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Saturday, February 6, 2010

सुख-दुख की साझेदारी का रिश्ता [बकलमखुद-125]

…अब लगता है कि नितांत सहज जान पड़ने के बावजूद कॉमरेडशिप एक तरह की शर्त पर टिका हुआ संबंध है- विचारधारा की शर्त, जिसके मायने और खास तौर पर आग्रह-दुराग्रह लगातार बदलते रहते हैं। …

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12] चंद्रभूषण हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार है। इलाहाबाद, पटना और आरा में काम किया। कई जनांदोलनों में शिरकत की और नक्सली कार्यकर्ता भी रहे। ब्लाग जगत में इनका ठिकाना पहलू के नाम से जाना जाता है। सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बहुआयामी सरोकारों के साथ प्रखरता और स्पष्टता से अपनी बात कहते हैं। इन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं। हमने करीब दो साल पहले उनसे  अपनी अनकही ब्लागजगत के साथ साझा करने की बात कही थी, ch जिसे उन्होंने फौरन मान लिया था। तीन किस्तें आ चुकने के बाद किन्ही व्यस्तताओं के चलते  वे फिर इस पर ध्यान न दे सके। हमारी भी आदत एक साथ लिखवाने की है, फिर बीच में घट-बढ़ चलती रहती है। बहरहाल बकलमखुद की 124 वी कड़ी के साथ पेश है चंदूभाई की अनकही का आठवां पड़ाव। चंदूभाई शब्दों का सफर में बकलमखुद लिखनेवाले सोलहवें हमसफर हैं। उनसे पहले यहां अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह,काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, पल्लवी त्रिवेदी और दिनेशराय द्विवेदी अब तक लिख चुके हैं।

लाहाबाद में कई लोगों से मेरी गहरी दोस्तियां भी हुईं लेकिन उन्हें पारंपरिक अर्थों में दोस्ती कहना शायद ठीक नहीं रहेगा। यह कॉमरेडशिप थी- दोस्ती से कहीं ज्यादा गहरी लगने वाली चीज लेकिन दिली मामलों में उतनी ही दूर की। इसका अंदाजा इस बात से मिलता है कि इलाहाबाद में जिन लोगों के साथ दिन-रात रहना होता था उनमें एक भी दोस्त की अब मुझे याद नहीं आती। कभी बातचीत का मौका आता है तो एकता और लगाव के हजारों बिंदु निकल आते हैं, लेकिन उनकी याद न तो खुशी के मौकों पर आती है, न तकलीफ के। याद आते हैं तो हरिशंकर निषाद, राम किशोर वर्मा और सुनील द्विवेदी, जिनसे इलाहाबाद में रहते मुलाकात कभी-कभी ही हो पाती थी, लेकिन जो अपनी तरफ से हाल-चाल जानने का कोई मौका आज भी नहीं चूकते। इसकी वजह शायद यह है कि इनसे मेरा लगाव संगठन या राजनीति से ज्यादा दुख-सुख के साझे का था। अब लगता है कि नितांत सहज जान पड़ने के बावजूद कॉमरेडशिप एक तरह की शर्त पर टिका हुआ संबंध है- विचारधारा की शर्त, जिसके मायने और खास तौर पर आग्रह-दुराग्रह लगातार बदलते रहते हैं। इसके बरक्स दोस्ती अपनी बुनियाद में ही बिना शर्त का रिश्ता है। एक-दो देर तक चली दोस्तियां बताती हैं कि इन्हें शर्तों से बांधना इन्हें किस कदर बोझिल बना देता है और शर्तें हटते ही ये कैसी खिल उठती हैं।इसका अर्थ यह नहीं कि कॉमरेडशिप कोई कम मानीखेज चीज है। उम्र के एक खास मुकाम पर बना यह रिश्ता हममें से हर किसी के लिए एक तरह का नोडल पॉइंट है, जिसे एक्सप्लोर करने का काम ब्लॉग के जरिए या दूसरे तरीकों से जीवन भर किया जा सकता है। अपने कॉमरेडों में से ज्यादातर जिंदगी को सचेत ढंग से जीने वाले लोग हैं और उनसे इंटरैक्शन में इस अबूझ पहेली के मायने पता चलते हैं।
1987 के बीच में राजीव हटाओ आंदोलन के क्रम में लखनऊ में होने जा रही रैली के अग्रिम दस्ते के रूप में इलाहाबाद से प्रतापगढ़, अमेठी और रायबरेली होते हुए लखनऊ तक एक साइकिल यात्रा निकालने का फैसला हुआ। शुरू में उत्साहजनक बातें कई लोगों ने कीं लेकिन जब चलने की बात हुई तो ले-देकर पांच लोग इसके लिए तैयार हुए। करमचंद, विक्रम, अजय राय और उनके एक साथी, जिनका नाम मैं भूल गया हूं। अपेक्षाकृत लंबे रास्ते से करीब तीन सौ किलोमीटर लंबी यह यात्रा कई मायनों में अद्भुत थी। इसके अंतिम दिन हमें अस्सी किलोमीटर साइकिल चलानी पड़ी क्योंकि रायबरेली से लखनऊ के बीच हमारे पास खाने और ठहरने के लिए कहीं कोई संपर्क नहीं था। बछरावां बाजार में हम लोगों ने एक सभा को संबोधित किया, लेकिन वहां से निकलते-निकलते रात हो गई थी। अंधेरी सड़कों पर सामने से आती गाड़ियों की हेडलाइटें जानलेवा मालूम पड़ती थीं। हम लोगों ने एक गांव में रुकने की कोशिश की तो पता चला, वहां दो रात पहले ही डकैती पड़ी है और सारी सदिच्छाओं के बावजूद वहां कोई हमें अपने यहां ठहराने की हिम्मत नहीं कर सकता था। बहरहाल, उन लोगों ने थोड़ी देर सुस्ताने का मौका दिया और गुड़ की डली के साथ एक-एक लोटा पानी भी पिला दिया। हिम्मत करके हम लोगों ने साइकिल भगाई। रात में डेढ़ बजे के आसपास हम लखनऊ से थोड़ा पहले पड़ने वाले संजय गांधी पीजी मेडिकल कॉलेज पहुंचे और वहां पहुंचकर हमें चांद निकलता दिखाई पड़ा। यह एक तेज भागती रेलगाड़ी के पीछे से उग रहा था। हमें शुरू में लगा जैसे गाड़ी के पीछे आग लगी है। गाड़ी पार होने पर चांद दिखा तो हम लोगों ने उसे भयंकर तरीके से गालियां दीं और जैसे-तैसे लखनऊ कैंट इलाके में प्रवेश कर गए।
स यात्रा के साथ कई दिलचस्प बातें जुड़ी थीं, लेकिन इसकी सबसे खास बात यह थी कि इसका अंत इंदिरा राठौर उर्फ इंदु जी से मुलाकात में हुआ। तीन साल बाद अचानक यूं मिलना होगा, सोचा न था। 1984 में जीजी के यहां गया था तो उनके पड़ोस से बहुत प्यारी आवाज में रेशमा का गाना सुनाई पड़ा...लंबी जुदाई...। कहीं रेडियो तो नहीं। लेकिन आवाज रेशमा जितनी भारी नहीं थी। कैप्टन श्याम सिंह राठौर सिक्यूरिटी ऑफिसर की छोटी बेटी हर चीज में अव्वल। पढ़ाई, गाना, डिबेट...अक्ल से लेकर शक्ल तक हर चीज में। और कविता भी लिखती है। तो क्या हुआ, ये सारी चीजें थोड़ा-बहुत हम भी कर सकते हैं....कविता लिखती है तो....क्यों नहीं, कविता भी लिख सकते हैं। कुल दो शेर लिखे- एक जाहिर और एक बातिन। जाहिर सबने पढ़ा- आप भी पढ़ें। समां अजनबी सा नजर आ रहा है, हर इक पल ठिठक कर गुजर जा रहा है। थकी शाम है कुछ रुआंसी-रुआंसी, न घबरा मुसाफिर शहर आ रहा है। बातिन भी सबने पढ़ा, सिर्फ जिसके लिए लिखकर रखा गया था, उसे ही छोड़कर। मौका है, आप भी पढ़ें- जितने नजरों से दूर रहते हैं, उतने ही दिल के पास रहते हैं। जबसे बिछड़े हैं आप हमसे, हम इस कदर क्यूं उदास रहते हैं। हुआ यह कि हमारे भानजे गुड्डू ने कागज का चुटका उड़ा लिया और जीजाजी के हवाले कर करके मुझे अगले बारह साल रेतने का मौका उन्हें हाथोंहाथ दे दिया। इंदुजी अगली सुबह ही पिथौरागढ़ चली गईं और मुझे मेरी मूर्खता के चहबच्चे में लंबे समय के लिए कैद हो जाना पड़ा- ये हैं मिस्टर फलाना, चिट्ठियां लिखते हैं लेकिन ध्यान नहीं रखते कि लिख किसे रहे हैं... और ध्यान आ भी जाए तो गलत पते पर पोस्ट कर देते हैं। लखनऊ में उनके भाई जगमोहन सिंह राठौर मिले, जिन्हें मैं नाम से जानता था, लेकिन शक्ल पहली बार ही देखी, और फिर अगले दिन इंदिरा राठौर, जिन्हें चलते-चलते मैं किसी तरह अपना पता दे ही आया था। और पता भी तो अपना कोई था नहीं। इरफान का था- 7, मुस्लिम बोर्डिंग हाउस, इलाहाबाद युनिवर्सिटी, इलाहाबाद। 

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Sunday, January 31, 2010

कुछ सवालों के जवाब [बकलमखुद-124]

