाव है । आमतौर पर हाज़त-रफ़ा पद का प्रयोग भी शौच जाने के अर्थ में उत्तर भारत में इस्तेमाल होता है । जैसे “उनके लिए सुबह सुबह हाजत-रफा करना बड़ा मुश्किल काम था” । इसी कड़ी में आता है ‘रफू’ या ‘रफ़ू’ शब्द । सिलेसिलाए वस्त्र में खोंच लगने पर रफ़ू किया जाता है । इसक अन्तर्गत फटे हुए स्थान की खास तरीके से मरम्मत की जाती है । इसमें बारीक सुई से, जिस कपड़े की मरम्मत होनी है, उसी के अनावश्यक टुकड़े और धागे निकाल कर फटे हुए स्थान को इस खूबी से सिला जाता है कि सिलाई का पता नहीं चलता । यह सिलाई का हुनर है कि मरम्मतशुदा हिस्सा भी कपड़े के टैक्सचर ( बुनावट ) से मेल खाता लगता है ।
रअसल फटे कपड़ों की मरम्मत से विकसित हुई सिलाई की खास तकनीक ने धीरे धीरे कला का रूप ले लिया । फ़ारस में इसका विकास हुआ और मरम्मत के सामान्य उपाय से रफ़ू एक कलाविधा बन गई । फ़ारसी में इसे रफ़ूगरी कहते हैं । रफ़ूगरी यानी रफ़ूकारी । फ़ारसी में ‘करने’ के संदर्भ में ‘गरी’ और ‘कारी’ प्रत्यय प्रचलित हैं । भारोपीय भाषाओं में ‘क’ का रूपान्तर ‘ग’ वर्ण में होता है । वैदिक क्रिया ‘कृ’ इसके मूल में है जिसमें करने का भाव है । इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इनका प्रयोग देखने को मिलता है जैसे - कर ( बुनकर ) , कार ( कर्मकार, कलाकार, कुम्भकार ) , कारी ( कलाकारी , गुलकारी , फूलकारी ) , गार ( गुनहगार, रोज़गार ), गर ( रफ़ूगर, कारीगर, बाजीगर ) , गरी ( कारीगरी, रफ़ूगर, बाजीगरी ) आदि उदाहरण आम हैं । सो खोंच से बने छिद्र को उसी वस्त्र के टुकड़े और उसी के धागे से पूरने, भरने, बराबर करने की हुनरकारी ही रफ़ूगरी है । इस मुक़ाम पर रफ्अ में निहित सुधारने, उन्नत करने जैसे भावों को समझना आसान होगा ।
फ़ूगरी का कला के रूप में इतना विकास हुआ कि न सिर्फ़ फटे कपड़े की मरम्मत बल्कि गोटा-किनारी कशीदाकारी, फुलकारी जैसे सजावटी हुनर के रूप में भी कपड़ों को खूबसूरत बनाने में रफ़ूगरी का उपयोग होने लगा । सामान्य समस्या से निपटने की तरकीबें कैसे मूल्यवान हो जाती हैं, यह जानना दिलचस्प है । फटे कपड़े की मरम्मत थिगला लगा कर भी होती है । यह थिगला आज पैचवर्क जैसी कलाविधा के रूप में मशहूर है जो रफ़ूगरी का ही एक रूप है । रफ़ू का महत्व इतने पर ही खत्म नहीं हुआ । रफ्अ में सुधारना, उन्नत करना जैसे भावों के चलते ही रफ़ू शब्द का प्रयोग वाग्मिता या वक्तृत्व कला में भी होने लगा है । बातों के बाजीगरों को रफ़ूगरी भी आनी चाहिए । अपने तर्कों से दो असम्बद्ध बातों को मिला देना या वाक्पटुता के चलते अलग-अलग पटरी पर चल रहे वार्तलाप को सही दिशा में ले आना या विवाद को खत्म करना इसी रफ़ूगरी में आता है । ऐसे लोगो की वजह से ही ज़बानी विवाद रफ़ा-दफ़ा हो पाते हैं । कुल मिलाकर यह भी उन्नत तकनीक का मामला है ।
शब्द का इस्तेमाल एक अन्य लोकप्रिय युग्मपद में भी बखूबी नज़र आता है । रफूचक्कर या रफ़ूचक्कर भी हिन्दी का लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है चम्पत हो जाना, भाग जाना अथवा गायब हो जाना । रफ़ू की अर्थवत्ता समझ लेने के बाद रफ़ूचक्कर को समझना कठिन नहीं है । खोंच लगे स्थान पर रफ़ू करने के दो तरीके होते हैं । छोटा खोंच है तो उसी वस्त्र के धागे से सिलकर छिद्र को भर दिया जाता है । खोंच बड़ा है तो फटे स्थान पर उसी कपड़े का थिगला लगा कर गोलाई में रफ़ू कर दिया जाता है । माना जा सकता है कि चकरीनुमा इस थिगले से ही रफ़ूचक्कर शब्द निकला होगा । रफ़चक्कर में खोंच के गायब हो जाने के भाव का विस्तार है । इसका प्रयोग किसी भी चीज़ के देखते देखते ग़ायब हो जाने में होने लगा । चोरों और उठाईगीरों के सन्दर्भ में आज  रफ़ूचक्कर का इस्तेमाल ज्यादा होता है ।

