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Tuesday, January 29, 2013

महिमा मरम्मत की

repair

रम्मत हिन्दी में खूब रचा-बसा शब्द है । अरबी मूल का यह शब्द फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी समेत कई भारतीय भाषाओं में प्रचलित हुआ । मरम्मत शब्द का अर्थ है बिगड़ी वस्तु को सुधारना, उद्धार करना, संशोधन करना, सँवारना, कसना, योग्य बनाना, सुचारू करना, कार्यशील बनाना आदि । इन तमाम भावों के बावजूद हिन्दी में मरम्मत का प्रयोग ठुकाई-पिटाई या मार-पीट के तौर पर ज्यादा होता है । “इतनी मरम्मत होगी कि नानी याद आ जाएगी” जैसे वाक्य से पिटाई का भाव स्पष्ट है । किसी की पिटाई में भी उसे सबक सिखाने का भाव है, सज़ा देने का भाव है ।
रम्मत के मूल में अरबी की रम्म क्रिया है और इसकी मूल सेमिटिक धातु है र-म-म [ر م م] अर्थात रा-मीम-मीम । हेन्स वेर की ए डिक्शनरी ऑफ़ मॉडर्न रिटन अरेबिक अरबी क्रिया ‘रम्म’ का उल्लेख है जिसमें जीर्णोद्धार, दुरुस्ती या सुधारने का भाव है । इसी के साथ इसमें क्षय होने, क्षीण होने, बिगड़ने या खराब होने का भाव भी है । यही नहीं, इसमें बनाने, पहले जैसा कर देने, पूर्वावस्था, प्रत्यावर्तन, जस का तस जैसे आशय भी हैं । गौर करें, किसी वस्तु को सुधारने की क्रिया उसे पूर्ववत अवस्था में यानी चालू हालत में लाना है । ऐसा करते हुए उसके कल-पुर्जे ढीले करने होते हैं, आधार को खोलना होता है । रम्म में निहित बिगड़ने, क्षीण होने जैसे भावों का यही आशय है कि सुधार की प्रक्रिया में हम बिगड़े तन्त्र को पहले तो पूरी तरह से रोक देते हैं । फिर उसके एक एक हिस्से की जाँच कर उसे सँवारने का काम करते हैं ।
म्म में अरबी उपसर्ग ‘म’ लगने से बनता है (म)रम्मा जिसका अर्थ सुधारना, सँवारना होता है । फ़ारसी, उर्द-हिन्दी में मरम्मा के साथ ‘अत’ प्रत्यय का प्रयोग होता है और इस तरह मरम्मत शब्द बनता है । पंजाबी और हिन्दी की पश्चिमी शैलियों में इसका रूप मुरम्मत भी है । मराठी में इसके तीन रूप मरमत, मरामत, मर्हामत मिलते हैं । मरम्मत क्रिया का एक रूप हिन्दी में मरम्मती भी मिलता है । मरम्मत में पिटाई का भाव यूँ दाख़िल हुआ होगा क्योंकि अक्सर चीज़ों को सुधारने की क्रिया में ठोकने-पीटने की अहम भूमिका होती है । साधारणतया किसी कारीगर या मिस्त्री के पास भेजे जाने से पहले चीज़ों को दुरुस्त करने के प्रयास में उसे हम खुद ही ठोक-पीट लेते हैं । कई बार यह जुगत काम कर जाती है और मशीन चल पड़ती है । मरम्मत में ठुकाई-पिटाई दरअसल सुधार के आशय से है, ठीक होने के आशय से है । बाद में मरम्मत मुहावरा बन गया जैसे– “हाल ये था कि थोड़ी मरम्मत के बिना वो ठीक नहीं होती थी”, ज़ाहिर है इस वाक्य में मरम्मत का आशय पिटाई से है । पिटाई वाले मरम्मत की तर्ज़ पर कुटम्मस भी प्रचलित है जो कूटना या कुटाई जैसी क्रियाओं से आ रहा है । जिसमें सुधार की गुंजाइश हो उसे मरम्मततलब कहते हैं ।
सी तरह रम्मा से रमीम बनता है जिसका अर्थ भी मुरझाया हुआ, पुराना, पुरातन, जीर्ण-शीर्ण या खराब है । आमतौर पर चीज़ों के परिशोधन या उनके सुधारने के लिए तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । हिन्दी में अक्सर भाषायी सुधार के सम्बन्ध में तरमीम शब्द का प्रयोग होता है । जैसे “कमेटी ने जो सिफ़ारिशें की हैं उनमें तरमीम की ज़रूरत है” ।

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Wednesday, January 2, 2013

क़िस्त दर क़िस्त…

Money
हि न्दी के बहुप्रयुक्त शब्दों में क़िस्त का भी शुमार है हालाँकि अक्सर ज्यादातर लोग ‘क़िस्त’ को ‘किश्त’ लिखने और बोलने के आदी हैं । ‘प्रसाद’ तथा ‘सौहार्द’ के ग़लत रूप ( प्रशाद, सौहार्द्र ) भी इसी तरह ज्यादा प्रचलित हैं । हिन्दी में क़िस्त का आशय हिस्सा, भाग, आंशिक भुगतान, होता है । इसके अलावा इसमें न्याय या इन्साफ़ की अर्थवत्ता भी है । यूँ तो क़िस्त शब्द हिन्दी में बरास्ता फ़ारसी आया है और शब्दकोशों में इसकी हाजिरी अरबी के खाते में नज़र आती है । यह बहुरूपिया भी है और यायावर भी । खोज-बीन करने पर अरबी के कोशों में इसे ग्रीक भाषा का मूलनिवासी माना गया है । देखते हैं किस्त की जनमपत्री । 

हिन्दी में किस्त का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रयोग कई हिस्सों में भुगतान के लिए होता है । आजकल इसके लिए इन्स्टॉलमेंट या इएमआई शब्द भी प्रचलित हैं मगर किस्त कहीं ज्यादा व्यापक है । भुगतान-संदर्भ के अलावा मोहम्मद मुस्तफ़ा खाँ मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के अनुसार किस्त में सामान्य तौर पर किसी भी चीज़ का अंश, हिस्सा, टुकड़ा, portion या भाग का आशय है । अरबी कोशों में अंश, हिस्सा, पैमाना, पानी का जार या न्याय जैसे अर्थ मिलते हैं । न्याय में निहित समता और माप में निहित तौल का भाव किस्त में है और इसीलिए कहीं कहीं किस्त का अर्थ न्यायदण्ड या तुलादण्ड भी मिलता है । 

बसे पहले क़िस्त के मूल की बात । अरबी कोशों में क़िस्त को अरबी का बताया जाता है जिसकी धातु क़ाफ़-सीन-ता (ق س ط) है । हालाँकि अधिकांश भाषाविद् अरबी क़िस्त का मूल ग्रीक ज़बान के ख़ेस्तेस से मानते हैं जिसका अर्थ है माप या पैमाना । लैटिन ( प्राचीन रोम ) में यह सेक्सटैरियस (Sextarius) है । ग्रीक ज़बान का ख़ेस्तेस, लैटिन के सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप है । यूँ ग्रीक भाषा लैटिन से ज्यादा पुरानी मानी जाती है मगर भाषाविदों का कहना है कि सेक्सटैरियस रोमन माप प्रणाली से जुड़ा शब्द है । यह माप पदार्थ के द्रव तथा ठोस दोनों रूपों की है । सेक्सटेरियस दरअसल माप की वह ईकाई है जिसमें किसी भी वस्तु के 1/6 भाग का आशय है । समूचे मेडिटरेनियन क्षेत्र में मोरक्को से लेकर मिस्र तक और एशियाई क्षेत्र में तुर्की से लेकर पूर्व के तुर्कमेनिस्तान तक ग्रीकोरोमन सभ्यता का प्रभाव पड़ा । खुद ग्रीक और रोमन सभ्यताओं ने एक दूसरे को प्रभावित किया इसीलिए यह नाम मिला । 

सेक्सटैरियस में निहित ‘छठा भाग’ महत्वपूर्ण है जिसमें हिस्सा या अंश का भाव  तो है ही साथ ही इसका छह भी खास है । दिलचस्प है कि सेक्सटैरियस में जो छह का भाव है वह दरअसल भारोपीय धातु सेक्स (seks ) से आ रहा है । भाषाविदों का मानना है कि संस्कृत के षष् रूप से छह और षष्ट रूप से छट जैसे शब्द बने  । अवेस्ता में इसका रूप क्षवश हुआ और फिर फ़ारसी में यह शेश हो गया । ग्रीक में यह हेक्स हुआ तो लैटिन में सेक्स, स्लोवानी में सेस्टी और लिथुआनी में सेसी हुआ । आइरिश में यह छे की तरह ‘से’ है । अंग्रेजी के सिक्स का विकास जर्मनिक के सेच्स sechs से हुआ है । सेक्सटैरियस का बिगड़ा रूप ही ग्रीक में खेस्तेस हुआ । खेस्तेस की आमद सबसे पहले मिस्र मे हुई। 

मझा जा सकता है कि इसका अरब भूमि पर प्रवेश इस्लाम के जन्म से सदियों पहले हो चुका था क्योंकि अरब सभ्यता में माप की इकाई को रूप में क़िस्त का विविधआयामी प्रयोग होता है । यह किसी भी तरह की मात्रा के लिए इस्तेमाल होता है चाहे स्थान व समय की पैमाईश हो या ठोस अथवा तरल पदार्थ । हाँ, प्राचीनकाल से आज तक क़िस्त शब्द में निहित मान इतने भिन्न हैं कि सबका उल्लेख करना ग़ैरज़रूरी है । खास यही कि मूलतः इसमें भी किसी पदार्थ के 1/6 का भाव है जैसा कि पुराने संदर्भ कहते हैं । आज के अर्थ वही हैं जो हिन्दी-उर्दू में प्रचलित हैं जैसे फ्रान्सिस जोसेफ़ स्टैंगस के कोश के अनुसार इसमें न्याय, सही भार और माप, परिमाप, हिस्सा, अंश, भाग, वेतन, किराया, पेंशन, दर, अन्तर, संलन, संतुलन, समता जैसे अर्थ भी समाए हैं । क़िस्त में न्याय का आशय भी अंश या भाग का अर्थ विस्तार है । कोई भी बँटवारा समान होना चाहिए । यहाँ समान का अर्थ 50:50 नहीं है बल्कि ऐसा तौल जो दोनों पक्षों को ‘सम’ यानी उचित लगे । यह जो बँटवारा है , वही न्याय है । इसे ही संतुलन कहते हैं और इसीलिए न्याय का प्रतीक तराजू है । 

हाँ तक क़िस्त के किश्त उच्चार का सवाल है यह अशुद्ध वर्तनी और मुखसुख का मामला है । वैसे मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश में किश्त का अलग से इन्द्राज़ है । किश्त मूलतः काश्त का ही एक अन्य रूप है जिसका अर्थ है कृषि भूमि, जोती गई ज़मीन आदि । काश्तकार की तरह किश्तकार का अर्थ है किसान और किश्तकारी का अर्थ है खेती-किसानी । किश्तः या किश्ता का अर्थ होता है वे फल जिनसे बीज निकालने के बाद उन्हें सुखा लिया गया हो । सभी मेवे इसके अन्तर्गत आते हैं । किश्त और काश्त इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है । फ़ारसी के कश से इसका रिश्ता है जिसमें आकर्षण, खिंचाव जैसे भाव हैं । काश्त या किश्त में यही कश है । गौर करें ज़मीन को जोतना दरअसल हल खींचने की क्रिया है । कर्षण यानी खींचना । आकर्षण यानी खिंचाव । फ़ारसी में कश से ही कशिश बनता है जिसका अर्थ आकर्षण ही है ।
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Tuesday, December 25, 2012

मोदीख़ाना और मोदी

grocerR

[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]

