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Monday, April 3, 2023

‘नाबाद’ के बहाने ‘बाद’ की बातें

Sachin-Tendulkar[5]

रो जमर्रा की भाषा में ऐसे अनेक शब्दों का समावेश रहता है जिनका अक्सर अन्य भाषाओं में अलग तरीके से इस्तेमाल होता है। ऐसे शब्दों के साथ उपसर्ग या प्रत्यय जुड़ने से भी नए शब्द बनते हैं और ये शब्द भी अन्य भाषाओं में लोकप्रिय हो जाते हैं। हिन्दी में क्रिकेट की शब्दावली का एक जाना पहचाना शब्द है नाबाद जिसका अर्थ होता है नॉट आऊट । पारी के समाप्त होने तक अगर कोई खिलाड़ी मैदान में डटा रहता है तो उसे नॉट आऊट यानी नाबाद कहते हैं। हिन्दी में यह शब्द आम है मगर यह आया कहाँ से? नाबाद शब्द का जन्म मराठी की कोख से हुआ है मगर मूलतः यह यौगिक शब्द है और अरबी के बाद (BA’DA) शब्द में हिन्दी फ़ारसी का ना उपसर्ग लगने से बना। हिन्दी शब्दकोशों में इस शब्द की उपस्थिति नहीं है।
बाद शब्द का मूल अरबी रूप है ब’अद जिसके मायने हैं दूरस्थ, सुदूरवर्ती, फ़ासले पर, अलग या पृथक आदि। परवर्ती विकास के दौरान इसका अर्थ विस्तार हुआ। दूरस्थ, सुदूरवर्ती या फ़ासले पर जैसे अर्थों में अनंतर, पश्चात जैसे भाव भी स्थापित हुए। गौरतलब है कि दूरस्थ या सुदूरवर्ती जैसा भाव सापेक्ष है अर्थात एक बिन्दू विशेष से किसी स्थान या वस्तु की स्थिति बताने के लिए सुदूरवर्ती शब्द का प्रयोग होता है। अब देखिए कि किस तरह अर्थवत्ता विकसित होती है। बाद में पश्चातवर्ती भाव का विकास अंतराल से जुड़ा है। विस्तार के दो बिन्दुओं के बीच अंतराल होता है। जो दूरवर्ती है, उसका विलोम निकटवर्ती है अर्थात दूरवर्ती से कहीं पहले निकटवर्ती है। जाहिर है निकट के आगे कहीं दूर है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि निकट के पश्चात या बाद में दूरवर्ती स्थान या वस्तु होती है। दूरी से ही दूर है।
र्मन भाषाशास्त्री एमएम ब्रॉमनन स्टडीज़ इन सेमिटिक फ़िलोलॉजी में बाद शब्द पर विस्तार से चर्चा करते हैं। उनके मुताबिक प्रोटो सेमिटिक धातु bi-‘ad है जिसमें bi ( या ba ) का अर्थ है ‘में’ और ad का अर्थ है तदापि, तथापि, अब तक आदि। इस तरह अरबी के बा’अद ( या बाद ) का अर्थ हुआ के पश्चात, तद्नुरूप, तथापि, के कारण आदि। बरास्ता अरबी यही बा’अद फ़ारसी, उर्दू, के बाद हिन्दी में भी बाद के रूप में दाखिल हुआ। जहाँ इसका अभिप्राय के पश्चात या बाद में ही है। हिब्रू में भी यह कुछ परिवर्तन के साथ इसी अर्थ में इस्तेमाल होता है। 
राठी शब्दकोशों के मुताबिक बाद शब्द में किसी सूची से कमी का, निकालने का, हीन करने का भाव है। म.श्री. सरमोकदम और जी.डी.खानोलकर की द न्यू स्टैंडर्ड मराठी- इंग्लिश- मराठी डिक्शनरी के मुताबिक बाद का अर्थ काम से निकालने, रद्द करने, स्थगित करने, पीछे रखने का, हटाने का भाव है। इसी तरह कृ.पा. कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में भी इसका अरबी रूप ब’अद बताया गया है जिसमें निकाला हुआ, कम किया हुआ जैसे भाव हैं। निश्चित ही ये सभी अर्थ भी दूरवर्ती, फ़ासले पर या बाद में जैसे अर्थों का विस्तार है। गौर करें की किसी सूची में जब नाम जोड़े जाते हैं तब महत्वपूर्ण नाम आगे और कम महत्वपूर्ण नाम पीछे रखे जाते हैं। महत्व तय करते मामूली महत्व के नामों के लिए भी भी यही निर्देश दिया जाता है कि इन्हें बाद में रखना। सामान्य बोलचाल में भी
सी क्रम में मराठी में बाद का अर्थ स्थगित करना, निकालना, हटाना होता है। सामान्य तौर पर ‘ बाद में ’ अब एक टर्म या पद का दर्जा पा चुका है जिसमें किसी काम को न करने, टालने या स्थगित करने का भाव ही अधिक है। बाद में देखेंगे या बाद में करेंगे, बाद में आना, बाद में चलेंगे में यही भाव है कि अभी कुछ होने की फिलहाल उम्मीद नहीं है। अभी की सूची से उसे निकाला जा चुका है। उसे आगे कभी होना है। इस आगे में जो विस्तार है वही ब’अद है। इसमें जो स्थगिति है वही ब’अद है। इसमें जो निकाले जाने का भाव है वही ब’अद है और इसका रूपान्तर बाद है। हिन्दी-उर्दू के बाद में पश्चातवर्ती भाव प्रमुखता से बना रहा जबकि मराठी में विस्तार, अंतराल, निकालना जैसे भाव प्रमुख रूप से विकसित हुए। इसीलिए मराठी में बाद के साथ ना उपसर्ग लगाने से बने नाबाद शब्द का अर्थ डटे रहना, अविजित रहना, बने रहना, कायम रहना आदि हुआ। क्रिकेट की शब्दावली में बड़ी सहजता से मराठी में ही सबसे पहले नॉट आऊट के लिए नाबाद शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ जिसे हिन्दी में भी खुशी खुशी और खिलाड़ी भाव से अपनाया गया।

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Tuesday, September 20, 2016

बालों की दवाई, शिकाकाई, कहाँ से आई...


सा बुन जैसी चीज़ का कभी प्राचीन भारत में चलन था या नहीं, इस पर हम अलग पोस्ट लिख चुके हैं। हाँ, त्वचा और बालों की देखभाल के देसी तरीकों का उल्लेख आयुर्वेद में है। शिकाकाई, रीठा, आँवला जैसी दर्जनो वनौषधियों का प्रयोग हिन्दुस्तान में होता आया है। ख़ैर, शिकाकाई बेहद लोकप्रिय ओषधि है और इसके इस्तेमाल की विधियाँ अब विदेशी कास्मेटिक्स में भी नज़र आती हैं। मूलतः यह द्रविड़ भाषा का शब्द है और तमिळ के ज़रिये भारतीय भाषाओं में प्रसारित हुआ है।

सिगा, सिगाई और जूड़ा
जानते हैं शिकाकाई शब्द की जन्मकुण्डली। जब पढ़ते थे तब शिकाकाई शब्द जापानी भाषा का लगता था। पिछली बार जब सोलापुर गए तो इस सन्दर्भ में कुछ बातें पता चली थीं। वहाँ के पुराने बाज़ार में तरह-तरह की जड़ीबूटियाँ बिक रही थीं। कुछ दवाओं और तेल आदि के विज्ञापनों में बालों का जूड़ा प्रदर्शित था। सोलापुर का आन्ध्रप्रदेश से गहरा सम्बन्ध है। वहाँ तेलुगुभाषी बहुतायत रहते हैं। बहरहाल, एक ऐसी दुकान पर भी पहुँचे जहाँ विशुद्ध रूप से बालों की देखभाल वाली जड़ीबूटियाँ ही थीं। वहाँ जूड़े के लिए अनेक लोगों के मुँह से ‘सिगा’ अथवा ‘सिगाई’ शब्द सुना।

शिखण्डी से रिश्तेदारी
जब उन्हें बताया कि मैं मराठी हूँ तो दुकानदार ने सिर की तरफ़ इशारा किया, शेंडी शेंडी। मराठी में शेंडी का अर्थ होता है जूड़ा या सिर के बीच लपेट कर रखी चुटिया। शेंडी बना है शिखण्डिका से। शिख+ अण्ड में शिखण्ड यानी जूड़े का भाव है। शिख यानी सिर के सबसे ऊँचे हिस्से पर बालों से बनाया अण्डाकार गुच्छा यानी शिखण्ड। संस्कृत में इसके लिए चूड़ा शब्द भी है। चूड़ाकरण का अर्थ मुण्डन भी होता है। चूड़ा का ही अगला रूप जूड़ा है।

सिका, सिकु, सिक्कम्
बहरहाल, शिखण्डिका के शिख या शिखा से अचानक तेलुगू का ‘सिगा’ पकड़ में आ गया जो अन्यथा नहीं आता। चार्ल्स फिलिप ब्राऊन के तेलुगू कोश में सिगा और सिका दोनों की प्रविष्टि है और उसका अर्थ जूड़ा, चोटीगुच्छ, चूड़ा या शिखा आदि ही बताया गया है। तमिळ लैक्सिकन में इसके कई रूप प्रचलित हैं जैसे- सिका, सिक्कु, सिक्कम्, सिकाईताटू, सिकरिन, सिकुरम आदि। इनके संस्कृत रूपान्तर की कल्पना की जा सकती है मसलन शिखा, शिखु, शिखरम्, शिखरिणी आदि। द्रविड़ भाषाओँ में संस्कृत की तत्सम शब्दावली के नितान्त देसी रूप इस तरह घुले-मिले हैं कि यह कहना कठिन है कि संस्कृत ने द्रविड़ को प्रभावित किया है द्रविड़ ने संस्कृत को।

काई यानी फल, सिका यानी शिखा
गौरतलब है कि तमिल में काई यानी kay फल के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अनेक सन्दर्भों में इसका अर्थ कच्चा फल, सूखा फल भी दिया गया है। तो सिका-काई का अर्थ हुआ शिखा- काई अर्थात चूड़ा-फल या शिखाफल। ज़ाहिर है कि इस नामकरण के पीछे बालों के काम आने वाला फल से ही तात्पर्य है। शिकाकाई का वानस्पतिक नाम अकेशिया कोनसिन्ना है।

शेखर और शिखरिणी
शिकाकाई ज्यादातर गर्म जलवायु में पैदा होने वाली झाड़ी है। इसका तेल भी बनाया जाता है और इसे पीस कर विभिन्न प्रकार की ओषधियाँ भी बनाई जाती हैं। ध्यान रहे, शिव को शेखर कहते हैं क्योंकि वे सिर पर जटा बान्धते हैं। इसका रिश्ता गंगा से है। इसीलिए उसका नाम शिखरिणी भी है। पूर्वांचल के लोग अपने नाम के साथ शेखर लगाना पसंद करते हैं।

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Saturday, August 6, 2016

कुछ ‘दन्द-फन्द’ कर लिया जाए


हि न्दी में दो दन्द चलते हैं। एक दंद (दन्द) है जो तद्भव रूप है और दूसरा फ़ारसी आप्रवासी। एक का अभिप्राय युद्ध, संघर्ष, रस्साकशी, हलचल आदि है। यह दंद संस्कृत के द्वन्द्व से आ रहा है। दूसरा दंद फ़ारसी का है जिसका अर्थ है दाँत, दाँतेदार, तीखा, नोकदार। हिन्दी में दंद का अकेला प्रयोग बहुत कम होता है। दंद-फंद मुहावरे के साथ ही यह देखने में आता है।

