पिछली कड़ी-कभी धूप, कभी छाँव [बकलमखुद-112]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 113वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं। बे टी वनस्थली विद्यापीठ गई उसी साल बेटे ने उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी की थी। उस के अपने भविष्य के लिए मार्ग चुनने का अवसर आ चुका था। सरदार के सुझाव पर उस ने राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा दी, लेकिन सफलता नहीं मिली। इंजीनियरिंग में प्रवेश परीक्षा की सफलता भी इच्छित शाखा प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं थी। कोटा की रवायत के मुताबिक उसे भी सुझाव मिले कि वह एक वर्ष कोचिंग ले कर आईआईटी या इंजीनियरिंग में प्रवेश के लिए यत्न करे। लेकिन बेटा इस के लिए अपना साल बरबाद करने को तैयार था, उस ने बीएससी आईटी में प्रवेश ले लिया। अब दोनों संताने अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही थीं। खर्चे बढ़ चुके थे, कोई बचत नहीं थी, ऊपर से मकान और कार ऋणों की किस्तें देनी पड़ती थीं।
आप उन्हें क्या देते थे ?
सब कुछ अपने दम-खम पर ही करना था। अब तक एलआईसी और एक जनरल बीमा कंपनी उस के स्थाई मुवक्किल थे जो उसे लगातार अच्छा काम दे रहे थे। उसे विश्वास था कि वह अपने काम में और विस्तार कर सकेगा। उन्हीं दिनों जनरल बीमा कंपनी के डीएम का तबादला हो गया। नया डीएम आया तो लोगों ने कहा उस की मिजाजपुर्सी की जाए। कंपनी के कर्मचारियों के बहुत कहने पर वह एक दिन नए डीएम से मिल भी आया। जब काम वितरण का अवसर आया तो उसे काम भी मिला। सरदार को किसी मुकदमे के सिलसिले में डीएम ने बुलाया। केस पर बात करने में उस ने कोई रुचि नहीं ली और पूछ बैठा –आप पुराने डीएम को क्या देते थे?
उसूल पर फिर अटकी गाड़ी
सरदार के लिए यह प्रश्न बहुत अप्रत्याशित था। उस ने सुना तो बहुत था कि फीस में से कमीशन देने वाले वकीलों को अधिक काम मिलता है। लेकिन उसे इस का कभी अनुभव नहीं था। एक दो कंपनियों के अधिकारियों ने उसे काम देने के लिए इस तरह का प्रस्ताव किया था। लेकिन उस ने इन कंपनियों की और फिर रुख न किया। उस ने अपने काम की गुणवत्ता पर ही काम प्राप्त करना जारी रखा था। सरदार ने नए डीएम को जवाब दिया कि हम तो काम कर के देते हैं, और पूरी फीस लेते हैं। उस दिन के बाद सरदार को कंपनी से काम मिलना बंद हो गया। यह बहुत बड़ा झटका था। उस की आय का 25% इसी कंपनी से था। कुछ दिन बाद डीएम काम में नुक्स निकालने लगा। जब भी बात करता कंपनी के सभी कर्मचारियों और दूसरे प्रोफेशनल्स को गली के स्तर की गालियाँ देता रहता। उसे सहन करना कठिन हो गया था। एक दिन सरदार के मुहँ से निकल गया, आप जिस काम में समझते नहीं उस में नुक्स निकालते हैं और काम देते नहीं। डीएम अपनी पर आ गया। गालियाँ देते हुए चेंबर से निकल कर कर्मचारियों के हॉल में आ गया। सरदार को अपमान बर्दाश्त न हुआ। उस ने वहीं डीएम को डपटना आरंभ कर दिया। यदि अपने पेशे का ख्याल न होता तो वह उस दिन शायद उस पर हाथ भी उठा चुका होता। कर्मचारी बीच में पड़े, डीएम से सरदार की और सरदार से डीएंम की तारीफ करने लगे। सरदार ने कर्मचारियों को बताया कि जिस की तुम तारीफ कर रहे हो वह पीठ पीछे उन्हें रोज सौ-सौ गालियाँ देता है और सब को बेईमान बताता है। सरदार ने कंपनी जाना बंद कर दिया। उन्हीं दिनों एलआईसी की सहयोगी कंपनी एलआईसी फाईनेंस का काम बढ़ गया। जिस ने उसे कुछ राहत तो दी लेकिन यह बढ़े हुए खर्चों की पूर्ति के लिए यह राहत पर्याप्त नहीं थी।
कम्प्यूटर के कीबोर्ड से दोस्ती
