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Tuesday, September 20, 2016

बालों की दवाई, शिकाकाई, कहाँ से आई...


सा बुन जैसी चीज़ का कभी प्राचीन भारत में चलन था या नहीं, इस पर हम अलग पोस्ट लिख चुके हैं। हाँ, त्वचा और बालों की देखभाल के देसी तरीकों का उल्लेख आयुर्वेद में है। शिकाकाई, रीठा, आँवला जैसी दर्जनो वनौषधियों का प्रयोग हिन्दुस्तान में होता आया है। ख़ैर, शिकाकाई बेहद लोकप्रिय ओषधि है और इसके इस्तेमाल की विधियाँ अब विदेशी कास्मेटिक्स में भी नज़र आती हैं। मूलतः यह द्रविड़ भाषा का शब्द है और तमिळ के ज़रिये भारतीय भाषाओं में प्रसारित हुआ है।

सिगा, सिगाई और जूड़ा
जानते हैं शिकाकाई शब्द की जन्मकुण्डली। जब पढ़ते थे तब शिकाकाई शब्द जापानी भाषा का लगता था। पिछली बार जब सोलापुर गए तो इस सन्दर्भ में कुछ बातें पता चली थीं। वहाँ के पुराने बाज़ार में तरह-तरह की जड़ीबूटियाँ बिक रही थीं। कुछ दवाओं और तेल आदि के विज्ञापनों में बालों का जूड़ा प्रदर्शित था। सोलापुर का आन्ध्रप्रदेश से गहरा सम्बन्ध है। वहाँ तेलुगुभाषी बहुतायत रहते हैं। बहरहाल, एक ऐसी दुकान पर भी पहुँचे जहाँ विशुद्ध रूप से बालों की देखभाल वाली जड़ीबूटियाँ ही थीं। वहाँ जूड़े के लिए अनेक लोगों के मुँह से ‘सिगा’ अथवा ‘सिगाई’ शब्द सुना।

शिखण्डी से रिश्तेदारी
जब उन्हें बताया कि मैं मराठी हूँ तो दुकानदार ने सिर की तरफ़ इशारा किया, शेंडी शेंडी। मराठी में शेंडी का अर्थ होता है जूड़ा या सिर के बीच लपेट कर रखी चुटिया। शेंडी बना है शिखण्डिका से। शिख+ अण्ड में शिखण्ड यानी जूड़े का भाव है। शिख यानी सिर के सबसे ऊँचे हिस्से पर बालों से बनाया अण्डाकार गुच्छा यानी शिखण्ड। संस्कृत में इसके लिए चूड़ा शब्द भी है। चूड़ाकरण का अर्थ मुण्डन भी होता है। चूड़ा का ही अगला रूप जूड़ा है।

सिका, सिकु, सिक्कम्
बहरहाल, शिखण्डिका के शिख या शिखा से अचानक तेलुगू का ‘सिगा’ पकड़ में आ गया जो अन्यथा नहीं आता। चार्ल्स फिलिप ब्राऊन के तेलुगू कोश में सिगा और सिका दोनों की प्रविष्टि है और उसका अर्थ जूड़ा, चोटीगुच्छ, चूड़ा या शिखा आदि ही बताया गया है। तमिळ लैक्सिकन में इसके कई रूप प्रचलित हैं जैसे- सिका, सिक्कु, सिक्कम्, सिकाईताटू, सिकरिन, सिकुरम आदि। इनके संस्कृत रूपान्तर की कल्पना की जा सकती है मसलन शिखा, शिखु, शिखरम्, शिखरिणी आदि। द्रविड़ भाषाओँ में संस्कृत की तत्सम शब्दावली के नितान्त देसी रूप इस तरह घुले-मिले हैं कि यह कहना कठिन है कि संस्कृत ने द्रविड़ को प्रभावित किया है द्रविड़ ने संस्कृत को।

काई यानी फल, सिका यानी शिखा
गौरतलब है कि तमिल में काई यानी kay फल के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अनेक सन्दर्भों में इसका अर्थ कच्चा फल, सूखा फल भी दिया गया है। तो सिका-काई का अर्थ हुआ शिखा- काई अर्थात चूड़ा-फल या शिखाफल। ज़ाहिर है कि इस नामकरण के पीछे बालों के काम आने वाला फल से ही तात्पर्य है। शिकाकाई का वानस्पतिक नाम अकेशिया कोनसिन्ना है।

शेखर और शिखरिणी
शिकाकाई ज्यादातर गर्म जलवायु में पैदा होने वाली झाड़ी है। इसका तेल भी बनाया जाता है और इसे पीस कर विभिन्न प्रकार की ओषधियाँ भी बनाई जाती हैं। ध्यान रहे, शिव को शेखर कहते हैं क्योंकि वे सिर पर जटा बान्धते हैं। इसका रिश्ता गंगा से है। इसीलिए उसका नाम शिखरिणी भी है। पूर्वांचल के लोग अपने नाम के साथ शेखर लगाना पसंद करते हैं।

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Friday, January 15, 2016

सुब्हान तेरी कुदरत यानी ‘सुभानअल्ला’



मो हतसिब तस्बीह के दाने पे ये गिनता रहा
किन ने पी, किन ने न पी, किन किन के आगे जाम था

मुमकिन है इस मशहूर शेर को पढ़ कर आप सुभानअल्ला कह उठें। ये है ही इस लायक। पर आप ‘सुभानअल्ला’ ये सुनकर भी कहेंगे कि ‘तस्बीह’ और ‘सुभान’ दोनो बहन-भाई हैं। ‘सुभानअल्ला’ को बतौर प्रशस्तिसूचक अव्यय हिन्दी में भी बरता जाता है। यूँ इसका प्रयोग विस्मयकारी आह्लाद प्रकट करने के लिए भी होता है। यह लगभग ‘क्याब्बात’, ‘अद्भुत’ या ‘ग़ज़ब’ जैसा मामला है। यूँ सुभानअल्ला में बहुत अच्छा, धन्य-धन्य अथवा वाह-वाह जैसी बात है। ऐसा भी कह सकते हैं कि सुभानअल्ला में vow factor भी है। जानते हैं सुभानअल्ला की जन्मकुण्डली।

सुभानअल्ला अरबी से बरास्ता फ़ारसी हिन्दी में आया है। यह एक शब्द नहीं बल्कि संयुक्त पद है। मूल रूप से अरबी का ‘सुब्हान’ ही हिन्दी में सुभान बन कर ढल गया। अरबी सुब्हान बना है त्रिवर्णी मूलक्रिया सबाहा ح ب س
यानी सीन-बा-हा से जिसमें परमेश्वर के गुणगान और प्रशस्ति का भाव है। इसका ही विकसित रूप है सुब्हान سبحان (सीन बा हा अलिफ़ नून) जिसका फ़ारसी रूप सोब्हान होता है और हिन्दी सुभान।

दरअसल सबाहा यानी सीन-बा-हा में जो मूल भाव है उसमें अनंत का भाव है मसलन विशाल जलराशि में तैरना, वह सब जो दृष्टिपटल के सामने है, जो नज़रों में है उसके वैभव को अनुभव करना। तैरते हुए देखने के इस भाव को हिन्दू संस्कृति में संसार को भवसागर मानने के रूपक से समझा जा सकता है। उस अनंत को निहारना, उसकी विशालता को अनुभव करते हुए उसमें बने रहने का भाव ही सबाहा का मूल है। और हासिल ? हासिल वह है जो बलदेवप्रसाद मिश्र की इस कविता के ज़रिये ज़ाहिर होता है-

जिस ओर निगाहें जाती हैं
उसके ही दर्शन पाती हैं
सम्पूर्ण दिशाएं सुख -सानी
उसका ही गौरव गाती हैं
तो सबाह से बने सुब्हान में सचमुच सुब्हान तेरी कुदरत का ही आशय है। प्रकृति से कोई पार नहीं पा सका है। प्रकृति ही ईश्वर है। जो कुछ हमने नहीं रचा, पर जो सब हमारे लिये है। ऐसी अनुभूति के बाद अगर सुभानअल्ला जैसी उक्ति ही निकलती है।

इसी सबाहा से विकसित हुआ एक और शब्द है तस्बीह यानी सुमिरनी जिसका जन्म सुमिरन से हुआ। विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में नाम स्मरण की परम्परा रही है। इस्लाम में भी नाम स्मरण का रिवाज़ है। परम्परा के अनुसार सुमिरनी को हाथ में पकड़ कर उस पर एक छोटी सफेद थैली डाल ली जाती है। तर्जनी उंगली और अंगूठे की मदद से नाम स्मरण करते हुए सुमिरनी के दानों को लगातार आगे बढ़ाया जाता है। सुमिरनी दरअसल एक उपकरण है जो नामस्मरण की आवृत्तियों का स्मरण भक्त को कराती है।

संस्कृत के स्मरण से विकसित है सुमिरन। स्मरण > सुमिरण > सुमिरन के क्रम में इसका विकास हुआ। पंजाबी में इसका रूप है ‘सिमरन’ जहाँ प्रॉपर नाऊन की तरह भी इसका प्रयोग होता है। व्यक्तिनाम की तरह स्त्री या पुरुष के नाम की तरह सिमरन का प्रयोग होता है। बहुतांश हिन्दीवाले पंजाबी के ‘सिमरन’ की संस्कृत के ‘स्मरण’ से रिश्तेदारी से अनजान हैं क्योंकि सुमिरन की तरह से पंजाबी के सिमरन का प्रयोग हिन्दीवाले नहीं करते हैं बल्कि उसे सिर्फ व्यक्तिनाम के तौर पर ही जानते हैं। स्मरण शब्द बना है संस्कृत की ‘स्मर्’ धातु से। मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के मुताबिक स्मर् में याद करना, न भूलना, कंठस्थ करना, याददाश्त जैसे भाव हैं। अंग्रेजी के मेमोरी से इसकी रिश्तेदारी है। डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक लैटिन के मैमॉर् अर्थात स्मृति में ‘मर्’ के स्थान पर मॉर है। संस्कृत के स्मर, स्मरण, स्मृति में स-युक्त यही मर् है।

तो जब कभी किसी अनिवर्चनीय अनुभव से गुज़रें, किसी अनोखेपन के लिए मुँह से प्रशस्तिसूचक ‘वाह’ निकले तो सुभानअल्ला कहने में गुरेज़ न करें। और हाँ, खुदा की कुदरत को भी सुब्हान कहें और “मेरे महबूब को किसने बनाया” ये पहेली खुदा को बूझने दीजिए।
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Friday, January 1, 2016

शिलाओं में बसी आबादियाँ

श्चिमी एशिया का एक विश्वख्यात पर्यटन स्थल है पेट्रा। जॉर्डन की इस शिला-नगरी का प्राचीन सामी ज़बान में नाम है 'सेला' जिसका अर्थ चट्टान या शिला होता है। खासतौर पर आशय चट्टानी दरार से है। इस शहर के सभी आवास चट्टानों को तराशकर बनाए गए थे। सामान्य घर से लेकर भव्य प्रासाद तक। दरअसल यह प्राचीन सेमिटिक सभ्यता का बड़ा केन्द्र था। इसका शुमार दुनिया के सात अजूबों में भी होता है। ग्रीक में पेट्रा का अर्थ पत्थर, चट्टान, पाषाण होता है। इसी तरह भारत में पश्चिम से पूर्व तक तक्षशिला, कुरुशिला, प्रेतशिला, विक्रमशिला और धर्मशिला जैसे प्राचीन विद्याकेन्द्र मूलतः मानव बसाहटें थीं। किसी न किसी तौर पर इनका नाता पर्वतीय उपत्यका से रहा इसलिए इनके नाम के साथ शिला शब्द चस्पा हुआ।

