स्वा दिष्ट मीठे व्यंजनों की बात हो और रबड़ी का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता। खीर, बासुंदी की तरह ही रबड़ी भी दूध से बना एक ऐसा मीठा अर्धतरल पदार्थ है जिसका ज़ायका लाजवाब होता है। खीर बनाने में चावल की आवश्यकता होती है मगर मीठी रबड़ी बनाने में सिर्फ दूध काफी है। बाकी सिर्फ दो चीज़े ज़रूरी हैं- आंच और धैर्य। पहले तेज, फिर धीमी आंच पर दूध को खूब ओटा जाता है जिसमें काफी वक्त लगता है। इसीलिए कहते हैं कि सब्र का फल मीठा होता है। रबड़ी मीठी होती है मगर इसी मूल से निकला एक अन्य शब्द राबड़ी भी है जिसका स्वाद नमकीन भी होता है और मीठा भी।
रबड़ी जहां शहराती व्यंजन बन चुका है वहीं राबड़ी मूलतः खान-पान की लोक-संस्कृति में रचा-बसा व्यंजन है। उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सावन शुरू होने के बाद राबड़ी की बहार आ जाती है। राबड़ी नमकीन और मीठी दोनों तरह की बनती है। मालवा में ताजी मक्का यानी भुट्टे के दानों को पीस कर छाछ में पकाया जाता है। लपसीनुमा इस पदार्थ में अक्सर नमक ही मिलाया जाता है। मगर स्वादिष्ट बनाने के लिए अक्सर एक पंथ दो काज कर लिये जाते हैं। नमक अत्यल्प मात्रा में मिलाया जाता है ताकि भरपेट नमकीन राबड़ी खाने के बाद मधुरैण समापयेत की भावना के तहत बची हुई राबड़ी को गुड़ या शकर घोल कर खाया जा सके। मूलतः राबड़ी मीठी ही बनती थी मगर चाहे रबड़ी हो या राबड़ी, पर मीठा हमेशा ही गरीब की पहुंच से दूर रहता है, सो इसे आमतौर पर फीका या नमकीन ही बनाया जाता है। इसे गर्म नहीं बल्कि ठण्डा खाने में ज्यादा मज़ा आता है। ग्रामीणों से पूछो तो राबड़ी ही रबड़ी पर भारी पड़ती नज़र आती है।
राबड़ी शब्द राब से आ रहा है। गौरतलब है राब कहते हैं अधपके गन्ने के रस अर्थात शीरे को। राब बना है संस्कृत के द्रव शब्द से। द्रव अर्थात तरल, रस, पानी, रिसनेवाला पदार्थ आदि। जाहिर है, गन्ना इस देश की प्रमुख फसलों में है और घास परिवार के इस प्रमुख सदस्य को मानव ने प्राचीनकाल मे ही अपनी आहार-श्रंखला में शामिल कर लिया था। द्रव शब्द बना है संस्कृत की द्रु धातु से जिसमें भागना, बहना, दौड़ना, तरल होना, रिसना जैसे गतिवाचक भाव हैं। गौर करें कि तरल पदार्थों में गति का गुण होता है
यानी वे बहते हैं। बहाव में गति निहित है। इस तरह द्रु का अर्थ हुआ धारा। गौर करें पंजाब प्रांत की सतलज नदी के नामकरण में यही द्रु झांक रहा है। इसका प्राचीन नाम था शतद्रु जो शतद्रु > शतझ्रु > शतरुज > सतलुज > सतलज बन गया। शत+द्रु= शतद्रु। अर्थात सौ धाराएं। किसी ज़माने में अपने स्रोत से निकल कर सतलज नदी आगे बढ़ते हुए सौ धाराओं में बंटती रही होगी इसलिए उसका नाम शतद्र पड़ा। वैसे इसी शब्द से सतधारा शब्द की व्युत्पत्ति भी होती है। आंचलिकता का फर्क है। पंजाब में इसे सतलुज ही कहा जाता है जबकि शेष भारत में सतलज शब्द प्रचलित है। इसी तरह द्रव के देशी रूप में वर्णविग्रह हुआ द-र-व। इसमें से द का लोप हुआ और जो बचा वह राब बन गया। ध्यान रहे, हिन्दी की तत्सम शब्दावली के तद्भव रूपों में देवनागरी का व वर्ण अक्सर ब में बदलता है जैसे वैद्य से बना बैद।
यानी वे बहते हैं। बहाव में गति निहित है। इस तरह द्रु का अर्थ हुआ धारा। गौर करें पंजाब प्रांत की सतलज नदी के नामकरण में यही द्रु झांक रहा है। इसका प्राचीन नाम था शतद्रु जो शतद्रु > शतझ्रु > शतरुज > सतलुज > सतलज बन गया। शत+द्रु= शतद्रु। अर्थात सौ धाराएं। किसी ज़माने में अपने स्रोत से निकल कर सतलज नदी आगे बढ़ते हुए सौ धाराओं में बंटती रही होगी इसलिए उसका नाम शतद्र पड़ा। वैसे इसी शब्द से सतधारा शब्द की व्युत्पत्ति भी होती है। आंचलिकता का फर्क है। पंजाब में इसे सतलुज ही कहा जाता है जबकि शेष भारत में सतलज शब्द प्रचलित है। इसी तरह द्रव के देशी रूप में वर्णविग्रह हुआ द-र-व। इसमें से द का लोप हुआ और जो बचा वह राब बन गया। ध्यान रहे, हिन्दी की तत्सम शब्दावली के तद्भव रूपों में देवनागरी का व वर्ण अक्सर ब में बदलता है जैसे वैद्य से बना बैद।
गांवों में जब गन्ने से गुड़ बनाने का मौसम आता है तो मीलों दूर तक मीठी-मादक गंध छायी रहती है जो भट्टी पर पकते राब से ही आ रही होती है। इस मौसम में राब खूब पिया जाता है। इसी राब में अनाज यानी मक्का को पकाने से राबड़ी की शुरुआत हुई, जिसके अब विभिन्न प्रकार सामने आए हैं। दूध से बनी रबड़ी इसी राब से से जन्मी है। सीधी सी बात है, दानेदार शकर से परिचित होने से पहले दूध को ओटाने के बाद मिठास के लिए उसमें राब ही डाला जाता था। मिलावट के इस दौर में शहरों में मिलनेवाली रबड़ी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। दूध के मलाईदार लच्छों के लिए शहरी हलवाई अब ब्लाटिंग पेपर का इस्तेमाल करने लगे हैं जिससे दूध को ज्यादा खौलाना-ओटाना भी नहीं पड़ता। गाढ़ा दूध ब्लाटिंग पेपर को ही मलाईदार लच्छे में बदल देता है। देहात की रबड़ी आज भी मिलावट से मुक्त है।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
|
हमारे पूर्वी उप्र में राबड़ी ही कहा जाता है.