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Tuesday, October 23, 2012

उम्र की इमारत

stoneAgeपिछली कड़ी-‘बुनना’ है जीवन

यु के लिए हिन्दी का सबसे लोकप्रिय शब्द उम्र है । इसके अलावा अंग्रेजी का एज शब्द भी हिन्दी में खूब प्रचलित है । इसके उमर, उमिर, उमरिया जैसे रूप भी हिन्दी की विभिन्न शैलियों में प्रचलित हैं । उम्र मूलतः सेमिटिक परिवार की अरबी भाषा का शब्द है और बरास्ता फ़ारसी इसकी आमद हिन्दी में हुई है । हिन्दी में सर्वाधिक बोले जाने शब्दों में यह भी एक है । गौर करें कि किन किन सन्दर्भों में हम सुबह से शाम तक उम्र / उमर शब्द का प्रयोग करते हैं । अरबी में उम्र का अर्थ जीवन, जीवनकाल है । प्रायः सभी भाषाओं में जीवन, ज़िंदगी के साथ निर्माण या रचना जैसे शब्दों का प्रयोग होता है । “ज़िंदगी बनाना”, “ज़िंदगी बनना”, “जीवन सँवारना”, “जीवननिर्माण” आदि वाक्यों से यह स्पष्ट हो रहा है । वय शब्द में बुनावट वाले भाव का आशय जिस तरह से जीवन को सँवारने से जुड़ रहा है वही बात उम्र की मूल सेमिटिक धातु अम्र में भी है जिसमें निर्माण का भाव प्रमुख है ।
रबी में उम्र का आशय जीवन या जीवनकाल से है । जीवनकाल यानी व्यतीत किया हुआ जीवन । बिताई गई आयु । अन्द्रास रज्की के मुताबिक फ़ारसी में इसका उच्चारण ओम्र की तरह है तो अज़रबैजानी और तुर्की में ऊमूर, हिन्दी यह उमर या उम्र है तो स्वाहिली में उम्री, उज़्बेकी में यह उम्र है और तातारी में गोमेर । अल सईद एम बदावी की अरेबिक इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ कुरानिक यूसेज़ के मुताबिक । अम्र से ही अमारा बनता है जिसका अर्थ है बसना, बसाना, सभ्य होना, शिष्ट होना, सुधारना आदि । गौर करें, आदिम युग से ही तमाम मानव समूहों की ये आरम्भिक क्रियाएँ रही हैं । जन्म लेना भर जीवन नहीं है । जन्म लेने के बाद का शारीरिक विकास ही जीवन नहीं है । बीहड़ इलाके को रहने योग्य बनाना, फिर भोजन के लिए बंजर भूमि को खेती योग्य बनाना, फिर समूह में रहते हुए रीति-नीति का विकास जिससे सभ्यता और संस्कृति का निर्माण होता है । यह है अमारा का मूल भाव । सिर्फ़ जी भर लेने से उम्र नहीं गिनी जाती बल्कि युग की तरह जीवन का निर्माण करने में उम्र की सार्थकता है । इसीलिए महान व्यक्तियों के जीवनकाल को युग कहा जाता है क्योंकि वे जीवन जीते नही हैं , बल्कि निर्माण करते हैं । अंग्रेजी के एज  age शब्द में जहाँ उम्र की अर्थवत्ता है वहीं युग और काल का आशय भी है ।
रबी के  तामीर और इमारत शब्दों का हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है । तामीर यानी निर्माण, पुनर्निर्माण, रचना, सृजन आदि । यह तामीर भी इसी मूल से उपजा शब्द है । अपना जीवन अपने काम आने के साथ साथ औरों के काम आए, उसे ऐसा गढ़ना पड़ता है । जीवन को जीने लायक बनाने का भाव ही उम्र में है । तामीर अच्छी होगी तो इमारत भी बुलंद होगी । इल्म, हुनर, लियाक़त और क़ाबिलियत से ज़िंदगी को बेहतरीन बनाना ही असल बात है । यूँ अमारा में आवास और जीवन दोनो है । मूलतः आवास पहले, जीवन बाद में । मकान, भवन के अर्थ वाला इमारत शब्द इसी मूल से निकला है । ज़िंदगी की इमारत सिर्फ़ दीर्घायु (उम्रे-दराज़ ) से बुलंद नहीं होती क्योंकि उम्रे-दराज़ का जीवन की कठिनाइयों ( उम्रे-परीशाँ ) से गहरा रिश्ता है । जीवन के हर कालखण्ड का निर्माण करना पड़ता है । इसे ही ज़िंदगी बनाना कहते हैं । आजकल लोग इसमें “लाइफ़ बनना” देखते हैं ।
ब आते हैं आयु पर । उम्र के अर्थ में आयु शब्द का प्रयोग भी खूब होता है । मराठी में उम्र के लिए वय शब्द का प्रयोग अधिक होता है ठीक उसी तरह हिन्दी में आयु का । हिन्दी में उम्र के अर्थ में अकेले वय का प्रयोग दुर्लभ है अलबत्ता वयःसंधि, अल्पवय, मध्यवय, किशोरवय जैसे युग्मपदों का प्रयोग ज्यादा होता है । कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी कोश के मुताबिक आयु की व्युत्पत्ति आयुस् से है जिसका अर्थ है जीवनीशक्ति, जीवनकाल । वाशि आप्टे आयुस की व्युत्पत्ति आ + इ + उस से बताते हैं जिसमें जीवनावधि, जीवनदायक शक्ति जैसे भाव हैं । गौरतलब है कि संस्कृत की ‘इ’ धातु में मूलतः गति का भाव है, जाना, बिखरना, फैलना, समा जाना, प्रविष्ट होना आदि । मोनियर विलियम्स के मुताबिक ‘इ’ का विशिष्ट रूप अय् से भी व्यक्त होता है जिसमें भी गति का भाव है । ध्यान रहे, जीवन का मूल लक्षण गति ही है । अय का रिश्ता ‘या’ धातु से भी है जिसमें भी जाने, गति करने का भाव है । यान, यात्री जैसे शब्द इसी कड़ी से निकले हैं । 
स ‘अय’ की व्याप्ति हिन्दी के कई शब्दों में है जैसे अयन् जिसका संस्कृत रूप है अयनम् या अयणम् जिसमें जाने, हिलने, गति करने का भाव है । अयनम् का अर्थ रास्ता, मार्ग, पगडण्डी, पथ आदि भी होता है । अवधि या संधिकाल जैसे भाव भी इसमें निहित हैं । अयनम् बना है अय् धातु से । इसमें फलने-फूलने, निकलने का भाव है जो गतिवाचक हैं । जाहिर है अयनम् में निहित गति, राह, बाट का आशय तार्किक है । रामायण या कृष्णायन पर गौर करें जिसमें राम की राह पर चलने या कृष्ण की बाट जाने का भाव है । कुल मिला कर आयु का अर्थ जीवन के फलने-फूलने, उसे सभ्य-संस्कारी बनाने से है । वही भाव, जो उम्र में व्यक्त हो रहा है । चिरायु, शतायु, दीर्घायु जैसे अन्य कई शब्दों से यह ज़ाहिर है । भारोपीय भाषाओं में और आपस में रूपान्तरित होते हैं । भाषाविदों ने भारोपीय भाषा परिवार में एक धातु अयु aiw की कल्पना की है जो संस्कृत आयु की समरूप है । का रूपान्तर में होने से अंग्रेजी का एज age इसी से बनता है जिसमें परिपक्वता, प्रौढ़ता, जीवनकाल जैसे भाव हैं । एज में काल और युग जैसी अर्थवत्ता भी है ।

