का साधारण अथवा भुना हुआ चूरा। जाहिर है इन पदार्थों में भांति भांति के अनाजों की पीठी, विभिन्न ज़डी-बूटियों का चूर्ण, सुगंधित पदार्थों का चूरा अथवा आटा
वगैरह इसमें आते हैं। आयुर्वैदिक दवाओं का चूरा जो प्रायः हाजमा ठीक करने के काम आता है चूरन या चूरण कहलाता है , इसी चूर्ण का रूप है। चूर्ण में पर उपसर्ग लगने से बना परचूर्णम् जो हिन्दी में हो गया परचून। अब इस परचून में दैनंदिन खानपान की सारी सामग्री आ गई मसलन आटा, दाल, चावल, सत्तू, नमक, मसाले, सुगंधित शृंगार सामग्री, उबटन, दवाएं यानि जिसका भी चूरा हो सके वह सब ।
परचून से ही बन गया परचूनी अर्थात् यह सब सामग्री बेचनेवाला। चूर्ण से ही बना चूर्णः जिसमें भी यही सारे अर्थ समाहित है मगर एक नया अर्थ और जुड़ गया वह है चूना या खड़िया पत्थर। प्राचीन कर्म आधारित समाज में वर्गों के नामकरण
की परंपरा थी। चूने को उपयोग में लाने के लिए पकाना पड़ता है। इस काम को करने वाले को चूर्णकारः कहा जाता था। प्राचीन साहित्यशास्त्र में सरल गद्य रचना की एक शैली का उल्लेख है जिसे चूर्णिका कहा गया है। जिस तरह से कठोर , ठोस पदार्थ पिस कर चूर्ण बन जाते हैं। प्रयोग में सरल , आसान हो जाते हैं उसी तरह के असर की वजह से साहित्य में भी सरल प्रयोग को चूर्णिका कहा गया होगा।
अश्क जी का किस्सा
हिन्दी साहित्य के यादगार बातों में उपेन्द्रनाथ अश्क से जुड़ा हुआ परचूनवाला उल्लेख भी मशहूर है जहां तक मुझे याद है, करीब दो ढाई दशक पहले इलाहाबाद में अश्कजी ने परचून की दुकान खोली। मीडिया ने इसे उनके किसी किस्म के असंतोष या मोहभंग से जोड़ते हुए खबर प्रचारित की । गौरतलब है कि तब का मीडिया राजनीतिक दांव पेंच के साथ साथ साहित्य की अखाड़ेबाजी को भी खबरों में खूब तरजीह देता था। खैर, परचून तक तो बात ठीक थी मगर धन्य है अनुवाद आधारित पत्रकारिता जिसने इसमें सिर्फ चूना देखा और बात चूने की दुकान तक गई। कुछ लोगों को यह चूना सचमुच लाइम नज़र आया और कुछ को नींबू। उर्वराबुद्धि वालों ने इसमें पानी और जोड़ दिया और प्रचारित हो गया कि अश्क जी इलाहाबाद में नींबू पानी बेच रहे हैं। मामला साहित्यकार की दुर्दशा से जुड़ गया । अश्क जी को खुद सारी बातें साफ करनी पड़ी।
तो यही थी परचून की कहानी। कैसी लगी , ज़रूर बताएं।
5 कमेंट्स:
पत्रकारिता के कुछ विद्रूपों में से एक अनुवाद आधारित पत्रकारिता भी है. अश्क जी तो महज एक बानगी हैं, ऐसा हर रोज प्रकारांतर से होता ही रहता है. आपने भी तो मुझसे अनुवाद ही कराया था अजित भाई ... अब तो शायद आपको याद भी न होगा...खैर!!
परचून की कहानी अच्छी लगी. उदयपुर में था तो चूरमा का उपयोग होते खूब देखा, सुना..! क्या चूरन से इसकी कोई रिश्तेदारी नहीं बनती? जानता हूं कि यह एकदम अलग है पर शाब्दिक समानता के कारण पूछ रहा हूं.
चूरन भी अच्छा लगा। परचून भी अच्छा लगा। अश्कजी के परचून पर बहुत बमचक हुआ था। याद है रविवार पत्रिका में खासी मारधाड़ हुई थी।
जानकारी अच्छी लगी!! अश्क जी वाला किस्सा भी मालूम चला!!
फोटो बड़े चमकदार लग रहे हैं बन्धु!
1984 के आसपास जब मैं भौतिकी में अनुसंधान/अध्यापन कर रहा था तब मैं ने नीबू-पानी की यह कहानी सुनी थी. आज ज्ञात हुआ कि परचूनी को नीबूदानी में अंग्रेजीदां लोगों ने कैसे बदला.
इस देश में जो लोग इतरा कर अंग्रेजी बोलते हैं उनमें से कई देशज भाषाओं की बारीकियों से एवं समाज से बहुत दूर हैं.
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