Tuesday, September 22, 2009

कोटा में मज़दूरों का वकील[बकलमखुद-106]

पिछली कड़ी- सरदार ने पहना कालाकोट [बकलमखुद-5]

logo baklam_thumb[19]_thumb[40][12]दिनेशराय द्विवेदी सुपरिचित ब्लागर हैं। इनके दो ब्लाग है तीसरा खम्भा जिसके जरिये ये अपनी व्यस्तता के बीच हमें कानून की जानकारियां सरल तरीके से देते हैं और अनवरत जिसमें समसामयिक घटनाक्रम,  आप-बीती, जग-रीति के दायरे में आने वाली सब बातें बताते चलते हैं। शब्दों का सफर के लिए हमने उन्हें कोई साल भर पहले न्योता दिया था जिसे उन्होंने dinesh rसहर्ष कबूल कर लिया था। लगातार व्यस्ततावश यह अब सामने आ रहा है। तो जानते हैं वकील साब की अब तक अनकही बकलमखुद के सोलहवें पड़ाव और 106वें सोपान पर... शब्दों का सफर में अनिताकुमार, विमल वर्मालावण्या शाहकाकेश, मीनाक्षी धन्वन्तरि, शिवकुमार मिश्र, अफ़लातून, बेजी, अरुण अरोराहर्षवर्धन त्रिपाठी, प्रभाकर पाण्डेय, अभिषेक ओझा, रंजना भाटिया, और पल्लवी त्रिवेदी अब तक बकलमखुद लिख चुके हैं।

