मातृभाषा शब्द को लेकर दुनियाभर में ज्यादातर लोग भ्रांति पालते हैं। अक्सर मातृभाषा शब्द का अभिप्राय उस भाषा से लगाया जाता है जिसे मां बोलती है। यह बहस हमारे परिवार में भी पिछले दिनों चली। अहिन्दीभाषी कहलाने के बावजूद हम सभी जन्म से हिन्दीभाषी हैं। मेरे सभी कुटुम्बी अब देश के अलग-अलग हिस्सों में बसे हैं। निरन्तर आपसी संवाद के लिए हमने गूगल ग्रुप पर एक समूह – कम्पुकुल बनाया हुआ है। हर रोज हम सभी कुटुम्बी इसके जरिये एक दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं और पारिवारिक से लेकर समाज, राजनीति व तमाम दीगर मुद्दों पर चर्चाएं करते हैं। इससे हटकर रोजमर्रा के तीज-त्योहार और जन्मदिवसीय शुभकामनाओं का आदान-प्रदान भी होता है। औसतन प्रतिदिन इस पर तीस-पैंतीस मेल्स का ट्रैफिक रहता है। पिछले दिनों अनायास मातृभाषा पर बहस छिड़ गई। मुद्दा था, मातृभाषा वह है, जिसे मां बोलती है। मैं इस दृष्टिकोण को नहीं मानता, बल्कि परिवेश में जननि भाव देखते हुए, परिवेश की भाषा को ही मातृभाषा मानता हूं। इस संदर्भ में मैने अपना जो नज़रिया कम्पूकुल के सामने रखा, उसे आपके सामने भी ला रहा हूं क्योंकि शब्दों का सफर भाषा से जुड़ा ब्लाग है, इस नाते इसके पाठक भी कम्पुकुलीन ही हुए। यह काफी लम्बा है इसलिए इसे तीन किस्तों में बांटा है। इसे पढ़ते समय यह तथ्य ध्यान रखें कि हमारे परिवार मे गैर मराठी वैवाहिक संबंध भी हुए हैं। सवाल ही इसलिए उत्पन्न हुआ कि मेरे ममेरे भाइयों (सौरभ बुधकर, पल्लव बुधकर) की मातृभाषा मराठी होगी या हिन्दी। क्योंकि मेरी मामी श्रीमती संगीता बुधकर (शर्मा) हिन्दीभाषी हैं। आपकी बेशकीमती राय की प्रतीक्षा रहेगी।
मातृभाषा शब्द की भूमिका-
मुद्दा बहुत जटिल नहीं है। सिर्फ मातृ शब्द की वजह से मातृभाषा का सही अर्थ और भाव समझने में हमेशा से दिक्कत हुई है। मातृभाषा बहुत पुराना शब्द नहीं है, मगर इसकी व्याख्या करते हुए लोग अक्सर इसे बहुत प्राचीन मान लेते हैं। हिन्दी का मातृभाषा शब्द दरअसल अंग्रेजी के मदरटंग मुहावरे का शाब्दिक अनुवाद है। मेरा अनुमान है कि यह अनुवाद भी
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हिन्दी के संदर्भ में सामने नहीं आया बल्कि इसका संदर्भ बांग्लाभाषा और बांग्ला परिवेश था। अंग्रेजी राज में जिस कालखंड को पुनर्जागरणकाल कहा जाता है उसका उत्स बंगाल भूमि से ही है। राजा राममोहनराय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे उदार राष्ट्रवादियों का सहयोग अंग्रेजों ने शिक्षा प्रसार हेतु लिया। पूरी दुनिया में बह रही नवजागरण की बयार को भारतीय जन भी महसूस करें इसके लिए भारतीयों को पारंपरिक अरबी-फारसी की शिक्षा की बजाय अंग्रेजी सीखने की ज़रूरत मैकाले ने महसूस की। यहां हम उसकी शिक्षा पद्धति की बहस में नहीं पड़ेंगे। सिर्फ भाषा की बात करेंगे। हर काल में शासक वर्ग की भाषा ही शिक्षा और राजकाज का माध्यम रही है। मुस्लिम दौर में अरबी-फारसी शिक्षा का माध्यम थी। यह अलग बात है कि अरबी-फारसी में शिक्षा ग्रहण करना आम भारतीय के लिए राजकाज और प्रशासनिक परिवेश को जानने में तो मदद करता था मगर इन दोनों भाषाओं में ज्ञानार्जन करने से आम हिन्दुस्तानी के वैश्विक दृष्टिकोण में, संकुचित सोच में कोई बदलाव नहीं आया। क्योंकि अरबी फारसी का दायरा सीमित था। अरबी-फारसी के जरिये पढ़ेलिखे हिन्दुस्तानी प्राचीन भारत, फारस और अरब