Tuesday, October 20, 2009

घर-शहर की बदलती सूरत [बकलम खुद-111]

पिछली कड़ी-आशियाना दर आशियाना [बकलमखुद-110]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 111वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
प्ला ट लिए साल भर गुजर गया। एक दिन मामा जी ने पूछा तुम मकान नहीं बना रहे? सरदार जवाब देने में अचकचा गया। उस ने कहा -पैसा हो तो बनाऊँ। पूछने लगे कितना कमाते हो? -मैं जितना कमाता हूँ उतना खर्च हो जाता है। हाथ में कुछ बचता ही नहीं। खर्च कितना करते हो? -बस कुछ ढंग से जी लेता हूँ। मामाजी कहने लगे –तुम बहुत कम खर्च करते हो। -आखिर उतना ही तो खर्च कर सकता हूँ जितना कमाता हूँ? तुम जितना खर्च करोगे उतना कमाओगे। इसलिए अपना खर्च बढ़ाओ। मामाजी के इस उत्तर पर सरदार अपना सिर खुजाने लगा। वे बोलते गए -मकान कोई अपने पैसों से बनता है। –तो फिर किस के पैसों से बनता है? उन्हों ने सरदार को दो-तीन मजेदार सच्चे किस्से सुना डाले। सरदार को यकीन हो गया कि उसे खर्च बढ़ाना चाहिए, और कि वह मकान बना सकता है। उस ने एलआईसी के साथी त्रिपाठी जी से बात की तो उन्हों ने मामाजी की बात का समर्थन किया और कहा कि अपने नाम रजिस्ट्री हो जाए उतना बना लो, फिर एलआईसी से गृहऋण मिल जाएगा। एक बुजुर्ग साथी ज्ञानी जी से बात की तो उन्हों ने मामा जी का समर्थन करते हुए एक मकान बनाने वाले ठेकेदार से मिला दिया। एक मुवक्किल ने चार-छह ट्रक पत्थर प्लाट पर डलवा दिए। अब चूने-रेत की व्यवस्था हो जाए तो नींव डालने का काम हो सकता था। उस की व्यवस्था ठेकेदार ने करवा दी। मामा जी ने मुहूर्त निकाला। उन्हों ने ही पूजा करवा दी। बैलदार जिसने पहली गैंती नींव खोदने के लिए चलाई, उसे टीका निकाल कर दक्षिणा देने को कहा तो सरदार ने मामाजी से पूछा क्या दूँ? उन्हों ने सौ रूपए देने को कहा। सरदार कहने लगा चेंज नहीं है। मामाजी ने खुद निकाल कर नोट दिया। बाद में कहने लगे –अब तुम्हारा मकान बन जाएगा। पहली बार में मुझ से पैसा निकलवा लिया। मकान बनने लगा। दो कमरों का ढांचा खड़ा हुआ कि रजिस्ट्री हो गई। बाद में एलआईसी से ऋण मिला तो एक किचन, स्टोर, बाथरूम और बरांडा और बना लिए। अपने घर में आ गए। जगह कम थी लेकिन सरदार के लिए पर्याप्त थी। वकालत के दस साल पूरे हो चुके थे। एलआईसी और एक और सामान्य बीमा कंपनी का काम मिल गया तो मकान का कर्ज भी चुकने लगा।
पिता जी दो वर्ष पहले ही रिटायर हो चुके थे, दो वर्ष बाद ही छोटे भाई के लिए रिश्ता आया, वह अभी रोजगार पर नहीं था। लेकिन यह निश्चित था कि कुछ दिनों में वह बारोजगार हो लेगा। उस की शादी हो गई। उस की शादी के तीन माह बाद माँ-पिताजी दोनों आए और दो दिन सरदार के साथ रहे। तीसरे दिन वापस बारां पहुँचे। दो दिन बाद रात को तीन बजे खबर मिली कि पिताजी नहीं रहे, दिल का दौरा पड़ा था। खबर पर यक़ीन न हुआ। तुरंत व्यवस्था कर सब बारां पहुँचे तो बाजार खुला न था और घर के बाहर लोगों का हजूम इकट्ठा था। अंदर पिताजी निष्प्राण लेटे थे। कुछ ही देर में उन की विदाई हुई। हजारों लोग बाहर और अंदर से रोते हुए साथ थे। बस एक सरदार था जिसे रुलाई नहीं आ रही थी। वह देख रहा था, अपनी विधवा माँ को, तीन बेरोजगार छोटे भाइयों को। सोच रहा था अब घर कैसे चलेगा? वह रोने लगा तो बाकी सब कैसे संभलेंगे? उस दिन बाजार न खुला। लोगों का खोलने का मन ही नहीं था। छोटे शहर की आधी आबादी किसी न किसी रूप में पिता जी की ऋणी थी। बस्ती के इस साथ ने शाम तक संबल बंधाया।
