Saturday, April 12, 2008

अरब के रंग-ढंग और अपना ये हाल ! [बकलमखुद - 17]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला की पंद्रह कड़ियों में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह और काकेश को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं दुबई में निवासी मीनाक्षी धन्वन्तरि से । मीनाक्षी जी प्रेम ही सत्य है नाम का ब्लाग चलाती हैं और चिट्ठाजगत का एक जाना पहचाना नाम है। हिन्दी के परिवेश से दूर रहते हुए भी वे कविताएं लिखती हैं खासतौर पर उनके हाइकू बहुत सुंदर होते हैं जिन्हें उन्होने त्रिपदम् जैसा मौलिक नाम दिया है। तो शुरू करतें बकलमखुद का पांचवां चरण और सत्रहवी कड़ी -

चिट्ठी आई है , वतन से...

सी बीच परिवार में एक और नया सदस्य आ गया बेटे विद्युत के रूप में. समय बीतता गया और हम धीरे धीरे साउदी कानून समझने लगे. काले बुरके के साथ काला दुपट्टा पहनना कभी न भूलते. जानते थे कि अगर कभी मतुए ने पकड़ लिया तो सबसे पहले पति का इक़ामा(परिचय-पत्र) नम्बर नोट कर लिया जाएगा. तीन बार नम्बर नोट हुआ तो देश से बाहर. जहाँ फैमिली एलाउड होती वहीं जाते चाहे वह बाज़ार हो , रेस्तराँ हो या पार्क हो. कभी कभी कार में बैठे रहते और विजय वीडियो लाइब्रेरी से कैसेटस ले आते क्योंकि औरतें दुकान के अन्दर नहीं जा सकतीं. कुछ बाज़ार हैं जो सिर्फ औरतों के लिए हैं. पति और ड्राइवर बाहर बैंचों पर ही बैठे रहते हैं. कुछ बाज़ार सुबह औरतों के लिए और शाम को फैमिलीज़ के लिए हैं. बैचलर्ज़ के लिए शुक्रवार का दिन होता. भिनभिनाती मक्खियों से दूर दूर तक फैले हुए आदमी दिखाई देते. एक-दूसरे से मिलते. देश जाने वाले लोगों को पैसे और सौगात भेजते, आने वालों से चिट्ठी-पत्री और और घर से आई सौगात लेते. अपने अपने परिवारों का हाल-चाल पूछते. घर की नहीं, पूरे गाँव की खबर सुनते और बस इसी में ही सन्तोष पा जाते.

इस शहर में जी का लगाना कैसा !

साउदी अरब एक ऐसा देश है जहाँ नमाज़ के वक्त सारे काम बन्द हो जाते हैं.फज़र की नमाज़ तो सुबह सवेरे चार बजे के करीब होती. उसके बाद की चार नमाज़ों की अज़ान होते ही शटर डाउन. मतुओं की बड़ी बड़ी ज़ी एम सी गाड़ियाँ घूम घूम कर कामकाज बन्द कर के नमाज़ पढ़ने की हिदायत देती हुई दिखाई देतीं. एक और खास बात कि साउदी अरब एक ऐसा देश है जहाँ स्टेडियम में हज़ारों पुरुष खेल देखने के लिए एक साथ बैठते. यह बात गिनिज़ बुक में भी दर्ज़ है.
अन्य धर्मों के पूजा स्थल नहीं और न ही मनोरंजन के लिए सिनेमा हॉल. वीकैण्ड्स पर कुछ दोस्त एक-दूसरे के यहाँ मिलते और बारबीक्यू करते. बस यही एक मनोरंजन का साधन होता. कभी कभी शहर से दूर इस्तराहा (एक विला जिसमें कुछ कमरे स्विमिंग पूल और खेलने का छोटा सा स्थान) बुक कराके 8-10 परिवार जन्मदिन और शादी की सालगिरह भी मना
लेते.