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Monday, October 22, 2012

‘बुनना’ है जीवन

bayaज़रूर देखें-1. चादर. 2.प्रवीण.3. तन्तु.4. धागा. 5.बाँस.6.कातना.7. सूत 

जी वन का बुनाई से गहरा रिश्ता है । “झीनी झीनी बीनी चदरिया” वाली कबीर की जगप्रसिद्ध उक्ति में चादर ज़िंदगी का प्रतीक है । परमात्मा ने जीवनरूपी चादर को जितनी शिद्धत और मेहनत से महीन अंदाज़ में बुना था उसे सुर-नर-मुनि ने ओढ़ कर मैला कर दिया । कबीर बड़े समझदार हैं, उन्हें ज़िंदगी की कीमत पता है, सो इस चादर को उन्होंने इतने जतन से ओढ़ा कि खुद के साथ साथ पूरे ज़माने को संवार दिया । “दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया”। कबीर जुलाहे थे, बुनकारी जानते थे । इसीलिए उन्होंने ज़िंदगी के लिए चादर जैसा सहज प्रतीक चुना । जन्म लेने के बाद हम सब महीन की बजाय मोटा कातते हैं, महीन की बजया  मोटो बुना जाता है । नतीजतन सुख नहीं मिलता । सुख की उधेड़बून में चादर मैली और जर्जर हो जाती है । इसलिए जिंदगी को सलीके से, महीन बुना जाना चाहिए । हि्न्दी के ‘वय’ शब्द का बुनाई से गहरा रिश्ता है ।
म्र या आयु के लिए हिन्दी में ‘वय’ शब्द भी प्रचलित है । मराठी में उम्र, आयु की तुलना में वय शब्द ज्यादा प्रचलित है । संस्कृत कोशों के अनुसार ‘व’ वर्ण में गति (वह > वहन > बहना या वेग), घर ( वास > आवास, निवास ), कपड़ा ( वस् > वस्त्र ) और बुनना (वयन) जैसे भाव हैं । इसके अतिरिक्त भुजा जो भार उठाती है ( वाह > बांह ) भी इसका अर्थ है । संस्कृत की ‘वे’ धातु में गूँथने, बुनने, बटने और बांधने का भाव प्रमुख है । वे का एक अर्थ पक्षी भी होता है क्योंकि वे चुन-चुन कर तिनकों को गूँथते हैं और अपना आवास बनाते हैं । ‘वे’ से ही बनता है वयन जिससे बयन > बउन > बुन > बुनन > बुनना जैसे रूप बने हैं । इससे ही बुनाई, बुनावट, बुनकर शब्दों का विकास हुआ । वस्त्र के अर्थ में बाना शब्द भी इसी कड़ी में आता है ।
मोनियर विलियम्स के अनुसार ‘वे’ धातु से ही बना है संस्कृत का वय शब्द जिसका अर्थ है वह जो बुनता है अर्थात जुलाहा, बुनकर । तन्तुवाय भी तत्सम शब्दावली में आता है जिसका अर्थ है तन्तुओं को बुनने वाला अर्थात जुलाहा । तन्तु से ही ताँत बना है जिसका मतलब होता है धागा और ताँती बुनकरों की एक जाति है । इसी तरह वय में आयु, उम्र का भाव भी है । वय की अगली कड़ी है वयस् आता है जिसका अर्थ है एक विशेष चिड़िया, कोई भी पक्षी, यौवन, आयु की कोई भी अवस्था, शारीरिक ऊर्जा, शक्ति, बल आदि । वय के जुलाहा और वयस के विशिष्ट चिड़िया वाले वाले अर्थ पर गौर करें । एक विशेष चिडिया को बया कहते हैं जो बेहद करीने और सुथरेपन के साथ तिनकों से अपना घोसला बनाती है मानो कलाकृति हो । बया को कारीगर चिड़िया अथवा जुलाहा की संज्ञा भी दी जाती है । बया, वय से ही बना है । घरोंदा किसी भी प्राणी के लिए जीवन को बचाए रखने का ठिकाना होता है । प्रत्येक को घर में ही शरण मिलती है । जीव कोख में पलता है । पैदा होने के बाद भी आश्रय में ही हम जीवन बुनते है । आयु की सार्थकता बीत जाने में नहीं, बुने जाने में है ।
वे में निहित गूँथना, बुनना, बटना जैसे भावों पर गौर करें । इससे ही बना है संस्कृत का वेन् शब्द । इसका एक अन्य रूप है वेण जिसका अर्थ है बाँस का सामान बनाने वाला कारीगर, संगीतकार । वेण से वेणी याद आती है ? वेणी अर्थात लम्बे बालों को गूँथकर बनाई गई शिखरिणी या चोटी । गूँथना भी बुनकारी है । इसी तरह बाँसो की खपच्चियों को भी गूँथकर, बुनकर डलिया, चटाई आदि बनाई जाती हैं । वंशकार जाति के लोग यह काम करते हैं । वेणु यानी बाँस, लम्बी घास की एक प्रजाति, सरकंडा । वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी होता है और चोटी भी । कृष्ण चोटियाँ बांधते थे इसलिए उनका नाम वेणुमाधव या वेणीमाधव भी है । इसका देशी रूप बेनीमाधव हो गया जो घटते घटते सिर्फ ‘बेनी’ रह गया और उधर माधव दुबला होकर ‘माधो’ बन गया । वेणि जहाँ चोटी है वहीं वेणी में चोटी के साथ धारा, नदी का अर्थ भी है । तीन धाराओं को त्रिवेणी कहते हैं ।
सी कड़ी में चर्चा कर लेते है वीणा शब्द की । आपटे कोश में के अनुसार वीणा का अर्थ सारंगी जैसा वाद्य, बीना, बताया गया है और इसकी व्युत्पत्ति ‘वी’ से बताई गई है । इसके अलावा इसका एक अन्य अर्थ विद्युत भी है। संस्कृत की ‘वी’ धातु में जाना, हिलना-डुलना, व्याप्त होना, पहुँचना जैसे भाव हैं। बिजली की तेज गति, चारों और व्याप्ति से भी वी में निहित अर्थ स्पष्ट है। विद्युत की व्युत्पत्ति भी वी+द्युति से बताई जाती है । ‘वी’ अर्थात व्याप्ति और द्युति यानी चमक, कांति, प्रकाश आदि । संस्कृत में वेण् या वेन् शब्द भी मिलते हैं जिनका अर्थ है जाना, हिलना-डुलना या बाजा बजाना । इसी क्रम में वेण् से बने वेण का अर्थ होता है गायक जाति का एक पुरुष । वेन में निहित एँठना, बटना जैसे भावों पर एक वाद्य के संदर्भ में विचार करने से स्पष्ट होता है कि यहाँ आशय तारों को कसने से ही है । प्रायः सभी तन्त्रीवाद्यों के तार घुण्डियों से बंधे रहते हैं जिने घुमा कर, एँठ कर तारों को कसा जाता है जिससे उनमें स्वरान्दोलन होता है ।
भारतीय भाषाओं में ‘न’ का ‘ण’ रूप भी सामान्य सी बात है । जल के अर्थ में पानी को मराठी, मालवी, राजस्थानी में पाणी कहा जाता है । इसी तरह वेन् का ही एक रूप वेण भी प्राचीनकाल में ही प्रचलित रहा होगा । वेन रूप से बीन, बीना जैसे रूप बने होंगे और वेण रूप से वीणा । मूलतः किसी ज़माने में वीणा बाँस से ही बनाई जाती रही होगी । आज भी उसमें बाँस का काफ़ी प्रयोग होता है । बाँस से वेणु अर्थात बाँसुरी भी बनती है । बाँस शब्द से ही बाँसुरी भी बना है और वेणु का अर्थ भी बाँस ही होता है । सो वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी हुआ । इसका रूपान्तर बीन हुआ । गौर करें बाँसुरी की तरह बीन सुषिर वाद्य है । निश्चित ही बाँस से बाँसुरी का आविष्कार आदिम समाजों में बहुत पहले हो गया था । बाँस के लम्बे पोले टुकड़े को जब तन्त्रीवाद्य का रूप दिया गया तो उसे भी इसी शृंखला में वीन्, वीण्, वीणा नाम मिला । वेणु यानी बंसी तो पहले से प्रचलित थी ही । संस्कृत धातु ‘वे’ की अर्थगर्भिता महत्वपूर्ण है जिसमें गति और बुनावट  की अर्थवत्ता है और इन दोनों का मेल ही जीवन है ।

