पिछली कड़ी-घर-गृहस्थी की फिक्र (बकलमखुद-109)
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 110वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं। न ए घर में से डॉ. त्रिपाठी का क्लिनिक दूर पड़ने लगा। सरदार नजदीक के एक होमियोपैथ के पास जाने लगा, लेकिन उस से संतुष्टि नहीं हुई। उस की एक पत्थर खान में पार्टनरशिप थी, और चिकित्सा से अधिक रुचि उस में थी। एक दिन उसकी दवा से पूर्वा को कोई लाभ नहीं हुआ, सरदार को परेशानी में गुस्सा आया, वह होम्यो-स्टोर से पच्चीस-तीस डाईल्यूशन, इतनी ही खाली शीशियाँ और ग्लोब्यूल्स उठा लाया। खुद को आजमाना आरंभ किया। नतीजे लगभग सौ प्रतिशत निकलने लगे। एक दिन पिताजी मिलने आए, सरदार की बगल में एक बालतोड़ फुंसी निकली हुई थी, वह हाथ को कुछ ऊंचा कर के चल रहा था। पिताजी ने पूछा –ये कैसे चल रहे हो? सरदार ने वजह बताई, तो डाँट सुननी पड़ी –बहुत लापरवाह हो, एक बेलाडोना प्लास्टर ला कर चिपकाया नहीं गया। वह प्लास्टर लेने उसी समय बाजार दौड़ा लेकिन मेडीकल की दुकान बंद हो चुकी थी। उस ने होम्यो-संग्रह में से बेलाडोना की कुछ ग्लोब्यूल्स खाए और सो गया। सुबह उठा तो फुंसी गधे के सिर से सींग की तरह गायब थी। किताब उठा कर पढ़ी तो पता लगा कि प्रयोग सही था। पिताजी भी साबूदाने सी चार मीठी गोलियों के असर से चमत्कृत हुए। कहने लगे अपने यहाँ धन्वंतरी (आयुर्वेद की मासिक पत्रिका) आती है उस के दो चिकित्सा विशेषांक बारां पड़े हैं, उन में होमियोपैथी चिकित्सा का वर्णन है, उन्हें यहाँ ले आना। सरदार अगली बाराँ यात्रा में दोनो विशेषांक उठा लाया और जिल्द बंधवा कर रख लिए। उन के अध्ययन ने सरदार को घर का डॉक्टर बना डाला। पड़ौसियों को पता लगा तो वे भी उस की डाक्टरी आजमाने लगे।
परिवार की गाड़ी, गाड़ी पर परिवार
इस घर से अदालत सात किलोमीटर पड़ती थी, बीच में एक टेम्पो बदलना होता था। आने जाने में परेशानी होती। उन दिनों एक बैंक के वकील बार ऐसोसिएशन के अध्यक्ष हो गए। उन्होंने वकीलों को बैंक से एक साथ लूना मोपेड फाइनेंस करवाईं। सरदार ने भी एक खरीद ली। अब लूना से अदालत का सफर होने लगा। वह पूरे परिवार को समेट लेती थी। आगे पूर्वा और शोभा पीछे बैठती। एक शाम भोजन किया ही था कि शोभा बोली अस्पताल चलना है। परिवार में फिर नया मेहमान दस्तक दे रहा था। अस्पताल एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर था। सरदार ने ऑटोरिक्षा लाने को कहा तो मना कर दिया। वह पूर्वा को पडौसी के यहाँ सोता छोड़ शोभा को लूना पर बिठा उसे अस्पताल में भर्ती करवा आया, फिर जा कर दीदी को खबर की। वह बहुत नाराज हुई। ऐसी हालत में कोई दुपहिया पर ले जाया जाता है। दीदी को अस्पताल छोड़ पूर्वा को संभालने घर पहुँचा तो देखा अम्मां भी आ चुकी थीं। अगहन के पूरे चांद की रात थी, चांद आसमान के बीच पहुँचता उस के पहले ही सरदार माँ को लेकर अस्पताल पहुँचा ही था कि नर्स ने उन्हें पोता होने की खबर दी।
नसीहत मुंसिफ न बनने की