पिछली कड़ी- मोदी की जन्मकुंडली

मोदी की अर्थवत्ता में शामिल भावों पर गौर करें तो इसका रिश्ता आपूर्ति, भंडार, स्टोर, राशन, दुकान, रसद, मिलिट्री सप्लाई, किराना, राजस्व, कर वसूली आदि से जुड़ता है । इन आशयों से जुड़े शब्दों की एक लम्बी शृंखला सेमिटिक धातु मीम-दाल-दाल (م د د ) यानी m-d-d से बनी है जिसमें आपूर्ति, सप्लाई, सहायता, सहारा, फैलाव जैसे भाव है । गौर करें हिन्दी में सहायता का लोकप्रिय पर्याय ‘मदद’ है जो इसी कड़ी से जुड़ा है । मद्द’ में निहित आपूर्ति या सहायता के भाव का विस्तार मदद में हैं जिससे मददगार, मददख़्वाह जैसे शब्द बने हैं । इसी कड़ी में आता है ‘इमदाद’ जिसका अर्थ भी आपूर्ति, सहायता, आश्रय, हिमायत अथवा सहारा होता है ।
द्द धातु से बने शब्दों में एक और दिलचस्प सब्द की शिनाख़्त होती है । बहीखातों की पहचान लम्बे-लम्बे कॉलम होते हैं जिनमें हिसाब-किताब लिखा जाता है । अरबी में इसके लिए ‘मद्द’ शब्द है । घिसते घिसते हिन्दी में यह ‘मद’ हो गया । हिन्दी में इसका प्रयोग जिन अर्थों में होता है उसका आशय खाता, पेटा, हेड या शीर्षक है जैसे- “यह रकम किस ‘मद’ में डाली जाए” या “मरम्मत वाली ‘मद’ मे कुछ राशि बची है” आदि । मद / मद्द के कॉलम, स्तम्भ या सहारा वाले अर्थ में अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में अलहदा धातु ऐन-मीम-दाल से बताई गई है । इससे बने इमादा, इमाद, अमीद, अमूद और उम्दा जैसे शब्द हैं जिनमें सहारा, मुखिया, स्तम्भ, प्रमुख, विश्वसनीय, प्रतिनिधि जैसे भाव भी हैं, अलबत्ता ये हिन्दी में प्रचलित नहीं हैं । सम्भव है यह मद्द की समरूप धातु हो ।
मोदी शब्द की व्युत्पत्ति को मद्द से मानने की बड़ी वजह है इसमें निहित वे भाव जिनसे मोदी की अर्थवत्ता स्थापित होती है । ‘मद’ तो हुआ खाता मगर इसका ‘मद्द’ रूप भी हिन्दी में नज़र आता है जैसे मद्देनज़र, मद्देअमानत आदि । मद्देनज़र का अर्थ है निग़ाह में रखना । ‘मदद’ में जहाँ सहायता का भाव है वहीं आपूर्ति भी उसमें निहित है । ‘मदद’ अपने आप में सहारा भी है सो ‘मदद’ में निहित ‘मद्द’ पहले कॉलम या स्तम्भ हुआ फिर यह बहीखातों का कॉलम या खाना हुआ और फिर इसे मदद की अर्थवत्ता मिली । अरबी में एक शब्द है ‘मद्दा’ जिसका अर्थ है विस्तार, फैलाव, सहारा वहीं इसमें सामान, वस्तु, चीज़, पदार्थ अथवा मवाद आदि की अर्थवत्ता भी है । शरीर के भीतर जख्म होने पर जब वह पकता है तो उसका आकार फूलता है । प्रसंगवश ‘मवाद’ शब्द भी अरबी का है और इसी मूल से निकला है । ‘मद्द’ में निहित फैलाव, विस्तार इसमें निहित है । ध्यान रहे आपूर्ति में भी विस्तार, फैलाव की अर्थवत्ता है । किसी स्थान पर किसी चीज़ की आपूर्ति से फैलाव होता है । गुब्बारे में हवा की आपूर्ति से समझें । भोजन करने पर पेट के फूलने से समझें । इसी तरह विशाल क्षेत्र में राशन की आपूर्ति में भी फैलाव का वही आशय है ।
यूँ मुग़लदौर में एक सरकारी विभाग ‘मोदीखाना’ भी प्रसिद्ध था जिसका अर्थ था रसद-आपूर्ति विभाग । हिन्दुस्तानी – फ़ारसी कोशों में मोदीखाना शब्द मिलता है जिसका अर्थ भण्डारगृह , किराना-स्टोर, अनाज की आढ़त, granary या commissariat ( कमिसरियत, सेना रसद विभाग ) मिलता है । हालाँकि इन्स्टीट्यूट ऑफ सिख स्टडीज़ के डॉ. कृपाल सिंह ने अपनी पुस्तक सिख्स एंड अफ़गान्स में ‘मोदी’ को अरबी शब्द माना है और इसका अर्थ “भुगतान किया जा चुका” बताया है । इसी पुस्तक में वे ‘मोदीखाना’ के बारे में बताते हैं कि यह दरअसल मुस्लिम दौर की उन सरकारों में एक महत्वपूर्ण विभाग था जहाँ किन्हीं कारणों से मौद्रिक लेन-देन कम होता था  और भू-राजस्व का भुगतान जिन्सी तौर पर किया जाता था । अर्थात मुद्रा के बदले अनाज, राशन, पशु आदि दे दिए जाते थे । सरकार इसे ही महसूल समझ कर रख लेती थी । इसी मोदीखाने का प्रमुख ‘मोदी’ कहलाता था । यह ‘मोदी’ कर वसूल करता था । उसे जमा करता था और फिर जमा की गई जिंसों को वह शासन द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेच भी सकता था । ज़ाहिर है इस नाम के पीछे मद्दा में निहित वस्तु, सामग्री, जिंस, चीज़ जैसे आशय ही व्युत्पत्तिक आधार हैं । प्रसंगवश सुलतानपुर के नवाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में अपने शुरुआती जीवन में गुरुनानक भंडारी (मोदी) के पद पर थे जहाँ खाद्यान्न के रूप में लगान जमा किया जाता था ।
सेनाओं में प्राचीनकाल से ही यह परिपाटी रही है कि कूच करते वक्त उनके साथ दुनियाजहान का असबाब भी चलता था । चालू भाषा में जिसे लवाजमा या फौजफाटा कहते हैं उसका तात्पर्य यही है । मुग़ल दौर में जब फौज चलती थी उसके साथ पंसारी की दुकान भी होती थी जिसे मोदीख़ाना कहते थे । दवाईखाना, मरम्मतखाना, फराशखाना जैसे विभागों में ही एक विभाग मोदीखाना था । स्थायी तौर पर किसी श्रेष्ठी को सेना में रसद आपूर्ति का काम मिल जाता था और कभी शासन की तरफ़ से ही प्रत्येक बड़े शहर में वणिकों को फौज को राशन पहुँचाने का अनुबंध मिल जाता था । सरकार के स्वामीभक्त व्यवसायी, प्रभावशाली धनिक ऐसे करार (ठेके) पाने के लिए जोड़-तोड़ करते थे । मगर उसकी मुश्किलें भी थीं । ये काम पाने के लिए उन्हें आज की ही तरह से सरकार के असरदार लोगों की जेबें गर्म करनी पड़ती थीं । आठवीं-नवीं सदी के भारत में भ्रष्टाचार के कई नमूने शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम’ नाटक से भी पता चलते हैं ।
चार्य विष्णुशर्मा लिखित पंचतन्त्र में इसका उल्लेख है जिससे पता चलता है कि सेना में रसद आपूर्ति का काम प्राचीनकाल से ही मोटी कमाई वाला माना जाता था । पंचतन्त्र की संस्कृत – हिन्दी व्याख्या में श्यामाचरण पाण्डेय लिखते हैं- गौष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः। वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाSद्य लब्धा किमन्येन ।। अर्थात “मोदी का काम करने वाला व्यापारी जब किसी राजकीय सेना आदि को रसद पहुँचाने का कार्य पा जाता है तो प्रसन्न होकर अपने मन में सोचता है कि आज मैने पृथ्वी पर सम्पूर्ण धन ही प्राप्त कर लिया है । पुनः निश्चित होकर लोगों को लूटता है ।” आज के दौर के बड़े कारोबारियों के पुरखों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में रसद आपूर्ति ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे किए थे, यह किसी से छुपा नहीं है । सेना सहित विभिन्न विभागों के कैंटीन और रेलवे की खानपान सेवा जैसी व्यवस्थाएँ दरअसल “मोदीखाना” जैसी प्राचीन आपूर्ति सेवाओं के ही बदले हुए रूप हैं । यूँ ‘मोद’ से भी ‘मोदी’ का रिश्ता जोड़ा जा सकता है क्योंकि उसके सारे प्रयत्न खुद के आमोद-प्रमोद के लिए होते हैं ।-समाप्त 

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Monday, December 24, 2012

मोदी की जन्मकुंडली

gnatmodikhana[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]
प्रा  यः सभी भाषाओं के बुनियादी शब्दभंडार में जिन ख़ास स्रोतों से शब्द आते हैं उनमें सैन्य-प्रशासन जैसे क्षेत्र भी है । ऐसा ही एक शब्द है ‘मोदी’ modi वणिक वर्ग का एक उपनाम भी है जैसे प्रसिद्ध व्यावसायिक घराना ‘मोदी’ के संस्थापक रायबहादुर गूजरमल मोदी । उपनामों पर अगर गौर करें तो अधिकांश उपनामों के निर्माण का आधार स्थानवाची या कर्मवाची है अर्थात उपनाम धारण करने वाले के निवास या उसके खानदानी पेशा का संकेत इसमें छुपा होता है जैसे दारूवाला ( मद्य व्यवसाय ) या पोखरियाल (पोखरा वाला अर्थात पोखरा का निवासी ) आदि । ऐसा ही एक नाम ‘मोदी’ है मगर दो अक्षरों के इस सरनेम से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता जिससे इसमें निहित व्यवसायगत या जातिगत संकेत मिलें । हम सिर्फ़ रूढ़ अर्थ में जानते हैं कि ‘मोदी’ बनिया जाति का एक उपनाम है और बनिया व्यापार करता है । किन्तु मोदी शब्द में व्यापार जैसी अर्थवत्ता भी नहीं है । जानते हैं ‘मोदी’ की जन्मकुंडली ।

ब्दकोशों में ‘मोदी’ शब्द के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारियाँ नहीं मिलतीं । लगभग सभी शब्दकोशों में ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मोद’ ( आनंद ) या मोदक ( लड्डू ) से जोड़ने का प्रयत्न नज़र आता है । खास बात यह भी कि तमाम कोशों में इसका अर्थ बनिया, अनाज का व्यापारी, नून-तेल-मिर्ची, आटा-दाल-चावल का आढ़ती, खाद्य सामग्री बेचने वाला परचूनिया, राशन-अनाज का किरानी आदि बताया गया है । ये सभी आशय संस्कृत के ‘मोद’ अर्थात आनंद, हर्ष, सुख के व्यावहारिक अर्थ से मेल नहीं खाते । जॉन प्लैट्स ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत से जोड़ते हैं मगर उसका मूल नहीं बताते । यही नहीं, वे मोदी का मुख्य अर्थ मिठाईवाला या हलवाई बताते हैं । सम्भव है उनके दिमाग़ में ‘मोद’ से ‘मोदक’ अर्थात एक क़िस्म का लड्डू रहा हो । ‘मोदी’ का रिश्ता ‘मोदक’ से हिन्दी शब्दसागर में भी जोड़ा गया है, अलबत्ता ‘मोदक’ के अलावा उसके अरबी मूल का होने की सम्भावना भी जताई गई है । 

प्लैट्स के कोश में भी ‘मोदी’ को दुकानदार, बनिया, भंडारी आदि बताया गया है । गुजरात में मोढ़ वैश्य समुदायको मोढी भी कहा जाता है। इसका उच्चार भी कहीं कहीं मोदी की तरह किया जाता है। इस तरह यह स्थानवाची शब्द हुआ।  कुछ लोग सोचते हैं कि देशव्यापी मोदी का रिश्ता गुजरात के मोढेरा या गुजराती मोढ़ वैश्य समूदाय से है तो वह संकुचित दृष्टि है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में साहू तेली होते हैं। यह साहू मूलतः साह, साधु से ही आ रहा है। प्रभावशाली वर्ग। अरबी मोदी की तुलना में मोढी या मोढ़ उपसर्ग का अर्थ व्यापक है। मोढेरा से जिनका रिश्ता है वे सभी मोढ हैं। खास तौर पर वणिकों और ब्राह्मणों में आप्रवासन ज्यादा हुआ सो मोढेरा के लोग मोढ हो गए। गुजाराती विश्वकोश के मुताबिक मोढ़ समुदाय में ब्राह्मण, वैश्य, किरानी, तेली, पंसारी, साहूकार सब आ जाते हैं।
 

