Sunday, December 2, 2007

सहनशक्ति की चरम सीमा [डाकिया डाक लाया - 5]

वेनिस का मार्कोपोलो करीब सात सदी पहले कुबलाई खान का दरबारी था और उसके नोट्स के आधार पर मॉरिस कॉलिस ने मौले और पैलियट नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद श्री उदयकांत पाठक ने किया है। पेश है पोलो का दिलचस्प वृतांत- सन १२७१ के दौर में चीन के शासक कुबलाई खान की डाक व्यवस्था की अंतिम कड़ी।

class="">संदेशवाहकों के पास सरकार की ओर से दी गई विशेष तख्तियां होती थीं इनके जोर पर वह रास्ते में खाकान के नाम पर जो चाहे
पा सकता था। मसलन अगर उसका घोड़ा गिर पड़ता तो वह राह में मिलने वाले किसी भी व्यक्ति से यहां तक कि बड़े भारी सरदार से भी उसका घोड़ा ले लेता। यह था संदेशवाहकों का रुतबा और संदेश के महत्वपूर्ण होने का असर।इन संदेशवाहकों की सहनशक्ति की तुलना किसी भी सर्वाधिक शक्तिशाली आधुनिक मानक तोड़नेवाले से नहीं की जा सकती। जिस किसी को भी गुड़सवारी का अनुभव हो , वह बता सकता है कि पच्चीस मील घोड़े की सवारी कितनी थका देने वाली होती है । पूर्व में साधारण यात्री के लिए यह फासला एक दिन की मंजिल माना जाता है। पचास मील चल लेना बड़ी बात होती है और बार बार सवारी बदलकर भी सौ मील कर लेना औसत सवार की शक्ति से बाहर की चीज़ है । तब एक रात और दिन में चार सौ मील कैसे तय किया जा सकता है? इसका रहस्य स्टेपी मैदान के मंगोल सवार की थाती है। यह कभी नहीं कहा गया कि रोमन लोगों ने अपनी स़कों और चौकियों को इतनी अच्छी तरह संगठित कर रखा था कि वे अपने पररवाने इतनी जल्दी भेज सकते हों मानों उन्हें ले जाने के लिए उनके पास
मोटरकार हो। फिर भी यह असादारण बात है कि मशीनी सवारियों के आविष्कार से पहले, ज़रूरत पड़ने पर आदमी इतनी ही तेजी से ले जाने वाली प्रणाली ढूंढ लेता था। आगे के वर्णन से यह पता चलता है कि किस तरह से अरब लोगों को दसवीं सदी में हवाई जहाज का पूर्वाभास हो गया था। फातिमा सम्प्रदाय के खलीफा अजीज ने जो काहिरा में रहता था , बालबेक से ताजी चेरियों की इच्छा व्यक्त की । बालबेक रेगिस्तान के पार चार सौ मील उत्तर में था । वहा के वजीर को जब इसकी खबर मिली तो उसने छह सौ पत्रवाहक कबूतर जमा किये और हर एक के पैर में एक चेरी रखकर थैली बंध दी। चेरियां काहिरा में बिल्कुल अच्छी हालत में उसी दिन खलीफा के भोज के वक्त पर पहुंच गईं। डाक पर कुछ और दिलचस्प सामग्री अगली कड़ियों में

6 कमेंट्स:

Sanjeet Tripathi said...

आगे की किश्त दिलचस्प तो बनती ही रहेगीपर फ़िलहाल यही दिलचस्प बन पड़ी है!!!

Neeraj Rohilla said...

अजितजी,


१ दिन में घोडे पर चार सौ मील का सफ़र मेरी सोच से भी परे था । अगली दिलचस्प किस्त का इन्त्जार रहेगा ।

अजित वडनेरकर said...

This comment has been removed by the author.

अजित वडनेरकर said...

शुक्रिया नीरज भाई, संजीतबंधु,
सफर को दिलचस्प होना ही चाहिए वर्ना यात्रा ऊबाऊ और बोझिल हो जाती है। सबसे बड़ी बात आप जैसे सहयात्री भी नहीं मिलते।

Sanjay Karere said...

लगता है आप इतिहास के प्रति अरुचि को खतम करके ही दम लेंगे... लाइए लाइए ... अगली कड़ी भी पढ़ लूंगा. दिलचस्‍प तो अभी भी बहुत है यह शब्‍दों का सफर.
DB में क्‍यों रुक गया?

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आपकी हर प्रविष्टी दील्चास्प रहती है -
समय लेकर इन्हें पढ़ना जरुरी हो जाता है -
लिखते रहिये और हम देखते रहेंगें - -

शुभकामना सह: लावण्या

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