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Monday, November 3, 2014

//बेड़मी कचौरी और बेड़ा ग़र्क़//

बेड़मी पूरी

र्मागर्म पूरियों में बेड़मी पूरी (या कचौरी) लाजवाब होती है। अपनी मनपसंद निहारी है ये। आगरा में इसे बेड़ई कहा जाता है। हींग के धमार वाली आलू की गाढ़ी-गाढ़ी तरकारी से भरे दोने में डूबी बेड़मी पूरी से सुबह जायकेदार हो जाती है। कभी सोचा न था कि इस बेड़मी/बेड़ई का रिश्ता हथकड़ी वाली बेड़ी से भी होगा और ग़र्क़ होने वाले बेड़े/बेड़ा से भी होगा। बेड़िया और बेड़नी से भी होगा जिन्हें नट/घुमन्तू जाति माना जाता है। जानते हैं इन शब्दों के दिलचस्प सफर को।
लग-अलग अर्थछटाओं वाले इन शब्दों में कैसी रिश्तेदारी? बात दरअसल यह है कि इन सभी में कहीं न कहीं घूमने, घेरने, पूरने, समाने का भाव है किन्तु इस पर आसानी से ध्यान नहीं जाता। वैदिक साहित्य में एक शब्द है वेष्ट जिसमें लपेटना, लिपटाना, बान्धना, घुमाव, आवरण, भरना, आवृत्त करना जैसे भाव हैं। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक संस्कृत वेष्ट का ही प्राकृत प्रतिरूप विष्ट है। मुझे लगता है कि विष्ट और वेष्ट एक ही मूल से ज़रूर उपजे हैं पर विष्ट प्राकृत रूप नहीं है। हाँ, इन्हें एक दूसरे का प्रतिरूप भी माना जा सकता है। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ होता है, जबकि डॉ. रामविलास शर्मा इसे ही प्राकृत का बता रहे हैं। इसकी पुष्टि प्राकृत शब्दकोश ‘पाइय सद्द महण्णवो’ से भी होती है जिसमें विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ बताया गया है। बात यूँ है कि मूल रूप विष्ट है, इसका विकास वेष्ट है।
जो भी हो, संस्कृत में भी एक ही शब्द के अनेक रूप प्रचलित है यह कई बार साबित होता है। इसी तरह संस्कृत शब्दावली में भी प्राकृत शब्द जस के तस या थोड़े बहुत फेरबदल के साथ मिलते हैं। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ भी होता है, विड्ड भी और विड्ढ भी। विष्ट के मूल में विष् / विश् धातु है जिसमें समष्टि का भाव है। विश्व यानी संसार भी इसी शब्द से बना है और विष्णु भी। विश् धातु में समाना, दाखिल होना, प्रविष्ट होना जैसे भाव हैं। समाविष्ट पर गौर करें। इससे बने विश्व का अर्थ है सारा, सब कुछ, सार्वलौकिक, सार्वकालिक, सृष्टि, प्रत्येक आदि। विश्व शब्द में जो भाव है वह प्रकृति को ईश्वर मानने के सार्वकालिक मानव दर्शन की ही पुष्टि करता है। समस्त धर्मशास्त्रों में जिस परम् की बात कही जाती है उसी ब्रह्म का व्यक्त रूप विश्व है। जिस तरह शरीर की आत्मा नजर नहीं आती, शरीर नजर आता है, उसी तरह विश्वात्मा यानी ब्रह्म का लौकिक स्वरूप ही विश्व है। बहरहाल, इसी विश् से विकसित विष्ट में घेरने, समाने के भाव भी उजागर हुए। विष्ट का प्राकृत रूप विट्ठ है। पंढरपुर के प्रसिद्ध लोकदेवता विट्ठल इसका अगला रूप हुआ। संस्कृत में विट्ठल का विड्ढल रूपान्तर भी विद्यमान है। ध्यान रहे, विट्ठल में विष्णु का रूप देखा जाता है। विष्णु का मूल भी विष् / विश् है।
स्पष्ट है कि जिस तरह विष्ट से विड्ड और विड्ढ बन रहा है उसे तरह वेष्ट से वेड्ड, वेड्ढ और वेढ भी बनता है। भाव वही- समाना, पूरना, घेरना, आवृत्त करना आदि। वेढ से वेढम का विकास हुआ और फिर इसस बना वेढमिका। वेढ़मिका का सबसे पहला उल्लेख अमरकोश में मिलता है। इसके आधार पर मोनियर विलियम्स ने संस्कृत कोश में वेढमिका की प्रविष्टि दर्ज है- “a kind of bread or cake” इसी तरह रॉल्फ़ लिली टर्नर इसमें जोड़ते हैं- “cake of flour mixed or filled with pulse or meal” जाहिर है आशय पूरी या कचौरी से है। हिन्दी शब्दसागर में वेढमिका का अर्थ “वह कचौरी जिसमें उड़द की पीठी भरी हुई हो” बताया गया है। इसमें व्युत्पत्ति संस्कृत वेढग से बताई गई है पर इसका अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। वेढमिका से बेड़ई या बेड़मी बनने का विकासक्रम कुछ यूँ रहा- वेढमिका > वेडइआ > बेड़ई> अथवा वेढमिका > वेढमिआ > बेड़मी। वेष्ट में निहित समाने, भरने, पूरने, घेरने, ढकने, आवृत्त करने जैसे अर्थ पूरी, कचौरी बनाने की प्रक्रिया में सार्थक हो रहे हैं। पूरी नाम ही पूरने से पड़ा है। जिसमें कुछ पूरा जाए, भरा जाए यानी स्टफिंग की जाए। आटे की गोल गोल लिट्टी में किस तरह छोटा गढ़ा बनाया जाता है। स्वादिष्ट मसाला उसमें समा जाता है। फिर मसाले पर आवरण चढ़ा दिया जाता है और लिट्टी को गोल गोल बेल कर या हाथों से चपटा कर तेल / घी में तल लिया जाता है। 
ब आते हैं बेड़ा पर। आमतौर पर बेड़ा शब्द वाहनों के समूह के लिए इस्तेमाल किया जाता है किन्तु इसका आशय जहाजों के समूह से है। हालाँकि बेड़ा शब्द का मूल अर्थ है पोत, जहाज़ या बड़ी नौका। यह बेड़ा शब्द भी वेष्ट > वेड्ढ > बेड़ > से विकसित हुआ है। बेड़ क्रिया में बान्धने, लपेटने का भाव किसी भी बेड़े के निर्माण की प्रक्रिया से समझा जा सकता है। प्राचीनकाल में बेड़े का निर्माण लकड़ी के बड़े बड़े फट्टों को आपस में बांध कर किया जाता था। इन तख़्तों पर पुआल बिछा कर सफर किया जाता था। इस तरह बेड़े में जो अर्थवत्ता उभर रही है वह तख्तों को आपस में बान्धने, रस्सी लपेटने और उन्हें घेरने में निहित है। बाद में लकड़ी के फट्टों के स्थान पर कई नावों को बांध कर एक बेड़ा बनाया जाने लगा जिस पर लकड़ी के फट्टे डाल कर उस पर भारी सामान ढोया जाता था। नावों के इसी समूह की वजह से फ्लीट के अर्थ में बेड़ा शब्द रूढ़ हुआ। बेड़ा का एक रूप भेड़ा भी है जैसे जबलपुर के पास नर्मदा तट पर भेड़ाघाट अर्थात वह स्थान जहाँ से नावें चलती हों। प्राचीनकाल मे जलमार्ग भी आवागमन का महत्वपूर्ण जरिया था। ये सफर बेहद कठिन होता था इसीलिए “बेड़ा पार” होने का भाव कठिनाई पर विजय पाने जितना महत्वपूर्ण समझा जाने लगा। “बेड़ा ग़र्क़” में विपत्ति या विनाश का भाव समझा जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में बेड़ी, वेड़ी, वेटी, बेडा जैसे शब्दों में कश्ती या नौका का भाव है। इसमें वाहन में निहित घूमाव, भ्रमण, गति जैसे भाव तो हैं ही, बान्धने, लपेटने जैसी क्रियाओं की वजह से भी इसका नाम सार्थक हो रहा है।
बुंदेलखण्ड क्षेत्र में विमुक्त और घुमन्तू बेड़िया जाति होती है। इस जाति की स्त्रियाँ कमाल कुशल नृत्यांगना होती हैं। इन्हें बेड़नी कहते हैं। बुंदेलखण्ड के प्रसिद्ध राई नृत्य में ये बेड़नियाँ निष्णात होती हैं। अपनी अनथक अनवरत चक्रगति की वजह से राई नृत्य भारतीय लोकविधाओं में अन्यतम है। बेड़िया शब्द में भी वेड क्रिया की गति, घुमाव स्पष्ट हो रहा है। डॉ. रामविलास शर्मा के मुताबिक बांग्ला में बेड़ घुमाव का अर्थ देता है। बेड़ी शब्द का रिश्ता किन्ही कोशों में वलय से जोड़ा जाता है जो बेड़, वेड क्रियाओं की इतनी स्पष्ट व्याख्या के बाद उचित नहीं जान पड़ता। हमारा मानना है कि हथकड़ी या बन्धन के तौर पर प्रयुक्त बेड़ी शब्द वेष्ट से विकसित बेड़ क्रिया से ही आ रहा है। बेड़ी जो बान्धने के काम आती है। बेड़ा इसलिए जिसे बान्धा गया है। बान्धने में घुमाने की क्रिया है। बेड़नी घूमती है। बेड़िया घूमते हैं। बेड़ा घूमता है। बेड़ई में मसाला समाविष्ट है। बेड़मी कचौरी एक आवरण है। इसे गोल गोल बनाया जाता है। गोल बनाने के लिए लिट्टी को घुमाया जाता है। 

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Tuesday, December 25, 2012

मोदीख़ाना और मोदी

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[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]