आदि की ज्ञान-परंपरा से तो जुड़ रहे थे मगर सुदूर पश्चिम में जो वैचारिक क्रांति हो रही थी उसे हिन्दुस्तान में लाने में अरबी-फारसी भाषाएं सहायक नहीं हो रही थी। भारतीयों को अंग्रेजी भाषा भी सीखनी चाहिए, यह सोच महत्वपूर्ण थी। इसी मुकाम पर यह बात भी सामने आई कि विशिष्ट ज्ञान के लिए तो अंग्रेजी माध्यम बने मगर आम हिन्दुस्तानी को आधुनिक शिक्षा उनकी अपनी ज़बान में मिले। उसी वक्त मदर टंग जैसे शब्द का अनुवाद मातृभाषा सामने आया। यह बांग्ला शब्द है और इसका अभिप्राय भी बांग्ला से ही था। तत्कालीन समाज सुधारक चाहते थे कि आम आदमी के लिए मातृभाषा में (बांग्ला भाषा) में आधुनिक शिक्षा दी जाए। आधुनिक मदरसों की शुरूआत भी बंगाल से ही मानी जाती है।
मातृकुल नहीं, परिवेश महत्वपूर्ण-
मातृभाषा शब्द की पुरातनता स्थापित करनेवाले ऋग्वेदकालीन एक सुभाषित का अक्सर हवाला दिया जाता है-मातृभाषा, मातृ संस्कृति और मातृभूमि ये तीनों सुखकारिणी देवियाँ स्थिर होकर हमारे हृदयासन पर विराजें। मैने इसके मूल वैदिकी स्वरूप को टटोला तो यह सूक्त हाथ लगा- इला सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुवः। जिसका अंग्रेजी अनुवाद कुछ यूं किया गया है-
One should respect his motherland, his culture and his mother tongue because they are givers of happiness.
यहां दिलचस्प तथ्य यह है कि वैदिक सूक्त में कहीं भी मातृभाषा शब्द का उल्लेख नहीं है। इला और महि शब्दों का अनुवाद जहां संस्कृति, मातृभूमि किया है वहीं सरस्वती का अनुवाद मातृभाषा किया गया है। मातृभाषा का जो वैश्विक भाव है उसके तहत तो यह सही है मगर मातृभाषा का रिश्ता जन्मदायिनी माता के स्थूल रूप से जो़ड़ने के आग्रही यह साबित नहीं कर पाएंगे कि सरस्वती का अर्थ मातृभाषा कैसे हो सकता है? यहां सरस्वती शब्द से अभिप्राय सिर्फ वाक् शक्ति से है, भाषा से है। गौरतलब है कि वैदिकी भाषा, जिसमें वेद लिखे गए, अपने समय की प्रमख भाषा थी। सुविधा के लिए उसे संस्कृत कह सकते हैं, मगर वह संस्कृत नही थी। वैदिकी अथवा छांदस सामान्य सम्पर्क भाषा कभी नहीं रहीँ। विद्वानों का मानना है कि वेदकालीन भारत में निश्चित ही कई तरह की प्राकृतें प्रचलित थीं जो अलग अलग “जन” (जनपदीय व्यवस्था) में प्रचलित थीं। आज की बांग्ला, मराठी, मैथिली, अवधी जैसी बोलियां इन्हीं प्राकृतों से विकसित हुई। तात्पर्य यही कि ये विभिन्न पाकृतें ही अपने अपने परिवेश में मातृभाषा का दर्जा रखती होंगी और विभिन्न जनसमूहों में बोली जाने वाली इन्ही भाषाओं के बारे में उक्त सूक्त में सरस्वती शब्द का उल्लेख आया है। मेरा स्पष्ट मत है कि मातृभाषा में मातृशब्द से अभिप्राय उस परिवेश, स्थान, समूह में बोली जाने वाली भाषा से है जिसमें रहकर कोई भी व्यक्ति अपने बाल्यकाल में दुनिया के सम्पर्क में आता है। मातृभाषा शब्द मदरटंग mother tongue का अनुवाद है और मदरटंग के बारे में विकीपीडिया पर जो आलेख है, वह क्या कहता है, ज़रा देखें-
The term "mother tongue" should not be interpreted to mean that it is the language of one's mother. In some paternal societies, the wife moves in with the husband and thus may have a different first language, or dialect, than the local language of the husband. Yet their children usually only speak their local language. Only a few will learn to speak their mothers' languages like natives. Mother in this context probably originated from the definition of mother as source, or origin; as in mother-country or -land. (सूत्र). एक अन्य संदर्भ देखे-