रदार ने अब तक काफी साम्यवादी साहित्य पढ़ लिया था। वह जानने लगा था कि एक क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य को कैसा होना चाहिए था। मेहनतकश जनता के लिए पूरी तरह समर्पित। वही उस के लिए सब कुछ थी, बाद में सब थे। सरदार खुद को पार्टी सदस्यता के लिए सक्षम नहीं पाता था। बाराँ में ट्रेडयूनियन, किसान सभा, नौजवान सभा, स्टूडेंट फेडरेशन, और साहित्यिक-सांस्कृतिक मोर्चा बन चुके थे। इन में कार्यकर्ता निकल कर आ रहे थे। वह जानता था कि कुछ ही दिन में पार्टी के लोग उस से सदस्यता लेने के लिए कहने लगेंगे। यही हुआ भी। एक दिन महेन्द्र आए और उस से पार्टी की सदस्यता के लिए कहा। सरदार ने मना कर दिया, वह खुद को इस योग्य नहीं समझता था। लेकिन कुछ-कुछ दिनों के अंतराल से आग्रह आता रहा। फिर समझाया गया कि पार्टी कोई भी काम सदस्य को थोड़े ही दे देती है। वह भी सदस्य की क्षमता और चेतना के अनुसार निश्चय करती है। आखिर सरदार ने आठ अन्य लोगों के साथ सदस्यता ले ली। पार्टी की इकाई के लिए नौ की संख्या जरूरी थी।
काला कोट पहनने के पहले आठ महीने और बाद में नौ माह गुजर चुके थे। वह अपने उस्ताद का बहुत काम खुद करने लगा था। लोग उसे एक वकील के रूप में पहचानने लगे थे और सलाह लेने लगे थे, शायद योग्यता जाँचने के लिए ही। पर एक भी ऐसा न आया था जो उस से मुकदमा लड़वाना चाहता हो। परिवार में समझ यह थी की बेटा वकील हो गया है तो अब कमाने ही लगेगा। हुआ उस का उलटा था। वह एक अखबार को समाचार भेजने लगा था। लेकिन वहाँ से मिलने वाला धन तो जेब खर्च को भी पर्याप्त नहीं था। घर में शोभा थी, उस की अपनी जरूरतें थीं, जिन के लिए वह केवल उस से ही कह सकती थी। दादा जी और पिताजी से कोई कुछ न पूछता था। दादी और माँ से औरतें पूछती थीं। अब तो बेटा वकील हो गया है, खूब कमाता होगा? झूठ बोलना परिवार में किसी को आता न था। कहा जाता– अभी कहाँ? अभी तो सीखता है जी। अभी तो उस का खर्च भी हम ही चलाते हैं। यह एक सच वकालत के परवान चढ़ने में रुकावट बन रहा था। सरदार सोचता ऐसे, कैसे लोग उस के मुवक्किल बनेंगे? लोग तो उस वकील को पसंद करेंगे जिस के पहले ही ठाट होंगे और जिस के दफ्तर में भीड़ लगी होगी। पार्टी के विचार भी उसे झकझोरते थे कि यहाँ सिर्फ सूदखोरों और जमींदारों के मुकदमे मिलेंगे। वह विचारधारा के विरुद्ध उन्हें कैसे लड़ सकेगा। आखिर कुछ तो करना पड़ेगा। राज्य प्रशासनिक सेवा परीक्षा का नतीजा आ चुका था। वह पास हो गया था। साक्षात्कार देना था। लेकिन अंतर्द्वंद था कि जिस व्यवस्था से उसे युद्ध लड़ना है उस का अंग कैसे बन सकेगा? साक्षात्कार अच्छा हुआ, लेकिन कुछ अंकों से उस का चयन रह गया, तो वह प्रसन्न हुआ कि एक झंझट से पीछा छूटा। सरदार श्रम विधि में डिप्लोमा कोर्स भी कर रहा था, उस की परीक्षा के लिए कोटा जाना था।
बारां के आस पास गावों में किसान सभा का काम बढ़ रहा था। जीरोद गांव में किसान सभा का तहसील सम्मेलन रखा गया। सम्मेलन में बहुत लोग पहुँचे। दिन भर सम्मेलन होना था। शाम को भोजन था। लेकिन गांव पहुंचते ही गांव के साथियों ने कहा कि सरपंच के लोगों ने धमकी दी है कि वे गांव में जलूस न निकलने देंगे। यह किसान सभा को जिस में छोटे किसान और खेत मजदूर थे स्पष्ट धमकी थी। तय हुआ कि पहले भोजन कर लें, फिर जलूस निकालें और फिर सम्मेलन करें। कार्यसूची सारी बदल गई। और तो कुछ न हुआ लेकिन जलूस पर सरपंच के घर से पत्थर फिंके लोगों ने घर पर चढ़ाई कर दी। वह तो कामरेड ढंडा थे जिन्हों ने लोगों को रोक कर सरपंच और उस के गुर्गों की रक्षा कर ली, वरना बहुत कुछ हो गया होता। जलूस भी निकला और सम्मेलन भी हुआ। सरपंच का षड़यंत्र सफल न हुआ। स दिन सरदार कामरेड ढंडा के साथ
कोटा में सरदार को मज़दूरों का वकील समझा जाने लगा…गुजारे लायक आमदनी होने लगी तो उसे लगा कि वह कमरे का किराया दे सकता है और पत्नी को साथ रख सकता है…
ही ट्रेन में सवार हुआ। कोटा में ट्रेड यूनियन का बहुत काम था। चार जिलों के लिए श्रम न्यायालय कोटा में उन दिनों खुला ही था। औद्योगिक केन्द्र होने से वहाँ इस बात की अच्छी संभावना थी कि वह वकील के रूप में स्थापित हो सकता। उस के मन में कोटा में वकालत करने की बात उठने लगी। उसने कामरेड ढंडा से पूछा– क्या वह कोटा में वकालत करे तो क्या संभावना हो सकती है। वे सब समझ गए थे। उन्हों ने इतना ही कहा– म तो मजदूरों की तरफ से आप का स्वागत कर सकते हैं। आप मजदूरों का काम करेंगे तो वे हलवा पूरी का इंतजाम तो नहीं करेंगे लेकिन दाल-रोटी में कमी न आने देंगे।
रदार को और क्या चाहिए था? उस के दिमाग में योजना पनपने लगी। परीक्षा के लिए वह अपनी ममेरी बहन के घर रुका। जीजाजी से भी सलाह की तो उन की राय भी यही थी कि कोटा में काम की कमी नहीं करने वाला चाहिए। परीक्षा निपटने के बाद सरदार कोटा ही रुक गया। जीजा जी ने एक पुरानी मोपेड चलाने को दे दी। वह रोज अदालत जाने लगा। अदालत में ट्रेड यूनियन आंदोलन के दौरान बने छोटे मोटे फौजदारी मुकदमे बहुत थे। ट्रेड यूनियन ने जो वकील उन के लिए मुकर्रर किया था उस की आदतों से मजदूर परेशान थे। वकालतनामा और जमानत के फार्म जो खुद भरे जाते थे उन्हें भी वह टाइप की मशीन पर भरवाता था। पैसा मजदूर देते जो बाद में ट्रेड यूनियन फण्ड से भरे जाते। वह मजदूरों की मदद करने लगा। वकील भी लगभग मुफ्त में काम कर रहा था। उस ने भी सोचा मुफ्त के काम से पीछा छूटा। लेकिन सरदार की पहचान बन गई कि वह मजदूरों का वकील है। जिस तरह वह मजदूरों की पैरवी कर रहा था उस से कुछ मुकदमे आने लगे। जीजाजी खुद मालिकों के श्रम सलाहकार थे। उन के घर रहने में उन्हें परेशानी हो सकती थी, यही सोच कर उस ने जीजा जी का घर छोड़ दिया और ट्रेडयूनियन के दफ्तर में रहने लगा। कुछ दिनों में जब उसे लगने लगा कि इतनी आमदनी हो रही है कि वह एक कमरे के घर का किराया दे सकता है और पत्नी को साथ रख सकता है। उस ने एक कमरा रसोई किराए पर ले लिया। और बारां जा कर ससुराल से मिले बिस्तर, बरतन, अपने कपड़े, किताबें और एक केरोसीन स्टोव कर कमरे को सजा लिया। शोभा उन दिनों मायके में थी। वह एक जनवरी 1980 का दिन था जब उसे साथ ले कर वह कोटा आया। दोनों की आँखों में नए भविष्य के सपने थे।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