प्राचीन मानव का पहला आश्रय चट्टानी दरारें ही बनी, बाद में इन्हें तराश कर आश्रय बनाने का हुनर भी इनसान ने सीख लिया। हिब्रू ने भी प्राचीन सेमिटिक के 'सेला' शब्द को जस का तस अपनाया जो शिला का पर्याय या प्रतिरूप था। भाषाविज्ञानियों का मानना है कि ग्रीक लोगों ने इस महान चट्टानी शहर का ‘पेट्रा’ नाम ‘सेला’ के ग्रीक प्रतिरूप ‘पेट्रा’ के बतौर चलाया। बाइबल में सेला का उल्लेख है, पेट्रा का नहीं। अरबी में सेला के कई प्रतिरूप हैं जैसे सुल्ल, सुल्ला यानी चट्टान। सेल्ले, सेल्ला या सिलात यानी पत्थर के पाट, पटिये, फलक या खण्ड। इन सब शब्दों की संस्कृत के शिला से समानता ध्यान देने योग्य है। संस्कृत में सिल, शिल जैसे शब्द भी हैं और सिला या शिला भी।

हम यही कहना चाहते हैं कि प्राचीन काल में चट्टानी आश्रयों के सहारे ही मानव बसाहटें हुईं। सेला या पेट्रा ऐसी ही प्राचीन बसाहट थी। यह पुख़्ता प्रमाण हैं कि अत्यन्त प्राचीन काल से आप्रवासन के ज़रिये भाषायी लेन-देन भी चल रहा था। वैदिक शिला के जितने सामी प्रतिरूप ऊपर देखे उतने संस्कृत या अन्य सजातीय भाषाओं में नहीं है, बस शिला, शैल या सिला ही हैं। फ्रांस का एक छोटा सा शहर है 'ला रोश्शेल' इसमें भी शेल, सेल, शिला को तलाशना आसान है। ला रोश्शेल का अर्थ है छोटी चट्टान। अंग्रेजी का Shells भी इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ काट-छाँट, तराशना, गोला, आवरण या पिण्ड होता है।

शिला-नगरों की परम्परा पुरानी रही है यह समरकन्द से भी साबित होता है। उज़्बेकिस्तान के इस प्राचीन शहर के नाम का रिश्ता संस्कृत के ‘अश्म’ से है। अश्म यानी पत्थर। अश्म का ईरानी रूप हुआ अस्मर। खण्ड का अर्थ होता है टुकड़ा, बस्ती, पिण्ड, समूह आदि। इसका ईरानी रूप कंद हुआ। ज़ाहिर है अस्मरकंद से ही समरकंद रूप सामने आया जिसमें पाषाण-नगर का भाव है।

पेट्रोलियम शब्द भी पेट्रा (पत्थर) के साथ ग्रीक ओलियम (तेल) जुड़ने से बना है। इसी तरह मिट्टी का तेल पेट्रोलियम का बहुत सरलीकृत रूप है, जबकि जीवाश्म ईंधन इसका सही अनुवाद है जो मूलतः पेट्रोलियम से न होकर फॉसिल ऑइल का सही अनुवाद है। फॉसिल का अर्थ होता है जीवाश्म जो जीव+अश्म से मिलकर बना है। अश्म शब्द का मतलब संस्कृत मे होता है चट्टान या पत्थर। इसका मतलब जीवधारियों के उन अवशेषों से है जो लाखों-करोड़ों वर्षों की भूगर्भीय प्रक्रिया के तहत प्रस्तरीभूत हो गए।

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Monday, April 15, 2013

घोंघाबसंत

Garden Snail (Helix aspersa).

लसी और महामूर्ख के अर्थ में ‘घोंघाबसन्त’ मुहावरा खूब प्रचलित है। ‘घोंघा’ शब्द भी अपने आप में ‘गावदी’ या ‘घोंचू’ प्रकृति के व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है। गुमसुम या चुपचाप रहने वालों को भी ‘घोंघा’ कहा जाता है। घोंघा के साथ ‘बसन्त’ का मेल चौंकाता है। जिस तरह से गधे के लिए बैसाखनंदन उपमा है क्या उसी तरह घोंघाबसन्त में भी ‘बसन्त’ का तात्पर्य ऋतु से ही है ? चलिए, पहले ‘घोंघा’ की खबर लेते हैं, फिर ‘बसन्त’ की भी सुध ली जाएगी। घोंघा शब्द एक नज़र में अनुकरणात्मक लगता है मगर इसमें अनुकरण का संकेत आसानी से पकड़ में नहीं आता। शब्दकोशों में घोंघा का अर्थ शंख, सीप, कवच, खोल, आवरण आदि है। घोंघा से आशय जोंक जैसे रेंगने वाले उस प्राणी से है जो दलदली, नम भूमि पर या कछारी क्षेत्र में पाया जाता है। यह शंखनुमा कवच में रहता है। चलते समय यह आवरण से बाहर निकलता है मगर इसकी रफ़्तार बहुत सुस्त रहती है। थोड़ी भी हलचल से घबराकर यह फिर अपने खोल में घुस जाता है। घोंघा शब्द में मुख्य आशय उस आश्रय से है जिसमें रेंगने वाला कीड़ा रहता है। यह आश्रय शंखनुमा घुमावदार, उभारदार वलयाकृति वाला होता है।
लिली टर्नर घोंघा शब्द की तुलना घेंघा से करते हैं। ध्यान रहे, घेंघा गले का एक रोग होता है जिसमें कण्ठनाल में एक उभार या गठान जैसा आकार बन जाता है। घोंघा की रचना में भी उभार ही प्रमुख हैं। टर्नर के कोश में घेंटु यानी गला अथवा गर्दन का उल्लेख भी है और इसकी तुलना भी गले के घुमावदार उभार से की गई है। कण्ठ (गला ), गण्ड (उभार, ग्रन्थि), कण्ड (जोड़) जैसे शब्द एक ही कड़ी के हैं। गलगण्ड यानी गले का उभार। कई लोग इसे गले की घण्टी भी कहते हैं। घूर्णन (घुमाव), घूम, घूमना, घण्टा, घण्टी, घट, घाटी जैसे कई शब्दों में इसे समझा जा सकता है। ‘घ’ ध्वनि / वर्ण में निहित घुमाव का भाव घोंघा की सर्पिल गति से भी स्पष्ट है। मराठी में एक साँप का नाम ‘घोण’ है। मोनियर विलियम्स के कोश में भी घोण नाम के सर्प का उल्लेख है। स्पष्ट है कि घोंघा या घेंघा ( गले की ग्रन्थि ) में अनुकरणात्मकता है मगर इसका तार्किक रिश्ता ‘घ’ ध्वनि में निहित घुमाव के आशय से है।
घोंघा के साथ जुड़े बसन्त शब्द को बसन्त ऋतु से न जोड़ते हुए खड़ी बोली के ‘अन्त’ प्रत्यय से बना हुआ शब्द मानना चाहिए जैसे रटन्त। गौरतलब है इस प्रत्यय से अपनी आवश्यकतानुसार मुख-सुख के शब्द बनाए जाते रहे हैं मसलन, घुसन्त, उठन्त, घुमन्त, फिरन्त, चलन्त आदि। किसी विशिष्ट भाव के लिए बनाया गया पद रूढ़ भी हो सकता है। बसन्त के ‘बस’ में बैठने, स्थिर होने का भाव है। ‘बस’ से मराठी में ‘बसना’ क्रिया बनती है जिसका अर्थ है बैठना। हिन्दी का ‘बसना’ कुछ अलग अर्थवत्ता रखता है और इसमें निवास करने, स्थिर होने का भाव है। गुजराती में बैठिए के लिए ‘बेसो’ शब्द है। संस्कृत के वस् में बसने का भाव है और हिन्दी मराठी का बसना, इसी वस् से आ रहा है। आवास, निवास जैसे शब्द इसी मूल के हैं।  मूर्ख की तरह बैठे रहने वाले अर्थ में ‘बसन्त’ इसी तरह घोंघाबसन्त में रूढ़ हो गया होगा, ऐसा लगता है। यह भी सम्भव है कि ‘घोंघाबसन्त’ का अर्थ है वह जो खोल घुस कर बैठा रहे। घरघुस्सू व्यक्ति यान घर में घुस कर बैठे रहने वाले व्यक्ति को भी समाज में अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। बुद्ध मुद्रा में बैठे रहने वाले व्यक्ति के लिए भी आखिरकार गावदी के अर्थ में ‘बुद्धू’ शब्द रूढ़ हुआ और एकटक ताकते रहने वाले व्यक्ति को ‘मूढ़’ की संज्ञा दी गई।

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Monday, December 24, 2012

मोदी की जन्मकुंडली

gnatmodikhana[ शब्द संदर्भ- असबाबअहदीमुसद्दीमुनीमजागीरदार, तहसीलदारवज़ीरसर्राफ़नौकरचाकरनायबफ़ौजदार, पंसारीव्यापारीदुकानदारबनिया-बक्कालक़ानूनगोलवाजमा, चालानजमादारभंडारीकोठारीकिरानीचीज़गोदामअमीर, वायसराय ]
प्रा  यः सभी भाषाओं के बुनियादी शब्दभंडार में जिन ख़ास स्रोतों से शब्द आते हैं उनमें सैन्य-प्रशासन जैसे क्षेत्र भी है । ऐसा ही एक शब्द है ‘मोदी’ modi वणिक वर्ग का एक उपनाम भी है जैसे प्रसिद्ध व्यावसायिक घराना ‘मोदी’ के संस्थापक रायबहादुर गूजरमल मोदी । उपनामों पर अगर गौर करें तो अधिकांश उपनामों के निर्माण का आधार स्थानवाची या कर्मवाची है अर्थात उपनाम धारण करने वाले के निवास या उसके खानदानी पेशा का संकेत इसमें छुपा होता है जैसे दारूवाला ( मद्य व्यवसाय ) या पोखरियाल (पोखरा वाला अर्थात पोखरा का निवासी ) आदि । ऐसा ही एक नाम ‘मोदी’ है मगर दो अक्षरों के इस सरनेम से ऐसा कोई संकेत नहीं निकलता जिससे इसमें निहित व्यवसायगत या जातिगत संकेत मिलें । हम सिर्फ़ रूढ़ अर्थ में जानते हैं कि ‘मोदी’ बनिया जाति का एक उपनाम है और बनिया व्यापार करता है । किन्तु मोदी शब्द में व्यापार जैसी अर्थवत्ता भी नहीं है । जानते हैं ‘मोदी’ की जन्मकुंडली ।

ब्दकोशों में ‘मोदी’ शब्द के बारे में तसल्लीबख़्श जानकारियाँ नहीं मिलतीं । लगभग सभी शब्दकोशों में ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत के ‘मोद’ ( आनंद ) या मोदक ( लड्डू ) से जोड़ने का प्रयत्न नज़र आता है । खास बात यह भी कि तमाम कोशों में इसका अर्थ बनिया, अनाज का व्यापारी, नून-तेल-मिर्ची, आटा-दाल-चावल का आढ़ती, खाद्य सामग्री बेचने वाला परचूनिया, राशन-अनाज का किरानी आदि बताया गया है । ये सभी आशय संस्कृत के ‘मोद’ अर्थात आनंद, हर्ष, सुख के व्यावहारिक अर्थ से मेल नहीं खाते । जॉन प्लैट्स ‘मोदी’ का रिश्ता संस्कृत से जोड़ते हैं मगर उसका मूल नहीं बताते । यही नहीं, वे मोदी का मुख्य अर्थ मिठाईवाला या हलवाई बताते हैं । सम्भव है उनके दिमाग़ में ‘मोद’ से ‘मोदक’ अर्थात एक क़िस्म का लड्डू रहा हो । ‘मोदी’ का रिश्ता ‘मोदक’ से हिन्दी शब्दसागर में भी जोड़ा गया है, अलबत्ता ‘मोदक’ के अलावा उसके अरबी मूल का होने की सम्भावना भी जताई गई है । 

प्लैट्स के कोश में भी ‘मोदी’ को दुकानदार, बनिया, भंडारी आदि बताया गया है । गुजरात में मोढ़ वैश्य समुदायको मोढी भी कहा जाता है। इसका उच्चार भी कहीं कहीं मोदी की तरह किया जाता है। इस तरह यह स्थानवाची शब्द हुआ।  कुछ लोग सोचते हैं कि देशव्यापी मोदी का रिश्ता गुजरात के मोढेरा या गुजराती मोढ़ वैश्य समूदाय से है तो वह संकुचित दृष्टि है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में साहू तेली होते हैं। यह साहू मूलतः साह, साधु से ही आ रहा है। प्रभावशाली वर्ग। अरबी मोदी की तुलना में मोढी या मोढ़ उपसर्ग का अर्थ व्यापक है। मोढेरा से जिनका रिश्ता है वे सभी मोढ हैं। खास तौर पर वणिकों और ब्राह्मणों में आप्रवासन ज्यादा हुआ सो मोढेरा के लोग मोढ हो गए। गुजाराती विश्वकोश के मुताबिक मोढ़ समुदाय में ब्राह्मण, वैश्य, किरानी, तेली, पंसारी, साहूकार सब आ जाते हैं।
 

