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Sunday, April 21, 2013

कल-कल की शब्दावली

भा षा का विकास प्राकृतिक ध्वनियों का अनुकरण करने से हुआ है। पानी के बहाव का संकेत ‘कल-कल’ ध्वनि से मिलता है। इस ‘कल’ के आधार पर देखते हैं कि हमारी भाषाओं को कितने शब्द मिले हैं। कल् की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है। नदी-झरने की कल-कल और भीड़ के कोलाहल में यही कल ध्वनि सुनाई पड़ रही है। पक्षियों की चहचह और कुहुक के लिए प्रचिलत कलरव का अर्थ भी कल ध्वनि (रव) ही है। हिन्दी में गला, गली, खर्राटा, खल्ला, गरियाना, गुर्राना, कुल्ला, कल्ला, गाल आदि और अंग्रेजी का कॉल, कैलेंडर जैसे अनेक शब्द इसी कल की शृंखला से बंधे हुए हैं। चलिए, पहचानते हैं इन्हें।
प्राचीन रोम में पुरोहित नए मास की जोर-शोर से घोषणा करते थे इसे calare कहा जाता था। अंग्रेजी का call भी इससे ही बना है। रोमन में calare का अर्थ होता है पुकारना या मुनादी करना। कैलेयर से बने कैलेंडे का मतलब होता है माह का पहला दिन। माह-तालिका के लिए कैलेंडर के मूल में भी यही कैलेयर है। भाषा विज्ञान के नजरिये से calare का जन्म संस्कृत के कल् या इंडो-यूरोपीय मूल के गल यानी gal से माना जाता है। इन दोनों ही शब्दों का मतलब होता है कहना या शोर मचाना, जानना-समझना या सोचना-विचारना।
ल-कल में ध्वनिवाची संकेत से पानी के बहाव का अर्थ तय हुआ मगर ध्वनिवाचक अर्थ भी बरक़रार रहा। बहाव के अर्थ में बरसाती नाले को खल्ला / खाला कहते हैं। यह स्खल से आ रहा है जिसमें गिरने, फिसलने, बहने, टपकने, नीचे आने, निम्नता जैसे भाव हैं। ज़ाहिर है कल का अगला रूप ही स्खल हुआ जिससे नाले के अर्थ में खल्ला बना। कल का ही अगला रूप गल होता है। ज़रा सोचे पंजाबी के गल पर जिसका मतलब भी कही गई बात ही होता है। साफ़ है कि अंग्रेजी का कॉल, संस्कृत का कल् और पंजाबी का गल एक ही है।
ल् का विकास गल् है जिसका अर्थ है टपकना, चुआना, रिसना, पिघलना आदि। यह कल के बहाववाची भावों का विस्तार है। गौर करें इन सब क्रियाओं पर जो जाहिर करती हैं कि कहीं कुछ खत्म हो रहा है, नष्ट हो रहा है। यह स्पष्ट होता है इसके एक अन्य अर्थ से जिसमें अन्तर्धान होना, गुजर जाना, ओझल हो जाना या हट जाना जैसे भाव हैं। गलन, गलना जैसे शब्दों से यह उजागर होता है। कोई वस्तु अनंत काल तक रिसती नहीं रह सकती। स्रोत कभी तो सूखेगा अर्थात वहाँ जो पदार्थ है वह अंतर्धान होगा। गल् धातु से ही बना है गला जिसका मतलब होता है कंठ, ग्रीवा, गर्दन आदि। ध्यान रहे, गले से गुज़रकर खाद्य पदार्थ अंतर्धान हो जाता है।
ल् से गला बना है और गली भी। निगलना शब्द भी इसी मूल से बना है। गले की आकृति पर ध्यान दें। यह एक अत्यधिक पतला, सँकरा, संकुचित रास्ता होता है। गली का भाव यहीं से उभर रहा है। कण्ठनाल की तरह सँकरा रास्ता ही गली है। गली से ही बना है गलियारा जिसमें भी तंग, संकरे रास्ते का भाव है। गल् में निहित गलन, रिसन के भाव का अंतर्धान होने के अर्थ में प्रकटीकरण अद्भुत है। कुछ विद्वान गलियारे की तुलना अंग्रेजी शब्द गैलरी gallery से करते हैं। यूँ गुज़रने और प्रवाही अर्थ में भी सँकरे रास्ते के तौर पर कल, गल से होते हुए गला और गली के विकास को समझा जा सकता है।
गौर करें सुबह सोकर उठने के बाद मुँह में पानी भर कर गालों की पेशियों को ज़ोरदार हरक़त देने से ताज़गी मिलती है। इसे कुल्ला करना कहते हैं। यह कुल्ला मूलतः ध्वनि अनुकरण से बना शब्द है और इसमें वही कल-कल ध्वनि है जो पत्थरों से टकराते पानी में होती है। वैसे कुल्ला का मूल संस्कृत के कवल से माना जाता है। हिन्दी में जो गाल है वह संस्कृत के गल्ल से आ रहा है। फ़ारसी में गल्ल से कल्ला बनता है जिसका प्रयोग हिन्दी में भी होता है जैसे कल्ले में पान दबाना यानी मुँह में पान रखना। गल्ल और कल्ल की समानता गौरतलब है। गल्ल से हिन्दी में गाल बनता है और फ़ारसी में कल्ला। मगर दोनों ही भाषाओं में कुल्ला का अर्थ गालों में पानी भरकर उसमें खलबली पैदा करना ही है।
ताज़गी के लिए कुल्ला के अलवा गरारा भी किया जाता है। यह संस्कृत के गर्गर (गर-गर) से आ रहा है। कल कल का ही विकास गर गर है। आमतौर पर गर गर ध्वनि गले से अथवा नाक से निकलती है। इस ध्वनि के लिए नाक या गले में नमी होना भी जरूरी है। क वर्णक्रम की ध्वनियाँ आमतौर पर एक दूसरे से बदलती हैं। नींद में मुँह से निकलनेवाली आवाजों को खर्राटा कहा जाता है। इसकी तुलना गर्गर से करना आसान है। यहाँ ध्वनि में तब्दील हो रही है। ख, क ग कण्ठ्य ध्वनियाँ है मगर इनमें भी संघर्षी ध्वनि है और बिना प्रयास सिर्फ निश्वास के जरिये बन रही है। सो खर्राटा शब्द भी इसी कड़ी से जुड़ रहा है। हाँ, गुर्राने गो भी न भूल जाएँ। 
अंग्रेजी के गार्गल gargle शब्द का प्रयोग भी शहरी क्षेत्रों में आमतौर पर होने लगा है। इसकी आमद मध्यकालीन फ्रैंच भाषा के gargouiller मानी जाती है जो प्राचीन फ्रैंच के gargouille से जन्मा है जिसमें गले में पानी के घर्षण और मंथन से निकलने वाली ध्वनि का भाव निहित है। इस शब्द का जन्म गार्ग garg- से हुआ है जिसमें गले से निकलने वाली आवाज का भाव है। इसकी संस्कृत के गर्ग (रः) से समानता गौरतलब है। गार्गल शब्द बना है garg- (गार्ग) + goule (गॉल) से। ध्यान रहे पुरानी फ्रैंच का goule शब्द लैटिन के गुला gula से बना है जिसका अर्थ है गला या कण्ठ। लैटिन भारोपीय भाषा परिवार से जुड़ी है। लैटिन के गुला और हिन्दी के गला की समानता देखें।
पशब्द, निंदासूचक या फूहड़ बात के लिए हिन्दी उर्दू में गाली शब्द है। प्रायः कोशों में इसका मूल संस्कृत का गालि बताया गया है। ध्यान रहे कल् या गल् में कुछ कहने का भाव है प्रमुख है। कल्-गल् की विकास यात्रा में अपशब्द के लिए गालि का विकास भी इसी गल् से हुआ। गल् यानी ध्वनि। कहना। गाल यानी वह अंग जहाँ जीभ व अन्य उपांगों से ध्वनि पैदा होती है। गला यानी वह महत्वपूर्ण अंग जहाँ से ध्वनि पैदा होती है। गुलगपाड़ा, शोरगुल, कोलाहल, कल-कल, कॉल, गल, कलरव, गर-गर, गॉर्गल जैसे शब्दों में कहना, ध्वनि करना ही महत्वपूर्ण है। गाली का एक अन्य रूप गारी भी होता है। उलाहना, भर्त्सना, धिक्कार या झिड़कने को गरियाना भी कहते हैं। किसी को दुर्वचन कहने, लताड़ने, फटकारने के अर्थ में भी इसका प्रयोग किया जाता है। जॉन प्लैट्स के कोश में गाली की व्युत्पत्ति प्राकृत के गरिहा से बताई गई है। संस्कृत में इसका मूल गर्ह् है जिसका अर्थ भर्त्सना या धिक्कार ही है। गर्ह् के मूल में भी गर् ध्वनि को पहचाना जा सकता है।
गाली बकने की क्रिया के लिए गाली-गलौज शब्द भी है। इसमें गलौज ध्वनि अनुकरण से बना है। गलौज, गलौच, गलोच में क्या सही है, क्या ग़लत इसके फेर में नहीं पड़ना चाहिए। वैसे हिन्दी कोशों में गलौज को ही सही बताया गया है। चूँकि ध्वनि अनुकरण का मामला है इसलिए अलग अलग क्षेत्रों में और का फ़र्क़ हो सकता है।  इसी कड़ी में गाली-गुफ्तार पर विचार करें। गुफ्तार मुख-सुख से नहीं आया है मगर गाली-गुफ्तार पद का प्रयोग हिन्दी में गाली-गुफ्ता की तरह होता है। अनजाने में गालीगुप्ता भी देखा जाता है।

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Saturday, April 20, 2013

‘छद्म’ और ‘छावनी’

से शब्द जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली के हैं मगर बोलचाल की हिन्दी में आज भी डटे हुए हैं उनमें छद्म शब्द भी शामिल है। कपटपूर्ण व्यवहार के संदर्भ में हिन्दी में इसका प्रयोग होता है। छल-छद्म एक आम मुहावरा है जिसका अर्थ है छल, कपट या धोखे का प्यवहार। छद्मवेषी व्यक्ति वह है जो अपना असील रूप छिपाने के लिए रूप बदल कर रहता है। छद्म करनेवाले व्यक्ति को छद्मी कहते हैं। ध्यान रहे, देहात में पाया जाने वाला संज्ञानाम छदामी (लाल) या छदम्मी (लाल) इस छद्मी का अपभ्रंश रूप नहीं है। ये नाम दरअसल यूनानी मुद्रा द्रख्म से आ रहे हैं जो मौर्यकाल में भारत में द्रम्मम् के नाम से चलती थीं जिनका देशी रूप दाम, दमड़ी हुआ। मूल्य के अर्थ में दाम शब्द यहीं से आ रहा है। दाम का छठा हिस्सा छदाम कहलाया। दो दमड़ी यानी एक छदाम। पुराने ज़माने में दमड़ीमल भी होते थे और छदामीलाल भी। ख़ैर बात छद्म की चल रही थी।
द्म में जो फ़रेब, झूठ, छुपाव, बनावटीपन आदि का भाव है वह दरअसल छद् से आ रहा है। संस्कृत में छद् का अर्थ है आवरण। छद् का ‘छ’ है वह ‘छत’ अर्थात ‘छाया’ का प्रतीक है। संस्कृत छाया का ही फारसी रूप साया है। मगर हिन्दी के ‘छाया’ में अब सिर्फ़ परछाईं का भाव रह गया है वहीं फारसी के साया में परछायी के साथ साथ ‘छत’ का भाव भी बरकरार है। संस्कृत की ‘छद्’ धातु में छत, छाया, ढके होने का भाव है। छद् का मतलब होता है ढकना , छिपाना , पर्दा करना आदि। छद् से ही बना है छत्र, छत्रक या छत्रकम् । इन्ही शब्दों से बने हैं छाता, छत्री छतरी जैसे शब्द जिसका मतलब होता है ऐसा आवरण जिससे सिर ढका रहे, छाया बनी रहे। राजाओं के सिंहासन के पीछे लगे छत्र से भी यह साफ है । छत्रपति, छत्रधारी जैसे शब्द इससे ही निकले हैं। मंडपनुमा इमारत भी छतरी ही कहलाती है। राजाओं की याद में भी पुराने ज़माने में जहाँ उन्हें दफनाया जाता था, छतरियाँ बनाईं जाती थीं।
नावटी, नकली, जाली या फर्जी में मूलतः सच्चाई को छुपाने का भाव है। ऐसा व्यवहार जिसमें सच को छुपाया जाए, उस पर पर्दा या आवरण डाला जाए, छद्म की श्रेणी में आता है। छद्म में छद् को अगर पहचाना जाए तो सब स्पष्ट हो जाता है। छद का छत रूप अगर संरक्षण है तो वह एक आवरण भी है। संस्कृत में छद्मन् का अर्थ है स्वांग, बहाना, छुपाव, कपट आदि। छल शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्दसागर में स्खल से बताई गई है जो मेरे विचार में ठीक नहीं है। छल में भी वही ‘छ’ है जिसमें छुपाव या आवरण का भाव है। छल-छद्म में दुराव या छुपाव की पुनरुक्ति है।
फ़ौजी पड़ाव के लिए हिन्दी में छावनी शब्द आम है। कई बड़े शहरों में छावनी नामधारी इलाके होते हैं। इसका मतलब यह किसी ज़माने में वहाँ सेना का स्थायी या अस्थायी बसेरा था। उन्हीं स्थानों पर बाद में नई आबादी बस जाने के बावजूद इलाके के नाम के साथ छावनी शब्द जुड़ा रहा जैसे छावनी चौराहा या छावनी बाज़ार आदि। आज के दौर में भी जिन शहरों में आर्मी कैंटोनमेंट होता है उसे छावनी ही कहते हैं। कैंटोनमेंट बोर्ड को भी छावनी बोर्ड ही कहते हैं। जानते हैं छावनी शब्द कहाँ से आया और इसका अर्थ क्या है। संस्कृत में आच्छादन का अर्थ होता है आवरण, वस्त्र या छाजन आदि। आच्छादन में भी छद् को पहचाना जा सकता है। उपसर्ग के बाद छादन बचता है। किसी ज़माने में बटोही राह में जब रुकते थे तो टहनियों को अर्धवृत्ताकार मोड़ कर उनके दोनों सिरे ज़मीन में गाड़ देते थे और उस ढाँचे पर चादर तान देते थे। यह उनका अस्थायी आश्रय बन जाता था।
गौर करें, यह जो चादर है वह भी इसी कड़ी का शब्द है। छद् के चादर में तब्दील होने का क्रम कुछ यूँ रहा होगा – छत्रक > छत्तरअ > छद्दर > चद्दर > चादर। मराठी में छादनी का अर्थ होता है ढक्कन, आवरण आदि और इसी रूप में यह हिन्दी में भी है। छादनी से छावनी में तब्दील होने का क्रम यूँ रहा- छादनी > छायणी > छायणी > छावणी। हिन्दी शब्दसागर छादनी का उल्लेख नहीं करता किन्तु इसका रिश्ता छाना क्रिया से जोड़ता है साथ ही देशी छायणिया, छायणो जैसे शब्दों से इसका सम्बन्ध बताता है। स्पष्ट है कि छायणिया या छायणो जैसे रूप प्राकृत-अपभ्रंश के हैं और इनका मूल छादन या छादनी है। इसी कड़ी में छाँह, छाँव, छावण, छावन, छाजन, छप्पर जैसे शब्द भी हैं जिनमें आवरण, डेरा, तम्बू, आश्रय, ढक्कन जैसे भाव हैं।