कुछ खट्टा , कुछ कड़वा, कुछ तीता

जीवन नई नई कहानियों के साथ पड़ाव दर पड़ाव आगे बढ़ता गया. वहाँ रिश्तेदारों को वीज़ा मिलना मुश्किल है सो दोस्त ही रिश्तेदारों की भी भूमिका निभाते हैं. एक दूसरे के दुख सुख में काम आते लेकिन वह भी पति के भरोसे, जो काम से लौट कर ही कहीँ मिलने मिलाने ले जा पाते. दिल को खुश रखने के लिए सोचा करते कि हम बेगम से कम नहीं. पति शौहर ही नहीं शौफ़र भी हैं जो चौबीस घंटे डयूटी बजाते हैं.
कभी कभी जीवन में ऐसा कुछ घट जाता है कि अन्दर ही अन्दर तोड़ देता है लेकिन इस बदलाव को सहज रूप से लेना सीख लें तो जीना आसान हो जाता है. काली घटाओं में कड़कती बिजली को हम किसी दूसरे ही रूप में देखते और तस्वीर में उतारने की कोशिश करने लगते हैं. सुरमई बादलों के बीच में चाँदी सी रेखा जब चमकती तो लगता जैसे साँवली सलोनी ने चाँदी का हार पहन लिया हो. वैसे भी ज़िन्दगी में सिर्फ मीठा ही नहीं, कुछ खट्टा है, कुछ कड़वा है, कुछ नमकीन भी है. जीने का मज़ा भी उसी में है.

रियाद के स्कूल में बच्चों के बीच...

हिन्दी पढ़ाने के लिए इंडियन एम्बैसी के स्कूल में एप्लाई किया तो फट से नौकरी मिल गई. एक साल लड़कियों को पढ़ाने के बाद जब लड़कों को पढ़ाने को कहा गया तो रात भर नींद नहीं आई थी. प्रिंसीपल साहब ने कहा कि दो बेटों के साथ एक ही स्कूल में लड़कों को पढाना ज़्यादा सही निर्णय होगा. जैसे तैसे हिम्मत करके दसवीं क्लास में पहला कदम रखा तो फिर लगातार दस साल तक पैर वहीं जमे रहे. इतने साल लड़कों को पढाने के अनुभव से जाना कि लड़के व्यवहार में सरल और सहज होते हैं. उतना ही लड़कियों को पढ़ाना पेचीदा लगता. अक्सर लड़कियाँ जिक्र कर देतीं कि हमें लड़के ज़्यादा अच्छे लगते हैं या लड़कियाँ. लड़के कभी सवाल न करते लेकिन लड़कियाँ सवाल का जवाब पाने को बेताब. हम कैसे कहें कि लड़के अच्छे या लड़कियाँ. उदाहरण देते कि हमारे लिए लड़कियाँ नदी की बलखाती धारा सी हैं और लड़के चट्टानों से टकराता समुन्दर. हमें तो दोनो प्यारे लगते हैं. साउदी अरब के कानून को देखते हुए वहाँ पढ़ने वाले सभी बच्चे कुछ ज़्यादा ही प्यारे थे.

बशीर बद्र और मंज़र भोपाली के साथ मंच पर पढ़ी कविता...

पनी उम्र के बच्चों से आपस में मिलने जुलने का कम ही अवसर मिलता. एक स्कूल ही ऐसी जगह थी, जहाँ बच्चे एक दूसरे से मिल कर खुश होते. हम कोशिश करते बच्चों को वह खुशी मिल सके. अपना साथी मानकर दोनों स्कूलों के बच्चे आज भी हमें अपने मन की बात करते हैं तो उनकी खुशहाली की दुआ करते हैं. स्कूल के वार्षिक उत्सव पर कविता, पैरोडी, कव्वाली और नाटक करते हुए खूब मज़ा आता. स्कूल की मैगज़ीन में एडीटर के रूप में अपनी मन-पसन्द काम करने में घंटों बिता देते. उसी दौरान रियाद में हुए शाम ए अवध में और शायर बशीर बद्र और मज़र भोपाली के साथ अपनी कविता पाठ करने का सुखद अवसर मिला. हालात कुछ ऐसे बने कि स्कूल से इस्तीफा देना पड़ा. दिल्ली रहने का विचार किया तो दुबई पहुँच गए

दिल्ली जा बसने का इरादा, पर...