मारा मानना है कि ‘मोदी’ भी सैन्य शब्दावली से आया शब्द है । इसका रिश्ता सेना की रसद आपूर्ति व्यवस्था से है । ‘मोदी’ का निर्माण निश्चित ही मुस्लिम दौर में हुआ जब अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस भारतीय भाषाओं में हो रही थी । फ़ौजदार, जमादार, नायब, एहदी, बहादुर, नौकर, चाकर, ज़मींदार, कानूनगो, मुनीम समेत सैकड़ों अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं जो अरबी-फ़ारसी मूल के हैं और जिनका रिश्ता फ़ौज से रहा है । ‘मोदी’ भी मूल रूप से अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में दाखिल हुआ । इतिहास-पुरातत्व के ख्यात विद्वान हँसमुख धीरजलाल साँकलिया ने गुजरात के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इसे अरबी मूल का माना है । हालाँकि एस. डब्ल्यू फ़ैलन की न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी में भी ‘मोदी’ का रिश्ता मोदक अर्थात लड्डू से जोड़ा गया है । ध्यान रहे मोदक का रिश्ता ‘मोद’ अर्थात आनंद से हैं ।
मोदी शब्द के अरबी होने के कई प्रमाण हैं । औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हैंक्लिन-जैंक्लिन में भी बनिया प्रविष्टि के अंतर्गत ‘मोदी’ का भी उल्लेख है । इसमें लिखा है कि “रियासती दौर में लगान की वसूली अनाज के रूप में होती थी उसे जिस गोदाम में इकट्ठा किया जाता था उसे मोदीखाना कहते थे । व्यापारी के अर्थ में एक अन्य शब्द ‘मोदी’ भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका दर्ज़ा पंसारी या किरानी का है ।” आज भी देश के सैकड़ों शहरों-क़स्बों में ‘मोदीखाना’ नाम की इमारतें हैं जिनकी वजह से समूचे मोहल्ले या इलाक़े को भी मोदीखाना modikhana के नाम से जाना जाता है जैसे जयपुर का चौकड़ी मोदीख़ाना । इतिहास की क़िताबों में पंसारी या दुकानदार की अर्थवत्ता से इतर ‘मोदी’ शब्द के जो संदर्भ हैं उनमें उसे लगान अधिकार, कारिंदा, गुमाश्ता, दीवान, गाँव का मुखिया आदि बताया है। 

कृ.पा. कुलकर्णी के प्रसिद्ध मराठी व्युत्पत्तिकोश में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ अनाज व्यापारी, दीवान, चौधरी, भंडारी आदि बताया है । ‘मोदी’ की व्युत्पत्ति अरबी के ‘मुदाई’ से बताई गई है जिसका अर्थ होता है विश्वस्त या भंडारी । मोदी के साथ ही मोदीखाना शब्द भी है जिसका अर्थ है फौजी रसद विभाग । ज़ाहिर है मोदी ही फ़ौजी रसद विभाग का प्रमुख यानी भंडारी हुआ । सिख विकी में भी मोदी शब्द का रिश्ता रसद, राशन, किराना से ही जुड़ता है न कि मिठाई या हलवाई से – “Modi Khana is a reference to a provision store or a food supplies store. It is referred to in the Janamsakhis of Guru Nanak when he worked in a food store in Sultanpur while staying in the town where his sister, Nanaki and her husband Bhai Jai Ram lived. ”  यही नहीं फारसी-मराठी कोशों में भी मोदी शब्द का उल्लेख है और इसका मूल ‘मुदाई’ बताया गया है ये अलग बात है कि अरबी, फ़ारसी, उर्दू कोशों में मुदाई शब्द नहीं मिलता । 
sutlerइंग्लिश-हिन्दुतानी, इंग्लिश-इंग्लिश, फ़ारसी-हिन्दी कोशों में मोदी का अर्थ सामान्य तौर पर आढ़ती ( grain merchant ) पंसारी ( grocer) बनिया ( trader ) विक्रेता ( vender ), व्यापारी ( Merchant ) दुकानदार ( shopkeeper ) के अलावा बतौर हलवाई या मिठाईवाला  'A sweetmeat-maker, a confectioner' भी मिलता है जिसका व्युत्पत्तिक सम्बन्ध कोशकारों नें ‘मोद’ या ‘मुद’ से जोड़ा है । ऐसा लगता है कि कोशकारों के मन में मोद = आनंद = मिठाई = हलवाई जैसा समीकरण रहा होगा अगर इसे किसी तरह कबूल भी कर लिया जाए तो भी यह मानना कठिन है कि हलवाई की अर्थवत्ता में पंसारी, आढ़ती, व्यापारी, बनिया, दुकानदार जैसे भाव कहाँ से समा गए ?

इसी कड़ी में क़रीब 110 साल पहले पोरबंदर रियासत के गजेटियर में ‘मोदी’ के बारे में लिखी ये पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं- “In order No. 45* dated 17-8-1901 published in State Gazette Vol. XV regarding the Modi's duty to be present when called to fix the Nirakh of the Modikhana, the word " Modi " includes gheevvalas, fuel sellers, grocers, sweetmeat sellers, butchers &c.( The Porbandar State directory (Volume 2)” गजेटियर यह भी लिखता है कि मोदीखाना के लिए साल में एक बार स्थानीय व्यापारियों में से किसी एक को ठेका दिया जाता था ।
डिक्शनरी ऑफ़ द प्रिन्सीपल लेंग्वेजेज़ स्पोकन इन द बेंगाल प्रेसिडेंसी में पी.एस. डी’रोजेरियो भी ग्रोसर अर्थात किरानी के पर्याय के लिए ‘मोदी’ शब्द ही बताते हैं । हालाँकि वे इसके बांग्ला रूप ‘मुदी’ का उल्लेख करते हैं । बांग्ला और मराठी में ‘मोदी’ के साथ ‘मुदी’ mudi शब्द भी मिलता है । अंग्रेजी में एक शब्द है सटलर sutler जो मध्यकालीन डच भाषा के soeteler से बना है अर्थात सेना के लिए खान-पान सेवा चलाने वाला व्यापारी । अधिकांश प्रसिद्ध कोशों के पुस्तकाकार या ऑनलाईन संस्करणों में इसका हिन्दी अनुवाद मोदी ही दिया हुआ है । ध्यान रहे सामान्य तौर पर कैंटीन का अर्थ भी रसोई ही होता है । फौजी छावनियों को केंटोनमेंट cantonment कहते हैं जिसका संक्षेप कैंट होता है । अंग्रेजी कोशों में भी कैंट का मूलार्थ फौजी छावनी में राशन की दुकान है । अरबी के ‘आमद्दा’ में राशन पहुँचाने, मदद पहुँचाने या आपूर्ति का भाव है । ग्रोसर या पंसारी के तौर पर अरबी में ‘मोदी’ शब्द नहीं मिलता और फ़ारसी में भी नहीं पर इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे मद्दी ( विषय-वस्तुओं में रुचि रखनेवाला), मुअद्दी ( पहुँचानेवाला, भेजनेवाला ), मद्दा ( विषय-वस्तु, सामग्री, चीज़, पदार्थ ) आदि जिनसे फ़ारस या भारत की ज़मीन पर मोदी शब्द विकसित हुआ होगा और वहीं से अन्य मुस्लिम शासित इलाक़ों की बोलियों में यह रचा-बसा होगा । –जारी 
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Monday, November 5, 2012

चारों ‘ओर’ तरफ़दार

direction

दिन भर के कार्यव्यवहार में इंगित करने, दिशा बताने के संदर्भ में हम कितनी बार ‘तरफ़’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, अन्दाज़ लगाना मुश्किल है । इस तरफ़, उस तरफ़, हर तरफ़ जैसे वाक्यांशों में तरफ़ के प्रयोग से जाना जा सकता है कि यह बोलचाल की भाषा के सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाले शब्दों में एक है । ‘तरफ़’ अरबी ज़बान का शब्द है और बज़रिये फ़ारसी इसकी आमद हिन्दी में हई है । ‘तरफ़’ की अर्थवत्ता के कई आयाम हैं मसलन- ओर, दिशा, जानिब, पक्ष, किनारा, सिरा, पास, सीमा, पार्श्व , बगल, बाजू आदि । तरफ़ का बहुप्रयुक्त पर्याय हिन्दी में ओर है जैसे ‘इस ओर’, ‘उस ओर’, ‘चारों ओर’, ‘सब ओर, ‘चहुँ ओर’ आदि । ओर में भी इंगित करने या दिशा-संकेत का लक्षण प्रमुखता से है ।
रबी धातु T-r-f ता-रा-फ़ा [ ف - ر ط - ] में संकेत करने का आशय है । मूलतः इस संकेत में निगाह घुमाने, रोशनी डालने, पलक झपकाने, झलक दिखाने जैसी क्रियाएँ शामिल हैं । अरबी में इससे बने तरफ़ / तराफ़ में दिशा ( पूरब की तरफ़, उत्तर की तरफ़), ( मेरी तरफ़, तेरी तरफ़ ), किनारा ( नदी के उस तरफ़) का आशय है । इसके अलावा उसमें सिरा, छोर, पास, कोना, जानिब जैसी अर्थवत्ता भी है । तरफ़ में दिशा-संकेत का भाव आँख की पुतलियों के घूमने से जुड़ा है । सामने देखने के अलावा पुतलियाँ दाएँ-बाएँ घूम सकती हैं । आँख के दोनो छोर, जिसे कोर कहते हैं, तरफ़ का मूल आशय उससे ही है । पुतलियाँ जिस सीमा तक घूम सकती हैं, उससे बिना बोले या हाथ हिलाए किसी भी ओर इंगित किया जा सकता है । आँख के संकेत से दिशा-बोध कराने की क्रियाविधि से ही तरफ़ में दिशा, ओर, छोर, किनारा, पास, साइड side जैसे अर्थ स्थापित हुए । तरफ़ में फ़ारसी का बर प्रत्यय लगने से बरतरफ़ शब्द बनता है जिसका आशय बर्खास्तगी से है ।
रफ़ में पार्श्व, पक्ष या पास जैसी अर्थवत्ता भी है । अरबी के तरफ़ में फ़ारसी का ‘दार’ प्रत्यय लगने से तरफ़दार युग्मपद बना जिसका अर्थ है समर्थक, पक्ष लेने वाला अथवा हिमायती । जो आपके साथ रहे वह पासदार कहलाता है और तरफ़दार में भी साथी का भाव है । इससे ही तरफ़दारी बना जिसमें किसी का पक्ष लेने, पासदारी करने का आशय है । किसी को अपने पक्ष में करने के लिए कहा जाता है कि उसे अपनी तरफ़ मिला लो । सामान्यतया किसी एक का पक्ष लेने वाला व्यक्ति पक्षपाती कहलाता है । तरफ़दार निश्चित ही किसी एक पक्ष का समर्थनकर्ता होता है । हिन्दी के पक्षपाती में जहाँ नकारात्मक अर्थवत्ता नज़र आती है वहीं तरफ़दार में ऐसा नहीं है । उचित-अनुचित का विचार करने के बाद किसी पक्ष का समर्थन करने वाला तरफ़दार है । दोनों पक्षों की थाह लिए बिना मनचाहे पक्ष की आँख मूँद कर हिमायत करने वाला पक्षपाती है । चीज़ के दो पहलू होते हैं । तरफ़ में जो पक्ष का भाव है वह और अधिक स्पष्ट होता है उससे बने एकतरफ़ा, दोतरफ़ा जैसे युग्मपदों से । एकतरफ़ा में पक्षपात हो चुकने की मुनादी है जैसे एकतरफ़ा फ़ैसला । जबकि दोतरफ़ा में दोनों पक्षो का भाव है ।
ब्दों के सफ़र में अब चलते हैं उस दिशा में जहाँ खड़ा है तरफ़ का पर्याय 'ओर' । भाषाविदों के मुताबिक ओर का जन्म संस्कृत के ‘अवार’ से हुआ है जिसमें इस पार, निकटतम किनारा, नदी के छोर या सिरा का आशय है । मोनियर विलियम्स के मुताबिक अवार का ही पूर्वरूप अपार है । गौरतलब है कि आर्यभाषा परिवार की ‘व’ ध्वनि में या में बदलने की वृत्ति है । संस्कृत के अप में दूर, विस्तार, पानी, समुद्र आदि भाव हैं । इसी का एक रूप अव भी है जिसमें दूर, परे, फ़ासला, छोर जैसे भाव हैं । अवार के ‘वार’ में भी ‘पार’ का भाव है । इस किनारे के लिए पार और उस किनारे के लिए वार । ज़ाहिर है कि उस किनारे वाले व्यक्ति के लिए किनारों के संकेत इसके ठीक उलट होंगे । 
पार का ही अन्य रूप अवार है और अवार से ओर का निर्माण हुआ जिसमें छोर, किनारा, दिशा, दूरी, अन्तराल जैसे आशय ठीक अरबी के ‘तरफ़’ जैसे ही हैं । पारावार और वारापार शब्दों में यही भाव है । ‘वार’ और में ‘पार’ में मूलतः व और प ध्वनियों का उलटफेर है । पार का निर्माण पृ से हुआ है और वार का ‘वृ’ से । पार के मूल में जो पृ धातु है उसमें गति का भाव है सो इसका अर्थ आगे ले जाना, उन्नति करना, प्रगति करना भी है । आगे बढ़ने के भाव का ही विस्तार पार में । पार यानी किसी विशाल क्षेत्र का दूसरा छोर । वैसे पार का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ नदी का दूसरा किनारा ही होता है । पार शब्द भी हिन्दी के सर्वाधिक इस्तेमालशुदा शब्दों में है । आर-पार को देखिए जिसमें मोटे तौर पर तो इस छोर से उस छोर तक का भाव है, मगर इससे किसी ठोस वस्तु को भेदते हुए निकल जाने की भावाभिव्यक्ति भी होती है । आर-पार में पारदर्शिता भी है यानी सिर्फ़ भौतिक नहीं, आध्यात्मिक, मानसिक भी ।
संबंधित शब्द- 1. पक्ष. 2. पारावार. 3. वारापार. 4. वस्तु. 5. नदी. 7. आँख. 9. वार.