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Sunday, August 5, 2012

सेवा का फल नमकीन

SEV

हि न्दी में दो तरह के सेव प्रचलित हैं । पहले क्रम पर है बेसन से बने नमकीन कुरकुरे सेव और दूसरा है मीठा-रसीला सेवफल जिसे सेव या सेब भी कहते हैं । खाने-पीने की तैयारशुदा सामग्री में सर्वाधिक लोकप्रिय अगर कोई वस्तु है तो वह है नमकीन सेव । प्रायः हर गली, हर दुकान और हर घर में यह मिल जाएगा । सुबह के नाश्ते में चाय के साथ और कुछ न हो तो सेव चलेगा । मालवी आदमी को तो सुबह शाम खाने के साथ भी सेव चाहिए । भारतीय खान-पान संस्कृति दुनिया भर में निराली है । सेव के साथ सिवँइयाँ अथवा सेवँई जैसे खाद्य पदार्थ भी रसोई की अहम् चीज़ें हैं । सेवँई या सिवँइयाँ मैदे से बनती हैं । शकर और दूध के साथ उबाल कर बनई गई सेवँई की खीर बेहद लज़ीज़ मीठा पकवान है । ध्यान रहे, सेव, सेवँई या सिवँईं जैसे नामों में मीठे या नमकीन होने की महिमा नहीं है बल्कि उनका धागे या सूत्रनुमा आकार ही ख़ास है ।
दिलचस्प बात यह भी है कि दोनो तरह के सेव का सम्बन्ध बोल-चाल की भाषा में बेहद प्रचलित सेवा, सेवक, सेविका जैसे शब्दों से भी हैं जिनमें सेवा करने का मूल भाव है और इनकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत की सेव् धातु से हुई है । संस्कृत की सेव् धातु में मूलतः करना, रहना, बारम्बार जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स, रॉल्फ़ लिली टर्नर और वाशि आप्टे के कोशों के मुताबिक सेव् में सानिध्य, टहल, बहुधा, उपस्थिति, आज्ञाकारिता, पालना, बढ़ाना, विकसित करना, उत्तरदायित्व, समर्पण, खिदमत, देखभाल अथवा सहायता जैसे भाव हैं । इससे बने सेवा का मूलार्थ है देखभाल करना, सहकारी होना, समर्पित कर्म, टहल में रहना आदि । सेवक में उक्त सभी क्रियाओं में लगे रहने वाले व्यक्ति का भाव है । यूँ सेवक का अर्थ नौकर-चाकर, परिचर, सहकर्मी, अनुगामी, भक्त, अनुचर, आज्ञाकारी, भ्रत्य, वेतनभोगी आदि होता है । सेवक का स्त्रीवाची सेविका होता है । सेवा सम्बन्धी शब्दावली में अनेक शब्द हैं जैसे सेवा-पंजिका, सेवा-पुस्तिका, सेवाकर्मी, सेवानिवृत्त, सेवावधि, सेवामुक्त, समाजसेवा, समाजसेवी आदि । इसी कड़ी में सेवाशुल्क जैसा शब्द भी खड़ा है जिसका मूलार्थ है किसी काम के बदले किया जाने वाला भुगतान मगर अब सेवाशुल्क का अर्थ रिश्वत के अर्थ में ज्यादा होने लगा है ।
प्रश्न उठता है इस सेवाभावी सेव् से आहार शृंखला के सेव से सम्बन्ध की व्याख्या क्या हो सकती है ? सेव के आकार और उसे बनाने की प्राचीन विधि पर गौर करें । पुराने ज़माने में बेसन के आटे को गूँथ कर उसकी छोटी लोई को चकले पर रख कर हथेलियों से बारीक-बारीक बेला जाता था । बेलना शब्द का रिश्ता संस्कृत की बल् या वल् धातु से है जिसमें घुमाना, फेरना, चक्कर देना जैसे भाव हैं । लोई को घुमाने वाले उपकरण को भी बेलन इसीलिए कहते हैं क्योंकि इससे बेलने की क्रिया सम्पन्न होती है । जिससे बेला जाए, वह बेलन । गौर करें कि पत्थर या लकड़ी के जिस गोल आसन पर रख कर रोटी बेलते हैं उसे चकला कहते हैं । यह चकला शब्द चक्र से आ रहा है जिसमें गोल, घुमाव, राऊंड या सर्कल का भाव है । बेलने के आसन को चकला नाम इसलिए नहीं मिला क्योंकि वह गोल होता है बल्कि इसलिए मिला क्योंकि उस पर रख कर रोटी को चक्राकार बनाया जाता है । बेलने की क्रिया से कोई वस्तु चक्राकार, तश्तरीनुमा बनती है । तश्तरीनुमा आकार में बेलने के लिए आधार का समतल, ठोस होना ज़रूरी है न कि उसका गोल होना । अक्सर सभी चकले गोल नहीं होते । रोटी बनाने के लिए चकला और बेलन की ज़रूरत होती है, सेव या सेवँईं बनाने के लिए बेलन के स्थान पर चपटी सतह जैसे हथेली, होनी ज़रूरी है ।
राठी में सेवँई के लिए शिवई शब्द है जिसका मूल वही है जो हिन्दी सेवँई का है । मेरा मानना है कि नरम पिण्ड को चपटी सतह पर गोल गोल फिरा कर उसके सूत्र बनाने की तरकीब बाद में ईज़ाद हुई होगी, पहले ऐसा अंगूठे और उंगलियों की मदद से किया जाता रहा होगा । हाथ या उंगलियों लगे किसी चिपचिपे पदार्थ से छुटकारा पाने के लिए हाथों को आपस में मसलने या अंगूठे को उंगलियों पर रगड़ने की तरकीब की जानकारी मनुष्य को आदिमकाल में ही हो गई थी । इस तरह चिपचिपे पदार्थ पर दबाव पड़ने से उसके वलयाकार सूत्र बन कर हाथ से अलग हो जाते हैं । सेवँई के जन्मसूत्र का कुछ पता इसके मराठी पर्यायों से चलता है । मराठी में सेवँई को शेवई कहते हैं इसकी व्युत्पत्ति भी वही है जो हिन्दी में है । मराठी में शेवई के दो प्रकार हैं- हातशेवई और पाटशेवई । जैसा की नाम से ही स्पष्ट है, हातशेवई लोई को हथेली से रगड़ कर बनाए गए सूत्र को कहते हैं । इसका एक नाम बोटी भी है । मराठी में उंगली को बोट कहते हैं । उंगलियों से रगड़ कर बनाए गए महीन सूत्र के लिए बोटी नाम सार्थक है । प्रसंगवश, सेवँई को अंग्रेजी में वर्मीसेली कहते हैं जो मूलतः इतालवी भाषा से आयातित शब्द है और लैटिन के वर्मिस vermis से बना है जिसका मतलब होता है कृमी या रेंगनेवाला नन्हा कीड़ा । एटिमऑनलाइन के मुताबिक वर्म के मूल में भारोपीय भाषा परिवार की धातु wer है जिसमें घूमने, मुड़ने का भाव है । वृ बने वर्त या वर्तते में वही भाव हैं जो प्राचीन भारोपीय धातु वर् wer में हैं । गोल, चक्राकार के लिए हिन्दी संस्कृत का वृत्त शब्द भी इसी मूल से बना है । इतालवी वर्मीसेली  और हिन्दी के सेवँई का शब्द-निर्माण ध्यान देने योग्य है ।
रोटी के लिए मराठी में पोळी शब्द है । पूरणपोळी शब्द में यही पोळी है । पोळी बना है पल् धातु से जिसमें विस्तार, फैलाव, संरक्षण का भाव निहित है इस तरह पोळी का अर्थ हुआ जिसे फैलाया गया हो। बेलने के प्रक्रिया से रोटी विस्तार ही पाती है । पत्ते को संस्कृत में पल्लव कहा जाता है जो इसी धातु से बना है । पत्ते के आकार में पल् धातु का अर्थ स्पष्ट हो रहा है । पेड़ का वह अंग जो चपटा और विस्तारित होता है । हिन्दी का पेलना, पलाना, पलेवा जैसे शब्द जिनमें विस्तार और फैलाव का भाव निहित है इसी शृंखला में आते हैं । पालना शब्द पर गौर करें इसमें बारम्बारता, विस्तार, संरक्षण जैसे सभी भाव स्पष्ट हैं । कहने का तात्पर्य यह कि पल् धातु में जो भाव आटे की लोई को पोळी (रोटी) के रूप में विस्तारित करने में उभर रहा है वैसा ही कुछ सेव् धातु से बने सेव या सेवँई में भी हो रहा है । स्पष्ट है कि सेव् धातु से बने सेव में निहित बारम्बारता, बढ़ाना, विकसित करना और पालना जैसे अर्थ भी पल् की तरह हैं । बेसन या मैदे की लोई को चकले पर गोल-गोल घुमाने से  पतले, लम्बे,  धागेनुमा सूत्र के रूप में उसका आकार बढ़ता जाता है । यही सेव या सेवँई है । बेलने या घुमाने की क्रिया में बारम्बारता पर गौर करें तो भी सेव् क्रिया का अर्थ स्पष्ट होता है ।
सेवफल की बात । जिस तरह सेव या सेवँई में विस्तार, वृद्धि का भाव है, और सेव और सेवँई के आकार से यह अर्थ साफ़ नज़र भी आता है वहीं सेवफल को देखने से यह स्पष्ट नहीं होता । मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में सेवि या सेव शब्द है जिसका अर्थ है सेवफल । मोनियर विलियम्स के कोश में सेवि शब्दान्तर्गत सेव का अर्थ बदरी यानी बेर भी बताया गया है । apple के अर्थ में हिन्दी सेव की व्युत्पत्ति संस्कृत की सिव् धातु से है जिसमें जिसमें नोक, काँटा जैसे भाव हैं । टर्नर कोश के मुताबिक फ़ारसी में सेव का सेब रूप है । इसी तरह उड़िया और गुजराती में भी सेब ही है इसलिए यह निश्चयूर्वक नहीं कहा जा सकता की भारतीय भाषाओं में सेव के सेब रूप के पीछे फ़ारसी का सेब है ।