पिछली कड़ी- मोदी की जन्मकुंडली

मोदी की अर्थवत्ता में शामिल भावों पर गौर करें तो इसका रिश्ता आपूर्ति, भंडार, स्टोर, राशन, दुकान, रसद, मिलिट्री सप्लाई, किराना, राजस्व, कर वसूली आदि से जुड़ता है । इन आशयों से जुड़े शब्दों की एक लम्बी शृंखला सेमिटिक धातु मीम-दाल-दाल (م د د ) यानी m-d-d से बनी है जिसमें आपूर्ति, सप्लाई, सहायता, सहारा, फैलाव जैसे भाव है । गौर करें हिन्दी में सहायता का लोकप्रिय पर्याय ‘मदद’ है जो इसी कड़ी से जुड़ा है । मद्द’ में निहित आपूर्ति या सहायता के भाव का विस्तार मदद में हैं जिससे मददगार, मददख़्वाह जैसे शब्द बने हैं । इसी कड़ी में आता है ‘इमदाद’ जिसका अर्थ भी आपूर्ति, सहायता, आश्रय, हिमायत अथवा सहारा होता है ।
द्द धातु से बने शब्दों में एक और दिलचस्प सब्द की शिनाख़्त होती है । बहीखातों की पहचान लम्बे-लम्बे कॉलम होते हैं जिनमें हिसाब-किताब लिखा जाता है । अरबी में इसके लिए ‘मद्द’ शब्द है । घिसते घिसते हिन्दी में यह ‘मद’ हो गया । हिन्दी में इसका प्रयोग जिन अर्थों में होता है उसका आशय खाता, पेटा, हेड या शीर्षक है जैसे- “यह रकम किस ‘मद’ में डाली जाए” या “मरम्मत वाली ‘मद’ मे कुछ राशि बची है” आदि । मद / मद्द के कॉलम, स्तम्भ या सहारा वाले अर्थ में अन्द्रास रज्की के अरबी व्युत्पत्ति कोश में अलहदा धातु ऐन-मीम-दाल से बताई गई है । इससे बने इमादा, इमाद, अमीद, अमूद और उम्दा जैसे शब्द हैं जिनमें सहारा, मुखिया, स्तम्भ, प्रमुख, विश्वसनीय, प्रतिनिधि जैसे भाव भी हैं, अलबत्ता ये हिन्दी में प्रचलित नहीं हैं । सम्भव है यह मद्द की समरूप धातु हो ।
मोदी शब्द की व्युत्पत्ति को मद्द से मानने की बड़ी वजह है इसमें निहित वे भाव जिनसे मोदी की अर्थवत्ता स्थापित होती है । ‘मद’ तो हुआ खाता मगर इसका ‘मद्द’ रूप भी हिन्दी में नज़र आता है जैसे मद्देनज़र, मद्देअमानत आदि । मद्देनज़र का अर्थ है निग़ाह में रखना । ‘मदद’ में जहाँ सहायता का भाव है वहीं आपूर्ति भी उसमें निहित है । ‘मदद’ अपने आप में सहारा भी है सो ‘मदद’ में निहित ‘मद्द’ पहले कॉलम या स्तम्भ हुआ फिर यह बहीखातों का कॉलम या खाना हुआ और फिर इसे मदद की अर्थवत्ता मिली । अरबी में एक शब्द है ‘मद्दा’ जिसका अर्थ है विस्तार, फैलाव, सहारा वहीं इसमें सामान, वस्तु, चीज़, पदार्थ अथवा मवाद आदि की अर्थवत्ता भी है । शरीर के भीतर जख्म होने पर जब वह पकता है तो उसका आकार फूलता है । प्रसंगवश ‘मवाद’ शब्द भी अरबी का है और इसी मूल से निकला है । ‘मद्द’ में निहित फैलाव, विस्तार इसमें निहित है । ध्यान रहे आपूर्ति में भी विस्तार, फैलाव की अर्थवत्ता है । किसी स्थान पर किसी चीज़ की आपूर्ति से फैलाव होता है । गुब्बारे में हवा की आपूर्ति से समझें । भोजन करने पर पेट के फूलने से समझें । इसी तरह विशाल क्षेत्र में राशन की आपूर्ति में भी फैलाव का वही आशय है ।
यूँ मुग़लदौर में एक सरकारी विभाग ‘मोदीखाना’ भी प्रसिद्ध था जिसका अर्थ था रसद-आपूर्ति विभाग । हिन्दुस्तानी – फ़ारसी कोशों में मोदीखाना शब्द मिलता है जिसका अर्थ भण्डारगृह , किराना-स्टोर, अनाज की आढ़त, granary या commissariat ( कमिसरियत, सेना रसद विभाग ) मिलता है । हालाँकि इन्स्टीट्यूट ऑफ सिख स्टडीज़ के डॉ. कृपाल सिंह ने अपनी पुस्तक सिख्स एंड अफ़गान्स में ‘मोदी’ को अरबी शब्द माना है और इसका अर्थ “भुगतान किया जा चुका” बताया है । इसी पुस्तक में वे ‘मोदीखाना’ के बारे में बताते हैं कि यह दरअसल मुस्लिम दौर की उन सरकारों में एक महत्वपूर्ण विभाग था जहाँ किन्हीं कारणों से मौद्रिक लेन-देन कम होता था  और भू-राजस्व का भुगतान जिन्सी तौर पर किया जाता था । अर्थात मुद्रा के बदले अनाज, राशन, पशु आदि दे दिए जाते थे । सरकार इसे ही महसूल समझ कर रख लेती थी । इसी मोदीखाने का प्रमुख ‘मोदी’ कहलाता था । यह ‘मोदी’ कर वसूल करता था । उसे जमा करता था और फिर जमा की गई जिंसों को वह शासन द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेच भी सकता था । ज़ाहिर है इस नाम के पीछे मद्दा में निहित वस्तु, सामग्री, जिंस, चीज़ जैसे आशय ही व्युत्पत्तिक आधार हैं । प्रसंगवश सुलतानपुर के नवाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में अपने शुरुआती जीवन में गुरुनानक भंडारी (मोदी) के पद पर थे जहाँ खाद्यान्न के रूप में लगान जमा किया जाता था ।
सेनाओं में प्राचीनकाल से ही यह परिपाटी रही है कि कूच करते वक्त उनके साथ दुनियाजहान का असबाब भी चलता था । चालू भाषा में जिसे लवाजमा या फौजफाटा कहते हैं उसका तात्पर्य यही है । मुग़ल दौर में जब फौज चलती थी उसके साथ पंसारी की दुकान भी होती थी जिसे मोदीख़ाना कहते थे । दवाईखाना, मरम्मतखाना, फराशखाना जैसे विभागों में ही एक विभाग मोदीखाना था । स्थायी तौर पर किसी श्रेष्ठी को सेना में रसद आपूर्ति का काम मिल जाता था और कभी शासन की तरफ़ से ही प्रत्येक बड़े शहर में वणिकों को फौज को राशन पहुँचाने का अनुबंध मिल जाता था । सरकार के स्वामीभक्त व्यवसायी, प्रभावशाली धनिक ऐसे करार (ठेके) पाने के लिए जोड़-तोड़ करते थे । मगर उसकी मुश्किलें भी थीं । ये काम पाने के लिए उन्हें आज की ही तरह से सरकार के असरदार लोगों की जेबें गर्म करनी पड़ती थीं । आठवीं-नवीं सदी के भारत में भ्रष्टाचार के कई नमूने शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम’ नाटक से भी पता चलते हैं ।
चार्य विष्णुशर्मा लिखित पंचतन्त्र में इसका उल्लेख है जिससे पता चलता है कि सेना में रसद आपूर्ति का काम प्राचीनकाल से ही मोटी कमाई वाला माना जाता था । पंचतन्त्र की संस्कृत – हिन्दी व्याख्या में श्यामाचरण पाण्डेय लिखते हैं- गौष्ठिककर्मनियुक्तः श्रेष्ठी चिन्तयति चेतसा हृष्टः। वसुधा वसुसम्पूर्णा मयाSद्य लब्धा किमन्येन ।। अर्थात “मोदी का काम करने वाला व्यापारी जब किसी राजकीय सेना आदि को रसद पहुँचाने का कार्य पा जाता है तो प्रसन्न होकर अपने मन में सोचता है कि आज मैने पृथ्वी पर सम्पूर्ण धन ही प्राप्त कर लिया है । पुनः निश्चित होकर लोगों को लूटता है ।” आज के दौर के बड़े कारोबारियों के पुरखों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में रसद आपूर्ति ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे किए थे, यह किसी से छुपा नहीं है । सेना सहित विभिन्न विभागों के कैंटीन और रेलवे की खानपान सेवा जैसी व्यवस्थाएँ दरअसल “मोदीखाना” जैसी प्राचीन आपूर्ति सेवाओं के ही बदले हुए रूप हैं । यूँ ‘मोद’ से भी ‘मोदी’ का रिश्ता जोड़ा जा सकता है क्योंकि उसके सारे प्रयत्न खुद के आमोद-प्रमोद के लिए होते हैं ।-समाप्त 

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Monday, December 24, 2012

मोदी की जन्मकुंडली

gnatmodikhana[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]
प्रा  यः सभी भाषाओं के बुनियादी शब्दभंडार में जिन ख़ास स्रोतों से शब्द आते हैं उनमें सैन्य-प्रशासन जैसे क्षेत्र भी है । ऐसा ही एक शब्द है ‘मोदी’ modi वणिक वर्ग का एक उपनाम भी है जैसे प्रसिद्ध व्यावसायिक घराना ‘मोदी’ के संस्थापक रायबहादुर गूजरमल मोदी । उपनामों पर अगर गौर करें तो अधिकांश उपनामों के निर्माण का आधार स्थानवाची या कर्मवाची है अर्थात उपनाम धारण करने वाले के निवास या उसके खानदानी पेशा का संकेत इसमें छुपा होता है जैसे दारूवाला ( मद्य व्यवसाय ) या पोखरियाल (पोखरा वाला अर्थात पोखरा का निवासी ) आदि । ऐसा ही एक नाम ‘मोदी’ है मगर दो अक्षरों के इस सरनेम से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता जिससे इसमें निहित व्यवसायगत या जातिगत संकेत मिलें । हम सिर्फ़ रूढ़ अर्थ में जानते हैं कि ‘मोदी’ बनिया जाति का एक उपनाम है और बनिया व्यापार करता है । किन्तु मोदी शब्द में व्यापार जैसी अर्थवत्ता भी नहीं है । जानते हैं ‘मोदी’ की जन्मकुंडली ।

ब्दकोशों में ‘मोदी’ शब्द के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारियाँ नहीं मिलतीं । लगभग सभी शब्दकोशों में ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मोद’ ( आनंद ) या मोदक ( लड्डू ) से जोड़ने का प्रयत्न नज़र आता है । खास बात यह भी कि तमाम कोशों में इसका अर्थ बनिया, अनाज का व्यापारी, नून-तेल-मिर्ची, आटा-दाल-चावल का आढ़ती, खाद्य सामग्री बेचने वाला परचूनिया, राशन-अनाज का किरानी आदि बताया गया है । ये सभी आशय संस्कृत के ‘मोद’ अर्थात आनंद, हर्ष, सुख के व्यावहारिक अर्थ से मेल नहीं खाते । जॉन प्लैट्स ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत से जोड़ते हैं मगर उसका मूल नहीं बताते । यही नहीं, वे मोदी का मुख्य अर्थ मिठाईवाला या हलवाई बताते हैं । सम्भव है उनके दिमाग़ में ‘मोद’ से ‘मोदक’ अर्थात एक क़िस्म का लड्डू रहा हो । ‘मोदी’ का रिश्ता ‘मोदक’ से हिन्दी शब्दसागर में भी जोड़ा गया है, अलबत्ता ‘मोदक’ के अलावा उसके अरबी मूल का होने की सम्भावना भी जताई गई है । 

प्लैट्स के कोश में भी ‘मोदी’ को दुकानदार, बनिया, भंडारी आदि बताया गया है । गुजरात में मोढ़ वैश्य समुदायको मोढी भी कहा जाता है। इसका उच्चार भी कहीं कहीं मोदी की तरह किया जाता है। इस तरह यह स्थानवाची शब्द हुआ।  कुछ लोग सोचते हैं कि देशव्यापी मोदी का रिश्ता गुजरात के मोढेरा या गुजराती मोढ़ वैश्य समूदाय से है तो वह संकुचित दृष्टि है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में साहू तेली होते हैं। यह साहू मूलतः साह, साधु से ही आ रहा है। प्रभावशाली वर्ग। अरबी मोदी की तुलना में मोढी या मोढ़ उपसर्ग का अर्थ व्यापक है। मोढेरा से जिनका रिश्ता है वे सभी मोढ हैं। खास तौर पर वणिकों और ब्राह्मणों में आप्रवासन ज्यादा हुआ सो मोढेरा के लोग मोढ हो गए। गुजाराती विश्वकोश के मुताबिक मोढ़ समुदाय में ब्राह्मण, वैश्य, किरानी, तेली, पंसारी, साहूकार सब आ जाते हैं।
 

मारा मानना है कि ‘मोदी’ भी सैन्य शब्दावली से आया शब्द है । इसका रिश्ता सेना की रसद आपूर्ति व्यवस्था से है । ‘मोदी’ का निर्माण निश्चित ही मुस्लिम दौर में हुआ जब अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस भारतीय भाषाओं में हो रही थी । फ़ौजदार, जमादार, नायब, एहदी, बहादुर, नौकर, चाकर, ज़मींदार, कानूनगो, मुनीम समेत सैकड़ों अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं जो अरबी-फ़ारसी मूल के हैं और जिनका रिश्ता फ़ौज से रहा है । ‘मोदी’ भी मूल रूप से अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में दाखिल हुआ । इतिहास-पुरातत्व के ख्यात विद्वान हँसमुख धीरजलाल साँकलिया ने गुजरात के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इसे अरबी मूल का माना है । हालाँकि एस. डब्ल्यू फ़ैलन की न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी में भी ‘मोदी’ का रिश्ता मोदक अर्थात लड्डू से जोड़ा गया है । ध्यान रहे मोदक का रिश्ता ‘मोद’ अर्थात आनंद से हैं ।
मोदी शब्द के अरबी होने के कई प्रमाण हैं । औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हैंक्लिन-जैंक्लिन में भी बनिया प्रविष्टि के अंतर्गत ‘मोदी’ का भी उल्लेख है । इसमें लिखा है कि “रियासती दौर में लगान की वसूली अनाज के रूप में होती थी उसे जिस गोदाम में इकट्ठा किया जाता था उसे मोदीखाना कहते थे । व्यापारी के अर्थ में एक अन्य शब्द ‘मोदी’ भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका दर्ज़ा पंसारी या किरानी का है ।” आज भी देश के सैकड़ों शहरों-क़स्बों में ‘मोदीखाना’ नाम की इमारतें हैं जिनकी वजह से समूचे मोहल्ले या इलाक़े को भी मोदीखाना modikhana के नाम से जाना जाता है जैसे जयपुर का चौकड़ी मोदीख़ाना । इतिहास की क़िताबों में पंसारी या दुकानदार की अर्थवत्ता से इतर ‘मोदी’ शब्द के जो संदर्भ हैं उनमें उसे लगान अधिकार, कारिंदा, गुमाश्ता, दीवान, गाँव का मुखिया आदि बताया है। 