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Monday, April 15, 2013

घोंघाबसंत

Garden Snail (Helix aspersa).

लसी और महामूर्ख के अर्थ में ‘घोंघाबसन्त’ मुहावरा खूब प्रचलित है। ‘घोंघा’ शब्द भी अपने आप में ‘गावदी’ या ‘घोंचू’ प्रकृति के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है। गुमसुम या चुपचाप रहने वालों को भी ‘घोंघा’ कहा जाता है। घोंघा के साथ ‘बसन्त’ का मेल चौंकाता है। जिस तरह से गधे के लिए बैसाखनंदन उपमा है क्या उसी तरह घोंघाबसन्त में भी ‘बसन्त’ का तात्पर्य ऋतु से ही है ? चलिए, पहले ‘घोंघा’ की खबर लेते हैं, फिर ‘बसन्त’ की भी सुध ली जाएगी। घोंघा शब्द एक नज़र में अनुकरणात्मक लगता है मगर इसमें अनुकरण का संकेत आसानी से पकड़ में नहीं आता। शब्दकोशों में घोंघा का अर्थ शंख, सीप, कवच, खोल, आवरण आदि है। घोंघा से आशय जोंक जैसे रेंगने वाले उस प्राणी से है जो दलदली, नम भूमि पर या कछारी क्षेत्र में पाया जाता है। यह शंखनुमा कवच में रहता है। चलते समय यह आवरण से बाहर निकलता है मगर इसकी रफ़्तार बहुत सुस्त रहती है। थोड़ी भी हलचल से घबराकर यह फिर अपने खोल में घुस जाता है। घोंघा शब्द में मुख्य आशय उस आश्रय से है जिसमें रेंगने वाला कीड़ा रहता है। यह आश्रय शंखनुमा घुमावदार, उभारदार वलयाकृति वाला होता है।
लिली टर्नर घोंघा शब्द की तुलना घेंघा से करते हैं। ध्यान रहे, घेंघा गले का एक रोग होता है जिसमें कण्ठनाल में एक उभार या गठान जैसा आकार बन जाता है। घोंघा की रचना में भी उभार ही प्रमुख हैं। टर्नर के कोश में घेंटु यानी गला अथवा गर्दन का उल्लेख भी है और इसकी तुलना भी गले के घुमावदार उभार से की गई है। कण्ठ (गला ), गण्ड (उभार, ग्रन्थि), कण्ड (जोड़) जैसे शब्द एक ही कड़ी के हैं। गलगण्ड यानी गले का उभार। कई लोग इसे गले की घण्टी भी कहते हैं। घूर्णन (घुमाव), घूम, घूमना, घण्टा, घण्टी, घट, घाटी जैसे कई शब्दों में इसे समझा जा सकता है। ‘घ’ ध्वनि / वर्ण में निहित घुमाव का भाव घोंघा की सर्पिल गति से भी स्पष्ट है। मराठी में एक साँप का नाम ‘घोण’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में भी घोण नाम के सर्प का उल्लेख है। स्पष्ट है कि घोंघा या घेंघा ( गले की ग्रन्थि ) में अनुकरणात्मकता है मगर इसका तार्किक रिश्ता ‘घ’ ध्वनि में निहित घुमाव के आशय से है।
घोंघा के साथ जुड़े बसन्त शब्द को बसन्त ऋतु से न जोड़ते हुए खड़ी बोली के ‘अन्त’ प्रत्यय से बना हुआ शब्द मानना चाहिए जैसे रटन्त। गौरतलब है इस प्रत्यय से अपनी आवश्यकतानुसार मुख-सुख के शब्द बनाए जाते रहे हैं मसलन, घुसन्त, उठन्त, घुमन्त, फिरन्त, चलन्त आदि। किसी विशिष्ट भाव के लिए बनाया गया पद रूढ़ भी हो सकता है। बसन्त के ‘बस’ में बैठने, स्थिर होने का भाव है। ‘बस’ से मराठी में ‘बसना’ क्रिया बनती है जिसका अर्थ है बैठना। हिन्दी का ‘बसना’ कुछ अलग अर्थवत्ता रखता है और इसमें निवास करने, स्थिर होने का भाव है। गुजराती में बैठिए के लिए ‘बेसो’ शब्द है। संस्कृत के वस् में बसने का भाव है और हिन्दी मराठी का बसना, इसी वस् से आ रहा है। आवास, निवास जैसे शब्द इसी मूल के हैं।  मूर्ख की तरह बैठे रहने वाले अर्थ में ‘बसन्त’ इसी तरह घोंघाबसन्त में रूढ़ हो गया होगा, ऐसा लगता है। यह भी सम्भव है कि ‘घोंघाबसन्त’ का अर्थ है वह जो खोल घुस कर बैठा रहे। घरघुस्सू व्यक्ति यान घर में घुस कर बैठे रहने वाले व्यक्ति को भी समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। बुद्ध मुद्रा में बैठे रहने वाले व्यक्ति के लिए भी आखिरकार गावदी के अर्थ में ‘बुद्धू’ शब्द रूढ़ हुआ और एकटक ताकते रहने वाले व्यक्ति को ‘मूढ़’ की संज्ञा दी गई।

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Saturday, February 9, 2013

होशियारी की बातें

ganesha

हि न्दी के प्रचलित शब्द भंडार में होशियार, होशियारी जैसे शब्द भी हैं जिसका इस्तेमाल रोज़मर्रा की भाषा में खूब होता है । होशियार शब्द दरअसल फ़ारसी मूल से भारतीय भाषाओं में दाख़िल हुआ है जिसका प्रयोग बतौर विशेषण सजग और बुद्धिमान के अर्थ में किया जाता है । चतुर, निपुण, कुशल, सावधान, समझदार और दक्ष की व्यंजना भी इसमें निहित है । होशियारी एक संज्ञा है और इसकी अर्थवत्ता में होशियार के सभी गुण शामिल हैं । हिन्दी में होशियार के होश्यार, हुशियार, होश्यार, हुस्यार, होशयार जैसे रूप प्रचलित हैं । मराठी में इसे हुशार कहा जाता है ।
होशियार या होशियारी के मूल में फ़ारसी का होश है जो इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । जोसेफ़ एच पीटरसन की डिक्शनरी ऑफ़ मोस्ट कॉमन अवेस्ता वर्ड्स में उषी शब्द है । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका पहलवी रूप हुश या होश है जबकि डी.एन.मैकेन्जी की पहलवी डिक्शनरी के मुताबिक अवेस्ता उशी का पहलवी रूप ओश होता है जिसका एक अर्थ है ज्ञान, बोध, दूसरा अर्थ है मृत्यु और तीसरा अर्थ है उदय, प्रभात, सवेरा आदि । भाषाविज्ञानी एकमत है कि उशी, ओश जैसे शब्द वैदिक भाषा के उषः, उषा जैसे शब्दों के समरूप हैं जिसमें प्रभात, उदय या सवेरा का भाव है । वैदिक उष् धातु में ताप, तपाना जैसे भाव भी हैं । पहलवी ओश में पूर्व दिशा का भाव भी है । सूर्योदय के साथ ही ताप का एक नाम उष्मा भी है । उष्मा के मूल में भी यही उष् है । उष्मा से प्रकाश निकलता है । प्रकृति में उष्मा और प्रकाश का आदिप्रतीक सूर्य ही है जो पूर्व दिशा से उगता है । यही सारे संकेत वैदिक उष और पहलवी ओश में हैं ।
फ़ारसी में आकर ओश का रूपान्तर होश होता है और इसमें ज्ञान, बोध जैसे भाव स्थायी हो जाते हैं तथा सूर्योदय, प्रभात जैसे भाव इसमें से विलीन हो जाते हैं । पहलवी में सतर्क, जागरुक, सचेत के लिए ओशयार (osyar) शब्द है । इसका अगला रूप फ़ारसी का होशयार है । हिन्दी-उर्दू में यह होशियार बनता है । मुहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह के कोश में होश का अर्थ बुद्धि, समझ, अक़्ल, चेतना, संज्ञा, ख़बरदारी, विवेक, तमीज़ और नशे में उतार की अवस्था जैसे अर्थ बताए गए हैं । होशयार शब्द में जो यार है वह भी इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है । यार शब्द का अर्थ है मित्र, दोस्त, बंधु, सखा, साथी आदि। यार शब्द की अर्थवत्ता में प्रेमी, आशिक , माशूक भी समाए हैं। इसके अलावा यह शब्द मददगार, सहायक का भाव भी रखता है। जॉन प्लैट्स के उर्दू इंग्लिश हिन्दुस्तानी कोश के मुताबिक यार शब्द की संभावित व्युत्पत्ति जारः से बताई गई है। संस्कृत के जारः शब्द में मूलतः प्रेमी, आशिक, उपपति का भाव है। किसी स्त्री के आशिक के अर्थ में जारः शब्द की अर्थवत्ता फारसी के यार में भी कायम है । यार शब्द बाद में सामान्य मित्र के अर्थ में समाज में रूढ़ हुआ । फ़ारसी का बे उपसर्ग लग कर बेहोश शब्द बनता है जिसका अर्थ है जिसमें चेतना न हो, अचेत ।
होशयार का अर्थ है जिसकी अक्ल से दोस्ती हो । अक़्ल का दुश्मन मुहावरा भी हिन्दी में प्रचलित है । ऐसे व्यक्ति के लिए उर्दू में होशबाख़्त शब्द है । इसके अलावा होशमंद, होशमंदी जैसे शब्द भी प्रचलित हैं । होशरुबा शब्द का अर्थ है चेतना हर लेने वाला, होश उड़ा देने वाला । हिन्दी में होशो-हवास पद भी खूब प्रचलित है । यह संकर पद है अर्थात होश फ़ारसी से आया है और हवास अरबी से । हवास शब्द अरबी धातु हा-सीन-सीन से बना है (ح س س ) जिसमें स्पर्श, संवेदना या समझ का भाव है । इससे बने हास्सः का अर्थ होता है इन्द्रियाँ जो स्पर्श, संवेदना की वाहक हैं । हास्सः का बहुवचन है हवास । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक इसका अर्थ है इन्द्रियाँ, संवेदना, चेतना, संज्ञा, होश आदि । ज़ाहिर है होश-हवास में वही भाव है जो हिन्दी के सुध-बुध में है । सुधि और बोध दोनो जहाँ स्थित हो वही होश-हवास की स्थिति है ।
होश से जुड़े अनेक मुहावरे व कहावतें हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे होश उड़ना, होश गुम होना या होश फ़ाख़्ता होना । इन सभी में भय, आशंका, चिन्ता या फ़िक़्र से सुध-बुध खोने या डर जाने की अभिव्यक्ति होती है । होश आना यानी ग़लती सुधार लेना, समझदार हो जाना आदि । होश दंग होना यानी चकित रह जाना । होश ठिकाने आना अर्थात सबक मिलना, बुद्धि जाग्रत होना, अधीरता या व्याकुलता मिटना, होश की दवा करना यानी अक्ल हासिल करना, समझदारी पाना आदि ।