…चंदूभाई के आत्मीय और मर्मस्पर्शी आत्मकथ्य को हम सब आतुरता से पढ़ रहे हैं। साथियों को लगता होगा कि चंदूभाई ने अब तक कोइ प्रतिक्रिया नहीं दी है। दरअसल उन्होने एक साथ कुछ प्रतिक्रियाओं के जवाब दिए हैं जिन्हें अलग पोस्ट के रूप में ही छापा जा सकता था…

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12] चंद्रभूषण हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार है। इलाहाबाद, पटना और आरा में काम किया। कई जनांदोलनों में शिरकत की और नक्सली कार्यकर्ता भी रहे। ब्लाग जगत में इनका ठिकाना पहलू के नाम से जाना जाता है। सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बहुआयामी सरोकारों के साथ प्रखरता और स्पष्टता से अपनी बात कहते हैं। इन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं। हमने करीब दो साल पहले उनसे  अपनी अनकही ब्लागजगत के साथ साझा करने की बात कही थी, ch जिसे उन्होंने फौरन मान लिया था। तीन किस्तें आ चुकने के बाद किन्ही व्यस्तताओं के चलते  वे फिर इस पर ध्यान न दे सके। हमारी भी आदत एक साथ लिखवाने की है, फिर बीच में घट-बढ़ चलती रहती है। बहरहाल बकलमखुद की 124 वी कड़ी के साथ पेश है चंदूभाई की अनकही का सातवां पड़ाव। चंदूभाई शब्दों का सफर में बकलमखुद लिखनेवाले सोलहवें हमसफर हैं। उनसे पहले यहां अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह,काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, पल्लवी त्रिवेदी और दिनेशराय द्विवेदी अब तक लिख चुके हैं।

ब्दों का सफर पर मित्रों-परिचितों की टिप्पणियों के बीच हिस्सा न ले पाने का एक कारण तो तकनीकी है। पता नहीं क्यों इस पर सीधे मैं कोई कमेंट कर ही नहीं पा रहा हूं। दूसरे, अपने लिखे हुए पर बात करना मुझे बहुत अच्छा भी नहीं लगता। एक-दो मुद्दों पर सफाई देने का मन था, सो दे रहा हूं।
1. अफलातून
अरे हां , लालबहादुर की मौजूदा राजनीति को इतने हल्के में खारिज करना भूल है । आपने उनसे कभी इस पर बात की ?-अफ़लातून /विचारधारा की रूमानियत [बकलमखुद-123]

भाई, लालबहादुर जी की राजनीति पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, क्योंकि मुझे सचमुच इस बारे में कुछ नहीं मालूम। जितनी जानकारी जन राजनीति बनाम जमीनी राजनीति वाली माले की अंदरूनी बहस की है, उससे कोई बात नहीं बनती। यूपी में माले लाइन की राजनीति खड़ी करना भारी चुनौती है और इस बारे में कोई सतही बात नहीं की जा सकती। इस धारा के सारे लोग मेरे नजदीकी हैं और वे जब भी अपनी लाइन के बारे में कुछ बताते हैं, सुनने के लिए मैं तत्पर रहता हूं। अपने जीवन और कर्म से जुड़ी जो बातें मैं बकलमखुद पर लिख रहा हूं, उनका आयाम नितांत व्यक्तिगत है। लालबहादुर जी के बारे में जो बात मैंने कही है, उसे उनकी राजनीति पर टिप्पणी की तरह न लें। न ही यह समझें कि उनके बारे में कोई बात कहते हुए उनके प्रति मेरा लगाव और सम्मान पहले से कम हो गया है। मुझे लगता है, मुझे बातें अपने तक ही सीमित रखनी चाहिए, लेकिन जब-तब इसमें दूसरे लोग भी आ ही जाएंगे। लालबहादुर के बारे में कुछ असावधानी के साथ कही गई बात का मतलब सिर्फ इतना है कि समय बीतने के साथ एक कार्यकर्ता के जीवन में अकेलेपन से भरे अंधेरे क्षण आते हैं, जिन्हें वह सिर्फ अपनी किसी पुरानी आभा के बल पर नहीं साध सकता। इसके लिए उसे खुद को बदलना होता है, लेकिन अफसोस इस बात का है कि उसकी आभा जितनी बड़ी होती है, बदलना उसके लिए उतना ही मुश्किल होता है।
2. अनुराग-स्मार्ट इंडियन
बांच रहे हैं, समझने का प्रयास भी है मगर कुछ बातें अस्पष्ट हैं, बड़े भाई की सहायता क्या ज्योतिष से समाधान ढूँढने के लिए अपेक्षित थी?-अनुराग /जीने लगे इलाहाबाद में [बकलमखुद-121]
पकी टिप्पणी को काफी दिन हो गए, सो याद दिलाता हूं। आपने इलाहाबाद प्रकरण में भाई की सेवाओं के बारे में पूछा था। गांवों में ज्योतिषियों का पेशा शहरों जितना प्रोफेशनल और वन-डाइमेंशनल नहीं होता। वहां कोई आपसे निरंतर जारी अपने बुखार के बारे में बात करने आएगा तो उम्मीद करेगा कि उसके ग्रह-नक्षत्र देखने और हवन कराने के अलावा बुखार में तत्काल राहत के लिए कोई सस्ता इलाज भी बता दें। जिन सज्जन ने अपनी नतिनी से जुड़ी समस्या उनके सामने रखी थी, उन्हें भाई से यह उम्मीद थी कि अपने ज्योतिषीय उपकरणों से वे न सिर्फ प्रेमविवाह करने वाले लड़के का हृदय परिवर्तन करेंगे, बल्कि दिल्ली में रह चुके पढ़े-लिखे आदमी के रूप में उसके घर वालों पर यह दबाव भी बनाएंगे कि वे इस विवाह को स्वीकार कर लें। भाई अपने इस मिशन में नाकाम रहे लेकिन इस क्रम में नागरों के साथ बने संपर्क का बाई-प्रोडक्ट यह रहा कि उनके जरिए मेरे इलाहाबाद जाने का रास्ता निकल आया। इस प्रकरण से जुड़ी एक अतिरिक्त सूचना यह है कि एक बार मैंने इलाहाबाद में उस लड़की को अपनी बच्ची के साथ देखा, जो संयोगवश मेरे इलाहाबाद जाने की वजह बन गई थी। प्रयागराज रेलवे स्टेशन पर उसके परिवार का एक ढाबा था, जहां मैंने उसे कुछ काम करते देखा था। मुझे उस लिजलिजे नवीन नागर पर बहुत गुस्सा आया, जो अपनी पत्नी और बच्ची को इस हाल में छोड़कर शायद कहीं सीएमओ बनकर सद् गृहस्थ का जीवन गुजार रहा होगा। पता नहीं क्यों उस दिन नवीन के घटियापने का एक छींटा मुझे अपने ऊपर भी पड़ा नजर आया।
3. विमल वर्मा और पंकज श्रीवास्तव
चन्दू भाई, आज के दौर में इतने सारे मुद्दे हैं पर छात्रों का देश व्यापी आंदोलन क्यौं कमज़ोर पड़ता गया....शायद आप इस पर भी प्रकाश डालेंगे ।-विमल /लापता खुद की खोज [बकलमखुद-122]                              चंदू भाई, अब आगे इशारों में बात न करें। क्योंकि १७१ कर्नलगंज से जो रास्ता आगे बढ़ा उस पर विस्तार से बात करने की जरूरत सैकड़ों लोग महसूस कर रहे हैं। हिंदू हास्टल पर चली लाठियों की याद एकदम ताजा है। इस लाठीचार्ज से कुछ देर पहले ही प्रदेश के मंत्री श्यामसूरत उपाध्याय की धोती उतार दी गई थी...फीसवृद्धि के खिलाफ वो उत्तर प्रदेश का शायद अंतिम बड़ा आंदोलन था। बहरहाल, इस बहाने आप हिंदी पट्टी में दिखाई पड़ रहे विशाल ठहराव की कुछ परतें खोल सकें तो बेहतर होगा।-पंकज / लापता खुद की खोज [बकलमखुद-122]

