पिछली कड़ी-घर-शहर की बदलती सूरत [बकलम खुद-111]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 112वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं। न गर के वातावरण के बदलाव ने सरदार के व्यवसाय को प्रभावित करना आरंभ कर दिया था। एक वक्त था जब औद्योगिक विवादों और उन से संबंधित मुकदमों की इतनी भरमार थी कि एक बार श्रम न्यायालय में प्रवेश के उपरांत उसे समय ही नहीं मिलता था। जिस के परिणाम स्वरूप उस ने अपने सभी अपराधिक और दीवानी मुकदमों को दूसरे वकीलों को देना पड़ा था। एक औद्योगिक और श्रंम मामलों के वकील के रूप में उस की पहचान बन चुकी थी। दाल-रोटी के अलावा भी कुछ बचने लगा था। जिस ने यह संभव बनाया कि सरदार और छोटा भाई सुनील मिल कर तीसरे भाई अनिल का विवाह समाज में अपने पिता और परिवार की प्रतिष्ठा के अनुरूप संपन्न कर सके। पिता की जिम्मेदारियों में अभी एक छोटे भाई को ब्याहना और शेष था।
श्रम न्यायालय सीधे राज्य सरकार के अधीन था और इस में जज न्यायपालिका से आते थे। नए जजों की कमी का सीधा असर इस पर पड़ा। एक जज का स्थानांतरण होता तो दूसरे जज की पदस्थापना में समय लगता। बद स्थापना हो जाने पर भी जब तक जज के नाम से अधिसूचना गजट में प्रकाशित न हो वह काम करने में असमर्थ रहता। सरकार का काम इतना सुस्त कि अधिसूचना के प्रकाशन में ही तीन-तीन माह निकल जाते। इस तरह कभी छह माह, कभी साल भर और कभी-कभी दो-दो साल तक श्रम न्यायालय खाली रहने लगा। वहाँ लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ने लगीं। पहले जिस मुकदमे में माह में दो बार पेशी हो जाती थी, अब उसी में चार और छह माह में एक पेशी होने लगी। मुकदमा जो दो से तीन साल में निर्णीत हो जाता था उसे निर्णीत होने में दस से पन्द्रह साल लगने लगे। इधर नगर के पुराने उद्योग बंद हो रहे थे और नए लग नहीं रहे थे। बड़ी संख्या में हुई छंटनी ने मजदूरों को मालिकों की शर्तों पर काम करने, यहाँ तक कि कानूनी बाध्यताओं से भी कम वेतन और सुविधाओँ पर काम करने पर बाध्य कर दिया था। नगर में श्रमिक आंदोलन कमजोर पड़ जाने से श्रम विभाग ने श्रम कानूनों की पालना कराने में ढिलाई बरतनी आरंभ कर दी।
नगर में जहां न्यूनतम वेतन से कम पर किसी को काम पर रखना असंभव था। न्यूनतम मजदूरी से कम पर श्रमिकों से काम लिया जाने लगा। कानूनी रूप से ओवरटाइम की दर दुगनी देना बाध्यकारी होने पर भी श्रमिक सामान्य दर पर काम करने को बाध्य हो गए। नए औद्योगिक मुकदमों की संख्या कम होने की आहट आ रही थी। इन परिस्थितियों में सरदार को लगने लगा कि यदि अपने काम को केवल श्रम और औद्योगिक कानूनों तक ही सीमित रखा तो दाल-रोटी भी खटाई में पड़ सकते हैं। उस ने फिर से दीवानी, फौजदारी और विविध कानूनों से संबंधित मुकदमों का काम करना आरंभ कर दिया। यह सफर आसान नहीं था। दीवानी विधि में कानूनों की भरमार थी। हर नया मुकदमा नयी चुनौतियाँ ले कर सामने आता। हर नए मुकदमे के लिए कानून को नए सिरे से समझना पडता। लगातार अध्ययन बहुत आवश्यक था। यह सब कम चुनौतियों से भरा नहीं था। अब सरदार का समय इस अध्ययन में लगने लगा और पैसा किताबों और दूसरी सामग्री जुटाने में। लेकिन श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। अनवरत श्रम ने नए प्रकार के मुकदमों में सफलता दिलायी और यह काम फिर चल निकला।