In the wording of the question on mother tongue, the expression "at home" was added to specify the context in which the individual learned the language. (सूत्र). जाहिर है कि मातृभाषा से तात्पर्य उस भाषा से कतई नहीं है जिसे जन्मदायिनी मां बोलती रही है। अकेली मां बच्चे के परिवेश के लिए उत्तरदायी नहीं है और न ही जन्म के लिए। सिर्फ मां की भाषा को मातृभाषा से जोड़ना एक किस्म की ज्यादती है, सामाजिक व्यवस्था के साथ भी। भारत समेत ज्यादातर सभ्यताओं में भी, कोई स्त्री, विवाहोपरांत ही बच्चे को जन्म देती है। बच्चे की भाषा के लिए अगर सिर्फ मां ही उत्तरदायी मान ली जाए, तब अलग-अलग भाषिक पृष्टभूमि वाले दम्पतियों में बच्चे की भाषा मातृपरिवार की होगी और बच्चे को वह भाषा सीखने के लिए माता का परिवेश ही मिलना भी चाहिए। मातृसत्ताक व्यवस्थाओं में यह संभव है, मगर पितृसत्ताक व्यवस्था में यह कैसे संभव होगा? यह मानना कि प्रत्येक को अपनी मातृभाषा सिर्फ मां से ही मिलती है, मातृभाषा शब्द का आसान मगर कमजोर निष्कर्ष है और वैश्विक संदर्भ इसे अमान्य करते हैं। एक बच्चा मां की कोख से जन्म जरूर लेता है, मगर मातृकुल के भाषायी परिवेश में नहीं, बल्कि मां ने जिस समूह में उसे जन्म दिया है. उसी परिवेश की भाषा से उसका रिश्ता होता है। इस मामले में नारी मुक्ति या पुरुष प्रधानता वाली भावुकता भी बेमानी है। मातृसत्ताक और पितृसत्ताक के दायरे से बाहर आकर देखें तो भी बच्चे का शैशव जहां बीतता है, उस माहौल मे ही जननि भाव है। जिस परिवेश में वह गढ़ा जा रहा है, जिस भाषा के माध्यम से वह अन्य भाषाएं सीख रहा है, जहां विकसित-पल्लवित हो रहा है, वही महत्वपूर्ण है। यही उसका मातृ-परिवेश कहलाएगा। माँ के स्थूल अर्थ या रूप से इसकी रिश्तेदारी खोजना फिजूल होगा।
-जारी
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18 कमेंट्स:
सोचनेवाली बात है -- वैसे मैं मेरी अपनी मातृभाषा गुजराती मानती हूँ और पितृ भाषा हिन्दी - परिवेश के कारण तो मुम्बई में जन्म और परवरिश हुई तो , मराठी भी ...मातृभाषा? ;-)
प्रश्न अनुत्तरित है ! सदैव कौंधता भी है | एक आम समझ के अनुसार तो यह माना जा सकता है मातृ भूमि से ही कुछ सराकोर रहा हो इस शब्द का | शायद इसीलिये मातृ भूमि और वहां की भाषा के प्रति एक अनुराग भाव समूचे जीवन में पूंजी के समान संतोष देता है |
मैं दस माह की उम्र में मां-बाप के साथ वडोदरा से काशी आया । जिस परिसर में रहते थे वहाँ देश भर से महिलाये प्रसिक्षण के लिए आतीं थीं । सभी अपनी अपनी भाषा मुझे सिखाने की कोशिश में रहतीं । बहरहाल जिस भाषा में बोलना शुरु किया वह हिन्दी थी और आज तक सोचता भी उसी में हूँ । माँ के पिता की भाषा ओड़िया और नानी की भाषा बांग्ला थी । परिवार में जिस तरफ़ के लोग जब आते,वह भाषा तब चलती। माँ गुजराती से ओड़िया की अच्छी अनुवादक थी । पिता के मां-बाप की भाषा गुजराती है लेकिन ओड़िया और बांग्ला उन्होंने भी सीखी।
फार्म में कहीं पूछा जाता है तो लाजमी तौर पर मातृ भाषा - हिन्दी ही लिखता हूँ । कुछ लोग कहते हैं काशिका लिखना चाहिए।
अच्छा लेख है |
मातृभाषा पर चर्चा रुची |
धन्यवाद् ...
