भाषा की प्रकृति को समझे बगैर शेख़चिल्ली नेताओं ने विश्व हिन्दी सम्मेलन क्या आयोजित कर लिया अब वे हिन्दी-विकास भी इन्स्टैंट चाय कॉफी बनाने जितना आसान बना देने वाले हैं। हिन्दी-तमिल, हिन्दी-कश्मीरी विद्वान आपस में बैठेंगे और तय हो जाएगा कि हिन्दी को किन-किन शब्दों की ज़रूरत है। लीजिए एमओयू पर दस्तख़त भी हो गए। सोमवार तक दो दर्जन शब्दों का पहला कनसाइनमेंट भी आ जाएगा !
मैने गौर से सुना, उन्होंने कहा- “कभी ऐसा भी हो कि हिन्दी-कश्मीरी के विद्वान आपसे में बैठें और इस पर सोचें कि कश्मीर का कोई मुहावरा हिन्दी में कैसे ‘फिट’ किया जा सकता है”। यह भी कहा कि अन्य भारतीय भाषाओं जैसे तमिल, तेलुगू के विद्वानों को आपस में बैठ कर विचार करना चाहिए कि किस तरह उनकी भाषा के अच्छे शब्द, मुहावरे हिन्दी में लाए जा सकते हैं। इससे हिन्दी समृद्ध होगी। राजनीति की बिसात पर गोटियाँ फिट करने वाले सियासतदाँ जब भाषा की ओर रुख करते हैं तब वहाँ भी फिट करने की ही शब्दावली बोलते हैं चाहे शब्दों और मुहावरों की बात करें।
क्या किसी ज़माने में अरबी, पुर्तगाली, फारसी और अंग्रेजी विद्वानों की हिन्दी विद्वानों के साथ कोई बैठक हुई थी और उसके बाद इंतज़ाम, कप, बसी, मंज़ूर, गुनाह, इस्तेमाल, मालामाल, मर्ज़ी, तबाह, ग़ुस्लख़ाना, इंतज़ार, चाकू, नश्तर, नसीब, नशा, खलास, ख़र्च, माहिर, माली, गोभी, बटन, समोसा, कारतूस, गोदाम, बंदूक, पिस्तौल, स्कूल, गिलास, लालटेन, टोपी, शो, पिक्चर, कैमरा, अस्पताल, कार, मोटर, ट्रक, टीवी, यूज़ जैसे शब्द हिन्दी ज़बान पर चढ़ाए गए ?
क्या अंग्रेजी में गुरु, कुली, सूप, योग, अमृत, बैंगन, ब्रिंजल, धोती, घी जैसे कई शब्द भी हुकुमते-बरतानिया और मुग़ल दरबार के बीच हुए समझौते के तहत ही बरते जा रहे हैं ? अरे साहबान शेख़चिल्ली जैसी बातें न करें...भाषा में राजनीति नहीं, समाजवाद चलता है। जो बात ज़बान पर चढ़ जाए, जो अल्फ़ाज़ दिल को छू जाएँ बस, कोई भी भाषा थोड़ा थोड़ा समृद्ध हो जाती है। कुछ और आगे बढ़ जाती है।
भाषाओं का यह आपसी लेन-देन बेहद ख़ामोशी से होता है। सरकार को चाहिए कि ऐसा माहौल बनाए कि एक भाषायी क्षेत्र का आदमी दूसरे भाषायी क्षेत्र से जुड़ सके। सिलेबस में कोई एक क्षेत्रीय भाषा सीखना अनिवार्य किया जाए। हिन्दी क्षेत्रों के जो बच्चे महाराष्ट्र, तमिलनाड़ू, गुजरात, पंजाब जैसे राज्यों में पढ़ते हैं उन्हें इसका लाभ समझ में आता है। किताबें सस्ती बिकें, ऐसी व्यवस्था हो। पूर्वोत्तर के प्रति सरकार और मीडिया की उदासीनता भी भाषायी पहल से दूर हो सकती है। अगर सरकार भाषायी हेल-मेल का महत्व सचमुच समझना चाहती है तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर देशभर के लोगों से इस पर विचार आमन्त्रित किए जाएँ।
भाषाओं की सहभागिता और उनका स्वतन्त्र विकास ही इस देश में शान्ति और सद्भाव बनाए रखने का आसान और कारगर उपाय है। पर ये लोगों के मेल-जोल से संभव होगा, सुचना माध्यमों की प्रभावी भूमिका से होगा। सरकारी बैठकों, समनेलनों की थोथी बातों से नहीं।
1 कमेंट्स:
भाषा अपनी मर्ज़ी से रचती -बसती है, धकेलकर नहीं। सराकारी संस्थाओं की जादूगरी काम न आएगी । आपका कथन सर्वथा सच एवं व्यावहारिक है।
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