बच्चे उम्र और पढ़ाई के उस मुकाम पर पहुँच गए थे कि घर छोटा पड़ने लगा था। घर का भूतल पूरा निर्माण कराना जरूरी हो गया था। एक-दो मुकदमों में अच्छी फीस मिली तो घर विस्तार आरंभ कर दिया। वह पूरा हुआ तब पता लगा कि बाजार का कर्ज हो गया है। फिर एलआईसी काम आई। उस से कर्ज ले कर भार उतारा। परेशानी कुछ कम हुई। एक मित्र का मुकदमा लड़ा था। कोटा के बाहर जाना पड़ता था। उन्हें अच्छी खासी रकम मुआवजे में मिली। वे फीस देना चाहते थे। एक दिन पीछे लग गए। कार खरीदनी है। शोरूम ले गए। बैंक से कार फाइनेंस कराई, मार्जिन खुद दिया, कार सरदार के घर पहुँच कर खड़ी हो गई। अब कार चलाना सीखना था। लोगों ने इंस्टीट्यूट जाने का सुझाव दिया। पर सरदार एक टैक्सी ऑनर मित्र को लेकर सीखने निकला। पहले ही दिन 60-62 किलोमीटर गाड़ी चलवा दी। उस से अगले रविवार एक जूनियर को ले कर निकला तो इतनी ही और चला ली। वापस लौटे ही थे कि टैक्सी ऑनर मित्र भी आ गए। उन्हों ने भी इतनी ही चलवाई। कार फिर भी घर ही खड़ी रही। एक मित्र को कहा –मैं तकरीबन पोने दौ सौ किलोमीटर अभ्यास कर चुका हूँ, जरा जाँचिए तो सही कितना सीखा है? अगले रविवार उन्हों ने परीक्षा ली, शहर में ही तीस किलोमीटर कार चलवा दी और कह दिया कल से अदालत ले कर जाओ। सरदार अगले दिन कार लेकर निकला तो एक ऑटोरिक्षा बंपर को पिचका कर निकल गया। छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ बाद में भी हुईं पर हमेशा गलती औरों की होती। कई बार लोगों ने गलती करते हुए कार ठोकने की कोशिश की, लेकिन अपनी कोशिशों से सरदार बच गया। अब तो हालत यह है कि वह यह सोच कर वाहन चलाता है कि सड़क पर सब उसी को ठोकने निकले हैं और उसे खुद को बचाते हुए अपना वाहन चलाना है।
जीवन ठीक चल रहा था कि परिस्थितियों ने अचानक फिर बड़ा आघात दिया। एक सड़क दुर्घटना ने छोटे भाई सुनील को लील लिया। उस ने परिवार को ऐसा संभाला था कि सरदार उस ओर से पूरी तरह निश्चिंत हो चला था। उस का सार्वजनिक कामों का दायरा इतना विस्तृत था की बारां नगर का कोई भी सामाजिक काम उस से अछूता नहीं रह गया था। सरदार जब बारां पहुंचा तो पूरा नगर शोक में डूबा था, बाजार पूरी तरह बंद। वह प्राइमरी का मास्टर था, लेकिन उस के काम ने उसे आम लोगों के बीच इतना बड़ा बना दिया था कि उस की उपेक्षा असंभव थी। क्षेत्र के विधायक, सांसद, मंत्री और सभी राजनैतिक लोगों को उस के निधन पर शोक जताने घर आना पड़ा था। इस घटना से परिवार फिर संकट में आ खड़ा हुआ था। सुनील की पत्नी और दो बच्चे, माँ और एक अविवाहित छोटा भाई फिर से सरदार और अनिल के सहारे हो गए थे। पहले तो यह भी लगा कि सब को कोटा ही साथ ले आया जाए। लेकिन सबने तय किया कि अभी साल भर यहीँ रहेंगे। सुनील के काम के प्रभाव ने असर किया, तीन माह बीतने के पहले ही उस की पत्नी को उसी स्कूल में नियुक्ति मिल गई जहाँ वह पढ़ाता था। संकट कम हुआ। परिवार फिर से मुकाम पर आने लगा।