मारा मानना है कि ‘मोदी’ भी सैन्य शब्दावली से आया शब्द है । इसका रिश्ता सेना की रसद आपूर्ति व्यवस्था से है । ‘मोदी’ का निर्माण निश्चित ही मुस्लिम दौर में हुआ जब अरबी-फ़ारसी शब्दों की रच-बस भारतीय भाषाओं में हो रही थी । फ़ौजदार, जमादार, नायब, एहदी, बहादुर, नौकर, चाकर, ज़मींदार, कानूनगो, मुनीम समेत सैकड़ों अनेक शब्द गिनाए जा सकते हैं जो अरबी-फ़ारसी मूल के हैं और जिनका रिश्ता फ़ौज से रहा है । ‘मोदी’ भी मूल रूप से अरबी ज़बान से बरास्ता फ़ारसी, हिन्दी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में दाखिल हुआ । इतिहास-पुरातत्व के ख्यात विद्वान हँसमुख धीरजलाल साँकलिया ने गुजरात के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन में इसे अरबी मूल का माना है । हालाँकि एस. डब्ल्यू फ़ैलन की न्यू हिन्दुस्तानी इंग्लिश डिक्शनरी में भी ‘मोदी’ का रिश्ता मोदक अर्थात लड्डू से जोड़ा गया है । ध्यान रहे मोदक का रिश्ता ‘मोद’ अर्थात आनंद से हैं ।
मोदी शब्द के अरबी होने के कई प्रमाण हैं । औपनिवेशिक शब्दावली के प्रसिद्ध कोश हैंक्लिन-जैंक्लिन में भी बनिया प्रविष्टि के अंतर्गत ‘मोदी’ का भी उल्लेख है । इसमें लिखा है कि “रियासती दौर में लगान की वसूली अनाज के रूप में होती थी उसे जिस गोदाम में इकट्ठा किया जाता था उसे मोदीखाना कहते थे । व्यापारी के अर्थ में एक अन्य शब्द ‘मोदी’ भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका दर्ज़ा पंसारी या किरानी का है ।” आज भी देश के सैकड़ों शहरों-क़स्बों में ‘मोदीखाना’ नाम की इमारतें हैं जिनकी वजह से समूचे मोहल्ले या इलाक़े को भी मोदीखाना modikhana के नाम से जाना जाता है जैसे जयपुर का चौकड़ी मोदीख़ाना । इतिहास की क़िताबों में पंसारी या दुकानदार की अर्थवत्ता से इतर ‘मोदी’ शब्द के जो संदर्भ हैं उनमें उसे लगान अधिकार, कारिंदा, गुमाश्ता, दीवान, गाँव का मुखिया आदि बताया है। 

कृ.पा. कुलकर्णी के प्रसिद्ध मराठी व्युत्पत्तिकोश में ‘मोदी’ शब्द का अर्थ अनाज व्यापारी, दीवान, चौधरी, भंडारी आदि बताया है । ‘मोदी’ की व्युत्पत्ति अरबी के ‘मुदाई’ से बताई गई है जिसका अर्थ होता है विश्वस्त या भंडारी । मोदी के साथ ही मोदीखाना शब्द भी है जिसका अर्थ है फौजी रसद विभाग । ज़ाहिर है मोदी ही फ़ौजी रसद विभाग का प्रमुख यानी भंडारी हुआ । सिख विकी में भी मोदी शब्द का रिश्ता रसद, राशन, किराना से ही जुड़ता है न कि मिठाई या हलवाई से – “Modi Khana is a reference to a provision store or a food supplies store. It is referred to in the Janamsakhis of Guru Nanak when he worked in a food store in Sultanpur while staying in the town where his sister, Nanaki and her husband Bhai Jai Ram lived. ”  यही नहीं फारसी-मराठी कोशों में भी मोदी शब्द का उल्लेख है और इसका मूल ‘मुदाई’ बताया गया है ये अलग बात है कि अरबी, फ़ारसी, उर्दू कोशों में मुदाई शब्द नहीं मिलता । 
sutlerइंग्लिश-हिन्दुतानी, इंग्लिश-इंग्लिश, फ़ारसी-हिन्दी कोशों में मोदी का अर्थ सामान्य तौर पर आढ़ती ( grain merchant ) पंसारी ( grocer) बनिया ( trader ) विक्रेता ( vender ), व्यापारी ( Merchant ) दुकानदार ( shopkeeper ) के अलावा बतौर हलवाई या मिठाईवाला  'A sweetmeat-maker, a confectioner' भी मिलता है जिसका व्युत्पत्तिक सम्बन्ध कोशकारों नें ‘मोद’ या ‘मुद’ से जोड़ा है । ऐसा लगता है कि कोशकारों के मन में मोद = आनंद = मिठाई = हलवाई जैसा समीकरण रहा होगा अगर इसे किसी तरह कबूल भी कर लिया जाए तो भी यह मानना कठिन है कि हलवाई की अर्थवत्ता में पंसारी, आढ़ती, व्यापारी, बनिया, दुकानदार जैसे भाव कहाँ से समा गए ?

इसी कड़ी में क़रीब 110 साल पहले पोरबंदर रियासत के गजेटियर में ‘मोदी’ के बारे में लिखी ये पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं- “In order No. 45* dated 17-8-1901 published in State Gazette Vol. XV regarding the Modi's duty to be present when called to fix the Nirakh of the Modikhana, the word " Modi " includes gheevvalas, fuel sellers, grocers, sweetmeat sellers, butchers &c.( The Porbandar State directory (Volume 2)” गजेटियर यह भी लिखता है कि मोदीखाना के लिए साल में एक बार स्थानीय व्यापारियों में से किसी एक को ठेका दिया जाता था ।
डिक्शनरी ऑफ़ द प्रिन्सीपल लेंग्वेजेज़ स्पोकन इन द बेंगाल प्रेसिडेंसी में पी.एस. डी’रोजेरियो भी ग्रोसर अर्थात किरानी के पर्याय के लिए ‘मोदी’ शब्द ही बताते हैं । हालाँकि वे इसके बांग्ला रूप ‘मुदी’ का उल्लेख करते हैं । बांग्ला और मराठी में ‘मोदी’ के साथ ‘मुदी’ mudi शब्द भी मिलता है । अंग्रेजी में एक शब्द है सटलर sutler जो मध्यकालीन डच भाषा के soeteler से बना है अर्थात सेना के लिए खान-पान सेवा चलाने वाला व्यापारी । अधिकांश प्रसिद्ध कोशों के पुस्तकाकार या ऑनलाईन संस्करणों में इसका हिन्दी अनुवाद मोदी ही दिया हुआ है । ध्यान रहे सामान्य तौर पर कैंटीन का अर्थ भी रसोई ही होता है । फौजी छावनियों को केंटोनमेंट cantonment कहते हैं जिसका संक्षेप कैंट होता है । अंग्रेजी कोशों में भी कैंट का मूलार्थ फौजी छावनी में राशन की दुकान है । अरबी के ‘आमद्दा’ में राशन पहुँचाने, मदद पहुँचाने या आपूर्ति का भाव है । ग्रोसर या पंसारी के तौर पर अरबी में ‘मोदी’ शब्द नहीं मिलता और फ़ारसी में भी नहीं पर इससे मिलते जुलते शब्द हैं जैसे मद्दी ( विषय-वस्तुओं में रुचि रखनेवाला), मुअद्दी ( पहुँचानेवाला, भेजनेवाला ), मद्दा ( विषय-वस्तु, सामग्री, चीज़, पदार्थ ) आदि जिनसे फ़ारस या भारत की ज़मीन पर मोदी शब्द विकसित हुआ होगा और वहीं से अन्य मुस्लिम शासित इलाक़ों की बोलियों में यह रचा-बसा होगा । –जारी 
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Monday, October 29, 2012

रफूगरी, रफादफा, हाजत-रफा

पिछली कड़ियाँ- 1.‘बुनना’ है जीवन.2.उम्र की इमारत.3.‘समय’ की पहचान.darn 4. दफ़ा हो जाओ 

हि न्दी की अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने में विदेशज शब्दों के साथ-साथ युग्मपद और मुहावरे भी है शामिल हैं । रफ़ा-दफ़ा ऐसा ही युग्मपद है जिसका बोलचाल की भाषा में मुहावरेदार प्रयोग होता है । “रफ़ा-दफ़ा करना” यानी किसी मामले को निपटाना, किसी झगड़े को सुलझाना, विवादित स्थिति को टालना, दूर करना । रफ़ा-दफ़ा में नज़र आ रहे दोनो शब्द अरबी के हैं । यहाँ ‘दफ़ा’ का अर्थ ढकेलने, दूर करने से है । इसकी विस्तृत अर्थवत्ता के बारे में पिछली कड़ी में बात की जा चुकी है । रफा ( रफ़ा ) का मूल अरबी उच्चारण रफ़्अ है । फ़ारसी में भी इसका ‘रफ़्अ’ रूप ही इस्तेमाल होता है
फ्अ शब्द की अरबी धातु रा-फ़ा-ऐन ر-ف-ع है जिसमें मूलतः उन्नत करने, सुधारने, ठेलने का भाव है । अरबी क्रियापद है रफ़ाआ जिसमें मरम्मत करना, सुधारना, सीना, ठीक करना, उन्नत करना, तब्दील करना, हटाना जैसे भाव हैं । रफ़ा-दफ़ा में यही भाव है । आमतौर पर हाज़त-रफ़ा पद का प्रयोग भी शौच जाने के अर्थ में उत्तर भारत में इस्तेमाल होता है । जैसे “उनके लिए सुबह सुबह हाजत-रफा करना बड़ा मुश्किल काम था” । इसी कड़ी में आता है ‘रफू’ या ‘रफ़ू’ शब्द । सिलेसिलाए वस्त्र में खोंच लगने पर रफ़ू किया जाता है । इसक अन्तर्गत फटे हुए स्थान की खास तरीके से मरम्मत की जाती है । इसमें बारीक सुई से, जिस कपड़े की मरम्मत होनी है, उसी के अनावश्यक टुकड़े और धागे निकाल कर फटे हुए स्थान को इस खूबी से सिला जाता है कि सिलाई का पता नहीं चलता । यह सिलाई का हुनर है कि मरम्मतशुदा हिस्सा भी कपड़े के टैक्सचर ( बुनावट ) से मेल खाता लगता है ।
रअसल फटे कपड़ों की मरम्मत से विकसित हुई सिलाई की खास तकनीक ने धीरे धीरे कला का रूप ले लिया । फ़ारस में इसका विकास हुआ और मरम्मत के सामान्य उपाय से रफ़ू एक कलाविधा बन गई । फ़ारसी में इसे रफ़ूगरी कहते हैं । रफ़ूगरी यानी रफ़ूकारी । फ़ारसी में ‘करने’ के संदर्भ में ‘गरी’ और ‘कारी’ प्रत्यय प्रचलित हैं । भारोपीय भाषाओं में ‘क’ का रूपान्तर ‘ग’ वर्ण में होता है । वैदिक क्रिया ‘कृ’ इसके मूल में है जिसमें करने का भाव है । इंडो-ईरानी परिवार की भाषाओं में इनका प्रयोग देखने को मिलता है जैसे - कर ( बुनकर ) , कार ( कर्मकार, कलाकार, कुम्भकार ) , कारी ( कलाकारी , गुलकारी , फूलकारी ) , गार ( गुनहगार, रोज़गार ), गर ( रफ़ूगर, कारीगर, बाजीगर ) , गरी ( कारीगरी, रफ़ूगर, बाजीगरी ) आदि उदाहरण आम हैं । सो खोंच से बने छिद्र को उसी वस्त्र के टुकड़े और उसी के धागे से पूरने, भरने, बराबर करने की हुनरकारी ही रफ़ूगरी है । इस मुक़ाम पर रफ्अ में निहित सुधारने, उन्नत करने जैसे भावों को समझना आसान होगा ।
फ़ूगरी का कला के रूप में इतना विकास हुआ कि न सिर्फ़ फटे कपड़े की मरम्मत बल्कि गोटा-किनारी कशीदाकारी, फुलकारी जैसे सजावटी हुनर के रूप में भी कपड़ों को खूबसूरत बनाने में रफ़ूगरी का उपयोग होने लगा । सामान्य समस्या से निपटने की तरकीबें कैसे मूल्यवान हो जाती हैं, यह जानना दिलचस्प है । फटे कपड़े की मरम्मत थिगला लगा कर भी होती है । यह थिगला आज पैचवर्क जैसी कलाविधा के रूप में मशहूर है जो रफ़ूगरी का ही एक रूप है । रफ़ू का महत्व इतने पर ही खत्म नहीं हुआ । रफ्अ में सुधारना, उन्नत करना जैसे भावों के चलते ही रफ़ू शब्द का प्रयोग वाग्मिता या वक्तृत्व कला में भी होने लगा है । बातों के बाजीगरों को रफ़ूगरी भी आनी चाहिए । अपने तर्कों से दो असम्बद्ध बातों को मिला देना या वाक्पटुता के चलते अलग-अलग पटरी पर चल रहे वार्तलाप को सही दिशा में ले आना या विवाद को खत्म करना इसी रफ़ूगरी में आता है । ऐसे लोगो की वजह से ही ज़बानी विवाद रफ़ा-दफ़ा हो पाते हैं । कुल मिलाकर यह भी उन्नत तकनीक का मामला है ।
शब्द का इस्तेमाल एक अन्य लोकप्रिय युग्मपद में भी बखूबी नज़र आता है । रफूचक्कर या रफ़ूचक्कर भी हिन्दी का लोकप्रिय मुहावरा है जिसका अर्थ है चम्पत हो जाना, भाग जाना अथवा गायब हो जाना । रफ़ू की अर्थवत्ता समझ लेने के बाद रफ़ूचक्कर को समझना कठिन नहीं है । खोंच लगे स्थान पर रफ़ू करने के दो तरीके होते हैं । छोटा खोंच है तो उसी वस्त्र के धागे से सिलकर छिद्र को भर दिया जाता है । खोंच बड़ा है तो फटे स्थान पर उसी कपड़े का थिगला लगा कर गोलाई में रफ़ू कर दिया जाता है । माना जा सकता है कि चकरीनुमा इस थिगले से ही रफ़ूचक्कर शब्द निकला होगा । रफ़चक्कर में खोंच के गायब हो जाने के भाव का विस्तार है । इसका प्रयोग किसी भी चीज़ के देखते देखते ग़ायब हो जाने में होने लगा । चोरों और उठाईगीरों के सन्दर्भ में आज  रफ़ूचक्कर का इस्तेमाल ज्यादा होता है ।

