Monday, February 4, 2008

भारत विभाजन पर कुछ खास [ पुस्तक चर्चा ]

शब्दों के सफर में एक नई शुरूआत पुस्तक-चर्चा के जरिये हो रही है। हिन्दी में प्रकाशित जो कुछ भी मैं नया पढ़ रहा हूँ , मेरा प्रयास होगा कि उसकी जानकारी आप तक भी पहुँचाऊँ। हो सकता है कि आप भी इसे पढ़ चुके हों या इस अनुभव से गुजर रहे हों तो अनुभव साझा किये जा सकते हैं। शुरूआत प्रियंवद की हाल ही में प्रकाशित भारत विभाजन की अंतःकथा से ।

बीती एक सदी में दुनियाभर में आए सामाजिक राजनीतिक बदलावों ने साहित्य की दुनिया को भी बेतरह प्रभावित किया है । साहित्य समाज का आईना होता है इसलिए संवेदना के स्तर पर तमाम परिवर्तन स्याही से गुज़रकर काग़जी इबारत बनें और इतिहास का एक हिस्सा हो गए। भारत विभाजन भी एक ऐसी ही महत्वपूर्ण घटना थी जिसने विश्व को प्रभावित किया । इस विषय पर अंग्रेजी हिन्दी में खूबलिखा गया। राजनीतिक विश्लेषण, आत्मकथात्मक आख्यान, कहानियां, उपन्यास, विशुद्ध इतिहास लेखन और वैमनस्यकारी प्रलाप तक कागज़ों की इबारत बने। हिन्दी के प्रख्यात कहानीकार-उपन्यासकार प्रियंवद की हाल ही में आई एक पुस्तक भारत विभाजन की अंतःकथा इस कड़ी की एक महत्वपूर्ण रचना है। मेरा मानना है कि भारत के हर पढ़ेलिखे नौजवान को यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए। इस देश के इतिहास ,उसकी नियति,विडम्बनाएं और भविष्य की थाह लेने के लिए हमेशा ही हम सदियों पुराने अतीत में गोते नहीं लगा सकते हैं। आज की पीढ़ी अगर साठ बरस पहले हुए भारत विभाजन को ही एक राष्ट्र का जन्म माने और उसे अपने अस्तित्व से जोड़ कर देश के वर्तमान हालात,हिन्दू मुस्लिम समस्या ,ग़रीबी,सदियों की गुलामी,सहसंस्कृति और आने वाले दिनों के बारे में कुछ सार्थक सोचना चाहे तो उसके लिए यह पुस्तक सही समय पर लाए हैं प्रियंवद। पुस्तक जो मुख्य सवाल उठाती है वे है कि वे क्या कारण थे कि धर्म के नाम पर बंद कमरों में बैठकर सियासी लोगों ने देश को दो टुकड़ों में बाँट दिया। एक वृहत सार्वभौम भारत जो सदियों से साँसें ले रहा था उसका अंत कर दिया। लगातार कई सदियों तक साथ रहे हिन्दू मुस्लिम आजादी के अंतिम दिनों में साथ बने रहने पर सहमत क्यों न हो सके। कहां थे इस विभाजन के बीज।
कुल मिलाकर यह पुस्तक ऐसे अनेक सवालों के जवाब भी तलाशने की कोशिश करती है।लेखक ने पूरी ईमानदारी से अतीत मे गोते लगाए हैं। जबर्दस्त शोधकार्य के साथ ईसापूर्व भारत के संदर्भों से लेकर मुगलकाल के दस्तावेजी संदर्भों और अंग्रेजी राज के हर उपलब्ध लिखित मुद्रित सबूत को उन्होने टटोला है। हिन्दी में विभाजन के विद्रूप पर भावुक कविताएं ,तिलमिला देने वाली कहानियां और गहरे अवसाद मे डुबो देने वाले उपन्यास तो लिखे गए मगर भारत विभाजन की अंतःकथा के रूप में जैसा संदर्भग्रंथ प्रियंवद ने लिखा है वैसा काम अभी तक नहीं हुआ। भारी भरकम संदर्भों से लदी-फदी होने के बावजूद यह पुस्तक किसी कथा साहित्य का सा मज़ा देती है। प्रियंवद जिस रोचक शैली में कठिन सवालों की तलाश में गूढ़ तथ्यों की पड़ताल करते हैं, उसमें पाठक को कही उलझाव महसूस नही होता। 2007 की यह हिन्दी साहित्य को मिली सबसे कीमती भेंट है।
पुस्तक भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ने प्रकाशित की है। मूल्य है 495 रूपए।

6 कमेंट्स:

दिनेशराय द्विवेदी said...

पुस्तक पढ़नी पड़ेगी।

पंकज सुबीर said...

सुना है इसके बारे में और पढ़ने की इच्‍छा भी है पर कीमत कुछ बजट से बाहर हो रही है द्य

Unknown said...

शब्‍दों के सफ़र पर चलते हुए, पुस्‍तकों से मुलाकात करवाने का यह जो सिलसिला आपने शुरु किया है उसके लिए धन्‍यवाद। उम्‍मीद है कि यह सिलसिला बदस्‍तूर जारी रहेगा और इस तरह की पोस्‍ट पर आई टिप्‍पणियों से पुस्‍तक/लेखक के बारे में पाठक की समझ और बढ़ेगी।

Sanjeet Tripathi said...

इस नए सिलसिले के लिए बधाई व शुक्रिया!!
जुगाड़कर ही सही यह पुस्तक पढ़नी पड़ेगी!

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

अजीतजी, शुक्रिया पुस्तक के बारे में अच्छी जानकारी दी। अब पुस्तक खरीदनी ही पड़ेगी।

Yunus Khan said...

अच्‍छी शुरूआत । बने रहिए । हमने हर महीने अलग से पैसे निकालने शुरू कर दिये हैं इन पुस्‍तकों को ख्‍रीदने के लिए ।

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