बेटी विज्ञान की स्नातक हो गई। वह गणित अथवा किसी तकनीकी विषय में स्नातकोत्तर होना चाहती थी। लेकिन उस ने कोटा में पढ़ने से इन्कार कर दिया। उस के लिए कॉलेज की तलाश आरंभ हो गई। वनस्थली विद्यापीठ में एमसीए और स्नातकोत्तर गणित के लिए आवेदन किया। एमसीए के लिए प्रवेश परीक्षा भी ली गई लेकिन उसे अपनी चाहत, गणित स्नातकोत्तर में प्रवेश मिल गया। उन दिनों सरदार को लगा था कि कैसे बच्चों के बाहर पढ़ने का खर्च वहन किया जा सकेगा। अब यह भी लगने लगा था कि बच्चों की पढ़ाई के इस व्यय के लिए उसे आरंभ से ही कुछ बचाना चाहिए था। फिर वह पीछे नजर दौड़ाता तो उसे दिखाई देता कि कभी ऐसा अवसर ही नहीं मिला कि वह कुछ बचत कर सकता। कभी कुछ बचने लगता भी तो अचानक हुई घटनाओं ने उसे असंभव बना दिया। लेकिन आर्थिक कारणों से बच्चों के मासूम सपनों को कत्ल तो नहीं किया जा सकता था। मित्रों ने उस में साहस पैदा किया, कि जब इतना किया है तो यह भी कर लोगे। सरदार ने इसी सोच के साथ कि कुछ भी क्यों न करना पड़े? बच्चों की पढ़ाई में वह कोई व्यवधान न आने देगा, बेटी को वनस्थली विद्यापीठ छोड़ा।
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16 कमेंट्स:
जीवन की पटरियों पर एक सार्थक सफ़र
सरदार की जीवन यात्रा का सफर बड़ा जीवट का है।
nice
सफ़रनामा पसन्द आया.
आदरणीय द्विवेदी जी अपने ब्लाॅग के माध्यम से सही मायने में एक बहुत बड़ा काम कर रहे है। देश भी में जहाँ वकील लोग सड़ी-सड़ी सलाहों पर गरीबों से पैसा लूट रहे हैं वहीं द्विवेदी जी की यह सलाहें जरूरत मंदों के लिए बेहद कीमती हैं। काश समाज के निचले तबके को भी यह सलाहें आसानी से मुहैया हो पातीं।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in
हमेशा की तरह शानदार चर्चा।
इलाहाबाद में हमारे हाल चाल पूछने के लिए शुक्रिया।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक
आइए आज आपको चार्वाक के बारे में बताएं
पग-पग शुरु हुआ सफर सम्पूर्णता की ओर बढ़ता हुआ। इन्हीं संघर्षों के बाद जब कभी बीच बीच में विश्राम के क्षण आते हैं और सुस्ताया जाता है, तब लगता है हां, जीवन तो इसे ही कहते हैं।
आभार..
ड्राइविंग का मूल मन्त्र तो यही है.
बढ़िया है
सपने देखना भी ज़रूरी है और सपनो को साकार होते हुए भी ..व्यवधान तो आते ही हैं .. ज़िन्दगी इसी तरह आगे बढती है ।
badhai.
चार्वाक के सम्बन्ध में एक प्रश्न उठाता आलेख .ऐसे प्रश्न ही समाज में विचार मंथन का रास्ता बनाते हैं.बहुत नए और प्रगति शील विचारों को समाज कभी आसानी से स्वीकार नहीं कर पता है.इन्हीं कारणों से गेलिलियो को फंसी लगे गई और सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा.इसके वाबजूद भारत में ही बुद्ध और कबीर अपनी विचार धराओं को समझा सकने की शक्ति के कारन मानव सके.कृष्ण का गोवर्धन उठाना और वह भी देवताओं के रजा इन्द्र के विरुद्ध .चार्वाक की हत्या का कारन संभवतः उनका सामाजिक दर्शन नहीं वल्कि राजनितिवशयुधिष्ठर के राज तिलक का विरोध था और यह कह कर की समस्त विद्वानों का मत है ,जिस का सभी विद्वानों ने विरोध किया था.इस प्रसंग को विस्तार की आवश्यकता थी .फिर भी ज्वलंत प्रश्न उठाने के लिए आप को बधाई.
"छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ बाद में भी हुईं पर हमेशा गलती औरों की होती।"
sahI hai.. :)
पढ़ रहे हैं...और जान रहे हैं...
कई अनजाने पहलू...
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