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Monday, October 22, 2012

‘बुनना’ है जीवन

bayaज़रूर देखें-1. चादर. 2.प्रवीण.3. तन्तु.4. धागा. 5.बाँस.6.कातना.7. सूत 

जी वन का बुनाई से गहरा रिश्ता है । “झीनी झीनी बीनी चदरिया” वाली कबीर की जगप्रसिद्ध उक्ति में चादर ज़िंदगी का प्रतीक है । परमात्मा ने जीवनरूपी चादर को जितनी शिद्धत और मेहनत से महीन अंदाज़ में बुना था उसे सुर-नर-मुनि ने ओढ़ कर मैला कर दिया । कबीर बड़े समझदार हैं, उन्हें ज़िंदगी की कीमत पता है, सो इस चादर को उन्होंने इतने जतन से ओढ़ा कि खुद के साथ साथ पूरे ज़माने को संवार दिया । “दास कबीर जतन से ओढ़िन, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया”। कबीर जुलाहे थे, बुनकारी जानते थे । इसीलिए उन्होंने ज़िंदगी के लिए चादर जैसा सहज प्रतीक चुना । जन्म लेने के बाद हम सब महीन की बजाय मोटा कातते हैं, महीन की बजया  मोटो बुना जाता है । नतीजतन सुख नहीं मिलता । सुख की उधेड़बून में चादर मैली और जर्जर हो जाती है । इसलिए जिंदगी को सलीके से, महीन बुना जाना चाहिए । हि्न्दी के ‘वय’ शब्द का बुनाई से गहरा रिश्ता है ।
म्र या आयु के लिए हिन्दी में ‘वय’ शब्द भी प्रचलित है । मराठी में उम्र, आयु की तुलना में वय शब्द ज्यादा प्रचलित है । संस्कृत कोशों के अनुसार ‘व’ वर्ण में गति (वह > वहन > बहना या वेग), घर ( वास > आवास, निवास ), कपड़ा ( वस् > वस्त्र ) और बुनना (वयन) जैसे भाव हैं । इसके अतिरिक्त भुजा जो भार उठाती है ( वाह > बांह ) भी इसका अर्थ है । संस्कृत की ‘वे’ धातु में गूँथने, बुनने, बटने और बांधने का भाव प्रमुख है । वे का एक अर्थ पक्षी भी होता है क्योंकि वे चुन-चुन कर तिनकों को गूँथते हैं और अपना आवास बनाते हैं । ‘वे’ से ही बनता है वयन जिससे बयन > बउन > बुन > बुनन > बुनना जैसे रूप बने हैं । इससे ही बुनाई, बुनावट, बुनकर शब्दों का विकास हुआ । वस्त्र के अर्थ में बाना शब्द भी इसी कड़ी में आता है ।
मोनियर विलियम्स के अनुसार ‘वे’ धातु से ही बना है संस्कृत का वय शब्द जिसका अर्थ है वह जो बुनता है अर्थात जुलाहा, बुनकर । तन्तुवाय भी तत्सम शब्दावली में आता है जिसका अर्थ है तन्तुओं को बुनने वाला अर्थात जुलाहा । तन्तु से ही ताँत बना है जिसका मतलब होता है धागा और ताँती बुनकरों की एक जाति है । इसी तरह वय में आयु, उम्र का भाव भी है । वय की अगली कड़ी है वयस् आता है जिसका अर्थ है एक विशेष चिड़िया, कोई भी पक्षी, यौवन, आयु की कोई भी अवस्था, शारीरिक ऊर्जा, शक्ति, बल आदि । वय के जुलाहा और वयस के विशिष्ट चिड़िया वाले वाले अर्थ पर गौर करें । एक विशेष चिडिया को बया कहते हैं जो बेहद करीने और सुथरेपन के साथ तिनकों से अपना घोसला बनाती है मानो कलाकृति हो । बया को कारीगर चिड़िया अथवा जुलाहा की संज्ञा भी दी जाती है । बया, वय से ही बना है । घरोंदा किसी भी प्राणी के लिए जीवन को बचाए रखने का ठिकाना होता है । प्रत्येक को घर में ही शरण मिलती है । जीव कोख में पलता है । पैदा होने के बाद भी आश्रय में ही हम जीवन बुनते है । आयु की सार्थकता बीत जाने में नहीं, बुने जाने में है ।
वे में निहित गूँथना, बुनना, बटना जैसे भावों पर गौर करें । इससे ही बना है संस्कृत का वेन् शब्द । इसका एक अन्य रूप है वेण जिसका अर्थ है बाँस का सामान बनाने वाला कारीगर, संगीतकार । वेण से वेणी याद आती है ? वेणी अर्थात लम्बे बालों को गूँथकर बनाई गई शिखरिणी या चोटी । गूँथना भी बुनकारी है । इसी तरह बाँसो की खपच्चियों को भी गूँथकर, बुनकर डलिया, चटाई आदि बनाई जाती हैं । वंशकार जाति के लोग यह काम करते हैं । वेणु यानी बाँस, लम्बी घास की एक प्रजाति, सरकंडा । वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी होता है और चोटी भी । कृष्ण चोटियाँ बांधते थे इसलिए उनका नाम वेणुमाधव या वेणीमाधव भी है । इसका देशी रूप बेनीमाधव हो गया जो घटते घटते सिर्फ ‘बेनी’ रह गया और उधर माधव दुबला होकर ‘माधो’ बन गया । वेणि जहाँ चोटी है वहीं वेणी में चोटी के साथ धारा, नदी का अर्थ भी है । तीन धाराओं को त्रिवेणी कहते हैं ।
सी कड़ी में चर्चा कर लेते है वीणा शब्द की । आपटे कोश में के अनुसार वीणा का अर्थ सारंगी जैसा वाद्य, बीना, बताया गया है और इसकी व्युत्पत्ति ‘वी’ से बताई गई है । इसके अलावा इसका एक अन्य अर्थ विद्युत भी है। संस्कृत की ‘वी’ धातु में जाना, हिलना-डुलना, व्याप्त होना, पहुँचना जैसे भाव हैं। बिजली की तेज गति, चारों और व्याप्ति से भी वी में निहित अर्थ स्पष्ट है। विद्युत की व्युत्पत्ति भी वी+द्युति से बताई जाती है । ‘वी’ अर्थात व्याप्ति और द्युति यानी चमक, कांति, प्रकाश आदि । संस्कृत में वेण् या वेन् शब्द भी मिलते हैं जिनका अर्थ है जाना, हिलना-डुलना या बाजा बजाना । इसी क्रम में वेण् से बने वेण का अर्थ होता है गायक जाति का एक पुरुष । वेन में निहित एँठना, बटना जैसे भावों पर एक वाद्य के संदर्भ में विचार करने से स्पष्ट होता है कि यहाँ आशय तारों को कसने से ही है । प्रायः सभी तन्त्रीवाद्यों के तार घुण्डियों से बंधे रहते हैं जिने घुमा कर, एँठ कर तारों को कसा जाता है जिससे उनमें स्वरान्दोलन होता है ।
भारतीय भाषाओं में ‘न’ का ‘ण’ रूप भी सामान्य सी बात है । जल के अर्थ में पानी को मराठी, मालवी, राजस्थानी में पाणी कहा जाता है । इसी तरह वेन् का ही एक रूप वेण भी प्राचीनकाल में ही प्रचलित रहा होगा । वेन रूप से बीन, बीना जैसे रूप बने होंगे और वेण रूप से वीणा । मूलतः किसी ज़माने में वीणा बाँस से ही बनाई जाती रही होगी । आज भी उसमें बाँस का काफ़ी प्रयोग होता है । बाँस से वेणु अर्थात बाँसुरी भी बनती है । बाँस शब्द से ही बाँसुरी भी बना है और वेणु का अर्थ भी बाँस ही होता है । सो वेणु का एक अर्थ बाँसुरी भी हुआ । इसका रूपान्तर बीन हुआ । गौर करें बाँसुरी की तरह बीन सुषिर वाद्य है । निश्चित ही बाँस से बाँसुरी का आविष्कार आदिम समाजों में बहुत पहले हो गया था । बाँस के लम्बे पोले टुकड़े को जब तन्त्रीवाद्य का रूप दिया गया तो उसे भी इसी शृंखला में वीन्, वीण्, वीणा नाम मिला । वेणु यानी बंसी तो पहले से प्रचलित थी ही । संस्कृत धातु ‘वे’ की अर्थगर्भिता महत्वपूर्ण है जिसमें गति और बुनावट  की अर्थवत्ता है और इन दोनों का मेल ही जीवन है ।

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Friday, September 7, 2012

नाम में ही धरा है सब-कुछ !!