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Thursday, October 25, 2012

‘समय’ की पहचान

time

क्त अपने साथ ताक़त और रफ़्तार दोनो लेकर चलता है । यह साबित होता है हिन्दी के उन कई कालसूचक शब्दों से जो गतिवाची, मार्गवाची क्रियाओं से बने हैं । कहने की ज़रूरत नही कि गति का स्वाभाविक सम्बन्ध शक्ति से है । गति, प्रवाह, वेग दरअसल शक्ति को ही दर्शाते हैं । देवनागरी का ‘इ’ वर्ण संस्कृत में क्रिया भी है जिसमें मूलतः गति का भाव है, जाना, बिखरना, फैलना, समा जाना, प्रविष्ट होना आदि ‘इ’ क्रिया का का विशिष्ट रूप अय् है और इसमें भी गति है । अय् में सम् उपसर्ग लगने से बनता है समय । ‘सम’ यानी साथ-साथ ‘अय’ यानी जाना यानी साथ-साथ चलना, जाना । दरअसल हमारे आसपास का गतिमान परिवेश ही समय है अर्थात समूची सृष्टि, ब्रह्माण्ड, प्रकृति जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य हमारे इर्दगिर्द गतिमान है, वह सब काल के दायरे में है । जो कुछ घट रहा है, वह काल है । मनुष्य के लिए उससे तादात्म्य बिठाना ही समय है । बिहारी ने कहा है- समै समै सुंदर सबै, रूप कुरुप न कोय । मन की रुचि जैति जितै, तित तैति रुचि होय ।।
प्रकृति की लय में लीन हो जाना ही जीवन है । मोनियर विलियम्स के कोश में सम + इ के मेल से समय बनता है । ‘इ’ का समरूप अय् इसमें निहित है । जिसमें समागम, मिलन, एक होना, व्यवस्थित होना जैसे भाव इसमें हैं । इसके अलावा मौसम, अवधि, युग, काल, ऋतु, अवसर, सीमा, परिधि, संकेत, अवकाश, अन्तराल जैसे भाव भी इसमें हैं । समयोचित और सामयिक जैसे शब्दों में समय पहचाना जा रहा है समय में गति है इसीलिए हम कहते हैं कि वक्त बीत रहा है या बीत गया । समय का सम्बन्ध परिवेश में होने वाले बदलावों से है । “समय को पहचानों” का तात्पर्य संसार को पहचानने से है । “समय बदल रहा है” में दुनिया की रफ़्तार से रफ़्तार मिलाने की नसीहत है । स्पष्ट है कि समय में परिवेश का भाव प्रमुख है । जो घट रहा है, जो बीत रहा है के संदर्भ में ‘दुनिया मेरे आगे” ही समय है । संस्कृत के वीत में जाने का भाव है । इससे बना एक शब्द है वीतराग अर्थात सौम्य, शान्त, सादा, निरावेश । राग का अर्थ कामना, इच्छा, रंग, भावना होता है । वीतराग वह है जिसने सब कुछ त्याग दिया हो । एक पौराणिक ऋषि का नाम भी वीतराग था। वीतरागी वह है जो संसार से निर्लिप्त रहता है ।
सी कड़ी में आता है चरैवेति जो चर + वेति का मेल है । चर यानी चलना, आगे बढ़ना । वेति में ढकेलना, उकसाना, ठेलना ( सभी में शक्ति ), पास आना, ले जाना, प्रेरित करना, प्रोत्साहित करना, बढ़ाना, भड़काना, उठाना जैसे अर्थों को चरैवेति के सकारात्मक भाव से जोड़ कर देखना चाहिए ।सभी धर्मों में, संस्कृतियों में काल की गति को सर्वोपरि माना गया है मगर इसके साथ जीवन को, मनुष्यता को लगातार उच्चतम स्तर पर ले जाने की अपेक्षा भी कही गई है । चलना एक सामान्य क्रिया है । चर के साथ वेति अर्थात प्रेरणा ( ठेलना, ढकेलना ) का भाव सौद्धेश्य है । प्रेरित व्यक्ति एक दिशा में चलता है । उच्चता के स्तर पर मनुष्य लगातार अनुभवों से गुज़रते रहने पर ही पहुँचता है । “चरैवेति-चरैवेति” की सीख भी यही कह रही है कि निरंतर गतिमान रहो । ज्ञानमार्गी बनो । ज्ञान एक मार्ग है जिस पर निरंतर गतिमान रहना है । अनुभव के हर सोपान पर, हर अध्याय पर मनुष्य कुछ और शिक्षित होता है, गतिमान होता है, कुछ पाठ पढ़ता है ।
देवनागरी के ‘व’ वर्ण में ही गति का भाव है । इससे बनी ‘वा’ क्रिया में प्रवाह, गति का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली का वेग इसी कड़ी में है । मार्गवाची शब्दों के निर्माण में भी ‘व’ की भूमिका है । वर्त्मन यानी राह । बाट इसी वर्त्मन का देशज रूप है । अंग्रेजी का वे way को देखें जिसका अर्थ पथ, रास्ता, मार्ग है । यह भारोपीय मूल की ‘वे’ wegh से बना है जिसका समरूप विज् है जिससे संस्कृत का वेग बना है । राह कहीं ले जाती है । लिथुआनी के वेजू में ले जाने का आशय । रूसी में भी यह वेग और वेगात ( भागना ) है । संस्कृत वात ( फ़ारसी बाद ) यानी वायु , वह् से हवा आदि । वीत में जाना और आना दोनों हैं । वीथि यानी रास्ता इससे ही बनता है । रामविलास शर्मा संस्कृत की ‘वा’ के समानान्तर ‘या’ क्रिया का उल्लेख करते हैं । इनमें गति के साथ जलवाची अर्थवत्ता भी है । जल के साथ हमेशा ही गतिबोध जुड़ता है । मोनियर विलियम्स के कोश से इसकी पुष्टि होती है । संस्कृत का वारि जलवाची है तो रूसी के वोद ( वोदका ) का अर्थ पानी है । तमिल में नदी के लिए यारू शब्द है । ‘या’ में जाना, चलना, गति करना निहित है साथ ही इसमें खोज, अन्वेषण भी है । चलने पर ही कुछ मिलता है । चलने की क्रिया मानसिक भी हो सकती है । ‘या’ में ध्यान का भाव भी है । ‘आया’, ‘गया’ में इस गति सूचक ‘या’ को पहचानिए ।
संस्कृत में यान का एक अर्थ मार्ग तो दूसरा वाहन भी है । हीनयान, महायान, वज्रयान, सहजयान में रीति, प्रणाली की अर्थवत्ता है । किन्हीं व्याख्याओं में वाहन के प्रतीक को भी उठाया गया है । दोनों में ही ले जाने का भाव है । तमिल में इसके प्रतिरूप यानई और आनई हैं । कभी इनका अर्थ वाहन रहा होगा, अब ये हाथी के अर्थ में रूढ़ हैं । एक शब्द है याम जिसमें भी मार्ग के साथ वाहन का भाव है । याम में कालवाची भाव भी है अर्थात रात का एक पहर यानी तीन घण्टे की अवधी याम है । महादेवी वर्मा ने यामा का प्रयोग रात के अर्थ में किया है । दक्ष की एक पुत्री, और एक अप्सरा का नाम भी यामा, यामी, यामि मिलता है । इसी तरह यव का अर्थ द्रुत गति के अलावा महिने का पहला पखवाड़ा भी है । इसी कड़ी में आयाम भी है । आयाम अब  पहलू के अर्थ में रूढ़ हो गया है । इसका अर्थ है समय के अर्थ  में विस्तार । किसी चीज़ की लम्बाई या चौड़ाई । किसी  विषय के आयाम का आशय उस विषय के विस्तार से है ।
फिर समय पर लौटते हैं । समय के अय् में गमन, गति का भाव है, जिसकी व्याख्या ऊपर हो चुकी है । इस अय से अयन बनता है । अयन यानी रास्ता, मार्ग, वीथि, बाट, जाने की क्रिया आदि । इसका अर्थ आधे साल की अवधि भी है । दक्षिणायन और उत्तरायण में अवधि का संकेत है । दक्षिणायन में सूर्य के दक्षिण जाने की अवधि और गति का आशय है जिसके ज़रिये सर्दियों का आग़ाज़ होता । तब सूर्य कर्क रेखा से दक्षिण की ओर मकर रेखा की ओर बढ़ता है । सूर्य की उत्तरायण अवस्था इसके उलट होती है । इससे गर्मियों का आग़ाज़ होता है । संस्कृत का वेला, तमिल का वरई, कन्नड़ वरि, हिन्दी का बेला, मराठी का वेळ ये तमाम शब्द भी इसी कड़ी में हैं और समय सूचक हैं । संझाबेला, सांझबेला जैसे शब्द कालवाची ही हैं ।
काल यानी समय अपने आप में गति का पर्याय है। दार्शनिक अर्थों में चाहे समय को स्थिर साबित किया जा सकता है पर लौकिक अर्थो में तो समय गतिशील है। हर गुज़रता पल हमें अनुभवों से भर रहा है। हर अनुभव हमें ज्ञान प्रदान कर रहा है, हर लम्हा हमें कुछ सिखा रहा है । आज के प्रतिस्पर्धा के युग में हम अनुभवों की तेज रफ्तारी से गुज़र रहे हैं। आज से ढाई हजार साल पहले भी इसी ज्ञान की खातिर भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को यही सीख दी थी– चरत्थ भिक्खवे चारिकम । बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय । हे भिक्षुओं, सबके सुख और हित के लिए चलते रहो….।