पका प्रस्ताव बहुत अच्छा है लेकिन उस पर काम करने के लिए कोई अलग जगह ठीक रहेगी। अपने समय में हम लोग राजीव गांधी की शिक्षा नीति में जिस करियरिज्म की आंधी की आशंका जताया करते थे, उसने छात्र आंदोलन का छान-छप्पर सब उड़ा दिया है। रही-सही कसर छात्र समुदाय के टुच्चे राजनीतिक विभाजनों ने पूरी कर दी है, जिसके पार जाना हर किसी के बूते के बाहर की बात साबित हो रहा है। सिर्फ जेएनयू के कैंपस में जाने पर छात्रों की वैचारिक और सामाजिक ऊर्जा महसूस होती है। बाकी कैंपसों में यह चीज व्यक्तिगत या छोटे-छोटे दायरों में सिमट गई है। हिंदी भाषी क्षेत्र के सामाजिक-राजनीतिक बदलावों को हम लोगों ने बतौर कार्यकर्ता जिस रूप में महसूस किया है, उसकी तरफ यहां सिर्फ इशारा किया जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि अस्सी के दशक में पीएसओ में काम करते हुए हम लोगों को समाज में मौजूद मंडल, मंदिर और बीएसपी किस्म की विचारधाराओं के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। सचेत ढंग से दलित और पिछड़े तबकों के बीच से संगठन का राजनीतिक नेतृत्व विकसित करने का प्रयास जिस तरह बिहार में हुआ, उसकी शुरुआत भी इलाहाबाद में कभी ठीक से नहीं हो पाई। विचारधारा के हमारे कुछ बहुत मजबूत डंडे थे, जो इस तरह की हर मांग को अवसरवाद बना देते थे। वरना बहुत सारे सवाल तो शायद कुर्मी बिरादरी से आए अपने साथी शेर सिंह की उपाध्यक्ष पद पर उम्मीदवारी को गंभीरता से लेने पर ही हल हो गए होते। लेकिन यह नहीं हुआ और अवसरवाद के आरोपों से घिरे शेर सिंह, शिवसेवक सिंह और उनके करीब के बहुत सारे लोग गुट में तब्दील होते हुए बीएसपी के करीब पहुंच गए। इनमें शिवसेवक सिंह आज भी मेरे मित्र हैं और बीच-बीच में मिलते भी हैं। उस दौर को हम अफसोस के साथ याद करते हैं, लेकिन मुझे हर बार इससे गहरा पछतावा होता है। वह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसके बाद कमल कृष्ण राय, लालबहादुर सिंह और शहाब यूनियन में चुने गए, लेकिन बिना इस हकीकत को समझे कि उनके पांवों के नीचे की जमीन खिसक रही है। उन्हें पता भी नहीं चला और इलाहाबाद युनिवर्सिटी की अन्य तमाम राजनीतिक धाराओं की तरह पीएसओ और फिर आइसा भी अपनी सारी वैचारिक तेजस्विता और दलित-पिछड़े छात्रों के एक हिस्से की सहानुभूति के बावजूद देखते-देखते ब्राह्मण-ठाकुर-भूमिहार छात्रों के संगठन बन कर रह गए।
4. रूपचंद्र शास्त्री मयंक
"नैनीताल जिले में खटीमा कस्बे के पास घने जंगलों में स्थित हाइडेल का एक पॉवरहाउस था। यह आज भी है, लेकिन लगभग ध्वंसावशेष की शक्ल में।....." यह क्या लिख दिया है आपने! लोहियाहेड का पावरहाउस आज उत्तराखण्ड के उन बिजलीघरों में से अग्रणी है जो सबसे कम लागत और कम मेंटीनेन्स में विद्युत उत्पादन करता है। इसके आसपास जंगल आज भी हैं, और इनमें बाघ दिखाई पड़ जाता है।-रूपचंद शास्त्री /जीने लगे इलाहाबाद में [बकलमखुद-121]

लोहियाहेड पॉवरहाउस मैं पहली बार जुलाई 1984 में गया था। यह वह समय था जब इक्जीक्युटिव इंजीनियर भी हाफ पैंट पहन कर मशीन ठीक करने पिट में उतरते थे और जले हुए डीजल से काले भूत बन कर निकलते थे। सिक्यूरिटी ऑफिसर अपनी टीम के साथ लगातार गश्त पर रहते थे और एक कील चुरा कर ले जाने की किसी की हिम्मत नहीं थी। पॉवरहाउस के ठीक बाहर जंगल इतना घना हुआ करता था कि लोहियाहेड से खटीमा जाते हुए वहां की अकेली स्टुडेंट बस के सारे शीशे बंद हुआ करते थे। आज हालत यह है कि जूनियर इंजीनियर भी साहब बन कर अपने केबिन में बैठे रहते हैं और मशीन भाग्य भरोसे चलती रहती है। मेरी अंतिम जानकारी के मुताबिक वहां तीन में दो मशीनें दो महीने से ठप पड़ी थीं। पॉवरहाउस का सामान चुराकर बेच देने की घटनाओं को रोकना तो दूर, इन्हें अब वहां कोई गंभीरता से लेता तक नजर नहीं आता। जंगल तो भाई लोग काट कर चूल्हे में झोंक चुके हैं और मजे से उसकी जमीन पर अनाज उगाते हैं। इसके बावजूद आपके मुताबिक वहां के जंगलों में बाघ नजर आता है तो यह बाघ की बदकिस्मती है।

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Tuesday, November 10, 2009

सरदार की ब्लागरी शुरु [बकलमखुद-114]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 114वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
पिछली कड़ी-चूजों को लगे पंख [बकलमखुद-113]
सा मान्य बीमा कंपनी के जिस डीएम से झगड़ा हुआ था। उस का सभी से झगड़ा होता चला गया। चाहे वे कर्मचारी थे या प्रोफेशनल। लेकिन फिर भी कुछ कमजोर लोग ऐसे रह ही गए जिन के बल पर वह अपना काम करता रहा। सब लोग उस से परेशान। कई ने उस की शिकायत भी की लेकिन सब बड़े अफसरों को उस ने पानी में ऐसा उतारा हुआ था कि कोई शिकायत नहीं सुनी जाती। उस के कर्मों ने कंपनी की एक शाखा तक बंद करवा दी। उस ने पूरे पाँच वर्ष निकाले। इस बीच हाउसिंग फाइनेंस ने संपत्ति के स्वत्वान्वेषण का काम जो हर स्थान पर कुछ वकीलों को दिया जाता था उसे आउट सोर्स कर दिया। चार राज्यों का काम दिल्ली की एक फर्म को दे दिया गया। हालांकि उस फर्म के लिए सारा काम करना संभव नहीं हो सका और कुछ स्थानों पर वकील काम करते रहे। पर बड़े नगरों में उस फर्म ने जिन वकीलों को विस्थापित कर दिया, सरदार भी उन में से एक था। उस के सामने फिर काम का संकट खड़ा हो गया। एक साथ एक तिहाई आमदनी का स्रोत छिन गया था। उन्हीं दिनों सामान्य बीमा कंपनी का डीएम बदल गया। वहाँ से काम वापस मिलने लगा लेकिन यह छिने हुए काम का पाँचवाँ हिस्सा भी नहीं था।
वकालत में मंदी, अदालतों में घमासान 
श्रम न्यायालय में लम्बित मुकदमों की संख्या साढ़े तीन हजार ऊपर जा रही थी। हर साल चार-सौ मुकदमे नए आ जाते जब कि किसी भी तरह से डेढ़-दो सौ से अधिक मुकदमे निर्णीत नहीं हो रहे थे। स्थिति यह थी कि लंबित मुकदमों के निपटारे में ही बीस वर्ष का समय चाहिए था और मुकदमों का दायरा निपटारे से अधिक होने के कारण हर साल उन की संख्या बढ़ रही थी। अनेक सेवार्थी तो ऐसे थे जिन्हें अपने जीवनकाल में मुकदमे के निपटारे आशा नहीं रह गई थी। मुवक्किल प्रत्याशा के अनुपात में फीस तय और अदा करता है। फीस दर बढ़ने के बावजूद वकीलों की आय कम हो रही थी। इसी बीच श्रम न्यायालय के जज का स्थानांतरण हो गया और उस के स्थान पर किसी जज को नहीं लगाया गया। अदालत दो वर्ष तक खाली पड़ी रही। सरदार को फुरसत हो गई। इस बीच उस ने अच्छी फीस के कुछ फौजदारी और दीवानी मुकदमे लड़े और उन में सफलता भी पायी। लगने लगा कि श्रम न्यायालय में काम न रहने पर भी अपने लायक काम मिलता रहेगा। इन मुकदमों की सफलता इस काम को बढ़ाएगी। लेकिन सामान्य वकालत की स्थिति भी कम खराब न थी। दीवानी और फौजदारी अदालतें मुकदमों से अटी पड़ी थीं। एक-एक अदालत के पास चार-चार पाँच-पाँच अदालतों जितना काम इकट्ठा हो गया था। इस क्षेत्र में वकीलों के बीच घमासान था। वकील और उन के ऐजेंट काम के लिए अब सेवार्थियों के घर पहुँचने लगे थे। अधिकतर फौजदारी मुकदमों में वकील तफ्तीश करने वाले पुलिस अधिकारी की सिफारिश पर नियुक्त होने लगे थे। वकील की फीस में उन का कमीशन भी शामिल होने लगा। बढ़ती आबादी के मुकाबले अदालतों की स्थापना न होने से वकालत का व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हो रहा था। साफ था कि जब तक अदालतों की संख्या बढ़ती नहीं और सभी अदालतों में जजों की पदस्थापना नहीं होती। मुकदमों में लगने वाले समय में कमी नहीं आती। जिला स्तर तक वकालत का व्यवसाय कमाई के लिए बिलकुल बेकार हो चुका है। वकालत का व्यवसाय घोर और लंबी मंदी का शिकार हो चला था।
तीसरा खम्भा का आग़ाज़
न्ही दिनों अंतर्जाल पर सरदार का हिन्दी ब्लाग से परिचय हुआ। वहाँ साहित्य, पत्रकारिता, संस्मरण, राजनीति सब कुछ थे। फिर क्या था? वह रोज अंतर्जाल में विचरने लगा। वहाँ हिन्दी लिखने की में समस्या थी लेकिन वह भी हिन्दी आईएमई ने समाप्त कर दी। उस में रेमिंग्टन कुंजी-पट था जो लगभग कृति फॉण्ट के कुंजी पट जैसा ही था। इस की मदद से टिप्पणियाँ करना चालू हो गया। एक पुराने गुरूजी का उल्लेख अनूप शुक्ल के किसी आलेख पर देखा। वर्षों से गुरू जी का पता न था। उन से पते की फरमाइश की तो उन्हों ने प्रियंकर जी के माध्यम से उसे पूरा कर दिया। साथ ही यह भी सलाह दी कि सरदार को ब्लाग लिखना चाहिए। उस ने आरंभिक जीवन में कहानियाँ लिखी थीं। वकालत के दिनों पत्रकारिता भी की थी। कभी कभी भावना व्यक्त करने के लिए कवितानुमा भी कुछ लिखा था जिसे सराहा भी गया था। लेकिन वकालत के व्यवसाय की व्यस्तता ने सब कुछ बहुत पहले ही रोक दिया था। बीच में करीब साल भर एक दैनिक में साप्ताहिक कॉलम जरूर लिखा, शेष सब फुरसत मिलने पर लिखना बकाया था। व्यवसाय में छाई घोर मंदी और हिन्दी ब्लागरी से परिचय ने उस वक्त को जल्दी ही ला दिया। श्रम न्यायालय में जज के अभाव ने सरदार को जो खाली समय दिया था उस ने न्याय व्यवस्था की दुर्दशा और वकालत के व्यवसाय पर पड़ रहे उस के प्रभाव ने सोचने और कुछ करने को प्रेरित किया था। उस के अपने व्यवसाय पर पड़ रहा विपरीत प्रभाव उसे सब से अधिक परेशान कर रहा था। उस ने अदालतों की संख्या बढ़ाने की जरूरत को वकीलों के बीच व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया था और यह भी कि इस के लिए वकीलों को ही सरकार से लड़ना होगा। लेकिन अदालतों की संख्या बढ़ने पर काम का बड़े नगरों से कस्बों और कस्बों से गांवों की और विकेन्द्रीकरण अवश्यंभावी था, जिस से वकील हमेशा भय खाता है क्यों कि वह हमेशा उस के मौजूदा काम को कम कर देता है। वकीलों के बीच सरदार की कोशिश कामयाब नहीं हो सकी। अचानक मन बना कि न्याय प्रणाली की समस्याओं को लेकर ब्लाग बना कर अपनी बात को लोगों तक पहुँचाया जाए। इस तरह ‘तीसरा खंबा’ का जन्म हुआ।
… और अनवरत का भी जन्म
रंभ में तीसरा खंबा तक पहुँचने वाले पाठकों की संख्या बहुत कम थी। वह विषय आधारित ब्लाग था। सरदार ने कुछ पुराने ब्लागरों से पूछा तो सलाह मिली कि पाठक खुद ही जुटाने होंगे। कुछ दिन में महसूस हुआ कि ब्लाग जगत में ब्लागरों से अन्तर्क्रिया करना आवश्यक है अन्यथा यहाँ तुम्हें कोई नहीं गाँठने वाला। इस तरह कोई बाईस दिन बाद अनवरत का जन्म हुआ। अनवरत में पाठक आने लगे और अंतर्क्रिया भी खूब होने लगी। लिखने का उत्साह बढ़ने लगा। उन दिनों तक हिन्दी ब्लाग पर गूगल विज्ञापन परोसता था। ऐसा भी लगा था कि यदि ब्लाग पर पर्याप्त पाठक आने लगे तो इन से पहले साल में इतनी आय तो की ही जा सकती है कि उन का खर्चा निकाला जा सके। कुछ महिनों बाद ही गूगल ने हिन्दी ब्लागों पर अपने विज्ञापन परोसने बंद कर दिए। जो आ रहे हैं वे सभी सामाजिक (मुफ्त) सेवा के विज्ञापन हैं। इस से यह तो निश्चित हो गया कि फिलहाल ब्लाग आय का तो क्या? ब्लाग लेखन का खर्च निकालने का साधन भी नहीं बन सकता। लेकिन ब्लाग के रूप में सस्ते में अभिव्यक्ति का जो साधन उपलब्ध था उस से अपनी बात को पहुंचाने का अवसर मिल रहा था। उस ने तय किया कि वह हर हालत में अपने ब्लाग लेखन को जारी रखेगा और उसे नियमित रखने का प्रयत्न करता रहेगा। अगली कड़ी में समाप्त

