Tuesday, September 29, 2009

जेके फैक्टरी में छंटनी का मामला [बकलमखुद-23]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 107वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

पिछली कड़ी-कोटा में मज़दूरों का वकील[बकलमखुद-106]
ट्रे ड यूनियन के छोटे फौजदारी मुकदमों में लगातार दिखाई देने का यह लाभ हुआ कि लोग सरदार को एक वकील के रूप में पहचानने लगे। उस ने भी कोई कसर न रख छोड़ी। लेबरकोर्ट का एक भी मुकदमा पास न होने पर भी वह रोज वहाँ जाता, सुनवाई देखता और अदालत की पुरानी फाइलों को पढ़ता। इस से ज्ञान और अनुभव संचित होने लगा। जिस मोहल्ले में वह रह रहा था। वहाँ नौजवान सभा काम कर रही थी। सरदार के प्रयासों से दो माह में ही वहाँ शहीद भगतसिंह पुस्तकालय की स्थापित हो गया। जहाँ मजदूर और मध्यवर्ग के लोग पुस्तकें पढ़ने को एकत्र होने लगे। आपातकाल ने मजदूरों को सिखाया था कि विपत्ति में अकेले मजदूरों की एकता भी कोई मायने नहीं रखती। छात्र, नौजवान, किसान, दुकानदार, कर्मचारी संगठन भी बनने चाहिए और उन से मित्रतापूर्ण संबंध रहने चाहिए। उन्होंने इस ओर काम शुरू किया और सफलता हासिल की। जिस से हर संघर्ष में जन समर्थन हासिल कर पाए। वह कोटा के मजदूरों के लिए स्वर्णयुग था। इस स्वर्णयुग को लाने में परमेन्द्रनाथ ढंडा का उल्लेखनीय योगदान था। जनतांत्रिक मूल्य उन में गहरे पैठे हुए थे। वे अनुपम वक्ता थे। हिन्दी, हाड़ौती, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी पर समान अधिकार था। जिन के बीच होते उन्हें वे अपने लगते। वे मंच से हजारों लोगों को संबोधित करते, लोग उन्हें तल्लीनता से सुनते लेकिन मंच से नीचे आते ही अपने साथियों से पूछते कुछ गलत तो नहीं बोला। कोई उन्हें गलती बताता तो आगे खुद को सुधारते। मजदूरों के मांगपत्र पर समझौते का प्रस्ताव आता तो मजदूरों की आम सभा में उसे अच्छी तरह समझाते। हर मजदूर को सभा में अपनी राय रखने का अवसर देते। समझौता वही होता जो आमराय बनती।
आमदनी की जुगत
रदार के लिये यह कठिन समय था। खर्च के लायक भी कमाना भारी पड़ रहा था। यह वकालत के आरंभ के दिनों में सामान्य बात थी। एलएल.बी. करने के दिनों ही सरदार ने पिताजी के नाम से हाउसिंग बोर्ड को मकान के लिए आवेदन किया था। मकान आवंटित हो गया। पर वह चार किलोमीटर दूर पड़ता था, उसे किराए पर दे दिया गया। आखिर उस की किस्त उस से मिलने वाले किराए से ही देनी थी। लेकिन जिस माह घर खर्च की दिक्कत आती मकान किराया घर में खर्च हो जाता और मकान की किस्त बकाया हो जाती। कुछ माह बाद ट्रेडयूनियन की कार्यकारिणी ने तय किया कि वकील साहब को तीन सौ रुपए प्रतिमाह पारिश्रमिक दिया जाए। सरदार को इस फैसले से राहत तो मिली थी। लेकिन वह सोच में भी पड़ गया था। ट्रेड यूनियन के पास अभी पैसा है तो हर माह दे देगी। कल से वही संकट में आ गई तो न दे सकेगी। उसे इस रुपये को लेने की आदत पड़ गई तो बाद में मुश्किल हो जाएगी। सरदार ट्रेडयूनियन पर सहारा बनने के स्थान पर इतर कामों को ही अपनी आमदनी के साधन बनाने मे जुट गया। इस में वह एक हद तक सफल भी रहा। 300 रुपए की राशि वह कभी लेने नहीं गया, ट्रेड यूनियन का कैशियर कभी देने नहीं आया, सोचता रहा कि जब मांगेंगे दे देंगे। आठ माह इसी तरह निकल गए। इस बीच ट्रेडयूनियन संकट में आ गई।
ट्रेड यूनियन में गुटबाजी का दौर
ट्रेडयूनियन सीपीएम से संबद्ध सीआईटीयू की थी। सीपीएम में गड़बड़ आपातकाल में ही आरंभ हो चुकी थी। नेतृत्व पर सुरजीत हावी हो रहे थे। किसी न किसी बहाने से लोकप्रिय नेताओं को किनारे किया जा रहा था। राजस्थान के मोहन पुनमिया और परमेंद्रनाथ ढंड़ा लोकप्रिय जननेता थे। उन्हें किनारे करने का रास्ता तलाशा जा रहा था। संकट था तो जनता के बीच उन की लोकप्रियता। अचानक दोनों को मिथ्या आरोप लगा, बिना सुनवाई का मौका दिए पार्टी से निकाल दिया गया। यह सब अंदर-अंदर चल रहा था। सरदार को इस की खबर ट्रेड यूनियन के गुटबाजी करने के लिए जाने जाने वाले एक नेता ने सुबह-सुबह घऱ पर आ कर दी। सरदार सो कर उठा ही था। उस ने बताया कि दोनों मुख्य नेताओं को निकाल दिया गया है, दोनों गुटबाज थे। कोई उन से न मिले वर्ना उस का अंजाम बुरा होगा। सरदार ने उसे चलता किया, वह समझ गया था कि यह मजदूरों में आतंक फैलाने की कार्यवाही है।
जेके सिंथेटिक्स में छंटनी
पार्टी ने कहा कि दोनों सुधार करेंगे तो उन्हें वापस ले लिया जाएगा। लेकिन यह योजना थी कि कुछ समय लिया जाए और दोनों के साथ के लोगों को उन से अलग कर दिया जाए। सीपीआईएम का यह काम जनतांत्रिक सिद्धान्तों के विरुद्ध था। कोटा के लोगों को जनतांत्रिक तरीकों की ऐसी आदत पड़ गई थी कि वे इस निर्णय को पचा न सके। वे दोनों की पार्टी में वापसी के लिए नेतृत्व से भिड़ गए। लेकिन इस बीच पार्टी के नेतृत्व ने ट्रेडयूनियन के कमजोर लोगों को लालच दिखा कर अपने साथ कर के संगठन में फूट डाल दी। कोटा के उद्योगपति तो इस अवसर की प्रतीक्षा में ही थे कि कब मजदूरों के इस मजबूत संगठन में दरार पड़े। उन्हों ने दोनों लोकप्रिय नेताओँ के विरुद्ध पार्टी को सहयोग किया और ट्रेडयूनियन को विभाजित कर दिया। इस का नतीजा यह हुआ के कोटा के सब से बड़े उद्योग जेके सिंथेटिक्स ने गुपचुप अपने कारखानों में रेशनलाइजेशन की योजना बना डाली और जनवरी 1983 के उत्तरार्ध में कारखाने में उत्पादन एक कृत्रिम ले-ऑफ के बहाने रोक कर एक साथ ढाई हजार मजदूर छंटनी कर दिए गए। इस से अधिक ठेकेदार के मजदूर बेकार हो गए।
मुकदमे की तैयारी
छंटनी के पहले दिन शाम को पुनमिया जी ने सरदार से फोन पर बात की कि दीवानी अदालत में मुकदमा कर के आगे की छंटनी पर रोक लगाई जाए। आप तैयारी करो, सुबह मैं कोटा पहुंचता हूँ। सरदार को उन की यह बात जमी नहीं, वह सारी रात कानून की किताबों से कुश्ती लड़ता रहा। अगले दिन सुबह जब पुनमिया कोटा पहुँचे तो वह किताबों के ढेर के साथ ढंडा जी के घर उन के साथ बैठा समझा रहा था कि दीवानी अदालत से मजदूरों को कोई भी राहत दिला पाना संभव नहीं है। एक तो दीवानी अदालत के सामने क्षेत्राधिकार की समस्या है, दूसरे सब से छोटी अदालता का जज मालिकों की ओर से आने वाले दवाब को सहन करने लायक नहीं। छंटनी पर रोक लग सकती है तो हाईकोर्ट ही अर्जी लगानी होगी। वे सरदार से सहमत थे। मजदूरों की इस छंटनी को रोकने के लिए हाईकोर्ट जाने की तैयारी आरंभ हो गई।