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Tuesday, July 17, 2012

बुनियाद के बिना

brick-base

हि न्दी में दो ‘बिना’ प्रचलित हैं । पहला ‘बिना’ वह है जिसके बिना हिन्दी में बातचीत पूरी हो ही नहीं सकती है । ‘बिना’ संस्कृत मूल का है और ‘विना’ से बना है । विना का अर्थ है से रहित, को छोड़कर, से हीन आदि । संस्कृत में विना का प्रयोग ‘रसगंगाधर’ के इस सुभाषित में देखिए- “पंकैर्विना सरो भाति सदः खलजनैर्विना । कटुवर्णैर्विना काव्यं मानसं विषयैर्विना ॥” अर्थात कीचड़ बिना सरोवर, दुष्ट बिना गोष्ठी, कटुवर्ण रहित कविता और विषय-वासना-मुक्त मन सर्वोत्तम है । तत्सम शब्दावली का ‘व’ देशज या लोकबोली में आकर ‘ब’ में बदलता है इसलिए संस्कृत का विना हिन्दी मे ‘बिना’ हो जाता है जैसे “बिना आवाज़ ऊँची किए कोई काम हो ही नहीं सकता” या “बिना विचारे काम नहीं करना चाहिए” । ‘बिना’ का एक रूप ‘बिन’ भी है जिसका इस्तेमाल अक्सर काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए होता है जैसे “तुम बिन जीवन”, “तुझ बिन रैना”, “जल बिन मछली” आदि ।
हिन्दी का दूसरा ‘बिना’ अरबी से फ़ारसी होते हुए आया है । यह संस्कृत मूल के ‘बिना’ की बजाय कुछ कम प्रचलित है मगरइस ‘बिना’ के बिना भी हिन्दी का दिल नहीं लगता । यह दूसरा ‘बिना’ बना है सेमिटिक धातु बा-नून-या (b-n-y) से जिसमें निर्माण अथवा रचना का भाव शामिल है । इससे बनता है अरबी का ‘बना’ जिसमें भी यही भाव हैं । ‘बना’ का ही एक रूप होता है ‘बिना’ । इस ‘बिना’ का अर्थ होता है इमारत, निर्मिति, रचना या आधार । गौर करें कि किसी भी चीज़ का एक आधार होता है । आधार यानी नींव, बेस, धरातल, स्टैंड, धरातल, ज़मीन आदि । इसका प्रयोग देखें- “आप किस बिना पर इतना बड़ा आरोप लगा रहे हैं ?” अर्थात यहाँ पर आरोप का आधार पूछा जा रहा है ।
कोई भी स्ट्रक्चर, ढाँचा, इमारत या रचना का निर्माण किसी न किसी आधार पर ही होता है । इसे बुनियाद कहते हैं । बुनियाद का प्रयोग हिन्दी में आधार या नींव के अर्थ में होता है । शब्दकोशों में इसे फ़ारसी का बताया गया है । दरअसल हिन्दी का ‘बुनियाद’ मूल फ़ारसी में ‘बुन्याद’ है, ठीक उसी तरह जैसे दुनिया का तुर्की रूप ‘दुन्या’ है । स्टैंगास के इंग्लिश फ़ारसी कोश में आधार के अलावा इसका अर्थ संरचना, दीवार, बनावट भी है । उधर अरबी में इससे ‘बिना’ की कतार में खड़ा है ‘बुनिया’ जिसका निर्माण भी सेमिटिक धातु बा-नून-या (b-n-y) से हुआ है । इसका फ़ारसी रूप ‘बोन्ये’ और तुर्की रूप ‘बून्ये’ होता है । बुनिया का अर्थ भी वही है जो अरबी ‘बिना’ या फ़ारसी ‘बुनियाद’ का होता है ।
जॉन प्लैट्स के कोश में बुन्याद ( बुनियाद ) का रिश्ता फ़ारसी के बुन से बताया गया है जिसका पूर्वरूप अवेस्ता का बुना है । अवेस्ताई बुना का रिश्ता प्लैट्स वैदिक ‘बुध्न’ से है । मोनियर विलियम्स के मुताबिक इसका अर्थ है bottom , ground , base , depth अथवा किसी भी ढाँचे या संरचना का सबसे निचला हिस्सा । फ़ारसी ‘बून’ की रिश्तेदारी बुध्न से सम्भव है मगर प्लैट्स बुनियाद का मूल बून नहीं बताते बल्कि बनियाद वाली प्रविष्टि में “देखें बुन” लिखते हैं और ‘बुन’ वाली प्रविष्टि में ‘बुनियाद’ को ‘बुन’ के समतुल्य बताते हैं । कुल मिलाकर अवेस्ताई ‘बुना’, फ़ारसी ‘बून’ और अरबी ‘बिनिया’ अथवा ‘बुनिया’ समतुल्य हैं मगर फ़ारसी बुनियाद का विकास अरबी ‘बुनिया’ से होना तार्किक लगता है । एन्ड्रास रज्की के कोश के अनुसार अरबी बुनिये का फ़ारसी रूप टबोन्ये है । गौरतलब है कि फ़ारसी में बुनियाद का रूप बुन्याद होता है जो बोन्ये के क़रीब है । अरबी में बिल्डर, निर्माता के लिए बन्ना शब्द है जबकि इसका फ़ारसी पर्याय बुन्यादगर है । भवन की नपाई करने वाले को बुन्यादसाज़ कहते हैं ।

