करीब साढ़े तीन सौ साल पहले अंग्रेजों 1688 में अंग्रेजों ने मुंबई में पहला डाकघर खोला। ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करना था। डाक विभाग के जरिये सैन्य और खुफिया सेवाओं की मदद का मक़सद भी खास था। आज जब इस किताब की चर्चा हो रही है, तब आदिमकाल से चली आ रही और अब एक संगठन, संस्कृति का रूप ले चुकी संवाद प्रेषण की इस परिपाटी के सामने सूचना क्रांति की चुनौती है। इसके बावजूद दुनियाभर में डाक सेवाएं अपना रूप बदल चुकी हैं और कभी न कभी पश्चिमी देशों के उपनिवेश रहे, दक्षिण एशियाई देशों में भी यह चुनौती देर-सबेर आनी ही थी। किसी ज़माने सर्वाधिक सरकारी कर्मचारियों वाला महक़मा डाकतार विभाग होता था। उसके बाद यह रुतबा भारतीय रेलवे को मिला। डाकतार विभाग का शुमार आज भी संभवतः शुरुआती पांच स्थानों में किसी क्रम पर होगा, ऐसा अनुमान है।
पूरी किताब दिलचस्प, रोमांचक तथ्यों से भरी है। गौरतलब है कि पुराने ज़माने में ऊंटों, घोड़ों और धावकों के जरिये चिट्ठियां पहुंचाई जाती थीं। राह में आराम और बदली के लिए सराय या पड़ाव बनाए जाते थे। बाद में उस राह से गुज़रनेवाले अन्य मुसाफिरों के लिए भी वे विश्राम-स्थल बनते रहे और फिर धीरे-धीरे वे आबाद होते चले गए। चीन में घोड़ों के जरिये चौबीस घंटों में पांच सौ किलोमीटर फासला तय करने के संदर्भ मिलते हैं, इसका उल्लेख शब्दों का सफर में डाकिया डाक लाया श्रंखला में किया जा चुका है। कविता डाकिये परमोबाइल क्रान्ति के इस युग में रामकुमार कृषक के यह ग़ज़ल बहुत से लोगों को चकित कर सकती है। मगर सिर्फ एक दशक पहले तक इस देश में डाकिये के संदर्भ वाले य़े नज़ारे हुआ करते थे।
अरविंदकुमार सिंह की किताब बताती है कि मुहम्मद बिन तुगलक ने भी संवाद प्रेषण के लिए चीन जैसी ही व्यवस्था बनाई थी। गंगाजल के भारी भरकम कलशों से भरा कारवां हरिद्वार से दौलताबाद तक आज से करीब सात सदी पहले अगर चालीस दिनों में पहुंच जाता था, तो यह अचरज से भरा कुशल प्रबंधन था। ये कारवां लगातार चलते थे जिससे पानी की कमी नहीं रहती थी। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि तुगलक पीने के लिए गंगाजल का प्रयोग करता था। मेघों को हरकारा बनाने की सूझ ने तो कालिदास से मेघदूत जैसी कालजयी काव्यकृति लिखवा ली। मगर कबूतरों को हरकारा बनाने की परम्परा तो कालिदास से भी बहुत प्राचीन है। चंद्रगुप्त मौर्य के वक्त यानी ईसा पूर्व तीसरी – चौथी सदी में कबूतर खास हरकारे थे। कबूतर एकबार देखा हुआ रास्ता कभी नहीं भूलता। इसी गुण के चलते उन्हें संदेशवाहक बनाया गया। लोकगीतों में जितना गुणगान हरकारों, डाकियों का हुआ है उनमें कबूतरों का जिक्र भी काबिले-गौर है। इंटरनेट पर खुलनेवाली नई नई ईमेल सेवाओं और आईटी कंपनियों के ज़माने में यह जानकर ताज्जुब हो सकता है कि करीब ढाई सदी पहले जब वाटरलू की लड़ाई लड़ी जा रही थी, तब ब्रिटिश सरकार लगातार मित्र राष्टों को परवाने लिखती थी और गाती थी-कबूतर, जा...जा ..जा. ब्रिटेन में एक ग्रेट बैरियर पिजनग्राम कंपनी थी जिसने पैसठ मील की कबूतर संदेश सेवा स्थापित की थी। बाद में इसे आयरलैंड तक विस्तारित कर दिया गया था। बिना किसी वैज्ञानिक खोज हुए, यह निकट भूतकाल का एक आश्चर्य है। भारत में कई राज्यों में कबूतर डाक सेवा थी। उड़ीसा पुलिस ने सन् 1946 में कटक मुख्यालय में कबूतर-सेवा शुरू की थी। इसमें चालीस कबूतर थे।
भारतीय डाकसेवा में कब कब विस्तार हुआ, कैसे प्रगति हुई, कब इसकी जिम्मेदारियां बढ़ाई गई और कब यह बीमा और बचत जैसे अभियानों से जुड़ा, यह सब लेखक ने बेहद दिलचस्प ब्यौरों के साथ विस्तार से पुस्तक में बताया है। डाक वितरण की प्रणालियां और उनमें नयापन लाने की तरकीबें, नवाचार के दौर से गुजरती डाक-प्रेषण और संवाद-प्रेषण से जुडी मशीनों का उल्लेख भी दिलचस्प है। डेडलेटर आफिस यानी बैरंग चिट्ठियों की दुनिया पर भी किताब में एक समूचा अध्याय है। एक आदर्श संदर्भ ग्रंथ में जो कुछ होना चाहिए, यह पुस्तक उस पैमाने पर खरी उतरती है। इस पुस्तक से यह जानकारी भी मिलती है कि भारत की कितनी नामी हस्तियां जो अन्यान्य क्षेत्रों में कामयाब रही, डाक विभाग से जुड़ी रहीं। ऐसे कुछ नाम हैं नोबल सम्मान प्राप्त प्रो. सीवी रमन, प्रख्यात उर्दू लेखक-फिल्मकार राजेन्द्रसिंह बेदी, शायर कृष्णबिहारी नूर, महाश्वेता देवी, अब्राहम लिंकन आदि।
पत्रकारिता से जुडे़ लोगों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है। वैसे यह पुस्तक संदर्भ में होनी चाहिए। मेरी सलाह है कि अवसर मिलने पर आप इसे ज़रूर खरीदें, आपके संग्रह के लिए यह किताब उपयोगी होगी।
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20 कमेंट्स:
आपकी यह समीक्षा भी अच्छी रही !
