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Tuesday, November 10, 2009
सरदार की ब्लागरी शुरु [बकलमखुद-114]
दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम, आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 114वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मा, लावण्या शाह, काकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोरा, हर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।
पिछली कड़ी-चूजों को लगे पंख [बकलमखुद-113] सा मान्य बीमा कंपनी के जिस डीएम से झगड़ा हुआ था। उस का सभी से झगड़ा होता चला गया। चाहे वे कर्मचारी थे या प्रोफेशनल। लेकिन फिर भी कुछ कमजोर लोग ऐसे रह ही गए जिन के बल पर वह अपना काम करता रहा। सब लोग उस से परेशान। कई ने उस की शिकायत भी की लेकिन सब बड़े अफसरों को उस ने पानी में ऐसा उतारा हुआ था कि कोई शिकायत नहीं सुनी जाती। उस के कर्मों ने कंपनी की एक शाखा तक बंद करवा दी। उस ने पूरे पाँच वर्ष निकाले। इस बीच हाउसिंग फाइनेंस ने संपत्ति के स्वत्वान्वेषण का काम जो हर स्थान पर कुछ वकीलों को दिया जाता था उसे आउट सोर्स कर दिया। चार राज्यों का काम दिल्ली की एक फर्म को दे दिया गया। हालांकि उस फर्म के लिए सारा काम करना संभव नहीं हो सका और कुछ स्थानों पर वकील काम करते रहे। पर बड़े नगरों में उस फर्म ने जिन वकीलों को विस्थापित कर दिया, सरदार भी उन में से एक था। उस के सामने फिर काम का संकट खड़ा हो गया। एक साथ एक तिहाई आमदनी का स्रोत छिन गया था। उन्हीं दिनों सामान्य बीमा कंपनी का डीएम बदल गया। वहाँ से काम वापस मिलने लगा लेकिन यह छिने हुए काम का पाँचवाँ हिस्सा भी नहीं था।
वकालत में मंदी, अदालतों में घमासान
श्रम न्यायालय में लम्बित मुकदमों की संख्या साढ़े तीन हजार ऊपर जा रही थी। हर साल चार-सौ मुकदमे नए आ जाते जब कि किसी भी तरह से डेढ़-दो सौ से अधिक मुकदमे निर्णीत नहीं हो रहे थे। स्थिति यह थी कि लंबित मुकदमों के निपटारे में ही बीस वर्ष का समय चाहिए था और मुकदमों का दायरा निपटारे से अधिक होने के कारण हर साल उन की संख्या बढ़ रही थी। अनेक सेवार्थी तो ऐसे थे जिन्हें अपने जीवनकाल में मुकदमे के निपटारे आशा नहीं रह गई थी। मुवक्किल प्रत्याशा के अनुपात में फीस तय और अदा करता है। फीस दर बढ़ने के बावजूद वकीलों की आय कम हो रही थी। इसी बीच श्रम न्यायालय के जज का स्थानांतरण हो गया और उस के स्थान पर किसी जज को नहीं लगाया गया। अदालत दो वर्ष तक खाली पड़ी रही। सरदार को फुरसत हो गई। इस बीच उस ने अच्छी फीस के कुछ फौजदारी और दीवानी मुकदमे लड़े और उन में सफलता भी पायी। लगने लगा कि श्रम न्यायालय में काम न रहने पर भी अपने लायक काम मिलता रहेगा। इन मुकदमों की सफलता इस काम को बढ़ाएगी। लेकिन सामान्य वकालत की स्थिति भी कम खराब न थी। दीवानी और फौजदारी अदालतें मुकदमों से अटी पड़ी थीं। एक-एक अदालत के पास चार-चार पाँच-पाँच अदालतों जितना काम इकट्ठा हो गया था। इस क्षेत्र में वकीलों के बीच घमासान था। वकील और उन के ऐजेंट काम के लिए अब सेवार्थियों के घर पहुँचने लगे थे। अधिकतर फौजदारी मुकदमों में वकील तफ्तीश करने वाले पुलिस अधिकारी की सिफारिश पर नियुक्त होने लगे थे। वकील की फीस में उन का कमीशन भी शामिल होने लगा। बढ़ती आबादी के मुकाबले अदालतों की स्थापना न होने से वकालत का व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हो रहा था। साफ था कि जब तक अदालतों की संख्या बढ़ती नहीं और सभी अदालतों में जजों की पदस्थापना नहीं होती। मुकदमों में लगने वाले समय में कमी नहीं आती। जिला स्तर तक वकालत का व्यवसाय कमाई के लिए बिलकुल बेकार हो चुका है। वकालत का व्यवसाय घोर और लंबी मंदी का शिकार हो चला था।