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Tuesday, November 3, 2009

चूजों को लगे पंख [बकलमखुद-113]

पिछली कड़ी-कभी धूप, कभी छाँव [बकलमखुद-112]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 113वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
बे टी वनस्थली विद्यापीठ गई उसी साल बेटे ने उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी की थी। उस के अपने भविष्य के लिए मार्ग चुनने का अवसर आ चुका था। सरदार के सुझाव पर उस ने राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा दी, लेकिन सफलता नहीं मिली। इंजीनियरिंग में प्रवेश परीक्षा की सफलता भी इच्छित शाखा प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं थी। कोटा की रवायत के मुताबिक उसे भी सुझाव मिले कि वह एक वर्ष कोचिंग ले कर आईआईटी या इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए यत्न करे। लेकिन बेटा इस के लिए अपना साल बरबाद करने को तैयार था, उस ने बीएससी आईटी में प्रवेश ले लिया। अब दोनों संताने अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही थीं। खर्चे बढ़ चुके थे, कोई बचत नहीं थी, ऊपर से मकान और कार ऋणों की किस्तें देनी पड़ती थीं।
आप उन्हें क्या देते थे ? 
ब कुछ अपने दम-खम पर ही करना था। अब तक एलआईसी और एक जनरल बीमा कंपनी उस के स्थाई मुवक्किल थे जो उसे लगातार अच्छा काम दे रहे थे। उसे विश्वास था कि वह अपने काम में और विस्तार कर सकेगा। उन्हीं दिनों जनरल बीमा कंपनी के डीएम का तबादला हो गया। नया डीएम आया तो लोगों ने कहा उस की मिजाजपुर्सी की जाए। कंपनी के कर्मचारियों के बहुत कहने पर वह एक दिन नए डीएम से मिल भी आया। जब काम वितरण का अवसर आया तो उसे काम भी मिला। सरदार को किसी मुकदमे के सिलसिले में डीएम ने बुलाया। केस पर बात करने में उस ने कोई रुचि नहीं ली और पूछ बैठा –आप पुराने डीएम को क्या देते थे?
उसूल पर फिर अटकी गाड़ी
रदार के लिए यह प्रश्न बहुत अप्रत्याशित था। उस ने सुना तो बहुत था कि फीस में से कमीशन देने वाले वकीलों को अधिक काम मिलता है। लेकिन उसे इस का कभी अनुभव नहीं था। एक दो कंपनियों के अधिकारियों ने उसे काम देने के लिए इस तरह का प्रस्ताव किया था। लेकिन उस ने इन कंपनियों की और फिर रुख न किया। उस ने अपने काम की गुणवत्ता पर ही काम प्राप्त करना जारी रखा था। सरदार ने नए डीएम को जवाब दिया कि हम तो काम कर के देते हैं, और पूरी फीस लेते हैं। उस दिन के बाद सरदार को कंपनी से काम मिलना बंद हो गया। यह बहुत बड़ा झटका था। उस की आय का 25% इसी कंपनी से था। कुछ दिन बाद डीएम काम में नुक्स निकालने लगा। जब भी बात करता कंपनी के सभी कर्मचारियों और दूसरे प्रोफेशनल्स को गली के स्तर की गालियाँ देता रहता। उसे सहन करना कठिन हो गया था। एक दिन सरदार के मुहँ से निकल गया, आप जिस काम में समझते नहीं उस में नुक्स निकालते हैं और काम देते नहीं। डीएम अपनी पर आ गया। गालियाँ देते हुए चेंबर से निकल कर कर्मचारियों के हॉल में आ गया। सरदार को अपमान बर्दाश्त न हुआ। उस ने वहीं डीएम को डपटना आरंभ कर दिया। यदि अपने पेशे का ख्याल न होता तो वह उस दिन शायद उस पर हाथ भी उठा चुका होता। कर्मचारी बीच में पड़े, डीएम से सरदार की और सरदार से डीएंम की तारीफ करने लगे। सरदार ने कर्मचारियों को बताया कि जिस की तुम तारीफ कर रहे हो वह पीठ पीछे उन्हें रोज सौ-सौ गालियाँ देता है और सब को बेईमान बताता है। सरदार ने कंपनी जाना बंद कर दिया। उन्हीं दिनों एलआईसी की सहयोगी कंपनी एलआईसी फाईनेंस का काम बढ़ गया। जिस ने उसे कुछ राहत तो दी लेकिन यह बढ़े हुए खर्चों की पूर्ति के लिए यह राहत पर्याप्त नहीं थी।
कम्प्यूटर के कीबोर्ड से दोस्ती
दालतों में टाइपिंग का काम मेकेनिकल टाइपराइटर से कम्प्यूटरों पर जा रहा था। इन से होने वाली टाइपिंग सुंदर होती और पूरा दस्तावेज लिखा देने के बाद भी उस में सुधार का अवसर रहता। यदि खुद का कम्प्यूटर हो तो एक जैसे दस्तावेजों को टाइप करना और आसान हो जाता। यह सब देखते हुए सरदार को अपने कार्यालय में कंप्यूटर की जरूरत महसूस होने लगी थी, लेकिन खर्चे उसे लाने को रोकते। कॉलेज के दूसरे ही वर्ष में बेटे को घर पर कम्प्यूटर की जरूरत हुई तो कम्प्यूटर लाना ही पड़ा। एक पार्ट टाइम ऑपरेटर लगा लिया। बेटा कंप्यूटर को रात दस बजे के बाद ही हाथ लगाता तब तक उस पर वकालत का काम होने लगा। इस से सरदार के काम की गुणवत्ता में बहुत सुधार हुआ। उसे लगता कि यदि वह खुद टाइपिंग सीख ले तो बहुत नए प्रयोग कर सकता है। अंग्रेजी टाइपिंग तो ट्यूटर ने उसे सिखा दी, लेकिन हिन्दी तो जरूरी थी। अदालत का सारा काम तो यहाँ हिन्दी में ही है। उस के लिए किसी ने टाइपिंग ट्यूटर नहीं बताया। उस का क्या किया जाए? बहुत सोचने पर हल निकला कि मैकेनिकल के लिए जो टाइपट्यूटर पुस्तकें आती हैं उन्हीं की मदद ली जाए। उन से अपने लिए एक काम चलाऊ ट्यूटर वर्ड फाइल में बनाया और कृतिदेव फोंट में टाइप करना सीख लिया। दो माह में काम चलाऊ टाइपिंग शुरू हो गई। उस ने अपने मुंशी को भी बहुत कहा कि वह टाइपिंग सीख ले। पर उस की की समझ में यह घुसा हुआ था कि वह बयालीस की उम्र में टाइपिंग नहीं सीख सकता। वह नहीं सीख सका। उस से दस वर्ष अधिक उम्र में सरदार सीख गया।
इंटरनेट से साबका, बिल ने डराया…
स बीच इंटरनेट का महत्व समझ में आने लगा था। सुप्रीमकोर्ट और कुछ हाईकोर्टों के निर्णय दूसरे ही दिन डाउनलोड के लिए उपलब्ध होने लगे थे। सोच बनने लगी कि नेट कनेक्शन ले ही लिया जाए। नगर में ब्रॉडबैंड सेवा आरंभ हुई तो बेटा कहने लगा कनेक्शन के लिए आवेदन कर दिया जाए। सरदार तो स्वयं भी यही चाहता था। कनेक्शन के लिए आवेदन किया और सप्ताह भर में कनेक्शन लग गया। एक नई दुनिया उस के कार्यालय में पहुँच चुकी थी। इसे देखा तो ऐसा लगा जैसे दूसरी दुनिया में पहुँच गए हों। हुआ भी यही, जब पहला बिल आया तो उस ने वास्तव में दूसरी दुनिया दिखा दी। सरदार समझा ही नहीं था कि डाउनलोड-अपलोड में क्या-क्या शामिल है? साढ़े तीन हजार से अधिक के इस बिल ने समझा दिया था कि जो कुछ भी हम संकेत भेजते हैं और जो भी संकेत हमें प्राप्त होते हैं सभी इस में सम्मिलित हैं। उस के बाद कनेक्शन कुछ नियंत्रित हुआ। स बीच बेटी गणितीय विज्ञान में सांख्यिकी के साथ स्नातकोत्तर हो गई और उस ने आगे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए जनसंख्या विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान में जनसंख्या विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि के लिए आवेदन किया और प्रवेश पा लिया। वह मुम्बई पहुँच गई। इसी वर्ष बेटा भी स्नातक हो गया था वह पहले ही तय कर चुका था कि वह इंदौर से एमसीए करेगा। चूजों के पंख लग चुके थे वे जनक-जननी को छोड़ अपने अपने जीवन पथ की उड़ान के अभ्यास पर निकल पड़े थे।