अदालतों में टाइपिंग का काम मेकेनिकल टाइपराइटर से कम्प्यूटरों पर जा रहा था। इन से होने वाली टाइपिंग सुंदर होती और पूरा दस्तावेज लिखा देने के बाद भी उस में सुधार का अवसर रहता। यदि खुद का कम्प्यूटर हो तो एक जैसे दस्तावेजों को टाइप करना और आसान हो जाता। यह सब देखते हुए सरदार को अपने कार्यालय में कंप्यूटर की जरूरत महसूस होने लगी थी, लेकिन खर्चे उसे लाने को रोकते। कॉलेज के दूसरे ही वर्ष में बेटे को घर पर कम्प्यूटर की जरूरत हुई तो कम्प्यूटर लाना ही पड़ा। एक पार्ट टाइम ऑपरेटर लगा लिया। बेटा कंप्यूटर को रात दस बजे के बाद ही हाथ लगाता तब तक उस पर वकालत का काम होने लगा। इस से सरदार के काम की गुणवत्ता में बहुत सुधार हुआ। उसे लगता कि यदि वह खुद टाइपिंग सीख ले तो बहुत नए प्रयोग कर सकता है। अंग्रेजी टाइपिंग तो ट्यूटर ने उसे सिखा दी, लेकिन हिन्दी तो जरूरी थी। अदालत का सारा काम तो यहाँ हिन्दी में ही है। उस के लिए किसी ने टाइपिंग ट्यूटर नहीं बताया। उस का क्या किया जाए? बहुत सोचने पर हल निकला कि मैकेनिकल के लिए जो टाइपट्यूटर पुस्तकें आती हैं उन्हीं की मदद ली जाए। उन से अपने लिए एक काम चलाऊ ट्यूटर वर्ड फाइल में बनाया और कृतिदेव फोंट में टाइप करना सीख लिया। दो माह में काम चलाऊ टाइपिंग शुरू हो गई। उस ने अपने मुंशी को भी बहुत कहा कि वह टाइपिंग सीख ले। पर उस की की समझ में यह घुसा हुआ था कि वह बयालीस की उम्र में टाइपिंग नहीं सीख सकता। वह नहीं सीख सका। उस से दस वर्ष अधिक उम्र में सरदार सीख गया।
इंटरनेट से साबका, बिल ने डराया…
इस बीच इंटरनेट का महत्व समझ में आने लगा था। सुप्रीमकोर्ट और कुछ हाईकोर्टों के निर्णय दूसरे ही दिन डाउनलोड के लिए उपलब्ध होने लगे थे। सोच बनने लगी कि नेट कनेक्शन ले ही लिया जाए। नगर में ब्रॉडबैंड सेवा आरंभ हुई तो बेटा कहने लगा कनेक्शन के लिए आवेदन कर दिया जाए। सरदार तो स्वयं भी यही चाहता था। कनेक्शन के लिए आवेदन किया और सप्ताह भर में कनेक्शन लग गया। एक नई दुनिया उस के कार्यालय में पहुँच चुकी थी। इसे देखा तो ऐसा लगा जैसे दूसरी दुनिया में पहुँच गए हों। हुआ भी यही, जब पहला बिल आया तो उस ने वास्तव में दूसरी दुनिया दिखा दी। सरदार समझा ही नहीं था कि डाउनलोड-अपलोड में क्या-क्या शामिल है? साढ़े तीन हजार से अधिक के इस बिल ने समझा दिया था कि जो कुछ भी हम संकेत भेजते हैं और जो भी संकेत हमें प्राप्त होते हैं सभी इस में सम्मिलित हैं। उस के बाद कनेक्शन कुछ नियंत्रित हुआ। इस बीच बेटी गणितीय विज्ञान में सांख्यिकी के साथ स्नातकोत्तर हो गई और उस ने आगे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए जनसंख्या विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान में जनसंख्या विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि के लिए आवेदन किया और प्रवेश पा लिया। वह मुम्बई पहुँच गई। इसी वर्ष बेटा भी स्नातक हो गया था वह पहले ही तय कर चुका था कि वह इंदौर से एमसीए करेगा। चूजों के पंख लग चुके थे वे जनक-जननी को छोड़ अपने अपने जीवन पथ की उड़ान के अभ्यास पर निकल पड़े थे।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें |
10 कमेंट्स:
बहुत दिलचस्प सफर है। चूजों को ही नहीं, पंख तो आपको भी लगे पहले कम्प्यूटर और फिर इंटरनेट के अनंत आसमान को देख कर। इन्हीं पंखों की बदौलत हम आपका बकलमखुद भी पढ़ पा रहे हैं। लगता है, अब ब्लागिंग की शुरुआत होने ही वाली है।
बहुत ही बढिया जा रही है सरदार की कहानी । आगे आपके अदालती ब्लॉग्ज का भी जिक्र आयेगा । कंपनी के डीएम का किस्सा जबरदस्त ।
दुनियावी मामले में खा गए एक जगह न तगडा गच्चा ! मगर किया क्या जाय कुछ ऐसे मामलातों में बहुत प्रवीण होते हैं और कुछ आप और मेरे जैसे होते हैं ...खैर जो हुआ अच्छा हुआ ! हर किसी बात का एक उज्जवल पहलू भी होता है ! आगे इंतज़ार है !
चूजों को पंख क्या लगाना थाजी..पंख तो लगे ही थे...उड़ान भरने की देर थी..सो वो भी हो ली.....
सभी के साथ यही प्रक्रिया है...
अच्छा लगा पढ़कर.
क्या मेरी क्या आपकी, सबकी बात समान..
रोता जब जब आदमी, हंसता सकल जहान...
दिनेश जी ,रोचक होने के साथ प्रेरणादायक भी है आप की यह यात्रा /
हार्दिक शुभ कामनाएं
डॉ.भूपेन्द्र
बहुत बढ़िया!
प्रेरणा देने वाला संस्मरण।
उड़न जी का कहना ठीक है
उड़ान तो निश्चित रह्ती है
पंख तो लगे ही रहते हैं
रोचक, प्रेरणादायक संस्मरण
बी एस पाबला
अब तो इन्टरनेट आ गया, ब्लॉग के कीडे ने कब और कैसे काटा ये जानते हैं अब.
बेहद रोचक कड़ी आ जुडी है --
कहाँ दादा जी का समय
मंदिर के आँगन से चलते हुए ,
अब इन्टरनेट का विश्व व्यापी व्यवहार !!
वाह .....
Post a Comment