कि सी को जान से मार डालनेवाला हत्यारा कहलाता है, किन्तु न्याय के अन्तर्गत मृत्युदण्ड पाए व्यक्ति को मौत के हवाले करनेवाले को जल्लाद कहते हैं। हिन्दी में इसके लिए वधिक शब्द है। वधिक शब्द वध् धातु से निकले वधः से बना है। इसी कतार में आता है हिन्दी का वध शब्द जिसका अर्थ है हत्या करना, कत्ल करना, विनाश करना, मानव हत्या आदि। इसके अंतर्गत आघात, प्रहार आदि भी आते हैं। अतः वधिक में हत्यारे का भाव भी है और जल्लाद का भी। जहां जान ली जाती जाती है उस स्थान को पुराने जमाने में वधशाला या वधस्थल कहते थे। यह शब्द कसाईखाने के लिए भी सही है और फांसीघर के लिए भी। भारतीय संविधान में मृत्युदण्ड का प्रावधान है सो ऐसे दण्डभागियों के प्राण लेने का दायित्व जिस व्यक्ति पर होता है उसे वधिक कहते हैं। वधः से बने वध में चोट पहुंचाकर हत्या करने का भाव है। चूंकि भारतीय दण्ड संहिता में मृत्युदण्ड के लिए सिर्फ फांसी का तरीका ही वैध है अतः फांसी लगानेवाले व्यक्ति के तौर पर वधिक शब्द का प्रयोग तकनीकी रूप से गलत है बल्कि जल्लाद शब्द का प्रयोग इस अर्थ में एकदम सही है।
जल्लाद अरबी मूल का शब्द है जिसमें ऐसे व्यक्ति से अभिप्राय है जो अपराधियों को कोड़े मारता है, उन्हें फांसी पर लटकाता है। भारत में मृत्युदण्ड का अर्थ है फांसी की सजा। किसी को मौत के हवाले करना अपने आप में कठोर काम है, इसीलिए मुहावरे के रूप में ऐसे व्यक्ति के लिए भी जल्लाद शब्द का इस्तेमाल होने लगा, जिसके हृदय में संवेदना, दया अथवा ममता न हो। जैसे, आदमी हो या जल्लाद। यह शब्द बना है सेमिटिक क्रिया गलादा से जिसमें चारों ओर, घेरा जैसे भाव है। इसका अरबी रूप है जीम-लाम-दाल यानी जलादा। यह बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है और अरबी, फारसी, हिन्दी-उर्दू समेत कई भाषाओं में इससे बने शब्द प्रचलित हैं। अरबी में क और ज और ग ध्वनियां बहुधा आपस में तब्दील होती हैं जैसे अरबी का जमाल, मिस्र में गमाल है। उर्दू में जो कय्यूम है उसे अरब के कई इलाकों में ग़यूम भी उच्चारा जाता है। ग-ल-द धातु में बंधन का, बांधने का भाव महत्वपूर्ण है। इसीलिए इसका एक अर्थ होता है त्वचा यानी खाल। शरीर के सभी अवयव इसी खाल के नीचे सुरक्षित और अपनी अपनी जगह बंधे रहते हैं, स्थिर रहते हैं।
गौर करें कि बांधने के लिए गठान लगाना जरूरी होता है। जलादा में निहित बंधन के भाव का थोड़ा विस्तार से देखना होगा। हिन्दी में शीघ्रता के लिए एक शब्द है जिसे जल्द या जल्दी कहते हैं। इससे जल्दबाजी जैसा शब्द भी बनता है जिसका मतलब है शीघ्रता करना। उतावले शख्स को जल्दबाज कहते हैं। यह इसी धातु निकला शब्द है। जल्द का मतलब होता है कसावट, दृढ़ता, ठोस, पुख्ता आदि।