बेटे ने बाहरवीं पास कर ली थी सो दिल्ली जाकर रहने का निश्चय किया. छोटे बेटे को गोएंका स्कूल में डाला. बड़े बेटे को दो कॉलेज में एडमिशन होने पर भी वहाँ का माहौल कुछ जँचा नहीं तो दुबई बिटस में एडमिशन लेकर होस्टल रहने का निश्चय किया. अभी छह महीने भी न बीते थे कि हम भी छोटे बेटे के साथ दुबई शिफ्ट हो गए. रियाद में कई साल रहने के कारण एक बार भी मन शंकित नहीं हुआ कि हम दोनों बेटों के साथ अकेले कैसे रहेंगें. दुबई में आते ही 15 दिन में बेटे को हॉस्टल से घर ले आए. छोटे बेटे को डी.पी.एस. दुबई में डाला तो हमारा लम्बा अध्यापन का अनुभव देखकर हमें भी मिन्नत करके पढ़ाने का न्यौता दे दिया. चाहते हुए भी इंकार न कर सके. दुबई के स्कूल में 18 महीने पढ़ाने का अनुभव भी अपने आप में यादगार बन गया. रियाद के बच्चे तो दोस्त थे ही अब दुबई के बच्चे भी दोस्त बन गए.
(डी पी एस दुबई के अध्यापन के दौरान आबू धाबी में भारतीय राजदूत श्री चन्द्र मोहन भण्डारी जी की अध्यक्षता में प्रथम मध्यपूर्व क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लिया, जिसमें यू.ए.ई के शिक्षा मंत्री नाह्यान भी थे)


आपकी चिट्ठियां
सफर की पिछली तीन कड़ियों [ चतुर चालों के माहिर, उस लड़की ने मजनूं की नाक तोड़ दी और शोरगुल के साथ खारापन ] पर घोस्टबस्टर, मीनाक्षी , दिनेशराय द्विवेदी, डॉ चंद्रकुमार जैन, जोशिम, नीरज रोहिल्ला , ज्ञानदत्त पांडे, काकेश , बेजी, स्वप्नदर्शी, अर्बुदा, संजीत त्रिपाठी, प्रमोदसिंह, सिद्धेश्वर, अजित,अरुण, नीलिमा सुखीजा अरोड़ा, मीनाक्षी, पारुल, अनूप शुक्ल, कंचनसिहं चौहान, हर्षवर्धन, नीरज गोस्वामी और यूनूस जैसे लाजवाब साथियों की प्रतिक्रियाएं मिलीं । आप सबका शुक्रिया...

@नीरज गोस्वामी-

भाई, बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने शोरगुल वाली पोस्ट को पसंद किया । मगर एक बात ज़रूर कहना चाहेंगे कि हम
ज्ञानी-वानी नहीं हैं । अपने शौक मे आप सबको साथ लिए चल रहे हैं बस्स । बहुत कुछ बिखरा पड़ा है ज़मानेभर में सो बांच रहे हैं, जांच रहे हैं । समेट रहे हैं, सहेज रहे हैं और सबसे साझा भी कर रहे हैं । ज्ञानी कह कर शर्मिंदा न करें, यही गुजारिश है :)

13 कमेंट्स:

Sanjay Karere said...

पढ़ाना तो छोड़ दिया लेकिन नसीहतें देने की आदत अभी बरकरार है... अच्‍छा शब्‍द चित्र है. और भी बताएं... पढ़कर आनंद आ रहा है. अजित भाई का शुक्रिया.

Gyan Dutt Pandey said...

सऊदी अरब को जान पाये मीनाक्षी जी की अभिव्यक्ति से। धन्यवाद।

दिनेशराय द्विवेदी said...

मुझे लगा कि मीनाक्षी जी अभी सऊदी अरब, दुबई और दिल्ली या मुम्बई के जीवन के अंतर के बारे में बहुत कुछ लिख सकती हैं। बहुतों को उस से जीवन की भिन्नताओं के बारे में जानकारी मिलेगी।

Sanjeet Tripathi said...