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Friday, January 11, 2013

देहात की बात

gaon

ग्रा मीण अंचल के लिए गाँव-देहात शब्दयुग्म का हिन्दी में खूब प्रयोग होता है । “वे दूर देहात से आए हैं,” “देहात में रहने के अपने फ़ायदे हैं,” जैसे वाक्यों में देहात का अर्थ गाँव ही है । गँवई या ग्रामीण के लिए देहात से देहाती विशेषण बनता है । देहात हमें भारतीय परिवेश से जुड़ा शब्द लगता है तो इसलिए क्योंकि यह भारत-ईरानी भाषा समूह का शब्द है और फ़ारसी मूल के ‘देह’ से हिन्दी की बोलियों में आया । फ़ारसी में देह के दीह, दिह जैसे रूप भी मिलते हैं । देह यानी गाँव और देह का बहुवचन देहात यानी ग्रामीण क्षेत्र । हिन्दी में देह, देहात जैसे शब्दों का प्रयोग ग्यारहवीं सदी से ही शुरू हो चुका था । यूल-बर्नेल के एंग्लो-इंडियन कोश हॉब्सन-जॉब्सन के अनुसार पंद्रहवीं सदी के कम्पनी राज के दस्तावेज़ों में कोलकाता को ‘दे कलकत्ता’ लिखा गया है । यह ‘दे’ दरअसल फ़ारसी का ‘देह’ है जिसका अर्थ है ग्राम । ‘दे कलकत्ता’ का अर्थ हुआ गाँव कलकत्ता जो तब हुगली के मुहाने पर स्थित एक मामूली बसाहट थी । करीब साढ़े तीन सौ साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की कासिम बाजार कोठी का फर्स्ट आफिसर था जाब चार्नक जो बाद में कंपनी एजेंट बना और उसी की देख-रेख में सूतानटी और ‘दे कलकत्ता’ का विकसित रूप आज की कोलकाता महानगरी है ।
ख्यात भाषाविद जूलियस पकोर्नी द्वारा खोजी गई प्रोटो भारोपीय धातुओं में dheigh (-धिघ, मोनियर विलियम्स ) से बना है अवेस्ता का ‘देगा’ जिसका अर्थ है निर्माण, बनाना, मिट्टी, ढाँचा अथवा लेपन । ईरानी परिवार की भाषाओं में इसके अन्य रूप हैं दिज़, देज़, दाएज़ा, दाएजायति जिनका अर्थ है दीवार, परकोटा या क़िला । अवेस्ता में पइरीदाएज़ा शब्द है जिसका अर्थ है जन्नत, वैकुण्ठ, स्वर्गवाटिका या परकोटा । अंग्रेजी का पेराडाइस इसका ही रूपान्तर है । यूनिवर्सिटी ऑफ़ टैक्सास के लिंग्विस्टिक रिसर्च सेंटर के मुताबिक पुरानी फ़ारसी में ‘दिदा’ का अर्थ कोट या क़िलेबंदी होता है । हिन्दी का ‘दीवार’ इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की इंडो-ईरानी शाखा का शब्द है और भारतीय भाषाओं में इसकी आमद फ़ारसी से हुई है । यह अवेस्ता के एक सामासिक पद ‘देगावरा’ [dega-vara] से बना है । संस्कृत की ‘दिह्’ धातु का रिश्ता dheigh से जुड़ता है । इसका अर्थ परकोटा, आश्रय, कोट, हदबंदी, किलेबंदी करना, बचाव करना, लीपना, पोतना आदि । ध्यान रहे घास-फूस के ढाँचे को मिट्टी से सान-पोत कर उसे मज़बूती दी जाती थी ।
फ़ारसी के ‘दहलीज’ शब्द में यही ‘देह’ है । इन सभी में बनाने या निर्माण की क्रिया शामिल है । ‘दहलीज’ का अर्थ होता है पौड़ी, सीढ़ी, द्वार या चौखट । इसी मूल से बने हैं देहरी, देहरा, देहरी जैसे शब्द जो चौखट या द्वार की अर्थवत्ता रखते हैं । गौर तलब है कि उत्तराखंड के कई स्थानों के साथ कोट, पौड़ी या द्वार शब्द जुड़े नज़र आते हैं जैसे कोटद्वार, हरिद्वार, पौड़ी गढ़वाल आदि । जहाँ तक ‘देहरादून’ के देहरा की व्युत्पत्ति का प्रश्न है , तमाम विकल्पों के साथ फ़ारसी के देह, दिह से भी देहरा की व्युत्पत्ति सम्भावित है जिसमें गाँव, दीवार, परकोटा जैसे भाव हैं । इस तरह ‘देहरादून’ का अर्थ हुआ वादी का गाँव । ग्वालियर के पास एक घाटीगाँव भी है । देहरादून का एक अर्थ दर ऐ वादी अर्थात घाटी का दरवाज़ा भी हो सकता है । वह बस्ती जहाँ से द्रोणिका अर्थात दून घाटी शुरू होती है । वैसे देहरादून का रिश्ता देवघर या डेरा से भी जोड़ा जाता है । इसी कड़ी में ‘टिहरी गढ़वाल’ भी आता है । संदर्भों के अनुसार टिहरी / टेहरी शब्द ‘त्रिहरी’ यानी तीन विषयों ( मनसा, वाचा, कर्मणा ) का शमन करने वाला स्थान । यह व्युत्पत्ति काल्पनिक है । ‘टिहरी’ शब्द भी ‘देहरी’ का रूपान्तर है, ऐसा मुझे लगता है ।
संस्कृत की दिह् धातु से बना है ‘देह’ शब्द जिसका अर्थ काया, शरीर होता है मगर इसका मूलार्थ है ढाँचा, आवरण, कवच या बचाव । गौर करें दिह् में निहित लेपन के अर्थ पर । किसी वस्तु पर लेपन उसे सुरक्षित बनाने के लिए ही किया जाता है । देह एक तरह से शरीर के भीतरी अंगों का सुरक्षा कवच है । मोनियर विलियम्स के कोश के अनुसार ‘देह’ का अर्थ है आवरण, लेपन, मिट्टी, ढाँचा, साँचा, गूँथना, ढालना आदि। दार्शनिक अर्थों में देह को मिट्टी से निर्मित भी कहा जाता है और इसे किले की उपमा भी दी जाती है। गौरतलब है कि अंग्रेजी के ‘डो’ dough का अर्थ होता है सानना, गूँथना आदि । डो का रिश्ता भी प्रोटो भारोपीय धिघ् dheigh से जुड़ता । कबीर ने मनुष्य को माटी का पुतला यूँ ही नहीं कहा । देह, दिह्, दिज़् शब्दों के भावार्थों पर जाएँ तो माटी के पुतले के निर्माण की सारी क्रियाएँ स्पष्ट होती है यानी मिट्टी को पीटना, सानना, राँधना, गूँथना, साँचा बनाना और फिर पुतला बनाना । स्पष्ट है कि संस्कृत के दिह् और फ़ारसी के दीह या देह परस्पर समानार्थी हैं और एक ही मूल से निकले हैं । 
गौर करें, फ़ारसी के दीह / दिह या देह शब्द में मूलतः क़िलेबंदी, हदबंदी या परकोटा बनाने का भाव ही है । प्राचीनकाल में आबादियाँ इसी तरह रहती थीं । ‘वास’ करने की वजह से ही राजस्थानी में ‘बासा’ शब्द है । बस्ती के मूल में भी ‘वास’ ही है । सर रॉल्फ़ लिली टर्नर के कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैंग्वेजेज़ के अनुसार संस्कृत के देही में ढूह, क़िला, परिधि, चाहरदीवारी, परकोटा की अर्थवत्ता का समावेश हैं । सिन्धी में यह दिहु है जिसका अर्थ पलस्तर लगाना, परत चढ़ाना, मज़बूत करना, ढूह बनाना आदि । फ़ारसी में इसका एकवचन रूप दिह या देह होता है और बहुवचन रूप देहात है जिसका अर्थ ग्रामीण क्षेत्र है । डीएन मैकेंजी के पहलवी कोश में ‘देह’, ‘दिह’ में देश, इलाक़ा, ग्राम या क्षेत्र, भूमि जैसे भाव हैं और इससे बने पहलवी के ‘दहिगन’ में ग्रामीण या कृषक का भाव है । दहिगन का फ़ारसी रूप देहक़ान होता है । हिन्दी में इसे दहकान भी लिखा जाता है । देहक़ानी या देहक़ानियत का अर्थ होता है गँवारू, गँवई या उजड्डपन । यह ठीक वैसे ही है जैसे ग्राम से गाँव और फिर गँवई । किसी व्यक्ति को असभ्य के अर्थ में गँवार इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वह उजड्ड होता है । मगर इसका आशय यह है कि ग्रामीण व्यक्ति शहरी संस्कार से अपरिचित होता है सो वह गँवार हुआ । बाद में गँवार का रूढ़ार्थ ही असभ्य हो गया ।