दन्द यानी जोड़ा या जद्दोजहद

संस्कृत क्रियामूल द्व / द्वि में दो का आशय है और द्वन्द्व इससे ही बना है जिसका का अर्थ है संग्राम, लड़ाई, झगड़ा, हाथापाई, संघर्ष वग़ैरह। इसमें दो का भाव साफ़ नज़र आ रहा है। हिन्दी का दो भी द्व से ही बना है। द्वक, द्वय, द्वन्द्व, जैसे शब्दों में दो और दो, सम्मुख, जोड़ा, युगल, जद्दोजहद, परस्पर, स्पर्धा, होड़, तकरार, अनबन, आज़माइश जैसे भाव हैं। यही नहीं, मूलतः द्वन्द्व में परस्पर विपरीत जोड़ी का आशय भी है इसलिए इसका अर्थ स्त्री-पुरुष युगल भी है। व्याकरण में द्वन्द्व समास होता है। समास युग्मपद है। परस्पर विलोम या विपरीतार्थी शब्द भी द्वन्द्व की मिसाल है मसलन सुख-दुख, रात-दिन वगैरह।

फन्द यानी गिरह
दंद की तर्ज़ फर फंद का इसमें जोड़ा जाना लोकअभिव्यक्ति की सफलता है। भाषा ऐसे पदों से ही समृद्ध होती है। यह जो फंद है, यह दन्द का अनुकरणात्मक पद न होते हुए स्वतन्त्र शब्द है जो ‘फंदा’ वाली शृंखला से आ रहा है। फन्द यानी बन्धन या पाश। देवनागरी में प > फ > ब > भ की शृंखला के शब्द स्थानीय प्रभाव के चलते विभिन्न बोलियों में एकदूसरे की जगह लेते हैं। बन्ध का लोकरूप फन्द हो जाता है। बन्ध में जहाँ किसी भी किस्म के अवरोध, रोक, गिरह या गाँठ का भाव है वहीं फन्दा सिर्फ़ गाँठ है। बान्धने की क्रिया सिर्फ़ गाँठ से ही व्यक्त नहीं होती। पानी को रोकने वाली व्यवस्था बान्ध इसलिए कहलाती है क्योंकि उसे बान्ध दिया गया है। फन्दा भी एक किस्म का बन्धन है पर हर बन्धन फन्दा नहीं। अलबत्ता फन्दा जहाँ गाँठ है वही इसी तर्ज़ पर बन्धा गाँठ न होकर डैम या बान्ध को कहते हैं।

जी-तोड़ प्रपंच
अब दंद-फंद की बात। मूल रूप से अपने मक़सद की कामयाबी के लिए हर मुमकिन और हर तरह के प्रयासों को अभिव्यक्त करने वाला पद है दंद-फंद पर अब इसका प्रयोग नकारात्मक अर्थ में ही ज़्यादा होता है। आज की हिन्दी में इस पद में चालबाजी, षड्यन्त्र, हथकण्डा, दाँव-पेच, खटराग, कूटनीति जैसी अभिव्यक्तियाँ समा गई हैं। द्वन्द्व से बने दन्द से यहाँ ज़ोर-आज़माइश प्रमुख है वहीं फन्द में फँसाने का भाव है। कुल मिला कर उचित-अनुचित का विचार किए बिना उद्धेश्यपूर्ति का प्रयत्न दरअल दंद-फंद की श्रेणी में आता है। हालाँकि सामान्य तौर पर जी-तोड़ मेहनत के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है जैसे- “सारे दन्द-फन्द कर लिए, तब कहीं काम मिला” या “वहाँ किराए के मकान के लिए बड़े दन्द-फन्द करने पड़ते हैं” वगैरा वगैरा।

दन्दाँ तुर्श करदन
जिस तरह संस्कृत में विसर्ग का उच्चार ‘ह’ होता है पर अक्सर वह ‘आ’ में परिवर्तित हो जाता है। फ़ारसी में शब्द के अन्त में ‘हे’ का प्रयोग इसी तरह होता है। संस्कृत के दन्त यानी दाँत का फ़ारसी समानार्थी दंदानह دندانه है जो दाल, नून, दाल,अलिफ़, नून, हे से मिलकर बना है। हिन्दी में इसका उच्चार दंदाना होता है जिसका अर्थ हुआ दाँता, दाँतेदार, नुकीला, नोकदार आदि। फ़ारसी में कहावत है “दन्दाँ तुर्श करदन” इसकी तर्ज़ पर हिन्दी में दाँत खट्टे करना कहावत बनाई गई। दन्द-फन्द वाले दन्द से दाँतेदार दन्द का कुछ लेना-देना नहीं।
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Saturday, April 20, 2013

‘छद्म’ और ‘छावनी’

से शब्द जो हिन्दी की तत्सम शब्दावली के हैं मगर बोलचाल की हिन्दी में आज भी डटे हुए हैं उनमें छद्म शब्द भी शामिल है। कपटपूर्ण व्यवहार के संदर्भ में हिन्दी में इसका प्रयोग होता है। छल-छद्म एक आम मुहावरा है जिसका अर्थ है छल, कपट या धोखे का प्यवहार। छद्मवेषी व्यक्ति वह है जो अपना असील रूप छिपाने के लिए रूप बदल कर रहता है। छद्म करनेवाले व्यक्ति को छद्मी कहते हैं। ध्यान रहे, देहात में पाया जाने वाला संज्ञानाम छदामी (लाल) या छदम्मी (लाल) इस छद्मी का अपभ्रंश रूप नहीं है। ये नाम दरअसल यूनानी मुद्रा द्रख्म से आ रहे हैं जो मौर्यकाल में भारत में द्रम्मम् के नाम से चलती थीं जिनका देशी रूप दाम, दमड़ी हुआ। मूल्य के अर्थ में दाम शब्द यहीं से आ रहा है। दाम का छठा हिस्सा छदाम कहलाया। दो दमड़ी यानी एक छदाम। पुराने ज़माने में दमड़ीमल भी होते थे और छदामीलाल भी। ख़ैर बात छद्म की चल रही थी।
द्म में जो फ़रेब, झूठ, छुपाव, बनावटीपन आदि का भाव है वह दरअसल छद् से आ रहा है। संस्कृत में छद् का अर्थ है आवरण। छद् का ‘छ’ है वह ‘छत’ अर्थात ‘छाया’ का प्रतीक है। संस्कृत छाया का ही फारसी रूप साया है। मगर हिन्दी के ‘छाया’ में अब सिर्फ़ परछाईं का भाव रह गया है वहीं फारसी के साया में परछायी के साथ साथ ‘छत’ का भाव भी बरकरार है। संस्कृत की ‘छद्’ धातु में छत, छाया, ढके होने का भाव है। छद् का मतलब होता है ढकना , छिपाना , पर्दा करना आदि। छद् से ही बना है छत्र, छत्रक या छत्रकम् । इन्ही शब्दों से बने हैं छाता, छत्री छतरी जैसे शब्द जिसका मतलब होता है ऐसा आवरण जिससे सिर ढका रहे, छाया बनी रहे। राजाओं के सिंहासन के पीछे लगे छत्र से भी यह साफ है । छत्रपति, छत्रधारी जैसे शब्द इससे ही निकले हैं। मंडपनुमा इमारत भी छतरी ही कहलाती है। राजाओं की याद में भी पुराने ज़माने में जहाँ उन्हें दफनाया जाता था, छतरियाँ बनाईं जाती थीं।
नावटी, नकली, जाली या फर्जी में मूलतः सच्चाई को छुपाने का भाव है। ऐसा व्यवहार जिसमें सच को छुपाया जाए, उस पर पर्दा या आवरण डाला जाए, छद्म की श्रेणी में आता है। छद्म में छद् को अगर पहचाना जाए तो सब स्पष्ट हो जाता है। छद का छत रूप अगर संरक्षण है तो वह एक आवरण भी है। संस्कृत में छद्मन् का अर्थ है स्वांग, बहाना, छुपाव, कपट आदि। छल शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी शब्दसागर में स्खल से बताई गई है जो मेरे विचार में ठीक नहीं है। छल में भी वही ‘छ’ है जिसमें छुपाव या आवरण का भाव है। छल-छद्म में दुराव या छुपाव की पुनरुक्ति है।
फ़ौजी पड़ाव के लिए हिन्दी में छावनी शब्द आम है। कई बड़े शहरों में छावनी नामधारी इलाके होते हैं। इसका मतलब यह किसी ज़माने में वहाँ सेना का स्थायी या अस्थायी बसेरा था। उन्हीं स्थानों पर बाद में नई आबादी बस जाने के बावजूद इलाके के नाम के साथ छावनी शब्द जुड़ा रहा जैसे छावनी चौराहा या छावनी बाज़ार आदि। आज के दौर में भी जिन शहरों में आर्मी कैंटोनमेंट होता है उसे छावनी ही कहते हैं। कैंटोनमेंट बोर्ड को भी छावनी बोर्ड ही कहते हैं। जानते हैं छावनी शब्द कहाँ से आया और इसका अर्थ क्या है। संस्कृत में आच्छादन का अर्थ होता है आवरण, वस्त्र या छाजन आदि। आच्छादन में भी छद् को पहचाना जा सकता है। उपसर्ग के बाद छादन बचता है। किसी ज़माने में बटोही राह में जब रुकते थे तो टहनियों को अर्धवृत्ताकार मोड़ कर उनके दोनों सिरे ज़मीन में गाड़ देते थे और उस ढाँचे पर चादर तान देते थे। यह उनका अस्थायी आश्रय बन जाता था।
गौर करें, यह जो चादर है वह भी इसी कड़ी का शब्द है। छद् के चादर में तब्दील होने का क्रम कुछ यूँ रहा होगा – छत्रक > छत्तरअ > छद्दर > चद्दर > चादर। मराठी में छादनी का अर्थ होता है ढक्कन, आवरण आदि और इसी रूप में यह हिन्दी में भी है। छादनी से छावनी में तब्दील होने का क्रम यूँ रहा- छादनी > छायणी > छायणी > छावणी। हिन्दी शब्दसागर छादनी का उल्लेख नहीं करता किन्तु इसका रिश्ता छाना क्रिया से जोड़ता है साथ ही देशी छायणिया, छायणो जैसे शब्दों से इसका सम्बन्ध बताता है। स्पष्ट है कि छायणिया या छायणो जैसे रूप प्राकृत-अपभ्रंश के हैं और इनका मूल छादन या छादनी है। इसी कड़ी में छाँह, छाँव, छावण, छावन, छाजन, छप्पर जैसे शब्द भी हैं जिनमें आवरण, डेरा, तम्बू, आश्रय, ढक्कन जैसे भाव हैं।

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Sunday, March 31, 2013

हथियारों के साथ ‘पंचहत्यारी’

