मोबाइल क्रान्ति के इस युग में रामकुमार कृषक जी के ये कविता
बहुत से लोगों को चकित कर सकती है। मगर सिर्फ एक दशक पहले तक इस देश में
डाकिये के संदर्भ वाले य़े नज़ारे हुआ करते थे। यकीनन आज भी होंगे, मगर नई पीढी यह
मान चुकी है कि देश के कोने कोने में सेल फोन बज रहे हैं।
सोचकर बैठी है घर से डाकिया बीमार है
बेखबर आंगन, खबर से डाकिया बीमार है
गांव, घर ष पगडण्डियां, सड़कें वही मोटर वही
पर खुशी आए किधर से डाकिया बीमार है
दो महीने हो गए पैसा नहीं , पाती नहीं
कुछ न खुछ आता शहर से , डाकिया बीमार है
सैकड़ों खतरे सदा, परदेस का रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया बीमार है
आंख दायीं लैकती है और सपने भी बुरे
बिल्लियां रोती हैं स्वर से डाकिया बीमार है
बाल बच्चों का न उसका पैरहन साबुत रहा
खुलनेवाले हैं मदरसे डाकिया बीमार है
भूख , बेकारी, दवादारू कुबेरों की नज़र
हर कदम लड़ना जबर से डाकिया बीमार है
-रामकुमार कृषक
Wednesday, December 5, 2007
डाकिया बीमार है...[डाकिया डाक लाया - 6]
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:12 PM
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4 कमेंट्स:
अच्छी कविता देने के लिए आप साधुवाद के हक़दार है. और ये सच है की मोबाइल क्रांति के इस युग मे ये अनुभुतिया बहुत तेजी से मर रही है.
सचमुच कितनी जल्दी बदल गया सब । कविता अच्छी लगी ।
चकित तो कर ही दिया भाई जी. वैसे क्या आप कविता नहीं कहते?
कहने का मन नहीं है पर सच्चाई यही है कि डाकिया अब बीमार ही रहेगा. संवेदनाओं को झंझोड़ देती हैं कुछ बातें. है ना...
बहुत अच्छी कविता. डाकिये का हमारे जीवन में एक समय कितना महत्व था । कुछ भी नही हो रहा क्यूं कि डाकिया वीमार है । अब तो बस मोबाइल और ई-मेल का जमाना है ।
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