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11 कमेंट्स:

Udan Tashtari said...

सरदार का ये रोल भी अच्छा रहा. जारी रहिये.

Himanshu Pandey said...

अदभुत वृतांत । सब कुछ सहज ही अभिव्यक्त । बकलमखुद की कड़ियों में एक और कड़ी । आभार ।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

ट्रेड यूनियन का दुर्भाग्य होती है उनके नेताओ का प्रवंधन के हाथ बिकना . मेने तो सीटू ,बी ऍम एस, इंटक में यह ही देखा है .
बकलमखुद के यह एपिसोड तो टी आर पी में सबसे ऊपर है और रोचक भी , वकील साहिब एवं अजित जी को धन्यबाद

दिनेशराय द्विवेदी said...

@ धीरू सिंह
सीटू का चरित्र 80 तक ऐसा न था। लेकिन सीपीआईएम में नेतृत्व का झगड़ा जो आपातकाल के दौरान आरंभ हुआ, उस ने सीपीआईएम और सीटू दोनों के चरित्र को बदलना आरंभ किया। आज पूरी तरह बदल चुका है।

Arvind Mishra said...

अब आ गयी वकालत की घणी परीक्षा !

निर्मला कपिला said...

बक्लमखुद की इस कडी के लिये भी बधाई और शुभकामनायें

शोभना चौरे said...

सफर की कठिनाइयों के बावजूद भी सफर अच्छा है \आभार

Naveen Tyagi said...

achche lekhan ke liye bandhaai.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

संस्मरणों की कड़ी रोचकता के साथ बढ़िया चल रही है।

शरद कोकास said...

सरदार ने वकालत के प्ररम्भिक दौर में मज़दूरों के पक्ष में अपने पेशे और बुद्धि का उपयोग किया यह अच्छी बात है वरना वह पूंजीपतियों के पक्ष में होता तो नाम तो बहुत कमा लेता बड़ा वकील भी बन जाता लेकिन सही मनुष्य नही बन पाता । बुर्जुआ यही करते हैं मज़दूरों के हिमायती बनकर और उनके बीच के आदमी जैसे दिखाई देते हुए उनमे फूट डलने का प्रयत्न करते हैं । यह तंत्र अक्सर सफल भी हो जाता है ।

Abhishek Ojha said...

आपके वकालत का पहला बड़ा और रोचक केस है. फैसले का इंतज़ार रहेगा.

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