बो लचाल में बिछौना के लिए गद्दा शब्द खूब प्रचलित है। हिन्दी की बोलियों जैसे मालवी, राजस्थानी और पूरवी में गदेला शब्द भी प्रचलित है। इसी कड़ी में आते हैं गद्दा या गद्दी जैसे शब्द। बिस्तर या बिछौना के लिए ये शब्द बहुत आम हैं बल्कि बिस्तर बिछौने से कहीं ज्यादा व्यापक इनकी अर्थवत्ता है। गौर करें बिस्तर-बिछौने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि बिछायत की सामग्री अथवा शयन करने का आसन। गद्दा या गद्दी की महिमा न्यारी है।
हिन्दी में गद्दा अगर बिस्तर है तो गद्दी भी बिछौना है मगर इसके साथ ही वह राजसिंहासन भी है। एक ऐसा आसन है जिस पर सामंत लोग विराजते हैं। गद्दी एक ऐसी पीठ या पीठिका भी है जिस पर बैठने से व्यक्ति की महत्ता का बोध होता है। यह शब्द बना है संस्कृत के गर्द् से जिसमें आसन, सीट, उच्च स्थान, रथ का आसन आदि के भाव हैं। जाहिर सी बात है कि प्रभावशाली व्यक्ति को प्राचीनकाल से ही उच्च स्थान पर बैठाने की परिपाटी रही है ताकि जनसमूह में उसकी भूमिका स्पष्ट हो सके। हालांकि प्रभावशाली या प्रमुख व्यक्ति को ऊंचे स्थान पर बैठाने की आदिम रिवायत के पीछे मुख्य कारण जन समूह को दिखाई देने की सुविधा ही रही होगी। लोगों के हुजूम में चाहे जितना ही महत्वपूर्ण व्यक्ति क्यों न उपस्थित हो, एक ही धरातल पर स्थित होने से उसका सभी को नजर आना तब तक संभव नहीं है जब तक उसे ऊंचा न उठाया जाए। इस तरह महत्वपूर्ण दर्जा पाए लोगों को ऊंचे स्थान पर बैठाने की परिपाटी शुरु हुई होगी। आज हरकोई अपने लिए गद्दी चाहता है। रात का बिछौना नहीं बल्कि सिंहासन, कुर्सी के रुतबेवाली गद्दी।
संस्कृत के गर्द् में यही भाव समाए हैं। जाहिर सी बात है कि कालांतर में जनसमूहों अर्थात कबीलों का नेता जो बाद में राजा बना, ऊंचे सिंहासन पर विराजने लगा। मनुष्य ने तब तक इतनी तरक्की कर ली थी कि अपने राजा को न सिर्फ ऊंचे आसन पर बैठाए(जो कि लम्बे समय तक पत्थर की ऊंची शिला ही रही) बल्कि उस आसन को सुविधाजनक और आरामदेह भी बनाए। इसी मुकाम पर आकर गर्द् में निहित ऊच्चासन वाले भाव गद्देदार होने लगते हैं। जिस ऊंचे आसन की बात गर्द् में निहित है उसे मुलायम पत्तियों, फूलों और रेशों से सज्जित कर दोहरी, तिहरी परतदार बनाया गया। सबका नेता ऐसे ही नर्म आसन पर बैठने का हकदार होता है। इस तरह गर्द् में ऊंचे आसन का जो भाव था उसमें गुदगुदापन, नर्माहट आदि भी जुड़ गईं। कालांतर में गद्दा, गद्दी, गदेला आदि के साथ बिछौना, बिछायत अथवा बिस्तर का भाव प्रमुख हो गया। ध्यान दें, सामान्यजन
का गदेला या गद्दा चाहे सिंहासन नहीं है मगर है तो तब भी आमतौर पर बिछाए जाने वाले आसनों से कुछ ऊंचा ही। स्पष्ट है कि गद्दे में पहले ऊंचाई का भाव प्रमुख था मगर कालांतर में उसमें गुदगुदाने वाला भाव प्रमुख हो गया। गद्दे के साथ जो नर्माहट का भाव चस्पा हुआ कालांतर में उससे ही गुदगुदी, गुदगुदाना, गदबदा जैसे शब्द जन्में होंगे जिनमें मोटाई, नरमाई के साथ आमोद का भाव भी जुड़ा हुआ है। रॉल्फ़ लिली टर्नर का कोश भी इस व्युत्पत्ति की पुष्टि करता है ।
दिलचस्प यह भी कि ग़रीब अगर सोने-बिछाने के इस आसन का प्रयोग करे तो वह गुदड़ी, गोदड़ी, गुदड़िया कहलाएगी। विभिन्न प्रत्ययों और उपसर्गों के जरिये समाज अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है इसका उदाहरण गुदड़ी में मिलता है। अड़ा, अड़ी, इया जैसे प्रत्ययों के जरिये किन्ही वस्तुओं, पदार्थों में हीनता या क्षुद्रता का सफलतापूर्वक आरोपण किया जाता है जैसे छकड़ा(शकट), जोगड़ा(जोगी), गुदड़ी(गद्दा), तबकड़ी(तबाक) आदि। गुदड़ी की तरह ही कथरी/कथड़ी/कथलिया भी एक बिछावन-ओढ़ावन का नाम है। गरीबी से उभरी प्रतिभा के लिए हिन्दी में गुदड़ी का लाल कहावत प्रचलित है। आमतौर पर कथरी बचे हुए कपड़ों, चिथड़ों से बनाया हुआ बिछावन होता है जिसे गद्दे के भी नीचे बिछाया जाता है। कथरी किसी भी घर में देखी जा सकती है। मितव्ययी और पुनर्प्रयोग की पुरातन भारतीय शैली का नमूना है कथरी जिसमें पुराने अनुपयोगी कपड़ों का इस्तेमाल बिछावन के तौर पर हो जाता है। थिगले लगे वस्त्र को भी कथरी कहा जाता है। यह शब्द बना है संस्कृत के कन्था से जिसमें झोला-झंगा, पैबंद लगा चीवर जिसे भिक्षुक धारण करते हैं अथवा गुदड़ी का भाव है। कन्थाधारिन् का अर्थ ही भिक्षुक अथवा सन्यासी है।