things

ना म में क्या रखा है ? शेक्सपीयर के प्रख्यात प्रेम-कथानक की नायिका जूलियट के मुँह से रोमियो के लिए निकला यह जुमला इस क़दर मक़बूल हुआ कि आज दुनियाभर में इसका इस्तेमाल मुहावरे की तरह किया जाता है । चूँकि ये बात इश्क के मद्देनज़र दुनिया के सामने आई और इश्क में सिवाय इश्क के कुछ भी ज़रूरी नहीं होता...तब रोमियो के इश्क में मुब्तिला जूलियट के इस जुमले को ज्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए । दुनियादारी में तो नाम ही सबकुछ है । यानी “बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ” जैसा नकारात्मक आशावाद आज ज्यादा चलन में है । ये नाम की महिमा है कि हर आशिक रोमियो, फरहाद, मजनू जैसे नामों से नवाज़ा जाता है और हर माशूक को जूलियट, शीरीं, लैला का नाम मिल जाता है । नाम दरअसल क्या है ? हमारी नज़रों के सामने, समूची सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं उनका परिचय करानेवाला शब्द ही नाम है । इसे संज्ञा भी कहा जाता है । संज्ञा हिन्दी का जाना पहचाना शब्द है । प्राथमिक व्याकरण के ज़रिए हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति इससे परिचित है । संज्ञा के दायरे में हर चीज़ है । जड-गतिशील, स्थूल-सूक्ष्म, दृष्य-अदृष्य, वास्तविक-काल्पनिक, पार्थिव-अपार्थिव इन सभी वर्गों में जो कुछ भी हमारी जानकारी में है, उसे संज्ञा कहा जा सकता है । संज्ञा के मूल में सम + ज्ञा है । सम अर्थात बराबर, पूरी तरह, एक जैसा आदि । अर्थात जिससे किसी पदार्थ के रूप, गुण, आयाम का भलीभाँति पता चले, वही संज्ञा है । संज्ञा यानी नाम ।
संस्कृत की ज्ञा धातु में जानने, समझने,बोध होने, अनुभव करने का भाव है । बेहद लोकप्रिय और बहुप्रचलिशब्द नाम के मूल में यही ज्ञा धातु है । अंग्रेजी के नेम name का भी इससे गहरा रिश्ता है । संस्कृत में ज्ञ अपने आप में स्वतंत्र अर्थ रखता है जिसका मतलब हुआ जाननेवाला, बुद्धिमान, बुध नक्षत्र और विद्वान। ज्ञा क्रिया का मतलब होता है सीखना, परिचित होना, विज्ञ होना, अनुभव करना आदि । संज्ञा में चेतना का भाव है और होश का भी । ये दोनो ही शब्द बोध कराने से जुड़े हैं । अचेत और बेहोश जैसे शब्दों में कुछ भी जानने योग्य न रहने का भाव है । संज्ञाशून्य, संज्ञाहीन यानी जिसे कुछ भी बोध न हो । ज्ञ दरअसल संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है । इसके उच्चारण में क्षेत्रीय भिन्नता है । मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ञ्ज ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है । भाषा विज्ञानियों ने प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए जो धातु ढूंढी है वह है gno यानी ग्नो । 
ज़रा गौर करें इस ग्नों से ग्न्य् की समानता पर । ये दोनों एक ही हैं। अब बात इसके अर्थ की । ज्ञा से बने ज्ञान का भी यही मतलब होता है। ज+ञ के उच्चार के आधार पर ज्ञान शब्द से जान अर्थात जानकारी, जानना जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। अनजान शब्द उर्दू का जान पड़ता है मगर वहां भी यह हिन्दी के प्रभाव में चलने लगा है । मूलतः यह हिन्दी के जान यानी ज्ञान से ही बना है जिसमें संस्कृत का अन् उपसर्ग लगा है । ज्ञा धातु में ठानना, खोज करना, निश्चय करना, घोषणा करना, सूचना देना, सहमत होना, आज्ञा देना आदि अर्थ भी समाहित हैं । यानी आज के इन्फॉरमेशन टेकनोलॉजी से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें अकेले इस वर्ण में समाई हैं । इन तमाम अर्थों में हिन्दी में आज अनुज्ञा, विज्ञ, प्रतिज्ञा और विज्ञान जैसे शब्द प्रचलित हैं। ज्ञा से बने कुछ अन्य महत्वपूर्ण शब्द ज्ञानी, ज्ञान, ज्ञापन खूब चलते हैं। गौर करें जिस तरह संस्कृत-हिन्दी में वर्ण में बदल जाता है वैसे ही यूरोपीय भाषा परिवार में भी होता है। प्राचीन भारोपीय भाषा फरिवार की धातु gno का ग्रीक रूप भी ग्नो ही रहा मगर लैटिन में बना gnoscere और फिर अंग्रेजी में ‘ग’ की जगह ‘क’ ने ले और gno का रूप हो गया know हो गया । बाद में नालेज जैसे कई अन्य शब्द भी बने। रूसी का ज्नान ( जानना ), अंग्रेजी का नोन ( ज्ञात ) और ग्रीक भाषा के गिग्नोस्को ( जानना ), ग्नोतॉस ( ज्ञान ) और ग्नोसिस (ज्ञान) एक ही समूह के सदस्य हैं । गौर करें हिन्दी-संस्कृत के ज्ञान शब्द से इन विजातीय शब्दों के अर्थ और ध्वनि साम्य पर ।
ब आते हैं नाम पर । संस्कृत में भी नाम शब्द है । इसका आदिरूप ज्ञाम अर्थात ग्नाम ( ग्याम नहीं ) रहा होगा, ऐसा डॉ रामविलास शर्मा समेत अनेक विद्वानों का मत है । ग्नाम से आदि स्थानीय व्यंजन का लोप होकर सिर्फ नाम शेष रहा । ज्ञाम से नाम के रूपान्तर का संकेत संस्कृत रूप नामन् से भी मिलता है । अवेस्ता में भी यह नाम / नामन् है । फ़ारसी में यह नाम / नामा हो जाता है । इसका लैटिन रूप नोमॅन है जो संस्कृत के नामन के समतुल्य है । नामवाची संज्ञा के अर्थ में अंग्रेजी का नेम name का विकास पोस्ट जर्मनिक के नेमॉन namon से हुआ । वाल्टर स्कीट के मुताबिक इसका सम्बन्ध लैटिन के नोमॅन और ग्रीक ग्नोमेन से है । लैटिन नोमॅन, ग्रीक ग्नोमेन gnomen से निकला है । मोनियर विलियम्स नामन् के मूल में ज्ञा अथवा म्ना धातुओं की संभाव्यता बताते हैं । विलियम व्हिटनी जैसे भारोपीय भाषाओं के विद्वानों के मुताबिक म्ना चिन्तन, मनन, दर्शन का भाव है । गौर करें कि ज्ञा और म्ना दोनो की अनुभूति एक ही है । नाम शब्द ज्ञा और ग्ना शब्दमूल से बना है ऐसा डॉ रामविलास शर्मा का मानना है । ज्ञा अर्थात gna । इसका एक रूप jna भी बनता है और kna भी (know में ) । ख्यात प्राच्यविद थियोडोर बेन्फे संस्कृत नामन् का एक रूप ज्नामन भी बताते हैं जो पूर्व वैदिक ग्नामन की ओर संकेत करता है । नाम का पूर्व रूप ग्नाम रहा होगा, यही बात डॉ रामविलास शर्मा भी कह रहे हैं । वाल्टर स्कीट की इंग्लिश एटिमोलॉ डिक्शनरी में भी ये दोनों रूप मिलते हैं । रूसी में इसका रूप ज्नामेनिए है ।
पनाम के लिए हिन्दी में सरनेम शब्द अपना लिया गया है । इसमें नेम वही है जो नाम है और अंग्रेजी के सर उपसर्ग में ऊपर, परे, उच्च वाला आशय है । सरनेम से आशय कुलनाम या समूह की उपाधि से है जो उसके सदस्यों की पहचान होती है । नाम से बने अनेक शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं मसलन नामक  का भी खूब इस्तेमाल होता है जिसमें नामधारी का भाव है । नामधारी यानी उस नाम से पहचाना जाने वाला । नाम रखने की प्रक्रिया नामकरण कहलाती है । गौर करें, संज्ञाकरण का अर्थ भी नाम रखना होता है । किसी सूची या दस्तावेज़ में नाम लिखवाने को नामांकन कहते हैं । मनोनयन के लिए नामित शब्द भी प्रचलित है । इसका फ़ारसी रूप नामज़द है । नामराशि शब्द भी आम है यानी एक ही नाम वाला । नामवर यानी प्रसिद्ध । नाममात्र यानी थोड़ी मात्रा में । नाम शब्द की मुहावरेदार अर्थवत्ता भी बोली-भाषा में सामने आती है । नामकरण तो नवजात का नाम रखने की क्रिया है पर नाम धरना या नाम रखना में नकारात्मक अर्थवत्ता है जिसका अर्थ होता है बुराई करना, निंदा करना आदि । नाम उछालना या नाम निकालना में भी ऐसे ही भाव हैं । नाम रोशन करना यानी अच्छे काम करना । कीर्ति बढ़ाना । प्रसिद्ध होना । नाम बिकना यानी खूब प्रभावी होना । नामो-निशां मिटना यानी सब कुछ खत्म हो जाना । नाम जपना यानी किसी का नाम रटना । किसी के प्रति आस्था जताना ।