ध्यान देने की बात है कि जल्दी यानी शीघ्रता में काल के विस्तार को कम करने का भाव है। अर्थात दो बिंदुओं के बीच का अंतर कम करना ताकि फासला कम हो। नजदीकी का ही दूसरा अर्थ घनिष्ठता, प्रगाढ़ता और प्रकारांतर से मजबूती है। हालांकि व्यावहारिक तौर पर देखें तो जल्दबाजी का काम पुख्ता नहीं होता। जाहिर है किसी जमाने में जल्द या जल्दी का अर्थ पुख्तगी और पक्केपन के साथ शीघ्र काम करना था। कालांतर में इसमें शीघ्रता का भाव प्रमुख हो गया।
बंधन होता ही इसलिए ताकि उससे मजबूती और पक्कापन आए। शरीर की खाल या त्वचा के लिए उर्दू, फारसी और अरबी में एक शब्द है जिल्द। हिन्दी में जिल्द का मतलब सिर्फ कवर या आवरण होता है। किताबों के आवरण या कवर को भी जिल्द कहते हैं। नई पुस्तकों को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए उन पर जिल्द चढ़ाई जाती है। जिल्द चढ़ानेवाले को जिल्दसाज कहते हैं। अरबी में इसके शब्द भी है। पुस्तक की प्रतियों या कॉपियों को भी जिल्द कहा जाता है जैसे– किताब की चार जिल्दें आई थीं, सब बिक गईं।
उर्दू में त्वचा के लिए जिल्द शब्द का ही प्रयोग होता है। प्रकृत्ति ने शरीर के नाजुक अंगों का निर्माण करने के बाद उन पर अस्थि-मज्जा का पिंजर बनाया और फिर हर मौसम से उसे बचाने के लिए उसक पर जिल्द चढ़ाई। जाहिर है इस जिल्द की वजह से ही शरीर में कसावट आती है। ज़रा सी जिल्द फटी नहीं और सबसे पहले खून निकलता है। ज्यादा नुकसान होने पर पसलियां-अंतड़ियां तक बाहर आ जाती हैं। जाहिर है जिल्द यानी त्वचा एक बंधन है। दार्शनिक अर्थों में तो समूची काया को ही बंधन माना गया है, जिसमें आत्मा कैद रहती है।
गौर करें कि बांधने के लिए गठान लगाना जरूरी होता है। जलादा में निहित बंधन के भाव का थोड़ा विस्तार से देखना होगा। हिन्दी में शीघ्रता के लिए एक शब्द है जिसे जल्द या जल्दी कहते हैं। इससे जल्दबाजी जैसा शब्द भी बनता है जिसका मतलब है शीघ्रता करना। उतावले शख्स को जल्दबाज कहते हैं। यह इसी धातु निकला शब्द है। जल्द का मतलब होता है कसावट, दृढ़ता, ठोस, पुख्ता आदि।
ध्यान देने की बात है कि जल्दी यानी शीघ्रता में काल के विस्तार को कम करने का भाव है। अर्थात दो बिंदुओं के बीच का अंतर कम करना ताकि फासला कम हो। नजदीकी का ही दूसरा अर्थ घनिष्ठता, प्रगाढ़ता और प्रकारांतर से मजबूती है। हालांकि व्यावहारिक तौर पर देखें तो जल्दबाजी का काम पुख्ता नहीं होता। जाहिर है किसी जमाने में जल्द या जल्दी का अर्थ पुख्तगी और पक्केपन के साथ शीघ्र काम करना था। कालांतर में इसमें शीघ्रता का भाव प्रमुख हो गया।
बंधन होता ही इसलिए ताकि उससे मजबूती और पक्कापन आए। शरीर की खाल या त्वचा के लिए उर्दू, फारसी और अरबी में एक शब्द है जिल्द। हिन्दी में जिल्द का मतलब सिर्फ कवर या आवरण होता है। किताबों के आवरण या कवर को भी जिल्द कहते हैं। नई पुस्तकों को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए उन पर जिल्द चढ़ाई जाती है। जिल्द चढ़ानेवाले को जिल्दसाज कहते हैं। अरबी में इसके शब्द भी है। पुस्तक की प्रतियों या कॉपियों को भी जिल्द कहा जाता है जैसे– किताब की चार जिल्दें आई थीं, सब बिक गईं।