‘पंचहत्यारी’ शिवाजी की सैन्य शब्दावली का एक शब्द है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानों इसका रिश्ता पाँच जनों की हत्या करने वाली से हो। दरअसल यह एक विशेषण, पद या उपाधि है जिसका अर्थ है बंदूक, भाला, ढाल, तलवार और तीर-कमान से सज्जित सैनिक या शिकारी पशु। यहाँ अभिप्राय मुख समेत चारों पंजों के ज़रिये शिकार को चीर-फाड़ करने से है। पंच से तो पाँच स्पष्ट है, हत्यारी क्या है ? दरअसल मराठी में हथियार को हत्यार ही लिखते और बोलते हैं। ‘पंचहत्यार’ का तात्पर्य पाँच हथियारों से है। हिन्दी में ‘हत्यार’ का आशय ‘हत्यारा’ से है और हत्यारी यानी हत्या करने वाली स्त्री।
ऐसे ही बनती है। मराठी में हथियार की 'थ' ध्वनि से 'ह' का लोप होकर 'त' शेष रहा। मध्य वर्ण 'य' चूँकि अन्तस्थ व्यंजन है इसलिए 'त' में निहित 'इ' स्वर य से जुड़ गया और 'त' का बर्ताव अर्धव्यंजन की तरह होने से हथियार का देशी रूप ‘हत्यार’ हुआ। उधर हिन्दी का ‘हत्यार’ दरअसल ‘हत्यारा’ से बन रहा है। इसके मूल में ‘हत्या’ है। जिसका अर्थ किसी के प्राण लेना है। संस्कृत के हत से हत्या का रिश्ता जोड़ा जाता है। वैसे वैदिकी में ‘हथ’ शब्द भी है जिसका अर्थ है मारना, जान लेना, धकेलना, वार करना आदि। इस हथ से साबित होता है कि वैदिक संस्कृत में भी हस्त से ‘हथ’ रूप बन चुका था जिसमें हाथ से सम्बन्धित का भाव था। गौर करें हथियार का रिश्ता दरअसल ‘हाथ’ से नज़र आता है। प्राकृत में ‘हत्थ’ शब्द का अर्थ हाथ है। ‘हत्थ’ का संस्कृत या वैदिक रूप ‘हस्त’ है। ये दोनों शब्द हिन्दी के हाथ के पुरखे हैं। हथेली, हथौड़ी, हत्था, हाथी जैसे अनेक शब्दों के मूल में हस्त ही है। ‘हथिया’ में ‘आर’ प्रत्यय लगने से हथियार बना जिसमें ऐसे उपकरण का आशय है जिसे हाथ में पकड़ कर या हाथों से फेंक कर कोई काम किया जाए या किसी पर घात किया जाए। मूलतः हथियार में शस्त्र का भाव है।
थियार हिन्दी का बहुप्रयुक्त शब्द है। शस्त्रास्त्रों के लिए इसका इस्तेमाल आम है। मराठी में इसकी प्रकृति बदल गई और यह ‘हत्यार’ हो गया। हथियार से जुड़े कई मुहावरे प्रचलितहैं जैसे हथियार डालना यानी पराजय स्वीकार करना, हथियार चलाना यानी लड़ाई छेड़ना, हथियार बांधना या हथियार लगाना यानी संघर्ष के लिए सुसज्ज होना। चलताऊ या बाज़ारू हिन्दी में ‘हथियार’ शब्द का प्रयोग पुरुष जननेन्द्रिय के लिए भी होता। हथिया से ही ‘हथियाना’ क्रिया भी बनती है जिसका अर्थ है जबर्दस्ती कब्ज़ा करना, अपने स्वामित्व में लेना आदि।

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Tuesday, January 29, 2013

महिमा मरम्मत की

repair

रम्मत हिन्दी में खूब रचा-बसा शब्द है । अरबी मूल का यह शब्द फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी समेत कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित हुआ । मरम्मत शब्द का अर्थ है बिगड़ी वस्तु को सुधारना, उद्धार करना, संशोधन करना, सँवारना, कसना, योग्य बनाना, सुचारू करना, कार्यशील बनाना आदि । इन तमाम भावों के बावजूद हिन्दी में मरम्मत का प्रयोग ठुकाई-पिटाई या मार-पीट के तौर पर ज्यादा होता है । “इतनी मरम्मत होगी कि नानी याद आ जाएगी” जैसे वाक्य से पिटाई का भाव स्पष्ट है । किसी की पिटाई में भी उसे सबक सिखाने का भाव है, सज़ा देने का भाव है ।
रम्मत के मूल में अरबी की रम्म क्रिया है और इसकी मूल सेमिटिक धातु है र-म-म [ر م م] अर्थात रा-मीम-मीम । हेन्स वेर की ए डिक्शनरी ऑफ़ मॉडर्न रिटन अरेबिक अरबी क्रिया ‘रम्म’ का उल्लेख है जिसमें जीर्णोद्धार, दुरुस्ती या सुधारने का भाव है । इसी के साथ इसमें क्षय होने, क्षीण होने, बिगड़ने या खराब होने का भाव भी है । यही नहीं, इसमें बनाने, पहले जैसा कर देने, पूर्वावस्था, प्रत्यावर्तन, जस का तस जैसे आशय भी हैं । गौर करें, किसी वस्तु को सुधारने की क्रिया उसे पूर्ववत अवस्था में यानी चालू हालत में लाना है । ऐसा करते हुए उसके कल-पुर्जे ढीले करने होते हैं, आधार को खोलना होता है । रम्म में निहित बिगड़ने, क्षीण होने जैसे भावों का यही आशय है कि सुधार की प्रक्रिया में हम बिगड़े तन्त्र को पहले तो पूरी तरह से रोक देते हैं । फिर उसके एक एक हिस्से की जाँच कर उसे सँवारने का काम करते हैं ।
म्म में अरबी उपसर्ग ‘म’ लगने से बनता है (म)रम्मा जिसका अर्थ सुधारना, सँवारना होता है । फ़ारसी, उर्द-हिन्दी में मरम्मा के साथ ‘अत’ प्रत्यय का प्रयोग होता है और इस तरह मरम्मत शब्द बनता है । पंजाबी और हिन्दी की पश्चिमी शैलियों में इसका रूप मुरम्मत भी है । मराठी में इसके तीन रूप मरमत, मरामत, मर्हामत मिलते हैं । मरम्मत क्रिया का एक रूप हिन्दी में मरम्मती भी मिलता है । मरम्मत में पिटाई का भाव यूँ दाख़िल हुआ होगा क्योंकि अक्सर चीज़ों को सुधारने की क्रिया में ठोकने-पीटने की अहम भूमिका होती है । साधारणतया किसी कारीगर या मिस्त्री के पास भेजे जाने से पहले चीज़ों को दुरुस्त करने के प्रयास में उसे हम खुद ही ठोक-पीट लेते हैं । कई बार यह जुगत काम कर जाती है और मशीन चल पड़ती है । मरम्मत में ठुकाई-पिटाई दरअसल सुधार के आशय से है, ठीक होने के आशय से है । बाद में मरम्मत मुहावरा बन गया जैसे– “हाल ये था कि थोड़ी मरम्मत के बिना वो ठीक नहीं होती थी”, ज़ाहिर है इस वाक्य में मरम्मत का आशय पिटाई से है । पिटाई वाले मरम्मत की तर्ज़ पर कुटम्मस भी प्रचलित है जो कूटना या कुटाई जैसी क्रियाओं से आ रहा है । जिसमें सुधार की गुंजाइश हो उसे मरम्मततलब कहते हैं ।
सी तरह रम्मा से रमीम बनता है जिसका अर्थ भी मुरझाया हुआ, पुराना, पुरातन, जीर्ण-शीर्ण या खराब है । आमतौर पर चीज़ों के परिशोधन या उनके सुधारने के लिए तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । हिन्दी में अक्सर भाषायी सुधार के सम्बन्ध में तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । जैसे “कमेटी ने जो सिफ़ारिशें की हैं उनमें तरमीम की ज़रूरत है” ।

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Friday, January 4, 2013

अहाते में…

round

हि न्दी में अहाता शब्द इतना प्रचलित है कि गाँव-देहात से शहरों तक लोगों की ज़बान पर ये शब्द किसी भी घिरे हुए स्थान के संदर्भ में फ़ौरन ज़बान पर आता है । इसकी मिसाल देखिए कि सरकार ने आबक़ारी नीति के तहत शराब की हर दुकान की बगल में अहाता खोलने का प्रावधान करके इस शब्द को हर आदमी की ज़बान पर ला दिया है । अब मध्यप्रदेश के मयक़शों की ज़बान पर अहाता शब्द चढ़ा हुआ है । देश के मध्य में स्थित यह सूबा लगता है जल्दी ही मद्यप्रदेश बन जाएगा । बहरहाल, अहाता निहायत देशी रंग-ढंग वाला शब्द है । चलताऊ तौर पर इसे हाता भी कहा जाता है । इसीलिए ज़रा भी शुबहा नहीं होता कि अहाता अरब से चला और फ़ारसी के रास्ते हिन्दुस्तानी ज़बानों में दाख़िल हुआ ।
हाता का मूल रूप इहाता है और इसका जन्म अरबी धातु हा-वाव-थे यानी  ط – و -ح के पेट से हुआ है । अहाता को हाता कहने का चलन दरअसल भारतीय ज़मीन पर इस शब्द के बिगड़ने का प्रमाण नहीं है बल्कि अरबी में ही इहाता के अलावा हाता, हीता जैसे संक्षिप्त रूप पहले से मौजूद थे और ये भी जस के तस हिन्दी में चले आए । इहाता या अहाता के हाता, हीता जैसे संक्षिप्त रूप दरअसल शब्द-चलन की मुख-सुख प्रक्रिया से नहीं बने हैं बल्कि इन रूपों से इहाता, अहाता का व्युत्पत्तिक या धात्विक आधार मज़बूत होता है । अहाता की तुलना में h-w-t अर्थात ह-व-थ ध्वनियों से حاطه हाता का निर्माण होता है । अरबी में का स्वरूप स्वर के ज्यादा निकट है । हाता में स्वरागम की प्रक्रिया से इहाता या अहाता जैसे रूप बनते हैं ।
ल सईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक अरबी धातु हा-वाव-थे में मूलतः दीवार, घेरा, बाड़ा, समेटना, समाविष्ट करना, सुरक्षा, रखवाली करना, आरक्षित करना जैसे भाव हैं । इससे बने अहाता / इहाता जैसे शब्दों में घेरा हुआ, बाड़ा लगाना, हर तरफ़ से आरक्षित जैसे भाव हैं । भारतीय परिवेश में इसका प्रयोग आंगन, दालान की तरह ही ज्यादा होता रहा है । जैसे मेम्वार्ज ऑन द हिस्ट्री, फोकलोर, एंड डिस्ट्रीब्यूश ऑफ द रेसेस ऑफ द नॉर्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज़ ऑफ इंडिया (1869) में सर हेनरी मायर्स इलियट ने हाता के लिए परिसर, दालान, आंगन, प्रिमिसेस, कम्पाऊंड जैसे शब्द बताते हुए इसे अरबी के इहाता का बिगड़ा रूप बताया है ।
जॉन शेक्सपियर की हिन्दुस्तानी – इंग्लिश डिक्शनरी के मुताबिक इसमें फेंसिंग, बंद, घिरे हुए या अवरुद्ध क्षेत्र का भाव है । मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के कोश के मुताबिक अरबी का इहाता एक घर भी हो सकता है या चारदीवारी भी । इसमें वेष्ठन, प्राचीर के अलावा इलाक़ा, प्रदेश क्षेत्र या हलक़ा जैसे आशय भी वे बताते हैं । हिन्दी शब्दसागर में भी चारदीवारी के साथ साथ हाता में क्षेत्रवाची व्यापक अर्थवत्ता बताई गई है । इसका अर्थ प्रान्त, हलका या सूबा भी होता है जैसे बंबई हाता, या बंगाल हाता । इसके अलावा इसमें सरहद, सीमान्त या रोक जैसे भाव भी हैं । बाडा, चकला, मोहाल, कटरा, चक जैसा ही इलाक़ाई विशेषण भी हाता में है जैसे पंडित हाता, बाभन हाता, कुरमी हाता, हाता चौक आदि ।
हाता, हाता, इहाता आश्रय व्यवस्था से जुड़ी शब्दावली के शब्द हैं । दुनियाभर की सभ्यताओं में मनुष्य ने विकासक्रम में सबसे पहले घिरे हुए स्थान में ही आश्रय तलाशा । प्राकृतिक रूप से किसी जगह के घिरे होने की वजह से उसे उस स्थान का रक्षात्मक महत्व समझ में आया और फिर आगे चल कर वह खुद भी किसी स्थान के चारों ओर उसी तरह के सुरक्षात्मक सरंजाम जुटाने लगा । पहले कंदरा, फिर बाड़ा, फिर झोपड़ी और कालान्तर में भवन, क़िले आदि भी वह बनाने लगा । इस सबके मूल में सुरक्षा का भाव ही प्रमुख था । अरबी धातु हा-वाव-थे यानी ط- و- ح की कोख से एक और महत्वपूर्ण शब्द जन्मा है एहतियात जिसमें सावधानी, ख़बरदारी, होशयारी का भाव है । यूँ भी कह सकते हैं कि अहाते की तामीर इन्सान ने एहतियातन की । “ एहतियात बरतना”या “एहतियात बरतते हुए” जैसे वाक्य आम बोल-चाल में सुने जाते हैं ।