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Thursday, October 18, 2012

पग-पग पैग़म्बर

pag
सं देश के अर्थ में फ़ारसी का पैग़ाम शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है ।  पैग़म्बर का रिश्ता भी पैग़ाम से ही है यानी वो जो पैग़ाम लाए । पैग़ाम का ही दूसरा रूप पयाम payam भी होता है । पैग़म्बर की तरह ही इससे पयम्बर बनता है । यह उर्दू में अधिक प्रचलित है । संवाद से जुड़े विभिन्न शब्द दरअसल किसी भी भाषा की आरम्भिक और मूलभूत शब्दावली का हिस्सा होते हैं । भाषा का जन्म ही संवाद माध्यम बनने के लिए हुआ है । पुराने ज़माने में पदयात्रियों के भरोसे ही सूचनाएँ सफ़र करती थीं । बाद में इस काम के लिए हरकारे रखे जाने लगे । ये दौड़ कर या तेज चाल से संदेश पहुँचाते थे । आगे चलकर घुड़सवार दस्तों ने संदेशवाहकों की ज़िम्मेदारी सम्भाली । इसके बावजूद शुरुआती दौर से लेकर आज तक पैदल चल कर संदेश पहुँचाने वालों का महत्व बना हुआ है । हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी के शब्दकोशों में पैग़ाम के बारे में व्युत्पत्तिमूलक जानकारी नहीं मिलती ।

पैग़ाम शब्द की रिश्तेदारी निश्चित रूप से संदेशवाहन की पैदल प्रणाली से होनी चाहिए । जॉन प्लैट्स के फ़ारसी, हिन्दुस्तानी, इंग्लिश कोश में पैग़ाम paigham शब्द को संस्कृत के प्रतिगम्  pratigam शब्द का सगोत्रीय बताया गया है जिसमें किसी की ओर जाना, मिलने जाना, वापसी जैसे भाव हैं । संस्कृत की बहन अवेस्ता में प्रति उपसर्ग का समरूप पैति है । डॉ अली नूराई द्वारा बनाए गए इंडो-यूरोपीय भाषाओं के रूटचार्ट में पैति-गम शब्द मिलता है मगर उन्होंने इसका रिश्ता न तो संस्कृत के प्रतिगम् से और न ही फ़ारसी के पैग़ाम जोड़ा, अलबत्ता एक अलग प्रविष्टि में पयाम ज़रूर दिया है । नूराई पैतिगम का अर्थ बताते हैं- निकलना ( संदेश के साथ ) ।  स्पष्ट है कि यह फ़ारसी पैग़ाम से पैतिगम का संदेशवाची रिश्ता जोड़ने का प्रयास है मगर  इससे कुछ पता नहीं चलता । यह ध्वनिसाम्य पर आधारित व्युत्पत्ति है । भारोपीय भाषाओं में पैर के लिए पेड ped तथा इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इसका रूप पद् होता है । पद् से ही संस्कृत में पद, पदम्, पदकम् जैसे शब्द बनते हैं । अवेस्ता में भी पद का अर्थ पैर है । इसका एक अर्थ चतुर्थांश भी होता है । अंग्रेजी के फुट foot, ped, गोथिक के फोटस fotus, लैटिन के pes जैसे शब्दों में ये धातुरूप नज़र आते हैं । भारोपीय धातु पेड ped से बनने वाले शब्दों की लम्बी शृंखला है । गौर करें कि प्रतिगम में सिर्फ़ गति उभर रही है, साधन गौण है जबकि संदेशवाहक मूलतः सेवक है और इस आशय वाले शब्दों के मूल में पैदल चलना एक आवश्यक लक्षण है ।  प्यादा, हरकारा, प्यून, धावक, अनुचर, परिचर आदि शब्दों में चलना (पैदल) एक अनिवार्य ज़िम्मेदारी है ।
संस्कृत में पैदल चलने वाले को पादातिक / पदातिक कहते हैं । मूलतः इसमें अनुचर, सिपाही या संदेशवाहक का आशय है । हिन्दी की तत्सम शब्दावली में पदातिक रूप प्रचलित है । संस्कृत में इसका अन्य रूप पायिक भी होता है । मोनियर विलियम्स इसका अर्थ a footman , foot-soldier , peon बताते हैं । वे पायिक को पादातिक का ही संक्षिप्त रूप भी बताते हैं । पद में पैर और कदम दोनो भाव हैं । इससे बने पदक, पदकम् का अर्थ कदम, डग, एक पैर द्वारा चली गई दूरी है । पदक का प्राकृत रूप पअक  है जिससे इसका अगला रूप पग बनता है । हिन्दी की बोलियों में में पग-पग, पगे-पगे या पैग-पैग जैसे रूप भी चलते हैं । मीरां कहती हैं- “कोस कोस पर पहरा बैठ्या पैग पैग  बटमार।”  इसी तरह मलिक मुहम्मद जायसी लिखते हैं – “पैग पैग पर कुआँ बावरी । साजी बैठक और पाँवरी ।” हमारा मानना है कि पैगाम में यही पैग उभर रहा है । निश्चित ही फ़ारसी के पूर्व रूपों में भी पदक से पैग रूपान्तर हुआ होगा ।
बसे पहले पादातिक का पायिक रूप संस्कृत में ही तैयार हो गया था । मैकेन्जी के पहलवी कोश के मुताबिक फ़ारसी के पूर्वरूप पहलवी में यह पैग payg है । पायिक की तर्ज़ पर इसे पायिग भी उच्चारा जा सकता है, मगर पहलवी में यह पैग ही हुआ है । पायिक से बने पायक का अर्थ हिन्दी में  पैदल सैनिक, या हरकारा होता है । इसी ‘पैग’ से संदेश के अर्थ वाला पैगाम शब्द तैयार होता है । कोशों में पैगाम और नुक़ते वाला पैग़ाम दोनो रूप मिलते हैं । मद्दाह के कोश में नुक़ते वाला पैग़ाम है । गौर करें कि अवधी का पैग, फ़ारसी में पैक के रूप में मौजूद है जिसका अर्थ है चिट्टीरसाँ, दूत, पत्रवाहक, डाकिया, हरकारा, प्यादा या एलची । पैग, फ़ारसी में सिर्फ़ पै रह जाता है जिसका अर्थ पदचिह्न या पैर है । फ़ारसी में पै के साथ ‘पा’ भी है जैसे पापोश, पाए-तख्त या पाए-जामा (पाजामा), पाए-दान (पायदान) आदि ।
पैगाम से ही ईश्वरदूत की अर्थवत्ता वाला पैग़म्बर शब्द बनता है । आमतौर पर पैग़म्बर नाम से इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद का बोध होता है । इंडो-ईरानी भाषाएँ बोलनेवाले समूहों में ईश्वरदूत, मुक्तिदाता के अर्थ में मुहम्मद के लिए पैग़म्बर शब्द रूढ़ हो गया । यूँ मूलतः इसमें संदेश लाने वाले का भाव ही है । दरअसल पैग़म्बर में वही अर्थवत्ता है जो हिन्दी के विभूति शब्द में है । दुनियseभर में जितनी भी विभूतियाँ पैदा हुई हैं, उनका दर्ज़ा ईश्वरदूत का ही रहा है । ग़लत राह पर चलते हुए कष्ट पाते मनुष्य को मुक्ति दिलाने के लिए समय समय पर ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने मानवता को राह दिखाई है । दुनिया ने ऐसे लोगों को ईश्वर का संदेश लाने वाले के तौर पैगम्बर माना । कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद सब ईश्वरदूत, पथप्रदर्शक या धर्मप्रवर्तक थे । पैगम्बर शब्द बना है पैग़ाम में फ़ारसी का ‘बर’ उपसर्ग लगने से । मूलतः पैग़ाम में संदेश भिजवाने का भाव है । संदेश भिजवाने की अत्यन्य प्राचीन तकनीक पग-पग या पैग-पैग ही थी सो पैग़ाम में संदेश की अर्थवत्ता पग-पग चल कर गन्तव्य तक मन्तव्य पहुँचाने की क्रिया से उभर रही है ।
भारोपीय धातु इंडो-यूरोपीय धातु bher से जिसमें बोझ उठाना, या ढोना जैसे भाव हैं । संस्कृत में एक धातु है ‘भृ’ जिसकी व्यापक अर्थवत्ता है मगर मोटे तौर पर उसमें संभालने, ले जाने, भार उठाने आदि का भाव है । इससे ही बना है भार शब्द जिसका अर्थ होता है वज़न, बोझ आदि । भार का एक रूप भर  है । यह वज़न की इकाई भी है । फ़ारसी में यह बर है जिसका आशय उठाना, ले जाना है । बर अपने आप में प्रत्यय है । पैग़ाम के साथ जुड़ कर इसमें “ले जाने वाला” का आशय पैदा हो जाता है । इस तरह पैग़ाम के साथ बर लगने से बनता है पैग़ाम-बर अर्थात संदेश ले जाने वाला । पैगामबर का ही रूप पैगंबर या पैगम्बर हुआ । पैग़म्बरी का अर्थ है पैग़म्बर होने का भाव या उसके जैसे काम । पैग़म्बरी यानी एक मुहिम जो इन्सानियत के रास्ते पर चलने को प्रेरित करे । इन्सानियत पर चलना ही ईश्वर प्राप्ति है । पैगम्बर भी डगर-डगर चल कर औरों के लिए राह बनाता है । सो पैगम्बर सिर्फ़ पैग़ाम लाने वाला नहीं बल्कि पैग-पैग चलाने वाला, पार उतारने वाला भी है । संदेशवाहक के लिए पैग़ामगुजार शब्द भी है ।
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Friday, September 14, 2012