किताब महत्वपूर्ण है निश्चय ही । संदर्भ के लिये भी जरूरी । आपने अनुशंसा की है - तो जरूर पढ़ेंगे, खरीदेंगे भी ।
समीक्षा के भी उस्ताद हैं आप अजीत सर.. मान गए..
जय हिंद...
उपयोगी जानकारी के लिए धन्यवाद
अरविंद जी का समर्पण महान है...डाक के बारे में बेहतरीन जानकारी...बेहतरीन समीक्षा...
जय हिंद...
वाह अजित जी ..
पुस्तक के बारे में यहीं पढ के इतना मजा आया ..अब तो पुस्तक भी जरूर पढेंगे ..
अजय कुमार झा
इस पुस्तक के बारे में पढ़ा है यह डाक के इतिहास की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण पुस्तक है । यद्यपि अभी भी डाक सेवा का महत्व है । ग्रामीण क्षेत्रो मे तो डाक ही सम्वाद का माध्यम है ।
मेरे यहाँ तो खैर लगभग रोज़ ही डाकिया आता है । पत्रिकायें ,पुस्तकें ,और मित्रों के पत्र अभी भी डाक से आते हैं ।
बढिया है । आपके इस आलेख को हम अपने एक कार्यक्रम 'यूथ-एक्सप्रेस' में ले लें क्या । अनुमति दीजिए ।
इस पुस्तक से अनेक नयी बाते पता चलेंगी. पूरी किताब नया आस्वाद देगी. समीक्षा तो यही बताती है. बधाई, अजित भाई. डाकिये आज भी महत्वपूर्ण है, कल भी रहेंगे. चिट्ठियाँ आती रहेंगी. तरीके बदल गए है उसके.
पुस्तक चर्चा बढ़िया रही!
कभी अवसर मिला तो अवश्य पढ़ेंगे!
बहुत काम की किताब है. बढिया समीक्षा.
ज्ञानवर्धक, मजेदार और संदर्भ पुस्तक हर पुस्तकालय की शान बनेगी यह। अच्छी समीक्षा।
सैकड़ों खतरे सदा, परदेस का रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया बीमार है
आंख दायीं लैकती है और सपने भी बुरे
बिल्लियां रोती हैं स्वर से डाकिया बीमार है
बाल बच्चों का न उसका पैरहन साबुत रहा
खुलनेवाले हैं मदरसे डाकिया बीमार है
भूख , बेकारी, दवा दारू कुबेरों की नज़र
हर कदम लड़ना जबर से डाकिया बीमार है
बहुत ही सुंदर नज़्म .....!!
पुस्तक समीक्षा. भी बहुत बढ़िया ......!!
डाक और डाकिया हमारे समाज का हिस्सा बन गये हैं अत: नये संवाद साधनों के बाद भी वे हमारे रचना संसार का संदर्भ हैं. और ये भी कि जब हमें संदेश की डिलीवरी की तसल्ली चाहिये होती है तो हमें डाक ही याद आती है.
@yunus
आप सफर के हमसफ़र हैं और इसके हर पड़ाव पर आपका हक़ बनता है। जैसा चाहें, उपयोग करें।
जैजै
शुक्रिया और जै जै
याद आते हैं वे दिन जब गाँव में डाकिये के आने का वक़्त बडा बैचैनी भरा होता था । धडकनों के यादगार उतार चढाव के बीच डाकिया ढेर सारे खुशियों के पल थमा जाता था । चिट्ठियाँ कई कई दिनों तक बांची जाती और सहेज कर रखी जाती । सोलह संस्कारों की साक्षी चिठ्ठियाँ ॥ जिनमे नौकरी की खबर का सत्रहवां संस्कार भी शरीक़ ! कैसे भुला दें उस दावत को जो पहली नौकरी की खबर लाने पर डाकिये के साथ मनाई ! डाकिये ने मेरी आने वाली सारी चिट्ठियां के लिफाफे देखे थे और पोस्ट कार्ड के मज़मून भी । डाकिया को सदैव प्रभुदास महाराज ही कहा, आदर सहित ! प्रभुदास महाराज से सुने सराहना के स्वर हरदम अविस्मरणीय बने रहे ।
जब से आई है मशीनें, चिट्ठियां सब खो गयीं
बच न पाये हम असर से, डाकिया बीमार है ॥
सब कुछ फिर से याद दिला दिया आपने.. वैसे मेरा जीवन तो आज भी इन्ही के इर्द इर्द मंडराता रहता है... क्यों की यह चिट्ठी तो अनमोल है.
एक शेर अर्ज करता हूँ --
मेरे ज़नाजे पर कफ़न नहीं चिट्ठियों की चद्दर हो
मेरी ख्वाहिश है मेरे कब्र के नजदीक डाकघर हो
- सुलभ जायसवाल 'सतरंगी'
... प्रसंशनीय !!!!
मुझे तो लगा की महज एक इतिहास की पुस्तक होगी पर यहाँ तो रोचकता भरी पड़ी है.
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