अगले ही सत्र में पूर्वा स्कूल जाने लगी। मुकदमे भी भरपूर आ रहे थे, सफलता भी खूब मिल रही थी। खर्च में कोई कमी न थी लेकिन बचत भी न थी। पिताजी चाहते थे कि अवसर मिले तो न्यायिक सेवा में चले जाना चाहिए। सरदार ने फार्म भर दिया गया। जिस दिन परीक्षा होनी थी उस के एक दिन पहले किसी गाँव में माहौल खराब हो गया। एक साथ पचास-साठ लोगों को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया। सरदार शाम साढ़े छह तक उन की जमानतें कराता रहा। अगले दिन पेपर दे दिए। साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। एक हाईकोर्ट जज साक्षात्कार में थे। उन्हों ने खूब मजा लिया। वापस लौटा तो दूसरे दिन ही सीनियर वकील पानाचंद जैन (अब सेवानिवृत्त हाईकोर्ट जज) ने पकड़ लिया, रेस्टोरेंट ले गए। एक घंटा इस विषय पर भाषण सुनाया कि इतनी अच्छी वकालत छोड़ कर मुंसिफ क्यों बनना चाहते हो? सरदार ने कान पकड़े कि वह यह गुनाह फिर न करेगा। चयन नहीं हुआ। लिखित परीक्षा में कुछ कसर रह गई, वरना साक्षात्कार में सरदार से कम अंक लाने वाले कई चुन लिए गए। पता लगा जमानतों में जो वक्त जाया हुआ था, उस वक्त में पढ़ा होता तो जरूर मुंसिफ हो गया होता। कुछ दिन बाद साक्षात्कार लेने वाले जज साहब का वकालतखाने में आना हुआ। बहुत वकील साक्षात्कार को चयन न होने के लिए जिम्मेदार मानते थे और कहते थे उस में बेईमानी हुई है। उन्होंने विरोध के लिए जज साहब को ज्ञापन देना चाहा, सरदार से हस्ताक्षर कराने आए तो उस ने मना कर दिया। जिन का चयन हुआ है उन से अधिक अंक मुझे साक्षात्कार में मिले हैं, मैं कैसे कहूँ कि बेईमानी हुई है?
अनुज को दिखाई राह
बाराँ से खबर आई कि छोटा भाई सैकण्डरी परीक्षा में फेल हो गया है। सरदार उसे अपने साथ ले आया। इस ने बताया उसे पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा, वह मार्केटिंग का काम करना चाहता है। सरदार ने एक परिचित पेस्टीसाइड निर्माता से मिलाया, जिस ने मार्केटिंग का काम सिखाने और देने के पहले उसे कुछ दिन कारखाने आने को कहा। वह दिन भर वहाँ पेस्टीसाइडस् की दुर्गंध के बीच रहने लगा। पाँच दिनों मे ही मार्केटिंग का भूत उतर गया। शनिवार शाम को बोला कि वह बाराँ जा रहा है सोम को लौट आएगा। लेकिन वह नहीं लौटा। एक सप्ताह की थकान ने उसे फिर से पढ़ने को प्रेरित किया। साल बचाने को उस ने बहिन के घर मध्यप्रदेश जा कर हायर सैकण्डरी परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ और बाराँ कॉलेज में उसे दाखिला मिल गया। बाद में वह बी.एड. कर अध्यापक हो गया और उस में नेतृत्व का जबर्दस्त गुण था। वह अपने विभाग और नगर में महत्वपूर्ण हो गया था कि कहीं भी उस के बिना सामूहिक काम हो पाने कठिन थे। अध्यापन भी ऐसा की छात्र उस पर टूट कर पड़ते थे।
नई योजनाएं
हाउसिंग बोर्ड मकान का नया किराएदार पिताजी का पुराना विद्यार्थी था और मकान में स्कूल चला रहा था। एक दिन आया और पूछा– आप उस मकान में आ कर रहेंगे। सरदार ने कहा– शायद कभी नहीं। उस ने मकान खरीदने का प्रस्ताव किया। सरदार ने कहा जो भी बाजार की रेट हो, दे देना। हिसाब-किताब किया तो तीस हजार हुआ। वह पाँच एडवांस दे गया। सरदार ने उसी दिन एक दलाल को बुला कर नजदीक में प्लाट दिखाने को कहा। उस ने पास ही पार्क के पीछे की गली का एक प्लाट साढ़े अट्ठाईस हजार का बताया, सरदार ने उसी का सौदा करने को कहा और एग्रीमेंट कर एडवांस रकम दे दी। दलाल शाम को प्लाट की मूल पत्रावली दे गया। पता लगा प्लाट पार्क के सामने है और कोई ढाई सौ वर्ग फुट अधिक बड़ा है।
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18 कमेंट्स:
प्लाट आ ग्या. अब मकान का इन्तजार है..जारी रहें.