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Thursday, May 24, 2012

सुभीता और सहूलियत

smile

बो लचाल की हिन्दी का एक आम शब्द है सहूलियत जिसका प्रयोग सुभीता, सुविधा, आसानी के अर्थ में होता है । सहूलियत का मूल तो अरबी भाषा है मगर हिन्दी में यह फ़ारसी से आया है । दरअसल इसका शुद्ध अरबी रूप सहूलत है । मराठी में सुविधा या आसानी के लिए सवलत शब्द प्रचलित है । इस सवलत में अरबी सहूलत के अवशेष देखे जा सकते हैं । सहूलत जब फ़ारसी में पहुँचा तो इसका रूप सोहुलत हुआ । इस रूप के अवशेष भी मराठी के सोहलत में नज़र आते हैं । सहूलत का एक और रूप भी मराठी में है व्यंजन का रूपान्तर सहजता से स्वर में हो जाता है । अरबी सहूलत से जिस तरह मराठी में सवलत बन रहा है उसी तरह लोकबोली में तत्सम शब्दावली के सुविधा का रूपान्तर सुभीता होता है । मालवी, राजस्थानी, भोजपुरी, अवधी आदि बोलियों में सुभीता का सुविधा से प्रयोग होता है ।
सेमिटिक धातु s-h-l में सम, समतल, समान, चिकना, सपाट जैसे भाव हैं । ध्यान रहे, किन्हीं बातों या वस्तुओं को दुरूह, कठिन, मुश्किल, पेचीदा, जटिल बनाने वाला जो प्रमुख कारण है वह है “सम” का अभाव । ऊबड़-खाबड़, गड्ढों भरी सड़क पर चलना दुरूह होता है । जटिल, उलझी हुई बातें हमेशा पेचीदा ही समझी जाती हैं । खुरदुरापन हमेशा ही दुर्गुण है चाहे वह पेड़ की छाल हो या रूखी त्वचा । कोई सतह सम अर्थात एक समान हो, किसी रस्सी में गाँठ न लगी हो, समुद्र में तूफान अर्थात लहरें न हों, किसी बात में उलझाव न हो तो कल्पना करें कि सब कुछ कितना सुखद होगा ? तो मूलतः जीवन में जो कुछ भी उलझाव, अटकाव है उससे मुक्ति पाने और एक समान, चिकना, सपाट बनाने का आशय है सेमिटिक धातु स-ह-ल में ताकि सब कुछ सरलता, सहजता से हो जाए । स-ह-ल से बने सह्ल का हिन्दी रूप सहल है जिसका अर्थ सरल, सहज, सुगम होता है । सहूलत या सहूलियत का प्रयोग मूलतः सुविधा के अर्थ में होता है मगर इसकी अर्थवत्ता व्यापक है और सुगमता, आसानी, क़ायदा, नियम, अनुशासन, आराम, विश्राम, स्पष्ट, सरल, निर्बाध, निर्विघ्न, सपाट, सहज, शान्त जैसे भाव इसमें है ।
गौर करें कि असमानता, धक्का-मुक्की, हिचकोले, खड्डे, ऊबड़-खाबड़पन, उद्विग्नता, क्रोध, विषाद, अस्थिरता आदि बातें ही जीवन को अशान्त, असुविधापूर्ण बनाती हैं । इनके न होने की कामना ही हर कोई करता है । सहूलियत की ज़िंदगी में साधनों से आशय नहीं बल्कि बाधाओँ, रुकावटों से मुक्त जीवन से है । हमारे पास कार हो या न हो, सड़क की अगर मरम्मत हो जाए तो दोनों ही स्थितियों में यह सुविधा की बात होगी । यहाँ साधन महत्वपूर्ण नहीं है । “मुझे सहूलियत चाहिए” और “मुझे सहूलियत से रहते आना चाहिए” दोनों बातों में फ़र्क़ है । पहले वाक्य में किन्हीं सुविधाओं की इच्छा जताई गई है जबकि दूसरे वाक्य में नियम, क़ायदा, सहजता, शान्ति जैसे अनुशासनों का पालन करते हुए सहज-सरल जीने का ढंग विकसित करने का आशय है ।
सुविधा के मूल में है संस्कृत का विधा शब्द, जो बना है विध् धातु से । ध्यान रहे आसान, सरल और समान बनाने के लिए हमेशा ही चीज़ों के गुँथे हुए रूप को खोलना पड़ता है , विभाजित करना पड़ता है, तोड़ना पड़ता है । ऊबड़-खाबड़ रास्ते के पत्थरों को तोड़ कर एक समान किया जाता है । गठान को दो हिस्सों में खोला जाता है । विध् में चुभोना, काटना, बाँटना, विभाजित करना जैसे भाव खास हैं । इसके अलावा सम्मानित करना, पूजा करना, राज्य करना जैसे भाव भी हैं । विध् का ही एक रूप वेध भी है जिसमें छेद करना, प्रवेश करना, चुभोना का आशय है । वेध में शोध भी है । लक्ष्यवेध, शब्दवेध जैसे शब्दों को इन आशयों के जरिए परखें । जाहिर है किसी दिशा में गहराई तक जाकर कोई तथ्य निकाल कर लाना ही शोध है । बींधना या बेधना जैसे शब्द इसी मूल से उपजे हैं । रास्ता बनाने के लिए भी पहाड़ में सुराख करना पड़ता है, तोड़ना पड़ता है ।
मोटे तौर पर विध् में राह, परिपाटी का भाव है और विधा में भी यही आशय है । बाद में विकल्प, माध्यम, रूप, समाधान और तरीका के रूप में भी राह, रीति जैसे शब्द को नई अभिव्यक्त मिली । सुविधा का अर्थ भी स्पष्ट है । वह तरीका, प्रणाली या रास्ता जो उचित, सुचिन्तित, सुगम है । सुविधा उस रीति या राह को कहते हैं जिस पर चलना सुगम, सरल, सहज हो । आर्य भाषाओं में का रूपान्त होता है और फिर का बदलाव में होता है । गौर करें वैजयंती शब्द पर । लोकबोली में यह बैजंती होता हुआ भैजंती तक बनता है । यह मुखसुख के  परिवर्तन हैं । सुविधा से सुभीता का क्रम भी कुछ यूँ रहा- सुविधा > सुबधा > सुभीता । सुभीता में भी तरीका, प्रणाली, सहूलियत, सुयोग, चैन, सुख, आसानी का आशय हैं ।

