हि न्दी समाज में यूँ तो ‘अबे’ सम्बोधन को हिकारत के अर्थ में लिया जाता है किन्तु इसका एक अभिप्राय निकटता जताना भी है। आमतौर पर यारी-दोस्ती और भाईचारे में अपनापा दर्शाने के लिए भी ‘अबे’ कहा जाता है। अबे से अ का लोप होकर सिर्फ ‘बे’ रह जाता है। यह भी सम्बोधन है और निकटता दरशाने के लिए प्रयुक्त होता है जैसे क्यों बे, हाँ बे, चल बे, नहीं बे आदि।
भोलानाथ तिवारी के अनुसार अबे सम्बोधनार्थी अव्यय संस्कृत के 'अयि' का रूपान्तर है। वाशि आपटे के मुताबिक यह 'अये' से आ रहा है और विस्मयबोधक अव्यय है। 'अये' में अरे का भी भाव है। कई लोगों का अरे सम्बोधन दरअसल 'अये' ही सुनाई पड़ता है। हिन्दी शब्दसागर 'अयि' रूप की बात लिखता है। हिन्दी में सही रूप 'अबे' है। हिन्दी और अन्य बोलियों में 'अबै' दरअसल अब के अर्थ में बोला जाता है। पंजाबी में ‘अबा-तबा’ भी यही है। हिन्दी में 'अबे-तुबे' करना आम मुहावरा है जिसमें बोलने वाले के अहंकार और किसी को अपमानित करने, हेयता प्रकट करने का भाव रहता है। यह जो तुबे है, अबे का अनुगामी है। अबे से दोस्ती निभाने के लिए बना लिया गया अनुकरणात्मक शब्द है।
‘अरे’ का मूल ‘आर्य’ है ऐसा कहने वाले कई नहीं ‘कुछ’ विद्वान हो सकते हैं। ईमानदारी से कहूँ तो इन में भी मेरे पास सिर्फ डॉ. भगवान सिंह का हवाला ही है जिनका मानना है कि भोजपुरी का अरे तो आर्य का ही बदला हुआ रूप है। अलबत्ता साम्य के आधार पर ‘आर्ये’ से अरे का रिश्ता तार्किक नहीं लगता। संस्कृत से जितना भी थोड़ा-बहुत परिचय है उससे लगता है कि 'आर्ये' स्त्रीवाची सम्बोधन है। सिर्फ़ स्त्रीवाची सम्बोधन से ‘अरे’ अव्यय का बनना तार्किक नहीं। दूसरी बात आर्य से अज्ज > बन ही रहा है। यह तार्किक नहीं लगता कि आर्य या आर्ये से बने अरे का प्रयोग "अरे दुष्ट, अरे मूर्ख, अरे नराधम" में जिस सहजता से हो रहा है वहाँ 'अरे' का आशय आर्य से रहा होगा। जबकि ‘जी’ या ‘अजी’ में जो ‘आर्य’ है उसके आधार पर कभी ऐसे वाक्यों की रचना दिखाई नहीं पड़ती, मसलन-'अजी दुष्ट, अजी मूर्ख' जैसे वाक्य नाटकीयता लाने के उद्धेश्य से या परिहास में, सायास तो कहे जा सकते हैं पर स्वाभाविक तौर पर नहीं। सो ‘अरे’ की रचना में जो आर्य है सम्बोधन उसमें निहित आदर, सम्मान का भाव वाक्य रचना में भी सुरक्षित रहेगा जैसे आर्य से बने ‘अजी’, ‘जी’ अव्यय वाले वाक्यों में यह सुरक्षित नज़र आता है।