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Thursday, October 11, 2012

सचमुच घनचक्कर था मेघदूत

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नि दा फ़ाज़ली ने बरसात के बादल को उसकी आवारा सिफ़त के मद्देनज़र सिर्फ़ दीवाना क़रार देते हुए बरी कर दिया, शायद इसलिए कि वह नहीं जानता, "किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है ।" मगर कालीदास का मेघदूत तो यक़ीनन घनचक्कर ही था । ये हम नहीं कह रहे हैं बल्कि उसके अनेक नामों में एक घनचक्र से ज़ाहिर हो रहा है । बोलचाल की भाषा में इधर-उधर भटकने वाले, निठल्ले, आवारा मनुष्य को घनचक्कर की संज्ञा दी जाती है । इसकी अर्थवत्ता में बेकार, सुस्त, आलसी, बेवकूफ़, मूर्ख जैसे आशय भी शामिल हो गए । घनचक्कर में दरअसल मुहावरेदार अर्थवत्ता है । यह तो तय है कि इसका पहला पद तत्सम घन है और दूसरा पद चक्कर, तद्भव है जो तत्सम चक्र से बना है । ज़ाहिर है मूल रूप में यह घनचक्र है । हिन्दी कोशों में घनचक्र का रिश्ता घनचक्कर से तो जोड़ा गया है मगर इसकी व्युत्पत्तिक व्याख्या नहीं मिलती कि हिन्दी वाङ्मय में घनचक्र का क्या सन्दर्भ है । जॉन प्लैट्स जैसे हिन्दी के यूरोपीय अध्येताओं नें घन शब्द के अन्तर्गत घनचक्कर को तो रखा है मगर इसके व्यावहारिक प्रयोग के उदाहरण उनके यहाँ नहीं मिलते साथ ही वे घनचक्कर का रिश्ता घनचक्र से भी स्थापित नहीं करते । उसकी जगह वे घनचक्कर का अर्थ घूमते हुए आकार (A revolving body), चकरीनुमा यन्त्र (a Catherine-wheel) अथवा इसके रूढ़ अर्थ मंदमति, बुद्धू आदि बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर में इसका अर्थ एक किस्म की आतिशबाजी भी मिलता है, मगर यह प्लैट्स के शब्दकोश से जस का तस ले लिया गया लगता है । शब्दों का सफ़र में देखते हैं घनचक्कर की घुमक्कड़ी ।
समें कोई संदेह नहीं कि घनचक्कर का मूल घनचक्र है मगर आज हिन्दी से घनचक्र गायब हो चुका है और इसकी जगह मुहावरेदार अर्थवत्ता वाला रूपान्तर घनचक्कर विराजमान है जिसका अर्थ मूर्ख, आवारा, गावदी, निठल्ला आदि है मुश्किल ये है कि यह अर्थवत्ता स्थापित कैसे हुई । हिन्दी की तुलना में घनचक्र शब्द का मराठी वाङ्मय संदर्भ मिलता है । घनचक्र का घणचक्र रूप भी मराठी में है जबकि घनचकर रूप मराठी के अतिरिक्त पंजाबी में भी है । यही नहीं, महाराष्ट्र में घनचकर उपनाम भी मिलता है । घनचक्र का संदर्भ सीधे सीधे बादलों की उमड़-घुमड़ से जुड़ता है । सोलहवीं सदी में श्रीधर स्वामी लिखित “शिवलीलामृत” में “होत युद्धाचे घनचक्र” में इसका संदर्भ आया है जिसका अर्थ है युद्ध के बादल । घनचक्कर में भटकन, यायावरी की अर्थवत्ता पहले स्थापित हुई । इसका घनचक्र अर्थात बादल से रिश्ता ही घुमक्कड़ी, भटकन और यायावरी से इसे जोड़ता है । बादल का प्रतीक सतत भटकन का आदि प्रतीक है । मेघदूत की मज़बूत मिसाल सामने है । आवारा बादल जैसे विशेषण बहुत आम हो चुके हैं । स्पष्ट है कि घनचक्र दरअसल बादल ही है न कि कोई मशीनी संरचना । चक्र का अर्थ किसी यान्त्रिक चक्र से नहीं बल्कि बादलों के वर्तुल से है । भटकन जब बिलावजह हो तो बेनतीजा रहती है । समाज में यूँ भी अकारण फिरने वाले को आवारा ही कहा जाता है । बादल इसीलिए आवारा कहलाते हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि कहाँ से गुज़रना है और कहाँ बरसना है । यानी अस्थिरता ही आवारा का मूल चरित्र है । जिसकी बुद्धि स्थिर न हो, वही घनचक्कर ।
नचक्कर शब्द कभी भी आतिशबाजी के अर्थ में हिन्दी में प्रचलित नहीं रहा । जॉन प्लैट्स के कोश में इसका एक अर्थ स्पष्ट रूप से कैथराईन व्हील दिया हुआ है । मध्यकाल में यूरोप में कैथराइन व्हील दुर्दान्त सज़ा देने वाला चकरीनुमा यन्त्र था । बाद के दौर में आतिशबाजी का जब विकास हुआ तो चकरीनुमा आतिबाजी को यूरोप में कैथराईन व्हील नाम दिया गया । भारत में भी जब यूरोपीय ढंग की आतिशबाजी आई तो कैथराइन व्हील को यहाँ चकरी के नाम से लोकप्रियता मिली । भरपूर तलाशने के बावजूद मुझे चकरीनुमा आतिशबाजी के लिए घनचक्कर पर्याय नहीं मिला । इंटरनेट पर जितने भी सन्दर्भ हैं, वे उन शब्दकोशों तक पहुँचाते हैं जिनकी सामग्री हिन्दी शब्दसागर से जस की तस ले ली गई है । ज़ाहिर है, जॉन प्लैट्स के कोश से जो सन्दर्भ शब्दसागर के सम्पादकों ने उठाया, उसका प्रसार अन्य शब्दकोशों तक हुआ मगर उसकी पुष्टि भारतीय वाङ्मय में नहीं की गई । घनचक्र में घन का आशय बादल से है न कि मशीनी घन से । घने काले श्यमवर्णी, एक दूसरे में समाते हुए , लगातार वर्तुल चक्रों में उमड़ते –घुमड़ते, और ज्यादा सघन होते, अपने भीतर के वाष्पकणों से संतृप्त  बरसने को आतुर बादल ही घनचक्र कहलाते हैं ।
नचक्र में बादलों की उमड़-घुमड़ साबित करने वाले अनेक तथ्य मराठी में मिलते हैं । इसके अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी में घन शब्द में भी बादल, मेघ का आशय प्रमुखता से है । बादलों के प्रतीक से ही घनचक्र में प्रचण्ड युद्ध, कठिन संघर्ष या भीषण टकराव का भाव भी उभरता है । कुल मिला कर घन चक्र में भीषण गर्जना के साथ मूसलाधार बारिश लाने वाले बादलों की चक्रगतियों का स्पष्ट संकेत है । संस्कृत के घन शब्द की व्युत्पत्ति हन् से मानी गई है जिसमें आघात, प्रहार, चोट जैसे भाव हैं । हन् से बने घन का अर्थ है ठोस, कठोर, मज़बूत, स्थिर, अटल, चुस्त, सुगठित जैसे भाव है । सघन, सघनता, घनत्व, घनता जैसे शब्द इसी घन से बने हैं । घन का अर्थ हथौड़ा या बेहद मज़बूत शिलाखण्ड से भी है जिसका उपयोग आक्रमण के लिए किया जाए । घनत्व के भाव को उजागर करने वाला शब्द घनघोर है । जैसे घनघोर जंगल, घनघोर अंधेरा, घनघोर बारिश, घनघोर पाप आदि । घनश्याम श्रीकृष्ण का लोकप्रिय नाम है जिसमें उनके मेघवर्णी रूप का संकेत है अर्थात ऐसा काला रंग जैसे कि बरसाती बादल होते हैं । बादलों का संकेत चातक, पपीहा जैसे पक्षी के घनताल नाम से भी मिलता है । पपीहा को घनतोल भी कहते हैं क्योंकि उसे बारिश का अंदाज़ हो जाता है । सबसे निकट का, पास का के अर्थ में घन से बने घनिष्ठ का प्रयोग भी हिन्दी में खूब होता है ।

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Monday, September 17, 2012

भरोसे की साँस यानी ‘विश्वास’

[पिछली कड़ी- भरोसे की भैंस पाड़ो ब्यावे से आगे ]trust

हि न्दी में यक़ीन ( yaqin ) शब्द का भी खूब प्रयोग होता है । हालाँकि भरोसा, विश्वास, ऐतबार जैसे इसके पर्याय भी खूब प्रचलित हैं और ये सभी शब्द बोलचाल की सहज अभिव्यक्ति का माध्यम हैं । इसके बावजूद यक़ीन शब्द का प्रयोग ज्यादा सुविधाजनक इसलिए है क्योंकि इसमें निहित निश्चयात्मकता की अभिव्यक्ति ज्यादा सुविधाजनक ढंग से होती है । यक़ीन से यक़ीनन जैसा कर्मकारक बन जाने से निश्चित ही, निश्चयपूर्वक या निश्चित तौर पर जैसी अभिव्यक्तियाँ आसान हो जाती हैं । इसी तरह यक़ीन से यक़ीनी रूप भी बनता है । यक़ीन मानिए, यक़ीन जानिए, यक़ीन कीजिए जैसे वाक्यों से भाषा में मुहावरे का असर आ जाता है । फ़ारसी का बे उपसर्ग लगने से बेयक़ीन शब्द भी बनता है । रिश्ते-नाते और समूची दुनियादारी अगर कायमहै तो सिर्फ़ यक़ीन पर ।
क़ीन शब्द सेमिटिक मूल का है और यह अरबी भाषा से फ़ारसी में गया और फिर हिन्दी में आया । अलसईद एम बदावी / मोहम्मद अब्देल हलीम की कुरानिक यूसेज़ डिक्शनरी के मुताबिक यक़ीन के मूल में अरेबिक धातु या-क़ाफ़-नून (y-q-n) है जिसमें निश्चित, पक्का, निस्संदेह, सत्यापन, दृढ़ निश्चय, खास जैसे भाव हैं । इससे बने यक़ीन में निश्चित धारणा, आस्था या विश्वास ( जैसे, मेरा यक़ीन है कि मज़हब से इन्सानियत बड़ी चीज़ है ), आश्वासन( जैसे, उन्होंने यक़ीन दिलाया कि जल्दी ही काम हो जाएगा ), भरोसा ( आपकी बात पर यक़ीन नहीं होता ) आदि के अलावा मत, विचार, मान्यता, सच्चाई जैसे अनेक भावों का इसमें समावेश है ।
हिन्दी की तत्सम शब्दावली का विश्वास शब्द संज्ञा भी है । विश्वास जीवन-क्रिया से जुड़ा शब्द है । इसके मूल में श्वस् धातु है । श्वस् यानी हाँफना, फूँकना, धकेलना, धौंकना, फुफकारना, उड़ाना आदि । इसके अलावा इसमें साँस ( खींचना-छोड़ना ) ब्रीद, कराह, आह, आराम जैसे भाव भी हैं । इससे ही बना है श्वास जिसका अर्थ है छाती में हवा खींचना-छोड़ना, ब्रीदिंग । हिन्दी का साँस शब्द श्वास से ही बना है । श्वसन का अर्थ भी साँस लेना होता है । गौर करें कि मूलतः श्वास लेना जीवन के लिए ज़रूरी क्रिया है । श्वास जीवन का सम्बल है । श्वास के जरिये रक्त में वायुसंचार होता है और यही रक्त हमारे शरीर को पोषण देता है । विश्वास जिसमें यकीन, ऐतबार का भाव है और आश्वासन जिसका अर्थ तसल्ली अथवा सांत्वना होता है, इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं ।
श्वसन में साँस लेना और छोड़ना दोनो शामिल है । दोनों में एक बारीक फ़र्क है । श्वास लेना जहाँ चुस्त होने का लक्षण है वहीं श्वास छोड़ना निढाल होने, क्षीण होने का लक्षण है । इन दोनो ही क्रियाओं में उपसर्गों के ज़रिये फ़र्क़ किया गया है । साँस लेना जहाँ आश्वास है वही साँस छोड़ना निश्वास है । हिन्दी का उपसर्ग में सकारात्मक अर्थवत्ता है । इसमें सब ओर, सब कुछ वाला भाव भी है । श्वास से पहले लगने से आश्वास बनता है जिसका अर्थ होता है खुली साँस लेना, मुक्त साँस लेना, तसल्ली के साथ जीना । आश्वास से ही आश्वासन बना है जिसमें निहित तसल्ली, सांत्वना, दिलासा, प्रोत्साहन जैसे भाव स्पष्ट हैं । वामन शिवराम आप्टे के कोश में आश्वास् का अर्थ साँस देना, जीवन देना, जीवित रखना जैसे अर्थ भी दिए हैं । आपात् स्थिति में मुँह से मुँह मिला कर कृत्रिम साँस देकर किसी को जीवित रखने का प्रयत्न भी इसी आश्वास से अभिव्यक्त होता है ।
य-अशान्ति में निश्वास क्रिया प्रभावी होने लगती है । लम्बी साँस छोड़ना दरअसल दुख, शोक प्रकट करने का लक्षण भी है और आन्तरिक वेदना की अभिव्यक्ति भी । गहरी साँस छोड़ी जाएगी तो लम्बी साँस ली भी जाएगी । आश्वास-निश्वास के इस क्रम को देशी हिन्दी में उसाँस कहते हैं । उसाँस का एक रूप उसास भी है । यह उच्छ्वास से बना है जो मूल संस्कृत का शब्द है और हिन्दी की तत्सम शब्दावली में आता है । उच्छ्वास बना है उच्छ्वस uchvas से । उद् उपसर्ग में छ्वस chvas लगने से बनता है उच्छ्वस । दिलचस्प यह कि संस्कृत के श, क्ष, श जैसे रूप प्राकृत अपभ्रंश में में बदलते हैं जैसे क्षण से छिन । क्षमा का छिमा । यहाँ छ्वस दरअसल श्वस का ही रूप है । वैदिक संस्कृत में अनेक शब्दों के बहुरूप मिलते हैं जो प्राकृत के समरूप लगते हैं । बहरहाल, उद् और छ्वस का अर्थ गहरी या लम्बी साँस होता है । उच्छ्वस > उच्छ्वास > उस्सास और फिर इससे बना उसाँस शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है और दुख-शोक की सामान्य अभिव्यक्ति का ज़रिया है ।
श्वस में वि उपसर्ग लगने से बनता है विश्वस् । गौर करें संस्कृत के वि उपसर्ग की कई अर्थ छटाएँ हैं जिनमें से एक है महत्व प्रदान करना । स्पष्ट करना । अन्तर करना आदि । विश्वस का अर्थ हुआ मुक्त साँस लेना, चैन से साँस लेना । ध्यान रहे कि श्वसन प्रणाली के ज़रिए ही सबसे पहले यह पता चलता है कि रोगी की दशा सही है या नहीं । श्वास प्रणाली पर ही नाड़ी तन्त्र काम करता है । पुराने ज़माने से नब्ज़ देख कर मरीज़ के हाल का अंदाज़ा लगाया जाता रहा है । श्वसन प्रणाली ही वह आधार है जिसके ज़रिये ही शरीर के अवयव सही ढंग से काम करते हैं । इस आधारतन्त्र का मज़बूत होना, कुशल होना, निर्दोष होना ही उसे विश्वसनीय बनाता है । सो, श्वस में वि उपसर्ग लगाकर बनाए गए विश्वस् से जो अर्थवत्ता हासिल हुई वह भरोसा, निष्ठा, ऐतबार जैसे आशयों को प्रकट करती है । विश्वस से ही विश्वास बना है ।