उर्दू में त्वचा के लिए जिल्द शब्द का ही प्रयोग होता है। प्रकृत्ति ने शरीर के नाजुक अंगों का निर्माण करने के बाद उन पर अस्थि-मज्जा का पिंजर बनाया और फिर हर मौसम से उसे बचाने के लिए उसक पर जिल्द चढ़ाई। जाहिर है इस जिल्द की वजह से ही शरीर में कसावट आती है। ज़रा सी जिल्द फटी नहीं और सबसे पहले खून निकलता है। ज्यादा नुकसान होने पर पसलियां-अंतड़ियां तक बाहर आ जाती हैं। जाहिर है जिल्द यानी त्वचा एक बंधन है। दार्शनिक अर्थों में तो समूची काया को ही बंधन माना गया है, जिसमें आत्मा कैद रहती है।
जल्लाद फांसी लगाता है। फांसी क्या है? फांसी शब्द आया है संस्कृत के पाशः से जिसका अर्थ है फंदा, डोरी, श्रृंखला, बेड़ी वगैरह। जिन पर पाश से काबू पाया जा सकता था वे ही पशु कहलाए। पाश: शब्द से ही हिन्दी का पाश बना, जिससे बाहूपाश, मोहपाश जैसे लफ्ज बने। प्राचीनकाल में पाश एक अस्त्र का भी नाम था। पाश: शब्द के जाल और फंदे जैसे अर्थों को और विस्तार तब मिला जब बोलचाल की भाषा में इससे फांस या फांसी, फंसा, फंसना, फंसाना जैसे शब्द भी बने। संस्कृत-हिन्दी का बेहद आम शब्द है पशु जिसके मायने हैं जानवर, चार पैर और पूंछ वाला
जन्तु, चौपाया, बलि योग्य जीव। मूर्ख व बुद्धिहीन मनुष्य को भी पशु कहा जाता है। पशु शब्द की उत्पत्ति भी दिलचस्प है। आदिमकाल से ही मनुष्य पशुओं पर काबू करने की जुगत करता रहा। अपनी बुद्धि से उसने डोरी-जाल आदि बनाए और हिंसक जीवों को भी काबू कर लिया। जाहिर है पाश यानी बंधन डाल कर, रस्सी से जकड़ कर जिन्हें पकड़ा जाए, वे ही पशु कहलाए। पशु यानी जो पाश से फांसे जाएं। याद रखें, किसी के जाल में फंसना इसीलिए बुरा समझा जाता है क्योंकि तब हमारी गति पशुओं जैसी होती है। फंसानेवाला शिकारी होता है और हमें चाहे जैसा नचा सकता है।
फांसी का अर्थ साफ है, गठान लगाना। जल्लाद भी यही करता है। फांसी की चौखट पर वह सजायाफ्ता को ले जाकर उसके गले में गांठ यानी फांसी लगाता है और फिर उसे लटका देता है। लटकाने से पहले वह गठान की मजबूती को परखता है। इससे भी पहले मुजरिम के वजन जितनी रेत की बोरी या दूसरा भार उसी फंदे पर लटका कर देखा जाता है ताकि ढीले फंदे की वजह से सजायाफ्ता को तकलीफ न हो। अब जान जाने की हकीकत से बड़ी तकलीफ भला और क्या होगी? गनीमत यही है कि कसाई तो जान लेने के बाद खाल तक उतारता है। जल्लाद के हिस्से जिल्द उतारना यानी खाल उतारने की जिम्मेदारी नहीं और फांसी पाए व्यक्ति की सजा में खाल यानी जिल्द उतरवाना शामिल नहीं।
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बेहद ज्ञानवर्धक, पाश से पशु तो वाकई जबर्दस्त है..कई बार तो शब्दों के आपसी संबंध चकित कर देते हैं.
ReplyDeleteबेहद उम्दा आलेख । इतना आश्चर्य शब्दों की क्रियाओं और संबंधों पर अपने अध्ययन के दौरान भी नहीं हुआ, जब कभी भाषा विज्ञान की कुछ पस्तकें पढ़ी । शब्दों का सफर ने असली कलई खोली । आभार ।
ReplyDeleteअजित भाई!