पंजाब में रुई अथवा एक किस्म वस्त्र को दगला कहते हैं। सामान्यतौर पर यह जैकेटनुमा होता है जो मूलतः मोटे सूती कपड़े का होता है जिसमें रूई भरी होती है। यह दगला दरअसल इसी कड़ी से बना है। मध्यक्षेत्र में गर्द् से गद्दा, गद्दी जैसे शब्द बनें। वर्ण विपर्यय के जरिया गर्द (गरद) ने गदेला का रूप धरा। इस गदेला के साथ पश्चिमी सीमांत में जाकर एक बार फिर वर्णविपर्यय की प्रक्रिया घटी और यह बन गया दगला यानी वास्कट या जैकेट। एक तरह से इसे मोटा अंगरखा भी कह सकते हैं। आमतौर पर बॉडीगार्ड को अंगरक्षक कहते हैं मगर दिलचस्प तथ्य है कि अंगरखा भी अंग+रक्षकः से मिलकर बना है अर्थात जिससे शरीर की रक्षा हो। वस्त्र या पोशाक का आविष्कार इसलिए नहीं हुआ था क्योंकि मनुष्य को लज्जाबोध सताता था, बल्कि इसीलिए हुआ था क्योंकि मनुष्य को प्रकृति के बदलते तेवरों से अपने शऱीर की रक्षा करनी थी। इसीलिए मनुश्य के शरीर की रक्षा अंगरक्षक, बॉडीगार्ड या पहरेदार ने नहीं की बल्कि अंगरखे ने की।
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सुन्दर जानकारी।आभार।
ReplyDeleteबिस्तर-बिछौने की तह में जाकर
ReplyDeleteअच्छी पोल खोली है।
पूरा आलेख सुन्दर और रोचक है।
बधाई।
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने!
ReplyDeleteमेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
इधर बच्चों को भी गदेला कहते हैं -हो सकता है नरम गुल गुल ढुलमुल शरीर होने के कारण बच्चों को गदेला कहते हों !
ReplyDeleteसुंदर शब्द चर्चा। गदेला के साथ कथलिया को भी स्मरण कर लें।
ReplyDelete@दिनेशराय द्विवेदी
ReplyDeleteखूब याद दिलाया साहेब...रात में लिखने से पूर्व यह शब्द स्मरण था, मगर छूट ही गया। आपके याद दिलाने पर इसे शामिल कर लिया है। शुक्रिया। आप सफर के सच्चे साथी हैं।
कथलिया को कथल्या भी कहते हैं। हमारे ग्रामीण जीवन का यह आम बिछौना है। जिसे घर की औरतें पुराने कपड़ों से बनाती हैं और उस में तरतीब से टाँके लगा कर सुन्दर आकृतियाँ बनाती हैं। गर्मी के मौसम में छतों पर सोने के लिए इस से आरामदायक बिछौना नहीं है। महत्वपूर्ण यह कि यह धोओ और प्रयोग करो की जाति का है। मेरी तो अनेक स्मृतियाँ इस से जुड़ी हैं।
ReplyDeleteगद्दे से गुदगुदी ! चकित होता रहता हूँ ।
ReplyDeleteआभार ।
डॉ. सुरेश वर्मा जी की आशिर्बाद निश्चित ही सत्य होगा . अजित -शैली के नाम से आपका भागीरथ प्रयास प्रसिद्धि पायेगा
ReplyDeleteसफ़र में आज 'गदेले' पर आराम की भी पूरी व्यवस्था है:)
ReplyDeleteशुक्रिया आपका. आज में देर से आया हूँ . चाहता था यहाँ प्रचलित शब्द ' पथरना' ,'पथारी' के कुनबे के बारे में भी पूछूं पर शायद देर हो चुकी है. ये शब्द भी बिछौने के अर्थ में ही प्रयुक्त होते हैं.
आपके शब्द बोलते है………बुलवाते भी है-
ReplyDeleteकुछ इस तरह:-
#अंग-रखे ही, अब रक्षा में बाधक है,
घटते वस्त्रो के जब बढ़ते चाहक है।
#गद्दी से ही चिपक गये अब शासक है,
वे नायक, अब जनता तो खलनायक है।
अर्जुन से अब सधे निशाना तो कैसे?
पिछली सीटो पर जा बैठे चालक* है।
*राजनैतिक और शासक वर्ग के
-मन्सूर अली हाश्मी
नमस्कार सा
ReplyDeleteअंगरखा और बाॅडी से मुझे ध्यान आया कि राजस्थान के गोड़वाड़ अंचल में शर्ट या बुषर्ट के लिये एक शब्द बौडिया और बनियान के लिये बंडी शब्द भी प्रचलित
है। क्या इनका रिष्ता बाॅडी शब्द से ही है?