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Wednesday, January 2, 2013

क़िस्त दर क़िस्त…

Money
हि न्दी के बहुप्रयुक्त शब्दों में क़िस्त का भी शुमार है हालाँकि अक्सर ज्यादातर लोग ‘क़िस्त’ को ‘किश्त’ लिखने और बोलने के आदी हैं । ‘प्रसाद’ तथा ‘सौहार्द’ के ग़लत रूप ( प्रशाद, सौहार्द्र ) भी इसी तरह ज्यादा प्रचलित हैं । हिन्दी में क़िस्त का आशय हिस्सा, भाग, आंशिक भुगतान, होता है । इसके अलावा इसमें न्याय या इन्साफ़ की अर्थवत्ता भी है । यूँ तो क़िस्त शब्द हिन्दी में बरास्ता फ़ारसी आया है और शब्दकोशों में इसकी हाजिरी अरबी के खाते में नज़र आती है । यह बहुरूपिया भी है और यायावर भी । खोज-बीन करने पर अरबी के कोशों में इसे ग्रीक भाषा का मूलनिवासी माना गया है । देखते हैं किस्त की जनमपत्री । 

हिन्दी में किस्त का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रयोग कई हिस्सों में भुगतान के लिए होता है । आजकल इसके लिए इन्स्टॉलमेंट या इएमआई शब्द भी प्रचलित हैं मगर किस्त कहीं ज्यादा व्यापक है । भुगतान-संदर्भ के अलावा मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के अनुसार किस्त में सामान्य तौर पर किसी भी चीज़ का अंश, हिस्सा, टुकड़ा, portion या भाग का आशय है । अरबी कोशों में अंश, हिस्सा, पैमाना, पानी का जार या न्याय जैसे अर्थ मिलते हैं । न्याय में निहित समता और माप में निहित तौल का भाव किस्त में है और इसीलिए कहीं कहीं किस्त का अर्थ न्यायदण्ड या तुलादण्ड भी मिलता है । 

बसे पहले क़िस्त के मूल की बात । अरबी कोशों में क़िस्त को अरबी का बताया जाता है जिसकी धातु क़ाफ़-सीन-ता (ق س ط) है । हालाँकि अधिकांश भाषाविद् अरबी क़िस्त का मूल ग्रीक ज़बान के ख़ेस्तेस से मानते हैं जिसका अर्थ है माप या पैमाना । लैटिन ( प्राचीन रोम ) में यह सेक्सटैरियस (Sextarius) है । ग्रीक ज़बान का ख़ेस्तेस, लैटिन के सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप है । यूँ ग्रीक भाषा लैटिन से ज्यादा पुरानी मानी जाती है मगर भाषाविदों का कहना है कि सेक्सटैरियस रोमन माप प्रणाली से जुड़ा शब्द है । यह माप पदार्थ के द्रव तथा ठोस दोनों रूपों की है । सेक्सटेरियस दरअसल माप की वह ईकाई है जिसमें किसी भी वस्तु के 1/6 भाग का आशय है । समूचे मेडिटरेनियन क्षेत्र में मोरक्को से लेकर मिस्र तक और एशियाई क्षेत्र में तुर्की से लेकर पूर्व के तुर्कमेनिस्तान तक ग्रीकोरोमन सभ्यता का प्रभाव पड़ा । खुद ग्रीक और रोमन सभ्यताओं ने एक दूसरे को प्रभावित किया इसीलिए यह नाम मिला । 

सेक्सटैरियस में निहित ‘छठा भाग’ महत्वपूर्ण है जिसमें हिस्सा या अंश का भाव  तो है ही साथ ही इसका छह भी खास है । दिलचस्प है कि सेक्सटैरियस में जो छह का भाव है वह दरअसल भारोपीय धातु सेक्स (seks ) से आ रहा है । भाषाविदों का मानना है कि संस्कृत के षष् रूप से छह और षष्ट रूप से छट जैसे शब्द बने  । अवेस्ता में इसका रूप क्षवश हुआ और फिर फ़ारसी में यह शेश हो गया । ग्रीक में यह हेक्स हुआ तो लैटिन में सेक्स, स्लोवानी में सेस्टी और लिथुआनी में सेसी हुआ । आइरिश में यह छे की तरह ‘से’ है । अंग्रेजी के सिक्स का विकास जर्मनिक के सेच्स sechs से हुआ है । सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप ही ग्रीक में खेस्तेस हुआ । खेस्तेस की आमद सबसे पहले मिस्र मे हुई। 

मझा जा सकता है कि इसका अरब भूमि पर प्रवेश इस्लाम के जन्म से सदियों पहले हो चुका था क्योंकि अरब सभ्यता में माप की इकाई को रूप में क़िस्त का विविधआयामी प्रयोग होता है । यह किसी भी तरह की मात्रा के लिए इस्तेमाल होता है चाहे स्थान व समय की पैमाईश हो या ठोस अथवा तरल पदार्थ । हाँ, प्राचीनकाल से आज तक क़िस्त शब्द में निहित मान इतने भिन्न हैं कि सबका उल्लेख करना ग़ैरज़रूरी है । खास यही कि मूलतः इसमें भी किसी पदार्थ के 1/6 का भाव है जैसा कि पुराने संदर्भ कहते हैं । आज के अर्थ वही हैं जो हिन्दी-उर्दू में प्रचलित हैं जैसे फ्रान्सिस जोसेफ़ स्टैंगस के कोश के अनुसार इसमें न्याय, सही भार और माप, परिमाप, हिस्सा, अंश, भाग, वेतन, किराया, पेंशन, दर, अन्तर, संलन, संतुलन, समता जैसे अर्थ भी समाए हैं । क़िस्त में न्याय का आशय भी अंश या भाग का अर्थ विस्तार है । कोई भी बँटवारा समान होना चाहिए । यहाँ समान का अर्थ 50:50 नहीं है बल्कि ऐसा तौल जो दोनों पक्षों को ‘सम’ यानी उचित लगे । यह जो बँटवारा है , वही न्याय है । इसे ही संतुलन कहते हैं और इसीलिए न्याय का प्रतीक तराजू है । 

हाँ तक क़िस्त के किश्त उच्चार का सवाल है यह अशुद्ध वर्तनी और मुखसुख का मामला है । वैसे मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश में किश्त का अलग से इन्द्राज़ है । किश्त मूलतः काश्त का ही एक अन्य रूप है जिसका अर्थ है कृषि भूमि, जोती गई ज़मीन आदि । काश्तकार की तरह किश्तकार का अर्थ है किसान और किश्तकारी का अर्थ है खेती-किसानी । किश्तः या किश्ता का अर्थ होता है वे फल जिनसे बीज निकालने के बाद उन्हें सुखा लिया गया हो । सभी मेवे इसके अन्तर्गत आते हैं । किश्त और काश्त इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है । फ़ारसी के कश से इसका रिश्ता है जिसमें आकर्षण, खिंचाव जैसे भाव हैं । काश्त या किश्त में यही कश है । गौर करें ज़मीन को जोतना दरअसल हल खींचने की क्रिया है । कर्षण यानी खींचना । आकर्षण यानी खिंचाव । फ़ारसी में कश से ही कशिश बनता है जिसका अर्थ आकर्षण ही है ।
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Sunday, December 9, 2012

सुरख़ाब के पर

surkhab

कि सी अद्वितीय गुण, ध्यान आकर्षित करने वाली विशेषता या विलक्षणता की अभिव्यक्ति के लिए “सुरखाब के पर” मुहावरा बोलचाल की भाषा में खूब इस्तेमाल होता है मसलन “ इंदौर में क्या सुरख़ाब के पर लगे हैं जो भोपाल में गुज़र नहीं हो सकती? ” सुरख़ाब यानी हंस की प्रजाति का एक पक्षी जिसके पखों की खूबसूरती की वजह से प्राचीनकाल से इस पखेरु को ख़ास रुतबा मिला हुआ है । हंस जहाँ सफेद रंग के होते हैं वहीं सुरखाब अपनी पीली, नारंगी, भूरी, सुनहरी व काली रंगत के पंखों की वजह से अत्यधिक आकर्षक होते हैं । ख़ूबसूरत, मुलायम, रंगीन पंखों का उपयोग कई तरह के परिधानों में होता रहा है जिसकी वजह से दुनियाभर में इनका अंधाधुंध शिकार होने से अब सुरख़ाब दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों में हैं और इसके शिकार पर पाबंदी है ।
सुऱखाब को अंग्रेजी में रूडी शेलडक Ruddy Shelduck कहते हैं जिसका अर्थ है रंगीन हंस । अंग्रेजी के रूडी शब्द में रक्ताभ, सुर्ख या चटक का भाव है । डक यानी बतख । यूँ देखें तो इसे सुर्ख़+आब यानी सुर्खाब कहना ग़लत नहीं है । मगर यह इसकी व्युत्पत्ति का आधार नहीं है । रंगों के संदर्भ मे चटक, गहरा या तेज़ भाव वाला सुर्ख़ शब्द हिन्दी में फ़ारसी से आया और यह संस्कृत के शुक्र का रूपान्तर है । रंग से ताल्लुक रखती एक और महत्वपूर्ण बात । वैदिक शब्दावली में अनेक शब्द हैं जिनमें एक साथ सफ़ेद, पीला, लाल, हरा और कभी कभी भूरे रंग का भाव उभरता है । संदर्भों के अनुसार उस रंग का आशय स्वतः स्पष्ट होता जाता है । इसीलिए कांति या दीप्ति की अर्थवत्ता वाले शब्दों में प्रायः इन सभी रंगों का भी बोध होता है । संस्कृत के शुक्र में जहाँ श्वेताभ, पीताभ, रक्ताभ जैसी अर्थवत्ता रखता है वहीं फ़ारसी में शुक्र से बने सुर्ख़ में चटकीला लाल ही रूढ़ हुआ । सुरख़ाब में सुर्ख़ की कोई भूमिका नहीं है । जिस तरह चक्र से सुर्ख़ बना उसी तरह इसी सुरख़ाब के मूल में संस्कृत का चक्रवाक है ।
संस्कृत में सुरख़ाब chakravak का एक नाम हिरण्य हंस भी है । हिरण्य यानी सोना अर्थात सुनहरी हंस । सुरख़ाब के संस्कृत में अन्य कई नाम भी हैं जैसे चक्रवाक, रथचरण, वियोगिन, द्विक, अवियुक्त, हरिहेतिहूति, द्वन्द्वचर, निशाचर, भूरिप्रेमन्, द्वन्द्वचारिन्, गोनाद, रथाङ्ग, नादावर्त आदि । इसी तरह हिन्दी में इसे कोक, कोकहर, कोकई, चकई, चक्कवा, चाकर, चकवाह कहते हैं । प्राकृत में इसे रहंग कहा गया है और मराठी में इसका एक नाम ब्राह्माणी बदक Brahminy Duck भी है । सुरख़ाब दरअसल संस्कृत के चक्रवाक का फ़ारसी रूपान्तर है । ध्वनिपरिवर्तन के साथ अनुमानित विकासक्रम– चक्रवाक > शक्रवाक > शर्कवाब > सर्खवाब होते हुए सुरख़ाब हुआ होगा ।
हिरण्य हंस या सुनहरी हंस के चक्रवाक नामकरण के पीछे दरअसल रंग नहीं बल्कि उसकी विशेष आवाज़ है । मराठी संदर्भों के मुताबिक चक्रवाक नामकरण के पीछे संस्कृत में ‘चक्र इव वाक् शब्दोऽस्य रथाङ्गतुल्यावयन’ कारण बताया गया है । इसका मतलब हुआ रथ के चक्के में चिकनाई (लुब्रिकेंट) न डाले जाने पर जिस तरह किर-किर, खर-खर ध्वनियाँ पैदा होने से किरकिराहट की आवाज़ आती है, चक्रवाक भी अपने गले से वैसी ही आवाज़ निकालता है । संस्कृत में चक्र यानी चक्का और वाक् यानी आवाजा इस तरह चक्र + वाक = चक्के जैसी (रथ के पहिए समान) आवाज़ निकालने वाला पक्षी । चक्रवाक का एक अन्य नाम रथाङ्ग से भी यह स्पष्ट है । कर्नाटक संगीत में इस पक्षी के नाम पर एक राग-चक्रवाकम् Chakravakam भी है । 
प्राचीन कवियों के शृंगार-वर्णन में चक्रवाक का कई बार उल्लेख आता है । नर पक्षी को चक्रवाक और मादा को चक्रवाकी कहते हैं । हिन्दी में चकवा, चकवी (चक्रवाक > चक्कवा > चकवा / चक्रवाकी > चक्कवी > चकवी-चकई ) जैसे शब्द इससे ही बने हैं । चकवा-चकवी शाश्वत प्रेम प्रतीक हैं । दिनभर साथ रहने के बाद चक्रवाक और चक्रवाकी अलग अलग हो जाते हैं और रातभर विरह की अकुलाहट में कुर-कुर ध्वनि करते रहते हैं । मराठी संदर्भों में यह ध्वनि “ आंङ्ग-आङ्ग” बताई गई है । हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में “चक्रवाक-मिथुन (चकवा-चकई)” शीर्षक आलेख में इस पक्षी के बारे में विस्तार से लिखा है । चक्रवाक chakravak  शरत्काल में भारत के जलाशयी क्षेत्रों में नज़र आता है और शेषकाल में यह अपने पर्यावास में लौट जाता है । स्वभावतः ये जोड़े में रहने वाला पक्षी ( रूडी शेल्डक ) है और मादा एक बार में 50-60 अंडे देती है ।
सम्बन्धित कड़ी- सुर्ख़ियों में शुक्र 