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Friday, August 24, 2012

सपड़-सपड़ सूप

soup

चु स्की के लिए हिन्दी में सिप शब्द बेहद आसानी से समझा जाता है । सिप करने, चुसकने की लज़्ज़त जब ज्यादा ही बढ़ जाती है तब बात सपड़-सपड़ तक पहुँच जाती है जिसे अच्छा नहीं समझा जाता है । कहने की ज़रूरत नहीं की सिप करना, चुसकना और सपड़-सपड़ करने का रिश्ता किसी सूप जैसे पतले, तरल, शोरबेदार पदार्थ का स्वाद लेने की प्रक्रिया से जुड़ा है । सिप से सपड़ का सफर शिष्टता से अशिष्टता की ओर जाता है । सिप और सपड़-सपड़ तरल पदार्थ को सीधे बरास्ता होठ, जीभ के ज़रिये उदरस्थ करने की क्रिया है। सिप के ज़रिये ज़ायक़ा सिर्फ़ पीने वाले को महसूस होता है वहीं सपड़-सपड़ का चटखारा औरों को भी बेचैन कर देता है । गौरतलब है कि सूप शब्द आमतौर पर अंग्रेजी का समझा जाता है । हकीक़त यह है कि पाश्चात्य आहार-शिष्टाचार का प्रमुख हिस्सा सूप मूलतः भारतीय है । सूप, सिप, सपर, सपड़, सापड़ जैसे तमाम शब्द आपस में रिश्तेदार हैं । यही नहीं, इस शब्द शृंखला के शब्द विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में भी हैं जिनमें चुसकने, सुड़कने, सिप करने का भाव है ।
चुस्की के लिए सिप शब्द याद आता है । सूप शब्द भारोपीय मूल का है और इसका मूल भी संस्कृत का सूप शब्द ही माना जाता है । जिसे सिप किया जाए, वह सूप। इसी कड़ी में सपर भी है । द्रविड़ में सामान्य भोजन सापड़ है और इंग्लिश में सिर्फ़ रात का भोजन सपर है। ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य गौरतलब है । यह सामान्य बात है विभिन्न भाषिक केन्द्रों पर अनुकरणात्मक ध्वनियों से बने शब्दों का विकास एक सा रहा है। अंग्रेजी में रात के भोजन को सपर इसलिए कहा गया क्योंकि इसमें हल्का-फुल्का, तरल भोजन होता है। कई लोग रात में सिर्फ़ सूप ही लेते हैं । सपर का मूल सूप है । आप्टे और मो.विलियम्स के कोश में सूप का अर्थ रस, शोरबा, झोल, तरी जैसा पदार्थ ही कहा गया है । अंग्रेजी में यह तरल भोजन है । आप्टे कोश में सू+पा के ज़रिए इसे तरल पेय कहा गया है । यानी पीने की क्रिया से जोड़ा गया है । पकोर्नी इसकी मूल भारोपीय धातु सू seue बताते हैं जिसमें पीने की बात है । संस्कृत का सोम भी सू से ही व्युत्पन्न है । इसका अवेस्ता रूप होम है जिसमें पीने का आशय है । आदि-जर्मन रूप सप्प है । ज़ाहिर है प्राकृत, अपभ्रंश के ज़रिए हिन्दी का सपड़ रूप अलग से विकसित हुआ होगा और द्रविड़ सापड़ रूप अलग ।
वाशि आप्टे और मोनियर विलियम्स के कोश में सूप शब्द का अर्थ सॉस, तरी, शोरबा या झोलदार पदार्थ बताया गया है । हिन्दी शब्दसागर में इसे मूल रूप से संस्कृत शब्द बताते हुए इसके कई अर्थ दिए हैं जैसे मूँग, मसूर, अरहर आदि की पकी हुई दाल । दाल का जूस । रसा । रसे की तरकारी जैसे व्यंजन । संस्कृत में सूपक, सूपकर्ता या सूपकार जैसे शब्द हैं जिनका आशय भोजन बनाने वाला, रसोइया है । एटिमऑनलाईन के मुताबिक चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजी में सिप शब्द दाखिल हुआ । संभवतः इसकी आमद चालू जर्मन के सिप्पेन से हुई जिसका अर्थ था सिप करना । पुरानी अंग्रेजी में इसका रूप सुपेन हुआ जिसमें एकबारगी मुँह में कुछ डालने का भाव था । रॉल्फ़ लिली टर्नर के मुताबिक महाभारत में आहार के तरल रूप में ही सूप शब्द का उल्लेख हुआ है । हिन्दी शब्दसम्पदा में एक अन्य सूप भी है । बाँस से बनाए गए अनाज फटकने के चौड़े पात्र के रूप में इसकी अर्थवत्ता से सभी परिचित हैं । आम भारतीय रसोई के ज़रूरी उपकरणों में इसका भी शुमार है । अनाज फटकने का मक़सद मूलतः दानों और छिलकों को अलग करना है । भक्तियुगीन कवियों ने सूप शब्द का दार्शनिक अर्थों में प्रयोग किया है । कबीर की “सार सार सब गहि लहै, थोथा देहि उड़ाय ” जैसी इस कालजयी सूक्ति में सूप की ओर ही इशारा है ।
चूसना, चुसकना बहुत आम शब्द हैं और दिनभर में हमें कई बार इसके भाषायी और व्यावहारिक क्रियारूप देखने को मिलते हैं। यही बात चखना शब्द के बारे में भी सही बैठती है। ये लफ्ज भारतीय ईरानी मूल के शब्द समूह का हिस्सा हैं और संस्कृत के अलावा फारसी, हिन्दी और उर्दू के साथ ज्यादातर भारतीय भाषाओं में बोले-समझे जाते हैं। चूसना, चुसकना, चुसकी शब्द बने हैं संस्कृत की चुष् या चूष् धातु से जिसका क्रम कुछ यूँ रहा- चूष् > चूषणीयं > चूषणअं > चूसना। इस धातु का अर्थ है पीना, चूसना । चुष् से ही बना है चोष्यम् जिसके मायने भी चूसना ही होते हैं । मूलत: चूसने की क्रिया में रस प्रमुख है । अर्थात जिस चीज को चूसा जाता वह रसदार होती है । जाहिर है होठ और जीभ के सहयोग से उस वस्तु का सार ग्रहण करना ही चूसना हुआ । चुस्की, चुसकी, चस्का या चसका जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं । गौरतलब है कि किसी चीज का मजा लेने, उसे बार-बार करने की तीव्र इच्छा अथवा लत को भी चस्का ही कहते हैं । एकबारगी होठों के जरिये मुँह में ली जा चुकी मात्रा चुसकी / चुस्की कहलाती है । बर्फ के गोले और चूसने वाली गोली के लिए आमतौर पर चुस्की शब्द प्रचलित है। बच्चों के मुंह में डाली जाने वाली शहद से भरी रबर की पोटली भी चुसनी कहलाती है। इसके अलावा चुसवाना, चुसाई, चुसाना जैसे शब्द रूप भी इससे बने हैं ।
सी कतार में खड़ा है चषक जिसका मतलब होता है प्याला, कप, मदिरा-पात्र, सुरा-पात्र अथवा गिलास । एक खास किस्म की शराब के तौर पर भी चषक का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा मधु अथवा शहद के लिए भी चषक शब्द है। इसी शब्द समूह का हिस्सा है चष् जिसका मतलब होता है खाना । हिन्दी में प्रचलित चखना इससे ही बना है जिसका अभिप्राय है स्वाद लेना । अब इस अर्थ और क्रिया पर गौर करें तो इस लफ्ज के कुछ अन्य मायने भी साफ होते हैं और कुछ मुहावरे नजर आने लगते हैं जैसे कंजूस मक्खीचूस अथवा खून चूसना वगैरह । किसी का शोषण करना, उसे खोखला कर देना, जमा-पूंजी निचोड़ लेना जैसी बातें भी चूसने के अर्थ में आ जाती हैं । यही चुष् फारसी में भी अलग अलग रूपों में मौजूद है मसलन चोशीद: या चोशीदा अर्थात चूसा हुआ । इससे ही बना है चोशीदगी यानी चूसने का भाव और चोशीदनी यानी चूसने के योग्य ।

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Wednesday, June 27, 2012

फरारी, फुर्र और फर्राटा

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वि भिन्न समाज-संस्कृतियों में शब्द निर्माण की प्रक्रिया न सिर्फ़ एक समान होती है बल्कि उनका विकास क्रम भी एक जैसा ही होता है । हिन्दी में भाग छूटना, निकल भागना, पलायन करना जैसे अर्थों में ‘फ़रार’ शब्द का सर्वाधिक प्रयोग भी किया जाता है । ‘फ़रार’ अपने आप में क्रिया भी है और संज्ञा भी । वैसे हिन्दी में इसका क्रियारूप ‘फ़रारी’ ज्यादा प्रचलित है । ‘फ़रार’ वह व्यक्ति है जो प्रतिबन्ध के बावजूद भाग खड़ा हुआ है । अचानक गायब हो जाने, भाग खड़ा होने के लिए हिन्दी में अन्य अभिव्यक्तियाँ भी हैं जैसे “रफ़ूचक्कर हो जाना”, “नौ-दो-ग्यारह होना” या “फ़ुर्र हो जाना” आदि । इनमें “फ़ुर्र हो जाना” बेहद सहज मुहावरा है जिसकी अभिव्यक्ति दिन भर में न जाने कितनी दफ़ा इन्ही अर्थों में होती है । कहने की ज़रूरत नहीं है कि फुर्र हो जाना इस अभिव्यक्ति का रिश्ता उड़ जाने से है । ध्यान रहे उड़ जाने का रिश्ता गायब हो जाने से है । यूँ भी चलने-दौड़ने की क्रिया की बनिस्बत उड़ना में तीव्रता का भाव है । इसलिए तेज गति वाली वस्तु निगाहों से बहुत जल्दी ओझल हो जाती है । इसे ही गायब होना कहते हैं । इत्र की शीशी से रिस कर सुगंध हवा में तैरती है । शीशी से जब सुगंध खत्म हो जाती है तो उसे इत्र का उड़ना कहा जाता है ।
फुर्र या ‘फ़रार’ जैसे शब्दों का रिश्ता मूलतः उड़ने से है । ‘फ़रार’ या ‘फ़रारी’ जैसे शब्द हिन्दी में फ़ारसी से होते हुए आए हैं । इनका मूल ठिकाना अरबी ज़बान है । ‘फ़ुर्र’ शब्द हिन्दी का देशज है या अरबी, फ़ारसी की अभिव्यक्ति है यह कहना मुश्किल है मगर इतना तय है कि फुर्र और फ़रार शब्द सेमिटिक और इंडो-ईरानी परिवारों के बीच रिश्तेदारी के पुख्ता सबूत पेश करते हैं । ‘फुर्र’ से जुड़ी शब्दावली पर गौर करें-फड़फड़ाना, फड़कना, फरफर, फरफराना, फहर-फहर, फहराना आदि । ये सभी शब्द डैनों के ज़रिये उड़ने की आवाज़ से पैदा होने का बोध कराते हैं । हिन्दी में ‘डैना’, ‘पंख’ और ‘पर’ दोनों शब्द प्रचलित हैं । ‘पंख’ हिन्दी का अपना है और ‘पर’ फ़ारसी से आया है । संस्कृत के ‘पक्ष’ से ‘पंख’ के जन्मसूत्र जुड़े हैं जिसका अर्थ है किसी वस्तु, स्थान या विचार के दो प्रमुख भाग या हिस्से । पंख का विकास पक्ष > पक्ख > पंख के क्रम में हुआ । पंख को पंजाबी में 'खंब' भी कहते हैं । गौर करें कि पंख का वर्ण विपर्यय ही खंब में हो रहा है ।
वैदिक शब्दावली के ‘पर्ण’ से फ़ारसी के पर की रिश्तेदारी है । संस्कृत के ‘पर्ण’ की धातु ‘पृ’ है जिसमें सरपास करना, आगे बढ़ जाना, दूर चले जाना या मात कर देना जैसे भाव हैं । संस्कृत में ‘प’ वर्ण अपने में उच्चता का भाव समेटे है। उड़ान का ऊँचाई से ही रिश्ता है । परम, परमात्मा जैसे शब्दों से यह जाहिर हो रहा है । पंख की उच्चता का संकेत इस बात से भी मिलता है कि सभी प्राचीन संस्कृतियों में पंखों से ही मुकुट बनाए जाते थे ।  ‘पर’ में भी यही उच्चता लक्षित हो रही है। संस्कृत की पत् धातु का अभिप्राय है उड़ना, फहराना, उड़ान आदि । पत का रिश्ता अंग्रेजी के 'फैदर' ( feather) से है जिसका अर्थ पंख होता है । द्रविड़ परिवार की कोत भाषा में पर्न या पर्नद का मतलब भी उड़ना ही है । यहाँ संस्कृत के ‘पर्ण ‘से सादृश्यता पर विचार करना चाहिए । द्रविड़ और फारसी में एक जैसा रूपांतर यह भी स्थापित करता है कि किसी ज़माने में द्रविड़ भाषाओं का प्रसार सुदूर उत्तर पश्चिम तक था । ‘पर’ से ही बना है फ़ारसी का ‘पर्चः’  जिसका अर्थ काग़ज़ का टुकड़ा या पुर्जा । इस पर्चः का उच्चारण हिन्दी में परचा या पर्चा होता है जिसका रिश्ता पर्चम / परचम से भी जुड़ रहा है जिसका अर्थ है झंडा, झंडे का कपड़ा। ‘पर्चम’ किसी भी राष्ट्र, समाज या संगठन का सर्वोच्च प्रतीक होता है । पुर्जा या काग़ज़ का टुकड़ा पर्चा कहलाता है जो इसी शब्दावली से जुड़ा है ।
रबी के ‘फ़रार’ का विकास फ़र्रा से हुआ है जिसका अर्थ है उड़ना या उड़ान । अल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक इसकी धातु फ़े-रे-रे अर्थात (फ़-र-र) है । भाषाविज्ञानियों के मुताबिक इसका विकास सेमिटिक धातु पे-रे-रे (प-र-र) से हुआ है । प्राचीन सेमिटिक भाषा अक्कद में एक शब्द ह पररू (पर्रू) जिसमें छिटकने, दूर जाने, विभक्त होने का भाव है । इन तथ्यों के मद्देनज़र संस्कृत के ‘पृ’ , फ़ारसी के ‘पर’ और अरबी-सेमिटिक ‘फ़-र-र’ और ‘प-र-र’ समतुल्य जान पड़ते हैं । संस्कृत की ‘पृ’ धातु और सेमिटिक ‘प-र-र’ धातुओं में समानता है न सिर्फ़ ध्वनिसाम्य बल्कि अर्थसाम्य भी है । दोनों का अर्थ छिटकना, दूर जाना है । दूर जाने, छिटकने के लिए हिन्दी में “परे हटो”, “परे जाओ” कहा जाता है जिसमें उपरि वाला ‘परि’ ही नज़र आ रहा है । इसका रिश्ता परिधी वाले ‘परि’ से भी हो सकता है ।  दूसरी तरफ़ ‘प’ वर्ण में निहित उच्चता पर ध्यान दें । ‘पंख’ ऊँचाई पर ले जाते हैं । पंख के अर्थ में ‘डैना’ शब्द पर गौर करें । यह संस्कृत के उड्डीन से आर रहा है जिसमें उड़ने का भाव है । उड़ान, उड़ना, उड़ाका, उड़न, उड्डयन जैसे शब्दों के मूल में ‘उड्डीन’ ही है जिसकी धातु ‘उद्’ है और इसका प्रयोग उपसर्ग की तरह भी होता है जिसकी उपस्थिति ‘उदीयमान’, ‘उच्चाटन’, ‘उत्पात’ आदि अनेक शब्दों में नज़र आती है । ‘उद्’ में भी छिटकने, विभक्त होने, दूर जाने, ऊपर उठने का भाव है । कहने का तात्पर्य है है  कि उड़ने से जुड़े जितने भी शब्द हैं, उनमें मूल भाव छिटकने, पृथक होने का है । यह पार्थक्य धरातल से दूर जाने में प्रकट होता है ।
ड़फड़ाहट हर तरह से छिटकने-छिटकाने की क्रिया है । पंखों के गतिशील होने, धरातल से दूर हवा में उठने के लिए यह क्रिया होती है । पंख फड़फड़ाकर पक्षी खुद को सुखाते हैं अर्थात पानी को दूर छिटकाते हैं, खुद को साफ करते हैं । इस छिटकने में गति है । मूल अवस्था या बिन्दू से लगातार दूर जाने का भाव । एन्ड्रास रज्की के कोश में अरबी के ‘फ़र्राटा’ farrata शब्द का उल्लेख है (हिन्दी के फर्राटा से इसके रिश्ते पर सोचें) जिसका अर्थ है सीमा पार कर जाना, आगे बढ़ जाना । हिन्दी के फर्राटा में सरपट, बहुत शीघ्रता  जैसे भाव हैं । इसी तरह उड़ने की क्रिया और ‘फरफर’ ध्वनि के आधार पर अरबी में एक चिड़िया का नाम भी फ़ुरफ़ुर है । अल सईद एम बदावी के कोश में फ-र-र का अर्थ पलायन, स्थान छोड़ना, जल्दबाजी में होना आदि है । पलायन का यही भाव फ़रार ( फ़िरार ) में आता है जिसका मूल अरबी अर्थ है दौड़ जाना, भाग जाना, बच निकलना, छोड़ जाना, गच्चा देना या उड़ जाना आदि । हिब्रू में भी छिटकने, दूर जाने के अर्थ में प-र-र धातु ही है ।
इंडो-ईरानी शब्द सम्पदा के ‘पर्ण’ से फ़ारसी में ‘पर’ का विकास पंख के अर्थ में हुआ । यूँ संस्कृत का ‘पर्ण’ पत्ता है जिसमें छा जाने, रक्षा करने का भाव है । इसकी मूल धातु ‘पृ’ में दूर जाने, छिटकने, ऊँचे उठने, पार जाने की अर्थवत्ता है । पत्तों के ऊँचाई पर स्थित होने, हवा में फड़फड़ाने, उड़ने जैसे लक्षणों से फ़ारसी के ‘पर’ में पंख की अर्थवत्ता स्थापित होती है । सेमिटिक बाराखड़ी में ‘प’ वर्ण है जबकि अरबी में ‘प’ वर्ण नहीं है । अक्कद भाषा अरबी से भी प्राचीन है और प्राचीन सुमेरियाई सभ्यता में इसका चलन था । भाषाविज्ञानियो का स्पष्ट मत है कि प्राचीन सुमेर संस्कृति का प्राचीन भारत से गहरा सरोकार था । उड़ने, छिटकने, पलायन के अर्थ में अरबी के फरार ( फ़र्रा ) का रिश्ता एन्ड्रास रज्की सेमिटिक ‘प-र-र’ से जोड़ते हुए इसका विकास अक्कद भाषा के ‘पररू’ से बताते हैं । अरबी में ‘पर्रू’ का रूप फर्रा हुआ । संस्कृत के पृ > पर्ण का विकास फ़ारसी में ‘पर’ हुआ । समझा जा सकता है कि आर्य परिवार की ध्वनियों का प्रभाव उस दौर में आज के इराक तक रहा होगा ।  शब्दों का अध्ययन विश्व भाषाओं की अनेकता से ज्यादा उनकी एकता को पहचानने का सफ़र है ।