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Saturday, October 31, 2009

कभी धूप, कभी छाँव [बकलमखुद-112]

पिछली कड़ी-घर-शहर की बदलती सूरत [बकलम खुद-111]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 112वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
गर के वातावरण के बदलाव ने सरदार के व्यवसाय को प्रभावित करना आरंभ कर दिया था। एक वक्त था जब औद्योगिक विवादों और उन से संबंधित मुकदमों की इतनी भरमार थी कि एक बार श्रम न्यायालय में प्रवेश के उपरांत उसे समय ही नहीं मिलता था। जिस के परिणाम स्वरूप उस ने अपने सभी अपराधिक और दीवानी मुकदमों को दूसरे वकीलों को देना पड़ा था। एक औद्योगिक और श्रंम मामलों के वकील के रूप में उस की पहचान बन चुकी थी। दाल-रोटी के अलावा भी कुछ बचने लगा था। जिस ने यह संभव बनाया कि सरदार और छोटा भाई सुनील मिल कर तीसरे भाई अनिल का विवाह समाज में अपने पिता और परिवार की प्रतिष्ठा के अनुरूप संपन्न कर सके। पिता की जिम्मेदारियों में अभी एक छोटे भाई को ब्याहना और शेष था।
श्रम न्यायालय सीधे राज्य सरकार के अधीन था और इस में जज न्यायपालिका से आते थे। नए जजों की कमी का सीधा असर इस पर पड़ा। एक जज का स्थानांतरण होता तो दूसरे जज की पदस्थापना में समय लगता। बद स्थापना हो जाने पर भी जब तक जज के नाम से अधिसूचना गजट में प्रकाशित न हो वह काम करने में असमर्थ रहता। सरकार का काम इतना सुस्त कि अधिसूचना के प्रकाशन में ही तीन-तीन माह निकल जाते। इस तरह कभी छह माह, कभी साल भर और कभी-कभी दो-दो साल तक श्रम न्यायालय खाली रहने लगा। वहाँ लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ने लगीं। पहले जिस मुकदमे में माह में दो बार पेशी हो जाती थी, अब उसी में चार और छह माह में एक पेशी होने लगी। मुकदमा जो दो से तीन साल में निर्णीत हो जाता था उसे निर्णीत होने में दस से पन्द्रह साल लगने लगे। इधर नगर के पुराने उद्योग बंद हो रहे थे और नए लग नहीं रहे थे। बड़ी संख्या में हुई छंटनी ने मजदूरों को मालिकों की शर्तों पर काम करने, यहाँ तक कि कानूनी बाध्यताओं से भी कम वेतन और सुविधाओँ पर काम करने पर बाध्य कर दिया था। नगर में श्रमिक आंदोलन कमजोर पड़ जाने से श्रम विभाग ने श्रम कानूनों की पालना कराने में ढिलाई बरतनी आरंभ कर दी।
गर में जहां न्यूनतम वेतन से कम पर किसी को काम पर रखना असंभव था। न्यूनतम मजदूरी से कम पर श्रमिकों से काम लिया जाने लगा। कानूनी रूप से ओवरटाइम की दर दुगनी देना बाध्यकारी होने पर भी श्रमिक सामान्य दर पर काम करने को बाध्य हो गए। नए औद्योगिक मुकदमों की संख्या कम होने की आहट आ रही थी। इन परिस्थितियों में सरदार को लगने लगा कि यदि अपने काम को केवल श्रम और औद्योगिक कानूनों तक ही सीमित रखा तो दाल-रोटी भी खटाई में पड़ सकते हैं। उस ने फिर से दीवानी, फौजदारी और विविध कानूनों से संबंधित मुकदमों का काम करना आरंभ कर दिया। यह सफर आसान नहीं था। दीवानी विधि में कानूनों की भरमार थी। हर नया मुकदमा नयी चुनौतियाँ ले कर सामने आता। हर नए मुकदमे के लिए कानून को नए सिरे से समझना पडता। लगातार अध्ययन बहुत आवश्यक था। यह सब कम चुनौतियों से भरा नहीं था। अब सरदार का समय इस अध्ययन में लगने लगा और पैसा किताबों और दूसरी सामग्री जुटाने में। लेकिन श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। अनवरत श्रम ने नए प्रकार के मुकदमों में सफलता दिलायी और यह काम फिर चल निकला।
च्चे उम्र और पढ़ाई के उस मुकाम पर पहुँच गए थे कि घर छोटा पड़ने लगा था। घर का भूतल पूरा निर्माण कराना जरूरी हो गया था। एक-दो मुकदमों में अच्छी फीस मिली तो घर विस्तार आरंभ कर दिया। वह पूरा हुआ तब पता लगा कि बाजार का कर्ज हो गया है। फिर एलआईसी काम आई। उस से कर्ज ले कर भार उतारा। परेशानी कुछ कम हुई। एक मित्र का मुकदमा लड़ा था। कोटा के बाहर जाना पड़ता था। उन्हें अच्छी खासी रकम मुआवजे में मिली। वे फीस देना चाहते थे। एक दिन पीछे लग गए। कार खरीदनी है। शोरूम ले गए। बैंक से कार फाइनेंस कराई, मार्जिन खुद दिया, कार सरदार के घर पहुँच कर खड़ी हो गई। अब कार चलाना सीखना था। लोगों ने इंस्टीट्यूट जाने का सुझाव दिया। पर सरदार एक टैक्सी ऑनर मित्र को लेकर सीखने निकला। पहले ही दिन 60-62 किलोमीटर गाड़ी चलवा दी। उस से अगले रविवार एक जूनियर को ले कर निकला तो इतनी ही और चला ली। वापस लौटे ही थे कि टैक्सी ऑनर मित्र भी आ गए। उन्हों ने भी इतनी ही चलवाई। कार फिर भी घर ही खड़ी रही। एक मित्र को कहा –मैं तकरीबन पोने दौ सौ किलोमीटर अभ्यास कर चुका हूँ, जरा जाँचिए तो सही कितना सीखा है? अगले रविवार उन्हों ने परीक्षा ली, शहर में ही तीस किलोमीटर कार चलवा दी और कह दिया कल से अदालत ले कर जाओ। सरदार अगले दिन कार लेकर निकला तो एक ऑटोरिक्षा बंपर को पिचका कर निकल गया। छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ बाद में भी हुईं पर हमेशा गलती औरों की होती। कई बार लोगों ने गलती करते हुए कार ठोकने की कोशिश की, लेकिन अपनी कोशिशों से सरदार बच गया। अब तो हालत यह है कि वह यह सोच कर वाहन चलाता है कि सड़क पर सब उसी को ठोकने निकले हैं और उसे खुद को बचाते हुए अपना वाहन चलाना है।
जीवन ठीक चल रहा था कि परिस्थितियों ने अचानक फिर बड़ा आघात दिया। एक सड़क दुर्घटना ने छोटे भाई सुनील को लील लिया। उस ने परिवार को ऐसा संभाला था कि सरदार उस ओर से पूरी तरह निश्चिंत हो चला था। उस का सार्वजनिक कामों का दायरा इतना विस्तृत था की बारां नगर का कोई भी सामाजिक काम उस से अछूता नहीं रह गया था। सरदार जब बारां पहुंचा तो पूरा नगर शोक में डूबा था, बाजार पूरी तरह बंद। वह प्राइमरी का मास्टर था, लेकिन उस के काम ने उसे आम लोगों के बीच इतना बड़ा बना दिया था कि उस की उपेक्षा असंभव थी। क्षेत्र के विधायक, सांसद, मंत्री और सभी राजनैतिक लोगों को उस के निधन पर शोक जताने घर आना पड़ा था। इस घटना से परिवार फिर संकट में आ खड़ा हुआ था। सुनील की पत्नी और दो बच्चे, माँ और एक अविवाहित छोटा भाई फिर से सरदार और अनिल के सहारे हो गए थे। पहले तो यह भी लगा कि सब को कोटा ही साथ ले आया जाए। लेकिन सबने तय किया कि अभी साल भर यहीँ रहेंगे। सुनील के काम के प्रभाव ने असर किया, तीन माह बीतने के पहले ही उस की पत्नी को उसी स्कूल में नियुक्ति मिल गई जहाँ वह पढ़ाता था। संकट कम हुआ। परिवार फिर से मुकाम पर आने लगा।
बेटी विज्ञान की स्नातक हो गई। वह गणित अथवा किसी तकनीकी विषय में स्नातकोत्तर होना चाहती थी। लेकिन उस ने कोटा में पढ़ने से इन्कार कर दिया। उस के लिए कॉलेज की तलाश आरंभ हो गई। वनस्थली विद्यापीठ में एमसीए और स्नातकोत्तर गणित के लिए आवेदन किया। एमसीए के लिए प्रवेश परीक्षा भी ली गई लेकिन उसे अपनी चाहत, गणित स्नातकोत्तर में प्रवेश मिल गया। उन दिनों सरदार को लगा था कि कैसे बच्चों के बाहर पढ़ने का खर्च वहन किया जा सकेगा। अब यह भी लगने लगा था कि बच्चों की पढ़ाई के इस व्यय के लिए उसे आरंभ से ही कुछ बचाना चाहिए था। फिर वह पीछे नजर दौड़ाता तो उसे दिखाई देता कि कभी ऐसा अवसर ही नहीं मिला कि वह कुछ बचत कर सकता। कभी कुछ बचने लगता भी तो अचानक हुई घटनाओं ने उसे असंभव बना दिया। लेकिन आर्थिक कारणों से बच्चों के मासूम सपनों को कत्ल तो नहीं किया जा सकता था। मित्रों ने उस में साहस पैदा किया, कि जब इतना किया है तो यह भी कर लोगे। सरदार ने इसी सोच के साथ कि कुछ भी क्यों न करना पड़े? बच्चों की पढ़ाई में वह कोई व्यवधान न आने देगा, बेटी को वनस्थली विद्यापीठ छोड़ा।