17 comments:

  1. ओह!! तो ऐसे कोटा में बस गये. आगे कथा का इन्तजार है.

    ReplyDelete
  2. यह है मनुष्य की जिजीविषा ,संघर्ष की कहानी ! और यह हर सेल्फ मेड व्यक्ति की कहानी है .
    साक्षात्कार अच्छा हुआ, लेकिन कुछ अंकों से उस का चयन रह गया, तो वह प्रसन्न हुआ कि एक झंझट से पीछा छूटा!
    लेकिन मैं तो फंस गया -मैं चयनित हो गया था जिसका पछतावा आज तक है !
    ई जो सामान आप लेके कोटा पहुंचे और सजाये यही आइटम (अब याद नहीं ये ससुराल के थे या घर के -सौ बिस्सा घर के ही थे -मैं १९८३ में लेकर लखनऊ पहुंचा था एक अदद पूरी तरह परावलम्बी पत्नी के साथ -क्या दिन थे वे भी ! जीवन का स्वर्ण युग !
    आप कहते रहें हम पढ़ रहे हैं तन्मयता से !

    ReplyDelete
  3. मजदूर एकता जिंदाबाद . बहुत नेक काम से शुरुआत की आपने वकालत की . मेने तो मजदूरों के वकीलों को मालिको के हाथ खेलता हुआ देखा है . आगे का इंतज़ार

    ReplyDelete
  4. संघर्षमय गाथा है, आपके जीवन की, दिलचस्प मोड़ पर आ गयी है.
    पठन में साहित्यिक रस भी मिल रहा है.

    ReplyDelete
  5. रोचक संस्मरण
    जीवन के स्वर्ण युग से सम्बंधित, अरविन्द मिश्र जी ने मेरी बात कह दी है। यह भी सच है कि हर सेल्फ मेड व्यक्ति की यही कहानी है।

    अगली कड़ी की प्रतीक्षा

    बी एस पाबला

    ReplyDelete
  6. ेक रोचक संघर्ष गाथा शायद इसी संघर्श ने उन्हें इतना कर्मशील बनाया है अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा आभार्

    ReplyDelete
  7. वकील साहब के संस्मरणों की श्रृंखला बढ़िया चल रही है।

    ReplyDelete
  8. आनंद आ गया आपकी कहानी पढ़कर ! कमोवेश आपकी पीढी के कई लोगों की ऐसी कहानी होती है. लेकिन कमाल के अनुभव हैं आपके. चलता रहे...