दादा जी के देहान्त के उपरांत से ही पिता जी उन की अधूरी छोड़ी भागवत रोज बांचने लगे थे। वर्ष में पूर्ण होती और फिर दुबारा आरंभ हो जाती। पिताजी फिर एक बार उसे अधूरा छोड़ गए थे। छोटे भाई ने सरदार से पूछा। कथा का क्या करें? सरदार ने कहा अधूरी को तो तुम पूरा करो। बाद की बाद में देखेंगे। उस ने कथा आरंभ कर दी। कुछ माह बाद एक भाई नौकरी में चला गया और साल पूरा होते होते दूसरा भाई भी। गृहस्थी मुकाम पर चलने लगी थी। कथा पूरी हुई तब तक श्रोताओँ को उस का कथा वाचन भा गया। कथा निरंतर हो गई। तीन साल होते-होते छोटे भाई की भी शादी हो ली। इस बीच बच्चे बड़े हो रहे थे। धर कोटा में जेके सिन्थेटिक्स में हुई हजारों मजदूरों-कर्मचारियों की छंटनी ने कर्मचारियों में दहशत का माहौल उत्पन्न कर दिया था। उस का लाभ उठा कर उद्योगों ने अपने कर्मचारियों पर काम का बोझा लादना आरंभ कर दिया था। कुछ उद्योग जो अब पर्याप्त मुनाफा नहीं दे पा रहे थे वे बंद होने लगे थे। राजस्थान की औद्योगिक नगरी कहलाने वाले नगर में उद्योग पिछड़ने लगे थे। हजारों मजदूरों के रोजगार छिनने से जो करोड़ों रुपया रोजमर्रा की जीवनोपयोगी वस्तुओं की खरीद से बाजार में आता था वह आना बंद हो गया था। दूसरी ओर बेरोजगार हुए लोगों ने दुकानें खोल ली थीं। लेकिन धन की कमी से बाजार में उदासी थी। एक तरह की स्थानीय मंदी। उस का असर पूरा नगर भुगत रहा था। श्रम न्यायालय मुकदमों से पट गया था। मुकदमे लम्बे होने लगे थे। मजदूरों को मिलने वाली राहत उन से दूर चली जा रही थी।
भी जे.के. से निकाले गए एक इंजिनियर ने आईआईटी और इंजीनियरिंग में प्रवेश के इच्छुक छात्रों को कोचिंग देना आरंभ किया। परिणाम बहुत अच्छे थे। देखा देखी कुछ और लोगों ने इस काम को आरंभ किया। यह काम ऐसा परवान चढ़ा कि देखते-देखते चार-पाँच कोचिंग संस्थान खुले और सब ने इतना श्रम किया कि कोटा नगर आईआईटी, इंजिनियरिंग और मेडीकल प्रवेश परीक्षाओं के लिए देश का नामी कोचिंग सेंटर हो गया। देश भर से छात्र कोटा कोचिंग के लिए आने लगे। इस से स्कूलों में उन की भर्ती की तादाद बढ़ी। वे पढ़ते कोचिंग में, प्रयोग स्कूलों में करते थे। एक-एक स्कूल में हजार से ऊपर प्रवेश होने लगे, जिन में पढ़ाने वाले अध्यापक दो सैंकड़ा विद्याथियों के लिए भी पर्याप्त नहीं थे। रहने के लिए कमरे चाहिए थे। लोगों ने दुमंजिले और तिमंजिले बनाना आरंभ किया। लोगों के मकानों के बरांडे तक दीवारें उठाने पर किराए पर उठने लगे। छात्रों को भोजन सप्लाई करने को सैंकड़ों मैस खुल गईँ। एक नया उद्योग पनपने लगा। कुछ ही वर्षों में शहर के बाजार वापस चमन हो गए। एक औद्योगिक नगर को सीधे-सीधे शिक्षानगरी कहा जाने लगा। हालांकि यह सही नहीं था। जिस नगर में एक विश्वविद्यालय नहीं था, और कोचिंग ने, जिस ने शिक्षा को उद्योग बना दिया था माध्यमिक शिक्षा का बेड़ा गर्क कर दिया था, उसे शिक्षा नगरी कहा जा रहा था। आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में कोटा के विद्यार्थी धूम मचा रहे थे और कोटावासियों में उन के यहाँ आईआईटी खोले जाने की इच्छा बलवती हो रही थी।

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13 कमेंट्स:

अजित वडनेरकर said...