कृ.पा. कुलकर्णी के प्रसिद्ध मराठी व्युत्पत्तिकोश में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ अनाज व्यापारी, दीवान, चौधरी, भंडारी आदि बताया है । ‘मोदी’ की व्युत्पत्ति अरबी के ‘मुदाई’ से बताई गई है जिसका अर्थ होता है विश्वस्त या भंडारी । मोदी के साथ ही मोदीखाना शब्द भी है जिसका अर्थ है फौजी रसद विभाग । ज़ाहिर है मोदी ही फ़ौजी रसद विभाग का प्रमुख यानी भंडारी हुआ । सिख विकी में भी मोदी शब्द का रिश्ता रसद, राशन, किराना से ही जुड़ता है न कि मिठाई या हलवाई से – “Modi Khana is a reference to a provision store or a food supplies store. It is referred to in the Janamsakhis of Guru Nanak when he worked in a food store in Sultanpur while staying in the town where his sister, Nanaki and her husband Bhai Jai Ram lived. ”  यही नहीं फारसी-मराठी कोशों में भी मोदी शब्द का उल्लेख है और इसका मूल ‘मुदाई’ बताया गया है ये अलग बात है कि अरबी, फ़ारसी, उर्दू कोशों में मुदाई शब्द नहीं मिलता । 
sutlerइंग्लिश-हिन्दुतानी, इंग्लिश-इंग्लिश, फ़ारसी-हिन्दी कोशों में मोदी का अर्थ सामान्य तौर पर आढ़ती ( grain merchant ) पंसारी ( grocer) बनिया ( trader ) विक्रेता ( vender ), व्यापारी ( Merchant ) दुकानदार ( shopkeeper ) के अलावा बतौर हलवाई या मिठाईवाला  'A sweetmeat-maker, a confectioner' भी मिलता है जिसका व्युत्पत्तिक सम्बन्ध कोशकारों नें ‘मोद’ या ‘मुद’ से जोड़ा है । ऐसा लगता है कि कोशकारों के मन में मोद = आनंद = मिठाई = हलवाई जैसा समीकरण रहा होगा अगर इसे किसी तरह कबूल भी कर लिया जाए तो भी यह मानना कठिन है कि हलवाई की अर्थवत्ता में पंसारी, आढ़ती, व्यापारी, बनिया, दुकानदार जैसे भाव कहाँ से समा गए ?

इसी कड़ी में क़रीब 110 साल पहले पोरबंदर रियासत के गजेटियर में ‘मोदी’ के बारे में लिखी ये पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं- “In order No. 45* dated 17-8-1901 published in State Gazette Vol. XV regarding the Modi's duty to be present when called to fix the Nirakh of the Modikhana, the word " Modi " includes gheevvalas, fuel sellers, grocers, sweetmeat sellers, butchers &c.( The Porbandar State directory (Volume 2)” गजेटियर यह भी लिखता है कि मोदीखाना के लिए साल में एक बार स्थानीय व्यापारियों में से किसी एक को ठेका दिया जाता था ।
डिक्शनरी ऑफ़ द प्रिन्सीपल लेंग्वेजेज़ स्पोकन इन द बेंगाल प्रेसिडेंसी में पी.एस. डी’रोजेरियो भी ग्रोसर अर्थात किरानी के पर्याय के लिए ‘मोदी’ शब्द ही बताते हैं । हालाँकि वे इसके बांग्ला रूप ‘मुदी’ का उल्लेख करते हैं । बांग्ला और मराठी में ‘मोदी’ के साथ ‘मुदी’ mudi शब्द भी मिलता है । अंग्रेजी में एक शब्द है सटलर sutler जो मध्यकालीन डच भाषा के soeteler से बना है अर्थात सेना के लिए खान-पान सेवा चलाने वाला व्यापारी । अधिकांश प्रसिद्ध कोशों के पुस्तकाकार या ऑनलाईन संस्करणों में इसका हिन्दी अनुवाद मोदी ही दिया हुआ है । ध्यान रहे सामान्य तौर पर कैंटीन का अर्थ भी रसोई ही होता है । फौजी छावनियों को केंटोनमेंट cantonment कहते हैं जिसका संक्षेप कैंट होता है । अंग्रेजी कोशों में भी कैंट का मूलार्थ फौजी छावनी में राशन की दुकान है । अरबी के ‘आमद्दा’ में राशन पहुँचाने, मदद पहुँचाने या आपूर्ति का भाव है । ग्रोसर या पंसारी के तौर पर अरबी में ‘मोदी’ शब्द नहीं मिलता और फ़ारसी में भी नहीं पर इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे मद्दी ( विषय-वस्तुओं में रुचि रखनेवाला), मुअद्दी ( पहुँचानेवाला, भेजनेवाला ), मद्दा ( विषय-वस्तु, सामग्री, चीज़, पदार्थ ) आदि जिनसे फ़ारस या भारत की ज़मीन पर मोदी शब्द विकसित हुआ होगा और वहीं से अन्य मुस्लिम शासित इलाक़ों की बोलियों में यह रचा-बसा होगा । –जारी 
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Friday, August 24, 2012

सपड़-सपड़ सूप

soup

चु स्की के लिए हिन्दी में सिप शब्द बेहद आसानी से समझा जाता है । सिप करने, चुसकने की लज़्ज़त जब ज्यादा ही बढ़ जाती है तब बात सपड़-सपड़ तक पहुँच जाती है जिसे अच्छा नहीं समझा जाता है । कहने की ज़रूरत नहीं की सिप करना, चुसकना और सपड़-सपड़ करने का रिश्ता किसी सूप जैसे पतले, तरल, शोरबेदार पदार्थ का स्वाद लेने की प्रक्रिया से जुड़ा है । सिप से सपड़ का सफर शिष्टता से अशिष्टता की ओर जाता है । सिप और सपड़-सपड़ तरल पदार्थ को सीधे बरास्ता होठ, जीभ के ज़रिये उदरस्थ करने की क्रिया है। सिप के ज़रिये ज़ायक़ा सिर्फ़ पीने वाले को महसूस होता है वहीं सपड़-सपड़ का चटखारा औरों को भी बेचैन कर देता है । गौरतलब है कि सूप शब्द आमतौर पर अंग्रेजी का समझा जाता है । हकीक़त यह है कि पाश्चात्य आहार-शिष्टाचार का प्रमुख हिस्सा सूप मूलतः भारतीय है । सूप, सिप, सपर, सपड़, सापड़ जैसे तमाम शब्द आपस में रिश्तेदार हैं । यही नहीं, इस शब्द शृंखला के शब्द विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में भी हैं जिनमें चुसकने, सुड़कने, सिप करने का भाव है ।
चुस्की के लिए सिप शब्द याद आता है । सूप शब्द भारोपीय मूल का है और इसका मूल भी संस्कृत का सूप शब्द ही माना जाता है । जिसे सिप किया जाए, वह सूप। इसी कड़ी में सपर भी है । द्रविड़ में सामान्य भोजन सापड़ है और इंग्लिश में सिर्फ़ रात का भोजन सपर है। ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य गौरतलब है । यह सामान्य बात है विभिन्न भाषिक केन्द्रों पर अनुकरणात्मक ध्वनियों से बने शब्दों का विकास एक सा रहा है। अंग्रेजी में रात के भोजन को सपर इसलिए कहा गया क्योंकि इसमें हल्का-फुल्का, तरल भोजन होता है। कई लोग रात में सिर्फ़ सूप ही लेते हैं । सपर का मूल सूप है । आप्टे और मो.विलियम्स के कोश में सूप का अर्थ रस, शोरबा, झोल, तरी जैसा पदार्थ ही कहा गया है । अंग्रेजी में यह तरल भोजन है । आप्टे कोश में सू+पा के ज़रिए इसे तरल पेय कहा गया है । यानी पीने की क्रिया से जोड़ा गया है । पकोर्नी इसकी मूल भारोपीय धातु सू seue बताते हैं जिसमें पीने की बात है । संस्कृत का सोम भी सू से ही व्युत्पन्न है । इसका अवेस्ता रूप होम है जिसमें पीने का आशय है । आदि-जर्मन रूप सप्प है । ज़ाहिर है प्राकृत, अपभ्रंश के ज़रिए हिन्दी का सपड़ रूप अलग से विकसित हुआ होगा और द्रविड़ सापड़ रूप अलग ।
वाशि आप्टे और मोनियर विलियम्स के कोश में सूप शब्द का अर्थ सॉस, तरी, शोरबा या झोलदार पदार्थ बताया गया है । हिन्दी शब्दसागर में इसे मूल रूप से संस्कृत शब्द बताते हुए इसके कई अर्थ दिए हैं जैसे मूँग, मसूर, अरहर आदि की पकी हुई दाल । दाल का जूस । रसा । रसे की तरकारी जैसे व्यंजन । संस्कृत में सूपक, सूपकर्ता या सूपकार जैसे शब्द हैं जिनका आशय भोजन बनाने वाला, रसोइया है । एटिमऑनलाईन के मुताबिक चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजी में सिप शब्द दाखिल हुआ । संभवतः इसकी आमद चालू जर्मन के सिप्पेन से हुई जिसका अर्थ था सिप करना । पुरानी अंग्रेजी में इसका रूप सुपेन हुआ जिसमें एकबारगी मुँह में कुछ डालने का भाव था । रॉल्फ़ लिली टर्नर के मुताबिक महाभारत में आहार के तरल रूप में ही सूप शब्द का उल्लेख हुआ है । हिन्दी शब्दसम्पदा में एक अन्य सूप भी है । बाँस से बनाए गए अनाज फटकने के चौड़े पात्र के रूप में इसकी अर्थवत्ता से सभी परिचित हैं । आम भारतीय रसोई के ज़रूरी उपकरणों में इसका भी शुमार है । अनाज फटकने का मक़सद मूलतः दानों और छिलकों को अलग करना है । भक्तियुगीन कवियों ने सूप शब्द का दार्शनिक अर्थों में प्रयोग किया है । कबीर की “सार सार सब गहि लहै, थोथा देहि उड़ाय ” जैसी इस कालजयी सूक्ति में सूप की ओर ही इशारा है ।
चूसना, चुसकना बहुत आम शब्द हैं और दिनभर में हमें कई बार इसके भाषायी और व्यावहारिक क्रियारूप देखने को मिलते हैं। यही बात चखना शब्द के बारे में भी सही बैठती है। ये लफ्ज भारतीय ईरानी मूल के शब्द समूह का हिस्सा हैं और संस्कृत के अलावा फारसी, हिन्दी और उर्दू के साथ ज्यादातर भारतीय भाषाओं में बोले-समझे जाते हैं। चूसना, चुसकना, चुसकी शब्द बने हैं संस्कृत की चुष् या चूष् धातु से जिसका क्रम कुछ यूँ रहा- चूष् > चूषणीयं > चूषणअं > चूसना। इस धातु का अर्थ है पीना, चूसना । चुष् से ही बना है चोष्यम् जिसके मायने भी चूसना ही होते हैं । मूलत: चूसने की क्रिया में रस प्रमुख है । अर्थात जिस चीज को चूसा जाता वह रसदार होती है । जाहिर है होठ और जीभ के सहयोग से उस वस्तु का सार ग्रहण करना ही चूसना हुआ । चुस्की, चुसकी, चस्का या चसका जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं । गौरतलब है कि किसी चीज का मजा लेने, उसे बार-बार करने की तीव्र इच्छा अथवा लत को भी चस्का ही कहते हैं । एकबारगी होठों के जरिये मुँह में ली जा चुकी मात्रा चुसकी / चुस्की कहलाती है । बर्फ के गोले और चूसने वाली गोली के लिए आमतौर पर चुस्की शब्द प्रचलित है। बच्चों के मुंह में डाली जाने वाली शहद से भरी रबर की पोटली भी चुसनी कहलाती है। इसके अलावा चुसवाना, चुसाई, चुसाना जैसे शब्द रूप भी इससे बने हैं ।
सी कतार में खड़ा है चषक जिसका मतलब होता है प्याला, कप, मदिरा-पात्र, सुरा-पात्र अथवा गिलास । एक खास किस्म की शराब के तौर पर भी चषक का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा मधु अथवा शहद के लिए भी चषक शब्द है। इसी शब्द समूह का हिस्सा है चष् जिसका मतलब होता है खाना । हिन्दी में प्रचलित चखना इससे ही बना है जिसका अभिप्राय है स्वाद लेना । अब इस अर्थ और क्रिया पर गौर करें तो इस लफ्ज के कुछ अन्य मायने भी साफ होते हैं और कुछ मुहावरे नजर आने लगते हैं जैसे कंजूस मक्खीचूस अथवा खून चूसना वगैरह । किसी का शोषण करना, उसे खोखला कर देना, जमा-पूंजी निचोड़ लेना जैसी बातें भी चूसने के अर्थ में आ जाती हैं । यही चुष् फारसी में भी अलग अलग रूपों में मौजूद है मसलन चोशीद: या चोशीदा अर्थात चूसा हुआ । इससे ही बना है चोशीदगी यानी चूसने का भाव और चोशीदनी यानी चूसने के योग्य ।