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Tuesday, October 20, 2009

घर-शहर की बदलती सूरत [बकलम खुद-111]

पिछली कड़ी-आशियाना दर आशियाना [बकलमखुद-110]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 111वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
प्ला ट लिए साल भर गुजर गया। एक दिन मामा जी ने पूछा तुम मकान नहीं बना रहे? सरदार जवाब देने में अचकचा गया। उस ने कहा -पैसा हो तो बनाऊँ। पूछने लगे कितना कमाते हो? -मैं जितना कमाता हूँ उतना खर्च हो जाता है। हाथ में कुछ बचता ही नहीं। खर्च कितना करते हो? -बस कुछ ढंग से जी लेता हूँ। मामाजी कहने लगे –तुम बहुत कम खर्च करते हो। -आखिर उतना ही तो खर्च कर सकता हूँ जितना कमाता हूँ? तुम जितना खर्च करोगे उतना कमाओगे। इसलिए अपना खर्च बढ़ाओ। मामाजी के इस उत्तर पर सरदार अपना सिर खुजाने लगा। वे बोलते गए -मकान कोई अपने पैसों से बनता है। –तो फिर किस के पैसों से बनता है? उन्हों ने सरदार को दो-तीन मजेदार सच्चे किस्से सुना डाले। सरदार को यकीन हो गया कि उसे खर्च बढ़ाना चाहिए, और कि वह मकान बना सकता है। उस ने एलआईसी के साथी त्रिपाठी जी से बात की तो उन्हों ने मामाजी की बात का समर्थन किया और कहा कि अपने नाम रजिस्ट्री हो जाए उतना बना लो, फिर एलआईसी से गृहऋण मिल जाएगा। एक बुजुर्ग साथी ज्ञानी जी से बात की तो उन्हों ने मामा जी का समर्थन करते हुए एक मकान बनाने वाले ठेकेदार से मिला दिया। एक मुवक्किल ने चार-छह ट्रक पत्थर प्लाट पर डलवा दिए। अब चूने-रेत की व्यवस्था हो जाए तो नींव डालने का काम हो सकता था। उस की व्यवस्था ठेकेदार ने करवा दी। मामा जी ने मुहूर्त निकाला। उन्हों ने ही पूजा करवा दी। बैलदार जिसने पहली गैंती नींव खोदने के लिए चलाई, उसे टीका निकाल कर दक्षिणा देने को कहा तो सरदार ने मामाजी से पूछा क्या दूँ? उन्हों ने सौ रूपए देने को कहा। सरदार कहने लगा चेंज नहीं है। मामाजी ने खुद निकाल कर नोट दिया। बाद में कहने लगे –अब तुम्हारा मकान बन जाएगा। पहली बार में मुझ से पैसा निकलवा लिया। मकान बनने लगा। दो कमरों का ढांचा खड़ा हुआ कि रजिस्ट्री हो गई। बाद में एलआईसी से ऋण मिला तो एक किचन, स्टोर, बाथरूम और बरांडा और बना लिए। अपने घर में आ गए। जगह कम थी लेकिन सरदार के लिए पर्याप्त थी। वकालत के दस साल पूरे हो चुके थे। एलआईसी और एक और सामान्य बीमा कंपनी का काम मिल गया तो मकान का कर्ज भी चुकने लगा।
पिता जी दो वर्ष पहले ही रिटायर हो चुके थे, दो वर्ष बाद ही छोटे भाई के लिए रिश्ता आया, वह अभी रोजगार पर नहीं था। लेकिन यह निश्चित था कि कुछ दिनों में वह बारोजगार हो लेगा। उस की शादी हो गई। उस की शादी के तीन माह बाद माँ-पिताजी दोनों आए और दो दिन सरदार के साथ रहे। तीसरे दिन वापस बारां पहुँचे। दो दिन बाद रात को तीन बजे खबर मिली कि पिताजी नहीं रहे, दिल का दौरा पड़ा था। खबर पर यक़ीन न हुआ। तुरंत व्यवस्था कर सब बारां पहुँचे तो बाजार खुला न था और घर के बाहर लोगों का हजूम इकट्ठा था। अंदर पिताजी निष्प्राण लेटे थे। कुछ ही देर में उन की विदाई हुई। हजारों लोग बाहर और अंदर से रोते हुए साथ थे। बस एक सरदार था जिसे रुलाई नहीं आ रही थी। वह देख रहा था, अपनी विधवा माँ को, तीन बेरोजगार छोटे भाइयों को। सोच रहा था अब घर कैसे चलेगा? वह रोने लगा तो बाकी सब कैसे संभलेंगे? उस दिन बाजार न खुला। लोगों का खोलने का मन ही नहीं था। छोटे शहर की आधी आबादी किसी न किसी रूप में पिता जी की ऋणी थी। बस्ती के इस साथ ने शाम तक संबल बंधाया।
दादा जी के देहान्त के उपरांत से ही पिता जी उन की अधूरी छोड़ी भागवत रोज बांचने लगे थे। वर्ष में पूर्ण होती और फिर दुबारा आरंभ हो जाती। पिताजी फिर एक बार उसे अधूरा छोड़ गए थे। छोटे भाई ने सरदार से पूछा। कथा का क्या करें? सरदार ने कहा अधूरी को तो तुम पूरा करो। बाद की बाद में देखेंगे। उस ने कथा आरंभ कर दी। कुछ माह बाद एक भाई नौकरी में चला गया और साल पूरा होते होते दूसरा भाई भी। गृहस्थी मुकाम पर चलने लगी थी। कथा पूरी हुई तब तक श्रोताओँ को उस का कथा वाचन भा गया। कथा निरंतर हो गई। तीन साल होते-होते छोटे भाई की भी शादी हो ली। इस बीच बच्चे बड़े हो रहे थे। धर कोटा में जेके सिन्थेटिक्स में हुई हजारों मजदूरों-कर्मचारियों की छंटनी ने कर्मचारियों में दहशत का माहौल उत्पन्न कर दिया था। उस का लाभ उठा कर उद्योगों ने अपने कर्मचारियों पर काम का बोझा लादना आरंभ कर दिया था। कुछ उद्योग जो अब पर्याप्त मुनाफा नहीं दे पा रहे थे वे बंद होने लगे थे। राजस्थान की औद्योगिक नगरी कहलाने वाले नगर में उद्योग पिछड़ने लगे थे। हजारों मजदूरों के रोजगार छिनने से जो करोड़ों रुपया रोजमर्रा की जीवनोपयोगी वस्तुओं की खरीद से बाजार में आता था वह आना बंद हो गया था। दूसरी ओर बेरोजगार हुए लोगों ने दुकानें खोल ली थीं। लेकिन धन की कमी से बाजार में उदासी थी। एक तरह की स्थानीय मंदी। उस का असर पूरा नगर भुगत रहा था। श्रम न्यायालय मुकदमों से पट गया था। मुकदमे लम्बे होने लगे थे। मजदूरों को मिलने वाली राहत उन से दूर चली जा रही थी।
भी जे.के. से निकाले गए एक इंजिनियर ने आईआईटी और इंजीनियरिंग में प्रवेश के इच्छुक छात्रों को कोचिंग देना आरंभ किया। परिणाम बहुत अच्छे थे। देखा देखी कुछ और लोगों ने इस काम को आरंभ किया। यह काम ऐसा परवान चढ़ा कि देखते-देखते चार-पाँच कोचिंग संस्थान खुले और सब ने इतना श्रम किया कि कोटा नगर आईआईटी, इंजिनियरिंग और मेडीकल प्रवेश परीक्षाओं के लिए देश का नामी कोचिंग सेंटर हो गया। देश भर से छात्र कोटा कोचिंग के लिए आने लगे। इस से स्कूलों में उन की भर्ती की तादाद बढ़ी। वे पढ़ते कोचिंग में, प्रयोग स्कूलों में करते थे। एक-एक स्कूल में हजार से ऊपर प्रवेश होने लगे, जिन में पढ़ाने वाले अध्यापक दो सैंकड़ा विद्याथियों के लिए भी पर्याप्त नहीं थे। रहने के लिए कमरे चाहिए थे। लोगों ने दुमंजिले और तिमंजिले बनाना आरंभ किया। लोगों के मकानों के बरांडे तक दीवारें उठाने पर किराए पर उठने लगे। छात्रों को भोजन सप्लाई करने को सैंकड़ों मैस खुल गईँ। एक नया उद्योग पनपने लगा। कुछ ही वर्षों में शहर के बाजार वापस चमन हो गए। एक औद्योगिक नगर को सीधे-सीधे शिक्षानगरी कहा जाने लगा। हालांकि यह सही नहीं था। जिस नगर में एक विश्वविद्यालय नहीं था, और कोचिंग ने, जिस ने शिक्षा को उद्योग बना दिया था माध्यमिक शिक्षा का बेड़ा गर्क कर दिया था, उसे शिक्षा नगरी कहा जा रहा था। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में कोटा के विद्यार्थी धूम मचा रहे थे और कोटावासियों में उन के यहाँ आईआईटी खोले जाने की इच्छा बलवती हो रही थी।