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Monday, October 29, 2012

रफूगरी, रफादफा, हाजत-रफा

पिछली कड़ियाँ- 1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.darn 4. दफ़ा हो जाओ 

हि न्दी की अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने में विदेशज शब्दों के साथ-साथ युग्मपद और मुहावरे भी है शामिल हैं । रफ़ा-दफ़ा ऐसा ही युग्मपद है जिसका बोलचाल की भाषा में मुहावरेदार प्रयोग होता है । “रफ़ा-दफ़ा करना” यानी किसी मामले को निपटाना, किसी झगड़े को सुलझाना, विवादित स्थिति को टालना, दूर करना । रफ़ा-दफ़ा में नज़र आ रहे दोनो शब्द अरबी के हैं । यहाँ ‘दफ़ा’ का अर्थ ढकेलने, दूर करने से है । इसकी विस्तृत अर्थवत्ता के बारे में पिछली कड़ी में बात की जा चुकी है । रफा ( रफ़ा ) का मूल अरबी उच्चारण रफ़्अ है । फ़ारसी में भी इसका ‘रफ़्अ’ रूप ही इस्तेमाल होता है
फ्अ शब्द की अरबी धातु रा-फ़ा-ऐन ر-ف-ع है जिसमें मूलतः उन्नत करने, सुधारने, ठेलने का भाव है । अरबी क्रियापद है रफ़ाआ जिसमें मरम्मत करना, सुधारना, सीना, ठीक करना, उन्नत करना, तब्दील करना, हटाना जैसे भाव हैं । रफ़ा-दफ़ा में यही भाव है । आमतौर पर हाज़त-रफ़ा पद का प्रयोग भी शौच जाने के अर्थ में उत्तर भारत में इस्तेमाल होता है । जैसे “उनके लिए सुबह सुबह हाजत-रफा करना बड़ा मुश्किल काम था” । इसी कड़ी में आता है ‘रफू’ या ‘रफ़ू’ शब्द । सिलेसिलाए वस्त्र में खोंच लगने पर रफ़ू किया जाता है । इसक अन्तर्गत फटे हुए स्थान की खास तरीके से मरम्मत की जाती है । इसमें बारीक सुई से, जिस कपड़े की मरम्मत होनी है, उसी के अनावश्यक टुकड़े और धागे निकाल कर फटे हुए स्थान को इस खूबी से सिला जाता है कि सिलाई का पता नहीं चलता । यह सिलाई का हुनर है कि मरम्मतशुदा हिस्सा भी कपड़े के टैक्सचर ( बुनावट ) से मेल खाता लगता है ।
रअसल फटे कपड़ों की मरम्मत से विकसित हुई सिलाई की खास तकनीक ने धीरे धीरे कला का रूप ले लिया । फ़ारस में इसका विकास हुआ और मरम्मत के सामान्य उपाय से रफ़ू एक कलाविधा बन गई । फ़ारसी में इसे रफ़ूगरी कहते हैं । रफ़ूगरी यानी रफ़ूकारी । फ़ारसी में ‘करने’ के संदर्भ में ‘गरी’ और ‘कारी’ प्रत्यय प्रचलित हैं । भारोपीय भाषाओं में ‘क’ का रूपान्तर ‘ग’ वर्ण में होता है । वैदिक क्रिया ‘कृ’ इसके मूल में है जिसमें करने का भाव है । इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इनका प्रयोग देखने को मिलता है जैसे - कर ( बुनकर ) , कार ( कर्मकार, कलाकार, कुम्भकार ) , कारी ( कलाकारी , गुलकारी , फूलकारी ) , गार ( गुनहगार, रोज़गार ), गर ( रफ़ूगर, कारीगर, बाजीगर ) , गरी ( कारीगरी, रफ़ूगर, बाजीगरी ) आदि उदाहरण आम हैं । सो खोंच से बने छिद्र को उसी वस्त्र के टुकड़े और उसी के धागे से पूरने, भरने, बराबर करने की हुनरकारी ही रफ़ूगरी है । इस मुक़ाम पर रफ्अ में निहित सुधारने, उन्नत करने जैसे भावों को समझना आसान होगा ।
फ़ूगरी का कला के रूप में इतना विकास हुआ कि न सिर्फ़ फटे कपड़े की मरम्मत बल्कि गोटा-किनारी कशीदाकारी, फुलकारी जैसे सजावटी हुनर के रूप में भी कपड़ों को खूबसूरत बनाने में रफ़ूगरी का उपयोग होने लगा । सामान्य समस्या से निपटने की तरकीबें कैसे मूल्यवान हो जाती हैं, यह जानना दिलचस्प है । फटे कपड़े की मरम्मत थिगला लगा कर भी होती है । यह थिगला आज पैचवर्क जैसी कलाविधा के रूप में मशहूर है जो रफ़ूगरी का ही एक रूप है । रफ़ू का महत्व इतने पर ही खत्म नहीं हुआ । रफ्अ में सुधारना, उन्नत करना जैसे भावों के चलते ही रफ़ू शब्द का प्रयोग वाग्मिता या वक्तृत्व कला में भी होने लगा है । बातों के बाजीगरों को रफ़ूगरी भी आनी चाहिए । अपने तर्कों से दो असम्बद्ध बातों को मिला देना या वाक्पटुता के चलते अलग-अलग पटरी पर चल रहे वार्तलाप को सही दिशा में ले आना या विवाद को खत्म करना इसी रफ़ूगरी में आता है । ऐसे लोगो की वजह से ही ज़बानी विवाद रफ़ा-दफ़ा हो पाते हैं । कुल मिलाकर यह भी उन्नत तकनीक का मामला है ।
शब्द का इस्तेमाल एक अन्य लोकप्रिय युग्मपद में भी बखूबी नज़र आता है । रफूचक्कर या रफ़ूचक्कर भी हिन्दी का लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है चम्पत हो जाना, भाग जाना अथवा गायब हो जाना । रफ़ू की अर्थवत्ता समझ लेने के बाद रफ़ूचक्कर को समझना कठिन नहीं है । खोंच लगे स्थान पर रफ़ू करने के दो तरीके होते हैं । छोटा खोंच है तो उसी वस्त्र के धागे से सिलकर छिद्र को भर दिया जाता है । खोंच बड़ा है तो फटे स्थान पर उसी कपड़े का थिगला लगा कर गोलाई में रफ़ू कर दिया जाता है । माना जा सकता है कि चकरीनुमा इस थिगले से ही रफ़ूचक्कर शब्द निकला होगा । रफ़चक्कर में खोंच के गायब हो जाने के भाव का विस्तार है । इसका प्रयोग किसी भी चीज़ के देखते देखते ग़ायब हो जाने में होने लगा । चोरों और उठाईगीरों के सन्दर्भ में आज  रफ़ूचक्कर का इस्तेमाल ज्यादा होता है ।

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Saturday, October 27, 2012

‘दफा’ हो जाओ …

पिछली कड़ियाँ-kicked out1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.
मयवाची शब्दों की कड़ी में इस बार अरबी के ‘दफा’ शब्द की बात । रोजमर्रा की बोली भाषा में ‘बार-बार’ इस्तेमाल होने वाले शब्दों में ‘बार-बार’ का ‘बार’ भी शामिल है जैसे - ‘इस बार’, ‘उस बार’, ‘कई बार’, ‘हर बार’, ‘मेरी बारी’, ‘तेरी बारी’, ‘उसकी बारी’, ‘बारी-बारी’ आदि । इसी कड़ी में ‘बार’ का एक और पर्याय है ‘दफा / दफ़ा’ जिसका इस्तेमाल भी बार की तर्ज़ पर ही होता है मसलन ‘इस दफ़ा’, ‘उस दफ़ा’, ‘हर दफ़ा’, मगर ‘दफ़ा’ का इस्तेमाल और अलग अर्थों में भी होता है । किसी को चलता करने के लिए कहा जाता है “दफ़ा हो जाओ” । अगर कोई ‘दफ़ा’ होने को राज़ी न हो तो मुमकिन है कानून की ‘दफ़ा’ लगाने की नौबत आ जाए । ये सभी दफ़ा एक ही सिलसिले की कड़ियाँ हैं । दफ़ा का प्रयोग दफे की तरह भी होता है जैसे “पहली दफ़े…”।

हिन्दी में ‘दफ़ा’ शब्द का प्रयोग फ़ारसी के ज़रिए शुरू हुआ । फ़ारसी में इसकी आमद अरबी से हुई जिसमें इसका सही रूप ‘दफ्अ’ है । दफ़्अ की व्युत्पत्ति अरबी की d-f-a ( दा-फ़ा-ऐन ) त्रिअक्षरी धातु से हुई है । भाषाविज्ञानियों का मानना है कि मूलतः यह अक्कादी भाषा का शब्द है । अक्कादी में ‘प’ ध्वनि  है और अरबी में ‘फ’ है , ‘प’ नहीं । अक्कादी में इसका रूप d-p-a ( दा-पे-ऐन ) है जिसमें धकेलने ( बाहर की ओर ) की बात उभरती है । अरबी में दफ़्अ में भी धकेलने ( बाहर निकालने ) का भाव है । गौरतलब है कि संस्कृत की समयवाची क्रियाओं में भी गति, शक्ति, प्रवाह के आशय निकलते हैं । संस्कृत की वा-या क्रियाओं में गतिवाची भाव है मगर इनसे समयवाची शब्द भी बने हैं ।  अरबी के दफ़ा शब्द की अर्थवत्ता के नज़रिए से काफी पेचीदा है । कहीं यह प्रवाहवाची नज़र आता है और प्रकारान्तर से कही इसी वजह से इसमें समूहवाची अर्थवत्ता उभर आती है ।