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Saturday, June 9, 2012

‘वक्ष’ और ‘बॉक्स’

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पि छले दिनों बक्सा, बकस, बॉक्स जैसे शब्दों के बारे में एक पोस्ट लिखी थी । 'शब्दों का सफर' के पहले पड़ाव की समीक्षा में हिन्दी के ख्यात विद्वान डॉ भगवान सिंह ने ‘बॉक्स’ की व्युत्पत्ति के बारे में महत्वपूर्ण बात कही है । उनका कहना है कि ‘संस्कृत का ‘वक्ष’ शब्द जिसे हम सीना, छाती के रूप में पहचानते हैं, उसकी अंग्रेजी के ‘बॉक्स’ से रिश्तेदारी है । वे कहते हैं- “वृक्ष का अर्थ है फैलना, ढकना, छाया देना...इसी से इसका एक अर्थ पेटी बना । ‘वृक्ष’ से ही ‘वक्ष’ बना । वक्ष ही अंग्रेजी का बॉक्स है ।“ बॉक्स बना है लैटिन के बक्सिस buxis या बक्सस buxus से जिनमें लकड़ी के संदूक या एक किस्म की झाड़ी का भाव है । विभिन्न संदर्भों के मुताबिक यह ग्रीक भाषा के पाइक्सोस pyxos से बना है । पाइक्सोस का एक और ग्रीक रूप पाइक्नोस भी है । वहीं चैम्बर्स डिक्शनरी में पाइक्नोस का अर्थ भरा हुआ, भीड़, समूह,  संकुल आदि बताया गया है । अंग्रेज़ी में एक बक्सम buxom भी है जो भरे हुए वक्षो का अर्थ देता है ।
मोनियर विलियम्स के कोश में ‘वृक्ष’ के पारम्परिक अर्थ अर्थात ऐसा पेड़ जिसमें फल, फूल, पत्ती आदि हों, के अलावा ‘वृक्ष’ के कुछ अन्य अर्थ भी है जैसे पेड़ का तना, शवपेटिका या एक ढाँचा (पेटी ?) आदि । मुझे ‘वृक्ष’ से ‘वक्ष’ की व्युत्पत्ति के प्रमाण न तो मोनियर विलियम्स के कोश में मिले और न ही वाशि आप्टे को कोश में । अलबत्ता ‘वृक्ष’ के तने वाले भाव का अर्थविकास वही है जो ‘पाइक्सोस’ या ‘पाइक्नोस’ से ‘बॉक्स’ या पेटिका का भाव ग्रहण करने में हुआ है । यह एक सहज प्रक्रिया है जो अलग अलग स्थानों के लोगों द्वारा प्राकृतिक चीज़ों के प्रति एक नज़रिये को दर्शाती है । ‘वक्ष’ में भी फैलने, विकसित होने, फूलने का भाव है । इसके अलावा हृदय-स्थल के तौर पर इसे एक कोटर भी समझा जाता है । इसी अर्थ में अंग्रेजी का ‘चेस्ट’ शब्द है जिसका अर्थ सीना भी है और पेटी भी । ‘वक्ष’ और ‘बॉक्स’ की साम्यता हो सकती है , पर ‘बॉक्स’ का विकास ‘पाइक्सोस’ या ‘पाइक्नोस’ से हुआ है । सीधे संस्कृत के ‘वक्ष’ से तो ‘बॉक्स’ बना नहीं होगा । इसी मुकाम पर पाश्चात्य भाषाविज्ञानियों की यह कल्पना ज्यादा तार्किक लगती है कि किसी काल में प्रोटो भारोपीय भाषा रही होगी जिसके विकास की दो दिशाएँ थीं-पूर्व और पश्चिम । ‘वक्ष’ या ‘बॉक्स’ का प्रोटो इंडो-यूरोपीयन मूल निश्चित ही काल्पनिक होगा, पर यह माना जा सकता है कि इन दोनों ही शब्दों का विकास एक ही प्राच्यभारोपीय भाषा से हुआ होगा ।
‘वक्ष’ के ‘वक्षस्’ रूप को देखें तो समझा जा सकता है कि ‘वक्ष’ का आदि रूप ‘वक्षस्’ रहा होगा । ‘वक्षस्’ और पाइक्सोस/ पाइक्सस में काफी समानता है । ये विकासक्रम की दो दिशाएँ हैं । ‘वक्षस’ से ‘वक्ष’ और ‘पाइक्सस’ से ‘बॉक्स’ । न कि सीधे ‘वक्ष’ से ‘बॉक्स’ की रचना । ‘पाइक्नोस’ शब्द में मूलतः सघनता पिण्ड का भाव था इसका पुख़्ता संकेत वाल्टर.पी. राइट के “इन्साक्लोपीडिया ऑफ़ गार्डनिंग” से मिलता है । वाल्टर के मुताबिक ‘पाइक्नोस’ का अर्थ है गहन, घनीभूत, भरपूर जिसे आमतौर पर लकड़ी के तने की चौड़ाई और उसकी मोटाई के संदर्भ में लिया जाता है । कुल मिलाकर संदूक निर्माण के लिए ‘वृक्ष’ को मुख्य स्रोत मानते हुए उसकी गुणवत्ता के ये आधार महत्वपूर्ण हैं और किसी बॉक्स ट्री में लकड़ी का भरपूर उपलब्धता सिद्ध होती है । यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रीक के ‘पाइक्नोस’ से ‘पाइक्सोस’ बना । इससे ही लैटिन का ‘बक्सस’ बना जिससे अंग्रेजी का ‘बॉक्स’ शब्द बना । मैं डॉ. भगवान सिंह की बात को अत्यंत महत्व देते हुए इस रूप में ‘बॉक्स’ का रिश्ता वक्ष से तार्किक मानता हूँ । साथ ही यह भी कहूँगा कि अपने तमाम शोध के दौरान मुझे कहीं भी ‘वक्ष’ और ‘बॉक्स’ की रिश्तेदारी का संदर्भ नहीं मिला ।

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Sunday, May 27, 2012

तकिये की ताक़त

pillowsसम्बन्धित कड़िया-1.बलाए-ताक नहीं, बालाए-ताक सही 2.ठठेरा और उड़नतश्तरी
मारे लिए भाषा संवाद का जरिया होती है, अर्थ जानने का नहीं । संवादों के जरिए समूचे मनोगत को अभिव्यक्ति मिलती है न कि शब्दार्थ को । शब्द विशिष्ट अर्थ को प्रकट करते हैं । वाक्यांश में उनके संदर्भ बहुधा भिन्न होते हैं । अक्सर ऐसा भी होता है कि अपनी मूल भाषा में व्यापक अर्थवत्ता वाले शब्द किसी दूसरी भाषा में पहुँचकर किसी एक ही अर्थ को ध्वनित करने लगते हैं अर्थात रूढ़ हो जाते हैं । इसीलिए हम किन्हीं शब्दों का सही-सही अर्थ न जानने के बावजूद उन्हें वाक्यों में प्रयोग करते हैं । ऐसा ही एक शब्द है तकिया । सिरहाने के लिए उपयोग में आने वाला छोटे गद्दी के लिए बेहद आम शब्द है तकिया । संस्कृत में इसके लिए उपधान या उच्छीर्षक शब्द हैं । उद् यानी उठान, ऊपर आदि । शीर्ष(क) यानी सिर, उच्च । मोनियर विलियम्स उच्छीर्षक प्रविष्टि में इसका अर्थ " that which raises the head " , a pillow अर्थात “वह जो सिर को ऊपर उठाए यानी तकिया” बताते हैं । गौरतलब है कि मराठी में तकिया के लिए उशी शब्द है और इसका जन्म उच्छीर्षक से हुआ है । वैसे बोलचाल में तकिया के लिए सिरहाना शब्द भी चलता है ।