ReplyDeleteओह आज फर्क समझ में आया रबडी और राबड़ी का !शुक्रिया ! मगर क्या इसमें रबड़ जैसी श्यानता के कारण तो नहीं पड़ा इसका रबडी नाम ?
ReplyDeleteविस्मित करने वाली शब्द-यात्रा । सतलज की व्युत्पत्ति महसूस ही न की थी इस तरह । आभार ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुन्दर-
ReplyDeleteबहुत आभार.
श्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभ कामनाएं-
आपका शुभ हो, मंगल हो, कल्याण हो |
मैं जयपुर में रहता हूँ। यहाँ राबड़ी में बाजरा बरता जाता है। और साथ में प्याज भी डाला जा सकता है, ठंडा करके।
ReplyDeleteब्लाटिंग पेपर को हिंदी में स्याहीचूप नहीं कहते?
एक भूले से शब्द 'राब' की याद दिलाने के लिए धन्यवाद।
ReplyDelete'राब - द्रव- सतलज -गन्ना
' - आप की शब्द यात्रा मन के गुहा खोह में भटकते कल्पना बिम्बों सी लगती है। अंतर यही है कि उनमें तारतम्य नहीं रहता। अधिक क्या बताऊँ - मैं इस मॉडल पर आजकल बहुत सोच रहा हूँ।
मैं तो राबडी को रबड़ी का ही रूप समझता था . आज पता चला दोनों अलग अलग व्यंजन है . और विहार में तो राबडी का अर्थ शायद लालू की पत्नी से लगाया जाता होगा कुछ सालो से
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteजय हिन्द !
बहुत सुंदर जी, कभी जौ की राबडी नमकीन वाली खा या पीकर देखिये हमारे हरयाणा वाली. फ़िर बताईयेगा कि कितना आनंद आता है?
ReplyDeleteरामराम.
@हिमांशु
ReplyDeleteशुक्रिया भाई। सतलज का एक संदर्भ छूट गया था। शत+द्रु= शतद्रु। अर्थात सौ धाराएं। किसी ज़माने में अपने स्रोत से निकल कर सतलज नदी आगे बढ़ते हुए सौ धाराओं में बंटती रही होगी इसलिए उसका नाम शतद्र पड़ा। वैसे इसी शब्द से सतधारा शब्द की व्युत्पत्ति भी होती है। आंचलिकता का फर्क है।
दो दिन के सफर के बाद अभी कोटा पहुँचा हूँ। आते ही रबड़ी और राबड़ी मिल गए। राबड़ी खाए बरसों हो गए। रबड़ी का तो क्या कहना? इस का आनंद लेना हो तो मथुरा जाएँ, और किसी चतुर्वेदी की दावत में मिले असली का स्वाद मिले।
ReplyDeleteओह राब... फिर उदयपुर याद आ गया। वैसे आज गणेश चतुर्थी है मोदक के बारे में बताते तो ज्यादा प्रासंगिक होता लेकिन यह भी शानदार रहा।
ReplyDeleteगेंहू की दलिया में अगर जरुरत से ज्यादा पानी हो जाय. है तो निमाड़ में उसे राबड़ी कहते है |
ReplyDeleteवैसे आपका रबडी से राबड़ी का सफ़र बहुत अच्छा लगा |
आभार
उस दिन घर मे तीजा का उपवास था इसलिये खाने पीने की किसी चीज के बारे मे पढ़ना मना था सो आज रबड़ी के बारे मे पढ़ा .स्याही सोख्ता के दर से कई दिनो से रबड़ी खाना बन्द है लेकिन हमारे दुर्ग मे एक मालवा वालो की डेयरी है वहाँ अभी थोड़ा भरोसा बाकी है वैसे उज्जैन इन्दोर की रबड़ी याद है ।वहाँ दूध अभी भी बहुतायत मे मिलता है । बस यार अजित भाई बुलवाए ही जाओगे अब तो भूख लगने लगी ।
ReplyDelete