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Monday, August 13, 2012

षड्यन्त्र का पर्दाफ़ाश

SKULL
हि न्दी की तत्सम शब्दावली के सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में ‘षड्यन्त्र’ का शुमार होता है । षड्यन्त्र के साथ सबसे खास बात यह है कि अपनी मूल प्रकृति में यह शब्द तत्सम शब्दावली का होते हुए भी इसका इन्द्राज संस्कृत के किसी कोश में नहीं मिलता । षड्यन्त्र यानी साजिश, भेद, अहितकर्म, फँसाना, अनिष्ट साधन, साँठगाँठ, कपट, भीतरी चालबाजी, दुरभिसन्धि, कुचाल, जाल बिछाना, दाँवपेच या कांस्पिरेसी इत्यादि । सभ्यता के विकास के साथ-साथ समाज में पेचीदापन बढ़ता रहा है । हर चीज़ में राजनीति का दखल नज़र आता है । राजनीति के साथ ही षड्यन्त्रों का चक्र शुरू हो जाता है । जिस तरह वक्त के साथ राजनीति का अर्थ भी बदलता चला गया उसी तरह सदियों पहले षड्यन्त्र का जो अभिप्राय था, आज उससे भिन्न है । आज तो राजनीति और षड्यन्त्र एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं । बल्कि यूँ कहें कि राजनीति शब्द धीरे-धीरे बोलचाल की हिन्दी से षड्यन्त्र को बेदखल कर देगा । “ज्यादा राजनीति मत करो”, “मेरे साथ राजनीति हो गई”, “वो बहुत पॉल्टिक्स करता है” जैसे वाक्यों का प्रयोग अक्सर षड्यन्त्र को व्यक्त करने में भी होता है ।

ड्यन्त्र हिन्दी शब्दसम्पदा की षट्वर्गीय शब्दावली का हिस्सा है जैसे षट्कर्म, षट्कार, षट्कोण आदि । षड्यन्त्र मूलतः ‘षट्’ + ‘यन्त्र’ से बना है । ‘षट्’ का अर्थ तो स्पष्ट है अर्थात छह । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक संस्कृत के ‘षट्’ से ही षट् > षष् > छ (प्राकृत) और छह (अपभ्रंश) के क्रम में हिन्दी के ‘छह’ का विकास हुआ है । संस्कृत में ‘ट’ का ‘य’ के साथ मेल होने पर अक्सर ‘ट’ ध्वनि , ‘ड’ में बदल जाती है । जैसे ‘जाट्य’ का ‘जाड्य’ ( जो जड़ है ) रूप भी प्रचलित है । संस्कृत के यन्त्र शब्द की बहुआयामी अर्थवत्ता है । ऐसा उपकरण जिससे उठाने, धकेलने, ठेलने, खोदने, काटने जैसी विविध क्रियाएँ सम्पन्न हो सकें । मूलतः यन्त्र में बल, शक्ति, साधन के भाव के साथ किन्ही वस्तुओं, क्रियाओं अथवा लोगों को काबू में करने के उपकरण, प्रणाली या विधि का आशय निहित है । काबू पाने, वश में करने जैसे भावों की अभिव्यक्ति होती है ‘नियन्त्रण’ शब्द से । इसमें छुपे यन्त्र को हम आसानी से पहचान सकते हैं । ‘यन्त्रण’ में रहित के भाव वाला ‘निः’ उपसर्ग लगाने से बनता है ‘नियन्त्रण’ जिसमें स्वयंचालित या किसी अन्य व्यवस्था के अधीन काम करने वाली वस्तु या व्यक्ति को अपने अधीन करने का आशय है ।
गौरतलब है कि प्रणाली या सिस्टम के अर्थ में मराठी का ‘यन्त्रणा’ शब्द ‘यन्त्रण’ से ही आ रहा है जबकि हिन्दी के ‘यन्त्रणा’ का प्रयोग कष्ट, संत्रास, दुख, पीड़ा, व्यथा को अभिव्यक्त करने में होता है न कि किसी व्यवस्था या प्रणाली के अर्थ में । ‘यन्त्र’ में ‘अन’ प्रत्यय लगने से बहुआयामी अर्थवत्ता वाला ‘यन्त्रण’ शब्द बना जिसमें प्रणाली, विधि या व्यवस्था के साथ-साथ पीड़ा, वेदना या व्यथा का भाव भी है । आशय ऐसी चीज़ से है जो एक खास तरीके से संचालित हो रही है । प्रश्न है यन्त्र से बने यन्त्रणा में संत्रास, पीडा या वेदना के भाव की क्या व्याख्या है । दरअसल यन्त्र में दबाव, काबू, जकड़न, कसना, बांधना जैसे भाव हैं । मशीन वाली यान्त्रिकता के तहत ये सभी भाव एक व्यवस्था से जुड़ते हैं या यूँ कहें कि यन्त्र किन्हीं कलपुर्जों, उपकरणों का समुच्चय है जो आपसे में गुँथे हैं, बन्धे हैं, कसे हैं, जकड़े हैं । किन्तु जब इन्हीं भावों के साथ यन्त्रणा शब्द बनता है तो उसका अर्थ जहाँ मराठी में जहाँ मशीनी व्यवस्था से लिया जाता है वहीं हिन्दी में यह सचमुच यातना से जुड़ता है । कोई भी बन्धन, कसाव, जकड़न या दबाव संत्रास, पीड़ा या कष्ट का कारण बनते हैं ।
न्त्र में भौतिक उपकरण के अलावा तान्त्रिक वस्तु या चिह्न का भाव भी है जैसे गंडा, ताबीज या यौगिक रेखाचित्र । कल्पित अतीन्द्रिय शक्तियों की आराधना के लिए तन्त्र-योग आदि शास्त्रों में कई तरह के प्रतीकों का प्रयोग होता है । ऐसा माना जाता है कि इनमें निहित शक्तियों के ज़रिये दूर स्थित शत्रुओं या विपरीत ताक़तों पर काबू पाया जा सकता है । बौद्धधर्म का अवसानकाल भारत में तन्त्र-मन्त्र और योगिक शक्तियों के अभूतपूर्व उभार का था । ‘षड्यन्त्र’ दरअसल मध्यकाल के इसी परिवेश से उपजा शब्द है । पूरवी बोली में षड्यन्त्र को ‘खड्यन्त्र’ भी कहते हैं । ‘ष’ का रूपान्तर ‘ख’ में होता है । ‘षड्यन्त्र’ अर्थात छह तरह की विधिया, प्रणाली या तरीके जिनके ज़रिये शत्रु को वश में किया जा सके । सीधी से बात है, यौगिक तन्त्र-मन्त्र का विस्तार ही जादू-टोना में हुआ । अलग-अलग पंथों के मान्त्रिकों के अपने अपने नुस्खे, मन्त्र और यन्त्र थे । हर कोई इनके ज़रिये बस षड्यन्त्रों में लगा रहता था । आज षड्यन्त्र को जिस अर्थ में प्रयोग किया जाता है उसमें बदले हुए परिवेश में कुचाल, दुरभिसन्धि या कांस्पिरेसी जैसे भाव हैं जबकि पुराने ज़माने में शत्रु पर विजय पाने के टोटके जैसा भाव इसमें था ।
ड्यन्त्र के तहत जिन छह विधियों का हवाला दिया जाता है वे हैं- 1.जारण 2. मारण 3. उच्चाटन 4. मोहन 5. स्तंभन और 6. विध्वंसन । ‘जारण’ का अर्थ जलाना या भस्म करना है । यह संस्कृत के ‘ज्वल्’ से निकला है । टोटका के रूप में हम झाड़-फूँक से परिचित हैं । यह जो फूँक है दरअसल इसमें अनिष्टकारी शक्तियों को भस्म करने का आशय है । ‘मारण’ यन्त्र का आशय एकदम स्पष्ट है । शत्रु का अस्तित्व समाप्त करने, उसे मार डालने के लिए जो जादू-टोना होता है वह ‘मारण’ कहलाता है । ‘उच्चाटन’ का अर्थ है स्थायी भाव मिटाना । वर्तमान परिस्थिति को भंग कर देना । उखाड़ना, हटाना आदि । विरक्ति, उदासीनता या अनमनेपन के लिए आम तौर पर हम जिस उचाट, दिल उचटने की बात करते हैं उसके मूल में संस्कृत का ‘उच्चट’ शब्द है जो ‘उद्’ और ‘चट्’ के मेल से बना है । उद्-चट् की संधि उच्चट होती है । ‘उद’ यानी ऊपर ‘चट्’ यानी छिटकना, अलग होना, पृथक होना आदि । ‘उच्चाटन’ भी इसी उच्चट से बना है जिसका अर्थ हुआ उखाड़ फेंकना, जड़ से मिटाना, निर्मूल करना आदि ।
ब ‘जारण’, ‘मारण’, ‘उच्चाटन’ जैसे यन्त्रों से काम नहीं बनता तो ‘मोहिनी विद्या’ काम आती है । ‘मोहन’ का अर्थ है मुग्ध होना । इसके मूल में ‘मुह्’ धातु है जिसका अर्थ है सुध बुध खोना, किसी के प्रभाव में खुद को भुला देना । अक्सर नादान लोग ऐसा करते हैं और इसीलिए ऐसे लोग ‘मूढ़’ कहलाते हैं । मूढ़ भी ‘मुह्’ से ही निकला है और ‘मूर्ख’ भी । ‘मोहन यन्त्र’ का मक़सद शत्रु पर ‘मोहिनी शक्ति’ का प्रयोग कर उसे मूर्छित करना है । श्रीकृष्ण की छवि में ‘मोहिनी’ थी इसलिए गोपिकाएँ अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं इसलिए उन्हें ‘मोहन’ नाम मिला । पाँचवी विधि है ‘स्तम्भन’ जिसका अर्थ है जड़ या निश्चेष्ट करना । यह ‘स्तम्भ’ से बना है । जिस तरह से काठ का खम्भा कठोर, जड़ होता है उसी तरह किसी सक्रिय चीज़ को स्तम्भन के द्वारा निष्क्रिय बनाया जाता था । षड्यन्त्र की छठी और आखिरी प्रणाली है ‘विध्वंसन’ अर्थात पूरी तरह से नाश करना ।
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Sunday, August 5, 2012