भरोसे की भैंस, पाडो़ ब्यावै

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मा लवी ज़बान में एक कहावत है, “भरोसे की भैंस, पाड़ो ब्यावै” अर्थात गाभन भैंस से अगर मादाशिशु की उम्मीद रखेंगे तो वह नरशिशु को जन्म देती है । यानी भैंस का काम ‘रामभरोसे’ चलता है । मज़े की बात यह की शुरुआत में ‘रामभरोसे’ में सकारात्मक अर्थवत्ता थी और इसका अर्थ तो ‘रामआसरे’ यानी राम की कृपा के सहारे है मगर अविश्वास के दौर में इसमें नकारात्मक अर्थवत्ता समा गई । अर्थात ऐसी व्यवस्था या तन्त्र जिसमें कुछ भी सुचारू होने की संभावना न हो । इसी तर्ज़ पर भरोसीराम जैसा संज्ञानाम भी बन गया ।  शब्द निर्माण प्रक्रिया ईंट-ईंट जोड़ कर दीवार बनने से अलग, कहीं गूढ़ और रहस्यमय होती है । विश्वास, यक़ीन अथवा एतबार के अर्थ में ‘भरोसा’ शब्द का प्रयोग बोलचाल की हिन्दी में खूब होता है । इतना कि इसमें फ़ारसी का ‘मन्द’ प्रत्यय लगाकर दौलतमन्द, हौसलामन्द की तर्ज़ पर भरोसेमन्द जैसा शब्द भी बना लिया गया जिसका अर्थ होता है विश्वसनीय । मगर ‘भरोसा’ शब्द की अर्थवत्ता विश्वास अथवा यक़ीन की तुलना में कहीं व्यापक है । इसके बारे में बाद में चर्चा करेंगे, पहले जानते हैं इसकी व्युत्पत्ति कैसे हुई ।
‘भरोसा’ शब्द की व्युत्पत्ति पर भाषाविद् एकमत नहीं हैं और हिन्दी-इंग्लिश-मराठी के प्रमुख कोशकारों ने भरोसा शब्द की व्युत्पत्ति तलाशते हुए कल्पना के घोड़े खूब दौड़ाए हैं । हिन्दी शब्दसागर में भरोसा की व्युत्पत्ति वर + आशा दी हुई है । संस्कृत के ‘वर’ में चाह, इच्छा, मांग, पसंद, मनोरथ, चुनाव का भाव है । इस तरह ‘वर’ और आशा के मेल से इच्छापूर्ति का आशय उभरता है । इस व्युत्पत्ति का दोष यह है कि वर+आशा से वराशा > भरोसा बनने की क्रिया अटपटी लगती है । आमतौर पर ‘व’ की प्रवृत्ति ‘ब’ में बदलने की है और ‘ब’ का रूपान्तर ‘भ’ में होता है । ‘व’ वर्ण सीधे ‘भ’ में नहीं बदलता । हिन्दी की किसी भी बोलियों में अगर वरोसा, बरोसा जैसे शब्द भी मिलते तो वर + आशा से भरोसा की व्युत्पत्ति को भरोसेमन्द माना जा सकता था ।
जॉन प्लैट्स के प्रसिद्ध कोश “अ डिक्शनरी ऑफ़ उर्दू, क्लासिकल हिन्दी एंड इंग्लिश” में भरोसा की व्युत्पत्ति भद्र + आशा दी हुई है । यहाँ भद्र + आशा से ‘भद्राशा’ होते हुए कल्पना की गई लगती है कि ‘द’ वर्ण का लोप हुआ होगा और ‘र’ शेष रहा होगा और ‘श’ वर्ण ‘स’ में तब्दील हुआ होगा । इस तरह ‘भराशा’ से ‘भरोसा’ बना होगा । शब्द रूपान्तर की प्रवृत्ति के हिसाब से यह व्युत्पत्ति भी त्रुटिपूर्ण लगती है । ‘भद्र’ शब्द का अपभ्रंश रूप भद्द, भद्दा बनते हैं । भद्र के साथ जुड़ने वाले ‘आशा’ का आद्यक्षर ‘आ’ है जो स्वर है, व्यंजन नहीं सो भद्र + आशा से भद्राशा बनेगा । इसका अगला रूप ‘भद्दासा’ या ‘भदासा’ हो सकता है, ‘भराशा’ नहीं, जिससे भरोसा बनने की कल्पना की जा रही है । भद्र का ‘द’ तभी भेदखल हो सकता था जब आशा के ‘आ’ के स्थान पर कोई व्यंजन होता, क्योंकि दूसरे पद के आद्यक्षर का स्वर तो प्रथम पद के अन्त्याक्षर के व्यंजन से जुड़ जाएगा ।
र रॉल्फ़ लिली टर्नर भी काल्पनिक व्युत्पत्ति का सहारा लेते हैं मगर उनकी व्युत्पत्ति को तार्किक साबित करते कुछ प्रमाण हमारे पास हैं । टर्नर अपने ‘अ कम्पैरिटिव डिक्शनरी ऑफ़ इंडो-आर्यन लैग्वेजेज़’ नामक कोश में भरोसा की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘भारवश्य’ bharavashya से बताते हैं । इसी तरह रामचन्द्र वर्मा भी ‘भरोसा’ का रिश्ता ‘भार’ से जोड़ते हैं जिसमें सहारे का भाव है । परिमाणवाची अर्थवत्ता से हट कर ‘भार’ शब्द में निर्वहन, कर्तव्य, जिम्मेदारी जैसी मुहावरेदार अर्थवत्ता है, उसका प्रयोग भाषा में ज्यादा होता है । यह भाव भार की मूल धातु ‘भृ’ से आ रहा है जिसमें उठाना, थामना, अवलम्बन, सम्भालना, पालना जैसे आशय निहित हैं मोनियर विलियम्स के कोश में भी ‘भार’ शब्द की अर्थवत्ता के विविध आयामों के अन्तर्गत- “task imposed on any one” भी दर्ज़ है । वज़न के अर्थ में भार शब्द का प्रयोग व्यवहार में विरल है । “इस वस्तु का भार कितना है ” जैसे वाक्य की बजाय “इस चीज़ का वज़न कितना है ” यही वाक्य सुनाई पड़ता है । भार शब्द की मुहावरेदार अभिव्यक्ति “काम करने”, “जिम्मेदारी निभाने”, “कर्तव्यपालन” जैसे सन्दर्भों में “भार डालना”, “भार उठाना”, “भार सम्भालना” जैसे मुहावरे हिन्दी में खूब प्रचलित हैं ।
कार्यभार, कार्यभारित जैसे शब्दों से भी जिम्मेदारी और कर्त्तव्य-निर्वाह के सन्दर्भ उभरते हैं । ‘भारवश्य’ शब्द के सन्दर्भ में विचार करें तो ‘भार’ अर्थात जिम्मेदारी, यह स्पष्ट है । इसका दूसरा पद है “वश्य” । मोनियर विलियम्स वश्य का अर्थ बताते हैं-“ obedient to another's will” अर्थात किसी के प्रति जिम्मेदार होना । इसमें सेवक या मातहत का भी भाव है । यह स्पष्ट है कि भरोसा ‘भार’ महत्वपूर्ण है । इसमें वर, भद्र या आशा नहीं है । जो व्यक्ति ‘भार’ के अधीन हो उसे ‘भारवश्य’ कहा जाएगा । गौर करें निर्भर या निर्भरता शब्द के भीतर भी ‘भृ’ या ‘भार’ है । निर्भरता यानी अलम्बन, सहारा, सपोर्ट । सेवक के लिए हिन्दी की तत्सम शब्दावली में ‘भृत्य’ शब्द मिलता है । भृत्य bhritya वह है जो अलम्बित हो, सपोर्टेड हो । अर्थात जिसका भरण किया जाता हो । जिसे काम की एवज में भृति यानी मजदूरी मिलती हो और इसी वजह से जो ‘भारवश्य’ (भार के वश में यानी कार्य के अधीन ) हो यानी दूसरे के द्वारा दिया गया काम करने के लिए पाबन्द हो । अधीन के अर्थ में ‘वश’ या ‘वश्य’ से ही हिन्दी, उर्दू में ‘बस’ शब्द बना है जैसे “यह बात मेरे बस में नहीं है” या “मैं तो आपके बस में हूँ” ।
राठी में भरोसा को “भरवसा” कहते हैं । विद्वानों ने चाहे भरोसा में वर + आशा या भद्र + आशा देखी हो मगर मराठी के “भरवसा” को देख कर टर्नर के ‘भारवश्य’ पर भरोसा होने लगता है । सिन्धी के ‘भरवसो’ का भी क़रीब क़रीब ऐसा ही रूप है । निश्चित ही ‘भरवसा’ और ‘भरवसो’ का विकास किसी काल में ‘भारवश्य’ जैसे संज्ञारूप से हुआ होगा । हालाँकि यह जानना दिलचस्प होगा कि मराठी व्युत्पत्ति कोश के रचनाकार कृ.पा. कुलकर्णी संस्कृत के ‘विश्रम्भ’ में भरोसा की व्युत्पत्ति देखते हैं । वा.शि. आप्टे के संस्कृत कोश में ‘विश्रम्भ’ में विश्वास, भरोसा, पूर्ण घनिष्ठता, अन्तरंगता के साथ आराम, विश्राम जैसे आशय भी बताए गए हैं । कुलकर्णी के अलावा अन्य किसी कोश में यह व्युत्पत्ति नहीं बताई गई है । कुलकर्णी यह संकेत भी नहीं करते हैं कि ‘विश्रम्भ’ से भरोसा के रूपान्तर का क्रम क्या रहा होगा क्योंकि अर्थसाम्य तो यहाँ है मगर ध्वनिसाम्य नज़र नहीं आता । ‘विश्रम्भ’ को तोड़कर देखा जाए तो जो ध्वनियाँ हाथ लगती हैं वे हैं : व-श-र-म-भ । यह विचारणीय है कि जो ‘भरवसा’ बड़ी आसानी से ‘भारवश्य’ से बन रहा है उसे व-श-र-म-भ (विश्रम्भ) से हासिल करने में कितनी कठिनाई हो रही है । इसे हम वर्णविपर्ययका उदाहरण मानते हुए उल्टे क्रम में चलते हुए अन्तिम वर्ण ‘भ’ को सबसे पहले लाते हैं । फिर अनुनासिक ‘म’ का लोप करते हैं । उसी क्रम में हम ‘भ’ के बाद ‘र’ को रखते हैं फिर एकदम आदिस्थानीय व्यंजन ‘व’ को तीसरे क्रम पर रखते हैं और अन्त में ‘श’ को ‘स’ में बदलते हुए ‘भरवसा’ का निर्माण करते हैं । यह अव्यावहारिक लगता है । हालाँकि प्राचीन मराठी में ‘भरवसा’ के स्थान पर ‘र’ में अनुनासिकता थी अर्थात यह भरंवसा था । इसके बावजूद वर्णविपर्यय के जरिये इस शब्द के निर्माण की बात गले नहीं उतरती । भरवसा के आगे कुलकर्णी ने सिर्फ़ विश्रम्भ लिखने के अलावा और कोई संकेत नहीं दिया है ।
मतौर पर भरोसा को विश्वास का पर्याय ही समझा जाता है पर दोनों की अर्थवत्ता में अन्तर है ।‘भरोसा’ का मुख्य भाव है किसी पर जिम्मेदारी आयद कर उस पर निर्भर रहना । इसमें किसी उद्धेश्य की कार्यसिद्धि ज़रूरी है । किन्हीं परिस्थितियों में इससे विश्वास का भावबोध भी होता है । ज़ाहिर है पुरातन समाज में भरोसा के भीतर नैतिक बाध्यता थी कि काम होना ही है । मगर बाद के दौर में भरोसा परनिर्भरता का पर्याय बन गया तब ‘रामभरोसे’ जैसी कहावतें सामने आईं यानी भरोसे पर नहीं रहना चाहिए । रामचंद्र वर्मा शब्दार्थ विचार कोश में हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा का उद्धरण देते हैं “ भट्टिनी मेरे ऊपर विश्वास भले ही रखती हो, भरोसा नहीं रखती ” भाव यही है कि उसे मेरे चरित्र और सज्जनता पर कोई संदेह नहीं, मगर मैं सहारा या अवलम्ब बनूंगा, इसकी आशा नहीं है ।  नए सन्दर्भ में इसे यूँ समझ सकते हैं – “मनमोहन सिंह पर विश्वास तो है, मगर भरोसा नहीं ।

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Tuesday, August 21, 2012

सरमायादारों की माया [माया-1]