शब्दों के सफर में यह पारिवारिक सफर अपनी रोचकता बनाए चल रहा है।
इंतज़ार रहेगा दास्तान-ए-मकाँ का
बी एस पाबला
द्विवेदी जी, आपका ये सफ़र है तो एक आम आदमी का रोजनामचा पर सभी को बाँध कर रखने का सामर्थ्य है इसमे /
आनंद आरहा है साथ ही संघर्ष गाथा भी है ये /आपने छोटे से छोटा विवेरण भी याद रक्खा है जैसे बेटे का जन्म प्रसंग कि पूरा चाँद था आसमान मे /
बधाई आपको ,
डॉ.भूपेन्द्र रीवा
शब्दों के सफर में संस्मरणों की यह कड़ी भी रोचक रही!
रोचक संस्मरण. पढ कर लगता है, अरे ! हम सब का जीवन तो एक कथा है, उतनी ही रोचक और घटनापूर्ण जितनी कोई भी कथा होती है.
navbharat times mein ajit wadnerkar naam ka ek ladka hota tha, jo shabdon se khelta tha aur chulbula tha.aaj bhi hairaani hoti hai ki wah ek bauddik kam bhi khel-khel mein kar jata hai. ajit, tumhara pahle se jyada kayal ho gaya hoon.
होम्योपैथ के साथ अच्छा रहा ये सफर |
आभार
वकील साहिब दवाई वाले . पारिवारिक सम्बन्ध हो गए है आप से आपको पढ़ते पढ़ते . चल मेरी लूना
बेहतरीन प्रस्तुति.... सुरुचिपूर्ण... अगली कड़ी का इंतज़ार...
जीवन का सफ़र आपने कर्मठता के साथ जीया है
सौ. शोभा भाभी जी का भी अमूल्य योगदान रहा है -
दीपावली की , आप के परिवार को अनेकों शुभकामनाएं
कल ये कडी देख नहीं पाई आज न देखती तो दो कडीयां इकट्ठी पढनी पडती। शब्दों का प्रवाह इतना सहज और सरल है कि पाठक को बान्धे रखता है बहुत सुब्दर कडी है ये भी। आभार
एक आम आदमी की ज़िन्दगी को खास तरह से यहाँ देखना अच्छा लग रहा है । मुसीबतें,परेशानियाँ परोपकार ,और हासिल कुछ नहीं यही तो है ज़िन्दगी । ग्लोब्लुल्स वाला टुकड़ा मज़ेदार लगा ऐसे ही हमने एक बार एक नीद के मरीज़ को प्लेन ग्लोब्यूल्स दिये थे और उसकी बीमारी दूर हो गई थी ।
वाह जी...
कथा कहने के अंदाज़ में सूत जी का जवाब नहीं....
अनुभवों को विस्तार मिलता हैं...पढ़ने के बाद...
डाक्टर साहब कहा जाए या वकील साहब? धीरे-धीरे गृहस्थी जम रही है. वकालत तो जम ही गयी है. डाक्टरी अभी भी करते हैं क्या?
मैं सोच रहा हूँ कि मिलने पर किस चीज कि दवाई ली जाय. कोई ऐसी दवाई है क्या कि बिना सोये काम चल जाए? :)
उस वक्त भी बैंक फाइनेंस कर देते थे...ये तो आज की बात लगती है....
होम्योपथी को लेकर मैं हमेशा सशंकित रहा हूँ -मगर आपने भी यह सत्यापित कर दिया की कुछ मामलों में यह कारगर है
बेहद शानदार प्रस्तुति सर| "अनुज को दिखाई राह" बहुत पसंद आया..
साभार
रामकृष्ण गौतम
दैनिक भास्कर, भोपाल
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