[शब्दों का सफ़र बीते पांच वर्षों से प्रति रविवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित होता है]
Sunday, November 29, 2009
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16.चंद्रभूषण-
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15.दिनेशराय द्विवेदी-[1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22.]
13.रंजना भाटिया-
12.अभिषेक ओझा-
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11.प्रभाकर पाण्डेय-
10.हर्षवर्धन-
9.अरुण अरोरा-
8.बेजी-
7. अफ़लातून-
6.शिवकुमार मिश्र -
5.मीनाक्षी-
4.काकेश-
3.लावण्या शाह-
1.अनिताकुमार-
मुहावरा अरबी के हौर शब्द से जन्मा है जिसके मायने हैं परस्पर वार्तालाप, संवाद।
लंबी ज़ुबान -इस बार जानते हैं ज़ुबान को जो देखते हैं कितनी लंबी है और कहां-कहा समायी है। ज़बान यूं तो मुँह में ही समायी रहती है मगर जब चलने लगती है तो मुहावरा बन जाती है । ज़बान चलाना के मायने हुए उद्दंडता के साथ बोलना। ज्यादा चलने से ज़बान पर लगाम हट जाती है और बदतमीज़ी समझी जाती है। इसी तरह जब ज़बान लंबी हो जाती है तो भी मुश्किल । ज़बान लंबी होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है ज़बान दराज़ करदन यानी लंबी जीभ होना अर्थात उद्दंडतापूर्वक बोलना।
दांत खट्टे करना- किसी को मात देने, पराजित करने के अर्थ में अक्सर इस मुहावरे का प्रयोग होता है। दांत किरकिरे होना में भी यही भाव शामिल है। दांत टूटना या दांत तोड़ना भी निरस्त्र हो जाने के अर्थ में प्रयोग होता है। दांत खट्टे होना या दांत खट्टे होना मुहावरे की मूल फारसी कहन है -दंदां तुर्श करदन
अक्ल गुम होना- हिन्दी में बुद्धि भ्रष्ट होना, या दिमाग काम न करना आदि अर्थों में अक्ल गुम होना मुहावरा खूब चलता है। अक्ल का घास चरने जाना भी दिमाग सही ठिकाने न होने की वजह से होता है। इसे ही अक्ल का ठिकाने न होना भी कहा जाता है। और जब कोई चीज़ ठिकाने न हो तो ठिकाने लगा दी जाती है। जाहिर है ठिकाने लगाने की प्रक्रिया यादगार रहती है। बहरहाल अक्ल गुम होना फारसी मूल का मुहावरा है और अक्ल गुमशुदन के तौर पर इस्तेमाल होता है।
दांतों तले उंगली दबाना - इस मुहावरे का मतलब होता है आश्चर्यचकित होना। डॉ भोलानाथ तिवारी के मुताबिक इस मुहावरे की आमद हिन्दी में फारसी से हुई है फारसी में इसका रूप है- अंगुश्त ब दन्दां ।
10 कमेंट्स:
अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
बधाई स्वीकार करें!
bबहुत बडिया इसे पहले पढ चुकी हूँ धन्यवाद्
शब्दों के समूह से ऊह निकला, चक्रो के व्यूह से पोह,
असमंजस अपना ख़त्म हुआ, आरोह है न अब अवरोह.
जनता के समूह को क्या कीजे जो खो दे समझ अपनी,
शब्दों के शिकारी, आप तो अपनी जारी रखिये टोह.
सुंदर! पर रविवार को राजस्थान वाले संस्करणों में यह स्तंभ नहीं होता।
बेहद खूबसूरत प्रविष्टि । चित्र की स्कैनिंग और उसकी एडिटिंग इतनी बेहतर है कि मूल रूप में आसानी से पढ़ा जा सकता है इसे । आभार ।
बहुत अच्छी जानकारी दी , अजित जी.
पढ़कर अच्छा लगा. बधाई
सुंदर आलेख। हमारा ज्ञान बढ़ा।
दिनेशरायजी सही कह रहे हैं। आपका ब्लॉग शुरू होने से काफ़ी पहले तो रविवार को आपका स्तंभ छपता था जिसे मैं फ़ौरी तौर पर पढ़ता था। आपके लेखों का महत्ता मैंने अरसे बाद समझी।
एक वाक़या तो ये है कि मैं अपने दफ़्तर को दफ़्तर बोलता था, ऑफ़िस नहीं। मेरे साथ वाले मेरी भद्द उड़ाते थे। आपकी एक पोस्ट में मैंने दफ़्तर के मूल के बारे में पढ़ा तो मेरी झेंप जाती रही।
सटीक अर्थ परिचय..
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