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Wednesday, April 25, 2012

मुलम्मे की चमक

mulamma

कि सी हलकी धातु पर कीमती धातु की परत चढ़ाने की परम्परा दुनियाभर में प्राचीनकाल से प्रचलित है जिसे मुलम्मा कहा जाता है । मुलम्मा शब्द भारत की क़रीब क़रीब सभी प्रमुख भाषाओं में प्रचलित है । हिन्दी की तो ख़ैर सभी बोलियों में इसे खूब लिखा-पढ़ा-समझा जाता है । मूलतः यह सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द है और बरास्ता फ़ारसी, अरबी भाषा का यह शब्द भारतीय भाषाओं में दाखिल हुआ । यह दिलचस्प है कि अपने ख़ास ठिकाने पर कोई शब्द किसी अन्य रूप में होता है और फिर बदली हुई अर्थवत्ता के साथ उसका कुछ और रूपान्तर किसी अन्य भाषा में होता है । वर्तमान में मुलम्मा का जो अर्थ प्रचलित है उसमें कलई करने या पॉलिश करने का आशय है । गिलट की हुई धातु यानी सोने-चांदी का पानी चढ़ी धातु को भी मुलम्मा कहते हैं । मुलम्मा में नकली पॉलिश का भाव अब प्रमुख हो गया है । तात्पर्य यह है कि ऐसा पदार्थ जो कभी जगमग था पर अब उसकी चमक फीकी पड़ गई है । अगर उसे घिस-माँज दिया जाए तो भी वह चमक उठता है । यानी किसी पदार्थ की चमक ही उसका मुलम्मा है । मगर अब मुलम्मा के साथ चमकीली परत, सतह, पॉलिश या आवरण का आशय जुड़ गया है ।
मूल अरबी में मुलम्मा से अभिप्राय चमक से है । आवरण, लेपन, कलई जैसे आशय इसमें बाद में जुड़े । मुलम्मा mukkama के मूल में है अरबी का लम्अ lam‘ जिसमें द्युति, दीप्ति, कांति, झलक, चमक जैसे भाव हैं । बनावटी, दिखावटी और आडम्बरपूर्ण व्यवहार के सम्बन्ध में भी मुलम्मा शब्द का मुहावरेदार प्रयोग होता है जैसे – “कई बार लगता है मानो धर्मनिरपेक्षता हमारी सांविधानिक पहचान न होकर मुलम्मा है ।” सस्ती धातु से बने बरतनों और गहनों पर सोने चांदी का पानी चढ़ाने वाले कारीगर को मुलम्मासाज कहते हैं । यह प्रक्रिया मुलम्मासाज़ी या मुलम्माकारी कही जाती है । मुलम्मा के तद्भव रूप मुलमा में तुर्की का ची प्रत्यय लगाकर मुलमची जैसा शब्द भी बनाया गया जिसका अर्थ भी मुलम्मासाज़ ही होता है । मराठी में मुलम्मा को मुलामा कहते हैं । हैंस व्हेर और मिल्टन कोवेन के अरबी-इंग्लिश कोश के मुताबिक लम्अ का अर्थ ज्योति, झिलमिल, जगमग, दिपदिप, द्युति, चमक आदि का भाव है । यह चमक प्रतिभा की भी हो सकती है, किसी वस्तु की भी । इसमें परिमार्जन से पैदा कांति का भाव भी है और शुद्धिकरण से पैदा दीप्ति भी ।
फ्रांसिस जोसेफ़ स्टेंगास के फ़ारसी अंग्रेजी कोश के में मुलम्मा के जो अर्थ प्राथमिक क्रम में दिए हैं उनके अनुसार अलग अलग रंगों के घोड़ों को भी मुलम्मा कहते हैं । एक विशिष्ट काव्य विधा जिसमें किसी छंद का आधा हिस्सा एक भाषा में और आधा किसी दूसरी भाषा में होता है । ऐसा प्रयोग दोहा या शेर जैसे छंद में किया जाता है जिसमें दो पंक्तियाँ होती हैं । आमतौर पर मुलम्मा विधा का ज़िक्र तुर्की फ़ारसी के संदर्भ में हुआ है जिसमे अरबी का मिश्रण होता है । गौरतलब है कि इस्लामी प्रभाव बढ़ने के बाद राजनीतिक संदर्भों में फ़ारसी और तुर्की पर अरबी प्रभाव बढ़ने लगा था । अरबी प्रभाव वाली फ़ारसी और अरबी प्रभाव वाली तुर्की का वहाँ के विद्वानों ने समय समय पर विरोध किया मगर फिर भी अरबी का असर बना रहा । अरबी की यही चमक या झलक जिस विधा में सर्वाधिक रही उसे ही मुलम्मा कहा गया । तीसरे क्रम पर स्टेंगास मुलम्मा का अर्थ किसी धातु पर दूसरी धातु के विद्युत-लेपन, आवरण अथवा परत चढ़ाना बताते हैं । स्पष्ट है कि मुलम्मा का मुख्य अर्थ चमक या झलक ही है ।
जो भी हो, यह चमक ही उस वस्तु की नई पहचान है । इसीलिए समझा जा सकता है कि एक काव्यविधा के तौर पर मुलम्मा से आशय उस विशिष्ट छंद से है जिसमें एक भाषा पर दूसरी भाषा की छाप नज़र आती है । इसे हिन्दी और हिन्दुस्तानी से समझ सकते हैं । आज़ादी से पहले की हमारी ज़बान हिन्दुस्तानी थी जिसमें अरबी, फ़ारसी शब्दों का सुविधानुसार प्रयोग होता था । आज़ादी के बाद परिनिष्ठित हिन्दी ने ज़ोर पकड़ा और फ़ारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग काफ़ी कम हुआ । तो पहले की जो हिन्दुस्तानी थी वो मुलम्मा थी, क्योंकि उस में अरबी-फ़ारसी की झलक थी । ध्यान रहे मुलम्मा यानी झलक । चाँदी पर सोने का मुलम्मा यानी सोने की झलक । पीतल पर चांदी का पॉलिश यानी सोने की झलक ।

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Wednesday, April 11, 2012

बलाए-ताक नहीं, बालाए-ताक सही

Vue générale des grottes de Taq-e Bostanसम्बंन्धित आलेख-1.आखिरी मक़ाम की तलाश... पिया मिलन को जाना.…2. प्यारा कौन ? बैल , बालम या मलाई ?.3.लीला, लयकारी और प्रलय….
बो लचाल की भाषा को लय और अर्थवत्ता देने में मुहावरों का अहम क़िरदार होता है । एक मुहावरा पाँच वाक्यों के बराबर बात कह जाता है । इसीलिए मुहावरेदारा भाषा सहज और प्रवाही होती है । हिन्दी को समृद्ध बनाने में फ़ारसी के मुहावरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । आज़ादी के बाद जब हिन्दी के राजभाषा वाले स्वरूप के प्रति लोग कुछ सजग हुए तो उर्दू-फ़ारसी की ठसक वाली हिन्दुस्तानी ज़बान का रुतबा धीरे धीरे कम होने लगा । हालाँकि अरबी-फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल कम नहीं हुआ, मगर उनका बर्ताव हिन्दी शब्दों जैसी ही गै़रज़िम्मेदारी से होने लगा । कई शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल में असावधानी नज़र आने लगी क्योंकि इस ओर  हिन्दी वालों का ध्यान नहीं था । राजभाषा अब फ़ारसी, अंग्रेजी नहीं, हिन्दी थी । मिसाल के तौर पर एक मुहावरा है बलाए-ताक रखना । आमतौर पर किसी विषय को दूर रखने, उसकी उपेक्षा करने, मुख्यधारा से अलग रखने की कोशिश को अभिव्यक्त करने के लिए बलाए-ताक़ मुहावरे का प्रयोग किया जाता है जैसे- “इमर्जेंसी में सत्ताधारी पार्टी ने कानून को बलाए-ताक रख दिया था ।“ ख़ास बात यह कि दशकों से इस मुहावरे का प्रयोग हो रहा है जबकि सही रूप है बालाए-ताक रखना । लोग समझते हैं कि किसी चीज़ को बला यानी दिक्क़ततलब समझ कर ताक पर रखा जा रहा है जबकि इसमें बला यानी मुश्किल, कठिनाई का भाव न होकर बाला यानी ऊँचाई का भाव है ।

बला’ और ‘बाला’ की रिश्तेदारी

ला शब्द का हिन्दी में खूब इस्तेमाल किया जाता है । अरबी में विपत्ति, मुश्किल, कठिनाई, आपदा, दिक़्क़त, मुसीबत, कष्ट, संकट या परेशानी जैसी स्थितियों के संदर्भ में बला शब्द का प्रयोग किया जाता है । फ़ारसी कहावत सबने सुनी है- “ज़ल तू, ज़लाल तू, आई बला को टाल तू ।” इस कहावत में बला को उपरोक्त तमाम अर्थों में समझा जा सकता है । सौन्दर्य की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए फ़ारसी में नकारात्मक विशेषणों का प्रयोग भी होता है । क़यामत की ही तरह बला भी इस कड़ी में है । बला की खूबसूरती अथवा खूबसूरती या बला जैसे मुहावरों में बला विशेषण के तौर पर आया है । भाव है ऐसा सौन्दर्य जिसे देख कर आदमी सुध-बुध खो बैठे । जाहिर है ऐसा होना परेशानी वाली बात ही है, मगर इससे सौन्दर्य को भी सराहना मिल रही है । मगर बलाए-ताक़ में यह बला नहीं है क्योंकि बलाए-ताक का शाब्दिक अर्थ होगा ताक की बला यानी आले की परेशानी । इससे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता । हालाँकि बला और बाला दोनों ही शब्द सेमिटिक मूल के हैं और इनमें आपसी रिश्तेदारी है । मगर प्रस्तुत मुहावरे में ये बला और बाला दोनो अलग अलग छोर पर नज़र आते हैं । इसके लिए जानते हैं बालाए-ताक को ।