अफ़लातून के जवाब में लाजवाब है.
मेरी माता जो थीं ठीक से उन्हें पहचान नहीं सका सो मातृभाषा का असमंजस आजतक बना हुआ है.
बहुत अच्छी चर्चा छेड़ दी है आप ने। मेरे परिवार में हाड़ौती बोली जाती थी। मां भी हाड़ौती ही बोलती थी। लेकिन उस की बोली में कहीं कहीं मालवी का लहजा होता था। लेकिन हम हाड़ौती ही बोलते। दादा जी कथा बांचते तो संस्कृत में लेकिन टीका हाड़ौती में करते। सारा माहौल हाड़ौती का ही था। माँ भी हाड़ौती ही बोलती। लेकिन जब हम मामा के यहाँ जाते तो बोली में अंतर आ जाता लेकिन वह बोधगम्य होता था। कुल मिला कर हमारी मातृभाषा हाडौती हुई। लेकिन जब लिखने-पढ़ने की स्थिति बनी तो हिन्दी से ही सरोकार हुआ। बाद में समझ आया कि मातृभाषा तो हिन्दी ही है। हाड़ौती तो उस की एक बोली मात्र है। ब्रज, अवधी आदि सभी हिन्दी के ही रूप हैं। आप का यह निष्कर्ष सही है कि मातृभाषा माँ से नहीं धरती माँ से संबंध रखती है। धरती के जिस टुकड़े पर आप ने पहले पहल भाषा का संस्कार प्राप्त किया वही आप की मातृभाषा होगी। इस लिए परिवेश ही प्रधान है।
yh vishay bahut hi vistrat hai aaj jabki ak shar se dusre shar .ak rajy se dusre rajy ,ak desh se doosre desh me aana jana aur basna jaruri ho gya hai tb matrbhsha kisko chune ?ya kise kahe ?asmnjas ki sthiti ho gai hai .har privar me antarjatiy vivaho ki prmukhta hai tab privesh hi matrabhasha ka adhikari hoga .
yh chrcha bahut hi mayne rakhti hai kyoki isme hi aaj ke smaj ki chabi hai .
यही सवाल मेरे साथ भी उठा...मेरी पढ़ाई मराठी भाषामे हुई, घरमे हिन्दुस्तानी बोली जाती..माँ तथा दादी गुजरात की थीं...माँ की पढ़ाई गुजराती भाषामे हुई...
मैंने स्नातक तथा स्नातकोत्तर पढ़ाई के लिए इंग्लिश भाषाका चयन किया...मै तीनो भाषाओँ में लिखती हूँ, लेकिन माँ तथा दादी बेहतरीन उर्दू दान रहे..उनकी हिन्दी hyderabaadee हिन्दी तथा गुजराती भाषसे प्रभावित रही( बोलते समय)...मई अपनी मातृभाषा हिन्दी मानती हूँ...जबकि मेरी हिन्दी वाक़ई शुद्ध रही, नाकि माँ की !
अब कहने को बचा ही क्या है?