फ़्अ का हिन्दी, फ़ारसी में दफ़ा रूप प्रचलित है । हिन्दी में नुक़ता नहीं होता तो भी दफा में नुक़ता लगाया जाना चाहिए । अलसईद एम बदावी की कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक दा-फ़ा-ऐन में प्रवाह, झोंका, बौछार, धारा, धावा जैसे भाव हैं । इससे बने दफ्अ में धावा, हमला या चढ़ दौड़ने, टूट पड़ने के साथ-साथ बचाव करने, रोकने का आशय भी है । मराठी में भी दफा शब्द है । करीब साढ़े तीन सौ साल पहले शिवाजी ने पंडित रघुनाथ हणमंते से शासन-व्यवहार में प्रचलित अरबी-फ़ारसी शब्दों की सूची बनवाई थी ( राजव्यवहार कोश ), उसमें भी दफा शब्द का उल्लेख है । कृ.पा. कुलकर्णी के कोश के मुताबिक इसमें समय और पाली का आशय है साथ ही दफ़ा शब्द का अर्थ सेना की पंक्ति, टुकड़ी भी है । खासतौर पर घुड़सवार टुकड़ी का इसमें आशय है ।
हिन्दी-मराठी-गुजराती में दफ़ेदार एक उपनाम भी होता है जिसका रिश्ता मुग़लदौर की सैन्य शब्दावली से हैं । दफ़ा शब्द का अर्थ प्रभावी या ताक़तवर व्यक्ति भी है । फ़ैलन के कोश में इसका एक फ़ारसी रूप दफ़े  है जिसमें फौजी टुकडी, सेना का घुड़सवार दस्ता अथवा पैदल टुकड़ी का आशय है । इससे ही दफ़ेदार शब्द बना है अर्थात किसी सैन्य दल का सरदार । रियासती दौर में दफ़ेदार होना सम्मान की बात थी । जनरल से जरनैलसिंह और कर्नल से करनैलसिंह की तरह ही सैन्य जातियों में ‘दफ़ेदार’ नाम रखने की परम्परा भी रही है । गौर करें ये सभी आशय मूलतः अरबी के ‘दफ्अ’ में निहित प्रवाहवाची ( धकेलना ) अर्थ से ही विकसित हुए हैं । सेना की टुकड़ी धावा ही करती है । गति, वेग और प्रवाह को फौजी धावे के सन्दर्भ में समझा जा सकता है ।
फ़ा में निहित समय, बारी, समूह, धक्का, वेग, टुकड़ी, पिण्ड, हटाना, हमला जैसे तमाम अर्थों को देखने पर मूल दफ्अ में निहित धकेलने का आशय ही उभर कर आता है । ध्यान रहे  धकेलने की क्रिया से दबाव बनता  है । दबाव से जमाव पैदा होता है । यही बात दफ़ा में समूह, टुकड़ी, खण्ड, पिण्ड आदि की अर्थवत्ता पैदा करती है । अरबी में दफ़्अ का एक अर्थ हाथी की लीद ( पिण्ड )भी होता है । इसमें जमाव और धकेल कर बाहर निकाले जाने के भाव को समझा जाना चाहिए । फ़ौजी टुकड़ी के मुखिया को दफ़ेदार इसलिए कहा जाता है क्योंकि दफ़ा में समूह का भाव है । यह टुकड़ी दुश्मन की फोज को पीछे धकेलती है । तेजी से आगे बढ़ती है ।  छत्तीसगढ़ के कोयलांचल में मज़दूर बस्ती को दफाई कहा जाता है । यह दफाई मनुष्यों का समूह या दल ही है । स्टैंगास की अरेबिक डिक्शनरी के मुताबिक दफ़ाफ का अर्थ परिवार, बस्ती या समूह है । अरबी में जमाअत का अर्थ भी दल या समूह है । दलपति या दलनायक को जमाअतदार कहा जाता था । बाद में इसका रूपान्तर जमादार हो गया । कहने का तात्पर्य यही कि दफ़ेदार में जमादार का ही भाव है ।
फ़ा का हिन्दी-उर्दू में कालवाची अर्थ में ही ज्यादातर प्रयोग होता है । दफ़ा के समूहवाची अर्थ में ढलने की प्रक्रिया को समझने के बाद दफ़ा यानी बार-बार, बारी अर्थात turn, मौका अवसर, समय आदि भावों को समझना आसान है । समय की गति सीधी सपाट नहीं बल्कि घुमावदार है । दिन-रात 12-12 घंटों में विभाजित है और 24 घंटों बाद यही क्रम फिर शुरू होता है । सप्ताह सात दिन का और महिना तीस दिन का । एक अन्तराल के बाद फिर वही क्रम शुरू होता है । यह वृत्ताकार है । यह जो मुड़ कर लौटने की क्रिया  है, यही बारी या टर्न है । पहला क्रम खत्म होने के बाद फिर वही क्रम शुरू होने को बारी कहते हैं । इस तरह ‘बारी’ समय का वह अंश, हिस्सा या खण्ड है जिसकी पुनरावृत्ति हो रही है । ध्यान दें, पुनरावृत्ति में ‘वृत्त’ ही है जिसके मूल में वर् है । वर् में घुमाव है जिससे एक दिन के अर्थ वाला वार बन रहा है । वार का फ़ारसी रूप ही ‘बार बार’  वाला बार है । पुनरावृत्ति का वृत्त या मोड़ वही है जिसे ‘बारी’ कहते हैं, इसका आशय कालांश, कालखंड से भी लगाया जा सकता है । बारम्बारता के लिए दफ्अतन का प्रयोग भी होता है, जिसमें दफ्अ या दफ़ा साफ़ पहचाना जा सकता है। दफ़ा का बहुवचन दफ़ात होता है। उसमें ‘अन’ प्रत्यय जुड़ने से कर्मकारक दफ्अतन बनता है जिसका अर्थ है समय समय पर, अक्सर, हमेशा, बार-बार, बहुधा आदि।
ई समूह किसी न किसी बड़ी रचना के हिस्से होते हैं । सो दफ़ा एक टुकड़ी भी है, समूह भी है, जमाव भी है, दल भी है । कई इकाइयों से समूह बनता है और कई समूहों की स्थिति में हर समूह एक इकाई होता है । समूह के रूप में इकाई एक पिण्ड, खण्ड, अनुच्छेद, प्रभाग आदि है । दफ़ा का अर्थ अनुच्छेद, धारा, अनुभाग, भाग आदि भी होता है । न्याय व्यवस्था में दफ़ा शब्द का प्रयोग होता है । हिन्दी में जिसे धारा हैं, रियासती दौर में उसे दफ़ा कहा जाता था । आज भी यह प्रचलित है । दफ़ा 302 का आशय भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 से है । हिन्दी-उर्दू में दफ़ा ( दफ्अ ) शब्द का एक अर्थ दूर करना, चले जाने का आदेश देना । मूलतः इसमें धकेलने वाले भाव का विस्तार ही है । धकेलने की क्रिया में दूर करने का भाव है । व्यावहारिक रूप में यह तिरस्कार है । ‘दफ़ान हो जाओ,’ ‘दफ़ा हो जाओ’ वाक्यों में तिरस्कार की नाटकीय अभिव्यक्ति देखने को मिलती है । इसका प्रयोग खुद चले जाने जाने के लिए भी होता है जैसे “मैं तो दफ़ा होता हूँ”अगली कड़ी में-  ‘रफ़ा-दफ़ा’ की बात
इन्हें भी देखें-1.फसल के फ़ैसले का फ़ासला.2.सावधानी हटी, दुर्घटना घटी.3.क़िस्मत क़िसिम-क़िसिम की.4.चरैवेति-चरैवेति.5.दुर्र-ऐ-दुर्रानी.6.कमबख़्त को बख़्श दो !.7.चोरी और हमले के शुभ-मुहूर्त.8.मौसम आएंगे जाएंगे.9.बारिश में स्वयंवर और बैल.10.साल-दर-साल, बारम्बार.11.नीमहकीम और नीमपागल.12.कै घर , कै परदेस !.13.सरमायादारों की माया [माया-1] .14.‘मा’, ‘माया’, ‘सरमाया’
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Monday, October 22, 2012

‘बुनना’ है जीवन

bayaज़रूर देखें-1. चादर. 2.प्रवीण.3. तन्तु.4. धागा. 5.बाँस.6.कातना.7. सूत 

जी वन का बुनाई से गहरा रिश्ता है । “झीनी झीनी बीनी चदरिया” वाली कबीर की जगप्रसिद्ध उक्ति में चादर ज़िंदगी का प्रतीक है । परमात्मा ने जीवनरूपी चादर को जितनी शिद्धत और मेहनत से महीन अंदाज़ में बुना था उसे सुर-नर-मुनि ने ओढ़ कर मैला कर दिया । कबीर बड़े समझदार हैं, उन्हें ज़िंदगी की कीमत पता है, सो इस चादर को उन्होंने इतने जतन से ओढ़ा कि खुद के साथ साथ पूरे ज़माने को संवार दिया । “दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया”। कबीर जुलाहे थे, बुनकारी जानते थे । इसीलिए उन्होंने ज़िंदगी के लिए चादर जैसा सहज प्रतीक चुना । जन्म लेने के बाद हम सब महीन की बजाय मोटा कातते हैं, महीन की बजया  मोटो बुना जाता है । नतीजतन सुख नहीं मिलता । सुख की उधेड़बून में चादर मैली और जर्जर हो जाती है । इसलिए जिंदगी को सलीके से, महीन बुना जाना चाहिए । हि्न्दी के ‘वय’ शब्द का बुनाई से गहरा रिश्ता है ।
म्र या आयु के लिए हिन्दी में ‘वय’ शब्द भी प्रचलित है । मराठी में उम्र, आयु की तुलना में वय शब्द ज्यादा प्रचलित है । संस्कृत कोशों के अनुसार ‘व’ वर्ण में गति (वह > वहन > बहना या वेग), घर ( वास > आवास, निवास ), कपड़ा ( वस् > वस्त्र ) और बुनना (वयन) जैसे भाव हैं । इसके अतिरिक्त भुजा जो भार उठाती है ( वाह > बांह ) भी इसका अर्थ है । संस्कृत की ‘वे’ धातु में गूँथने, बुनने, बटने और बांधने का भाव प्रमुख है । वे का एक अर्थ पक्षी भी होता है क्योंकि वे चुन-चुन कर तिनकों को गूँथते हैं और अपना आवास बनाते हैं । ‘वे’ से ही बनता है वयन जिससे बयन > बउन > बुन > बुनन > बुनना जैसे रूप बने हैं । इससे ही बुनाई, बुनावट, बुनकर शब्दों का विकास हुआ । वस्त्र के अर्थ में बाना शब्द भी इसी कड़ी में आता है ।
मोनियर विलियम्स के अनुसार ‘वे’ धातु से ही बना है संस्कृत का वय शब्द जिसका अर्थ है वह जो बुनता है अर्थात जुलाहा, बुनकर । तन्तुवाय भी तत्सम शब्दावली में आता है जिसका अर्थ है तन्तुओं को बुनने वाला अर्थात जुलाहा । तन्तु से ही ताँत बना है जिसका मतलब होता है धागा और ताँती बुनकरों की एक जाति है । इसी तरह वय में आयु, उम्र का भाव भी है । वय की अगली कड़ी है वयस् आता है जिसका अर्थ है एक विशेष चिड़िया, कोई भी पक्षी, यौवन, आयु की कोई भी अवस्था, शारीरिक ऊर्जा, शक्ति, बल आदि । वय के जुलाहा और वयस के विशिष्ट चिड़िया वाले वाले अर्थ पर गौर करें । एक विशेष चिडिया को बया कहते हैं जो बेहद करीने और सुथरेपन के साथ तिनकों से अपना घोसला बनाती है मानो कलाकृति हो । बया को कारीगर चिड़िया अथवा जुलाहा की संज्ञा भी दी जाती है । बया, वय से ही बना है । घरोंदा किसी भी प्राणी के लिए जीवन को बचाए रखने का ठिकाना होता है । प्रत्येक को घर में ही शरण मिलती है । जीव कोख में पलता है । पैदा होने के बाद भी आश्रय में ही हम जीवन बुनते है । आयु की सार्थकता बीत जाने में नहीं, बुने जाने में है ।
वे में निहित गूँथना, बुनना, बटना जैसे भावों पर गौर करें । इससे ही बना है संस्कृत का वेन् शब्द । इसका एक अन्य रूप है वेण जिसका अर्थ है बाँस का सामान बनाने वाला कारीगर, संगीतकार । वेण से वेणी याद आती है ? वेणी अर्थात लम्बे बालों को गूँथकर बनाई गई शिखरिणी या चोटी । गूँथना भी बुनकारी है । इसी तरह बाँसो की खपच्चियों को भी गूँथकर, बुनकर डलिया, चटाई आदि बनाई जाती हैं । वंशकार जाति के लोग यह काम करते हैं । वेणु यानी बाँस, लम्बी घास की एक प्रजाति, सरकंडा । वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी होता है और चोटी भी । कृष्ण चोटियाँ बांधते थे इसलिए उनका नाम वेणुमाधव या वेणीमाधव भी है । इसका देशी रूप बेनीमाधव हो गया जो घटते घटते सिर्फ ‘बेनी’ रह गया और उधर माधव दुबला होकर ‘माधो’ बन गया । वेणि जहाँ चोटी है वहीं वेणी में चोटी के साथ धारा, नदी का अर्थ भी है । तीन धाराओं को त्रिवेणी कहते हैं ।
सी कड़ी में चर्चा कर लेते है वीणा शब्द की । आपटे कोश में के अनुसार वीणा का अर्थ सारंगी जैसा वाद्य, बीना, बताया गया है और इसकी व्युत्पत्ति ‘वी’ से बताई गई है । इसके अलावा इसका एक अन्य अर्थ विद्युत भी है। संस्कृत की ‘वी’ धातु में जाना, हिलना-डुलना, व्याप्त होना, पहुँचना जैसे भाव हैं। बिजली की तेज गति, चारों और व्याप्ति से भी वी में निहित अर्थ स्पष्ट है। विद्युत की व्युत्पत्ति भी वी+द्युति से बताई जाती है । ‘वी’ अर्थात व्याप्ति और द्युति यानी चमक, कांति, प्रकाश आदि । संस्कृत में वेण् या वेन् शब्द भी मिलते हैं जिनका अर्थ है जाना, हिलना-डुलना या बाजा बजाना । इसी क्रम में वेण् से बने वेण का अर्थ होता है गायक जाति का एक पुरुष । वेन में निहित एँठना, बटना जैसे भावों पर एक वाद्य के संदर्भ में विचार करने से स्पष्ट होता है कि यहाँ आशय तारों को कसने से ही है । प्रायः सभी तन्त्रीवाद्यों के तार घुण्डियों से बंधे रहते हैं जिने घुमा कर, एँठ कर तारों को कसा जाता है जिससे उनमें स्वरान्दोलन होता है ।
भारतीय भाषाओं में ‘न’ का ‘ण’ रूप भी सामान्य सी बात है । जल के अर्थ में पानी को मराठी, मालवी, राजस्थानी में पाणी कहा जाता है । इसी तरह वेन् का ही एक रूप वेण भी प्राचीनकाल में ही प्रचलित रहा होगा । वेन रूप से बीन, बीना जैसे रूप बने होंगे और वेण रूप से वीणा । मूलतः किसी ज़माने में वीणा बाँस से ही बनाई जाती रही होगी । आज भी उसमें बाँस का काफ़ी प्रयोग होता है । बाँस से वेणु अर्थात बाँसुरी भी बनती है । बाँस शब्द से ही बाँसुरी भी बना है और वेणु का अर्थ भी बाँस ही होता है । सो वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी हुआ । इसका रूपान्तर बीन हुआ । गौर करें बाँसुरी की तरह बीन सुषिर वाद्य है । निश्चित ही बाँस से बाँसुरी का आविष्कार आदिम समाजों में बहुत पहले हो गया था । बाँस के लम्बे पोले टुकड़े को जब तन्त्रीवाद्य का रूप दिया गया तो उसे भी इसी शृंखला में वीन्, वीण्, वीणा नाम मिला । वेणु यानी बंसी तो पहले से प्रचलित थी ही । संस्कृत धातु ‘वे’ की अर्थगर्भिता महत्वपूर्ण है जिसमें गति और बुनावट  की अर्थवत्ता है और इन दोनों का मेल ही जीवन है ।