ReplyDeleteप्राथमिक शिक्षा के दिनों में स्काउटिंग बहुत की। उन दिनों गाँठें और फाँसे सिखाई गई थीं जिन के लिए अंग्रेजी शब्द नॉट, हिच और बैंड का प्रयोग किया जाता है। जैसे घावों के ऊपर पट्टी को अंतिम रूप से बांधने के लिए रीफ नॉट का उपयोग किया जाता है। किसी रस्सी को किसी स्तंभ से बांधने के लिए 'क्लोव हिच'यानी खूंटा फाँस का और किसी मोटी रस्सी को पतली रस्सी से जोड़ने के लिए 'शीट बैंड' का। इन सभी को सामान्य रूप से गाँठें भी कहा जाता है। लेकिन तकनीकी रूप से ये तीनों अलग हैं। इसी तरह जो फाँसी है उस में एक हिच के प्रयोग से एक लूप बनाया जाता है। यह लूप एक फांस का काम करता है यदि किसी हुक या खूंटे में इस लूप को डाल कर खींचा जाए तो खूंटे पर रस्सी का बंधन दबाव के समानुपाती क्रम में अधिकाधिक तब तक कसता चला जाता है जब तक कि रस्सी उस दबाव को सहन करती है। इस एक हिच से बनाए गए लूप को ही फाँसी कहते हैं। वैसे यदि हाथ या पैर में लकड़ी आदि का तीखा तिनका घुस जाए तो उसे भी फांस कहते हैं, हालांकि वह सूक्ष्म कांटा होता है लेकिन कहा यही जाता है कि फाँस घुस गई।
लिजिये, इस बार द्विवेदी जी के यहाँ से होकर आप तक पहुँचे गठान ढूंढते..हद ही हो गई.
ReplyDeleteआजित जी ,
ReplyDeleteआपके साथ इस सफ़र पे चलते जाने का अपना ही मजा है और शब्दों की उत्पत्ति उनसे जुडी कहानियों का तो कहना ही क्या ...बहुत ही दिलचस्प ..जल्लाद ,फ़ांसी,
१.पंजाबी में 'पशु' को पुराने लोग 'पहु' बोलते थे. कुँए की ओर पशु को लेकर जाने वाले रासते को 'पैहा' बोलते हैं. एक मुहावरा है ' सैहे की नहीं, पैहे की पढ़ी है' मतलब फसल में जिस जगह से सैहा (खरगोश) गुजर जाए वो आम रास्ता बन जाएगा और यह किसान के लिए चिंता की बात है.
ReplyDelete२.पंजाबी में पुराने लोग पैसे को भी 'पैहा' ही बोलते हैं जिस बात से कई लोग 'पैसे' को 'पशु' से निकला शब्द मानते हैं. मैं जानता हूँ कोष पैसे की व्युत्पति पाद+इका+सदृशकः करते हैं लेकिन शंका रहिती है.
३.अंग्रेजी का शब्द फी(fee) जिसको हम फीस बोलते हैं 'पशु' का सुजाति है, पुरानी अंग्रेजी में ' मुद्रा, सम्पति, पशु' के लिए 'फिहू'(feoh) शब्द था.
अजित जी,
ReplyDeleteआज आप ने सही तरह से समझाया कि शादी और फांसी में क्या रिश्ता होता है...पहले मोहपाश, बाहुपाश, फिर माइंडवाश...उसके बाद तो आदमी ज़िंदा लाश...यानि कठपुतली...रिमोट मैडम के हाथ में...
जय हिंद...
वध के बारे में कहीं पढ़ा है के जनहित में की गई हत्या वध कहलाती है .
ReplyDeleteऔर पशु को पशु क्यों कहते है आज समझे
बेहद ज्ञानवर्धक। बढ़िय पोस्ट।आभार।
ReplyDelete@बलजीत बासी
ReplyDeleteफीस और पशु के रिश्ते पर तीन साल पहले एक पोस्ट लिखी जा चुकी है बलजीत जी। पैसे और पशु का रिश्ता क्या है यह आप उक्त पोस्ट पढ़ कर जान जाएंगे। अलबत्ता व्युत्पत्तिमूलक रिश्तेदारी कुछ नहीं है। पद्म+अंश से पैसे की व्युत्पत्ति पाद+इका+सदृशकः की तुलना में ज्यादा तार्किक है। विस्तार से से देखें सिक्का श्रंखला पर लिखी तेरहवीं कड़ी।
@बलजीत बासी
ReplyDeleteपंजाबी में खरगोश के लिए सेहा शब्द का आपने उल्लेख किया है दरअसल वह संस्कृत के शश का ही अपभ्रंश रूप है जिसका मतलब होता है खरगोश। शशक इससे ही बना है। चन्द्रमा का शशांक नाम भी इसी वजह से है। ध्यान से देखने पर चन्द्रमा में कभी कभी बैठे हुए खरगोश की आकृति नजर आती है। अर्थ है जिसके अंक में अर्थात गोद में शश बैठा हो उसे शशांक कहते हैं। चन्द्रमा श्रंखला की चौथी कड़ी देखें।
English 'fee' and our 'pashu' are both from Proto-Indo-European *pek- to pluck which is understood to mean 'to pluck fleece'So any Indo-European cognate means 'whose fleece is plucked' ie sheep, hence livestock, cattle, wealth.My question is where the Sanskrit 'pash'
ReplyDelete(snare,string,chain) stands vis-a-vis PIE *pek- to pluck.
