साथियों, सफर के बीच बीच में कुछ ऐसे पड़ाव भी आते रहें तो कोई आपत्ति तो नहीं ?
नाखुदा लड़ते हैं , लड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल बढ़ने दीजिए
खुद-ब-खुद जो हाशियों पर आ बसे
उनके खेमों को उखड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल..
आंख झुक जाएगी खुद ही शर्म से
जिस्म को जी भर उघड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल...
हो कोई नन्हा सिरा उम्मीद का
एक तिनका ही पकड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल..
परकटी संभावनाएं हों जहां
बात बेपर की भी उड़ने दीजिए
नाव तो फिलहाल...
अजित
Wednesday, July 18, 2007
ग़ज़ल - नाखुदा लड़ते हैं...
प्रस्तुतकर्ता अजित वडनेरकर पर 2:25 AM
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6 कमेंट्स:
बेहतरीन, अजित जी.
अच्छी गजल.
अजीत भाई आपका ब्लॉग अच्छा लग रहा है । ये ग़ज़ल अच्छी है । खासकर आखिरी शेर । आप उस शहर से हैं जहां मेरा बचपन बीता, स्कूली पढ़ाई हुई । मुझे भोपाल से भोत पियार है । एक फरमाईश है । भोपाली ज़बान में कोई ग़ज़ल लिखिए ना । को ख़ां फंसा दिया क्या ।
अच्छी रचना है भाई.
Accha hai... Bahut badhiya gazal hai.. Shabdon ke Safar ke beech beech me agar aise padav aate rahenge...to bahut accha rahega.
Main maafi chahta hun ki beech me kuch din aapka blog padh nahi saka, isliye...ye gazal miss ho gayee..
:-)
बहुत खूब ...अजित जी |
खुश रहिये !
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