Wednesday, March 26, 2008

सच्चे ब्लागवीर हैं नटखट बेनामी....

ह घोषणा करने को जी चाहता है कि ब्लागजगत के असली सूरमा है नटखट बेनामी । जहां चाहें, जो जी चाहे कर जाएं, हिम्मत है तो पकड़ कर दिखाए कोई इन्हें । ये बदमाश नहीं हैं, नटखट हैं। आपके - हमारे बीच के हैं। बचपना बिसराया नहीं जा रहा है सो दिखा जाते हैं नटखपन। ऐसा नहीं कि सिर्फ इसमे ही वक्त ज़ाया कर रहे हैं, नहीं । इनके अपने ठिकाने हैं। वहां पर काफी समझदारी की बातें होती हैं। न्योता भी जाता है और समझदारी की बातें करने वालों को । मगर कुछ पुरानी टसल उभर आती है कभी। बचपन में कोई किसी का लॉलीपॉप चुरा कर भागा था , तब पकड़ में नहीं आया पर अब आया है इस ब्लागर्स पार्क मे । बस, अब निपटाते हैं पट्ठे को ! कुछ यही हाल नज़र आता है हमें यहां भी।

अब शब्दों का सफर पर भी ऐसे ही एक बेनामी नटखट की हरकत हमें विमल वर्मा के बकलमखुद की अंतिम कड़ी में नज़र आई। जैसे ही पहली टिप्पणी हमने अनिल रघुराज की पढ़ी हम भी वैसे ही घबराए जैसे अनिल रघुराज घबराए । हमने सोचा कि अनिल भाई ने ये क्या लिख डाला। माना कि अविनाश से उनके वैचारिक मतभेद हैं मगर इस किस्म की खुली चिढ़ उन्होने कभी उजागर नहीं की। दूसरी बात कि वे यह भी जानते हैं कि अविनाश हमारे अच्छे दोस्त हैं। ब्लागिंग के ही जरिये सही , मगर उनसे आत्मीयता हो चुकी है। अविनाश ही थे जब हम आठ महिने पहले ब्लागिंग में घुटनों के बल चलना सीख रहे थे तो कथादेश में उन्होने हमारे बारे में परिचयात्मक लेख लिख कर उत्साहवर्धन किया था।
अनिलभाई भी हमारे अच्छे मित्र हैं और शब्दों के सफर की मुहिम में शुरूआती दौर से ही हमारी पीठ थपथपाते रहे हैं। ये तब से है जब अभय तिवारी ने अपने ब्लाग पर सबसे पहले हमारा परिचय कुछ इस अदाज़ में कराया था।
अब अनिलभाई की उक्त टिप्पणी को न तो हम डिलीट कर सकते थे और न उन पर गुस्सा कर सकते थे कि भाई ये क्या राग अलाप रहे हैं आप! लिहाज़ा होली के बहाने से तथाकथित रूप से लिखी उनकी बात संभाली ताकि अविनाश सचमुच बुरा न मान जाएं जैसा कि बेनामी नटखट चाहता था कि अविनाश और हमारे बीच भी मतभेद हों। हमें उक्त टिप्पणी से सबसे ज्यादा हैरत इस बात पर थी कि जिस बकलमखुद की पहल हमने की ही इस उद्देश्य से है ताकि ब्लागर साथी एक दूसरे के बारे में जान सकें और ज्यादा गहराई से जुड़ सकें , उस पहल के साथ भी शरारत !
बेनामी ने अविनाश जी के ब्लाग का लिंक तो देखा पर यह नहीं देखा कि हम निर्मल आनंद का लिंक देना भी भूल गए थे। बहरहाल, सुनीता शानू की टिप्पणी से कुछ गड़बड़ी का एहसास हुआ तो हिन्दुस्तानी की डायरी पर पहुंचे और हक़ीकत जानी। इस बीच हम अपनी ग़लती तो पहले ही सुधार चुके थे।
कहना बस यही है कि अनिल रघुराज इससे व्यथित न हों। सच छुपता नहीं है। अविनाशजी भी इस बात को समझते हैं कि अगर हमे लिंक ही नहीं देना होता तो हम विमल वर्मा की पसंद के किसी भी ब्लाग का नाम भी क्योंकर देते ? और आज की तारीख में मोहल्ला जिस जगह है वहां उसे किसी लिंक के सहारे की ज़रूरत भी नहीं। सो जाहिर है कि नटखट की शरारत पकड़ी जा चुकी है। अब ये उसे तय करना है कि कब तक शरारतें जारी रखनी है। जैसी हरकत वो कर रहे हैं वो सब पर जल्दी ही उजागर हो रही है। तकनीक का ज़माना है भाई।
अगर शब्दों के सफर से , बकलमखुद से, या किसी ओर बात से परेशानी है तो साफ़ साफ़ बताएं। हमारा सेलफोन न. है-9425012329 . बड़ी उम्र वालों की ग़ैरवाजिब शरारतें अच्छी बात नहीं। ये ठीक है कि ब्लागजगत के असली सूरमा ये नटखट बेनामी हैं लेकिन हम विनम्रता से यह भी बताना चाहेंगे कि सूरमा शब्द की बहुत अवनति हो चुकी है। अब शूरवीर को सूरमा नहीं कहा जाता बल्कि खुद का वर्चस्व गैरवाजिब ढंग से स्थापित करने की जोड़-तोड़ में लगे व्यक्ति के संदर्भ में ही सूरमा का ज्यादा प्रयोग होता है।