सेवा का फल नमकीन

SEV

हि न्दी में दो तरह के सेव प्रचलित हैं । पहले क्रम पर है बेसन से बने नमकीन कुरकुरे सेव और दूसरा है मीठा-रसीला सेवफल जिसे सेव या सेब भी कहते हैं । खाने-पीने की तैयारशुदा सामग्री में सर्वाधिक लोकप्रिय अगर कोई वस्तु है तो वह है नमकीन सेव । प्रायः हर गली, हर दुकान और हर घर में यह मिल जाएगा । सुबह के नाश्ते में चाय के साथ और कुछ न हो तो सेव चलेगा । मालवी आदमी को तो सुबह शाम खाने के साथ भी सेव चाहिए । भारतीय खान-पान संस्कृति दुनिया भर में निराली है । सेव के साथ सिवँइयाँ अथवा सेवँई जैसे खाद्य पदार्थ भी रसोई की अहम् चीज़ें हैं । सेवँई या सिवँइयाँ मैदे से बनती हैं । शकर और दूध के साथ उबाल कर बनई गई सेवँई की खीर बेहद लज़ीज़ मीठा पकवान है । ध्यान रहे, सेव, सेवँई या सिवँईं जैसे नामों में मीठे या नमकीन होने की महिमा नहीं है बल्कि उनका धागे या सूत्रनुमा आकार ही ख़ास है ।
दिलचस्प बात यह भी है कि दोनो तरह के सेव का सम्बन्ध बोल-चाल की भाषा में बेहद प्रचलित सेवा, सेवक, सेविका जैसे शब्दों से भी हैं जिनमें सेवा करने का मूल भाव है और इनकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत की सेव् धातु से हुई है । संस्कृत की सेव् धातु में मूलतः करना, रहना, बारम्बार जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स, रॉल्फ़ लिली टर्नर और वाशि आप्टे के कोशों के मुताबिक सेव् में सानिध्य, टहल, बहुधा, उपस्थिति, आज्ञाकारिता, पालना, बढ़ाना, विकसित करना, उत्तरदायित्व, समर्पण, खिदमत, देखभाल अथवा सहायता जैसे भाव हैं । इससे बने सेवा का मूलार्थ है देखभाल करना, सहकारी होना, समर्पित कर्म, टहल में रहना आदि । सेवक में उक्त सभी क्रियाओं में लगे रहने वाले व्यक्ति का भाव है । यूँ सेवक का अर्थ नौकर-चाकर, परिचर, सहकर्मी, अनुगामी, भक्त, अनुचर, आज्ञाकारी, भ्रत्य, वेतनभोगी आदि होता है । सेवक का स्त्रीवाची सेविका होता है । सेवा सम्बन्धी शब्दावली में अनेक शब्द हैं जैसे सेवा-पंजिका, सेवा-पुस्तिका, सेवाकर्मी, सेवानिवृत्त, सेवावधि, सेवामुक्त, समाजसेवा, समाजसेवी आदि । इसी कड़ी में सेवाशुल्क जैसा शब्द भी खड़ा है जिसका मूलार्थ है किसी काम के बदले किया जाने वाला भुगतान मगर अब सेवाशुल्क का अर्थ रिश्वत के अर्थ में ज्यादा होने लगा है ।
प्रश्न उठता है इस सेवाभावी सेव् से आहार शृंखला के सेव से सम्बन्ध की व्याख्या क्या हो सकती है ? सेव के आकार और उसे बनाने की प्राचीन विधि पर गौर करें । पुराने ज़माने में बेसन के आटे को गूँथ कर उसकी छोटी लोई को चकले पर रख कर हथेलियों से बारीक-बारीक बेला जाता था । बेलना शब्द का रिश्ता संस्कृत की बल् या वल् धातु से है जिसमें घुमाना, फेरना, चक्कर देना जैसे भाव हैं । लोई को घुमाने वाले उपकरण को भी बेलन इसीलिए कहते हैं क्योंकि इससे बेलने की क्रिया सम्पन्न होती है । जिससे बेला जाए, वह बेलन । गौर करें कि पत्थर या लकड़ी के जिस गोल आसन पर रख कर रोटी बेलते हैं उसे चकला कहते हैं । यह चकला शब्द चक्र से आ रहा है जिसमें गोल, घुमाव, राऊंड या सर्कल का भाव है । बेलने के आसन को चकला नाम इसलिए नहीं मिला क्योंकि वह गोल होता है बल्कि इसलिए मिला क्योंकि उस पर रख कर रोटी को चक्राकार बनाया जाता है । बेलने की क्रिया से कोई वस्तु चक्राकार, तश्तरीनुमा बनती है । तश्तरीनुमा आकार में बेलने के लिए आधार का समतल, ठोस होना ज़रूरी है न कि उसका गोल होना । अक्सर सभी चकले गोल नहीं होते । रोटी बनाने के लिए चकला और बेलन की ज़रूरत होती है, सेव या सेवँईं बनाने के लिए बेलन के स्थान पर चपटी सतह जैसे हथेली, होनी ज़रूरी है ।
राठी में सेवँई के लिए शिवई शब्द है जिसका मूल वही है जो हिन्दी सेवँई का है । मेरा मानना है कि नरम पिण्ड को चपटी सतह पर गोल गोल फिरा कर उसके सूत्र बनाने की तरकीब बाद में ईज़ाद हुई होगी, पहले ऐसा अंगूठे और उंगलियों की मदद से किया जाता रहा होगा । हाथ या उंगलियों लगे किसी चिपचिपे पदार्थ से छुटकारा पाने के लिए हाथों को आपस में मसलने या अंगूठे को उंगलियों पर रगड़ने की तरकीब की जानकारी मनुष्य को आदिमकाल में ही हो गई थी । इस तरह चिपचिपे पदार्थ पर दबाव पड़ने से उसके वलयाकार सूत्र बन कर हाथ से अलग हो जाते हैं । सेवँई के जन्मसूत्र का कुछ पता इसके मराठी पर्यायों से चलता है । मराठी में सेवँई को शेवई कहते हैं इसकी व्युत्पत्ति भी वही है जो हिन्दी में है । मराठी में शेवई के दो प्रकार हैं- हातशेवई और पाटशेवई । जैसा की नाम से ही स्पष्ट है, हातशेवई लोई को हथेली से रगड़ कर बनाए गए सूत्र को कहते हैं । इसका एक नाम बोटी भी है । मराठी में उंगली को बोट कहते हैं । उंगलियों से रगड़ कर बनाए गए महीन सूत्र के लिए बोटी नाम सार्थक है । प्रसंगवश, सेवँई को अंग्रेजी में वर्मीसेली कहते हैं जो मूलतः इतालवी भाषा से आयातित शब्द है और लैटिन के वर्मिस vermis से बना है जिसका मतलब होता है कृमी या रेंगनेवाला नन्हा कीड़ा । एटिमऑनलाइन के मुताबिक वर्म के मूल में भारोपीय भाषा परिवार की धातु wer है जिसमें घूमने, मुड़ने का भाव है । वृ बने वर्त या वर्तते में वही भाव हैं जो प्राचीन भारोपीय धातु वर् wer में हैं । गोल, चक्राकार के लिए हिन्दी संस्कृत का वृत्त शब्द भी इसी मूल से बना है । इतालवी वर्मीसेली  और हिन्दी के सेवँई का शब्द-निर्माण ध्यान देने योग्य है ।
रोटी के लिए मराठी में पोळी शब्द है । पूरणपोळी शब्द में यही पोळी है । पोळी बना है पल् धातु से जिसमें विस्तार, फैलाव, संरक्षण का भाव निहित है इस तरह पोळी का अर्थ हुआ जिसे फैलाया गया हो। बेलने के प्रक्रिया से रोटी विस्तार ही पाती है । पत्ते को संस्कृत में पल्लव कहा जाता है जो इसी धातु से बना है । पत्ते के आकार में पल् धातु का अर्थ स्पष्ट हो रहा है । पेड़ का वह अंग जो चपटा और विस्तारित होता है । हिन्दी का पेलना, पलाना, पलेवा जैसे शब्द जिनमें विस्तार और फैलाव का भाव निहित है इसी शृंखला में आते हैं । पालना शब्द पर गौर करें इसमें बारम्बारता, विस्तार, संरक्षण जैसे सभी भाव स्पष्ट हैं । कहने का तात्पर्य यह कि पल् धातु में जो भाव आटे की लोई को पोळी (रोटी) के रूप में विस्तारित करने में उभर रहा है वैसा ही कुछ सेव् धातु से बने सेव या सेवँई में भी हो रहा है । स्पष्ट है कि सेव् धातु से बने सेव में निहित बारम्बारता, बढ़ाना, विकसित करना और पालना जैसे अर्थ भी पल् की तरह हैं । बेसन या मैदे की लोई को चकले पर गोल-गोल घुमाने से  पतले, लम्बे,  धागेनुमा सूत्र के रूप में उसका आकार बढ़ता जाता है । यही सेव या सेवँई है । बेलने या घुमाने की क्रिया में बारम्बारता पर गौर करें तो भी सेव् क्रिया का अर्थ स्पष्ट होता है ।
सेवफल की बात । जिस तरह सेव या सेवँई में विस्तार, वृद्धि का भाव है, और सेव और सेवँई के आकार से यह अर्थ साफ़ नज़र भी आता है वहीं सेवफल को देखने से यह स्पष्ट नहीं होता । मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में सेवि या सेव शब्द है जिसका अर्थ है सेवफल । मोनियर विलियम्स के कोश में सेवि शब्दान्तर्गत सेव का अर्थ बदरी यानी बेर भी बताया गया है । apple के अर्थ में हिन्दी सेव की व्युत्पत्ति संस्कृत की सिव् धातु से है जिसमें जिसमें नोक, काँटा जैसे भाव हैं । टर्नर कोश के मुताबिक फ़ारसी में सेव का सेब रूप है । इसी तरह उड़िया और गुजराती में भी सेब ही है इसलिए यह निश्चयूर्वक नहीं कहा जा सकता की भारतीय भाषाओं में सेव के सेब रूप के पीछे फ़ारसी का सेब है ।

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Wednesday, April 11, 2012

बलाए-ताक नहीं, बालाए-ताक सही

Vue générale des grottes de Taq-e Bostanसम्बंन्धित आलेख-1.आखिरी मक़ाम की तलाश... पिया मिलन को जाना.…2. प्यारा कौन ? बैल , बालम या मलाई ?.3.लीला, लयकारी और प्रलय….
बो लचाल की भाषा को लय और अर्थवत्ता देने में मुहावरों का अहम क़िरदार होता है । एक मुहावरा पाँच वाक्यों के बराबर बात कह जाता है । इसीलिए मुहावरेदारा भाषा सहज और प्रवाही होती है । हिन्दी को समृद्ध बनाने में फ़ारसी के मुहावरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । आज़ादी के बाद जब हिन्दी के राजभाषा वाले स्वरूप के प्रति लोग कुछ सजग हुए तो उर्दू-फ़ारसी की ठसक वाली हिन्दुस्तानी ज़बान का रुतबा धीरे धीरे कम होने लगा । हालाँकि अरबी-फ़ारसी शब्दों का इस्तेमाल कम नहीं हुआ, मगर उनका बर्ताव हिन्दी शब्दों जैसी ही गै़रज़िम्मेदारी से होने लगा । कई शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल में असावधानी नज़र आने लगी क्योंकि इस ओर  हिन्दी वालों का ध्यान नहीं था । राजभाषा अब फ़ारसी, अंग्रेजी नहीं, हिन्दी थी । मिसाल के तौर पर एक मुहावरा है बलाए-ताक रखना । आमतौर पर किसी विषय को दूर रखने, उसकी उपेक्षा करने, मुख्यधारा से अलग रखने की कोशिश को अभिव्यक्त करने के लिए बलाए-ताक़ मुहावरे का प्रयोग किया जाता है जैसे- “इमर्जेंसी में सत्ताधारी पार्टी ने कानून को बलाए-ताक रख दिया था ।“ ख़ास बात यह कि दशकों से इस मुहावरे का प्रयोग हो रहा है जबकि सही रूप है बालाए-ताक रखना । लोग समझते हैं कि किसी चीज़ को बला यानी दिक्क़ततलब समझ कर ताक पर रखा जा रहा है जबकि इसमें बला यानी मुश्किल, कठिनाई का भाव न होकर बाला यानी ऊँचाई का भाव है ।