मीनाक्षी जी लेखन से न केवल उन्हें बल्कि वाकई सऊदी अरब या दुबई जैसे देश और वहां के परिवेश को भी जानने का मौका मिल रहा है, शुक्रिया!!
दिनेशराय जी की बात से सौ फीसदी सहमत!

Anonymous said...

अन्य धर्मों के पूजा स्थल नहीं
----------------------
मुझे यह पंक्तियाँ पढ़कर यह विचार आया कि फिर तो वहाँ दूसरे धर्म का आदमी कैसे रह सकता है. अगर रहता है तो कैसे? अपना मन मारकर ही न!

डा. अमर कुमार said...

मैं तो आपका फ़ैन हो गया सर !

Unknown said...

wives wives are every where, but true wives are very rare, meenu is my true wife, she live in our dubai house, kids love her very much, some time i go to our house and stay with her, ......... wife in need is a wife indeed

मीनाक्षी said...

द्विवेदीजी, संजीतजी, देशो और शहरों के परिवेश पर लिखने की कोशिश करेगे.
ऐनोनिमस जी, हमें कभी नहीं लगा कि पूजा स्थल के बिना हम मन मार कर रहे हैं. दुबई में मन्दिर होते हुए भी तीन साल में शायद ही 2-3 बार गए हों.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

मीनाक्षी जी ,
दुबई के जीवन और
वहाँ की परम्पराओं के साथ
आपके परिवार के तालमेल की जानकारी में
आपका जीवन-दर्शन भी बहुत
खूबसूरत अंदाज़ में बोल पड़ा है.
आपने उसे एक सधी हुई कविता की तरह
अभिव्यक्त किया है कड़कती बिजली के ज़िक्र के साथ,
लेकिन मैं समझता हूँ
यह जीने की कला का मूल आधार भी है .
बेशक, कारवां के चलने से रुकने तक
जो मंज़िलों पे नज़र रखते हैं वे
बदलते रास्तों में भी जानते हैं कि
चलते रहने के नतीज़े कभी निराश नहीं करते.

सुरमई यादों की घटाओं के बीच
आपका संस्मरण चांदी सी रेखा की
चमकदार चाहत का दस्तावेज़ जैसा है .
बधाई आपको और आभार अजित जी का !

शुभकामनाएँ
डा.चंद्रकुमार जैन

Anita kumar said...

मिनाक्षी जी आप की पोस्ट देर से देखने की माफ़ी चाहती हूँ , बहुत बड़िया लग रहा है वहां के बारे में जानना, अगली कड़ी का इंतजार है

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मीनाक्षी जी ,
आपकी जीवन - यात्रा के बारे मेँ पढकर सुखद अह्सास हुआ - बहुत ही साहसपूर्ण रही है आपकी यात्रा ..
अजित भई को पुन: बधाई ! बकलमखुद -- जैसे विशेष स्तँभ की शुरुआत और सुवव्यस्थित, प्रस्तुति पर !
एवँ अनुरोध भी करती हूँ कि वे भी अपना जीवन वृताँत लिखकर,
हम सभी को परिचित करवायेँ,
अपने आप से -"शब्दोँ का सफर " : "बकलमखुद " के जरीये :)

- स्नेह सहित -लावन्या

मीनाक्षी said...

डॉ.जैन आप की प्रतिक्रिया का अलग ही अंदाज़ है.
अनितादी, माफी माँग कर शर्मिन्दा न करें पर सच में आपको देखकर अच्छा लगा.
लावन्या जी ,आप सही कह रही हैं, अजित जी को भी अपनी बकलमखुद लिखने की सोंचनी चाहिए.

डा. अमर कुमार said...

अति रोचक वर्णन,
अरब के खानपान और अटपटे रिवाज़ों पर भी एक नज़र
डाली जाये, कैसा रहे ?

हो सकता है कि मेरी लेटलतीफ़ी की वज़ह से
मैंने ऎसी कोई पोस्ट देखी ही ना हो ।

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