9 कमेंट्स:

अनिल रघुराज said...

अजित भाई, अच्छा है। पानी बहता है तभी उसके नीचे जमी काई नज़र आती है और काई दिख जाती है तो सफाई का इंतज़ाम भी होने लगता है।
बस, मेरी तो यही आरजू है कि शुरुआती दौर में ही हम सभी हिंदी ब्लॉगरों का आपस में जो भरोसा कायम हुआ है, वह बरकरार रहे, ब्लॉगिंग से बनी नई दोस्ती कायम रहे।

अनूप शुक्ल said...

सही है। लेकिन ज्यादा चिंता मती करो जी। इस तरह के लोग ज्यादा मेहनत नहीं कर पाते।

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप कितनी ही स्वादिष्ट दाल बना डालें, खाने वालों में से किसी न किसी को तो किरकिरा ही जाएगी। दाल खानी है तो किरकिराहट से कैसे बचोगे। मस्ती से दाल बनाइए और खाइए महाराज जी। कंकड़ आ जाए तो उसे निकाल बाहर कीजिए।

Anonymous said...

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Sanjeet Tripathi said...

मुझे लगता है ऐसे लोगों का जितना ज्यादा नोटिस लिया जाए यह उतना ज्यादा उछलते हैं, इन्हें नज़र-अंदाज़ किया जाए वही सही है।

Arun Arora said...

अरे भईया ये पुरानी शरारते है,जो अक्सर काफ़ी लोग करते है,हमे भी पहली बार तब पता चला था जब हमारे तो नाम से खुद ही अपने ब्लोग पर टिपियाकर हमे गालिया देने का सुख भी प्राप्त कर डाला था देबाशीश जी ने ..:)

mamta said...

संजीत जी की बात ठीक है।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अजीत जी,
सफ़र की हद है वहाँ तक कि कुछ निशान रहे
चले चलो कि जहाँ तक ये आसमान रहे .

शुभकामनाएँ.

सुनीता शानू said...

निंदक नियरे राखिये...मेरे ख्याल से जो हुआ अच्छा ही हुआ...नेट की दुनियाँ में क्या-क्या होता है हमे भी मालूम हुआ...हमने सोचा की अनिल जी कह रहे हैं कि यह टिप्पणी उनकी नही मगर उस पर क्लिक करने से उन्ही का ब्लोग ओपन हो रहा है यह कैसा खेल...अब बात समझ आई यह सब नई तकनीक है और कुछ नही...

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