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Friday, August 24, 2012

सपड़-सपड़ सूप

soup

चु स्की के लिए हिन्दी में सिप शब्द बेहद आसानी से समझा जाता है । सिप करने, चुसकने की लज़्ज़त जब ज्यादा ही बढ़ जाती है तब बात सपड़-सपड़ तक पहुँच जाती है जिसे अच्छा नहीं समझा जाता है । कहने की ज़रूरत नहीं की सिप करना, चुसकना और सपड़-सपड़ करने का रिश्ता किसी सूप जैसे पतले, तरल, शोरबेदार पदार्थ का स्वाद लेने की प्रक्रिया से जुड़ा है । सिप से सपड़ का सफर शिष्टता से अशिष्टता की ओर जाता है । सिप और सपड़-सपड़ तरल पदार्थ को सीधे बरास्ता होठ, जीभ के ज़रिये उदरस्थ करने की क्रिया है। सिप के ज़रिये ज़ायक़ा सिर्फ़ पीने वाले को महसूस होता है वहीं सपड़-सपड़ का चटखारा औरों को भी बेचैन कर देता है । गौरतलब है कि सूप शब्द आमतौर पर अंग्रेजी का समझा जाता है । हकीक़त यह है कि पाश्चात्य आहार-शिष्टाचार का प्रमुख हिस्सा सूप मूलतः भारतीय है । सूप, सिप, सपर, सपड़, सापड़ जैसे तमाम शब्द आपस में रिश्तेदार हैं । यही नहीं, इस शब्द शृंखला के शब्द विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में भी हैं जिनमें चुसकने, सुड़कने, सिप करने का भाव है ।
चुस्की के लिए सिप शब्द याद आता है । सूप शब्द भारोपीय मूल का है और इसका मूल भी संस्कृत का सूप शब्द ही माना जाता है । जिसे सिप किया जाए, वह सूप। इसी कड़ी में सपर भी है । द्रविड़ में सामान्य भोजन सापड़ है और इंग्लिश में सिर्फ़ रात का भोजन सपर है। ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य गौरतलब है । यह सामान्य बात है विभिन्न भाषिक केन्द्रों पर अनुकरणात्मक ध्वनियों से बने शब्दों का विकास एक सा रहा है। अंग्रेजी में रात के भोजन को सपर इसलिए कहा गया क्योंकि इसमें हल्का-फुल्का, तरल भोजन होता है। कई लोग रात में सिर्फ़ सूप ही लेते हैं । सपर का मूल सूप है । आप्टे और मो.विलियम्स के कोश में सूप का अर्थ रस, शोरबा, झोल, तरी जैसा पदार्थ ही कहा गया है । अंग्रेजी में यह तरल भोजन है । आप्टे कोश में सू+पा के ज़रिए इसे तरल पेय कहा गया है । यानी पीने की क्रिया से जोड़ा गया है । पकोर्नी इसकी मूल भारोपीय धातु सू seue बताते हैं जिसमें पीने की बात है । संस्कृत का सोम भी सू से ही व्युत्पन्न है । इसका अवेस्ता रूप होम है जिसमें पीने का आशय है । आदि-जर्मन रूप सप्प है । ज़ाहिर है प्राकृत, अपभ्रंश के ज़रिए हिन्दी का सपड़ रूप अलग से विकसित हुआ होगा और द्रविड़ सापड़ रूप अलग ।
वाशि आप्टे और मोनियर विलियम्स के कोश में सूप शब्द का अर्थ सॉस, तरी, शोरबा या झोलदार पदार्थ बताया गया है । हिन्दी शब्दसागर में इसे मूल रूप से संस्कृत शब्द बताते हुए इसके कई अर्थ दिए हैं जैसे मूँग, मसूर, अरहर आदि की पकी हुई दाल । दाल का जूस । रसा । रसे की तरकारी जैसे व्यंजन । संस्कृत में सूपक, सूपकर्ता या सूपकार जैसे शब्द हैं जिनका आशय भोजन बनाने वाला, रसोइया है । एटिमऑनलाईन के मुताबिक चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजी में सिप शब्द दाखिल हुआ । संभवतः इसकी आमद चालू जर्मन के सिप्पेन से हुई जिसका अर्थ था सिप करना । पुरानी अंग्रेजी में इसका रूप सुपेन हुआ जिसमें एकबारगी मुँह में कुछ डालने का भाव था । रॉल्फ़ लिली टर्नर के मुताबिक महाभारत में आहार के तरल रूप में ही सूप शब्द का उल्लेख हुआ है । हिन्दी शब्दसम्पदा में एक अन्य सूप भी है । बाँस से बनाए गए अनाज फटकने के चौड़े पात्र के रूप में इसकी अर्थवत्ता से सभी परिचित हैं । आम भारतीय रसोई के ज़रूरी उपकरणों में इसका भी शुमार है । अनाज फटकने का मक़सद मूलतः दानों और छिलकों को अलग करना है । भक्तियुगीन कवियों ने सूप शब्द का दार्शनिक अर्थों में प्रयोग किया है । कबीर की “सार सार सब गहि लहै, थोथा देहि उड़ाय ” जैसी इस कालजयी सूक्ति में सूप की ओर ही इशारा है ।
चूसना, चुसकना बहुत आम शब्द हैं और दिनभर में हमें कई बार इसके भाषायी और व्यावहारिक क्रियारूप देखने को मिलते हैं। यही बात चखना शब्द के बारे में भी सही बैठती है। ये लफ्ज भारतीय ईरानी मूल के शब्द समूह का हिस्सा हैं और संस्कृत के अलावा फारसी, हिन्दी और उर्दू के साथ ज्यादातर भारतीय भाषाओं में बोले-समझे जाते हैं। चूसना, चुसकना, चुसकी शब्द बने हैं संस्कृत की चुष् या चूष् धातु से जिसका क्रम कुछ यूँ रहा- चूष् > चूषणीयं > चूषणअं > चूसना। इस धातु का अर्थ है पीना, चूसना । चुष् से ही बना है चोष्यम् जिसके मायने भी चूसना ही होते हैं । मूलत: चूसने की क्रिया में रस प्रमुख है । अर्थात जिस चीज को चूसा जाता वह रसदार होती है । जाहिर है होठ और जीभ के सहयोग से उस वस्तु का सार ग्रहण करना ही चूसना हुआ । चुस्की, चुसकी, चस्का या चसका जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं । गौरतलब है कि किसी चीज का मजा लेने, उसे बार-बार करने की तीव्र इच्छा अथवा लत को भी चस्का ही कहते हैं । एकबारगी होठों के जरिये मुँह में ली जा चुकी मात्रा चुसकी / चुस्की कहलाती है । बर्फ के गोले और चूसने वाली गोली के लिए आमतौर पर चुस्की शब्द प्रचलित है। बच्चों के मुंह में डाली जाने वाली शहद से भरी रबर की पोटली भी चुसनी कहलाती है। इसके अलावा चुसवाना, चुसाई, चुसाना जैसे शब्द रूप भी इससे बने हैं ।
सी कतार में खड़ा है चषक जिसका मतलब होता है प्याला, कप, मदिरा-पात्र, सुरा-पात्र अथवा गिलास । एक खास किस्म की शराब के तौर पर भी चषक का उल्लेख मिलता है । इसके अलावा मधु अथवा शहद के लिए भी चषक शब्द है। इसी शब्द समूह का हिस्सा है चष् जिसका मतलब होता है खाना । हिन्दी में प्रचलित चखना इससे ही बना है जिसका अभिप्राय है स्वाद लेना । अब इस अर्थ और क्रिया पर गौर करें तो इस लफ्ज के कुछ अन्य मायने भी साफ होते हैं और कुछ मुहावरे नजर आने लगते हैं जैसे कंजूस मक्खीचूस अथवा खून चूसना वगैरह । किसी का शोषण करना, उसे खोखला कर देना, जमा-पूंजी निचोड़ लेना जैसी बातें भी चूसने के अर्थ में आ जाती हैं । यही चुष् फारसी में भी अलग अलग रूपों में मौजूद है मसलन चोशीद: या चोशीदा अर्थात चूसा हुआ । इससे ही बना है चोशीदगी यानी चूसने का भाव और चोशीदनी यानी चूसने के योग्य ।

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Sunday, August 5, 2012

सेवा का फल नमकीन

SEV

हि न्दी में दो तरह के सेव प्रचलित हैं । पहले क्रम पर है बेसन से बने नमकीन कुरकुरे सेव और दूसरा है मीठा-रसीला सेवफल जिसे सेव या सेब भी कहते हैं । खाने-पीने की तैयारशुदा सामग्री में सर्वाधिक लोकप्रिय अगर कोई वस्तु है तो वह है नमकीन सेव । प्रायः हर गली, हर दुकान और हर घर में यह मिल जाएगा । सुबह के नाश्ते में चाय के साथ और कुछ न हो तो सेव चलेगा । मालवी आदमी को तो सुबह शाम खाने के साथ भी सेव चाहिए । भारतीय खान-पान संस्कृति दुनिया भर में निराली है । सेव के साथ सिवँइयाँ अथवा सेवँई जैसे खाद्य पदार्थ भी रसोई की अहम् चीज़ें हैं । सेवँई या सिवँइयाँ मैदे से बनती हैं । शकर और दूध के साथ उबाल कर बनई गई सेवँई की खीर बेहद लज़ीज़ मीठा पकवान है । ध्यान रहे, सेव, सेवँई या सिवँईं जैसे नामों में मीठे या नमकीन होने की महिमा नहीं है बल्कि उनका धागे या सूत्रनुमा आकार ही ख़ास है ।
दिलचस्प बात यह भी है कि दोनो तरह के सेव का सम्बन्ध बोल-चाल की भाषा में बेहद प्रचलित सेवा, सेवक, सेविका जैसे शब्दों से भी हैं जिनमें सेवा करने का मूल भाव है और इनकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत की सेव् धातु से हुई है । संस्कृत की सेव् धातु में मूलतः करना, रहना, बारम्बार जैसे भाव हैं । मोनियर विलियम्स, रॉल्फ़ लिली टर्नर और वाशि आप्टे के कोशों के मुताबिक सेव् में सानिध्य, टहल, बहुधा, उपस्थिति, आज्ञाकारिता, पालना, बढ़ाना, विकसित करना, उत्तरदायित्व, समर्पण, खिदमत, देखभाल अथवा सहायता जैसे भाव हैं । इससे बने सेवा का मूलार्थ है देखभाल करना, सहकारी होना, समर्पित कर्म, टहल में रहना आदि । सेवक में उक्त सभी क्रियाओं में लगे रहने वाले व्यक्ति का भाव है । यूँ सेवक का अर्थ नौकर-चाकर, परिचर, सहकर्मी, अनुगामी, भक्त, अनुचर, आज्ञाकारी, भ्रत्य, वेतनभोगी आदि होता है । सेवक का स्त्रीवाची सेविका होता है । सेवा सम्बन्धी शब्दावली में अनेक शब्द हैं जैसे सेवा-पंजिका, सेवा-पुस्तिका, सेवाकर्मी, सेवानिवृत्त, सेवावधि, सेवामुक्त, समाजसेवा, समाजसेवी आदि । इसी कड़ी में सेवाशुल्क जैसा शब्द भी खड़ा है जिसका मूलार्थ है किसी काम के बदले किया जाने वाला भुगतान मगर अब सेवाशुल्क का अर्थ रिश्वत के अर्थ में ज्यादा होने लगा है ।
प्रश्न उठता है इस सेवाभावी सेव् से आहार शृंखला के सेव से सम्बन्ध की व्याख्या क्या हो सकती है ? सेव के आकार और उसे बनाने की प्राचीन विधि पर गौर करें । पुराने ज़माने में बेसन के आटे को गूँथ कर उसकी छोटी लोई को चकले पर रख कर हथेलियों से बारीक-बारीक बेला जाता था । बेलना शब्द का रिश्ता संस्कृत की बल् या वल् धातु से है जिसमें घुमाना, फेरना, चक्कर देना जैसे भाव हैं । लोई को घुमाने वाले उपकरण को भी बेलन इसीलिए कहते हैं क्योंकि इससे बेलने की क्रिया सम्पन्न होती है । जिससे बेला जाए, वह बेलन । गौर करें कि पत्थर या लकड़ी के जिस गोल आसन पर रख कर रोटी बेलते हैं उसे चकला कहते हैं । यह चकला शब्द चक्र से आ रहा है जिसमें गोल, घुमाव, राऊंड या सर्कल का भाव है । बेलने के आसन को चकला नाम इसलिए नहीं मिला क्योंकि वह गोल होता है बल्कि इसलिए मिला क्योंकि उस पर रख कर रोटी को चक्राकार बनाया जाता है । बेलने की क्रिया से कोई वस्तु चक्राकार, तश्तरीनुमा बनती है । तश्तरीनुमा आकार में बेलने के लिए आधार का समतल, ठोस होना ज़रूरी है न कि उसका गोल होना । अक्सर सभी चकले गोल नहीं होते । रोटी बनाने के लिए चकला और बेलन की ज़रूरत होती है, सेव या सेवँईं बनाने के लिए बेलन के स्थान पर चपटी सतह जैसे हथेली, होनी ज़रूरी है ।
राठी में सेवँई के लिए शिवई शब्द है जिसका मूल वही है जो हिन्दी सेवँई का है । मेरा मानना है कि नरम पिण्ड को चपटी सतह पर गोल गोल फिरा कर उसके सूत्र बनाने की तरकीब बाद में ईज़ाद हुई होगी, पहले ऐसा अंगूठे और उंगलियों की मदद से किया जाता रहा होगा । हाथ या उंगलियों लगे किसी चिपचिपे पदार्थ से छुटकारा पाने के लिए हाथों को आपस में मसलने या अंगूठे को उंगलियों पर रगड़ने की तरकीब की जानकारी मनुष्य को आदिमकाल में ही हो गई थी । इस तरह चिपचिपे पदार्थ पर दबाव पड़ने से उसके वलयाकार सूत्र बन कर हाथ से अलग हो जाते हैं । सेवँई के जन्मसूत्र का कुछ पता इसके मराठी पर्यायों से चलता है । मराठी में सेवँई को शेवई कहते हैं इसकी व्युत्पत्ति भी वही है जो हिन्दी में है । मराठी में शेवई के दो प्रकार हैं- हातशेवई और पाटशेवई । जैसा की नाम से ही स्पष्ट है, हातशेवई लोई को हथेली से रगड़ कर बनाए गए सूत्र को कहते हैं । इसका एक नाम बोटी भी है । मराठी में उंगली को बोट कहते हैं । उंगलियों से रगड़ कर बनाए गए महीन सूत्र के लिए बोटी नाम सार्थक है । प्रसंगवश, सेवँई को अंग्रेजी में वर्मीसेली कहते हैं जो मूलतः इतालवी भाषा से आयातित शब्द है और लैटिन के वर्मिस vermis से बना है जिसका मतलब होता है कृमी या रेंगनेवाला नन्हा कीड़ा । एटिमऑनलाइन के मुताबिक वर्म के मूल में भारोपीय भाषा परिवार की धातु wer है जिसमें घूमने, मुड़ने का भाव है । वृ बने वर्त या वर्तते में वही भाव हैं जो प्राचीन भारोपीय धातु वर् wer में हैं । गोल, चक्राकार के लिए हिन्दी संस्कृत का वृत्त शब्द भी इसी मूल से बना है । इतालवी वर्मीसेली  और हिन्दी के सेवँई का शब्द-निर्माण ध्यान देने योग्य है ।
रोटी के लिए मराठी में पोळी शब्द है । पूरणपोळी शब्द में यही पोळी है । पोळी बना है पल् धातु से जिसमें विस्तार, फैलाव, संरक्षण का भाव निहित है इस तरह पोळी का अर्थ हुआ जिसे फैलाया गया हो। बेलने के प्रक्रिया से रोटी विस्तार ही पाती है । पत्ते को संस्कृत में पल्लव कहा जाता है जो इसी धातु से बना है । पत्ते के आकार में पल् धातु का अर्थ स्पष्ट हो रहा है । पेड़ का वह अंग जो चपटा और विस्तारित होता है । हिन्दी का पेलना, पलाना, पलेवा जैसे शब्द जिनमें विस्तार और फैलाव का भाव निहित है इसी शृंखला में आते हैं । पालना शब्द पर गौर करें इसमें बारम्बारता, विस्तार, संरक्षण जैसे सभी भाव स्पष्ट हैं । कहने का तात्पर्य यह कि पल् धातु में जो भाव आटे की लोई को पोळी (रोटी) के रूप में विस्तारित करने में उभर रहा है वैसा ही कुछ सेव् धातु से बने सेव या सेवँई में भी हो रहा है । स्पष्ट है कि सेव् धातु से बने सेव में निहित बारम्बारता, बढ़ाना, विकसित करना और पालना जैसे अर्थ भी पल् की तरह हैं । बेसन या मैदे की लोई को चकले पर गोल-गोल घुमाने से  पतले, लम्बे,  धागेनुमा सूत्र के रूप में उसका आकार बढ़ता जाता है । यही सेव या सेवँई है । बेलने या घुमाने की क्रिया में बारम्बारता पर गौर करें तो भी सेव् क्रिया का अर्थ स्पष्ट होता है ।
सेवफल की बात । जिस तरह सेव या सेवँई में विस्तार, वृद्धि का भाव है, और सेव और सेवँई के आकार से यह अर्थ साफ़ नज़र भी आता है वहीं सेवफल को देखने से यह स्पष्ट नहीं होता । मोनियर विलियम्स के संस्कृत-इंग्लिश कोश में सेवि या सेव शब्द है जिसका अर्थ है सेवफल । मोनियर विलियम्स के कोश में सेवि शब्दान्तर्गत सेव का अर्थ बदरी यानी बेर भी बताया गया है । apple के अर्थ में हिन्दी सेव की व्युत्पत्ति संस्कृत की सिव् धातु से है जिसमें जिसमें नोक, काँटा जैसे भाव हैं । टर्नर कोश के मुताबिक फ़ारसी में सेव का सेब रूप है । इसी तरह उड़िया और गुजराती में भी सेब ही है इसलिए यह निश्चयूर्वक नहीं कहा जा सकता की भारतीय भाषाओं में सेव के सेब रूप के पीछे फ़ारसी का सेब है ।