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Tuesday, October 13, 2009

आशियाना दर आशियाना [बकलमखुद-110]

पिछली कड़ी-घर-गृहस्थी की फिक्र (बकलमखुद-109)

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 110वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
ए घर में से डॉ. त्रिपाठी का क्लिनिक दूर पड़ने लगा। सरदार नजदीक के एक होमियोपैथ के पास जाने लगा, लेकिन उस से संतुष्टि नहीं हुई। उस की एक पत्थर खान में पार्टनरशिप थी, और चिकित्सा से अधिक रुचि उस में थी। एक दिन उसकी दवा से पूर्वा को कोई लाभ नहीं हुआ, सरदार को परेशानी में गुस्सा आया, वह होम्यो-स्टोर से पच्चीस-तीस डाईल्यूशन, इतनी ही खाली शीशियाँ और ग्लोब्यूल्स उठा लाया। खुद को आजमाना आरंभ किया। नतीजे लगभग सौ प्रतिशत निकलने लगे। एक दिन पिताजी मिलने आए, सरदार की बगल में एक बालतोड़ फुंसी निकली हुई थी, वह हाथ को कुछ ऊंचा कर के चल रहा था। पिताजी ने पूछा –ये कैसे चल रहे हो? सरदार ने वजह बताई, तो डाँट सुननी पड़ी –बहुत लापरवाह हो, एक बेलाडोना प्लास्टर ला कर चिपकाया नहीं गया। वह प्लास्टर लेने उसी समय बाजार दौड़ा लेकिन मेडीकल की दुकान बंद हो चुकी थी। उस ने होम्यो-संग्रह में से बेलाडोना की कुछ ग्लोब्यूल्स खाए और सो गया। सुबह उठा तो फुंसी गधे के सिर से सींग की तरह गायब थी। किताब उठा कर पढ़ी तो पता लगा कि प्रयोग सही था। पिताजी भी साबूदाने सी चार मीठी गोलियों के असर से चमत्कृत हुए। कहने लगे अपने यहाँ धन्वंतरी (आयुर्वेद की मासिक पत्रिका) आती है उस के दो चिकित्सा विशेषांक बारां पड़े हैं, उन में होमियोपैथी चिकित्सा का वर्णन है, उन्हें यहाँ ले आना। सरदार अगली बाराँ यात्रा में दोनो विशेषांक उठा लाया और जिल्द बंधवा कर रख लिए। उन के अध्ययन ने सरदार को घर का डॉक्टर बना डाला। पड़ौसियों को पता लगा तो वे भी उस की डाक्टरी आजमाने लगे।
परिवार की गाड़ी, गाड़ी पर परिवार
स घर से अदालत सात किलोमीटर पड़ती थी, बीच में एक टेम्पो बदलना होता था। आने जाने में परेशानी होती। उन दिनों एक बैंक के वकील बार ऐसोसिएशन के अध्यक्ष हो गए। उन्होंने वकीलों को बैंक से एक साथ लूना मोपेड फाइनेंस करवाईं। सरदार ने भी एक खरीद ली। अब लूना से अदालत का सफर होने लगा। वह पूरे परिवार को समेट लेती थी। आगे पूर्वा और शोभा पीछे बैठती। एक शाम भोजन किया ही था कि शोभा बोली अस्पताल चलना है। परिवार में फिर नया मेहमान दस्तक दे रहा था। अस्पताल एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर था। सरदार ने ऑटोरिक्षा लाने को कहा तो मना कर दिया। वह पूर्वा को पडौसी के यहाँ सोता छोड़ शोभा को लूना पर बिठा उसे अस्पताल में भर्ती करवा आया, फिर जा कर दीदी को खबर की। वह बहुत नाराज हुई। ऐसी हालत में कोई दुपहिया पर ले जाया जाता है। दीदी को अस्पताल छोड़ पूर्वा को संभालने घर पहुँचा तो देखा अम्मां भी आ चुकी थीं। अगहन के पूरे चांद की रात थी, चांद आसमान के बीच पहुँचता उस के पहले ही सरदार माँ को लेकर अस्पताल पहुँचा ही था कि नर्स ने उन्हें पोता होने की खबर दी।
नसीहत मुंसिफ न बनने की
गले ही सत्र में पूर्वा स्कूल जाने लगी। मुकदमे भी भरपूर आ रहे थे, सफलता भी खूब मिल रही थी। खर्च में कोई कमी न थी लेकिन बचत भी न थी। पिताजी चाहते थे कि अवसर मिले तो न्यायिक सेवा में चले जाना चाहिए। सरदार ने फार्म भर दिया गया। जिस दिन परीक्षा होनी थी उस के एक दिन पहले किसी गाँव में माहौल खराब हो गया। एक साथ पचास-साठ लोगों को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया। सरदार शाम साढ़े छह तक उन की जमानतें कराता रहा। अगले दिन पेपर दे दिए। साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। एक हाईकोर्ट जज साक्षात्कार में थे। उन्हों ने खूब मजा लिया। वापस लौटा तो दूसरे दिन ही सीनियर वकील पानाचंद जैन (अब सेवानिवृत्त हाईकोर्ट जज) ने पकड़ लिया, रेस्टोरेंट ले गए। एक घंटा इस विषय पर भाषण सुनाया कि इतनी अच्छी वकालत छोड़ कर मुंसिफ क्यों बनना चाहते हो? सरदार ने कान पकड़े कि वह यह गुनाह फिर न करेगा। चयन नहीं हुआ। लिखित परीक्षा में कुछ कसर रह गई, वरना साक्षात्कार में सरदार से कम अंक लाने वाले कई चुन लिए गए। पता लगा जमानतों में जो वक्त जाया हुआ था, उस वक्त में पढ़ा होता तो जरूर मुंसिफ हो गया होता। कुछ दिन बाद साक्षात्कार लेने वाले जज साहब का वकालतखाने में आना हुआ। बहुत वकील साक्षात्कार को चयन न होने के लिए जिम्मेदार मानते थे और कहते थे उस में बेईमानी हुई है। उन्होंने विरोध के लिए जज साहब को ज्ञापन देना चाहा, सरदार से हस्ताक्षर कराने आए तो उस ने मना कर दिया। जिन का चयन हुआ है उन से अधिक अंक मुझे साक्षात्कार में मिले हैं, मैं कैसे कहूँ कि बेईमानी हुई है?
अनुज को दिखाई राह
बाराँ से खबर आई कि छोटा भाई सैकण्डरी परीक्षा में फेल हो गया है। सरदार उसे अपने साथ ले आया। इस ने बताया उसे पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा, वह मार्केटिंग का काम करना चाहता है। सरदार ने एक परिचित पेस्टीसाइड निर्माता से मिलाया, जिस ने मार्केटिंग का काम सिखाने और देने के पहले उसे कुछ दिन कारखाने आने को कहा। वह दिन भर वहाँ पेस्टीसाइडस् की दुर्गंध के बीच रहने लगा। पाँच दिनों मे ही मार्केटिंग का भूत उतर गया। शनिवार शाम को बोला कि वह बाराँ जा रहा है सोम को लौट आएगा। लेकिन वह नहीं लौटा। एक सप्ताह की थकान ने उसे फिर से पढ़ने को प्रेरित किया। साल बचाने को उस ने बहिन के घर मध्यप्रदेश जा कर हायर सैकण्डरी परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ और बाराँ कॉलेज में उसे दाखिला मिल गया। बाद में वह बी.एड. कर अध्यापक हो गया और उस में नेतृत्व का जबर्दस्त गुण था। वह अपने विभाग और नगर में महत्वपूर्ण हो गया था कि कहीं भी उस के बिना सामूहिक काम हो पाने कठिन थे। अध्यापन भी ऐसा की छात्र उस पर टूट कर पड़ते थे।
नई योजनाएं
हाउसिंग बोर्ड मकान का नया किराएदार पिताजी का पुराना विद्यार्थी था और मकान में स्कूल चला रहा था। एक दिन आया और पूछा– आप उस मकान में आ कर रहेंगे। सरदार ने कहा– शायद कभी नहीं। उस ने मकान खरीदने का प्रस्ताव किया। सरदार ने कहा जो भी बाजार की रेट हो, दे देना। हिसाब-किताब किया तो तीस हजार हुआ। वह पाँच एडवांस दे गया। सरदार ने उसी दिन एक दलाल को बुला कर नजदीक में प्लाट दिखाने को कहा। उस ने पास ही पार्क के पीछे की गली का एक प्लाट साढ़े अट्ठाईस हजार का बताया, सरदार ने उसी का सौदा करने को कहा और एग्रीमेंट कर एडवांस रकम दे दी। दलाल शाम को प्लाट की मूल पत्रावली दे गया। पता लगा प्लाट पार्क के सामने है और कोई ढाई सौ वर्ग फुट अधिक बड़ा है।