आपने कुछ सोचकर ही तो यह पोस्ट लगाई होगी।
महत्वपूर्ण विमर्श.बोलियाँ भाषा शास्त्र की दृष्टि से भाषाएँ ही हैं पर राजनीतिक नज़रिए से बोलियाँ.ऐसा कहीं पढ़ा था.बताएं ताकि अपनी मातृभाषा निश्चित कर सकूं.परिवेश के हिसाब से मारवाडी ही है मातृभाषा, अब इसे बोली मानेंगे तो फिर हिंदी होगी मातृभाषा.मारवाडी का गर्भ-नाल सम्बन्ध तो गुजराती से है,ग्रियर्सन भी इसे स्वतंत्र भाषा मानते हैं,फिर हिंदी की ये बोली कैसे हुई?कोई विवाद उपस्थित करना कतई मकसद नहीं है पर इस विमर्श में इस सवाल को भी जगह मिले ऐसी इच्छा है.
हिंदी को फिलहाल मैं व्यवहार और मेरे चिंतन की भाषा मान रहा हूँ.
@प्रमोदसिंह,अफलातून, क्षमा, दिनेशराय द्विवेदी, लावण्या शाह, डॉ रूपचंद्र शास्त्री,रमेशदत्त सक्सेना,शोभना चौरे.
शुक्रिया आप सबका इस विषय पर अपनी राय जाहिर करने के लिए।
माँ पिताजी कुमाऊँनी बोलते थे। वह कभी बोल ही नहीं सकी। परिवेश की भाषा पंजाबी थी, उसमें भी बोलने में कभी महारत हासिल नहीं कर पाई। हिन्दी और अंग्रेजी पढ़ाई की भाषाएँ थीं, वे ही आजतक साथ हैं। मातृभाषा हिन्दी ही कहूँगी क्योंकि शायद जानबूझ कर माँ ने इसी में बोलना सिखाया।
घुघूती बासूती
पहले के जमाने में शादी ब्याह अपने ही परिवेश में हुआ करते थे, तो मातृभाषा या पितृभाषा एक ही होती थी इसी लिये मातृ-भाषा को मां की भाषा ही मानने में कोई परेशानी नही थी । पर बच्चा जब बोलना सीखता है तो मां ही उसकी प्रथम गुरु होती है तो वही उसकी मातृभाषा हुई । बाद में चाहे वह अपने विस्तृत परिवेश की भाषा सीख ले पर मातृभाषा तो वही हुई जिसे उसने माँ से सीखा । हमारा बचपन शिक्षा दीक्षा सब मध्यप्रदेश में हुआ हम सब भाई बहन मराठी तथा हिंदी दोनो में सहज अनुभव करते हैं, पर मातृभाषा तो मै मराठी को ही मानती हूँ । हमारी माँ हमें घर में हिंदी नही बोलने देतीं और मराठी साहित्यिक किताबें भी घर में पढी जाती थीं । घर के बाहर अवश्य हमने हिंदी पढी और सीखी आगे विज्ञान की पढाई का माध्यम ही अंग्रेजी था तो वह भी सीखी । शादी के बाद कलकत्ता गये तो बांगला भी सीखी । अब जब अंतर-जातीय और अंतर-प्रांतीय विवाह सर्वमान्य हो चुके हैं तो इसकी नये सिरे से परिभाषा करना शायद आज की जरूरत है ।
अपनी तो मातृ ,पितृ ,पत्नी भाषा एक ही है हिंदी .
आप स्वयं से जब बोलते हैं, अनायास ही, वो जिस भी भाषा में हो या दो तीन भाषा या बोलियों की खिचडी ही क्यों न हो, वही आपकी भाषा है. भाषा से माँ पिता का सम्बन्ध जोड़ना बिलकुल नाइंसाफी होगी. भाषा के साथ भी और माता पिता के साथ भी. और इसको standardize करना और भी गलत होगा. जैसा दिनेश राय जी ने हाडोती को हिंदी मान कर कर लिया. सरकारी तौर पर बात दूसरी है. आपकी भाषा आपके DNA से अलग नहीं है. वो आपके माँ पिता अथवा माता-पिता स्वरुप वातावरण से उपजी है पर अंततः आपका DNA अलग ही है.
'टंग' गई फिर से 'मदर' चौखट पे आज,
पितृ भक्तो का यहाँ चलता है राज,
मात्र [केवल] भाषा ही की ये चर्चा नही,
कैसे बचती देखिये अब माँ की लाज?