बहुत ग्यानवर्द्धक पोस्ट है। धन्यवाद ।
ReplyDelete@बलजीत बासी
ReplyDeleteबलजीतजी, आप गलत जगह से संदर्भ उठा रहे हैं। एटिमऑनलाईन में सही संदर्भ है- PIE *peku- "cattle" (cf. Skt. pasu, Lith. pekus "cattle;" L. pecu "cattle," pecunia "money, property")। प्रोटो इंडो यूरोपीय भाषा परिवार एक कल्पना मात्र है। धातुएं भी स्वतंत्र रूप में नहीं होती बल्कि भाषाओं के प्राकृत रूपों के आधार पर विद्वानों नें उसकी कल्पना की है। एक ही मूल से निकला शब्द कई कालखण्डों में, कितने भाषाई समूहों से होते हुए गुजरा है; उन समूहों का खान-पान, व्यवहार, संस्कृति क्या थी जैसे अनेक तथ्यों का प्रभाव उस मूल धातु से विकसित हुए शब्दों पर पड़ता है।
पशु प्राचीनकाल से सम्पत्ति रहा है। पशु और फीस वाली दोनों पोस्ट शायद आपने पढ़ी नहीं हैं। वस्तु-विनिमय के दौर में पश्चिमी समूहों में भी मूल पशु का अर्थ सम्पत्ति या भुगतान से ही था। इस संदर्भ में विभिन्न भाषायी संदर्भों के मद्देनजर विद्वानों नें peku निर्धारित की। फ्रैंकिश में इसका रूप fehu-od था। मनुष्य की आदिम शब्दावली के प्रारम्भिक शब्दों में पाशः रहा है। पशु और फीस की कतार में सबसे पहली पायदान पर पाश साफ साफ नजर आ रहा है। पाश से पशु बना। बाद में यह पशुधन हुआ। दिक्कत इसलिए हो रही है कि आप मेरी पोस्ट के संदर्भ में गलत जगह से हवाला दे रहे हैं। ध्यान रहे उक्त धातु संदर्भ फाइट के संदर्भ में आया है। आप से अनुरोध है कि प्रतिक्रिया देने में जल्दबाजी न करें।
पशु और फीस वाली आपकी पोस्ट पढ़ कर ही मैं ने यह प्रतिक्रिया दी थी. आप ने लिखा है, "संस्कृत का पशु ही इंडो रोपीय भाषा परिवार में घुस कर पेकू बना। वहां से लैटिन में प्रवेश हुआ तो फेहू हो गया। उसके बाद बना प्राचीन इंग्लिश का फीओ।" यही मेरा सवाल है हम जिस चीज का मतलब "फंदा" लेकर "पशु" बना रहे हैं दुसरे लोग उसका मतलब उन तोढ़ना लेकर भेड बनाते हुए फीओ वगैरा पर पहुंचते हैं . मैं ने संदर्भ गलत नहीं उठाए . यह फाइट के संदर्भ में ही नहीं जगह जगह है. कोई भी यूरपी डिक्शनरी पैकू का मतलब (उन) तोढ़ना ही बताती है. खैर यह बहस तो लंबी है. मैं तो आप से सीख ही रहा हूँ की . आप की बात सही है, मैं जल्दबाजी कर जाता हूँ, आप ने मेरी कमजोरी पकढ़ ली.
ReplyDeleteआपका भाषा का ज्ञान सबको ज्ञानी बना रहा है.
ReplyDeleteआभार .