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Saturday, October 10, 2009

घर-गृहस्थी की फिक्र (बकलमखुद-109)

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 109वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
पिछली कड़ी-कोर्ट में गुस्से का इजहार [बकलमखुद-108]
हले पहल जिस मकान में कमरा-रसोई किराए पर लिए, वह एक गली में था। कमरे की एक मात्र खिड़की पीछे चौक में खुलती थी। वही एक हवा-रोशनी का साधन थी। पीछे चौक के आस-पास के मकानों में जो लोग रहते थे, उन के मुख से बातचीत से ले कर लड़ाई-झगड़ों में यौनांगों के नामों और अवैध यौन सबंधों की संज्ञाएँ टपकती ही रहतीं। स्त्रियोँ और बच्चों तक को उन से परहेज न था। शोभा महीने भर में ही उकता गई। नए मकान की तलाश आरंभ हुई। तीसरे माह पिताजी के एक मित्र का मकान मिला, यूनियन दफ्तर पर भी नजदीक था। दुमंजिले का कमरा-रसोई तय हो गए। उस में आ गए। यहाँ पहला सीलिंग फैन खरीदा गया। लेकिन उस माह ही घर खर्च में परेशानी हुई। जेब बिलकुल खाली और घर में जरूरी सामान नहीं, क्या किया जाए? सरदार ने असमंजस में घर से यूनियन-दफ्तर तक के चक्कर लगाना आरंभ किया। बीच में एक धर्मकांटा था, जिस का मालिक साहित्य में रुचि रखता था। सरदार कभी कभी उस के साथ चर्चा करने बैठ जाता। उस दिन उस ने आवाज दे ली। वहाँ गया तो उस ने एक नोटिस पकड़ा दिया। उस के किसी पूर्व कर्मचारी ने बकाया वेतन का दावा कर दिया था। सरदार ने तय कर रखा था कि मजदूर के खिलाफ मालिक का मुकदमा न लड़ेगा। लेकिन जेब कह रही थी कि नोटिस ले लो, वकालतनामा हस्ताक्षर करवा लो, कुछ तो फीस मिलेगी, घर में सामान आ जाएगा। मन कह रहा था –यह क्या? पहली ही परीक्षा में फेल हो जाओगे क्या? नोटिस न लिया गय़ा, मना भी न किया। कहा –अभी तारीख दूर है, फिर ले लूंगा। वहाँ से उठा तो खाली जेब फिर कमरे से यूनियन दफ्तर के बीच चक्कर आरंभ हो गए। जैसे-तैसे वह दिन निकाला। दूसरे दिन सुबह अदालत जाने को टेम्पो के पैसे बचाने के लिए किसी से लिफ्ट ली। अदालत में एक नया मुवक्किल आ गया। जेब में कुछ पैसा आया तो असमंजस जाता रहा।
स मकान में रहते साल ही हुआ था कि गर्मी की एक रात सरदार और शोभा पास के पार्क में जा बैठे। वहाँ ठंडक में बैठे-बैठे देर हो गई। घर पहुँचे तो मकान के प्रवेश द्वार पर अंदर से ताला लग चुका था। मकान में किराएदारों के अलावा केवल मकान मालिक का लड़का रहता था, उसे आवाज लगाई, वह उतरा और ताला खोला। लेकिन वापस गया तो बड़बड़ाते हुए। उसी समय तय हो गया कि नया मकान तलाश कर लेना चाहिए, जिस में कमरे का एक रास्ता बाहर जरूर खुलता हो। सप्ताह भर में मकान बदल लिया गया। नए मकान में दो कमरे, रसोई थी। अब उन की जरूरत भी थी, घर में नया सदस्य आने वाला था। बाहर के कमरे को दफ्तर की शक्ल देने के लिए मेज और कुर्सियों की जरूरत थी। दीदी के घऱ से एक फालतू मेज लाई गई, दो कुर्सियाँ खरीदीं एक खुद के लिए और एक मुवक्किल के लिए। कुछ दिन बाद पिताजी आए, मेज और कुर्सियाँ देख प्रसन्न भी हुए। सरदार ने उन से जिक्र किया -तीन चार कुर्सियाँ और होतीं तो ठीक होता। पिताजी ने कहा कमाते जाओ, बसाते जाओ। उस दिन निश्चित हो गया कि अब सब कुछ खुद ही करना है।
धर खबर आई कि दादा जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं। सरदार उन से मिलने गया, देखा दादा जी की चला-चली की बेला है। उन्हें देख कर वापस लौटा तो खबर आई, दादा जी नहीं रहे। इस दशा में शोभा तो जा नहीं सकती थीं। सरदार अकेला ही बाराँ गया। वहाँ फिर चर्चा हुई कि बहू के पास कोई नहीं है। वापसी में छोटी बहिन अनिता को साथ लिया। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत का दिन था, शाम को सभा थी। सरदार और अनिता दोनों देर रात सभा से लौटे तो पत्नी ने अस्पताल जाने का संकेत दिया। उसी समय उन्हें पास के अस्पताल भर्ती कराकर सरदार मौसी को बुलाने दौड़ा। मौसी आ गईं तो तसल्ली हुई। सुबह दूसरे पहर तक बेटी नए सदस्य के रूप में साथ थी। खबर होने पर मामा जी, मामी जी मिलने आए। मामी जी अस्पताल तक गईं, मामा जी घर ही बैठे रहे। मामी जी मिला कर सरदार वापस लौटा, तब तक एक कागज पर मामाजी बिटिया की कुंडली बना चुके थे। उन के हिसाब से नाम कुछ और रखा जाना था। लेकिन जन्म नक्षत्र पूर्वाभाद्रपद था। उस दिन से उसे पूर्वा कहना आरंभ किया तो कोई दूसरा नाम जुबान पर चढ़ा ही नहीं। बेटी हमेशा शिकायत करती कि उस की सहेलियों के कई नाम हैं, घऱ का अलग. स्कूल का अलग और नाना-मामा का अलग, उस का एक ही क्यों है?
कुछ दिनों में माँ आ गईँ, शोभा और पूर्वा को अपने साथ ले गईं। दो माह में दोनों वापस लौटीं तो गर्मियाँ जोरों पर थीं। सरदार एक दिन अदालत से लौटा तो शोभा ने बताया पूर्वा बार-बार दस्त जा रही है। पत्नी से पूछा कि क्या बात हो सकती है? वह डॉक्टर की बेटी, उस ने अपने अनुभव से कहा, लगता है पहली गर्मी बर्दाश्त नहीं हो रही है। सरदार शाम को ठंडाई के लिए ब्राह्मी भिगो कर गया था। उस में से दो पत्ती ले कर निचोड़ा, निकला हुआ रस चम्मच से बेटी को पिलाया, दस्त बंद हो गए। युक्ति काम कर गई थी। लेकिन युक्तियों से काम न चलने वाला था। देर-सबेर कोई स्थाई चिकित्सक तो देखना ही था। यूँ तो मामा बैज्जी कोटा में ही थे, लेकिन वे दूर थे। चिकित्सक नजदीक होना चाहिए था। पड़ौसी एलआईसी साथी डीसी त्रिपाठी के बड़े भाई होमियोपैथ थे। पूर्वा को वहीँ दिखाया जाने लगा। वे मीठी गोलियाँ देते, जिन्हें पूर्वा बड़े चाव से खाती। सरदार को भी गोलियों ने चमत्कृत किया। पाँच मि.लि. की शीशी में कोई पाँच-दस बूंद दवा होती और वह चमत्कार की तरह बीमारी से निपटती। सरदार जीव-विज्ञान स्नातक और आयुर्वेद विशारद तो था ही, एक दिन होमियोपैथी की एक किताब भी घर आ गई।
स मकान मालिक के व्यवहार से भी असंतुष्टि हुई तो फिर मकान बदला गया। इस बार जो मकान मिला उस में भी वही दो कमरे और रसोई थे, लेकिन बड़े थे। बाहर का कमरा बड़ा था। एक मेज, दो कुर्सी मे दफ्तर भौंडा लगता। एक मित्र ने अपने कारखाने से लकड़ी का एक तख्त बनवा कर भिजवा दिया, दफ्तर ठीक लगने लगा। एक दिन सरदार अदालत से घर लौट रहा था तो टेम्पो स्टेंड पर एक बढ़ई को लकड़ी की एक बैंच बेचते देखा। कीमत सवा सौ बता रहा था। भाव किया तो नब्बे तक आ गया। घर आ कर पत्नी को पैसा दे कर भेजा। कुछ देर बाद देखा पत्नी के पीछे बढ़ई बेंच उठाए आ रहा है। पत्नी ने बताया पिचहत्तर में खरीदी है।

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