अगली कड़ी-‘मा’, ‘माया’, ‘सरमाया’ [माया-2]wealth

ला लित्यपूर्ण और प्रभावी भाषा प्रयोग करते हुए अक्सर कुछ लोग धन-दौलत के अर्थ में 'सरमाया' शब्द का इस्तेमाल करते हैं । दुनिया का मूल चरित्र हमेशा पूंजीवादी समाज रहा है । पैसे के दम पर क्या नहीं हो सकता । दौलतमंद सर्वशक्तिमान होता है । इसीलिए ‘सरमाया’ शब्द की अर्थवत्ता में असर की अर्थवत्ता भी शामिल है । ‘सरमाया’ यानी पूंजी, दौलत, धन, कैपिटल इसलिए सरमायादार का अर्थ हुआ पूंजीपति, मालदार, धनी, दौलतमंद आदि । सियासत और ‘सरमाया’ का चोली-दामन का साथ है । ‘मायः’ से बने सरमाया, सरमायादार, सरमायादाराना, सरमायादारी जैसे शब्द लिखत-पढ़त की भाषा में प्रचलित हैं । इसके अलावा ‘मायादार’ जैसा शब्द भी है जिसका अर्थ भी धनी, मालदार ही है ।
हिन्दी में ‘सरमाया’ शब्द फ़ारसी से आया है । ‘सरमाया’ को अरबी का समझा जाता है पर यह भारोपीय भाषा परिवार की इंडो-ईरानी शाखा का शब्द है और फ़ारसी के सर + ‘मायः’ से मिल कर बना है । गौरतलब है कि फ़ारसी का विकास बरास्ता अवेस्ता (वैदिक संस्कृत की मौसेरी बहन), पहलवी हुआ है । संस्कृत की तरह ही अवेस्ता में भी विसर्ग लगता रहा है और वहीं से यह फ़ारसी में भी चला आया । फ़ारसी के ‘मायः’ का उच्चारण माय’ह होना चाहिए मगर विसर्ग का उच्चार अक्सर स्वर की तरह होता है इस तरह फ़ारसी का ‘मायः’ भी माया उच्चारा जाता है । हिन्दी शब्दसागर में ये दोनों ही रूप दिए हुए हैं । ‘सरमाया’ में जो ‘सर’ है वह सरदार, सरपरस्त, सरज़मीं, सरकार वाला सर ही है जिसका इस्तेमाल उपसर्ग की तरह होता है । सर का प्रयोग प्रमुख, खास, सर्वोच्च आदि की तरह होता है । यह जो फ़ारसी का ‘सर’ है उसका रिश्ता वैदिक संस्कृत के ‘शिरस्’ से है जिसका अर्थ है किसी भी वस्तु का उच्चतम हिस्सा, कपाल, खोपड़ी, मस्तक, चोटी, शिखर, शुरुआत, पीक, बुर्ज़, पराकाष्ठा, चरम आदि ।
संस्कृत में ‘शीर्ष’ का मूल भी यही है । इससे ही हिन्दी का ‘सिर’ बना है । शिरस् के समतुल्य जेंद में ‘शर’ शब्द बना जिसका पहलवी रूप ‘सर’ हुआ । फ़ारसी में यह ‘सर’ चला आया । अलबत्ता जॉन प्लैट्स की “अ डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लासिकल हिन्दुस्तानी एंड इंग्लिश” के मुताबिक फ़ारसी का सर संस्कृत के ‘सिरस्’ से आ रहा है । ध्यान रहे, ‘सिर’ यानी मस्तक के अर्थ में संस्कृत के किसी कोश में ‘सिरस्’ की प्रविष्टि नहीं मिलती । प्लैट्स के ऑनलाईन कोश में सम्भवतः वर्तनी की चूक है । जहाँ तक ‘माया’ का सवाल है, जान प्लैट्स इसके जन्मसूत्र संस्कृत के ‘मातृका’ में देखते हैं । ‘माया’ की व्युत्पत्ति का ठोस संकेत ‘मातृका’ से नहीं मिलता । ध्यान रहे मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में ‘मातृका’ का अर्थ सिर्फ माँ सम्बन्धी, धात्री, माँ, जन्मदात्री अथवा पालनकर्त्री है । जबकि प्लैट्स धन-दौलत के संदर्भ में इसके अर्थ मूल, व्युत्पन्न, स्रोत दिए गए हैं साथ ही दौलत, पूंजी, नगद, भंडार, कोश, निधि जैसे अर्थ भी दिए गए हैं । समझा जा सकता है कि प्लैट्स शायद यह कहना चाहते हैं कि ‘मातृ’ शब्द में उद्गम या स्रोत का भाव है । ज़ाहिर है स्रोत अपने आप में एक कोश या भण्डार होता है । यह तर्कप्रणाली गले नहीं उतरती और खींच-तान कर मातृका का रिश्ता धन-दौलत से जोड़ने वाली कवायद जान पड़ती है ।
गौरतलब है कि संस्कृत का ‘मातृका’ स्त्रीवाची है जबकि फ़ारसी का ‘मायः’ पुरुषवाची है । उधर हिन्दी-संस्कृत में ‘माया’ की अर्थवत्ता बहुत व्यापक है और इसमें न सिर्फ़ धन-दौलत का भाव है बल्कि भ्रम, छलावा, धोखा, अतीन्द्रिय शक्ति, कला, जादूविद्या, भूत-प्रेत सम्बन्धी अथवा टोना जैसे अभिप्राय भी इसमें हैं । संस्कृत में ‘माया’ का एक अर्थ दुर्गा भी है मगर यह इसमें जन्मदात्री का आशय न होकर पराशक्तियों की स्वामिनी देवी का भाव है । इसी तरह ‘माया’ का दूसरा अर्थ लक्ष्मी है जो धन-वैभव की देवी हैं । इसी भाव का विस्तार माया के धन, दौलत, रोकड़ा, रुपया-पैसा, वैभव, सम्पत्ति, निधि, माल-मत्ता आदि में होता है । धन की महिमा अपरंपार है । इसके ज़रिये सुखोपभोग का कल्पनातीत संसार रचा जा सकता है । यहाँ ‘माया’ का अर्थ अवास्तविक लीला, कल्पनालोक या छलावा सार्थक होता है क्योंकि धन के रहने पर इन सबका भी लोप हो जाता है । इसीलिए कबीर ने धन-सम्पदा के अर्थ में ही “माया महा ठगिनी हम जानि” जैसी प्रसिद्ध उक्ति कही है ।
मायाजीवी शब्द भी धन-दौलत में रुचि रखने वाले का अर्थबोध कराता है जबकि मायावी का अर्थ जालसाज़, कपटी, छली, धोखेबाज, जादूगर आदि है । यह बात समझनी मुश्किल है कि प्लैट्स फ़ारसी के ‘मायः’ का रिश्ता धन-दौलत के अर्थ में संस्कृत के मातृक से क्यों जोड़ रहे हैं जबकि संस्कृत के ही ‘माया’ शब्द में धन-दौलत, पूंजी, सम्पदा के साथ माप-जोख, देवीदुर्गा, शक्ति जैसे भाव है । अगली कड़ी में समाप्त

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Tuesday, June 19, 2012

थप्पड़ की रसीद या रसद की ?

Receipts

पा वती या ‘बिल’ के लिए एक आम शब्द है ‘रसीद’ । यह फारसी का है मगर हिन्दी में ‘पावती’ शब्द बहुत कम इस्तेमाल होता है और ‘रसीद’ ज्यादा । हालाँकि रसीद में पावती का भाव अधिक है । पावती यानी प्राप्ति अर्थात जिसे पा लिया जाए । पावती का बिल के अर्थ में भाव है भुगतान मिलने की सूचना । यह सूचना बिल की शक्ल में आपको सौंपी जाती है । मूलतः रसीद इंडो-ईरानी भाषा परिवार का शब्द है और इसकी व्याप्ति भारोपीय भाषा परिवार की कई भाषाओं में देखी जा सकती है । रसीद में मूलतः पहुँचने या प्राप्त होने की क्रिया निहित है । ‘रसीद’ बना है फ़ारसी की क्रिया ‘रसीदन’ से जिसमें पाने, पहुँचने का भाव है । गए बिना कहीं भी कैसे पहुँचा जा सकता है? पहुँचना और पाना गतिवाचक क्रियाएँ हैं और रसीदन में गति का भाव ही खास है ।
विभिन्न संदर्भों को देखने से पता चलता है कि ‘रसीद’ शब्द में बुनियादी तौर पर वैदिक ध्वनि ‘ऋ’ ( जो एक शब्द भी है ) की महिमा नज़र आती है । देवनागरी का ‘ऋ’ अक्षर दरअसल संस्कृत भाषा का एक मूल शब्द भी है जिसका अर्थ है जाना, पाना । जाहिर है किसी मार्ग पर चलकर कुछ पाने का भाव इसमें समाहित है । ‘ऋ’ की महिमा से कई इंडो यूरोपीय भाषाओं जैसे हिन्दी, उर्दू, फारसी अंग्रेजी, जर्मन वगैरह में दर्जनों ऐसे शब्दों का निर्माण हुआ जिन्हें बोलचाल की भाषा में रोजाना इस्तेमाल किया जाता है । हिन्दी का ‘रीति’ या ‘रीत’ शब्द इससे ही निकला है । ‘ऋ’ का जाना और पाना अर्थ इसके ऋत् यानी रीति रूप में और भी साफ हो जाता है अर्थात् उचित राह जाना और सही रीति से कुछ पाना । हिन्दी संस्कृत का जाना-पहचाना ऋषि शब्द देखें तो भी इस की महिमा साफ समझ में आती है । ‘ऋ’ से बनी एक धातु है ‘ऋष्’ जिसका मतलब है जाना-पहुँचाना । इसी से बना है ऋषि जिसका शाब्दिक अर्थ तो हुआ ज्ञानी, महात्मा, मुनि इत्यादि मगर मूलार्थ है सही राह पर ले जाने वाला । फारसी के ‘रशद’ या ‘रुश्द’ जैसे शब्द जिसका अर्थ है सन्मार्ग, दीक्षा और गुरू की सीख । शब्दकोशों में इन्हें अरबी का बताया गया है, मगर ख्याता भाषाविज्ञानी और आलोचक डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक ये फ़ारसी से अरबी में गए हैं और का विकास ही हैं । इसी से बना ‘रशीद’ जिसके मायने हैं राह दिखानेवाला । ‘राशिद’ भी इससे ही बना है जिसके मायने हैं ज्ञान पानेवाला । यही नही ‘मुर्शिद’ यानी गुरू में भी इसी ‘ऋ’ की महिमा है ।
‘पावती’ के अर्थ में ‘रसीद’ शब्द में इसी ‘ऋष्’ की अर्थछाया नज़र आती है । जॉन प्लैट्स के कोश में फ़ारसी के ‘रस’ का विकास क्रमशः पहलवी रश और ज़ेंद के राश से हुआ है । ये शब्द वैदिक धातु ‘ऋष्’ के समतुल्य हैं । ईरान के भाषाविज्ञानी और खगोलशास्त्रज्ञ मोहम्मद हैदरी मल्येरी लिखते हैं कि फ़ारसी के प्राच्य रूपों में यह ‘रसा’ है जो वैदिक शब्द ‘अर’ से आया है जिसमें चक्रगति, परिक्रमा, भ्रमण जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स के अनुसार यह ‘अर’ भी ‘ऋ’ से ही आ रहा है । हिन्दी में ‘आरी’ उस दाँतेदार यन्त्र को कहते हैं जिससे कठोर सतह को काटा जाता है । आमतौर पर इससे लकड़ी ही काटी जाती है। ‘आरी’ में यही ‘अर’ है । रहँट के मूल में भी अर है जो अरघट्ट से आ रहा है । इसे समझने के लिए किसी गरारी लगे यंत्र के चक्कों में बनें दाँतों पर गौर करें । संस्कृत में इसके लिए ही ‘अर’ शब्द है जिसके मूल में ‘ऋ’ धातु है । ‘ऋ’ में मूलतः गति का भाव है। जाना, पाना, घूमना, भ्रमण करना, परिधि पर चक्कर लगाना आदि । गरारी के दाँतों में फँसी शृंखला घूमते हुए यन्त्र के चक्के लगातार घूमते रहते हैं । सी ‘रस’ से ‘रसाई’ शब्द भी बना है जिसमें पहुँच का ही भाव है जैसे “ग़ालिब तक अपनी रसाई कहाँ ?” उर्दू का ‘रसाँ’ शब्द प्रत्यय की तरह इस्तेमाल होता है जैसे ‘चिट्ठीरसाँ’ यानी पत्रवाहक या पत्र पहुँचाने वाला । पावती के अर्थ में रसीद में रुक्का, टिकट, सील भी है जिसमें लगने, चस्पा होने, जड़ने, चिपकने, मिलने की निशानी का भाव है । इसी भाव को अभिव्यक्ति मिलती है जब किसी के गाल पर ‘थप्पड़ रसीद’ किया जाता है । गाल पर हथेली के निशान दरअसल पावती ही है जो साबित करती है कि सामने वाले को उसके किए की सज़ा मिल चुकी है ।
फ़ारसी के ‘रसीद’ और अंग्रेजी के ‘रिसीट’ शब्दों में ग़ज़ब का ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य है मगर इन दोनों के जन्मसूत्र अलग-अलग हैं । अंग्रेजी के ‘रिसीट’ ( receipt ) में भी बुनियादी तौर पर पाने , प्राप्त करने का आशय है इसका आधार रिसीव है जो बना है लैटिन के रेसपिअर recipere से । इसका अर्थ है लेना, पाना । लैटिन के रेसपिअर में री + सिपेअर हैं । री अर्थात पुनः, फिर और सिपेअर यानी प्राप्त करना । इस तरह लैटिन के रेसपिअर का भूतकालिक रूप होता है रिसेप्टा recepta जिसमें प्राप्त हो चुकने का भाव है । इसके एंग्लो-फ्रैंच रूप से का लोप होकर receite बना । अंग्रेजी की वर्तनी में की मौजूदगी बनी रही मगर उच्चारण फ्रैंच प्रभावित रहा अर्थात रिसीट हुआ । आज हिन्दी में अंग्रेजी का रिसीट और फ़ारसी का रसीद दोनों शब्द बेहद प्रचलित हैं । गौरतलब है कि मरीज़ का मुआयना करने के बाद डॉक्टर जो पर्चा ( प्रेस्क्रिप्शन ) लिखते हैं उस पर “Rx” चिह्न दर्ज़ करते हैं जिसका भाव यही रहता है कि मरीज़ को देख कर उसके लिए उपचार-विधि लिखी जा चुकी है । यह जो नुस्खा है , यही डॉक्टर द्वारा मरीज़ को दी गई प्राप्ति है । यह  मूलतः  recipe का संक्षेपीकरण है । कहने की ज़रूरत नहीं कि पाक-विधि के लिए आज हिन्दी में ज्यादातर प्रयुक्त रेसपी शब्द भी यही है जिसमें नुस्खा या विधि का भाव है । 
फ़ारसी की रसीदन क्रिया से ही निकला है एक और जाना-पहचाना शब्द जिसका इस्तेमाल फौजी शब्दावली में ज्यादा होता है , वह है ‘रसद’ । फौजी राशन या कच्ची खाद्य सामग्री जो सैनिकों में बराबर बाँटी जाती है । आमतौर पर फौज के लाव-लश्कर में रसद सबसे महत्वपूर्ण सामग्री होती है । ‘रसद’ में पाने का भाव यहाँ भी स्पष्ट है । आहार वह है जिसे उदरस्थ किया जाए मगर रसद वह कच्ची सामग्री है जिससे आहार तैयार किया जाता है । रसद में नून, तेल, लकड़ी सब कुछ शामिल है । जॉन प्लैट्स के कोश में रसद के गल्ला, राशन, खाद्यान्न, आपूर्ति, राशन-भत्ता, हिस्सा, कोटा, अंश, प्राप्त, आयात, राजस्व, खाद्य भण्डार जैसे अर्थ शामिल हैं ।