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Sunday, July 15, 2012

हरजाई, हरफ़नमौला, हरकारा

हि न्दी के बुनियादी शब्दभंडार में तीन तरह के “हर” हैं । पहला ‘हर’ वह है जो संस्कृत की ‘हृ’ धातु से आ रहा है जिसमें ले जाने, दूर करने, पहुँचाने, खींचने, लाने जैसे भाव हैं । इससे बने ‘हर’ में भी यही भाव हैं । अक्सर इसका प्रयोग प्रत्यय की तरह होता है जैसे मराठी का वार्ताहर यानी समाचार लाने वाला, कब्ज़हर यानी कब्ज़ियत दूर करनेवाला । दुखहर यानी दुख दूर करने वाला । ‘हृ’ से ही हरण जैसा शब्द भी बना है । दूसरा ‘हर’ वह है जिसका अर्थ शिव है । हर-हर महादेव में यही हर है । इसका अर्थ विभाजन करना भी होता है । भारतीय अंक गणित में हर उस संख्या को कहते हैं जिससे दूसरी संख्या विभाजित होती है । तीसरा ‘हर’ वह है जिसका बोली-भाषा में सर्वाधिक इस्तेमाल होता है । ‘हर’ यानी प्रत्येक...एक-एक । यही इसका सबसे लोकप्रिय अर्थ है । वैसे ‘हर’ में सब कोई, सर्वसाधारण या सर्व का भाव भी है । हिन्दी का ‘हर’ फ़ारसी की देन होते हुए भी नितांत भारतीय है ।
फ़ारसी ज़बान आर्यभाषा परिवार की है और आधुनिक वर्गीकरण में इसे इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार के इंडो-ईरानी उपवर्ग में रखा जाता है । फ़ारसी भाषा के विकास में इरानी के मध्ययुगीन समाज की पहलवी भाषा और उससे भी प्राचीन अवेस्ता का योग रहा है । अवेस्ता और वैदिक संस्कृत में काफ़ी समानता है । इसके बावजूद कुछ प्रमुख फ़र्क़ भी हैं जैसे वैदिक ‘स’ ध्वनि ईरानी परिवार की भाषाओं में जाकर ‘ह’ में बदलती है । सर्वप्रिय उदाहरण ‘सप्त’ का ‘हप्त’ और ‘सिन्धु’ के ‘हिन्दू’ में बदलाव के हैं । भाषाविदों के मुताबिक वैदिक ‘सर्व’ का रूपान्तर ज़ेन्दावेस्ता में ‘हौर्व’   (haurva) होता है । मेकेन्जी के पहलवी कोश में इसका अर्थ all, each, every बताया गया है । इससे ही बना है पहलवी का ‘हरवीन’ जिसमें यही सब भाव हैं । मोहम्मद हैदरी मल्येरी के कोश में पूर्ण, समग्र के अर्थ वाले ग्रीक भाषा के होलोस ( holos ) की इससे रिश्तेदारी है । लैटिन भाषा में इन्ही भावों के लिए साल्वस salvus शब्द है । प्रोटो भारोपीय भाषा परिवार में इसके लिए *sol- धातु की कल्पना की गई है ।
हिन्दी में ‘हर’ शब्द की व्यापक मौजूदगी है । आम बोलचाल में इसका प्रयोग खूब होता है । हर रोज़, हर कोई, हर बार, हर तरफ़, हरसू, हर एक, हर दम, हर हाल में जैसे प्रयोग जाने पहचाने हैं और हिन्दी को मुहावरेदार अभिव्यक्ति देने में ये वाक्य खासे लोकप्रिय हैं । ‘हर’ से बनी कुछ संज्ञाएँ भी लोकप्रिय हैं जैसे ‘हर फ़न मौला’ । हिन्दी में अब इसे हरफ़नमौला की तरह ही लिखा जाता है जिसका अर्थ है किसी भी काम को कुशलतापूर्वक करने वाला । मराठी में इसे ‘हरहुन्नरी’ कहा जाता है । फ़ारसी-उर्दू में ‘हरबाबी’ शब्द भी इसी अर्थ में है । अभिहित करना ऐसा ही शब्द है ‘हर दिल अज़ीज़’ यानी सबका प्यारा । एक अन्य शब्द है ‘हरजाई’ जो स्त्रीवाची भी है और पुरुषवाची भी । ‘हरजाई’ का प्रयोग शायरी में बेवफ़ा प्रेमी, धोखेबाज प्रेमी के लिए खूब होता है । हरजाई  के ‘जाई’ में ‘जाना’ क्रिया को पहचानने से हसका अर्थ स्पष्ट होता है अर्थात कहीं भी, किधर भी घूमने वाला अर्थात आवारा, टहलुआ, भटकैंया, बेठिकाना आदि ।   मगर इसमें भाव स्थिर हुआ बेईमान, बेवफ़ा, धोखेबाज का । स्पष्ट है कि कहीं एक जगह स्थिर न होने वाला व्यक्ति ही आवारा होता है । ऐसा अस्थिरचित्त व्यक्ति ही होता है । मनचला इसी को कहते हैं । जिधर मन के, चल पड़े । स्त्रीवाची रूप में हिन्दी शब्दसागर कोश इसका अर्थ व्यभिचारिणी, कुलटा, वेश्या, रंडी जैसे अर्थ बताता है । स्त्री के लिए तो सभी समाजों का रवैया एक जैसा रहा है । जहाँ उसके लिए घर की देहरी लाँघना निषिद्ध हो वहाँ डोलने, फिरने वाली, मनचली प्रवृत्ति की स्त्री के लिए हरजाई शब्द  में कुलटा वेश्या जैसे भाव समाहित होने ही थे । 
संदेशवाहक के अर्थ में भारतीय ज़बानों में ‘हरकारा’ शब्द भी खूब प्रचलित है । यह भी फ़ारसी से हिन्दी में आया है । पुराने ज़माने में जब यातायात के साधन सुगम नहीं थे, दूर-दराज़ ठिकानों तक निरन्तर घुड़सवारों के ज़रिये संदेश पहुँचाए जाते थे । यह काम हरकारे करते थे । यूँ देखा जाए तो हरकारा शब्द ‘हर’ + ‘कारा’ से बना है । ‘हर’ यानी ‘सब’, ‘सर्वसाधारण’, ‘सभी तरह’, ‘सभी का’ आदि और ‘कारा’ यानी ‘काम करने वाला’ । ‘कारा’ बना है ‘कार’ से जिसके मूल में वैदिक ‘कार’ ही है जिसके मूल में ‘कृ’ धातु है जिसमें करने का भाव है । अवेस्ता, पहलवी और फ़ारसी में भी ‘कार’ रूप सुरक्षित है जिसमें बनाना, करना, प्रयास आदि भाव हैं । फ़ारसी, उर्दू हिन्दी में यह ‘कार’ प्रत्यय की तरह करने वाले के अर्थ में खूब प्रयोग होता है जैसे सरकार, पत्रकार, स्वर्णकार, ताम्रकार आदि । ‘कार’ की मौजूदगी कारकून, कार्रवाई, कार्यवाह, कारखाना, कारसाज़ आदि कई शब्दों में देखी जा सकती है । ‘हरकारा’ का अर्थ हुआ सब तरह के काम करने वाला । पुराने दौर में घर से बाहर के कामों को अंजाम देने के लिए अलग सेवक होते थे  जो अन्य कामों के साथ साथ चिट्ठीरसाँ यानी डाकिये की भूमिका भी निभाते थे ।

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Saturday, June 9, 2012

‘वक्ष’ और ‘बॉक्स’