किया की आमद हिन्दी में फ़ारसी से हुई है और इसका सही रूप है तक्या takya जो हिन्दी में दीर्घीकरण के चलते तकिया हो गया । तकिया शब्द हिन्दी में फ़ारसी से आया, इसके अलावा शब्दकोशों इसके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं देते हैं । तकिया के उपयोग पर गौर करें तो पाएँगे कि यह मूलतः सिर को सहारा देता है । सोते समय या टिक कर बैठते समय सिर को पीछे जाने से रोकने का आधार बनता है तकिया । यूँ भी कह सकते हैं कि तकिया सिर को ऊपर उठाता है । इस तरह स्पष्ट है कि तकिया शब्द में मुलायमियत, गद्देदार या नरमाई का लक्षण महत्वपूर्ण नहीं है । सभ्यता के शुरुआती दौर में मानव पत्थर का तकिया इस्तेमाल करता था, ऐसे प्रमाण पुरातात्विक स्थलों पर मिले हैं । चूँकि विश्राम अवस्था में गद्देदार वस्तुएँ ही काया को सुख पहुँचाती हैं, इसलिए कालांतर में चमड़े की थैलियों में घास-फूस भर कर तकिए बनाए जाते थे । उसके बाद कपड़े की खोल में रुई रुई वाले तकिये आम हो गए । तकिया की रिश्तेदारी हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी भाषाओं में मौजूद कई अन्य शब्दों से भी जुडती है जैसे ताक़ यानी आला, आलम्ब, म्याल अथवा मेहराब । शक्ति के अर्थ में ताक़त भी इसी कड़ी में है । मुतक्का यानी आलम्ब या सहारा भी इसी क़तार में खड़ा नज़र आता है ।

मेरे विचार में तकिया के मूल में इंडो-ईरानी भाषा परिवार की तक्ष् क्रिया है । सबसे पहले फ़ारसी तक्या या हिन्दी तकिया का अर्थ-विस्तार देखते हैं । हिन्दी शब्दसागर में पिलो, कुशन के अर्थ से इतर तकिया की कुछ अन्य अर्थछटाएँ भी दी गई हैं जैसे पत्थर की वह पटिया जो छज्जे को रोक या सहारे के लिए लगाई जाती है । इसे हम मेहराब के उदाहरण से समझ सकते हैं । तकिया यानी वह स्थान जहाँ विश्राम या आराम किया जाए । ध्यान रहे, किसी भी इमारत की छत को धनुषाकार मेहराब ही थामती है । पत्थरों में उत्कीर्ण मेहराब की रचना के लिए अरबी में ताक़ शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि ताक़ शब्द का रिश्ता वैदिक शब्दावली के तक्ष से है जिसमें उत्कीर्ण करने, काटने, तराश कर आकार देने जैसे भाव हैं । सम्भव है तक्ष से ही फ़ारसी का ताक बना हो और मेहराब के अर्थ में अरबी ने भी इसे आज़माया हो । हिन्दी में आमतौर पर ताक tak शब्द का प्रयोग होता है जो अरबी का शब्द है
ll …तकिया यानी आश्रय, आरामगाह, सुकूँ की जगह, ठहराव…तकिया वह जो सहारा दे, अवलम्ब बने…किसी भी जगह को सिर ढकने लायक बनाने वाली रचना यही मेहराब होती है जिसे ताक़ कहते हैं…. ताक़ की ताक़त पर ही छत टिकती है…ताक़ से ही तकिया यानी आश्रय बनता हैll
मगर इसका मूल फ़ारसी है । अरबी के ताक़ taq का अर्थ है मेहराब । वो घुमावदार कमानीनुमा आधार जिस पर किसी भी भवन की छत टिकी रहती है । वह अर्धचन्द्राकार रचना जो छत को ताक़त प्रदान करती है, उसे थामे रखती है । ताक़ में यही भाव है । हिन्दी में आने के बाद ताक़ शब्द में आला अर्थात दीवार में सामान रखने के लिए बनाया जाने वाला खाली स्थान, आला आदि और उसे भी कमानीदार, मेहराबदार आकार में बनाया जाता था । खास भात यही कि किसी भी जगह को सिर ढकने लायक बनाने वाली रचना यही मेहराब होती है जिसे ताक़ कहते हैं । ताक़ की ताक़त पर ही छत टिकती है । ताक़ से ही तकिया यानी आश्रय बनता है ।

ध्यान रहे, अरबी में एक शब्द है मुतक्का या मुत्तका जिसका अर्थ है सहारा, टेक लगाना, अवलम्ब, रोक, खम्भा, पिलर आदि । मुतक्का के मूल में अरबी का तक़ा शब्द है जिसमें सामर्थ्य, शक्ति, ऊर्जा, क्षमता का भाव है । अरबी का ताक़त शब्द इसी मूल का है और ताक़ से उसकी रिश्तेदारी है । ध्यान रहे, ताक़ चाहे, फ़ारसी मूल का हो, मगर शक्ति, ताक़त के अर्थ वाला तक़ा भी निश्चित तौर पर इससे ही बना है और इस तरह इस तरह अरबी का ताक़ जो फ़ारसी से ही गया है और फ़ारसी का तक्या दरअसल एक ही हैं । दोनों का अर्थ समान है और ध्वनि साम्य भी है । तक्या यानि तकिया में आश्रय का अर्थ भी है और विश्राम लेने के स्थान का बोध भी इससे होता है । आनंदकुमार के प्रसिद्ध उपन्यास “बेगम का तकिया” में यही तकिया है । कब्रिस्तान की जगह भी तकिया कहलाती है और कब्रिस्तान में किसी फ़क़ीर के आश्रयस्थल को भी तकिया कहा जाता है । स्पष्ट है कि सिर के नीचे इस्तेमाल होने वाले जिस तकिया से हम सबसे ज्यादा परिचित हैं उसमें मूल भाव सहारे का है , आराम का है । क्रब्रिस्तान अपने आप में आश्रय है जिस्म छोड़ चुकी रूहों का इसलिए उसे तकिया कहते हैं । कब्रिस्तान में जिस फ़क़ीर ने डेरा डाला वह उसकी आरामगाह है, शरणस्थली है, सहारा है इसीलिए फ़कीर, दरवेश को तकियादार या तकियानशीं भी कहते हैं । तकिया शब्द में मुहावरेदार अर्थवत्ता है- जैसे तकिया करना यानी सहारा करना । साक़िब लखनवी का मशहूर शेर देखिए- “बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मेरे । जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे ।।” भोपाल में बड़ी झील के बीच तकिया टापू बेहद खूबसूरत जगह है । यहाँ एक बाका तकियाशाह की मज़ार है । –जारी

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Monday, May 7, 2012

रग-रग की खबर

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क्त वाहिनी के लिए हिन्दी में रग शब्द भी खूब प्रचलित है, अलबत्ता नस का चलन ज्यादा है । नस को नाड़ी भी कहते हैं और नलिका भी । रग भारत-ईरानी परिवार का शब्द है और फ़ारसी के ज़रिए हिन्दी में आया है जिसका सही रूप रग़ है । रग़ की व्युत्पत्ति के बारे में निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता । रक्त की पहचान उसका लाल रंग है और उसका काम है नसों में बहना क्योंकि वह तरल है और तरलता में नमी होती ही है ।  सो नमी और बहाव के गुणों को अगर पकड़ा जाए तो रग़ शब्द के जन्मसूत्र इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में नज़र आते हैं । वैदिक और जेंदावेस्ता साहित्य से यह स्ष्ट हो चुका है कि इंडो-ईरानी और भारोपीय भाषा परिवार में ऋ-री जैसी ध्वनि में बुनियादी तौर पर गति, प्रवाह का भाव रहै है और ऐसे शब्दों की एक लम्बी फेहरिस्त तैयार की जा सकती है जिनमें न सिर्फ राह, रास्ता, दिशा, आवेग, वेग, भ्रमण, चक्र, गति, भ्रमण जैसे आशय छुपे हैं बल्कि इनसे नमी, रिसन जैसे अर्थों का द्योतन भी होता है । रक्तवाहिनी मूलतः एक मार्ग भी है और और साधन भी जिसमें हृदय द्वारा तेज रफ़्तार से खून बहाया जाता है । गौरतलब है कि नल, नड, नद जैसे प्रवाही अर्थवत्ता वाले शब्द के पूर्वरूप से ही एक विशेष नली जैसे तने वाली वनस्पति का नाम नलिनी पड़ा । इसी तरह नदी के लिए भी नलिनी नाम प्रचलित हुआ ।
जॉन प्लैट्स रग़ के मूल में संस्कृत का रक्त शब्द देखते हैं । ए डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश में रग़ की तुलना प्राकृत के रग्गो से की गई है जो रक्त का परिवर्तित रूप है । ध्वनि के आधार पर शब्दों के रूपान्तर की भी निश्चित प्रक्रिया होती है । इस हिसाब से देखें तो रक्त का एक रूप रत्त बनेगा और दूसरा रूप रग्ग या रग्गो हो सकता है । खास बात यह है कि रक्त साध्य है जबकि रग़ साधन का नाम है । रक्त की विशिष्ट पहचान उसका लाल होना है जबकि रक्तवाहिनी में गति प्रमुख है । इसलिए रक्त के रग्ग रूपान्तर से यह मान लेना कि इससे ही फ़ारसी का रग़ बना होगा, दूर की कौड़ी है । रक्त से बने रग्ग का अर्थ भी खून ही होता है । फ़ारसी का रग़ निश्चित ही रक्त से नहीं है । गौरतलब है कि भारोपीय भाषा परिवार में ऋ-री जैसी ध्वनियों से बने कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनमें जलवाची भाव हैं अर्थात जिनकी अर्थवत्ता में गति व प्रवाह के साथ साथ नमी, आर्द्रता और गीलेपन का आशय निहित है । इसे यूँ समझें कि किसी स्रोत से रिसाव में मुख्यतः गति से भी पहले गीलेपन का अहसास होता है, फिर वह रिसाव धारा का रूप लेता है ।
ख्यात जर्मन भाषा विज्ञानी जूलियस पकोर्नी ने भारोपीय भाषाओं में धारा, बहाव, प्रवाह, गति, वेग, नमी, आर्द्रता को अभिव्यक्त करने वाले विभिन्न शब्दों के कुछ पूर्वरूप तलाशे हैं जिससे इनके बीच न सिर्फ़ सजातीय साम्य है बल्कि इनका व्युत्पत्तिक आधार भी एक है । res, ros, eres ऐसे ही पूर्वरूप हैं जिनसे ताल्लुक रखने वाले अनेक शब्द भारोपीय भाषाओं में हैं जैसे दौड़ने के लिए रेस, आवेग के लिए आइर , संस्कृत का रसा अर्थात रस, पानी या नदी आदि । इन सबमें ऋ – री नज़र आता है । प्रोटो इंडोयूरोपीय भाषा परिवार की एक धातु *reie- इसी कड़ी में आती है । इसमें भी ऋ की महिमा देखें । में मूलतः गति का भाव है। जाना, पाना, घूमना, भ्रमण करना, परिधि पर चक्कर लगाना आदि । प्राचीन संस्कृत धातु ऋत् और ऋष् में निहित गतिसूचक भावों का विस्तार अभूतपूर्व रहा है । संस्कृत धातु से बना है ऋत् जिसमें उचित राह जाने और उचित फल पाने का भाव तो है ही साथ ही चक्र, वृत्त जैसे भाव भी निहित हैं । हिन्दी के रेल शब्द में बहाव या प्रवाह का आशय निहित है । रेला शब्द की व्युत्पत्ति राल्फ़ लिली टर्नर संस्कृत के रय से मानते हैं जिसका अर्थ है तेज बहाव, तेज गति, द्रुतगामी, शीघ्रता आदि । रय बना है से जिसमें गति, प्रवाह का भाव है । इसी तरह र के मायने गति या वेग से चलना है जाहिर है मार्ग या राह का अर्थ भी इसमें छुपा है ।
प्राचीन धारा, प्रवाह या नदियों के नामों में भी प्रवाहवाची र, री या ऋ के दर्शन होते हैं । एटिमऑनलाइन के मुताबिक जर्मनी की की प्रसिद्ध नदी है राईन Rhine जिसके पीछे भारोपीय धातु *reie- ही है जिसका अर्थ है गति और प्रवाह । लैटिन में राइवस शब्द का अर्थ धारा होता है । वैदिकी की सहोदरा ईरान की अवेस्ता भाषा में नदीवाची एक शब्द है ranha जिसका अभिप्राय प्रवाही धारा है और इतिहासकारों के मुताबिक यह रूस की विशालतम नदी वोल्गा का प्राचीन नाम है । मोनियर विलियम्स के कोश में संस्कृत में रिण्व् या रिण्वति का अर्थ जाना है । वैसे तो रेणुका शब्द का अर्थ भी नदी होता है और अवेस्ता के रंहा ranha से इसका ध्वनिसाम्य भी है किन्तु भाषाविज्ञानी रंहा का साम्य वैदिकी के रसा से बैठाते हैं जिसका अर्थ रस, नमी, रिसन, नदी, धारा आदि है । भाषा विज्ञानियों के मुताबिक वोल्गा नदी का नामकरण प्रोटो-स्लाव शब्द वोल्गा से हुआ है जिसमें नमी का आशय है । उक्रेनी में भी वोल्गा का यही अर्थ है । रूसी भाषा के व्लागा का अर्थ होता है नम इसी तरह चेक भाषा में व्लेह का अर्थ है गीलापन । दरअसल ये सारे शब्द जन्मे हैं प्राचीन शकस्थान यानी सिथिया क्षेत्र में बोली जाने वाली किसी भाषा के रा शब्द से जिसका अर्थ था वोल्गा नदी । मूलतः यह रा शब्द रिसन या नमी का प्रतीक ही था । इसकी तुलना अवेस्तन रंहा या संस्कृत के रसा से करनी चाहिए ।
ज के ताजिकिस्तान क्षेत्र का प्राचीन नाम सोग्दियाना था । सोग्दियन भाषा में रअक का अर्थ होता है वाहिका, नालिका आदि । र(अ)क यानी रक की तुलना फ़ारसी के रग़ से करनी चाहिए । दरअसल सोग्दियन र(अ)क ही फ़ारसी के रग़ का पूर्वरूप है । प्राचीन शक भाषा के मूल रिसन, नमी वाले भाव का स्लाव जनों नें अपनी भाषा में अनुवाद वोल्गा किया और इस तरह नदी का नाम वोल्गा बना । दरअसल मूल रंहा , राईन जैसे शब्द नदीवाची हैं और इनका अनुवाद वोल्गा हुआ । डॉ अली नूराई के कोश के मुताबिक भी अवेस्ता के रण्हा शब्द का अर्थ मूलतः एक कल्पित पौराणिक नदी है जिसे जरदुश्ती समाज मानता था । रंहा का ही रूपान्तर पहलवी में रघ, रग़ हुआ और फिर फ़ारसी में यह रग़ बना ।
गौर करें कि किसी स्रोत से जब रिसाव होता है तो उसकी अनुभूति नमी की होती है । सतत रिसाव प्रवाह बनता है । इस प्रवाही धारा तेज गति से सतह को काटते हुए अपने लिए मार्ग बनाती है जिसे नद, नदी, नाड़ी या नाली कहते हैं । शरीर में रक्त ले जाने वाली वाहिनियाँ ऐसी ही नाड़ियाँ या नालियाँ हैं । किसी विशाल भूभाग को सिंचित करने, पोषित करने और उसे हरा भरा रखने में भी नदियों की विशिष्ट भूमिका होती है । इन्हें हम किसी भूभाग की नाड़ियाँ कह सकते हैं । हमारे शरीर की नसें या रगें भी वही काम करती हैं । रग शब्द की व्युत्पत्ति रक्त से न होकर भारोपीय भाषा परिवार के ऋ-री ध्वनि से जन्मे जलवाची शब्द समूह से ज्यादा तार्किक लगती है । नस से जुड़े जितने भी मुहावरे हैं, वे सभी रग में समा गए हैं जैसे रग फड़कना यानी आवेग का संचार होना, रग दबना यानी किसी के वश में या प्रभाव में आना, रग चढ़ना यानी क्रोध आना, रग रग पहचानना यानी मूल चरित्र का भेद खुल जाना अथवा रग-पट्ठे पढ़ना यानी किसी चीज़ को बारीके से समझ लेना आदि ।