बला’ और ‘बाला’ की रिश्तेदारी

ला शब्द का हिन्दी में खूब इस्तेमाल किया जाता है । अरबी में विपत्ति, मुश्किल, कठिनाई, आपदा, दिक़्क़त, मुसीबत, कष्ट, संकट या परेशानी जैसी स्थितियों के संदर्भ में बला शब्द का प्रयोग किया जाता है । फ़ारसी कहावत सबने सुनी है- “ज़ल तू, ज़लाल तू, आई बला को टाल तू ।” इस कहावत में बला को उपरोक्त तमाम अर्थों में समझा जा सकता है । सौन्दर्य की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए फ़ारसी में नकारात्मक विशेषणों का प्रयोग भी होता है । क़यामत की ही तरह बला भी इस कड़ी में है । बला की खूबसूरती अथवा खूबसूरती या बला जैसे मुहावरों में बला विशेषण के तौर पर आया है । भाव है ऐसा सौन्दर्य जिसे देख कर आदमी सुध-बुध खो बैठे । जाहिर है ऐसा होना परेशानी वाली बात ही है, मगर इससे सौन्दर्य को भी सराहना मिल रही है । मगर बलाए-ताक़ में यह बला नहीं है क्योंकि बलाए-ताक का शाब्दिक अर्थ होगा ताक की बला यानी आले की परेशानी । इससे कुछ भी स्पष्ट नहीं होता । हालाँकि बला और बाला दोनों ही शब्द सेमिटिक मूल के हैं और इनमें आपसी रिश्तेदारी है । मगर प्रस्तुत मुहावरे में ये बला और बाला दोनो अलग अलग छोर पर नज़र आते हैं । इसके लिए जानते हैं बालाए-ताक को ।

बाल का बोलबाला

सेमिटिक भाषा परिवार का एक ख़ास शब्द है बाल, जिसकी इस समूह की कई भाषाओँ में व्यापक अर्थवत्ता है । दिक्कत, परेशानी, अनिष्ट, कष्ट आदि अर्थों में ही यह अज़रबेजानी में बेला है, फुलानी में यह आलबला है तो ग्रीक में यह पेलास है । अफ्रीका की हौसा भाषा में यह बालाई है, हिन्दी और इंडोनेसियाई में इसे बला कहते हैं तो किरगिज़ी में यह बलाआ है । रोमानी में इसका रूप बेलिया है और उज्बेकी में यह बलो है । सुमेरी संस्कृति में इसका मतलब होता है -सर्वोच्च, शीर्षस्थ या सबसे ऊपरवाला । हिब्रू में इसका मतलब होता है परम शक्तिमान, देवता अथवा स्वामी । गौरतलब है कि लेबनान की बेक्का घाटी में बाल देवता का मंदिर है । हिब्रू के बाल (baal) में निहित सर्वोच्च या सर्वशक्तिमान जैसे भावों का अर्थविस्तार ग़ज़ब का रहा। संस्कृत में इसी बाल या बेल का रूप बलम् देखा जा सकता है जिसका अभिप्राय शक्ति , सामर्थ्य , ताकत, सेना, फौज आदि है । एक सुमेरी देवता का नाम बेलुलू है। गौर करें कि संस्कृत में भी इन्द्र का एक विशेषण बललः है । अनिष्टकारी शक्ति के , आसमानी मुसीबत, विपत्ति आदि के लिए हिन्दी में बला शब्द खूब प्रचलित है । यह अरबी फारसी के जरिये हिन्दी में आया । अरबी में इसका प्रवेश हिब्रू के बाल की ही देन है अर्थात बला में बाल की शक्तिरूपी महिमा तो नज़र आ रही है। इससे कुछ हटकर संस्कृत में बला शब्द मंत्रशक्ति के रूप में विद्यमान है । गौर करें की दूध के ऊपर जो क्रीम जमती है उसे हिन्दी में मलाई कहते हैं। मलाई को उर्दू, फारसी और अरबी में बालाई कहते हैं क्योंकि इसमें भी ऊपरवाला भाव ही प्रमुख है । जो दूध के ऊपर हो वही बालाई । पुराने ज़माने में मकान की ऊपरी मंजिल को बालाख़ाना कहते थे । बाला यानी ऊपर और खाना यानी स्थान।
क्या है ताक़
बालाए-ताक़ में यह ऊपर का भाव महत्वपूर्ण है । हिन्दी में आमतौर पर  ताक tak/tāḳ शब्द का प्रयोग होता है जो अरबी का शब्द है मगर इसका मूल फ़ारसी है। अरबी केطاق  ताक़ taq ( tāḳ/ṭāq ) का अर्थ है बल, क्षमता, शक्ति है जिससे ताक़त, ताक़तवर जैसे शब्द बनते हैं। साथ ही इसका अर्थ मेहराब भी है और वो घुमावदार कमानीनुमा आधार भी जिस पर किसी भी भवन की छत टिकी रहती है। वह अर्धचन्द्राकार रचना जो छत को ताक़त प्रदान करती है, उसे थामे रखती है अर्थात उसके बूते छत टिकी रहती है। भाव है ताक़त देना। उसे क्षमता प्रदान करना। अरबी का طاقت ताक़त शब्द इसी मूल का है और ताक़ से उसकी रिश्तेदारी है। हिन्दी में आने के बाद ताक़ शब्द में आला अर्थात दीवार में सामान रखने के लिए बनाया जाने वाला खाली स्थान। यह भी कमानीदार, मेहराबदार आकार में बनाया जाता था। पुराने ज़माने में ऐसे ताक़ आमतौर पर छत से कुछ नीचे, दीवार के ऊपरी हिस्से में रोशनदान के लिए बनाए जाते थे। ताक़चा tāḳchá यानी वह छोटा आला जो कुछ ऊँचाई पर दीवार में बना हो। लोगों की पहुँच से दूर, सुरक्षित रखने के लिए भी ऐसे मेहराबदार खाँचे बनाए जाते थे। इसे ही ताक़ कहते थे । बालाए-ताक़ का अर्थ हुआ ताक़ यानी मेहराबदार दीवार का सबसे बाला हिस्सा यानी सबसे ऊँचा हिस्सा । किसी मुद्दे, विषय या चर्चा सूत्र को दरकिनार करने के संदर्भ में बालाए-ताक़ का प्रयोग होता है। जैसे- इसी सत्र में महिला विधेयक पर बात होनी थी, मगर सत्ता पक्ष ने उसे बालाए-ताक़ रखा । स्पष्ट है कि सत्ता पक्ष नहीं चाहता कि इस विषय पर चर्चा हो इसलिए इसे अलग – थलग करने, इसे पहुँच से दूर रखने के लिए उसने कई हथकण्डे अपनाए । यही है बालाए-ताक़ रखना मुहावरे का सही अर्थ।
ताक़ में नक़्क़ाशी
ताक़ शब्द अरबी में फ़ारसी मूल से गया है । जॉन प्लैट्स के कोश में ताक़ का अर्थ मेहराब, खिड़की, आला, कॉर्निस, खाँचा, कोना, छज्जा और बालकनी आदि है । ताक़ अगर अरबी में फ़ारसी से गया है तो ज़ाहिर है कि यह इंडो-ईरानी परिवार का शब्द है और इसका रिश्ता किन्हीं अर्थों में संस्कृत, अवेस्ता आदि भाषाओं से भी होगा । इसका स्पष्ट संकेत कहीं नहीं मिलता । फ़ारसी संदर्भों में पश्चिमी ईरान के पहाड़ी प्रान्त करमानशाह में दूसरी से छठी सदी के बीच निर्मित महान स्थापत्य ताक़ ए बोस्ताँ से मिलता है । ये स्थापत्य दरअसल सासानी काल में ईरानी शिल्पकारों द्वारा पहाड़ी चट्टानों पर उत्कीर्ण कला के महानतम नमूने हैं । चट्टानों पर नक्काशी के जरिये मेहराबदार खुले कक्ष बनाए गए हैं जिनकी दीवारों पर ईरान के इतिहास और जरथ्रुस्तकालीन प्रसंग उत्कीर्ण हैं । ईरान में इसे प्राचीनकाल से ही ताक़ ए बोस्ताँ कहा जाता है । पत्थरों में उत्कीर्ण मेहराब की रचना के लिए ताक़ शब्द के प्रयोग से ऐसा लगता है कि ताक़ शब्द का रिश्ता संस्कृत के तक्ष से है जिसमें उत्कीर्ण करने, काटने, तराश कर आकार देने जैसे भाव हैं । तक्षन या तक्षक का अर्थ शिल्पकार, दस्तकार होता है । सम्भव है तक्ष से ही फ़ारसी का ताक बना हो और मेहराब के अर्थ में अरबी ने भी इसे आज़माया हो।
इन्हें भी देखें- 1.ठठेरा और उड़नतश्तरी
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Friday, March 30, 2012

ठठेरा और उड़नतश्तरी

thatheraसम्बन्धित आलेख-1.हाथों की कुशलता यानी दक्षता.2.दक्षिणापथ की प्रदक्षिणा.3.टैक्सी की तकनीक, टैक्स की दक्षता.4.बेपेंदी का लोटा और लोटा-परेड.5. भांडाफोड़, भड़ैती और भिनभिनाना.6.बालटी किसकी ? हिन्दी या पुर्तगाली की .7.नांद, गगरी और बटलोई.8 मर्तबान यानी अचार और मिट्टी.9.पहचानिए हिन्दी के दो कमीनों को…