    ReplyDelete
  9. बहुत प्रेरक और रोचक संस्मरण। आपने अपने हर मोड़, हर रास्ते का नाम याद रखा है। स्वर्गीय कामरेड परमेन्द्रनाथ ढण्डा का दो कड़ियों से स्मरण अच्छा लग रहा है। कोटा में अपने दो वर्ष के कार्यकाल में संयोग से मैं कामरेड ढण्डा के मकान में ही रहा था। अक्सर मुलाकात होती थी। बहुत प्रेरक और ऊर्जावान व्यक्तित्व था उनका। कोटा के श्रमिक आंदोलनों के इतिहास में स्थायी जगह है उनकी।
    "झूठ बोलना परिवार में किसी को आता न था।" इस एक पंक्ति में आपकी जीवन-यात्रा और संस्कार का बीज नज़र आया।

    ReplyDelete
  10. ह्म्म...तो कोटा पहुँच गये आप।
    आगे क्या रहा?

    ReplyDelete
  11. कामरेड परमेन्द्र नाथ के बारें में इतने अच्छे तरीके से कहा जानकारी मिल सकती थी.पढ़ कर शब्द मन में सबकुछ हिला कर रखने की चेष्टा कर रहे थे.सही में जिन कुछ ब्लॉग को पढने की अफीम की तरह लत लग चुकी है उसमे आपका ब्लॉग शामिल है.

    ReplyDelete
  12. संघर्षमय लेकिन मीठी आ त्मकथा ऐसा लग रहा है हमसब (उस समय की पीढी )अक ही नाव में सवार है |
    आभार

    ReplyDelete
  13. इतने संघर्ष के बाद अपना घर चाहे छोटासा ही सही बन ही गया सदर और शोभा को बधाई . आपबीती बहुत रोचक होती जा रही है .

    ReplyDelete
  14. वाकई अच्छा लग रहा है...
    पढ़ते-पढ़ते कई बार भावुक हो उठता हूं...

    जुड़ाव है आपकी इस कथा से...धुंधली स्मृतियों ताज़ा हो रही हैं...

    ReplyDelete
  15. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  16. "पार्टी के विचार भी उसे झकझोरते थे कि यहाँ सिर्फ सूदखोरों और जमींदारों के मुकदमे मिलेंगे। वह विचारधारा के विरुद्ध उन्हें कैसे लड़ सकेगा।"
    इस तरह कहना आपकी विनम्रता को दर्शाता है. मुझे पूर्ण विश्वास है कि सत्यनिष्ठा का यह जज्बा पारिवारिक वातावरण के कारण आपमें पहले ही से कूट-कूट कर भरा था. और यह बात इसी लेख में कहे गए इस दुसरे कथन से पक्की होती है:
    "झूठ बोलना परिवार में किसी को आता न था।"

    ReplyDelete
  17. दिनेशजी से अब तक लेखन के जरिए ही मुलाकात है। मीडिया में कहा जाता है नए विचारों से ही ये चलता है। दिनेश जी के लिए एक लाइन ये कि इसे पूरा कीजिए आत्मकथा की शानदार किताब है। लोग पढ़ेंगे, कुछ और समझेंगे। अजीत वडनेरकर जी के लिए। व्यक्तिगत तौर पर भी मिल चुका हूं लेखनी का तो कायल हूं। शब्दों का सफर एक संग्रहित ग्रंथ का दर्जा रखता है। किताब के रूप में अस्तित्व में आ ही गई है। ये बकलमखुद मीडिया में एक अभिनव प्रयोग है। जब मुझे अजीत जी ने आग्रह किया था तो 5 कड़ियों में ही मैंने तब तक की कहानी समेट दी थी लेकिन, दूसरे बकलमखुद पढ़कर लगा कि खुद को और जानना समझना इसके जरिए हो सकता था।

    ReplyDelete