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Sunday, April 8, 2012

ट्रंक का खानदान

trपिछली कड़ियाँ-1.बक्सा, बकसिया और बॉक्सिंग.2कनस्तर और पीपे में समाती थी गृहस्थी.3

क्से की तरह ही ट्रंक trunk भी कई दशकों से भारतीय गृहस्थी की एक ज़रूरी व्यवस्था बना हुआ है । चीज़ों को उनके लक्षणों के आधार पर ही नाम मिलता है । शरीर को तन इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें लगातार वृद्धि होती है । संस्कृत की तन् धातु में विस्तार, वृद्धि का भाव है । तानना यानी विस्तार करना क्रिया के मूल में तन् धातु ही है । जो लगातार विस्तारित हो, वही तन है । पेड़ के मुख्य हिस्से को भी तना कहते हैं जो सम्भवतः इसी कड़ी का शब्द है । पेड़ के तने का भी लगातार विस्तार होता है । तने में ही काष्ठ का भण्डार होता है । तने की लकड़ी से ही विभिन्न वस्तुएँ बनती हैं । बॉक्स के मूल पाइक्सोन में मुख्य भाव ठोस, सघन और भरपूर मात्रा का संकेत है । लकड़ी के संदर्भ में ये सारी बातें पेड़ के तने की और इशारा करती हैं जिसे ट्रंक कहते हैं । भारत में आमतौर पर धातु की पेटी को ट्रंक कहा जाता है । किसी ज़माने में ट्रंक भी लकड़ी के ही बनते थे । भारत में भी रईसों के यहाँ पहले लोहे के कब्ज़े वाले लकड़ी के ट्रंक इस्तेमाल होते थे मगर जब आम आदमी के पास ट्रंक पहुँचा, तब तक इसकी काया लौहावरण में ढल चुकी थी । आज भी कई घरों में खानदानी चीज़ों की तरह ट्रंक सहेज कर रखे जाते हैं । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला । जानते हैं, कैसे ।
ट्रंक मूलतः भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और वाल्टर स्कीट की कन्साइज़ एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी के मुताबिक अंग्रेजी में इसकी आमद पुरानी फ्रैंच के ट्रांक tronc से हुई है जिसका मूल लैटिन ज़बान का त्रुंकस / ट्रंकस truncus शब्द है जिसका अर्थ है वह मुख्य हिस्सा, जिससे उसके सहायक हिस्से अलग किए जा चुके हैं । ज्यादातर संदर्भों में लैटिन के त्रुंकस का आशय पेड़ के ऐसे भारी तने से लगाया गया है जिससे उसके उसके उपांग अलग किए जा चुके हों अर्थात ऐसा तना जिससे जड़ और शाखाएँ का अलग की जा चुकी हों । त्रुंकसमें धड़ का भाव है । धड़ शरीर के उस मुख्य हिस्से को कहते हैं जिससे हाथ, पैर और सिर जुड़े रहते हैं । 1724 में प्रकाशित नैथन बैली की यूनिवर्सल एटिमोलॉजिकल डिक्शनरी में ट्रंकस का आशय हृदय की ओर रक्त ले जाने वाली महाधमनी और महाशिरा से भी है और किसी जगह का मुख्य आधार स्तम्भ से भी है । ध्यान रहे शरीर यानी तन का मुख्य आधार भी धड़ ही होता है । ट्रंक में धड़ का आशय भी है । हिन्दी का धड़ शब्द भी संस्कृत के धर् से बना है जिसका अर्थ है जो धारण करे । धड़ सभी अंगों को धारण करता है ।
ट्रंकस में मूलतः वृक्ष का अर्थ निहित है, न कि उपांगों से काट कर अलग किया जा चुका मुख्य आधार । विलियम फ्रॉली के इंटरनैशनल एन्साइक्लोपीडिया ऑफ लिंग्विस्टिक्स के मुताबिक त्रुंकसका मूल है dru-n [वृक्ष, काष्ठ] + -iko-s[ उपांग, हिस्से ] स्पष्ट है कि ट्रंकस से आशय उस मुख्यआधार से है जिसके साथ उसके दूसरे हिस्से भी जुड़े हों । बाद के दौर में त्रुंकस से बने ट्रंक में सिर्फ़ धड़ की अर्थवत्ता जुड़ गई । संस्कृत-हिन्दी में वृक्ष के लिए तरुवर, तरु, दारुकः, द्रु, द्रुम जैसे शब्द हैं जो इनके एक ही मूल की ओर इशारा करते हैं । संस्कृत में एक धातु है द्रु जिसमें वृक्ष का भाव है। मूलतः यह गतिवाचक धातु है । इससे बने द्रुत का मतलब है तीव्रगामी, फुर्तीला, आशु गामी आदि होता है । वृक्ष के अर्थ में द्रु धातु का अभिप्राय भी गति से वृद्धि से ही है । इससे ही बना है द्रुमः शब्द जिसका अर्थ भी पेड़ ही होता है और द्रुम के रूप में यह परिनिष्ठित हिन्दी में भी प्रचलित है । कल्पद्रुम शब्द साहित्यिक भाषा में कल्पवृक्ष के लिए प्रचिलत है । द्रु से ही बना है दारुकः शब्द जो एक प्रसिद्ध पहाड़ी वृक्ष

जेब शृंखला की ये कड़ियाँ ज़रूर देखें... peti1. पाकेटमारी नहीं जेब गरम करवाना [जेब-1]
2 टेंट भी ढीली, खीसा भी खाली
3 बटुए में हुआ बंटवारा
4 अंटी में छुपाओ तो भी अंटी खाली
5 आलमारी में खजाने की तलाश
6 कैसी कैसी गांठें
7 थैली न सही , थाली तो दे[जेब-7]

है जिसका प्रचलित नाम देवदारु है । द्रु से ही बना है द्रव जिसका मतलब हुआ घोड़े की भांति भागना, पिघलना, तरल, चाल, वेग आदि । द्रु के तरल धारा वाले रूप में जब शत् शब्द जुड़ता है तो बनता है शतद्रु अर्थात् सौ धाराएँ । पंजाब की प्रमुख नदी का सतलुज नाम इसी शतद्रु का अपभ्रंश है । अंग्रेजी का ट्री और फारसी का दरख्त इसी मूल से जन्में हैं ।
ध्यान रहे भारत-ईरानी परिवार में द्रु में बहाव, गति, ले जाने के साथ साथ स्थिरता का भाव भी है । द्रु काएक अर्थ अगर वृक्ष है तो इसमें वृद्थि के साथ साथ स्थिरता भी है । वृक्ष अपने स्थान पर दृढ़ होते हैं, अडिग होते हैं । जूलियस पकोर्नी  भारोपीय धातु deru में वृक्ष का भाव देखते हैं और कुछ अन्य भाषाशास्त्रियों नें tru धातु की कल्पना करते हुए इसमें दृढ़ता, पक्कापन, ठोस और मज़बूत जैसे भावों को देखा है । पुरानी आइरिश के derb में पक्का, भरोसा का भाव है तो अल्बानी के dru का अर्थ लकड़ी या छाल है । हित्ती भाषा के ता-रू , अवेस्था के द्रवेना, दारु, संस्कृत के द्रु, वेल्श के दरवेन, गोथिक के त्र्यु , ओल्ड इंग्लिश के ट्रेवो समेत कई यूरोपीय भाषाओं के इन शब्दों का अर्थ लकड़ी या पेड़ है । हाथी की सूंड को भी ट्रंक कहते हैं ।
डॉ रामविलास शर्मा एक और दिशा में संकेत करते हैं । वे स्थिरता के अर्थ में स्थर् की कल्पना करते हैं और उसके एक पूर्व रूप धर् के होने की बात कहते हैं जिससे धारिणी के रूप में धरती शब्द बना । संस्कृत दारु, द्रुम, तरु, ग्रीक द्रुस, अंग्रेजी के ट्री में दरअसल धर् के रूपान्तर दर् और तर् हैं । प्राकृत धड, हिन्दी धड़, पेड़ के तने की तरह, मानव शरीर के शीशविहीन भाग का अर्थ देते हैं । संस्कृत तण्डक ( तना ), तन् ( शरीर ), हिन्दी तना, अंग्रेजी स्टौक, ( तना ), आदि स्थिरताबोधक हैं । यह भी दिलचस्प है की धर में निहित स्थिरतामूलक धारण करने के भाव से ही गतिवाचक धारा शब्द भी बनता है । धारा वह जो धारण करे, अपने साथ ले जाए । धर, धरा के मूल में धृ धातु है । धरा यानी धरती को देखें तो यह स्थिर जान पड़ती है मगर यह न सिर्फ़ अक्ष पर घूमती है बल्कि सूर्य की परिक्रमा भी करती है । स्थिरता का परम प्रतीक ध्रुव का जन्म भी इसी धृ धातु से हुआ है । धृ की ही समानधर्मा धातु दृ बाद में विकसित हुई होगी ।
स तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी के ट्रंक में मुख्य आधार का भाव है । यह आधार कहीं मार्ग है, कहीं स्तम्भ है और कहीं तना है तो कहीं धड़ है । ट्रंक शब्द का प्रयोग महामार्ग के रूप में भी होता है जैसे ग्रांड ट्रंक रोड । देश के सुदूर पश्चिमोत्तर को धुर पूर्वी छोर से जोड़नेवाला जो महामार्ग सदियों तक हिन्दुकुश के पार से आने वाले कारवाओं से गुलजार रहा, उसे शेरशाह सूरी ने व्यवस्थित राजमार्ग का रूप दिया था । अंग्रेजों ने उसका नाम ग्रांड ट्रंक रोड रखा जो पेशावर से कलकत्ता तक जाता था । इसे अब जीटी रोड कहा जाता है । रेलवे में भी ट्रंक लाईन होती है । जीटी एक्सप्रेस एक प्रसिद्ध ट्रेन का नाम है । ट्रंक का प्रयोग दूरसंचार प्रणाली में भी होता है । संचार नेटवर्क का खास रूट ट्रंक कहलाता है । पुराने ज़माने में दूरदराज स्थानों पर टेलीफ़ोन क़ॉल के लिए ट्रंक लाईन का इस्तेमाल होता था जिसे ट्रंककॉल कहा जाता था । ट्रंक में निहित बक्से का भाव वृक्ष के मोटे पुष्ट तने से स्पष्ट हो रहा है । ज़ाहिर है ट्रंक यानी तने की लकड़ी से निर्मित बक्से को भी ट्रंक नाम ही मिला ।

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