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Tuesday, September 25, 2012

‘वापसी’ का भेद

turn_back

पू र्ववत अथवा ‘पहले जैसा’ वाले भाव को विभिन्न आशयों में व्यक्त करने के लिए हिन्दी में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाला शब्द कौन सा है ? इस सिलसिले में वापस या वापसी जैसी अर्थवत्ता वाला कोई और शब्द हिन्दी में नज़र नहीं आता अलबत्ता ‘लौट’ के क्रियारूपों का वापसी के अर्थ में प्रयोग ज़रूर होता है । कहा जा सकता है कि वापसी जैसी अभिव्यक्ति ‘फिर’ या ‘पुनः’ में भी है । मगर ध्यान रहे, ये पूरी तरह वापस के पर्याय नहीं हैं । “मैं वापस आया हूँ” इस वाक्य को ‘फिर’ या ‘पुनः’ लगाकर “मैं फिर आया हूँ” अथवा “मैं पुनः आया हूँ” भी प्रयोग किया जा सकता है किन्तु “मेरी किताब वापस करो” इस वाक्य में वापस के स्थान पर फिर या पुनः लगाने से मतलब हासिल नहीं होता । हाँ, वापस के स्थान पर ‘लौट’ के रूप लौटा का प्रयोग करते हुए “मेरी किताब लौटा दो” जैसा वाक्य बनाया जा सकता है । हिन्दी की विभिन्न शैलियों और अन्य कई भारतीय भाषाओं में खूब चलने वाले इस शब्द का प्रयोग करते हुए कभी ऐसा नहीं लगता कि इसकी आमद बाहर से हुई है । बोलचाल की हिन्दी में फ़ारसी के जिन शब्दों ने रवानी पैदा की है, उनमें वापस शब्द का भी शुमार है ।
वापस के कुछ प्रयोग देखें- लौट आने के अर्थ में “वापस आना”, गुमशुदा चीज़ मिलने के अर्थ में “वापस पाना”, दोबारा अपने अधिकार में लेने के अर्थ में “वापस लेना”, किसी को लौटाने के अर्थ में “वापस करना” या “वापस देना” जैसे कई वाक्य हम दिन-भर बोलते हैं । वापस से ही वापसी भी बना है । वापसी में भी लौटने, फिर मिलने, दोबारा प्राप्त करने जैसे भाव हैं । जॉन प्लैट्स के कोश में वापस को फ़ारसी मूल का बताया गया है और इसे फ़ारसी के दो पदों- ‘वा’-‘पस’ के मेल से बना बताया गया है । भाषाविदों के मुताबिक ‘वा’ का मूल वैदिक भाषा का प्रसिद्ध उपसर्ग ‘अप’ है जिसमें लौटने का भाव है । ध्यान रहे ईरान की भाषाएँ अवेस्ता, पहलवी जैसे रास्तों से गुज़रती हुई विकसित हुई हैं । फ़ारसी इनमें सबसे प्रमुख और सर्वमान्य है । प्राचीन ईरान में पारसिकों (जरतुश्ती) के धर्मग्रन्थ अवेस्ता में लिखे गए जिसका वेदों की भाषा से बहुत साम्य है । वेदों की भाषा और संस्कृत को लेकर लोगों में भ्रम है और वे उसे संस्कृत कहते हैं । वैदिकी और अवेस्ता को सहोदर माना जाता है, हालाँकि अवेस्ता वैदिक भाषा जितनी पुरातन नहीं है । संस्कृत के ‘अप’ उपसर्ग के समकक्ष अवेस्ता के ‘अप’, लैटिन के ‘अब’-ab, गोथिक के ‘अफ़’-af, अंग्रेजी के ‘ऑफ़’ of के मद्देनज़र भाषाविज्ञानियों ने प्रोटो भारोपीय भाषा की ‘अपो’ apo- धातु की कल्पना की है । फ़ारसी उपसर्ग ‘वा’ में लौटने, फिरने, खुलने, अलग, खिन्न जैसे भाव हैं । अंग्रेजी का पोस्ट post
‘पश्च’ में भी लौटने का भाव है । संस्कृत के पश्च का फ़ारसी समरूप पस है । कावसजी एडुलजी कांगा लिखित अवेस्ता डिक्शनरी के मुताबिक इसका अवेस्ताई रूप भी पश्च ही है । संस्कृत के पश्च शब्द का अर्थ है ‘बाद का’, ‘पीछे का’, आदि । पश्च से ही हिन्दी कई शब्द बने हैं जैसे पीछे, पिछाड़ी, पीछा आदि । पश्च भारोपीय परिवार का एक महत्वपूर्ण शब्द है और इससे अनेक शब्द बने हैं जिन विस्तार से एक अलग आलेख में चर्चा की गई है । वापस में लौटने के भाव में लौटने, फिरने के भाव के पीछे अप से बने फ़ारसी के वा और पश्च से बने पस [अप-wa + पश्च-pas = वापस ] के मेल से जन्मी अर्थवत्ता है । वापस से बना वापसी दरअसल लौटने की क्रिया है जैसे उसकी वापसी हो गई । अब इस वापसी में लौट आने और फिर अपने स्थान पर लौट जाने दोनो तरह के भाव हैं ।

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Wednesday, August 22, 2012

‘मा’, ‘माया’, ‘सरमाया’ [माया-2]