ड़नतश्तरी इनसान की बेहद दिलचस्प कल्पना है । ख्याली दुनिया में पैदा होकर असली दुनिया में देखी जाती है । एक ऐसी गोल, चपटी, पोली मगर विशाल उड़ने वाली वस्तु जिसमें दूसरी दुनिया के लोग बैठ कर आते हैं । जिसे लेकर ईश्वर की ही तरह दुनिया दो ख़ेमों में बँटी नज़र आती है । या तो उड़नतश्तरी होती है , या फिर नहीं होती । जिसे देखने का दावा भी बिरलों ने ही किया है ।  साइंसदाँ इसे यूएफ़ओ कहते हैं , यानी अनआइडेंटीफ़ाईग फ्लाइंग ऑब्जेक्ट अर्थात उड़ने वाली अनजान सी चीज़ । हिन्दी में इसके लिए बेहद ख़ूबसूरत सा शब्द उड़नतश्तरी बनाया गया । हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह आलेख उड़नतश्तरी पर नहीं है । यह सिर्फ़ तश्तरी जिसमें हम खाना खाते हैं और ठठेरा, जो इसे बनाता है , पर है । अलबत्ता खाना पसंद न आने पर हम इस तश्तरी को हवा में उछाल देते हैं तब शायद यह उड़नतश्तरी कहला सकती है, मगर व्यंग्य लेखकों के लिए ही । तश्तरी फ़ारसी मूल का शब्द है और थाली के अर्थ में हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है । तश्तरी का रिश्ता ठठेरे से है यह कहने में कुछ नया नहीं है क्योंकि बर्तन बनाने वाले को ठठेरा कहते हैं । तश्तरी एक बर्तन है । दरअसल ठठेरा और तश्तरी एक ही मूल से जन्में शब्द हैं ।
प्राचीन भारत की कर्मप्रधान व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई कर्मकार की थी अर्थात ऐसे कुशल श्रमिक जो दैनन्दिन उपयोग का विभिन्न सामान बनाने में सिद्धहस्त थे । यह हुनर दस्तकारी कहलाता था और इन श्रमिकों को दस्तकार कहते थे । बाद में कर्मकार या दस्तकारों की जातियाँ उभर आईं । गहनों का काम करने वाले, मूलतः स्वर्णाभूषण बनाने वाले स्वर्णकार ( स्वर्णकार > सोनार > सुनार ) मिट्टी का सामान या मूलतः मटका यानी कुम्भ बनाने वाले कुम्भकार (कुम्भकार > कुम्भार > कुम्हार ) लौहकर्म करने वाले लुहार ( लौहकार > लौहार > लुहार), कांस्यकर्म करने वाले कसेरे ( काँस्यकार > कंसार > कसेरा) कहलाए । पुराने ज़माने में बर्तन काँसे के बनते थे । कसेरों के लिए ही ठठेरा शब्द भी प्रचलित हुआ । आमतौर पर समझा जाता है कि ठठेरा शब्द ध्वनिअनुकरण से उपजा शब्द है क्योंकि धातु के बर्तन बनाने के लिए उसे ठोकना-पीटना पड़ता है । ठक-ठक, ठन-ठन ध्वनि से इसका रिश्ता जोड़ते हुए ठठेरा में ध्वनिअनुकरण की प्रवृत्ति नज़र आना सहज है । मगर ऐसा नहीं है । ठठेरा का रिश्ता दस्तकारी से है । सबसे पहले जानते हैं ठठेरा में छुपे हस्तकौशल को ।
संस्कृत में हाथ के लिए हस्त शब्द है। बरास्ता अवेस्ता, इसका फ़ारसी रूप होता है दस्त । डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार पूर्ववैदिक किसी मूल मूल भाषा में इन दोनों का रूप था धस्त । अवेस्ता में धस्त से का लोप होकर दस्त शेष रहा और संस्कृत में ‘द’ का लोप होकर हस्तः बचा । धस् में शामिल दस् से संस्कृत की दक्ष् धातु सामने आई। इससे बने दक्ष का अर्थ है कुशल, चतुर, सक्षम या योग्य । इसमें उपयुक्तता या खबरदारी और चुस्ती का भाव भी है । इससे जो बात उभरती है वह है जो हाथों से काम करने में कुशल हो, वह दक्ष । दक्ष की व्याप्ति भारोपीय भाषा परिवार में भी है । भाषा विज्ञानियों नें इंडो-यूरोपीय परिवार में दक्ष् से संबंधित - dek धातु तलाश की है जिसका अर्थ भी शिक्षा, ज्ञान से जुड़ता है । डॉक्टर शब्द इसी कड़ी का है ।
क्ष का अगला रूप तक्ष बनता है । तक्ष का ही एक अन्य रूप त्वक्ष भी होता है । संस्कृत में बढ़ई को तक्षन् या तक्षक भी कहा जाता है । तक्षक यानी किसी भी कार्य का सूत्रधार, देवताओं का वास्तुकार । तक्ष् की व्याप्ति पूर्व वैदिक भाषाओं में भी थी और इसीलिए यह अवेस्ता में भी था । संस्कृत में क्ष का रूपान्तर में होता है । ग्रीक में तैख़्ने इसी मूल से आया है जिससे अंग्रेजी के टेकनीक, टैक्नीशियन जैसे शब्द बने । तक्ष / त्वक्ष का तख़्त में बदलाव सहज है । खास बात यह कि लकड़ी के काटे और तराशे जा चुके सुडौल टुकड़े के लिए फ़ारसी में तख़्तः शब्द बना है जिसे हिन्दी में तखता या तखती कहते हैं । बाद में लकड़ी से बनी चौकी, पलंग और बादशाह के आसन के अर्थ में फारसी उर्दू में तख़्त शब्द चल पड़ा । गौरतलब है कि दक्ष, तक्ष से जुड़े सभी शब्दों में काम करना प्रमुख है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है हाथों का प्रयोग । दक्ष में दाहिने हाथ का भाव निहित है। दिशा के लिए दक्षिण शब्द इसी मूल का है । ज़ाहिर है बाँए की तुलना में दायाँ हाथ अधिक कुशल होता है सो कुशल के अर्थ में दक्ष शब्द रूढ़ हो गया । दक्ष का अगला रूप तक्ष हुआ जिसमें कुशल कारीगर, कलाकार की अर्थवत्ता निहित है ।
जिस तरह वैदिक तक्ष से बरास्ता अवेस्ता तख्त बनता है उसी तरह वैदिक तक्ष का एक रूप तष्ट भी बनता है । संस्कृत में तष्ट में वही सारी क्रियाएँ समाहित हैं जो दस्तकारी के पारम्परिक कर्म हैं अर्थात छाँटना, विशेष प्रकार की आकृति प्रदान करना बनाना, कुल्हाडी से काटना, काट कर बनाना, काटना , गढ़ना, चीरना, ठीक करना, तैयार करना, रूप देना, ढालना आदि । जॉन प्लैट्स के मुताबिक इस तष्ट का ही जेन्दावेस्ता में तस्त रूप हुआ और फिर पहलवी में इसने तश्त रूप अख्तियार किया जिसमें परात, थाली, कटोरा, बॉऊल, चषक, प्याला, कप, सॉसर जैसे भाव थे । तश्त से ही फ़ारसी में तश्तरी शब्द तैयार हुआ जिसका अर्थ था चौड़े मुँह वाला कोई बर्तन, परात या थाली जिसमें रोटियाँ रखी जा सकें, आटा गूँथा जा सके और खाना खाया जा सके । तश्त का ही एक रूप तसला हुआ । तश्त का तस्स, का लोप और उसमें ला प्रत्यय लगने से तसला बना । बड़ी थाली, थाल या परात को भी तसला कहते हैं । “हिन्दी भाषा की संरचना” पुस्तक में डॉ भोलानाथ तिवारी तिवारी लिखते हैं कि तष्ट का जेंद रूप तस्त हुआ उसी तरह इसका प्राकृत रूप टट्ठ या ठट्ठ बनता है । गौरतलब है कि थाली के लिए मराठी में ताट, ताटली, अवधी, भोजपुरी में टाठी शब्द इसी तष्ट-त्वष्ट के प्राकृत रूप टट्ठ के रूपान्तर हैं । समझा जा सकता है कि आकार देना, तराशना, सजाना, गढ़ना, तैयार करना जैसे अर्थों में हिन्दी का ठठेरा भी इसी टट्ठ / ठट्ठ से विकसित हुआ है न कि ध्वनि अनुकरण की प्रक्रिया से क्योंकि ठक-ठक, ठन-ठन जैसी ध्वनियाँ और भी कई नियमित क्रियाओं का संकेत हो सकती हैं । ठठेरा वह जो ताट, ताटली या टाठी बनाए । बर्तन बनाए ।  धस् -दक्ष -तक्ष -त्वक्ष - तष्ट -त्वष्ट - टट्ठ - ठट्ठ जैसे रूपों से साबित होता है कि इस शब्द का रिश्ता दस्तकारी से से है और ठठेरा मूलतः दस्तकार है ।
कुछ कोशों में ठठेरा का सम्बन्ध स्थ धातु से बताया गया है, जो ठीक नहीं है अलबत्ता हिन्दी के थाली शब्द की व्युत्पत्ति ज़रूर स्थ से हुई है । स्थ से संस्कृत का स्थालिका बनता है । प्राचीनकाल में यह रोजमर्रा के इस्तेमाल का बर्तन होता था जो मिट्टी की बटलोई या तवे के आकार का होता था जिसमें अन्न पकाया जाता था या रखा जाता था । आज हम स्टील, पीतल, कांच या चीनीमिट्टी की जिन प्लेटों में खाना खाते हैं उसे हिन्दी में थाली कहते हैं, वह इसी स्थालिका की वारिस है । बड़ी थाली के लिए थाल शब्द प्रचलित है। दिलचस्प यह कि सम्पदा का रिश्ता थैली से ही नहीं थाली से भी है। अन्न वैसे भी समृद्धि अर्थात लक्ष्मी का प्रतीक है । प्राचीनकाल से ही थाली को भारत में सर्विंग - ट्रे का दर्जा मिला हुआ है । प्राचीन काल में राजाओं श्रीमंतों के यहाँ थाली या थालों में आभूषण प्रस्तुत किए जाते थे । इनाम-इकराम के लिए मुग़लों के ज़माने में भी थालियाँ चलती थीं । आज भी शादी ब्याह में नेग और पूजा की सामग्री थाली में ही सजाई जाती है। थाली का महत्व इससे भी समझा जा सकता है कि यह मेहमाननवाजी का ऐसा पर्याय बनी कि एक थाली में खाना जैसा मुहावरा अटूट लगाव का प्रतीक बना वहीं विश्वासघात के प्रतीक के तौर पर “जिस थाली में खाना, उसी में छेद करना” जैसा मुहावरा भी बरसों से उलाहना के तौर पर जनमानस में पैठा हुआ है ।

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Thursday, March 29, 2012

हजम, हाजमा और हैजा

र्मियों की सामान्य बीमारी हैजा है । इसे कालरा भी कहा जाता है जो बैक्टीरिया जनित रोग है । Cholera
भू ख मिटाना मनुष्य की आदिम चिन्ता रही है । उसका आहार चाहे आग पर पका हो या न पका हो, मगर पेट की आग मिटाने के लिए, उदरपूर्ति यानी पेट भरना ज़रूरी है । गौर करें कि पेट भरना भी मुहावरा है । इसमें कलेवा, ब्यालू, जेवनार, ब्रेकफ़ास्ट, लंच, डिनर, सपर, ठण्डा, मीठा, छप्पनभोग, रूखा, सूखा, तर, शाकाहार, मांसाहार, सादा, तामसिक, कच्चा, पक्का, लवणीय, अलवणीय, शुद्ध, अशुद्ध जैसा कोई भेद नहीं है । ‘पेट भरना’ यानी पेट की आग को शान्त करने के लिए उसमें कुछ न कुछ डालना ज़रूरी है । यानी भूख मिटाने के लिए कुछ भी खा लेना मनुष्य का आदिम स्वभाव रहा है । भोजन के सम्बन्ध में उपरोक्त भेद तो सभ्यता के विकास के साथ साथ सामने आए मगर उदरपूर्ति के विभिन्न आयामों से हमारे समाज-व्यवहार के सन्दर्भ में कई कहावतें और मुहावरे सामने आए हैं । उदरपूर्ति के लिए पेट में कुछ भी भर लेना अलग बात है और उसका पचना अलग बात है । कई लोगों में ऐसी कूवत होती है कि जो चाहें हजम कर जाएँ । ‘पचाना’ या ‘हजम होना’ जैसे मुहावरे इसी कड़ी में आते हैं जिनमें किसी अन्य व्यक्ति का माल हड़पना का जैसा भाव है जैसे उसने सारा माल पचा लिया या सब कुछ हजम कर लिया
हिन्दी में पचाने के सन्दर्भ में हजम शब्द का प्रयोग बेहद आम है । मूलतः यह अरबी भाषा का शब्द है और भारतीय भाषाओं में फ़ारसी के ज़रिए आया है । इसका शुद्ध अरबी रूप हस्ज़्म है और यह हिन्दी में हज़्म के रूप में नज़र आता है । हजम करना का अर्थ जहाँ खाई हुई चीज़ का बहुत अच्छी तरह पाचन हो जाना है वहीं उसमें किसी की वस्तु हड़पना, अमानत में ख़यानत करना, ग़बन करना जैसे भाव भी हैं । हजम की कड़ी में ही आता है हाजमा जिसका अर्थ है पाचनशक्ति या पाचनक्रिया । हाजमा खराब होना का सीधा अर्थ है, पेट में गड़बड़ी होना यानी पाचन ठीक से न होना , मगर किसी तथ्य या बात को गोपनीय न रख पाने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है जैसे- “उसे कुछ मत बताना, उसका हाज़मा ख़राब है ।” इसका अर्थ हुआ उसके पेट में बात नहीं पचती । पेट में बात न पचना भी प्रसिद्ध मुहावरा है ।
र्मियों में होने वाली एक सामान्य बीमारी हैजा है । चिकित्सा भाषा में इसे कालरा कहा जाता है । यह एक बैक्टीरिया जनित रोग है । आयुर्वेद के अनुसार सर्दियों के मौसम में पाचन क्षमता बेहतर रहती है जबकि गर्मियों में यह कम हो जाती है । इसीलिए गर्मी के मौसम में पेट सम्बन्धी रोग बढ़ने लगते हैं । हैजा अरबी शब्द है और हैज़ह धातु से बना है जिसका अर्थ है अपच । आन्ड्रास रज़्की के अरबी कोश के मुताबिक इसका शुद्ध अरबी रूप हैस्ज़्जा है । इसका हिन्दीकरण बतौर हैजा हुआ । यह भी हस्ज़्म और हस्ज्ज में सिर्फ़ ज़ और का अन्तर है । इन दोनों शब्दों में निकट सम्बन्ध है और इनका व्युत्पत्तिक आधार भी समान है । हिन्दी शब्दसागर में हैजा की प्रविष्टि में उल्टी, दस्त की बीमारी के साथ इसका अर्थ युद्ध अथवा जंग भी बताया गया है । हालाँकि मद्दाह का हिन्दी-उर्दू कोश और रज़्की के अरबी कोश देखने के बाद शब्दसागर की प्रविष्टि त्रुटिपूर्ण लगती है । मद्धाह और रज़्की दोनों के कोश में युद्ध अथवा जंग के संदर्भ में हजा अथवा हजामा जैसे शब्द हैं । हजा और हजामा की  हैजा और हजम से ध्वन्यात्मक समानता ज़रूर है पर इनमें व्युत्पत्तिक रिश्तेदारी नहीं है ।
स सन्दर्भ में हाजत को भी याद कर लिया जाए । उर्दू में हाजत आना या हाजत जाना का अर्थ दीर्घशंका या टॉयलेट जाने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । शुद्ध रूप में यह हाजत रफ़ा करना है । हाजत भी अरबी भाषा का शब्द है जो सेमिटिक धातु हाजा से बना है जिसमें आवश्यकता, ज़रूरत, प्रार्थना जैसे भाव हैं । हिन्दी में जिस तरह शंका निवारण पद बनाया गया उसी तरह अरबी में हाज़त रफ़ा करना पद है । दोनों में समान भाव है । यूँ हाज़त शब्द का प्रयोग ‘हाज़तमन्द’ यानी इच्छुक, अभिलाषी, ‘हाजतरवाँ’ यानी इच्छापूर्ति करनेवाला, ‘हाजत में रखना’ का एक अर्थ हिरासत या हवालात मे रहना भी होता है ।