तीसरा खम्भा का आग़ाज़
इन्ही दिनों अंतर्जाल पर सरदार का हिन्दी ब्लाग से परिचय हुआ। वहाँ साहित्य, पत्रकारिता, संस्मरण, राजनीति सब कुछ थे। फिर क्या था? वह रोज अंतर्जाल में विचरने लगा। वहाँ हिन्दी लिखने की में समस्या थी लेकिन वह भी हिन्दी आईएमई ने समाप्त कर दी। उस में रेमिंग्टन कुंजी-पट था जो लगभग कृति फॉण्ट के कुंजी पट जैसा ही था। इस की मदद से टिप्पणियाँ करना चालू हो गया। एक पुराने गुरूजी का उल्लेख अनूप शुक्ल के किसी आलेख पर देखा। वर्षों से गुरू जी का पता न था। उन से पते की फरमाइश की तो उन्हों ने प्रियंकर जी के माध्यम से उसे पूरा कर दिया। साथ ही यह भी सलाह दी कि सरदार को ब्लाग लिखना चाहिए। उस ने आरंभिक जीवन में कहानियाँ लिखी थीं। वकालत के दिनों पत्रकारिता भी की थी। कभी कभी भावना व्यक्त करने के लिए कवितानुमा भी कुछ लिखा था जिसे सराहा भी गया था। लेकिन वकालत के व्यवसाय की व्यस्तता ने सब कुछ बहुत पहले ही रोक दिया था। बीच में करीब साल भर एक दैनिक में साप्ताहिक कॉलम जरूर लिखा, शेष सब फुरसत मिलने पर लिखना बकाया था। व्यवसाय में छाई घोर मंदी और हिन्दी ब्लागरी से परिचय ने उस वक्त को जल्दी ही ला दिया। श्रम न्यायालय में जज के अभाव ने सरदार को जो खाली समय दिया था उस ने न्याय व्यवस्था की दुर्दशा और वकालत के व्यवसाय पर पड़ रहे उस के प्रभाव ने सोचने और कुछ करने को प्रेरित किया था। उस के अपने व्यवसाय पर पड़ रहा विपरीत प्रभाव उसे सब से अधिक परेशान कर रहा था। उस ने अदालतों की संख्या बढ़ाने की जरूरत को वकीलों के बीच व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया था और यह भी कि इस के लिए वकीलों को ही सरकार से लड़ना होगा। लेकिन अदालतों की संख्या बढ़ने पर काम का बड़े नगरों से कस्बों और कस्बों से गांवों की और विकेन्द्रीकरण अवश्यंभावी था, जिस से वकील हमेशा भय खाता है क्यों कि वह हमेशा उस के मौजूदा काम को कम कर देता है। वकीलों के बीच सरदार की कोशिश कामयाब नहीं हो सकी। अचानक मन बना कि न्याय प्रणाली की समस्याओं को लेकर ब्लाग बना कर अपनी बात को लोगों तक पहुँचाया जाए। इस तरह ‘तीसरा खंबा’ का जन्म हुआ।
… और अनवरत का भी जन्म
आरंभ में तीसरा खंबा तक पहुँचने वाले पाठकों की संख्या बहुत कम थी। वह विषय आधारित ब्लाग था। सरदार ने कुछ पुराने ब्लागरों से पूछा तो सलाह मिली कि पाठक खुद ही जुटाने होंगे। कुछ दिन में महसूस हुआ कि ब्लाग जगत में ब्लागरों से अन्तर्क्रिया करना आवश्यक है अन्यथा यहाँ तुम्हें कोई नहीं गाँठने वाला। इस तरह कोई बाईस दिन बाद अनवरत का जन्म हुआ। अनवरत में पाठक आने लगे और अंतर्क्रिया भी खूब होने लगी। लिखने का उत्साह बढ़ने लगा। उन दिनों तक हिन्दी ब्लाग पर गूगल विज्ञापन परोसता था। ऐसा भी लगा था कि यदि ब्लाग पर पर्याप्त पाठक आने लगे तो इन से पहले