पहले तो धीरू जी पत्नी भाषा वाली बात पर हँसी आयी... अच्छा लगा... ... हास्य
अब कुछ बातें। आपने जिस संस्कृत श्लोक का जिक्र किया है, कल उसे फेसबुक पर एक मित्र ने साझा किया तब हमने कुछ देखा...
फिर पता चला कि वह श्लोक या वेदमंत्र ऋगवेद के प्रथम मंडल के 13वें सूक्त में 9वें स्थान पर है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार, इस श्लोक के अर्थ में कहीं से भी मातृभाषा नहीं आ रहा।
और ग्रिफिथ महोदय भी इसके अनुवाद में
9 Ila, Sarasvati, Mahi, three Goddesses who bring delight, Be seated, peaceful, on the grass. लिखा है। ... ...
ऋगवेद का वह हिस्सा यहाँ देख सकते हैं-
http://services.awgp.in/www.awgp.org/global/page_3/data/download/books/2.important-books/1.5ved-darshan/rigved/Rigveda_Part_1A.pdf
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
दूसरी बात कि मातृभाषा एक से ज्यादा हो सकती है, ऐसा विचार रखने पर कुछ लोगों ने ऐतराज जताया था।
उदाहरण- पटना का लेते हैं। यहाँ पटना शहर में जिनका घर है, वे मगही और हिन्दी(अक्सर बाजार में, घर में भी। किरायेदारों से), दोनों बोलते हैं। यानी बच्चा जन्म लेने के बाद दोनों भाषाएँ एक साथ सुनकर बड़ा होता है। जाहिर है दोनों भाषाएँ बोलना सीख जाता है। तब हम यह क्यों नहीं सकते कि मातृभाषा (कहा जाता है कि माता की भाषा लेकिन यहाँ अर्थ थोड़ा विस्तृत रूप में बदल देते हैं, आपसे सहमति है ) ... ...
... ... कुछ जनों ने कहा है कि जिस भाषा को बोलने जानने के लिए व्याकरण नहीं सीखना पड़े... ... वह मातृभाषा है... ... बस याद आ गया इसलिए कह रहे हैं!
पहले तो धीरू जी पत्नी भाषा वाली बात पर हँसी आयी... अच्छा लगा... ... हास्य
अब कुछ बातें। आपने जिस संस्कृत श्लोक का जिक्र किया है, कल उसे फेसबुक पर एक मित्र ने साझा किया तब हमने कुछ देखा...
फिर पता चला कि वह श्लोक या वेदमंत्र ऋगवेद के प्रथम मंडल के 13वें सूक्त में 9वें स्थान पर है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार, इस श्लोक के अर्थ में कहीं से भी मातृभाषा नहीं आ रहा।
और ग्रिफिथ महोदय भी इसके अनुवाद में
9 Ila, Sarasvati, Mahi, three Goddesses who bring delight, Be seated, peaceful, on the grass. लिखा है। ... ...
ऋगवेद का वह हिस्सा यहाँ देख सकते हैं-
http://services.awgp.in/www.awgp.org/global/page_3/data/download/books/2.important-books/1.5ved-darshan/rigved/Rigveda_Part_1A.pdf
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दूसरी बात कि मातृभाषा एक से ज्यादा हो सकती है, ऐसा विचार रखने पर कुछ लोगों ने ऐतराज जताया था।
उदाहरण- पटना का लेते हैं। यहाँ पटना शहर में जिनका घर है, वे मगही और हिन्दी(अक्सर बाजार में, घर में भी। किरायेदारों से), दोनों बोलते हैं। यानी बच्चा जन्म लेने के बाद दोनों भाषाएँ एक साथ सुनकर बड़ा होता है। जाहिर है दोनों भाषाएँ बोलना सीख जाता है। तब हम यह क्यों नहीं सकते कि मातृभाषा (कहा जाता है कि माता की भाषा लेकिन यहाँ अर्थ थोड़ा विस्तृत रूप में बदल देते हैं, आपसे सहमति है ) ... ...दो या उससे ज्यादा हो सकती है!
... ... कुछ जनों ने कहा है कि जिस भाषा को बोलने जानने के लिए व्याकरण नहीं सीखना पड़े... ... वह मातृभाषा है... ... बस याद आ गया इसलिए कह रहे हैं!
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