ये शायद नब्बे का दशक था। उसके शुरुआती दौर में मैं कोटा में ही था। गुमानपुरा का बंसल कोचिंग याद है। अखबारों में कोचिंग इन्स्टीट्यूट्स के ज्यादा विज्ञापन नहीं होते थे। जो थे, वे भी लोकल माने जाते थे। आज कोटा से सर्वाधिक विज्ञापन आय कोचिंग से होती है। कोचिंग उद्योग बन चुका है।
यह महत्वपूर्ण कड़ी है। बदलते कोटा के सामाजिक परिदृष्य को कुछ विस्तार दिया जा सकता था।
शुक्रिया

Udan Tashtari said...

आनन्दायी रहा दिनेश बाबू से सीढ़ी दर सीढ़ी सुनना उनके बारे में.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Jeevan aur darshan ka samanjasy - aadarniy pitaji ka prasthaan, ab ees Katha ko, aglee peedhee tak le aaya hai ....behad rochak va maarmik kathaa ...

Himanshu Pandey said...

मामा जी की सीख तो खूबसूरत है - "तुम जितना खर्च करोगे उतना कमाओगे।"

सफर अदभुत है । मजेदार भी ।

डॉ महेश सिन्हा said...

एक राह बंद हुई तो दूसरी खुल गयी. कोटा में बच्चों के बीमार होने की घटनाएं बढ़ रही हैं शायद पानी के कारण

Arshia Ali said...

ब्लॉग जगत की सूरत बदलने में आपका बहुत बडा योगदान है।
( Treasurer-S. T. )

शोभना चौरे said...

कोटा की कोचिग का सच अब समझ में आया | शिक्षा को उद्योग बनाने में कोचिग का महत्वपूर्ण योगदान है |मै करीब १५ साल विक्रम सीमेंट खोर में रही ८६ से २००१ तक सैकडो बच्चे कोटा जाते रहे कोचिंग के लिए मुश्किल से अक या दो बच्चे सफल हुए \कई बच्चे तो बीमार होकर लोटे कइयो ने अपना आत्मविश्वास ही खो दिया |
जीवन को सुख दुःख के साथ आत्मसात करता हुआ आपका सफर दिल को छु गया \
आभार

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

मामा जी की बात १०० % सही है खर्चे का आमदनी से करीबी नाता है . खर्चे बढाइये आमदनी को बढ़ाने के लिए अपने आप रस्ते खोजेंगे .

वैसे आज ही कोटा की कोचिंग को कमजोर करने के लिए सिब्बल साहब ने अपना तीर चला ही दिया है

kshama said...

सही है...महाविद्यालय में न पढा के, कोचिंग क्लास में जाना ही जाना पड़े, ये विद्यार्थी वर्ग के लिए बाध्य बन जाता है...खुली किताब रख परीक्षा लें तो कॉपी की समस्या ही हल हो जे...लेकिन जब तक मंत्री गन के कोचिंग क्लास चलेंगे, ये बदलाव आ नहीं सकता..खुली किताब तब फायदा हो जब विद्यार्थी को किस पन्ने पे क्या है वो पता हो!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

संस्मरण सदैव की भाँति रोचक रहा।
सरदार को बधाई!

पंकज said...

आय के बराबर खर्च हो या खर्च के बराबर आय ये बहस पूरी अर्थव्यवस्था की बहस है.

शरद कोकास said...

अजित जी सचमुच यह महत्वपूर्ण कडी है लेकिन कभी कभी कोई घटना विस्तार मांगती है । सरदार के पिता का प्राण त्यागना और उसके बाद इतनी जल्दी सहज हो जाना कुछ असहज लग रहा है । हो सकता है काल का यह वितान कुछ अधिक बड़ा रहा हो लेकिन यहाँ वर्णन शायद शीघ्रता मे हो गया है। मेरे लिये तो इस कड़ी को यहीं समाप्त हो जाना चाहिये था क्योंकि उसके बाद मै आगे के वर्णन से अपने आप को नहीं जोड़ पाया ।

Abhishek Ojha said...

यहाँ पर कुछ फास्ट फॉरवर्ड हो गया लगता है. वर्तमान के समीप आ गयी कहानी लगती है अब तो.

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