बाल का बोलबाला

सेमिटिक भाषा परिवार का एक ख़ास शब्द है बाल, जिसकी इस समूह की कई भाषाओँ में व्यापक अर्थवत्ता है । दिक्कत, परेशानी, अनिष्ट, कष्ट आदि अर्थों में ही यह अज़रबेजानी में बेला है, फुलानी में यह आलबला है तो ग्रीक में यह पेलास है । अफ्रीका की हौसा भाषा में यह बालाई है, हिन्दी और इंडोनेसियाई में इसे बला कहते हैं तो किरगिज़ी में यह बलाआ है । रोमानी में इसका रूप बेलिया है और उज्बेकी में यह बलो है । सुमेरी संस्कृति में इसका मतलब होता है -सर्वोच्च, शीर्षस्थ या सबसे ऊपरवाला । हिब्रू में इसका मतलब होता है परम शक्तिमान, देवता अथवा स्वामी । गौरतलब है कि लेबनान की बेक्का घाटी में बाल देवता का मंदिर है । हिब्रू के बाल (baal) में निहित सर्वोच्च या सर्वशक्तिमान जैसे भावों का अर्थविस्तार ग़ज़ब का रहा। संस्कृत में इसी बाल या बेल का रूप बलम् देखा जा सकता है जिसका अभिप्राय शक्ति , सामर्थ्य , ताकत, सेना, फौज आदि है । एक सुमेरी देवता का नाम बेलुलू है। गौर करें कि संस्कृत में भी इन्द्र का एक विशेषण बललः है । अनिष्टकारी शक्ति के , आसमानी मुसीबत, विपत्ति आदि के लिए हिन्दी में बला शब्द खूब प्रचलित है । यह अरबी फारसी के जरिये हिन्दी में आया । अरबी में इसका प्रवेश हिब्रू के बाल की ही देन है अर्थात बला में बाल की शक्तिरूपी महिमा तो नज़र आ रही है। इससे कुछ हटकर संस्कृत में बला शब्द मंत्रशक्ति के रूप में विद्यमान है । गौर करें की दूध के ऊपर जो क्रीम जमती है उसे हिन्दी में मलाई कहते हैं। मलाई को उर्दू, फारसी और अरबी में बालाई कहते हैं क्योंकि इसमें भी ऊपरवाला भाव ही प्रमुख है । जो दूध के ऊपर हो वही बालाई । पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाख़ाना कहते थे । बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान।
क्या है ताक़
बालाए-ताक़ में यह ऊपर का भाव महत्वपूर्ण है । हिन्दी में आमतौर पर  ताक tak/tāḳ शब्द का प्रयोग होता है जो अरबी का शब्द है मगर इसका मूल फ़ारसी है। अरबी केطاق  ताक़ taq ( tāḳ/ṭāq ) का अर्थ है बल, क्षमता, शक्ति है जिससे ताक़त, ताक़तवर जैसे शब्द बनते हैं। साथ ही इसका अर्थ मेहराब भी है और वो घुमावदार कमानीनुमा आधार भी जिस पर किसी भी भवन की छत टिकी रहती है। वह अर्धचन्द्राकार रचना जो छत को ताक़त प्रदान करती है, उसे थामे रखती है अर्थात उसके बूते छत टिकी रहती है। भाव है ताक़त देना। उसे क्षमता प्रदान करना। अरबी का طاقت ताक़त शब्द इसी मूल का है और ताक़ से उसकी रिश्तेदारी है। हिन्दी में आने के बाद ताक़ शब्द में आला अर्थात दीवार में सामान रखने के लिए बनाया जाने वाला खाली स्थान। यह भी कमानीदार, मेहराबदार आकार में बनाया जाता था। पुराने ज़माने में ऐसे ताक़ आमतौर पर छत से कुछ नीचे, दीवार के ऊपरी हिस्से में रोशनदान के लिए बनाए जाते थे। ताक़चा tāḳchá यानी वह छोटा आला जो कुछ ऊँचाई पर दीवार में बना हो। लोगों की पहुँच से दूर, सुरक्षित रखने के लिए भी ऐसे मेहराबदार खाँचे बनाए जाते थे। इसे ही ताक़ कहते थे । बालाए-ताक़ का अर्थ हुआ ताक़ यानी मेहराबदार दीवार का सबसे बाला हिस्सा यानी सबसे ऊँचा हिस्सा । किसी मुद्दे, विषय या चर्चा सूत्र को दरकिनार करने के संदर्भ में बालाए-ताक़ का प्रयोग होता है। जैसे- इसी सत्र में महिला विधेयक पर बात होनी थी, मगर सत्ता पक्ष ने उसे बालाए-ताक़ रखा । स्पष्ट है कि सत्ता पक्ष नहीं चाहता कि इस विषय पर चर्चा हो इसलिए इसे अलग – थलग करने, इसे पहुँच से दूर रखने के लिए उसने कई हथकण्डे अपनाए । यही है बालाए-ताक़ रखना मुहावरे का सही अर्थ।
ताक़ में नक़्क़ाशी
ताक़ शब्द अरबी में फ़ारसी मूल से गया है । जॉन प्लैट्स के कोश में ताक़ का अर्थ मेहराब, खिड़की, आला, कॉर्निस, खाँचा, कोना, छज्जा और बालकनी आदि है । ताक़ अगर अरबी में फ़ारसी से गया है तो ज़ाहिर है कि यह इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है और इसका रिश्ता किन्हीं अर्थों में संस्कृत, अवेस्ता आदि भाषाओं से भी होगा । इसका स्पष्ट संकेत कहीं नहीं मिलता । फ़ारसी संदर्भों में पश्चिमी ईरान के पहाड़ी प्रान्त करमानशाह में दूसरी से छठी सदी के बीच निर्मित महान स्थापत्य ताक़ ए बोस्ताँ से मिलता है । ये स्थापत्य दरअसल सासानी काल में ईरानी शिल्पकारों द्वारा पहाड़ी चट्टानों पर उत्कीर्ण कला के महानतम नमूने हैं । चट्टानों पर नक्काशी के जरिये मेहराबदार खुले कक्ष बनाए गए हैं जिनकी दीवारों पर ईरान के इतिहास और जरथ्रुस्तकालीन प्रसंग उत्कीर्ण हैं । ईरान में इसे प्राचीनकाल से ही ताक़ ए बोस्ताँ कहा जाता है । पत्थरों में उत्कीर्ण मेहराब की रचना के लिए ताक़ शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि ताक़ शब्द का रिश्ता संस्कृत के तक्ष से है जिसमें उत्कीर्ण करने, काटने, तराश कर आकार देने जैसे भाव हैं । तक्षन या तक्षक का अर्थ शिल्पकार, दस्तकार होता है । सम्भव है तक्ष से ही फ़ारसी का ताक बना हो और मेहराब के अर्थ में अरबी ने भी इसे आज़माया हो।
इन्हें भी देखें- 1.ठठेरा और उड़नतश्तरी
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