साल में इतनी आय तो की ही जा सकती है कि उन का खर्चा निकाला जा सके। कुछ महिनों बाद ही गूगल ने हिन्दी ब्लागों पर अपने विज्ञापन परोसने बंद कर दिए। जो आ रहे हैं वे सभी सामाजिक (मुफ्त) सेवा के विज्ञापन हैं। इस से यह तो निश्चित हो गया कि फिलहाल ब्लाग आय का तो क्या? ब्लाग लेखन का खर्च निकालने का साधन भी नहीं बन सकता। लेकिन ब्लाग के रूप में सस्ते में अभिव्यक्ति का जो साधन उपलब्ध था उस से अपनी बात को पहुंचाने का अवसर मिल रहा था। उस ने तय किया कि वह हर हालत में अपने ब्लाग लेखन को जारी रखेगा और उसे नियमित रखने का प्रयत्न करता रहेगा। अगली कड़ी में समाप्त
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15 कमेंट्स:
दिलचस्प कड़ी। आखिर ब्लागिंग के मकाम तक आ ही पहुंचा सरदार। वकालात की मंदी के दिनों में शुरु हुई ब्लागिंग में तो झपटमार तेजी दिखाई सरदार ने:)
वैसे जानना चाहेंगे कि कब कब वकालत में मंदी और तेजी आती है।
तीसरा खंबा का बनना महत्वपूर्ण है ।
अनवरत तक आ पहुँची है यह यात्रा । अगली कड़ी अंतिम है । कुछ तीसरा खंबा और अनवरत के अनुभवों पर लिखिये ।
अपनी कहानी लिखना और इतना रोचक लिखना जो पढ़ कर अच्छा लगे एक विधा ही है . आपके संघर्ष और सफलता को पढ़कर कुछ प्रेरणा तो ली ही जा सकती है . लास्ट बट नॉट लीस्ट
कुछ कुछ अवसाद सा भी भर आया पढ़ते हुए -एक बौद्धिक व्यक्ति को कितना सहना पड़ता है इस बेतरतीब दुनिया में !
फिर तो सरदार ने अब तहलका मचाया ही हुआ है..रोचक.
अगली कड़ी में समाप्त ??? वो काहे? चलने दिजिये न जी!!! :)
लो ब्लोग्गिंग की अनवरत यात्रा शुरू होते ही ..समाप्ति की घोषणा...सरदार जी से आग्रह है कि ..फ़िर इसी आखिरी वाली में ढेर सारी बातें अनुभव उडेळ दिया जाए..जब तक बेंच नहीं बनती ..सुना हडताल जारी रहने वाली है ....
अजित जी, आपका शुक्रिया...मैं वकील साहब को सर कह कर ही संबोधित करता हूं...इस लेख से मुझे पता चला
कि सर के साथ दार भी जुड़ा हुआ है...मैं अपनी तरफ से सर और दार के साथ अ और जोड़ रहा हूं यानि असरदार...
जय हिंद...
interesting
अरे ! ये क्या, अगली कडी में समाप्त !!!! ऐसा न करें, जैसे जीवन चलता रहता है, इस कथा को भी चलने दें.
आदर.
अपनी कहानी लिखना सबसे कठिन काम है ....... आपको पढ़ते हुए खो से गए थे
ब्लॉग लेखन जारी रखने का आपका निर्णय बहुत अच्छा रहा
हम सबको आपको पढ़ पाते हैं
.अजित जी नमस्कार ....इसी का नाम दुनिया है ...बहुत कुछ बर्दाश्त करना पड़ता hai ..आपने जो भी लिखा है सटीक hai ... ये सफर निर्विघ्न चलता रहे यही कामना है
ओह ! अंतिम पड़ाव आ गया, बाद की कड़ियाँ बड़ी तेजी से आगे बढ़ गयी. !
अगली कड़ी में समाप्त!?
यह क्या बात हुई :-(
बी एस पाबला
आपका लेखन अनवरत व तीसरा खम्बा पर पढ़ते रहते हैं और यहाँ अजित भाई के सौजन्य से , " बकलमखुद " पर आपके हर
किस्से को पढ़कर , कई पहलू से अवगत हुए ...दोनों का आभार
और आप दोनों के जाल घर के लिए , शुभकामना भी ,
सा स्नेह,
- लावण्या
सरदार की कहानी ब्लॉगिंग तक पहुंची ही नही ब्लॉग जगत पर छा गई । आपने अपने संघर्ष को इतना रोचक बनाया कि हर पोस्ट की उत्सुकता से प्रतिक्षा रहती है पर अब अगले अंक में समापन........., इंतजार है एक और सुंदर पोस्ट का ।
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