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Monday, March 19, 2012

खुलासे का खुलासा

Squeeze

प्या ज के छिलके की तरह ही शब्दों पर भी न जाने कितनी परतें चढ़ी रहती हैं । हर परत पर उस शब्द के चरित्र को बताने वाला एक डीएनए कोड दर्ज़ रहता है । सारी परतें उतारे बिना उस शब्द की अर्थवत्ता की थाह मिलना नामुमकिन है । इसी तरह प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव का ब्योरा भी मन की अनेक परतों में दर्ज़ होता है । वक्त और जगह के साथ ही जिस तरह किसी व्यक्ति के बर्ताव में फ़र्क़ नज़र आने लगता है उसी तरह शब्दों के साथ भी होता है । ऐसा इसलिए होता है कि स्थान बदलने के साथ धीरे धीरे उस शब्द की विभिन्न अर्थछटाएँ प्रकट होती हैं यही बात इन्सानों के साथ भी होती है । तुर्कमेनिस्तान के नामालूम से सूबे फ़रग़ाना का एक नाकामयाब क़बाइली सरदार घोड़े पर ऐंड़ लगाते हुए निकल पड़ता है और हिन्दुकुश पर्वत पार करने के बाद एक के बाद एक कामयाबियाँ उसे मिलती जाती हैं और वह हिन्दुस्तान का बादशाह बन जाता है । लोग उसे बाबर के नाम से जानते हैं । दूरदराज़ से चल कर आए शब्दों के साथ भी यही होता है । अपनी मूल अर्थवत्ता से हट कर किसी शब्द के मायने दूसरी भाषा में जाने के बाद अक़्सर बदल जाते हैं । शब्दों का सफ़र में आज करते हैं ऐसे ही एक शब्द का खुलासा ।
रोजमर्रा की हिन्दी में खूब बोले जाने वाले शब्दों में खुलासा  khulasa शब्द का शुमार है । ‘खुलासा’ की आमद भी हिन्दी में फ़ारसी से हुई है मगर मूलतः यह अरबी ज़बान का शब्द है और इसका जन्म सेमिटिक धातु kh-l-s से हुआ है । ख-ल-स में शुद्ध, परिष्कृत, चमकदार, सार, खरा, सच्चा असली जैसे भाव हैं । इसी धातु से बना है ‘ख़ालिस’ khalis जिसका प्रयोग भी हिन्दी में खूब होता है । जिसमें किसी भी दूसरी चीज़ का मेल न हो, जो अपने शुद्धतम रूप में सम्मुख हो, एकदम खरी, शुद्ध या मिलावट रहित उस चीज़ के लिए ख़ालिस का प्रयोग किया जाता है । निर्मलता, निष्कपटता, मुक्त ( मिलावट से ), शुद्ध जैसे अर्थों में ख़ालिस का प्रयोग कई जगह होता है । अरबी मूल से आया सम्पत्ति अथवा धन के अर्थ वाला माल शब्द भारतीय भाषाओं में प्रचलित है । इस माल के असली होने के सन्दर्भ में खरा माल या खालिस माल जैसे शब्दों में खालिस शब्द को समझा जा सकता है ।
विद्वानों का मानना है कि सिख धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्द खालसा khalsa  भी इसी मूल से निकला है । फैलन का कोश स्पष्ट करता है कि ‘खालसा’ का शुद्ध अरबी रूप ‘खालिसह्’ है मगर बोलीभाषा में इसका प्रचलित रूप ‘खालसा’ ही है । तीनसौ साल पहले गुरु गोविन्दसिंह ने खालसा पन्थ की स्थापना की थी । ‘खालिस’ में निहित तमाम अर्थ कुल मिला कर सत्य के ही अलग अलग नाम हैं । अल सईद एम बदावी  और एमए अब्देल हलीम अपनी कुरानिक डिक्शनरी में सेमिटिक धातु kh-l-s में उक्त सभी भावों के अलावा मित्रता, किसी के साथ चलना, किसी से जुड़ना जैसे भावों का खुलासा भी करते हैं । इसी तरह यह कोश खालिस में भी सत्य, शुद्ध, खरा के अलावा ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव बताता है । इसमें आत्मज्ञान की प्राप्ति या अपनी तलाश में दुनिया से खुद को दूर करने जैसा भाव भी है । सत्य एक है । वही सार्वकालिक परम ब्रह्म है । इसे अलग अलग धर्मों में अलग अलग नामों से जाना जाता है । खालसा पंथ में यह अकाल पुरुख akaal purukh है ।
मुग़लों के ज़माने की भूराजस्व शब्दावली में ख़ालसा शब्द ज़मीन बंदोबस्त के तहत भी प्रयोग होता था । कृषियोग्य सरकारी भूमि ‘खालसा ज़मीन’ कहलाती थीं । उत्तर से दक्षिण भारत तक,

.headlines.. आजकल मीडिया रहस्योद्घाटन के रूप में भी खुलासा शब्द का प्रयोग करता है … “स्टाम्प घोटाले में बड़ा खुलासा” यानी किसी खास तथ्य का सामने आना । मगर आजकल ऐसे शीर्षक पढ़ कर यही लगता है कि खुलासा शब्द सनसनी का पर्याय बन गया है...

जहाँ भी मुग़लों का शासन था, यह शब्द प्रचलित हुआ । मराठी में खालसा या खालिसा शब्द आज भी चलन में है । यह अरबी के ख़ालिसह् से बना है जिसका अर्थ है जिसमें कोई मिलावट न हो, जो सिर्फ़ एक की मिल्कीयत हो अर्थात यहाँ अभिप्राय शासन की ज़मीनों से है । खालसा ज़मीन वह भी है जिसे कोई न जोत रहा हो, जिसका स्वामी कोई न हो और वह भी जिसे राजस्व न चुकाने की वजह से जब्त कर लिया गया हो । इस कार्रवाई को खालसा करना कहते थे । जाहिर है राजस्व न चुकाने वाली भूमि राज्य की हुई और इस पर दूसरे का कब्ज़ा माना जाएगा । उसे खाली कराने की क्रिया खालसा कहलाई । ‘खाली कराना’ या खलास करना जैसे शब्दों के सन्दर्भ में इसे समझा जा सकता है । खालसा ज़मीन उस भूमि को भी कहते है जो बेहद उपजाऊ हो । आखिर भूमि का असली गुण तो उर्वरा होना ही है । जो ज़मीन ख़ालिस है , वही तो ख़ालसा कहलाएगी । ख़ालिस का एक रूप निखालिस भी मिलता है । शब्द सागर के अनुसार यह अरबी के ख़ालिस में हिन्दी का नि उपसर्ग लगाकर निखालिस बना लिया गया है ।
सेमिटिक धातु kh-l-s से बने विभिन्न शब्दों और अर्थ छटाओं को जानने के बाद अब आते हैं ‘ख़ुलासा’ पर । इसका शुद्ध अरबी रूप खुलासाह् है । मद्दाह के उर्दू-हिन्दी कोश के मुताबिक ‘खुलासा’ का अर्थ है सार, संक्षेप, निचोड़, परिणाम, नतीजा, सारांश, तल्ख़ीस (बहुवचन-खुलासा, सारतत्व) आदि । इसी तरह जॉन शेक्सपियर के कोश में इसके मायने हासिल, नतीजा, उत्तम, सार, सत्व, इत्र, अनुमान, सर्वश्रेष्ठ भाग, विशाल, बड़ा आदि बताए गए हैं । गौरतलब है कि आज की हिन्दी में खुलासा शब्द का इस्तेमाल मीडिया में किसी सूचना के सन्दर्भ में ज्यादा होता है । खुलासा का प्रयोग करते हुए हमारे दिमाग़ में किसी बात को विस्तार  से जानने का आशय होता है । “ज़रा खुलासा करो” में बात को खोल कर बताने का आग्रह है । शब्दकोशों में दिए गए ‘खोलना’ शब्द का अर्थ अधिकांश लोग विवरण या विस्तार से लगाते हैं जो दरअसल ग़लत है । पूरा विवरण तो कहानी या क़िस्सा कहलाएगा, जो कि खुलासा का आशय नहीं है । अंग्रेजी के substance, out-come, onclusion, abstract जैसे शब्दों से ‘खुलासा’ का भाव स्पष्ट होता है ।
ख़-ल-स में निहित सार, सत्व, सत्य, निचोड़ जैसे आशयों पर गौर करें तो स्पष्ट होता है कि किसी सूचना या बात के मूल में निहित मूल तथ्य से आशय है । किसी हत्याकाण्ड का ‘खुलासा’ अनेक सम्भावित कारणों में से अवैध सम्बन्ध हो सकता है । ‘खुलासा’ में ढीला करना, शिथिल करना जैसे भाव हैं । जब किसी फल से रस या सार निकाला जाता है अथवा किसी चीज़ को निचोड़ा जाता है तो उसे ढीला करना पड़ता है । फल का गूदा खाने के लिए उसे खोलना पड़ता है । फल का पकना दरअसल शिथिल होने की प्रक्रिया है । उसके बाद ही उसमें से मीठा रस निकलता है । यही सार है और इसमें जो भाव है उसे ही खुलासा कहते हैं । किसी नतीजे तक पहुँचने के लिए उस सूचना या खबर का पकना ज़रूरी है । उसके बाद ही परिणाम हासिल होगा । यह जो हासिल है, यही है खुलासा । “उन्होंने इस बात का खुलासा किया” में आशय ‘स्पष्टता’ का है न कि ‘विवरण’ है । ज़ाहिर है भीतर की चीज़ को बाहर लाने के लिए उसे खोलना पड़ेगा, तभी वह साफ़ साफ़ नज़र आएगी । आजकल मीडिया रहस्योद्घाटन के रूप में भी ‘खुलासा’ शब्द का प्रयोग करता है । “स्टाम्प घोटाले में बड़ा खुलासा” यानी किसी खास तथ्य का सामने आना । मगर ऐसे शीर्षक पढ़ कर यही लगता है कि खुलासा शब्द अब सनसनी का पर्याय बन गया है ।

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