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Wednesday, April 11, 2012

बलाए-ताक नहीं, बालाए-ताक सही

Vue générale des grottes de Taq-e Bostanसम्बंन्धित आलेख-1.आखिरी मक़ाम की तलाश... पिया मिलन को जाना.…2. प्यारा कौन ? बैल , बालम या मलाई ?.3.लीला, लयकारी और प्रलय….
बो लचाल की भाषा को लय और अर्थवत्ता देने में मुहावरों का अहम क़िरदार होता है । एक मुहावरा पाँच वाक्यों के बराबर बात कह जाता है । इसीलिए मुहावरेदारा भाषा सहज और प्रवाही होती है । हिन्दी को समृद्ध बनाने में फ़ारसी के मुहावरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । आज़ादी के बाद जब हिन्दी के राजभाषा वाले स्वरूप के प्रति लोग कुछ सजग हुए तो उर्दू-फ़ारसी की ठसक वाली हिन्दुस्तानी ज़बान का रुतबा धीरे धीरे कम होने लगा । हालाँकि अरबी-फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल कम नहीं हुआ, मगर उनका बर्ताव हिन्दी शब्दों जैसी ही गै़रज़िम्मेदारी से होने लगा । कई शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल में असावधानी नज़र आने लगी क्योंकि इस ओर  हिन्दी वालों का ध्यान नहीं था । राजभाषा अब फ़ारसी, अंग्रेजी नहीं, हिन्दी थी । मिसाल के तौर पर एक मुहावरा है बलाए-ताक रखना । आमतौर पर किसी विषय को दूर रखने, उसकी उपेक्षा करने, मुख्यधारा से अलग रखने की कोशिश को अभिव्यक्त करने के लिए बलाए-ताक़ मुहावरे का प्रयोग किया जाता है जैसे- “इमर्जेंसी में सत्ताधारी पार्टी ने कानून को बलाए-ताक रख दिया था ।“ ख़ास बात यह कि दशकों से इस मुहावरे का प्रयोग हो रहा है जबकि सही रूप है बालाए-ताक रखना । लोग समझते हैं कि किसी चीज़ को बला यानी दिक्क़ततलब समझ कर ताक पर रखा जा रहा है जबकि इसमें बला यानी मुश्किल, कठिनाई का भाव न होकर बाला यानी ऊँचाई का भाव है ।

बला’ और ‘बाला’ की रिश्तेदारी

ला शब्द का हिन्दी में खूब इस्तेमाल किया जाता है । अरबी में विपत्ति, मुश्किल, कठिनाई, आपदा, दिक़्क़त, मुसीबत, कष्ट, संकट या परेशानी जैसी स्थितियों के संदर्भ में बला शब्द का प्रयोग किया जाता है । फ़ारसी कहावत सबने सुनी है- “ज़ल तू, ज़लाल तू, आई बला को टाल तू ।” इस कहावत में बला को उपरोक्त तमाम अर्थों में समझा जा सकता है । सौन्दर्य की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए फ़ारसी में नकारात्मक विशेषणों का प्रयोग भी होता है । क़यामत की ही तरह बला भी इस कड़ी में है । बला की खूबसूरती अथवा खूबसूरती या बला जैसे मुहावरों में बला विशेषण के तौर पर आया है । भाव है ऐसा सौन्दर्य जिसे देख कर आदमी सुध-बुध खो बैठे । जाहिर है ऐसा होना परेशानी वाली बात ही है, मगर इससे सौन्दर्य को भी सराहना मिल रही है । मगर बलाए-ताक़ में यह बला नहीं है क्योंकि बलाए-ताक का शाब्दिक अर्थ होगा ताक की बला यानी आले की परेशानी । इससे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता । हालाँकि बला और बाला दोनों ही शब्द सेमिटिक मूल के हैं और इनमें आपसी रिश्तेदारी है । मगर प्रस्तुत मुहावरे में ये बला और बाला दोनो अलग अलग छोर पर नज़र आते हैं । इसके लिए जानते हैं बालाए-ताक को ।

बाल का बोलबाला

सेमिटिक भाषा परिवार का एक ख़ास शब्द है बाल, जिसकी इस समूह की कई भाषाओँ में व्यापक अर्थवत्ता है । दिक्कत, परेशानी, अनिष्ट, कष्ट आदि अर्थों में ही यह अज़रबेजानी में बेला है, फुलानी में यह आलबला है तो ग्रीक में यह पेलास है । अफ्रीका की हौसा भाषा में यह बालाई है, हिन्दी और इंडोनेसियाई में इसे बला कहते हैं तो किरगिज़ी में यह बलाआ है । रोमानी में इसका रूप बेलिया है और उज्बेकी में यह बलो है । सुमेरी संस्कृति में इसका मतलब होता है -सर्वोच्च, शीर्षस्थ या सबसे ऊपरवाला । हिब्रू में इसका मतलब होता है परम शक्तिमान, देवता अथवा स्वामी । गौरतलब है कि लेबनान की बेक्का घाटी में बाल देवता का मंदिर है । हिब्रू के बाल (baal) में निहित सर्वोच्च या सर्वशक्तिमान जैसे भावों का अर्थविस्तार ग़ज़ब का रहा। संस्कृत में इसी बाल या बेल का रूप बलम् देखा जा सकता है जिसका अभिप्राय शक्ति , सामर्थ्य , ताकत, सेना, फौज आदि है । एक सुमेरी देवता का नाम बेलुलू है। गौर करें कि संस्कृत में भी इन्द्र का एक विशेषण बललः है । अनिष्टकारी शक्ति के , आसमानी मुसीबत, विपत्ति आदि के लिए हिन्दी में बला शब्द खूब प्रचलित है । यह अरबी फारसी के जरिये हिन्दी में आया । अरबी में इसका प्रवेश हिब्रू के बाल की ही देन है अर्थात बला में बाल की शक्तिरूपी महिमा तो नज़र आ रही है। इससे कुछ हटकर संस्कृत में बला शब्द मंत्रशक्ति के रूप में विद्यमान है । गौर करें की दूध के ऊपर जो क्रीम जमती है उसे हिन्दी में मलाई कहते हैं। मलाई को उर्दू, फारसी और अरबी में बालाई कहते हैं क्योंकि इसमें भी ऊपरवाला भाव ही प्रमुख है । जो दूध के ऊपर हो वही बालाई । पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाख़ाना कहते थे । बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान।
क्या है ताक़
बालाए-ताक़ में यह ऊपर का भाव महत्वपूर्ण है । हिन्दी में आमतौर पर  ताक tak/tāḳ शब्द का प्रयोग होता है जो अरबी का शब्द है मगर इसका मूल फ़ारसी है। अरबी केطاق  ताक़ taq ( tāḳ/ṭāq ) का अर्थ है बल, क्षमता, शक्ति है जिससे ताक़त, ताक़तवर जैसे शब्द बनते हैं। साथ ही इसका अर्थ मेहराब भी है और वो घुमावदार कमानीनुमा आधार भी जिस पर किसी भी भवन की छत टिकी रहती है। वह अर्धचन्द्राकार रचना जो छत को ताक़त प्रदान करती है, उसे थामे रखती है अर्थात उसके बूते छत टिकी रहती है। भाव है ताक़त देना। उसे क्षमता प्रदान करना। अरबी का طاقت ताक़त शब्द इसी मूल का है और ताक़ से उसकी रिश्तेदारी है। हिन्दी में आने के बाद ताक़ शब्द में आला अर्थात दीवार में सामान रखने के लिए बनाया जाने वाला खाली स्थान। यह भी कमानीदार, मेहराबदार आकार में बनाया जाता था। पुराने ज़माने में ऐसे ताक़ आमतौर पर छत से कुछ नीचे, दीवार के ऊपरी हिस्से में रोशनदान के लिए बनाए जाते थे। ताक़चा tāḳchá यानी वह छोटा आला जो कुछ ऊँचाई पर दीवार में बना हो। लोगों की पहुँच से दूर, सुरक्षित रखने के लिए भी ऐसे मेहराबदार खाँचे बनाए जाते थे। इसे ही ताक़ कहते थे । बालाए-ताक़ का अर्थ हुआ ताक़ यानी मेहराबदार दीवार का सबसे बाला हिस्सा यानी सबसे ऊँचा हिस्सा । किसी मुद्दे, विषय या चर्चा सूत्र को दरकिनार करने के संदर्भ में बालाए-ताक़ का प्रयोग होता है। जैसे- इसी सत्र में महिला विधेयक पर बात होनी थी, मगर सत्ता पक्ष ने उसे बालाए-ताक़ रखा । स्पष्ट है कि सत्ता पक्ष नहीं चाहता कि इस विषय पर चर्चा हो इसलिए इसे अलग – थलग करने, इसे पहुँच से दूर रखने के लिए उसने कई हथकण्डे अपनाए । यही है बालाए-ताक़ रखना मुहावरे का सही अर्थ।
ताक़ में नक़्क़ाशी
ताक़ शब्द अरबी में फ़ारसी मूल से गया है । जॉन प्लैट्स के कोश में ताक़ का अर्थ मेहराब, खिड़की, आला, कॉर्निस, खाँचा, कोना, छज्जा और बालकनी आदि है । ताक़ अगर अरबी में फ़ारसी से गया है तो ज़ाहिर है कि यह इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है और इसका रिश्ता किन्हीं अर्थों में संस्कृत, अवेस्ता आदि भाषाओं से भी होगा । इसका स्पष्ट संकेत कहीं नहीं मिलता । फ़ारसी संदर्भों में पश्चिमी ईरान के पहाड़ी प्रान्त करमानशाह में दूसरी से छठी सदी के बीच निर्मित महान स्थापत्य ताक़ ए बोस्ताँ से मिलता है । ये स्थापत्य दरअसल सासानी काल में ईरानी शिल्पकारों द्वारा पहाड़ी चट्टानों पर उत्कीर्ण कला के महानतम नमूने हैं । चट्टानों पर नक्काशी के जरिये मेहराबदार खुले कक्ष बनाए गए हैं जिनकी दीवारों पर ईरान के इतिहास और जरथ्रुस्तकालीन प्रसंग उत्कीर्ण हैं । ईरान में इसे प्राचीनकाल से ही ताक़ ए बोस्ताँ कहा जाता है । पत्थरों में उत्कीर्ण मेहराब की रचना के लिए ताक़ शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि ताक़ शब्द का रिश्ता संस्कृत के तक्ष से है जिसमें उत्कीर्ण करने, काटने, तराश कर आकार देने जैसे भाव हैं । तक्षन या तक्षक का अर्थ शिल्पकार, दस्तकार होता है । सम्भव है तक्ष से ही फ़ारसी का ताक बना हो और मेहराब के अर्थ में अरबी ने भी इसे आज़माया हो।
इन्हें भी देखें- 1.ठठेरा और उड़नतश्तरी
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