रोचक. ज्ञानवर्धक. बताये, क्या ये सब ज्ञान पुस्तक रूप में मिलेगा?
ReplyDelete@डॉ टी एस दराल
ReplyDeleteडॉक्टसाब, मैं तो खुद अभी सीखने-समझने की प्रक्रिया से गुजर रहा हूं। इसी के तहत आपसे वह सब साझा कर रहा हूं। ज्ञानी होने का गुमान कभी न आए मन में, ईश्वर से यही कामना करता हूं। सफर में आप सबके होने के सुख के साथ जिम्मेदारी का भी एहसास है।
शुक्रिया
@दिनेशराय द्विवेदी
ReplyDeleteसुबह आपकी टिप्पणी पढ़ कर कहना चाहता थी कि इस अनुभव को आपने बकलमखुद में क्यों नहीं डाला। सोचा कि क्यों दुखती रग छेड़ूं। आप वैसे ही बकलमखुद में अपनी अनकही के ज्यादा लंबा हो जाने को लेकर चिंता पाल रहे थे। फिर सोचा कि ये स्वतंत्र पोस्ट बन सकती है, आपके यहां। तब तक नीचे के लिंक पर ध्यान नहीं गया था। आपकी पोस्ट पर टिप्पणी कर चुकने के बाद ध्यान आया तब तक बिजली चली गई थी।
दिल की बात अब कह रहा हूं कि आपने इसे स्वतंत्र पोस्ट बनाया, उसका शुक्रिया।
@ अजित जी,
ReplyDeleteआप की शिकायत वाजिब है। शायद बकलम खुद में मेरी चुनी गई फॉर्म की परेशानी मेरे सामने रही। मैं खुद को दूर खड़ा हो कर देखता रहा। ये बात तो कल आप की पोस्ट पढ़ कर ध्यान आई। पहले आप की पोस्ट पर टिप्पणी की। उसी दौरान गाँठों के लिए सर्च की तो शानदार वेबसाइट मिली। उसे साँझी करने का लोभ संवरण नहीं कर सका। स्काउटिंग का जीवन एक अलग ही अनुभव है। आप की यह टिप्पणी पढ़ कर समझ में आ रहा है कि इसे बकलम खुद में होना चाहिए। मुझे हमेशा यह मलाल रहता है कि मै योजनाबद्ध रूप से शायद कभी कुछ नहीं कर पाउंगा। चीजें इतनी तेजी के साथ सामने आती हैं कि योजना धरी रह जाती है। जो सामने होता है उसी पर पिल पड़ता हूँ।
'वधिक' और 'जल्लाद' समानार्थी नहीं होते फिर भी वे समानार्थी मान लिए गए हैं। आपकी यह पोस्ट वास्तविकता उजागर करती है।
ReplyDeleteजय हो! बांचकर काफ़ी ज्ञान मिला। फ़िर से जय हो।
ReplyDeleteअपनी तो अरबी कमज़ोर है। फिर भी मेरे ज्ञान अनुसार 'जल्लाद' में 'कसाव' का भाव नहीं है। 'जलद' का मतलब चाबुक आदि से मारना है, कुछ ऐसे की इसमें चमड़ी के भाव भी हैं। जैसे चमड़ी उधेडना। इसके आगे इसका भाव तलवार आदि से मारना भी है। जल्लाद में यह मारने वाला भाव है। जिल्द में भी ढकने वाला भाव है , कसने वाला नहीं . आप थोडा और गौर करें। वैसे मैं निश्चित नहीं हूँ। Baljit Basi
ReplyDelete@baljit basi
ReplyDeleteमैने बांधना के साथ कसना लिखा है । अन्य कोश कड़ा, कठोर करना जैसा अर्थ भी बताते हैं । आशय एक ही है । जल्लादा क्रिया में बांधने का भाव है । कसने का आदि भाव टाइट करना है न कि स्क्रू कसने वाली क्रिया । दो छोर पकड़ कर बांधने की क्रिया में कसना स्पष्ट है । मुझे नहीं लगता कि बात अगर पल्ले पड़ रही है तो कोई दिक्क़त है । भाव स्पष्ट करने से आशय है । मैने ये नहीं कहा कि अर्थ ये है, मैं आशय बता रहा हूँ ।