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पि छले दिनों बक्सा, बकस, बॉक्स जैसे शब्दों के बारे में एक पोस्ट लिखी थी । 'शब्दों का सफर' के पहले पड़ाव की समीक्षा में हिन्दी के ख्यात विद्वान डॉ भगवान सिंह ने ‘बॉक्स’ की व्युत्पत्ति के बारे में महत्वपूर्ण बात कही है । उनका कहना है कि ‘संस्कृत का ‘वक्ष’ शब्द जिसे हम सीना, छाती के रूप में पहचानते हैं, उसकी अंग्रेजी के ‘बॉक्स’ से रिश्तेदारी है । वे कहते हैं- “वृक्ष का अर्थ है फैलना, ढकना, छाया देना...इसी से इसका एक अर्थ पेटी बना । ‘वृक्ष’ से ही ‘वक्ष’ बना । वक्ष ही अंग्रेजी का बॉक्स है ।“ बॉक्स बना है लैटिन के बक्सिस buxis या बक्सस buxus से जिनमें लकड़ी के संदूक या एक किस्म की झाड़ी का भाव है । विभिन्न संदर्भों के मुताबिक यह ग्रीक भाषा के पाइक्सोस pyxos से बना है । पाइक्सोस का एक और ग्रीक रूप पाइक्नोस भी है । वहीं चैम्बर्स डिक्शनरी में पाइक्नोस का अर्थ भरा हुआ, भीड़, समूह,  संकुल आदि बताया गया है । अंग्रेज़ी में एक बक्सम buxom भी है जो भरे हुए वक्षो का अर्थ देता है ।
मोनियर विलियम्स के कोश में ‘वृक्ष’ के पारम्परिक अर्थ अर्थात ऐसा पेड़ जिसमें फल, फूल, पत्ती आदि हों, के अलावा ‘वृक्ष’ के कुछ अन्य अर्थ भी है जैसे पेड़ का तना, शवपेटिका या एक ढाँचा (पेटी ?) आदि । मुझे ‘वृक्ष’ से ‘वक्ष’ की व्युत्पत्ति के प्रमाण न तो मोनियर विलियम्स के कोश में मिले और न ही वाशि आप्टे को कोश में । अलबत्ता ‘वृक्ष’ के तने वाले भाव का अर्थविकास वही है जो ‘पाइक्सोस’ या ‘पाइक्नोस’ से ‘बॉक्स’ या पेटिका का भाव ग्रहण करने में हुआ है । यह एक सहज प्रक्रिया है जो अलग अलग स्थानों के लोगों द्वारा प्राकृतिक चीज़ों के प्रति एक नज़रिये को दर्शाती है । ‘वक्ष’ में भी फैलने, विकसित होने, फूलने का भाव है । इसके अलावा हृदय-स्थल के तौर पर इसे एक कोटर भी समझा जाता है । इसी अर्थ में अंग्रेजी का ‘चेस्ट’ शब्द है जिसका अर्थ सीना भी है और पेटी भी । ‘वक्ष’ और ‘बॉक्स’ की साम्यता हो सकती है , पर ‘बॉक्स’ का विकास ‘पाइक्सोस’ या ‘पाइक्नोस’ से हुआ है । सीधे संस्कृत के ‘वक्ष’ से तो ‘बॉक्स’ बना नहीं होगा । इसी मुकाम पर पाश्चात्य भाषाविज्ञानियों की यह कल्पना ज्यादा तार्किक लगती है कि किसी काल में प्रोटो भारोपीय भाषा रही होगी जिसके विकास की दो दिशाएँ थीं-पूर्व और पश्चिम । ‘वक्ष’ या ‘बॉक्स’ का प्रोटो इंडो-यूरोपीयन मूल निश्चित ही काल्पनिक होगा, पर यह माना जा सकता है कि इन दोनों ही शब्दों का विकास एक ही प्राच्यभारोपीय भाषा से हुआ होगा ।
‘वक्ष’ के ‘वक्षस्’ रूप को देखें तो समझा जा सकता है कि ‘वक्ष’ का आदि रूप ‘वक्षस्’ रहा होगा । ‘वक्षस्’ और पाइक्सोस/ पाइक्सस में काफी समानता है । ये विकासक्रम की दो दिशाएँ हैं । ‘वक्षस’ से ‘वक्ष’ और ‘पाइक्सस’ से ‘बॉक्स’ । न कि सीधे ‘वक्ष’ से ‘बॉक्स’ की रचना । ‘पाइक्नोस’ शब्द में मूलतः सघनता पिण्ड का भाव था इसका पुख़्ता संकेत वाल्टर.पी. राइट के “इन्साक्लोपीडिया ऑफ़ गार्डनिंग” से मिलता है । वाल्टर के मुताबिक ‘पाइक्नोस’ का अर्थ है गहन, घनीभूत, भरपूर जिसे आमतौर पर लकड़ी के तने की चौड़ाई और उसकी मोटाई के संदर्भ में लिया जाता है । कुल मिलाकर संदूक निर्माण के लिए ‘वृक्ष’ को मुख्य स्रोत मानते हुए उसकी गुणवत्ता के ये आधार महत्वपूर्ण हैं और किसी बॉक्स ट्री में लकड़ी का भरपूर उपलब्धता सिद्ध होती है । यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रीक के ‘पाइक्नोस’ से ‘पाइक्सोस’ बना । इससे ही लैटिन का ‘बक्सस’ बना जिससे अंग्रेजी का ‘बॉक्स’ शब्द बना । मैं डॉ. भगवान सिंह की बात को अत्यंत महत्व देते हुए इस रूप में ‘बॉक्स’ का रिश्ता वक्ष से तार्किक मानता हूँ । साथ ही यह भी कहूँगा कि अपने तमाम शोध के दौरान मुझे कहीं भी ‘वक्ष’ और ‘बॉक्स’ की रिश्तेदारी का संदर्भ नहीं मिला ।

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Tuesday, April 3, 2012

तजुर्बाकारी की बातें

Scratchसम्बन्धित आलेख-1.मोची, मोजा, विमोचन और जुराब.2.लिफाफेबाजी और उधार की रिकवरी 3.चांदी का जूता, चंदन की चप्पल 4.जैकब, जैकेट और याकूब.5.जल्लाद, जल्दबाजी और जिल्दसाजी.6.सिर्फ मोटी खाल नहीं काफी…7.कृषक की कशमकश और फ़ाक़ाकशी

फ़ा रसी ज़बान से हिन्दी में आए अनेक शब्दों में तजुर्बा का भी शुमार है जिनका बोलचाल में रोज़ाना खूब इस्तेमाल होता है । तजुर्बा यानी अनुभव । अनुभव को भोगा हुआ यथार्थ भी कहा जाता है । आसान भाषा में समझना चाहें तो हमारे आसपास की वह सचाई जिसे इन्द्रियों के ज़रिए हमने जाना, परखा और फिर उसके बारे में अपनी राय कायम की, तजुर्बा बनती है । तजुर्बा मूलतः अरबी भाषा का शब्द है और हिन्दी में इसे अलग अलग ढंग से लिखा जाता है । हिन्दी के नामीगिरामी लेखकों के यहाँ इस शब्द की वर्तनी का बर्ताव अलग अलग मिलता है मसलन प्रेमचंद ने तजुर्बा भी लिखा है, तजरबा भी लिखा है और तजुरबा भी । इससे ज्यादा और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है । हिन्दी शब्दसागर तजरबा शब्द को तरजीह देता है जबकि ज्यादातर हिन्दी वाले तजुर्बा लिखना पसंद करते हैं । इसका शुद्ध अरबी रूप है तज्रिबह् या तज्रिबा । तजुर्बा में मूलतः अनुभव, प्रमाण, परीक्षण, सबूत, परीवीक्षण, जाँचना, कसौटी जैसे निहितार्थ है ।
रबी का तज्रिबा सेमिटिक धातु ज-र-ब ( j-r-b ) से बना है । हेन्स व्हेर, जे मिल्टन कोवेन, एन्थनी सेल्मॉन के अरबी कोश और बेवर्ली ई क्लैरिटी के इराकी अरेबिक कोशों को देखने के बाद यह स्पष्ट होता है कि इसमें मूलतः खुजली, खँरोंच और सूखी, पपड़ाई त्वचा जैसे मूल भाव हैं । विकास के दौर में मनुष्य ने काफ़ी वक्त उघाड़े बदन प्रकृति के सामीप्य में गुज़ारा है । खरोंच, ज़ख़्म, फोड़ा, फुंसी आदि को उसने सबसे पहले महसूस किया । ज-र-ब में इसी अर्थ में परीक्षण का भाव समाहित हुआ । किसी सतह को छू कर, स्पर्ष कर, कुरेद कर उसके बारे में जानना ही शुरुआती परीक्षण के दायरे में था । मद्दाह के कोश के मुताबिक ज-र-ब से जरब बनता है जिसका अर्थ है खुजली, ख़ारिश आदि । इससे ही जराब या जर्राब आते हैं जिसमें परीक्षण, आज़माईश, प्रयोग जैसे भाव हैं । इसी कड़ी में तज्रिबा बना जिसमें अनुभव वाली बात आती है । हिन्दी शब्दसागर के मुताबिक वह ज्ञान जो परीक्षण द्वारा पाया जाए, तजुर्बा कहलता है । वह परीक्षा जो ज्ञान प्राप्त करने के लिए दी जाए, यह भी तजुर्बा कहलाती है । अनुभवी के लिए तजुर्बेकार शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित है । अनाड़ी को नातजुर्बाकार और अनाड़ीपन, अनुभवहीनता को नातजुर्बाकारी ( नातज्रुबाकारी ) कहते हैं ।
-र-ब का उल्लेख जुराब की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में हो चुका है । जुराब के सन्दर्भ में इसमें निकटता, सामिप्य जैसे भाव इसे खाल या त्वचा से जोड़ते हैं । जुराब मूलतः चमड़े से बना एक आवरण होता है । तजुर्बा के सन्दर्भ में भी ज-र-ब धातु सामने आती है । अनुभूति दो तरह की होती है । भौतिक और मानसिक । अनुभव का दायरा व्यापक है और हमारे अनुभव में वही यथार्थ सामने आते हैं जो मानसिक प्रक्रिया से गुज़रने के बाद सच के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं । मगर आदिकाल में मनुष्य अपने अनुभवों के दायरे में भौतिक अनुभूतियाँ ज्यादा थीं । ज-र-ब का एक अर्थ होता है सूखी, मोटी, खुरदुरी, रूखी त्वचा या पपड़ाई हुई सतह । ध्यान रहे शरीर से अलग की गई खाल का यही रूप होता है । शरीर की त्वचा इसलिए होती है क्योंकि उसकी ऊपरी कोशिकाएँ मरने लगती हैं । यह परत अपने आप अलग हो जाती है । रूखी त्वचा का आभास हमें खुजली के रूप में होता है । ज-र-ब धातु में खुजली का भाव भी है । ध्यान रहे त्वचा, हमारा रक्षा कवच है और इसका दूसरा महत्वपूर्ण गुण है अनुभूति होना । त्वचा बना है त्वच् धातु से जिसका मूलार्थ है स्पर्श । स्पष्ट है कि ज-र-ब का मूलार्थ भी स्पर्श के ज़रिये अनुभूति तक सीमित था किसी ज़माने में ।
सेमिटिक भाषा परिवार में और वर्ण आपस में बदलते हैं । ज-र-ब की समानधर्मा धातु है ज-र-र ( j-r-r )  जिसमें खींचने, कुरेदने का भाव है । शल्य चिकित्सक या सर्जन के लिए अरबी में जर्राह शब्द है जो चीरफ़ाड़ करके ज़ख्मों का इलाज करता है । यह शब्द पहले हिन्दुस्तानी में भी प्रचलित था, अब इसका प्रयोग कम हुआ है । जर्राह वाली चीरफ़ाड़ को खंरोंचना, कुरेदना वाले अर्थों में परखा जाए तो यह भी उसी मूल का शब्द निकलता है । इसी कड़ी में जरीब का परीक्षण भी कर लिया जाए । पुराने ज़माने में ज़मीन की नाप-जोख करने वाले व्यक्ति को जरीबकश कहते थे । मूलतः जरीब वह साँकलनुमा औज़ार होता था जिससे ज़मीन की पैमाईश होती थी । एक तरह से वह इंचटेप था । इसके दोनों छोरों पर लकड़ी या धातु का कीला होता था । एक सिरे पर इस कीले को गाड़ कर बाकी जंजीर को खींच कर दूसरे छोर तक ले जाया जाता था । ज़मीन पर लगातार रगड़ने की वजह से उसे धातु का बनाया जाता था । जरीब में उपजाऊ ज़मीन का आशय भी है और भूमि का नापने की एक इकाई भी जरीब कहलाती थी ।
गौर करें कि उपजाऊ ज़मीन ही जोती जाती है । जोतने की क्रिया को ही कृषि कहते हैं । संस्कृत में कृष् का अर्थ खींचना, खरोचना ही होता है । जोतने की क्रिया में हल का खींचना, उसके फाल से भूमि को कुरेदने, खरोचने की क्रिया स्पष्ट है । जरीब के जर्र में खींचने का निहितार्थ पैमाने के अर्थ में भी है और जोतने योग्य भूमि के अर्थ में भी । हिन्दी शब्दसागर में जरीब की माप 55 गज की और अग्रेजी जरीब 60 गज की होती है । एक जरीब में 20 कट्ठे होते हैं । जॉन प्लैट्स के मुताबिक एक जरीब भूमि का वर्गाकार टुकड़ा एक बीघा ज़मीन होती थी । इसी तरह पाँच जरीब का टुकड़ा एक हेक्टेयर के बराबर होता है ।

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