landscape1पिछली कड़ी-सरमायादारों की माया [माया-1] से आगे  

जॉ न प्लैट्स फ़ारसी के ‘मायः’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मातृका’ से जोड़ते हैं पर यह बात तार्किक नहीं लगती । अमरकोश के मुताबिक ‘माया’ शब्द के मूल में वैदिक धातु ‘मा’ है जिसमें सीमांकन, नापतौल, तुलना, अधीन, माप, सम्पन्न, समाप्त, प्रसन्नता, खुशी, आनंद, कटि-प्रदेश, उलझाना, बांधना, ज्ञान, प्रकाश, जादू, तन्त्र, कालगणना आदि भाव हैं । इससे ही बना है ‘माप’ शब्द । किसी वस्तु के समतुल्य या उसका मान बढ़ाने के लिए प्रायः ‘उपमा’ शब्द का प्रयोग किया जाता हैं । यह इसी कड़ी का शब्द है । इसी तरह ‘प्रति’ उपसर्ग लगने से मूर्ति के अर्थ वाला ‘प्रतिमा’ शब्द बना। प्रतिमा का मतलब ही सादृश्य, तुलनीय, समरूप होता है । दिलचस्प बात यह कि फारसी का ‘पैमाँ’, ‘पैमाना’ या ‘पैमाइश’ शब्द भी इसी मूल से जन्मा है । संस्कृत उपसर्ग ‘प्रति’ का समतुल्य फ़ारसी का ‘पैति’ है । प्रति+मान से ‘प्रतिमान’ बनता है उसी तरह ‘पैति+मा’ से ‘पैमाँ’ (पैमान, पैमाना) बनता है । जो हिन्दी में प्रतिमान है वही फ़ारसी में पैमाना है । आयाम का कुछ अप्रचलित पर्याय ‘विमा’ भी इसी ‘मा’ से जन्मा है ।
लैटिन के ‘मेट्रिक्स’ matrix में भी अंतरिक्ष की परिमाप, विस्तार और मातृ सम्बन्धी भाव है । संस्कृत ‘मातृ’ और ‘मेट्रिक्स’ में रिश्तेदारी है । इसका रिश्ता भारोपीय धातु मे ‘me’ से जुड़ता है जिसके लिए संस्कृत मे ‘मा’ धातु है । मेट्रिक्स में स्त्री योनि, उर्वरता, गर्भ जैसे भाव हैं । यहाँ माँ के अर्थ में जननिभाव प्रमुख है और निरन्तर उर्वरता पर गौर करना चाहिए । वैदिक मा में इसके अलावा भी माता, उर्वरता, पृथ्वी, काल, मांगल्य, स्वामित्व, माया, जल जैसे आशय हैं । गौर करें ‘अम्मा’ के मूल में ‘अम्बा’ और प्रकारान्तर से ‘अम्बु’ यानी जल ही है । जल समृद्धि का प्रतीक है । प्रकृति के जलतत्व से ही जीवन सिरजा है । जल में ही जीवन है । इन दोनों मूल धातुओं में नाप, माप, गणना आदि भाव हैं । यानी बात खगोलपिंडों तक पहुँचती है ।
भारतीय परम्परा में ‘मा’ धातु की अर्थवत्ता भी व्यापक है । ‘मा’ धातु में चमक, प्रकाश, माप का भाव है जो स्पष्ट होता है चन्द्रमा से । प्राचीन मानव चांद की घटती-बढ़ती कलाओं में आकर्षित हुआ । स्पष्ट तो नहीं, मगर अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्ववैदिक काल में कभी चन्द्रमा के लिए ‘मा’ शब्द रहा होगा । ‘मा’ के अंदर चन्द्रमा की कलाओं के लिए घटने-बढ़ने का भाव भी अर्थात उसकी ‘परिमाप’ भी शामिल है । गौर करे कि फारसी के माह, माहताब, मेहताब, महिना शब्दों में ‘मा’ ही झाँक रहा है जो चमक और माप दोनों से सम्बन्धित है क्योंकि उसका रिश्ता मूलतः चांद से जुड़ रहा है जो घटता बढ़ता रहता है और इसकी गतियों से ही काल यानी माह का निर्धारण होता है । अंग्रेजी के मंथ के पीछे भी यही ‘मा’ है और इस मंथ के पीछे अंग्रेजी का ‘मून’ moon है ।
गौरतलब है कि सम्पत्ति का सबसे आदिम पैमाना भू-सम्पदा और पशु-सम्पदा ही रहे हैं । दौलत या सरमाया के अर्थ में बाकी चीजें तो सभ्यता के विकास के साथ-साथ शामिल होती चली गईँ । मुद्रा के आविष्कार के बाद सम्पत्ति में गणना की क्रिया भी शामिल हुई । प्राचीन काल में तो ज़मीन ही सम्पदा थी जिसका माप लिया जाता था, पैमाइश होती थी । बसाहट, खेती और अन्ततः आवास के लिए भूमि की नापजोख ज़रूरी थी ।  तो फ़ारसी के ‘सरमाया’ में जो ‘मायः’ है और संस्कृत-हिन्दी में जो ‘माया’ है उसका अभिप्राय धन-दौलत, सम्पदा से ही है । उसी अर्थ में ‘सरमाया’ शब्द का विकास ‘मायः’ से हुआ है । इन दोनो ही ‘माया’ के मूल में वैदिक ‘मा’ है । मनुष्य के पास प्रकृति को समझने लायक बुद्धि का विकास होने तक और उसके बाद भी प्रकृति उसके लिए अजूबा ही रही है । मनुष्य के ज्ञान का विकास प्रकृति को समझते हुए ही हुआ है । दुनिया को समझना ही ज्ञानी होना है । इसीलिए दुनियादारी शब्द में व्यावहारिक बुद्धि का संकेत है । दुनिया का ही व्यापक स्वरूप प्रकृति है ।
'मा' में मूलतः प्रकृति का ही भाव है । संस्कृत में ‘प्रमा’ का अर्थ होता है समझना, जानना, सच्चा ज्ञान, सही धारणा आदि । ‘प्रमा’ का एक अन्य अर्थ मातामही भी होता है । किसी चीज़ की पैमाइश करना, मापना आदि क्रियाएँ जानने-समझने का ही आयाम हैं । सो प्रकृति अपने आप में सम्पदा है । प्रकृति का निरीक्षण, माप-जोख की अभिव्यक्ति मा से होती है । मा की महिमा अपरम्पार है और इसकी अर्थवत्ता की वैविध्यपूर्ण विमाएँ ( आयाम ) ही इसे माया साबित करती है । ‘मा’ में निहित वैविध्यपूर्ण भावों से अर्थमाया की सृष्टि होती है । साफ़ है कि फ़ारसी का ‘मायः’ संस्कृत माया का समतुल्य ही है अलबत्ता मातृका, माया और ‘मायः’ तीनों के मूल में वैदिक ‘मा’ धातु ही है । [समाप्त]

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Wednesday, August 8, 2012

जासूस की जासूसी

Spy

न्सान शुरू से बेहद फ़ितनासिफ़त रहा है । उसे सब कुछ जानना है । एक ओर धरती के पेट में क्या है, यह जानने और फिर उसे निकालने में वह दिन-रात एक किए रहता है, दूसरी तरफ़ चांद-सितारों के पार क्या है इसके लिए बेचैन रहता है । जो कुछ छुपा हुआ है, जो कुछ अदृष्ट है वह सब उसे देखना है, जानना है । जानने की यह चाह ही जासूस की राह बनती है । सामान्य जिज्ञासा रखने से समझदारी के दरवाज़े खुलते हैं और किन्हीं निजी दायरों के भेद जानने कोशिश से जासूसी की कहानी बनती है । इन दायरों की सीमा किसी देश की सरकार और राजनीतिक दल से लेकर घरानों, परिवारों और एक व्यक्ति विशेष तक भी सीमित हो सकती है । दुनिया के सबसे पुराना पेशा देहव्यापार कहा जाता है । हमारा मानना है कि जासूसी को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए ।
किसी के भेद लेना, टोह लेना, गुप्तचरी कराना जैसी क्रियाओं के लिए हिन्दी में जासूसी सबसे ज्यादा लोकप्रिय शब्द है । हिन्दी में जासूस शब्द की आमद फ़ारसी के ज़रिये हुई है मगर यह सामी मूल का शब्द है । अल सईद एम बदावी, अरबी-इंग्लिश डिक्शनरी ऑफ़ कुरानिक यूज़ेज के मुताबिक इसका अर्थ हाथों से परीक्षण करना, जाँच करना, झाँकना, ढूँढना, तलाशना, टोह लेना, भेद लेना, छान-बीन करना जैसी बातें हैं । यह ध्यान देने योग्य है कि ये सभी बातें किसी की निजता के दायरे में करने का आशय इस धातु में निहित है । आज आज जिस अर्थ में जासूस शब्द का प्रयोग होता है निश्चित ही उसका विकास राजनीति के इतिहास के साथ-साथ हुआ । जासूस शब्द अरबी की जीम-सीन-सीन धातु से बना है । बदावी ने इसके लिए j-s-s का प्रयोग किया है जबकि अन्द्रास रज्की इसके लिए g-s-s का प्रयोग करते हैं । हालाँकि दोनों ही स्थानों पर वर्ण का ही संकेत है ।
रबी मूल के जासूस की व्याप्ति कई सेमिटिक और भारोपीय भाषाओं में है जैसे तुर्की में जासुस, अज़रबेजानी में जासूस, स्वाहिली में जासिसी, उज़्बेकी में जोसस है । इसी कड़ी में अरबी का जस्सा शब्द भी है जिसका हिब्रू रूप गिशेश है जिसका अर्थ है परीक्षण करना । मूलतः जासूस शब्द का अर्थ भी छूना, टटोलना, महसूस करना, परीक्षण करना, जाँचना है । मराठी में जासूस को जासूद कहते हैं जिसका मूलार्थ संदेशवाहक, हरकारा या दूत है । जासूस के अर्थ में चोरजासूद शब्द है जो दरअसल गुप्तचर या भेदिया होता है । संदेशवाहकों की जोड़ी जासूदजोड़ी कहलाती है । मराठी में जासूस के लिए हेर, बातमीदार या निरोप्या शब्द भी हैं जबकि संस्कृत-हिन्दुस्तानी में एक लम्बी कतार नज़र आती है जैसे- अपसर्प, हरकारा, अवलोकक, अवसर्प, गुप्तचर, गुरगा, सूचक, गोइंदा, मुखबिर, दूत, चर, चरक, भेदिया, कासिद, जबाँगीर, चारपाल, जरीद, टोहिया, थांगी, पनिहा, प्रणिधि, वनमगुप्त, प्रवृतिज्ञ, वार्तायन, वार्ताहर, प्रतिष्क, संदेशवाहक आदि ।
जासूस के अलावा हिन्दी में भेदिया शब्द भी है जो बना है संस्कृत धातु भिद् से जिसमें दरार, बाँटना, फाड़ना, विभाजित करने जैसे भाव हैं । दीवार के लिए भित्ति शब्द इसी मूल से आ रहा है । कोई भी दीवार दरअसल किसी स्थान को दो हिस्सों में बाँटती है। एक समूचे मकान की दीवारें विभिन्न प्रकोष्ठों का निर्माण करती हैं । भेद, भेदन, भेदना जैसे शब्द भी भिद् से तैयार हुए हैं। रहस्य के अर्थ में जो भेद है उसमें दरअसल आन्तरिक हिस्से में स्थित किसी महत्वपूर्ण बात का संकते है जो उजागर नहीं है । ज़ाहिर है इस बात को रहस्य की तरह माना गया, इसलिए भेद का एक अर्थ गुप्त या रहस्य की बात भी है । भेद को उजागर करने के लिए उस स्थान पर भेदने की क्रिया ज़रूरी है, तभी वह गुप्त बात सामने आएगी । भेदिया शब्द भी इसी धातु से तैयार हुआ है जिसका अर्थ है जासूस, भेदने वाला । कई बार प्रकार, अन्तर, फर्क आदि के अर्थ में भी भेद शब्द का प्रयोग होता है । बात वही विभाजन की है । किसी चीज़ के जितने विभाजन होंगे, उसे ही भेद कहेंगे जैसे नायिका-भेद यानी नायिकाओं के प्रकार । फूट डालने के अर्थ मे भेद डालना मुहावरा भी प्रचलित है । “दीवारों के भी कान होते” हैं जैसी कहावत में दीवारों के पीछे छुपने वाले और वहाँ बसने वाले भेदों का ही तो संकेत मिलता है अर्थात दीवारे भी जासूसी करती हैं ।
संस्कृत का गुप्तचर शब्द हिन्दी की तत्सम शब्दावली में भी जासूस के अर्थ में मौजूद है । यह बना है गुप् धातु से जिसमें रक्षा करना, बचाना, आत्मरक्षा जैसे भाव तो हैं ही, साथ ही इसमें छुपना, छुपाना जैसे भाव भी हैं । गौर करें कि आत्मरक्षा की खातिर खुद को बचाना या छुपाना ही पड़ता है । मल्लयुद्ध के दाव-पेच दरअसल क्या हैं ? दरअसल अपने अंगों को आघात से बचाने की रक्षाविधि ही दाव-पेच है । रक्षा के लिए चाहे युद्ध आवश्यक हो किन्तु वहां भी शत्रु के वार से खुद को बचाते हुए ही मौका देख कर उसे परास्त करने के पैंतरे आज़माने पड़ते हैं। यूँ बोलचाल में गुप्त शब्द का अर्थ होता है छुपाया हुआ, अदृश्य । गोपन, गोपनीय, गुपुत जैसे शब्द इसी मूल से आ रहे हैं। प्राचीनकाल में गुप्ता एक नायिका होती थी जो निशा-अभिसार की बात को छुपा लेने में पटु होती थी । इसे रखैल या पति की सहेली की संज्ञा भी दी जा सकती है। गुप्ता की ही तरह गुप्त से गुप्ती भी बना है जो एक छोटा तेज धार वाला हथियार होता है। इसका यह नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि इसे वस्त्र-परिधान में आसानी से छुपाया जा सकता है ।
गुप्त और चर दोनों से मिलकर बना है गुप्तचर जिसका का शाब्दिक अर्थ हुआ छुप-छुप कर चलने वाला । गुप्तचर में जो मूल भाव है वह है खुद की पहचान को छुपाना न कि चोरी-छिपे चलना । खुद को छुपाने से बड़ी बात है खुद की पहचान को गुप्त रखते हुए लोगों के बीच रहना, उठना-बैठना । ये सब बातें “चर” में निहित हैं । राजनय और कूटनीति के क्षेत्र में गुप्तचरी का महत्व सर्वाधिक होता है जहाँ एक अध्यापक, एक चिकित्सक, एक सिपाही, एक सब्ज़ीवाला, नाई, गृहिणी गर्ज़ यह कि कोई भी जासूस हो सकता है । यही है गुप्तचर का असली अर्थ ।
इसे भी देखें- जासूस की जासूसी

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