उपरोक्त विवेचन को मेरा दुराग्रह न समझा जाए। वैसे भी अपने समय के शीर्ष विद्वान हिन्दी शब्दसागर से जुड़े थे, उसमें भी ‘अरे’ अव्यय के पीछे ‘आर्य’ सम्भावना पर विचार नहीं किया गया है। दरअसल संस्कृत के सातवें स्वर ऋ में एक सम्बोधनकारी अव्यय का भाव भी है जो स्वतंत्र रूप में ‘रे’ सम्बोधन में भी नज़र आता है और इससे ही बने ‘अरि’ में भी भद्र पुरुष का आशय है जो सम्बोधनकारक के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। आर्य से अरे की तुलना में ऋ > री > रे या अरि > अरे > रे का विकास ज्यादा तार्किक लगता है। कृ.पां. कुलकर्णी के मुताबिक सम्बोधी अव्यय अरे के मूल में अरि का एकवचन रूप काम कर रहा है जिसका संक्षेप रे भी सम्बोधी अव्यय है। प्राचीन आर्यभाषाओं में इसके ही अपभ्रंश रूप प्रयुक्त हुए हैं। कुलकर्णी यह भी बताते हैं कि संस्कृत में अरि शब्द के दो रूप है नकारात्मक और सकारात्मक। नकारात्मक अरि का मूल सुमेरी शब्दावली का एरि है जिसका अर्थ शत्रु होता है।
‘अरे’, ‘रे’ के बारे में वामन शिवराम आपटे भी संबोधनात्मक अव्यय कहते हुए इसकी व्युत्पत्ति ‘ऋ’ से बताते हैं और इसका प्रयोग अपने से छोटों को सम्बोधित करने में बताते हैं। इसके अलावा इसका इस्तेमाल क्रोध, ईर्ष्या या घृणा को व्यक्त करने में भी किया जाता है। टर्नर भी ‘अरे’ को सम्बोधी अव्यय बताते हैं। वे शतपथ ब्राह्मण का हवाला भी देते हैं। पाली, प्राकृत में भी ‘अरे’ रूप हैं। इसके अलावा उत्तर भारत की अधिकांश भाषाओं में ‘अरे’ की व्याप्ति है।
यह भी देखें- जी हुजूरिया, यसमैन, जी मैन
8 कमेंट्स:
शुक्रिया वापसी के लिए
सुस्वागतम् !!
“कई लोगों का अरे सम्बोधन दरअसल 'अये' ही सुनाई पड़ता है।” जैसे हमारे मुलायम सिंह जी और उनके कुनबे के दूसरे लोग बोलते हैं। :)
अरे की जगह गोस्वामी जी ने रे का प्रयोग भी किया है- “रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सम्हारि”
आर्य का मत तो विस्मयादिबोधक नहीं हो सकता।
अरे ! आप तो शब्द संसार ही में निकले, कहाँ हो अजित भाई ?
फ़िल्मी दुनिया में भी कई 'अरे' भरे पड़े हुए है:
# अरे, ओ रे,……… ओरे-ओरे , धरती की तरह हर दुःख सह ले ....
# अरे-रे , रे-रे क्या हुआ दिल का अफसाना। …।
http://mansooralihashmi.blogspot.in
# हम 'आर्यजन' है बात न करते 'अरे', 'वरे'
शब्दों के धन में अपने तो मोती, रतन जड़े।
# 'शब्दों' का ये 'सफ़र' हुआ जारी है फिर से दोस्त,
'चल बे', 'अजित' के साथ फिर हो ले, हरे-भरे।
..........और भी …… at http://mansooralihashmi.blogspot.in
आप का विश्लेषण तर्कसंगत है। सिर्फ साम्य के आधार पर ‘आर्य’ से ‘अरे’ का रिश्ता नहीं माना जा सकता। पं. भोलानाथ तिवारी का मत सत्य के ज्यादा करीब जान पड़ता है।
अच्छा हमका लगत रहा कि ई अबे इलाहाबादी है!
अरे, अबे, बे, रे, सभी विस्मयबोधक संबोधन लगते हैं जो आर्य से अयि के ज्यादा समीप लगते हैं। अजित जी शब्दों का सफर फिर चल पडा अचछा लगा।
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